सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Sunday, March 7, 2010
क्या दयानन्द जी को हिन्दू सन्त कहा जा सकता है ? unique preacher
सत्यार्थ संवाद प्रकाश
{1} आओ मिलकर चलें कल्याण की ओर
http://satyagi.blogspot.com/2010/02/blog-post.html
आदरणीय आर्यबन्धु सौरभ आ़त्रेय जी ,
आपने मेरी पुस्तक ‘दयानन्द जी ने क्या खोजा, क्या पाया ?’ पर अपने विचार प्रकट किये
इसके लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
आदरणीय आर्यबन्धु सौरभ आ़त्रेय जी ,
आपने मेरी पुस्तक ‘दयानन्द जी ने क्या खोजा, क्या पाया ?’ पर अपने विचार प्रकट किये
इसके लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
आपत्ति - मुस्लिम लोगों को और कुछ हिन्दुओं को भी भारतीय या हिन्दु सन्तों में सबसे अधिक समस्या ‘महिर्षी दयानन्द सरस्वती जी’ से होती है।
निराकरण- पहली बात तो यह है कि न तो दयानन्द जी स्वयं को हिन्दू कहते या मानते थे और न ही बहुसंख्यक सनातनी हिन्दुओं के आचार्यों-शंकराचार्यो ने उन्हें कभी संत घोषित किया है । जिन लोगों को जनता हिन्दू संत मानती है उन्हें दयानन्द जी ने अज्ञानी और भ्रष्ट बताया है। दयानन्द जी की मान्यता के विपरीत उन्हें हिन्दू कहना और उनकी गिनती लोगों के साथ करना जिन्हें दयानन्द जी अज्ञानी मानते हैं, क्या दयानन्द जी का अपमान नहीं कहलायेगा ?
दूसरी बात यह है कि हिन्दुस्तान में लाखों सन्यासी भीख माँग कर खाते हैं और अपने-अपने मतों का प्रचार भी करते हैं। दयानन्द जी भी यही करते तो उनसे किसी को समस्या न होती लेकिन जब वे पूर्वकालीन विद्वानों को गालियाँ देते हैं तो उनके प्रति श्रद्धा रखने वाले हिन्दू-मुस्लिम श्रद्धालुओं को कष्ट पंहुचना स्वाभाविक है।
किसी से असहमति जताने के नाम पर उसे गालियाँ देना और उसका मज़ाक़ उड़ाना उचित नहीं होता। इससे समाज में द्वेष फैलता है और संघर्ष ही बढ़ता है और उसका नुक्सान व्यक्ति को स्वयं भी उठाना पड़ता है जैसे कि स्वयं स्वामी जी को अपने प्राण गवांने पड़े क्योंकि उन्होंने राजा की प्रेमिका के प्रति तिरस्कारपूर्ण “शब्द कहे थे।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
25 comments:
kise bewakoof bana rahe hain aap? apna ghar sudhariye pahle.
kise bewakoof bana rahe hain aap? apna ghar sudhariye pahle.
दयानन्द जी संत थे
कुछ भी कह देते हो बगेर सोच समझे बोल देना तुम्हारा नियम बन चुका
aapke sawal par jawab ka mujhe bhi intezar he dekhe dost kya kehte hen meri nazar men woh sant nahin the
achhi baat kahi doctor bhai
लगता है कैरानवी और सलीम का मोर्चा इन्होंने संभाल लिया है…।
क्यों भाई, क्या दुनिया में ज़ाकिर नाईक जैसे झूठे और मक्कार के अलावा कोई और धर्मगुरु है ही नहीं? तुम्हारी बुद्धि के मुताबिक यह हो भी सकता है, क्योंकि जब तुम लोग एक किताब से ही चिपके बैठे हो तो तरक्की क्या करोगे… और दयानन्द को कोसोगे ही, क्योंकि वह तुम्हारे कुतर्क का जवाब भी तर्क से देते हैं…
@ aadarniya hitler ji
apki umar dekh kar ummid jaagi thi k aap mere sawal ko hal karenge
par
afsos ...
@sir citizen
aap ko main apne ghar ka hi member samajta hoon.
aap bhi to vasudha ko kutumb mante hain.
phir tere mere ka bhed kyun phailate ho ?
@muk ji
hamne kuchh ghalat kah diya hai to aap hi soch samajh kar sahi bat bata dijiye .
मान नहीं रहे
@ PARAM JI
aap manayenge to zuroor man jayenge .
Priy Anwar Jamal Bhai
Pahale apne gyan ko badhawo aur ise padho:-
Kaaba a Hindu Temple?
[Note: A recent archeological find in Kuwait unearthed a gold-plated statue of the Hindu deity Ganesh. A Muslim resident of Kuwait requested historical research material that can help explain the connection between Hindu civilisation and Arabia.]
Was the Kaaba Originally a Hindu Temple?
By P.N. Oak (Historian)
Glancing through some research material recently, I was pleasantly surprised to come across a reference to a king Vikramaditya inscription found in the Kaaba in Mecca proving beyond doubt that the Arabian Peninsula formed a part of his Indian Empire.
The text of the crucial Vikramaditya inscription, found inscribed on a gold dish hung inside the Kaaba shrine in Mecca, is found recorded on page 315 of a volume known as ‘Sayar-ul-Okul’ treasured in the Makhtab-e-Sultania library in Istanbul, Turkey. Rendered in free English the inscription says:
"Fortunate are those who were born (and lived) during king Vikram’s reign. He was a noble, generous dutiful ruler, devoted to the welfare of his subjects. But at that time we Arabs, oblivious of God, were lost in sensual pleasures. Plotting and torture were rampant. The darkness of ignorance had enveloped our country. Like the lamb struggling for her life in the cruel paws of a wolf we Arabs were caught up in ignorance. The entire country was enveloped in a darkness so intense as on a new moon night. But the present dawn and pleasant sunshine of education is the result of the favour of the noble king Vikramaditya whose benevolent supervision did not lose sight of us- foreigners as we were. He spread his sacred religion amongst us and sent scholars whose brilliance shone like that of the sun from his country to ours. These scholars and preceptors through whose benevolence we were once again made cognisant of the presence of God, introduced to His sacred existence and put on the road of Truth, had come to our country to preach their religion and impart education at king Vikramaditya’s behest."
For those who would like to read the Arabic wording I reproduce it hereunder in Roman script:
"Itrashaphai Santu Ibikramatul Phahalameen Karimun Yartapheeha Wayosassaru Bihillahaya Samaini Ela Motakabberen Sihillaha Yuhee Quid min howa Yapakhara phajjal asari nahone osirom bayjayhalem. Yundan blabin Kajan blnaya khtoryaha sadunya kanateph netephi bejehalin Atadari bilamasa- rateen phakef tasabuhu kaunnieja majekaralhada walador. As hmiman burukankad toluho watastaru hihila Yakajibaymana balay kulk amarena phaneya jaunabilamary Bikramatum".
Mecca, therefore, followed the Varanasi tradition (of India) of providing a venue for important discussions among the learned while the masses congregated there for spiritual bliss. The principal shrines at both Varanasi in India and at Mecca in Arvasthan (Arabia) were Siva temples. Even to this day ancient Mahadev (Siva) emblems can be seen. It is the Shankara (Siva) stone that Muslim pilgrims reverently touch and kiss in the Kaaba.
The Islamic term ‘Eed-ul-Fitr’ derives from the ‘Eed of Piters’ that is worship of forefathers in Sanskrit tradition. In India, Hindus commemorate their ancestors during the Pitr-Paksha that is the fortnight reserved for their remembrance. The very same is the significance of ‘Eed-ul-Fitr’ (worship of forefathers).
गुरू जी, आप का सर्वधर्म ज्ञान अतुलनीय है, आपकी प्यार बढाने वाली बातें सुनके जानके ही तो हमने आपको अपना गुरू बनाया थे,
गुरू जी श्री तारकेश्वर जी की बात धयान से सुनियेगा, यह बहुत अच्छे विचारों वाले इन्सान हैं, इनकी जितनी तारीफ की जायेगा कम है
TARKESHWAR GIRI JI,
Aap ye kya base less baten kar rahe hain, agar aap se koi in baaton ka authentic proof maang le to aap hum hindus ko aur paeshani mein dal denge uper se ye aur kaha jaega ki hindus to andh-vishvasi hain aankhen bannd kar ke kuch bhi maan lete hain,waise hi ye anwar jamal ji jo ki koi research scholar lagte hain aur hindu dharm granthon aur bhatya sanskriti par kafi gehri drishti rakte hain,har baat ko blog bana kar net par daal dete hain,aur jahan tak maine hindu dharm granthon aur islami grantho ka adhyan kiya hai us ke aadhaar par mein is nishkarsh par pahuncha hun ki muslims ki aastha wohi hai jo mool hindu granth kehte hain pa hindus itne vicharon,pooja padtiyon,mato,varno,pantho,babaon aur aadambaron main ulajh gaen hain ki agar koi muslim hindu se ye pooch le ki tum apne hi grantho ke virudh dharmaachran kyon karte ho? to is ka koi uttar hindus ke paas nahi.Aur jahan tak arab mein ganesh ji ki pratima aur uski upaasna ke pramaan arab mein milte hain to iska inkaaar muslims kahan karte hain?wo to kehte hain ki kaba mein 365 idols ki pooja hoti thi,magar ye pooja authentic hindu dharm grantho ke virudh thi, jaise...yajur ved mein likha hai;
na tasya pratima asti yasya nam mahadyasha(yv32:3)arthaat ishvar ki koi pratima nahi uske naam ka hi yash hai.
yajur ved mein hi doosre isthan par kaha gaya hai ki...andhantama pravishanti ye asambhooti mupaasate tato bhooya iww tey tamo ya oo sam bhoot yatham rataha(40:9)arthaat,wo log nark ke andkaar mein hain jo asambhuti (jisko banana asambhav hai )ki upasna karte hain ,aur wo log to us se bhi gehre andhkar wale nark mei hain jo sambhuti(jis ko banana sambhav hai)ki upasna karte hain
सनातन धर्म में 'नेति-नेति' की संस्कृति रही है। किसी भी चीज को आंख मूँदकर मानना उसकी प्रकृति में नहीं है। अन्य मजहबों के विपरीत हिन्दू धर्म में सदा शास्त्रार्थ का सर्वश्रेष्ठ स्थान रहा है। सनातन धर्म में किसी शंकराचार्य को यह 'ठेका' नहीं दिया गया है कि वह किसी को 'सर्टिफिकेट' या 'फतवा' दे कि वह हिन्दू है या नहीं। सनातन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता उसका खुलापन (open mindedness) है। वह हर विषय को 'शास्त्रार्थ (चर्चा) के योग्य' मानता है किसी भी चीज को अन्तिम सत्य नहीं मानता। हिन्न्दू किसी एक पुस्तक को अपना सर्वस्व और अन्तिम सत्य नहीं मानता। वह सतत सत्यान्वेषण में विश्वास रखता है। सत्यान्वेषण के लिये सम्यक आलोचना (तर्क सहित आलोचना) जरूरी है। यही दयानन्द जी ने किया है। इसके पहले भी आचार्यों ने ऐसा किया है। हमारे यहाँ द्वैत-अद्वैत-विशिष्टाद्वैत है, शून्यतावाद है; एक नहीं छ: शास्त्र हैं जो पूर्णत: आस्तिक से लेकर पूर्णत: नास्तिक तक के 'स्पेक्ट्रम' को पूरा करते हैं।
बहुत पुरानी बात तो छोड़िये, आधुनिक दर्शन में किसी भी 'वाद' पर मतैक्य नहीं है। कोई व्यवहारवाद लेकर आया तो कोई आदर्शवाद लेकर तो कोई 'भाववाद', कोई 'अनुभववाद', कोई 'अज्ञेयवाद', कोई 'भौतिकवाद' और कोई कुछ। यह 'खुले दिमाग की सोच' आधुनिकता की विशेषता है जो हिन्दू सदियों से करता आया है और कर रहा है। दयानन्द जी इसी संस्कृति के नवीनतम् उदाहरण हैं। इसीलिये कोई आश्चर्य नहीं कि उनके द्वारा चलाये गये आर्यसमाज ने सूर्य के समान तेजस्वी हजारों चिन्तक, समाजसेवी, स्वतंत्रता-संग्रामी पैदा किये जिन्होने भारत (और पाकिस्तान का भी) सर्वश्रेष्ठ हित साधा।
मैंने भी तुम्हारे द्वारा दिया गया लिंक खोला ओर पढ़ा. उसमें तो कहीं भी झूठ नहीं दीखता. दयानंद जी तो कोई कोई छोटे-मोटे संत नहीं बल्कि एक महान हिंदू संत या महर्षि थे. मैंने उनकी सत्यार्थ प्रकाश अभी हाल ही में पढ़ी है, उस पुस्तक के आरम्भ ओर अंत दोनों पर उन्होंने यह घोषणा कर रखी है कि मैं कोई नया मत नहीं चला रहा हूँ केवल सत्य को जानना ओर जनवाने का मेरा उद्देश्य है फिर भी तुम एक महान झूठ बोल रहे हो. पूरी पुस्तक में सब कुछ सत्य लिखा है ओर उन्होंने तुम लोगो को भी दर्पण दिखा दिया है इसलिए अपनी वास्तविकता जान कर आप बोखला गए हैं. अब हिंदुओं में कौन संत है ओर कौन नहीं ये तुम जैसे लोगो से सीखा जायेगा, हा हा हा ... मजा आ गया दोस्त.
bahoot khoob !!!
मज़ाक़ उड़ाना उचित नहीं होता।
aap sabhi bandhuon ka shukriya.
giriji
aur
anunad ji
ke vaktaya ka jawab mukammal post mang raha hai . in dono subjects par insha Allah jadi hi baat hogi .
Tarkeshwar Giri Ji Dhanyabaad, Apne bahut achha likha , aap iske liye sukriya ke patra hain. Kripya eisa hi likte rahe ahum sab ka gyaan khaaskar Musalmaan bhaiyon kaa.
ek baar phir dhanya baad
Dr Anvar tumne ek "Vishv Gaurav" ke naam kii jhooti ID bana rakhi... Hai tu jaat ka musalmaan na....
You are heartily invited to Arya Samaj community on Orkut. Please post your question there.
In short I will say... Hindu is colloquial nomenclature which has been accepted by Indian masses, so problem is not with the people holding that tag but with name. If you call your parrot by name of pigeon, though he may respond to namecall of pigeon but won't change it into pigeon. Anyways all this are useless talk, if you understand the real purpose of your existence you won't bother about all this.
For other doubt clearance please frame proper question.
Tamso ma jyotirgamay.
आज दयानन्द जी से अधिक ज्ञानियों का युग है तभी तो सत्यार्थ प्रकाश से यह सत्य बात हटा दी गयी?
सत्यार्थ प्रकाशः जिनके करोडों मानने वाले हों उन्हें झूटा और अपने को सच्चा जाहिर करे, उससे बढकर झूटा मज़हब कौन है?
http://dayanandonved.blogspot.com/2010/12/blog-post.html
Post a Comment