सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Sunday, October 23, 2011

सारी धरती एक देश है

धरती एक राज्य है और इस धरती पर आबाद मनुष्य एक विशाल परिवार हैं।
राजनीतिक सीमाएं आर्टीफ़ीशियल हैं। यही वजह है कि ये हमेशा बदलती रहती हैं। ये केवल फ़र्ज़ी ही नहीं हैं बल्कि ग़ैर ज़रूरी भी हैं। किसी देश के पास आबादी कम है लेकिन उसने ताक़त के बल पर ज़्यादा ज़मीन और ज़्यादा साधन हथिया लिए हैं जबकि किसी देश के पास आबादी ज़्यादा है और उसके पास ज़मीन और साधन कम रह गए हैं।
राजनीतिक सीमाएं अपने पड़ोसी देशों के प्रति शक भी बनाए रखती हैं जिसके कारण अपनी रक्षा के लिए विनाशकारी हथियार बनाने पड़ते हैं या बने बनाए ख़रीदने पड़ते हैं। इस तरह जो पैसा रोटी, शिक्षा और इलाज पर लगना चाहिए था वह हथियारों पर ख़र्च हो जाता है।
चीज़ें अपने इस्तेमाल के लिए कुलबुलाती भी हैं। हथियार कुलबुलाते हैं तो जंग होती है और इस तरह पहले से बंटी हुई धरती और ज़्यादा बंट जाती है और पहले से ही कमज़ोर मानवता और ज़्यादा कमज़ोर हो जाती है।
काला बाज़ारी, टैक्स चोरी, रिश्वतख़ोरी, विदेशों में धन जमा करना, जुआ, शराब और फ़िज़ूलख़र्ची के चलते हालात और ज़्यादा ख़राब हो जाते हैं। लोगों की सोच बिगड़ जाती है। लोग अपनी आदतें और अपनी व्यवस्था बदलने के बजाय इंसान को ही प्रॉब्लम घोषित कर देते हैं।
इंसान की पैदाइश पर रोक लगा दी जाती है।
निरोध, गर्भ निरोधक गोलियां और अबॉर्शन की सुविधा आम हो जाती है और नतीजा यह होता है कि केवल विवाहित जोड़े ही नहीं बल्कि अविवाहित युवक युवती भी सेक्स का लुत्फ़ उठाने लगते हैं। मूल्यों का पतन हो जाता है और इसे नाम आज़ादी का दे दिया जाता है।
लोग दहेज लेना नहीं छोड़ते लेकिन गर्भ में ही कन्या भ्रूण को मारना ज़रूर शुरू कर देते हैं। लिंगानुपात गड़बड़ा जाता है। जिन समाजों में बच्चों की पैदाइश को नियंत्रित कर लिया जाता है वहां बूढ़ों की तादाद ज़्यादा और जवानों की तादाद कम हो जाती है। बूढ़े रिटायर होते हैं तो उनकी जगह लेने के लिए उनके देश से कोई जवान नहीं आता बल्कि उनकी जगह विदेशी जवान लेने लगते हैं। देश अपने हाथों से निकलता देखकर वे फिर अपनी योजना को उल्टा करने की घोषणा करते हैं लेकिन तब तक उनकी नौजवान नस्ल को औलाद से आज़ादी का चस्का लग चुका होता है।
चीज़ बढ़ती है तो वह क़ायम रहती है और जो चीज़ बढ़ती नहीं है वह लाज़िमी तौर पर घटेगी ही और जो चीज़ घटती है वह ज़रूर मिट कर रहती है।
ताज्जुब है कि लोग बढ़ने को बुरा मानते हैं और नहीं जानते कि ऐसा करके वे अपने विनाश को न्यौता दे रहे हैं।
विनाश के मार्ग को पसंद करने वाले आजकल बुद्धिजीवी माने जाते हैं।
मानव जाति को बांटने वाले और विनाशकारी हथियार बनाने वाले भी यही बुद्धिजीवी हैं।
मानव जाति की एकता और राजनैतिक सीमाओं के बिना एक धरती पर केवल एक राज्य इनकी कल्पना से न जाने क्यों सदा परे ही रहता है ?
जो कि मानव जाति की सारी समस्याओं का सच्चा समाधान है।

Thursday, October 20, 2011

धर्म का दावा करने वालों की हक़ीक़त

सनातन है समर्पण और आज्ञापालन की रीत
ईश्वर सदा से है और एक ही है। पूर्ण समर्पण भाव से उसकी आज्ञा का पालन ही धर्म है और यह धर्म आज से नहीं है बल्कि सनातन काल से है।
इस्लाम का अर्थ है समर्पण और आज्ञापालन।
दरअसल इन शब्दों से इनके अर्थ का ग्रहण करना चाहिए लेकिन लोगों ने इन्हें लेबल बना दिया है।
चाहे कोई ऐसे दर्शन पर चलता हो जो कि अभी कल ही पैदा हुआ है लेकिन वह खुद को सनातन धर्मी कहता है तो समाज उसे सनातन धर्मी ही मान लेता है।
ऐसे ही चाहे एक आदमी पूरे दिन ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन ही करता रहता हो लेकिन वह खुद को मुस्लिम कहता है तो समाज उसे मुस्लिम मान लेता है।
अपने हिंदू भाईयों के बारे में हम कुछ कहेंगे तो वे इसे अन्यथा ले सकते हैं लिहाज़ा यहां हम अपने मुसलमान भाईयों के आचरण की एक मिसाल लेते हैं।
दरअसल यह दो टिप्पणियों का संपादित अंश है, जिसे हमने वर्ष 2010 ई. में तहरीर किया था।
मुसलमानों का परम चरम पतन
चार साल पहले ग़ालिब के प्रशंसकों ने दिल्ली सरकार के सहयोग से ग़ालिब की हवेली को उसकी पुरानी सूरत में खड़ा कर दिया है । यह हवेली बल्लीमारान , दिल्ली में है और तब से गाने बजाने और नाचने का आयोजन हर साल होता है , जिसे सांस्कृतिक आयोजन कहा जाता है और इसमें गुलज़ार जैसे साहित्यकार भी भाग लेते हैं । इस समारोह का आयोजन यादगारे ग़ालिब के नाम से नृत्यांगना उमा शर्मा साहित्य कला परिषद के सहयोग से करती हैं । अभी पिछले हफ्ते जब यह आयोजन हुआ तो उसमें पवन वर्मा जी ने मिर्ज़ा ग़ालिब की जिंदगी के बारे में अपना एक लेख भी सुनाया ।  
इसकी रिपोर्ट दैनिक हिंदुस्तान अंक 2 दिनांक 9 जनवरी 2011 पृष्ठ 14 पर छपी है ।
... और यादगारे ग़ालिब के नाम से नाचने गाने का यह आयोजन हुआ कहां ?
इंडिया इस्लामिक सभागार मेँ ।
जो सभागार इंडिया में इस्लामिक एक्टिविटीज़ के लिए बनाया गया था वहां मुजरे हो रहे हैं ।
क्या यह मुसलमानों के परम चरम पतन का खुला प्रमाण नहीं है ?
और ऐसा कहने के पीछे मेरा मक़सद मुसलमानों को नीचा दिखाना नहीं है बल्कि यह सच्चाई सामने लाना है कि मुसलमान जिस दीन पर ईमान का दावा करते हैं उसका शऊर उन्हें कितना कम है ?
कुरआन के हुक्म के मुताबिक़ उनकी ज़िंदगी में अमल कितना कम है ?
जन्नत में दाख़िले के लिए महज़ ईमान का दावा काफ़ी नहीं है बल्कि सचमुच ईमान होना ज़रूरी है और रब पर ईमान है या नहीं इसका पता चलता है आदमी के अमल से कि आदमी का अमल रबमुखी है या मनमुखी ?
जन्नत का शाश्वत जीवन उसी को मिलेगा जिसने नेकी की राह में शाश्वत और अमर प्रभु के लिए अपनी जान दी होगी या जान देने का रिस्क उठाया होगा और जो लोग अपने मन की वासनाओं के कारण अपने रब से दूर होकर आज घिनौने जुर्म करके आनंद मना रहे हैं वे अपने रब तक पहुंचने वाले नहीं हैं ।
इस टिप्पणी को आप इस लिंक पर देख सकते हैं :

जन्नत के बारे में ग़ालिब के ख़याल की हक़ीक़त Standard scale for moral values

Friday, October 14, 2011

लक्ष्मण को इल्ज़ाम न दो Real Ramayana

(लक्ष्मण को इल्ज़ाम न दो पार्ट 2)
आदरणीया दीदी अरूणा कपूर जी ! आपने रामायण पर ग़ौर किया और इस पर एक पोस्ट भी लिखी,
‘अपहरण लक्ष्मण का होता, सीता का नहीं‘
यह देखकर अच्छा लगा लेकिन लक्ष्मण जी द्वारा सूपर्नखा के नाक कान काटने वाली बात हमें सही नहीं लगती और हक़ीक़त में उन्होंने काटी भी नहीं होगी।रामायण हमारी भी प्रिय पुस्तकों में से है और इसके कथानक पर थोड़ा बहुत हमने भी विचार किया है और यह कोशिश की है कि हमारे पूवर्जों का निर्दोष चरित्र आम जनता के सामने आए जो कि कवियों की कल्पनाओं और उनके अलंकार के प्रयोग तले दब-छिप ही नहीं बल्कि विकृत भी हो गया है। 
कुछ तर्क निम्न प्रकार हैं -
1. आज जंगल में जंगली पशु न के बराबर ही रह गए हैं। आज भी किसी पार्टी की महिला नेता किसी भी जंगल में अकेले नहीं घूमती, तब सूपर्नखा हिंसक पशुओं से भरे हुए वन में अकेले भला क्यों घूमेगी ?
2. कानों के ज़रिये से मानव शरीर अपने आप को बैलेंस भी करता है। अगर किसी मनुष्य के कान काट दिए जाएं तो चलने में अपना संतुलन नहीं बना सकता और भाग तो बिल्कुल भी नहीं सकता।
3. ख़ून की गंध पाकर हिंसक पशु उसका शिकार करने के लिए आ जाते और वह भाग न पाती।
4. इस तरह पता यह चलता है कि अव्वल तो कोई भी राजकुमारी जंगल में आती नहीं और न ही सूपर्नखा आई होगी और अगर आ जाये तो घायल होकर हिंसक पशुओं के बीच से सही सलामत अपने घर जा नहीं सकती।
5. इससे पता यही चलता है कि सूपर्नखा के नाक कान लक्ष्मण जी ने नहीं काटे थे।
6. हिंदू काल गणना के अनुसार लक्ष्मण जी को सरयू में समाए हुए आज 12 लाख 96 हज़ार साल हो चुके हैं। ऐसे में जिसने भी उनकी कथा लिखी है, अपने अनुमान और अपनी कल्पना से लिखी है और कवियों का काम भी यही है। सूपर्नखा के नाक कान पराक्रमी वीर लक्ष्मण जी कभी काट ही नहीं सकते। यह सब कविराज की कल्पना का करिश्मा है। उन्होंने कथा को मसालेदार बनाने के लिए इस तरह के प्रसंग अपने मन से बना लिए हैं।
7. इसका उदाहरण आप देख सकती हैं कि तुलसीदास जी ने भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाया है। बाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण जी द्वारा कुटिया के चारों ओर लक्ष्मण रेखा खींचने का वर्णन भी नहीं है लेकिन तुलसीदास जी ने उनसे लक्ष्मण रेखा भी खिंचवा दी और छाया सीता का प्रकरण भी बढ़ा दिया जो कि बाल्मीकि रामायण में है ही नहीं।
8. हरेक रामायण में इसी तरह बहुत से प्रसंग जुदा जुदा हैं।
9. अगर काव्य से अतिश्योक्ति अलंकार को निकाल कर समझा जाय तो यह बात समझ में आ जाती है कि लक्ष्मण जी ऐसा काम नहीं कर सकते जो कि पराक्रमी वीर की शान के खि़लाफ़ हो और इसीलिए महात्मा कहलाए जाने वाले रावण ने भी सीता जी के अपहरण जैसा निंदित कर्म नहीं किया होगा।
10. राजनैतिक कारणों से दो राजाओं के बीच युद्ध अवश्य हुआ होगा और बाक़ी बातें लोगों ने ऐसे ही बढ़ा ली होंगी जैसे कि आजकल अकबर बीरबल के बारे में लोग ऐसे ऐसे क़िस्से सुना देते हैं जो ख़ुद अकबर बीरबल ने भी कभी न सुने होंगे।
इस पोस्ट को यहाँ पर भी देखें  : 

लक्ष्मण को इल्ज़ाम न दो

Sunday, October 9, 2011

नास्तिकता का ढोंग रचाते हैं कुछ बुद्धिजीवी

जैसे लोग आस्तिकता का ढोंग करते हैं और लोग उन्हें आस्तिक समझ लेते हैं, ऐसे ही कुछ लोग नास्तिकता का ढोंग करते हैं और लोग उन्हें नास्तिक समझ लेते हैं।
कुछ लोग आस्तिक होने का दावा करते हैं और काम नास्तिकता के करते हैं, ऐसे ही कुछ लोग नास्तिक होने का दावा करते हैं लेकिन धार्मिक परंपराओं का पालन करते हैं।
किसी भी बूढे नास्तिक के बच्चों के जीवन साथियों को देख लीजिए, अपने बच्चों का विवाह वह उसी रीति के अनुसार करता है, जो कि उसके पूर्वजों का धर्म सिखाता है और जिसके इन्कार का दम भरकर वह बुद्धिजीवी कहलाता है।
नास्तिकों को भी आजीवन अपने बारे में यही भ्रम रहता है कि वे नास्तिक हैं, जब कि वे भी उसी तरह के पाखंड का शिकार होते हैं, जिस तरह के पाखंड का शिकार वे आस्तिकता के झूठे दावेदारों को समझते हैं।

जाकिर अली 'रजनीश' जी ! आपको अब यह भी जान लेना चाहिए कि ऐसे कई ब्लॉग हैं जहां संयमित भाषा में तर्क-वितर्क होता है।

धन्यवाद !
हमारे यह विचार निम्न पोस्ट पर हैं : 

ईश्‍वर के अस्तित्‍व पर सवाल उठाता 'नास्तिकों का ब्‍लॉग'



('जनसंदेश टाइम्स', 05 अक्‍टूबर, 2011 के
'ब्लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित ब्लॉग समीक्षा)
दुनिया के समस्‍त धर्म ग्रन्‍थ मुक्‍त कंठ से ईश्‍वर की प्रशंसा के कोरस में मुब्तिला नजर आते है। उनका केन्द्रीय भाव यही है कि ईश्‍वर महान है। वह कभी भी, कुछ भी कर सकता है। एक क्षण में राई को पर्वत, पर्वत को राई। इसलिए हे मनुष्‍यो,  यदि तुम चाहते हो कि सदा हंसी खुशी रहो, तरक्‍की की सीढि़याँ चढ़ो, तो ईश्‍वर की वंदना करो, उसकी प्रार्थना करो। और अगर तुमने ऐसा नहीं किया, तो ईश्‍वर तुम्‍हें नरक की आग में डाल देगा। और लालच तथा डर से घिरा हुआ इंसान न चाहते हुए भी ईश्‍वर की शरण में नतमस्‍तक हो जाता है।

लेकिन दुनिया में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं, जो ईश्‍वरवादियों के रचाए इस मायाजाल को समझते हैं। ऐसे लोग वैचारिक मंथन के बाद इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि ईश्‍वर आदमी के मन की उपज है और कुछ नहीं, जिसे मनुष्‍य ने अपने स्‍वार्थ के लिए, अपनी सत्‍ता चलाने के लिए सृजित किया है। ऐसे लोग विश्‍व प्रसिद्ध दार्शनिक नीत्‍शे के सुर में सुर मिलाते हुए कहते है- मैं ईश्वर में विश्‍वास नहीं कर सकता। वह हर वक्त अपनी तारीफ सुनना चाहता है। ईश्वर यही चाहता है कि दुनिया के लोग कहें कि हे ईश्वरतू कितना महान है। नास्तिकता का दर्शन भारत में लोकायत के नाम से प्रचलित रहा है। लोकायत के अनुयायी ईश्वर की सत्ता पर विश्‍वाश नही करते थे। उनका मानना था की क्रमबद्ध व्यवस्था ही विश्व के होने का एकमात्र कारण हैएवं इसमें किसी अन्य बाहरी शक्ति का कोई हस्तक्षेप नही है। कहा जाता है कि भारतीय दर्शन की इस परम्परा को बलपूर्वक नष्ट कर दिया गया। उसी परम्‍परा, उसी दर्शन को आगे बढ़ाने क काम कर रहा है नास्तिकों का ब्लॉग (http://nastikonblog.blogspot.com), जोकि एक सामुहिक ब्‍लॉग है।

नास्तिकों का ब्लॉग एक ऐसे लोगों का समूह है, जो नास्तिकता में विश्‍वास करता है। इस ब्‍लॉग के संचालकों का मानना है कि नास्तिकता सहज स्वाभाविक हैप्राकृतिक है। उनका कहना है कि हर बच्चा जन्म से नास्तिक ही होता है। धर्मईश्वर और आस्तिकता से उसका परिचय इस दुनिया में आने के बाद ही कराया जाता हैइसी दुनिया के कुछ लोगों के द्वारा। ब्लॉग के संचालक इसके निर्माण के पीछे का उद्देश्‍य बताते हुए कहते हैं- हमारा प्रयास मानवतावादी दृष्टिकोण को उभारने का रहेगा, जो किसी म्‍प्रदाय अथवा धर्म के हस्तक्षेप से मुक्त हो साथ ही वे यह भी कहते हैं कि अगर आप ईश्‍वर की सत्‍ता में विश्‍वास नहीं रखते हैं, तो आपका इस ब्‍लॉग में स्‍वागत है। लेकिन अगर आप आस्तिक हैं, तो भी आप हमसे इस ब्‍लॉग पर आकर तर्क-वितर्क कर सकते हैं। यहाँ पर  शर्त सिर्फ इतनी है की भाषा अपशब्द एवं व्यक्तिगत आक्षेपों से मुक्त होनी चाहिए

यह हिन्‍दी का इकलौता ब्‍लॉग है, जहाँ पर तर्क-वितर्क होता है और वाद-विवाद भी होता है पर सब कुछ बेहद संयमित और जीवंत रूप रूप में। ईश्‍वर के समर्थन और विरोध में जितने तर्क हो सकते हैं, वे यहाँ देखने को मिलते हैं।

Friday, October 7, 2011

राम को इल्ज़ाम न दो Part 1 Real Ramayana

हर साल सर्दियाँ आने से पहले ही मार्कीट में मूंगफली नजर आने लगती है और उनके नजर आते ही रामलीला शुरू हो जाती है। इसी के साथ टी. वी. चैनल्स और पत्र-पत्रिकाओं में श्री रामचंद्र जी से जुडी घटनाओं पर बातचीत शुरू हो जाती है। ब्लॉगिंग की शुरूआत के बाद उनसे जुडी जानकारी अब ब्लॉगिंग में भी देखी जा सकती है।
एक ब्लॉग पर एक पोस्ट ने जानकारी दी है कि फैजाबाद में मुसलमान करते हैं रामलीला का मंचन और वे रावण को जलाते भी हैं
यहां मुसलमान करते हैं रामलीला का आयोजन Indian tradition 


दूसरी पोस्ट से पता चला कि बैजनाथ कस्बे के हिंदू रावण को नहीं जलाते।
हिमाचल प्रदेश के बैजनाथ में कभी नहीं जलता रावण का पुतला

भारत भी एक अजीब देश है कि एक तरफ तो मुसलमान लगे हुए हैं रावण को जलाने में और दूसरी तरफ ऐसे हिंदू भाई भी हैं जो हिंदू होने के बावजूद रावण को नहीं जलाते।
है न ताज्जुब की बात ?
इससे भी ताज्जुब की बात यह है कि आपको हिंदू भाईयों में यह कहते हुए भी मिल जाएंगे कि रावण एक बहुत बडा ज्ञानी आदमी था बस उससे एक यही गलती हुई कि उसने सीता का हरण किया वर्ना तो उस एक कमी के अलावा उसमें कोई और कमी नहीं थी और उसे यही एक कमी नुक्सान दे गई।

कुछ हिंदू भाई इससे भी आगे बढ जाते हैं और वे श्री रामचंद्र जी में दस तरह के दोष गिना देते हैं। देखिए स्वामी चंद्रमौली जी की यह पोस्ट


स्वामी चंदरमोली  Thursday October 06, 2011

रावण उच्च कोटि के विद्वान थे,यज मे होने वाली हिंसा का विरोध करते थे,दलित को मंदिर मे प्रवेश,महिलाओ की आज़ादी के पक्ष मे आंदोलन चलाया, राम ने उसकी बहन के राज्य पर हमला किया,उसके पति और बेटो की हत्या कर दी,नाक काटने का मतलब होता है,बलात्कार करना,रावण के प्रगति शील कामो की वजह से रूडी वादी संत उसके खिलाप हो गये,इसलिए उन सब ने राम का साथ दिया,रावण ने राम के इतने अत्याचारो के बाद दुखी होकर सीता का अपहरण किया,फिर भी रावण ने सीता की सहमति के बिना कुछ नही किया,राम ने उसी महान सीता को गर्भ वती होने पर भी एक धोबी के कहने से वनवास दे दिया,जनता ईमानदारी से फ़ैसला करे,कौन चरित्रवान् है,रावण दहन महपाप है,इसको देखने वाले को पाप लगता है

हमने स्वामी चंद्रमौली जी की यह पोस्ट पढी और यह देखकर ताज्जुब हुआ कि हमसे बहस करने वालों में से किसी ने भी इस पोस्ट पर उनकी आपत्तियों का निराकरण करना उचित न समझा।
यह सिलसिला  यहीं तक नहीं रुकता बल्कि जब आदमी को सवाल परेशान करते हैं तो आदमी कुछ भी पूछने लगता है . श्री मनीष कुमार खेदावत जी पूछ रहे हैं कि 

इस तरह की पोस्ट्स जब हमारी नज़र से गुज़रती हैं तो हमारे हालत अजीब हो जाती है . अगर हम खामोश रहें तो हमारे पूर्वज पर आरोप आ रहा है और अगर बोलते हैं तो तथाकथित हिंदुत्ववादी भाई हमें और इस्लाम को गालियाँ देने के लिए आ जायेंगे. पहले तो हमने इंतज़ार किया कि कोई हिन्दू विद्वान इन भाइयों की आपत्तियों का युक्तियुक्त रीति से निराकरण कर दे लेकिन किसी को आता न देख कर मजबूरन हमको बोलना ही पड़ा . अब जो भाई हमारे इस काम को ग़लत समझे , वह हमें बुरा भला कहने के लिए आज़ाद है. 
इस तरह की बहुत सी पोस्ट्‌स हमारी नजर से गुजरीं, उनमें से ये चंद मात्र नमूने के तौर पर पेश कर दी गई हैं।
आप और हम उन सब पोस्ट्‌स को एक जगह इकठ्‌ठा करें और थोडा गौर करें कि महाकाव्य रामायण के नायक श्री रामचंद्र जी हैं और नायक में समस्त खूबियां होनी चाहिएं और अवगुण एक भी नहीं होना चाहिए लेकिन श्री रामचंद्र जी के चरित्र में सीता माता का परित्याग और शंबूक वध जैसी बहुत सी बातें कैसे आ गईं, जिन्हें खूबी नहीं कहा जा सकता ?

दूसरी तरफ यह देखिए कि रामायण में रावण को पराक्रमी वीर और महात्मा तक कह दिया गया जबकि वह इस कथानक का खलनायक है।
जो नायक है उसमें तो दसियों कमियां दिखा दी गई हैं और जो खलनायक है उसमें मात्र एक ही कमी दिखाई गई है, ऐसा क्यों ?
महाकाव्य रामायण को हिंदू धर्म की ओर से इतिहास के तौर पर भी पेश किया जाता है और इतिहास पर विचार करने का अधिकार सबको है।
कुछ लोग श्री रामचंद्र जी को ईश्वर का अवतार मानते हैं और दूसरी ओर कुछ दलित लोग भी हैं जो उनसे विपरीत विचार रखते हैं लेकिन इसके बावजूद उन्हें एक राजा दोनों ही मानते हैं।
दलित साहित्य में और नारीवादी साहित्य में ऐसा बहुत कुछ मिलता है जो कि श्री रामचंद्र जी को आरोपित करता है और रामायण में श्रृद्धा रखने वाला कोई भी विद्वान हमें ऐसा नजर नहीं आया जो कि उनकी आपत्तियों का निराकरण कर सका हो।
श्री रामचंद्र जी मनुवंशी हैं और हम भी मनुवंशी हैं। यही बात हमें श्री रामचंद्र जी से जोडती है और यही बात हमें मजबूर करती है कि जिस मुददे को दुनिया के बडे बडे विद्वान न सुलझा सके हों, उसे हम सुलझा दें और वाकई ईश्वर ने अपनी कृपा से इन सभी आपत्तियों को सुलझाना हमारे लिए आसान कर दिया है।
हम मनुवंशी भी हैं और मनुवादी भी और मनुवाद मानवतावाद के सिवा कुछ और नहीं है। मनु के धर्म के सिवाय कुछ और धर्म है ही नहीं और मनु का धर्म दया और परोपकार के सिवा कुछ और नहीं है।

एक बाप अपनी संतान को उनकी भलाई के लिए आज भी भली बातों की ही शिक्षा देता है और जिन भली बातों की शिक्षा वह देता है, वही बातें हमें धर्मग्रंथों में पहले से ही लिखी हुई मिलती हैं। यह एक अकाट्‌य सत्य है।
श्री रामचंद्र जी एक महापुरूष हैं और महापुरूष वह होता है जो सदाचारी हो और सदाचारी सत्य और न्याय का दामन कभी छोडता नहीं है। अब जो भी बातें सत्य और न्याय के विपरीत हों वे श्री रामचंद्र जी का आचरण कभी हो ही नहीं सकतीं।
लिहाजा जिन घटनाओं के कारण श्री रामचंद्र जी के ऊपर उंगली उठाई जाती है, उसकी कोई बुनियाद ही नहीं है।
रावण खलनायक माना जाता है। उसे भारत में बुराई का प्रतीक माना जाता है। उसने कुछ ऐसा जरूर किया होगा जिसकी वजह से श्री रामचंद्र जी को उससे युद्ध करना पडा लेकिन जब हम रावण के पूरे कैरेक्टर को सामने रखकर सोचते हैं कि वह पराक्रमी भी था और नीति का ज्ञाता भी और इतना ही नहीं बल्कि माना जाता है कि वेदों का पहला भाष्यकार भी रावण ही था।
इतनी खूबियों के साथ यह बात मैच नहीं करती कि वह श्री रामचंद्र जी को सीधे सीधे ललकारने के बजाय उनकी पत्नी का हरण कर ले जाएगा जबकि उसने इससे पहले भी बडे बडे युद्ध किए और उसने इंद्र तक को पराजित किया बल्कि उसे बांधकर ले आया। जब भी उसने युद्ध किया तो सीधे ही आक्रमण कर दिया और उसके लिए उचित भी यही था।
हिंसक पशुओं से घिरे हुए वन में किसी भी देश की राजकुमारी या कोई पीएम-सीएम आज भी अकेली नहीं घूमती तो उस समय भी नहीं घूमती होंगीं, तब सूपर्नखा भला वहां क्यों घूमेगी ?
और क्यों श्री रामचंद्र जी उससे झूठ बोलेंगे कि मैं तो विवाहित हूं, तुम मेरे भाई लक्ष्मण के पास चली जाओ।
यह पूरी घटना ही संदिग्ध प्रतीत होती है।

बात केवल यह है कि श्री रामचंद्र जी भी राजा थे और रावण भी राजा था। दोनों राज्यों के बीच सीमा का स्वाभाविक विवाद था और राजा दशरथ के राज्य के सीमांत प्रदेश में रहने वाले ऋषियों के आवास पर रावण के सैनिक अक्सर हमला करते रहते थे और इस तरह वे जन-धन की हानि पहुंचाते रहते थे। लोगों को रावण के उत्पात से मुक्ति दिलाने के लिए श्री रामचंद्र जी ने संकल्प लिया और अपने छोटे भाई भरत को राज्य सौंपकर रावण से लडने के लिए चले गए।
श्री रामचंद्र जी को अपने विरोध में आया देखकर रावण ने उन्हें ललकारा और उनसे युद्ध किया और अंततः उसने मुंह की खाई और वह युद्ध में मारा गया।
इस सादा सी बात को नई नई उपमाओं और अलंकारों से सजाने के चक्कर में कवियों ने अपनी कल्पनाओं से बहुत सी ऐसी बातें दोनों के बारे में लिख दी हैं जो कि उनके पूरे चरित्र से मैच नहीं करती हैं, अतः ऐसी सभी बातें न मानने के योग्य हैं। रावण के दस सिर होने की बात भी कवि की कल्पना मात्र है।
...और इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जो लोग श्री रामचंद्र जी से द्वेष रखते थे, उन्होंने कुछ मिथ्या बातें खुद ही षडयंत्र के तहत रामायण आदि में लिख दी हों ताकि कालांतर में उन बातों को आधार बनाकर वे श्री रामचंद्र जी के निर्मल चरित्र पर सवालिया निशान लगा सकें।
वैसे भी रामायण श्री रामचंद्र जी की ऑटोबायोग्राफी नहीं है और दूसरा कोई उनके बारे में क्या लिखता है, इसकी जिम्मेदारी श्री रामचंद्र जी पर नहीं है।

हिंदू काल गणना के अनुसार श्री रामचंद्र जी को गुजरे हुए आज १२ लाख ९६ हजार साल हो चुके हैं। इतने लंबे  समय के बाद आज उनसे जुडे हुए सभी प्रकरण अगर ज्यों के त्यों नहीं मिलते हैं तो यह स्वाभाविक ही है।

सीता जी एक पवित्र चरित्र की सती औरत थीं और श्री रामचंद्र जी को उनकी पवित्रता का पूरा विश्वास था। उन्होंने उनकी अग्नि परीक्षा कभी नहीं ली क्योंकि रावण सीता जी को हरण करके ले जा ही नहीं सका था। रावण केवल उनकी शक्ति का अनुमान करने के लिए ब्राह्‌मण का भेष बनाकर अवश्य आया था और उसने सीता जी के मन की थाह लेने के लिए उन्हें प्रलोभन भी दिया लेकिन जब सीता जी ने उसे धिक्कार दिया तो वह समझ गया कि यह चरित्रवान स्त्री है, यहां दाल गलने वाली नहीं है और वह उन्हें लिए बिना ही लंका लौट गया था।
वैसे भी अगर रावण सीता जी को साथ ले जाना चाहता तो न ले जा पाता क्योंकि मशहूर है कि शिव जी के जिस धनुष को रावण हिला तक न पाया था, उसे सीता जी नित्य एक हाथ से उठाकर सफाई किया करती थीं। परस्त्री का हरण करना अधम कोटि का काम था जिसे एक नीति कुशल ब्राह्‌मण विद्वान कभी कर ही नहीं सकता।
सीता जी श्री रामचंद्र जी के संग सदा ही रहीं और उनकी पवित्रता का विश्वास भी श्री रामचंद्र जी को सदा ही रहा। बाद के काल में अपने लिए तर्क जुटाने की खातिर पुरूष वर्चस्ववादियो द्वारा ऐसे प्रसंग रामायण में जोड दिए गए जिनमें सीता जी की अग्नि परीक्षा लेने और उनके परित्याग करने का जिक्र मिलता है।
जरा सोचिए कि इसी रामायण का एक पात्र अंजलि भी है। वह वन से गर्भवती होकर लौटती है और सारा किस्सा अपने पति केसरी को बताती है कि किस तरह उसकी अनिच्छा के बावजूद उसे पवन देवता ने वरदान देकर गर्भवती कर दिया है।
सब कुछ जानने के बाद भी न तो केसरी अंजलि के चरित्र पर शक करते हैं और न ही उनका त्याग करते हैं।
रामायण के अपेक्षाकृत एक छोटे से चरित्र केसरी का दिल इतना बडा है तो उसी रामायण के नायक का दिल तो केसरी से कई गुना बडा अवश्य ही होगा और ऐसा ही था भी।
ये सब कॉमन सेंस की बातें हैं और जब इस रीति से विचार किया जाता है तो किसी पर कोई आक्षेप नहीं आता। न तो सीता जी पर, न श्री रामचंद्र जी पर और न ही रावण पर। 
राम-रावण युद्ध का कारण सूपर्नखा के नाक कान काटना नहीं था बल्कि उसके पीछे राजनैतिक कारण थे, जिनके विवरण रामायण में जहां-तहां मिलते ही हैं।
पिछले डेढ साल से हिंदी ब्लॉगिंग में हम 'श्री राम गौरव रक्षा अभियान' चला रहे हैं, प्रस्तुत लेख भी उसी अभियान की एक कडी है।
अंत में हम इतना ही कहेंगे कि दोषपूर्ण बात कभी धर्म नहीं होती। इसीलिए धर्म और मर्यादा की रक्षा करने वाले महापुरूष कभी दोषयुक्त आचरण नहीं करते।

Wednesday, October 5, 2011

Afganistan में सोम बूटी आज भी मिलती है लेकिन 'होम' (Haoma) के नाम से

वेदों में सोम नाम की एक वनस्पति का जिक्र बडी अहमियत के साथ आया है।
वर्तमान वैदिक साहित्यकारों के बीच इस बूटी को लेकर बहुत से मतभेद हैं।
कोई विद्वान कहता है कि वह बूटी अब लुप्त हो चुकी है और कोई कहता है कि वह बूटी भांग है और कुछ दूसरे विद्वान अलग अलग बूटियों को सोम बताते हैं यहां तक कि किसी ने तो गन्ने को भी सोम कह दिया है क्योंकि इसके रस में दूध मिलाकर पकाया जाता है।
ऐसा केवल इसलिए हुआ क्योंकि सोम की तलाश केवल भारत की भौगोलिक परिधि और केवल भारतीय साहित्य के आधार पर की गई और अब भी ऐसी ही कोशिशें जारी हैं।
इसी सिलसिले में आज 'साई ब्लॉग' पर एक लेख पढा तो हमने वहां यह कहा 
डिस्कवरी चैनल के एक प्रोग्राम में भारत, अफगानिस्तान और ईरान की यात्रा में सोम बूटी का जिक्र भी आया था। ईरान के पुराने नगरों के भग्नावशेषों में सोम रस तैयार करने के पात्र आदि भी दिखाए थे और यह भी अफगानिस्तान में आज भी यह बूटी 'होम' के नाम से पंसारियों के पास आसानी से मिल जाती है।

अपने कमेंट के जवाब में हमें एक ईमेल प्राप्त हुई और उसमें आदरणीय डा. अरविन्द मिश्रा जी ने हमारी बात की तसदीक़ की तो हमें वाकई खुशी हुई और यह खुशी की बात भी है कि जो मुद्‌दा सैकडों साल से अनसुलझा और विवादित पडा हो, वह कुछ सुलझ जाए और कुछ सच्चाई सामने आ जाए तो वास्तव में यह एक उपलब्धि ही है।
डा. अरविन्द मिश्रा जी ने कहा कि 

डॉ जमाल साहब ,
आपने बहुत महत्वपूर्ण जानकारी दी है ...दरअसल अवेस्तन या पारसियों का Haoma ही सोम है और मजे की बात देखिये हमारे यहाँ सामान्य यग्य अनुष्ठानों के लिए होम शब्द ही व्यवहृत होता है -होम करने का मतलब सोम आयोजन !

हमने जवाबन अर्ज़ किया कि
आदरणीय अरविन्द मिश्रा जी ,
आपका शुक्रिया कि आपने एक सही बात की तस्दीक की, इससे एक ऐसी बात हम सबके सामने आती है जिससे कि हमें हमारी प्राचीन परंपराओं को समझने में मदद मिलेगी और इसी के साथ वृहत्तर भारत की सांस्कृतिक एकता भी प्रमाणित होती है। यही एकता भारत को विश्व का सिरमौर बनाएगी।धन्यवाद !

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ईरान   में पाई जाने वाली HAOMA or Ephedra  बूटी के कुछ औषधीय गुण इस प्रकार हैं :

Indigenous to Iran this is a small plant with yellow flowers. It was also found to have an intoxicating effect and then said by Ahura Mazda to be a ‘waste of time’ causing the consumer to be become irrational.
Widely used for muscular and bronchial complaints, headaches, as an antiseptic, aid to digestion and a blood purifier. It’s now thought to have properties close to penicillin and can be used 

for hay fever, asthma, and for colds and fevers.Interestingly enough it is thought to be very useful in loosing weight but before you rush out to find it, there is a recommended limit of 150mg per day. Generally it’s an all round healer as it’s  supposed to  promote  the bodies natural ability of the body to fight invading diseases through a natural antibiotic called interferon.
Source : http://javanehskitchen.wordpress.com/category/interesting-info
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...और अब आप वह लेख भी देख लीजिए, जिस पर हमारा यह संवाद वुजूद में आया।


कहीं यह नागफनी ही तो सोम नहीं है?

भारत की प्राचीन जादुई प्रभावों वाली सोम बूटी  और सोमरस पर विस्तृत चर्चा यहाँपहले ही की जा चुकी है. आखिर वह कौन सी जडी -बूटी थी जो अब पहचानी नहीं जा पा रही है? क्या यह विलुप्त ही हो गयी? मशरूम (खुम्बी /गुच्छी) की कोई प्रजाति या भारत और नेपाल के पहाडी   क्षेत्रों में पाया जाने वाला यार सा गुम्बा  ही तो कहीं सोम नहीं है -यह पड़ताल भी हम पहले कर चुके हैं .भारत में सोम की खोज कई शोध प्रेमियों का प्रिय शगल रहा है -जिसके पीछे मुख्यत तो कौतूहल भाव रहा है मगर इसके व्यावसायिक निहितार्थों की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती ...मेरा  तो केवल शुद्ध जिज्ञासा भाव ही रहा है सोम को जानने समझने की और इसीलिये मैं इस चमत्कारिक जडी की खोज में कितने ही पौराणिक /मिथकीय और आधुनिक  साहित्य को देखता फिरता रहता हूँ ...
एक बार अपने पैतृक  आवास पर अवकाश के दिनों मुझे अथर्ववेद परायण के दौरान एक जगह सोम के बारे जब यह लिखा हुआ मिला कि 'तुम्हे वाराह ने ढूँढा" तो मैं बल्लियों उछल पडा था - कारण कि मशरूम की कुछ प्रजातियाँ तो वाराह यानी सुअरों द्वारा ही खोजी जाती हैं ....यह वह पहला जोरदार भारतीय साक्ष्य था जो सोम को एक मशरूम प्रजाति का होने का दावा कर रहा था ....


सोम बूटी का नया  दावा:नागफनी की एक प्रजाति  
अब अध्ययन के उसी क्रम में एक नागफनी की प्रजाति के सोम होने का संकेत मिला है .जिसे पेयोट(peyote) कहते हैं -सोम का  जिक्र मशहूर विज्ञान गल्प लेखक आल्दुअस हक्सले ने अपनी अंतिम पुस्तक आईलैंड(island ) में भी किया था .अपनी एक और बहुचर्चित पुस्तक 'द ब्रेव न्यू वर्ल्ड' में उन्होंने संसार के सारे दुखों से मुंह मोड़ने के जुगाड़ स्वरुप सोमा बटी का जिक्र किया था तो आईलैंड में मोक्ष बटी का जिक्र किया जिसका स्रोत कोई फंफूद बताया गया था ....उन्होंने अपनी एक नान फिक्शन पुस्तक 'द डोर्स आफ परसेप्शन' में नागफनी की उक्त प्रजाति का भी जिक्र किया है जिसमें मेस्केलाईन नाम का पदार्थ मिलता है जिसकी मादकता मिथकीय सोम से मिलती जुलती है और इसके बारे में उन्होंने लिखा कि इसका प्रयोग दक्षिण पश्चिम भारत के कई धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता रहा है ..ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत का यह कोना संस्कृति   के आदि  चरणों का साक्षी रहा है..... 
जाहिर है पेयोट अब सोम के संभाव्य अभ्यर्थी बूटियों में उभर आया है .....किन्तुविकीपीडिया में  इसे टेक्सास और मैक्सिको  मूल का बताया गया है? क्या यह नागफनी भारत के कुछ भी हिस्सों में होती रही है? और क्या इसका प्रयोग अनुष्ठानों में मादक अनुभवों के लिए होता रहा है -इस तथ्य की ताकीद की जानी है....और इसलिए यह पोस्ट लिख रहा हूँ कि कोई भी सुधी जन ज्ञान प्रेमी इसके बारे में जानकारी देकर सोम साहित्य गवेषणा के यज्ञ में हविदान करें तो स्वागत है . 

Tuesday, October 4, 2011

कामनाएं और प्रार्थनाएं कब फलीभूत होती हैं ? Vedic Hymns

यह सही है कि दुख और अभाव का रोना हर दौर में रोया गया है और उसे पुराने साहित्य में भी देखा जा सकता है।
लेकिन हमें सोचना चाहिए कि आखिर ऐसा होता क्यों आया है ?
धरती से अन्न तो सही उपज रहा है और सरकारी गोदामों में भी वह सुरक्षित है बल्कि कहीं कहीं तो वह पड़ा रहा है या उसे जबरन सड़ाया जा रहा है और यह भी सही है कि लोग भूख और कुपोषण से मर रहे हैं।
यही बात आतंक और आतंकवाद की है और इसकी चपेट में आकर मरने वालों की है।
समाज में दीगर बुरी आदतें नशा, जुआ और व्याभिचार भी हैं और इसी तरह के बहुत से दूसरे जुर्म भी हैं और उनसे फैलने वाली तबाहियां भी हम देख रहे हैं।
यह सब जुर्म और पाप आज हो रहे हैं लेकिन आदमी चाहता है कि ये सब न हों, यह कामना आदमी आज ही नहीं कर रहा है बल्कि वेद-उपनिषद में भी यही कामना देखी जा सकती है।
ऋषियों और ज्ञानियों ने ऐसी बहुत सी प्रार्थनाएं सिखाई हैं जिनमें भक्त कल्याण की प्रार्थना करता है और वह चाहता है कि उस पर और उसके समुदाय पर या मानव जाति पर आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक, इन तीनों प्रकार की विपत्तियों में से कोई सी भी विपत्ति न आए।
क्या यह कामना-प्रार्थना गलत है ?
क्या इसका पूरा होना असंभव है ?
क्या हमारे ऋषि ऐसी बात को लक्ष्य बनाकर जीते रहे, जिसे कभी पूरा होना ही नहीं था ?
और उसी की शिक्षा हमें देकर चले गए ?
जाहिर है कि हमारी तरह आप भी यही जवाब देंगे कि जो कुछ ऋषियों ने आचरण किया और जिस तरह का आचरण करने का उपदेश दिया वह कल्याणकारी और फलप्रद है और संभव भी लेकिन उसे साकार करने के लिए उसी के अनुरूप पुरूषार्थ भी चाहिए, तभी वे कामनाएं और प्रार्थनाएं फलीभूत होती हैं।
हमने ऋषियों का लक्ष्य तो मन में रखा लेकिन उनका पथ भुला दिया,
सो रोग, शोक और पतन हमारा मुक़द्दर बन गया और ऐसा मुक़द्दर बन गया कि इससे मुक्ति की आशा भी क्षीण से क्षीणतर होती जा रही है।
निराशा आदमी को हत्या और आत्महत्या के लिए प्रेरित करती है।
दुख और भय की इसी छाया में हम अपने श्वास पूर्ण कर रहे हैं।
यह वह परम पद नहीं है जिसके लिए विधाता ने हमें रचा है, हमें अपने पद, पथ और लक्ष्य का बोध हो जाए तो हम आज भी इस दशा से निकल सकते हैं।
मेरी टिप्पणी का और मेरे समस्त लेखों का आशय मात्र यही है।