सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Wednesday, June 13, 2012

इस्लाम आ चुका है आपके जीवन में

एक हिंदू भाई ने घोषित कर दिया कि इस्लाम हिंदू धर्म की छाया प्रति है।
आज कहना सबके लिए आसान हो गया है। इसीलिए कोई कुछ भी कह सकता है।
अगर कुछ साधारण सी बातों पर भी विचार कर लिया जाए तो उन्हें अपनी ग़लती आसानी से समझ में आ सकती है और अगर वे न समझें तब भी कम से कम दूसरों की समझ में तो आ ही जाएगी।

1. हिंदू धर्म की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा आज तक तय नहीं है जबकि इस्लाम की परिभाषा तय है।
2. हिंदू भाई बहनों के लिए कर्तव्य और अकर्तव्य कुछ भी निश्चित नहीं है। एक आदमी अंडा तक नहीं छूता और अघोरी इंसान की लाश खाते हैं जबकि दोनों ही हिंदू हैं।
जबकि एक मुसलमान के लिए भोजन में हलाल हराम निश्चित है।
3. हिंदू मर्द औरत के लिए यह निश्चित नहीं है कि वे अपने शरीर को कितना ढकें ?, एक अपना शरीर ढकता है और दूसरा पूरा नंगा ही घूमता है।
जबकि मुस्लिम मर्द औरत के लिए यह निश्चित है कि वे अपने शरीर का कितना अंग ढकें ?
4. हिंदू के लिए उपासना करना अनिवार्य नहीं है बल्कि ईश्वर के अस्तित्व को नकारने के बाद भी लोग हिंदू कहलाते हैं।
जबकि मुसलमान के लिए इबादत करना अनिवार्य है और ईश्वर का इन्कार करने के बाद उसे वह मुस्लिम नहीं रह जाता।
5. केरल के हिंदू मंदिरों में आज भी देवदासियां रखी जाती हैं और औरतों द्वारा नाच गाना तो ख़ैर देश भर के हिंदू मंदिरों में होता है। इसे ईश्वर का समीप पहुंचने का माध्यम माना जाता है।
जबकि मस्जिदों में औरतों का तो क्या मर्दों का भी नाचना गाना गुनाह और हराम है और इसे ईश्वर से दूर करने वाला माना जाता है।
6. हिंदू धर्म ब्याज लेने से नहीं रोकता जिसकी वजह से आज ग़रीब किसान मज़दूर लाखों की तादाद में मर रहे हैं।
जबकि इस्लाम में ब्याज लेना हराम है।
7. हिंदू धर्म में दान देना अनिवार्य नहीं है। जो देना चाहे, दे और जो न देना चाहे तो वह न दे और कोई चाहे तो दान में विश्वास ही न रखे।
जबकि इस्लाम में धनवान पर अनिवार्य है कि वह हर साल ज़रूरतमंद ग़रीबों को अपने माल में से 2.5 प्रतिशत ज़कात अनिवार्य रूप से दे। इसके अलावा फ़ितरा आदि देने के लिए भी इस्लाम में व्यवस्था की गई है।
8. हिंदू धर्म में ‘ब्राह्मणों को दान‘ देने की ज़बर्दस्त प्रेरणा दी गई है।
जबकि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह व्यवस्था दी है कि हमारी नस्ल में से किसी को भी सदक़ा-ज़कात मत देना। दूसरे ग़रीबों को देना। हमारे लिए सदक़ा-ज़कात लेना हराम है।
9. सनातनी हिंदू हों या आर्य समाजी, दोनों ही मानते हैं कि वेद के अनुसार पति की मौत के बाद विधवा अपना दूसरा विवाह नहीं कर सकती।
जबकि इस्लाम में विधवा को अपना दूसरा विवाह करने का अधिकार है बल्कि इसे अच्छा समझा गया है कि वह दोबारा विवाह कर ले।
10. सनातनी हिंदू हों या आर्य समाजी, दोनों ही यज्ञ करने को बहुत बड़ा पुण्य मानते हैं।
जबकि इस्लाम में यह पाप माना गया है कि आग में खाने पीने की चीज़ें जला दी जाएं। खाने पीने की चीज़ें या तो ख़ुद खाओ या फिर दूसरे ज़रूरतमंदों को दे दो। ऐसा कहा गया है।
11. सनातनी हिंदू और आर्य समाजी, दोनों ही वर्ण व्यवस्था को मानते हैं और वर्णों की ऊंच नीच और छूत छात को भी मानते हैं।
जबकि इस्लाम में न वर्ण व्यवस्था है और न ही छूत छात। इस्लाम सब इंसानों को बराबर मानता है और आजकल हिंदुस्तानी क़ानून भी यही कहता है और हिंदू भाई भी इसी इस्लामी विचार को अपनाने की कोशिश कर रहे हैं।
12. सनातनी हिंदू और आर्य समाजी, दोनों ही वैदिक धर्म की परंपरा का पालन करते हुए चोटी रखते हैं और जनेऊ पहनते हैं।
जबकि इस्लाम में न तो चोटी है और न ही जनेऊ।
13. सनातनी हिंदू और आर्य समाजी, दोनों ही वेद के अनुसार 16 संस्कार को मानते हैं, जिनमें एक विवाह भी है। इस संस्कार के अनुसार पत्नी अपने पति के मरने के बाद भी उसी की पत्नी रहती है और उससे बंधी रहती है। पति तो पत्नी का परित्याग कर सकता है लेकिन पत्नी उसे त्याग नहीं सकती।
जबकि इस्लाम में निकाह एक क़रार है जो पति की मौत से या तलाक़ से टूट जाता है और इसके बाद औरत उस मर्द की पत्नी नहीं रह जाती। वह अपनी मर्ज़ी से अपना विवाह फिर से कर सकती है। इस्लाम में पति तलाक़ दे सकता है तो पत्नी के लिए भी पति से मुक्ति के लिए ख़ुलअ की व्यवस्था की गई है।
अब हो यह रहा है कि सनातनी और आर्य समाजी, दोनों ही ख़ुद वेद की व्यवस्था से हटकर इस्लामी व्यवस्था को फ़ोलो कर रहे हैं। विधवाओं के पुनर्विवाह वे धड़ल्ले से कर रहे हैं। जब मुसलमानों ने अपने निकाह को विवाह की तरह संस्कार नहीं बनाया तो फिर हिंदू भाई अपने संस्कार को इस्लामी निकाह की तरह क़रार क्यों और किस आधार पर बना रहे हैं ?
जिस व्यवस्था पर विश्वास है, उस पर चलने के बजाय वे इस्लामी व्यवस्था का अनुकरण क्यों कर रहे हैं ?
14. विवाह को संस्कार मानने का नतीजा यह हुआ कि विधवा औरतों को हज़ारों साल तक बड़ी बेरहमी से जलाया जाता रहा। यहां तक कि इस देश में मुसलमान और ईसाई आए और उनके प्रभाव और हस्तक्षेप से हिंदुओं की चेतना जागी कि सती प्रथा के नाम पर विधवा को जलाना धर्म नहीं बल्कि अधर्म है और तब उन्होंने अपने धर्म को उनकी छाया प्रति बना लिया और लगातार बनाते जा रहे हैं।
15. विवाह की तरह ही गर्भाधान भी एक हिंदू संस्कार है। जब किसी पति को गर्भाधान करना होता है या अपनी पत्नि से किसी अन्य पुरूष का नियोग करवाना होता है तो वह 4 पंडितों को बुलवाता है और वे चारों पंडित पूरे दिन बैठकर वेदमंत्र पढ़ते हैं। उसके घर में खाते पीते हैं। उसके घर में यज्ञ करते हैं। उस यज्ञ से बचे हुए घी को मलकर औरत नहाती है और फिर पूरी बस्ती में घूम घूम कर बड़े बूढ़ों को बताती है कि आज उसके साथ क्या होने वाला है ?
बड़े बूढ़े अपनी अनुमति और आशीर्वाद देते हैं, तब जाकर पति महाशय या कोई अन्य पुरूष उस औरत के साथ वेद के अनुसार सहवास करता है।
जबकि इस्लाम में गर्भाधान संस्कार ही नहीं है और पत्नि को किसी ग़ैर मर्द के साथ सोने के लिए बाध्य करना बहुत बड़ा जुर्म और गुनाह है।
मुसलमान पति पत्नी जब चाहे सहवास कर सकते हैं। शोर पुकार मचाकर लोगों को इसकी इत्तिला देना इस्लाम में असभ्यता और पाप है।
आजकल हिंदू भाई भी इसी रीति से अपनी पत्नियों को गर्भवती कर रहे हैं क्योंकि यही रीति नेचुरल और आसान है।
धर्म सदा ही नेचुरल और आसान होता है।
मुश्किल में डालने वाली चीज़ें ख़ुद ही फ़ेल हो जाती हैं। लोग उनका पालन करना चाहें तो भी नहीं कर पाते। शायद ही आजकल कोई गर्भाधान संस्कार करता हो। इस्लामी रीति से पैदा होने के बावजूद इस्लाम पर नुक्ताचीनी करना केवल अहसानफ़रामोशी है। जिसका कारण अज्ञानता है।
16. सनातनी हिंदू और आर्य समाजी, दोनों के नज़्दीक धर्म यह है कि पत्नि से संभोग तब किया जाए जबकि उससे संतान पैदा करने की इच्छा हो। इसके बिना संभोग करने वाला वासनाजीवी और पतित-पापी माना जाता है।
जबकि इस्लाम में इस तरह की कोई पाबंदी नहीं है। इस्लामी व्यवस्था यही है कि पति पत्नी जब चाहें तब आनंद मनाएं। उन्हें आनंदित देखकर ईश्वर प्रसन्न होता है। आजकल हिंदू भाई भी इसी इस्लामी व्यवस्था पर चल रहे हैं।
18. शंकराचार्य जी के अनुसार हरेक वर्ण और लिंग के लिए वेद को पढ़ने और पढ़ाने की आज़ादी नहीं है।
जबकि क़ुरआन सबके लिए है। किसी भी रंगो-नस्ल के नर नारी इसे जब चाहंे तब पढ़ सकते हैं।
19. इसी के साथ हिंदू धर्म अर्थात वैदिक धर्म में चार आश्रम भी पाए जाते हैं।
ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, सन्यास आश्रम
अति संक्षेप में 8वें वर्ष बच्चे का उपनयन संस्कार करके उसे वेद पढ़ने के लिए गुरूकुल भेज दिया जाए और बच्चा 25 वर्ष तक वीर्य की रक्षा करे। इसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहते हैं। लेकिन हमारे शहर का संस्कृत महाविद्यालय ख़ाली पड़ा है। शहर के हिंदू उसमें अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजते ही नहीं जबकि शहर के कॉन्वेंट स्कूल हिंदू बच्चों से भरे हुए हैं। जहां सह शिक्षा होती है और जहां वीर्य रक्षा संभव ही नहीं है, जहां वेद पढ़ाए ही नहीं जाते,
जहां धर्म नष्ट होता है, हिंदू भाई अपने बच्चों को वहां क्यों भेजते हैं ?
ख़ैर हमारा कहना यह है कि आजकल हिंदू भाई ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन नहीं करते और न ही वे 50 वर्ष का होने पर वानप्रस्थ आश्रम का पालन करते हुए जंगल जाते हैं और सन्यास आश्रम भी नष्ट हो चुका है।
आज हिंदू धर्म के चारों आश्रम नष्ट हो चुके हैं और हिंदू भाई अब अपने घरों में आश्रम विहीन वैसे ही रहते हैं जैसे कि मुसलमान रहते हैं क्योंकि इस्लाम में तो ये चारों आश्रम होते ही नहीं।

ज़रा सोचिए कि अगर इस्लाम हिंदू धर्म की छाया प्रति होता तो उसमें भी वही सब होता जो कि हिंदू धर्म में हज़ारों साल से चला आ रहा है और उन बातों से आज तक हिंदू जनमानस पूरी तरह मुक्ति न पा सका।
चार आश्रम, 16 संस्कार, विधवा विवाह निषेध, नियोग, वर्ण-व्यवस्था, छूत छात, ब्याज, शूद्र तिरस्कार, देवदासी प्रथा, ईश्वर के मंदिर में नाच गाना, चोटी, जनेऊ और ब्राह्मण को दान आदि जैसी बातें जो कि हिंदू धर्म अर्थात वैदिक धर्म में पाई जाती हैं, उन सबसे इस्लाम आखि़र कैसे बच गया ?
इन बातों के बिना इस्लाम को हिंदू धर्म की छाया प्रति कैसे कहा जा सकता है ?

हक़ीक़त यह है कि इस्लाम किसी अन्य धर्म की छाया प्रति नहीं है बल्कि ख़ुद ही मूल धर्म है और पहले से मौजूद ग्रंथों में धर्म के नाम पर जो भी अच्छी बातें मिलती हैं वे उसके अवषेश और यादगार हैं, जिन्हें देखकर लोग यह पहचान सकते हैं कि इस्लाम सनातन काल है, हमेशा से यही मानव जाति का धर्म है।
ईश्वर के बहुत से नाम हैं। हरेक ज़बान में उसके नाम बहुत से हैं। उसके बहुत से नामों में से एक नाम ‘अल्लाह‘ है। यह नाम क़ुरआन में भी है और बाइबिल में भी और संस्कृत ग्रंथों में भी।ईश्वर का निज नाम यही है लेकिन उसके निज नाम को ही भुला दिया गया। ईष्वर के नाम को ही नहीं बल्कि यह भी भुला दिया गया कि सब एक ही पिता की संतान हैं। सब बराबर हैं। जन्म से कोई नीच और अछूत है ही नहीं। ऐसा तब हुआ जब आदम और नूह (अ.) को भुला दिया गया जिनका नाम संस्कृत ग्रंथों में जगह जगह आया है। इन्हें यहूदी, ईसाई और मुसलमान सभी पहचानते हैं। हिंदू भाई इन्हें ऋषि कहते हैं और मुसलमान इन्हें नबी कहते हैं। इनके अलावा भी हज़ारों ऋषि-नबी आए और हर ज़माने में आए और हर क़ौम में आए। सबने लोगों को यही बताया कि जिसने तुम्हें पैदा किया है तुम्हारा भला बुरा बस उसी एक के हाथ में है, तुम सब उसी की आज्ञा का पालन करो। ऋषियों और नबियों ने मानव जाति को हरेक काल में एक ही धर्म की शिक्षा दी। । वे सिखाते रहे और लोग भूलते रहे। आखि़रकार पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस दुनिया में आए और फिर उसी भूले हुए धर्म को याद दिलाया और ऐसे याद दिलाया कि अब किसी के लिए भूलना मुमकिन ही न रहा।
जब दबंग लोगों ने कमज़ोरों का शोषण करने के लिए धर्म में बहुत सी अन्यायपूर्ण बातें निकाल लीं, तब ईश्वर ने क़ुरआन के रूप में अपनी वाणी का अवतरण पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अन्तःकरण पर किया और पैग़म्बर साहब ने धर्म को उसके वास्तविक रूप में स्थापित कर दिया। जिसे देखकर लोगों ने ऊंच नीच, छूतछात और सती प्रथा जैसी रूढ़ियों को छोड़ दिया। बहुतों ने इस्लाम कहकर इस्लाम का पालन करना आरंभ कर दिया और उनसे भी ज़्यादा वे लोग हैं जिन्होंने इस्लाम के रीति रिवाज तो अपना लिए लेकिन इस्लाम का नाम लिए बग़ैर। इन्होंने इस्लामी उसूलों को अपनाने का एक और तरीक़ा निकाला। इन्होंने यह किया कि इस्लामी उसूलों को इन्होंने अपने ग्रंथों में ढूंढना शुरू किया जो कि मिलने ही थे। अब इन्होंने उन्हें मानना शुरू कर दिया और दिल को समझाया कि हम तो अपने ही धर्म पर चल रहे हैं।
ये लोग हिंदू धर्म के प्रवक्ता बनकर घूमते हैं। ऐसे लोगों को आप आराम से पहचान सकते हैं। ये वे लोग हैं जिनके सिरों पर आपको न तो चोटी नज़र आएगी और न ही इनके बदन पर जनेऊ और धोती। न तो ये बचपन में ये गुरूकुल गए थे और न ही 50 वर्ष का होने पर ये जंगल जाते हैं। हरेक जाति के आदमी से ये हाथ मिलाते हैं। फिर भी ये ख़ुद को वैदिक धर्म का पालनकर्ता बताते हैं।
ख़ुद मुसलमान की छाया प्रति बनने की कोशिश कर रहे हैं और कोई इनकी चालाकी को न भांप ले, इसके लिए ये एक इल्ज़ाम इस्लाम पर ही लगा देते हैं कि ‘इस्लाम तो हिंदू धर्म की छायाप्रति है‘
ये लोग समय के साथ अपने संस्कार और अपने सिद्धांत बदलने लगातार बदलते जा रहे हैं और वह समय अब क़रीब ही है जब ये लोग इस्लाम को मानेंगे और तब उसे इस्लाम कहकर ही मानेंगे।
तब तक ये लोग यह भी जान चुके होंगे कि ईश्वर का धर्म सदा से एक ही रहा है। ‘
एक ईश्वर की आज्ञा का पालन करना‘ ही मनुष्य का सनातन धर्म है। अरबी में इसी को इस्लाम कहते हैं। इस्लाम का अर्थ है ‘ईश्वर का आज्ञापालन।‘
इसके अलावा मनुष्य का धर्म कुछ और हो भी कैसे सकता है ?
वर्ण व्यवस्था जा चुकी है और इस्लाम आ चुका है।
जिसे जानना हो, वह जान ले !



17 comments:

veerubhai said...
डॉ अनवर ज़माल साहब आपने अच्छा तुलनात्मक अध्ययन किया है .तर्क आपका अपना तीर है .तर्क से परे भी बहुत कुछ है .सवाल एक की श्रेष्ठता और दूसरे के हेय होने का नहीं है .इस्लाम और इस्लामीकरण दो अलहदा चीज़ें हैं जैसे ईसाई और ईसाईकरण हैं .यहाँ एहम है धार्मिक स्वातंत्र्य पूजने की आज़ादी ३३ करोड़ देवता हैं जिसे मर्जी पूजो यहाँ कोई काफिर नहीं हैं चाहे वह इस्लाम को माने या न माने .कुरआन में ऐसे स्वर कहीं नहीं है .वहां काफिरों को मारने का धार्मिक आदेश है .और धर्म कोई रुकका हुआ दरिया नहीं है न किसी एक किताब तक महदूद जिसकी आप हदबंदी करने पर आमादा है .धर्म धारण करने की शह है .शह मात का खेल नहीं .जियो और जीने दो हिंदुत्व का मूल मन्त्र है .जीवन दर्शन है जीवन शैली है .बहरसूरत आपके इस विवेचन के लिए आपका आभार .हम आपके रिनी हैं आपने हमें भी आपके ब्लॉग पे आके अपनी बात कहने का मौक़ा दिया .
DR. ANWER JAMAL said...
@ वीरू भाई ! आप से पूछा जाए कि अगर हिन्दू दर्शन 'जियो और जीनो दो' की बात कहता है तो फिर श्री कृष्ण जी ने अर्जुन से क्यों कहा कि शत्रुओं को मार डाल?
आप कहेंगे कि अर्जुन के शत्रु अन्याय कर रहे थे.
इसी बात को आप इस्लाम के बारे में क्यों नहीं समझ लेते कि जब पैगम्बर साहब और उनके साथियों को मक्का में सताया गया और उनकी हत्या का प्रयास किया गया तो वे मक्का छोड़ कर मदीना चले आये . तब भी उनके शत्रुओं ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और सेना लेकर मदीने पर चढ़ आये.
जब निरपराध लोगों के प्राण बचने का कोई उपाय न रहा तब अल्लाह ने हुक्म दिया कि इन जालिमों का मुकाबला करो और तब भी यह कह दिया कि अगर ये संधि करना चाहें तो संधि कर लेना .


श्री कृष्ण जी का नाम आया तो एक ताज़ा खबर भी देख लीजिये-
कृष्ण कन्हैया की पवित्र भूमि वृन्दावन में संचालित सरकारी आश्रय गृहों की अनाथ विधवाओं के मरने के बाद उनके शरीर के टुकड़े -टुकड़े करके स्वीपरों द्वारा जूट की थैलियों में भर कर यूं ही फेंक दिया जाता है ! यह समाचार कल एक हिन्दी सांध्य दैनिक 'छत्तीसगढ़ ' में प्रकाशित हुआ है, जो अंग्रेजी अखबार 'द हिंदू ' में छपी खबर का अनुवाद है. अगर यह खबर सच है तो यह भयंकर अमानवीय और शर्मनाक करतूत हमारे लिए राष्ट्रीय शर्म की बात है . क्या आज का इंसान इतना गिर चुका है कि किसी मानव के निर्जीव शरीर को सदगति देने के बजाय वह उसके टुकड़े-टुकड़े कर किसी गैर ज़रूरी सामान की तरह कचरे में फेंक दे ?

छपी खबर के अनुसार वहाँ ऐसा इसलिए होता है ,क्योंकि इन असहाय और अनाथ महिलाओं की मौत के बाद उनके सम्मानजनक अंतिम संस्कार के लिए कोई वित्तीय प्रावधान नहीं है.

http://blogkikhabren.blogspot.com/2012/01/blog-post_09.html

बहुत अफ़सोस की बात है कि श्री कृष्ण जी की धरती पर महिलाओं की दुर्दशा हो रही है .
विधवा समस्या का हल केवल पुनर्विवाह है .
इस्लाम यही व्यवस्था देता है.


विधवाओं की समस्या हल करना किसी सरकार या किसी संस्था के बस की बात नहीं है. इसे तो बस ऊपर वाला ही हल कर सकता है और यह तब हल होगी जब आप उसकी व्यवस्था का पालन करेंगे .
इस्लाम जीना सिखाता है . इस्लाम को न मानकर आप केवल अपना जीवन ही नष्ट नहीं कर रहे हैं बल्कि समाज के कमज़ोर वर्गों का जीवन भी नर्क बना रहे हैं .
एक दिन आपको उस मालिक को अपने इन सब कर्मों का जवाब देना है.
यह धर्म और आपका यह जीवन सब कुछ उसी का दिया हुआ है और एक दिन वह आपसे इस नाफ़रमानी का हिसाब ज़रूर लेगा .
कृपया विचार करें कि मुसलामानों से चिढ कर आप खुद को सत्य से महरूम क्यों कर रहे हैं ?
vedvyathit said...
aap bdmjgi bdhane mauke khoob tlashte hain yhi aap ki aur aap ke islam ki vastvikta lgti hai jaise aap udahrn dete hain vaise aslam ke anuyaiyon ke bhre pde hain aur khoob ghinone bhi pr un pr chrcha krna khud ko gnda krna hai aap ki kttr vadi soch hi duniya ke vinash ka karn bnegi kyon ki n to aap ko jiyo aur jine done me vishvash hai aur n hi schchaai ko jnne me bs lkir ke fkir bn kr usi me doosron ko bandhne ki koshish ke alva aur kya kr skte hain aap
एक दम सही आकलन किया है......
-----एनीमल इन्स्टिन्क्ट--निर्जीव वस्तुओं व पशु धर्म -- का एक निश्चित धर्म होता है, मशीन की भान्ति बिना सोचे समझे, उसमें विविधता, स्व सोच नहीं होती..लकीर की फ़कीर व्यवस्था ...इसी व्यवस्था को अवर्ण-व्यबस्था कहते है......जहां विविधता होती है...मानव को मानव से व्य्वहार करने की स्वतन्त्रता होती है ..वह सवर्ण-व्यवस्था है...
--यही अन्तर है हिन्दू धर्म व अन्य धर्मों में..
----लाखों मुसलमान..शराव पीते हैं..चोरी-उठईगीरी, गुन्डागर्दी, आतन्क्वाद, हत्या.. करते हैं ..उनका क्या....जाने कितनी वैश्यायें...कालगर्ल मुस्लिम हैं उसका क्या....
---धर्म की गति अत्यन्त् सूक्ष्म है...आप नही समझेंगे....
--सही कहा क्रष्ण ने ..शत्रुओं को मारडालना ही चाहिये, यह बहादुरी है ..न्याय है....न कि पीठ दिख कर भागते जाना, कुए में उप कर जान बचाना और अन्त पकडे जाकर मौत की सजा पाना, यह जीवन व्यर्थ करना है, कायर की मौत मरना है..
Zafar said...
Thanks for your efforts in bringing the truth before us.
May Allah bless you and all your nears n dears.

Iqbal Zafar
आपका लेख पूरा पढ़ी. आशचर्य हुआ कि दो अलग अलग विचार में से किस एक को आप सर्वोत्तम कहने पर क्यों आमादा हैं. धर्म हर किसी का अपना निजी मामला है, मन हो तो मानो न मन न मानो. धर्म किसी पर बाध्यता नहीं होनी चाहिए. आपके लिए जैसे इस्लाम सर्वश्रेष्ठ है वैसे ही हिन्दुओं के लिए उनका धर्म या फिर ईसाई के लिए उनका अपना. धर्म एक मानसिक चेतना है न कि कुछ ख़ास नियम जिसे बना कर उसे पालन करने के लिए बाध्य किया जाए. किसी कि ह्त्या हलाल कर के करें या फिर झटके से क्रूरता में ज़रा फर्क है. झटके में पीड़ा कम होती है और हलाल में तड़पा कर मारा जाता है. जहाँ तक सर्वश्रेष्ठ कौन की बात है तो सारे धर्म ही बेकार हैं, धर्म के नाम पर कितना अत्याचार होता है ये पूरी दुनिया जानती समझती और देखती है. आपके अपने विचार से ये तर्कसंगत हो सकता है लेकिन हर किसी के लिए नहीं. दुसरे के द्वारा स्थापित नियम से अपना जीवन निर्देशित करना तर्कसंगत नहीं.
मेरे ब्लॉग तक आप आये आभार.
कहीं पढ़ा था, धर्म एक बहता दरिया है। कोई घड़ा भरता है तो उसे जल कहता है, कोई मशक भरता है तो पानी कहता है, कोई फ्लास्क भरता है तो वाटर कहता है।
पर अंत में बात यही है कि सब एक ही चीज़ भर रहे हैं।

इस विषय पर इससे अधिक कहने की न मुझे हैसियत है न ज़रूरत।

हां, जब प्यास लगती है तो तो जो भी पात्र मेरे पास होता है, भर कर प्यास बुझा लेता हूं।
shabd kabhi khatm nahi hote,apke blog ka uddeshy bas ek dharm vishesh ki buraai aur dusre dharm ki tareef karna rah gaya hai,
apke nooh aur bhi darjno pralapo par apka pura adhikar hai jitne chahen karen,kuch log kuch khas chize talash karte rahte hai,aap bhi unhi me se ek hai.
Pahle mujhe apke moorkhta purn lekho par gussa aata tha,lekin ab maza aata hai,asal me mai intzar kar raha hoon ki apki lekhni ki zaher bhari syahi kab khatm hogi.
Agar sanatan dharm ke baare me kuch jankari chahiye to stationo pe bikne wali kitabo se aage nikal kar wastvik duniya me aaiye tab shayad samjh sake ki sanatan dharm kya hai...
Waise aap logo ki ek alag duniya hai lekin isme aapka koi kasoor nahi hai to zakir naaik ki tarah aap bhi apna hindu virodhi mission jaari rakhiye...bhagwan apko puri takat de.
DR. ANWER JAMAL said...
आपके हरेक सद्-विचार को सदैव ग्रहण किया जाएगा।
@ भाई विभावरी रंजन जी ! धर्म एक ही है और उसी का प्रचार हम करते हैं और उसी का प्रचार आपको भी करना चाहिए।
इसे आप ऐसे समझिए कि जैसे आज शुद्ध जल भी मिलता है और बाज़ार में पेप्सी, लिम्का और सोडा भी। जल एक ही है लेकिन अलग अलग लोगों ने अपनी समझ से उसमें ज़ायक़ा पैदा करने के लिए अलग अलग साल्ट मिला दिए हैं। कुछ समय के बाद पता चलता है कि वे साल्ट मज़ा तो दे रहे हैं लेकिन नुक्सान भी दे रहे हैं।
इंसान के लिए ईश्वर ने शुद्ध जल बनाया है। उसे वही पीना चाहिए।
कुछ लोग तो जल में और भी ज़्यादा नुक्सान देने वाली चीज़ें मिला देते हैं और कुछ लोग शुद्ध जल से शराब भी बना देते हैं और लोग उसे पीने से रोकते भी हैं।
एक जल के बहुत से रूप हो जाते हैं।
कोई सर्वथा कल्याणकारी होता है और जिसमें मिलावट कम होती है वह कम नुक्सानदेह होता है और कुछ से जान भी चली जाती है।
यही बात धर्म के बारे में है।

अच्छे गुणों को धारण करना धर्म होता है। 
सबसे अच्छा गुण है एक ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और एकनिष्ठा के साथ उसकी आज्ञा का पालन करना।
इसी से सारे अच्छे गुणों की प्राप्ति स्वतः होती चली जाती है।
प्राचीन ऋषियों ने यही मार्ग दिखाया था।
यह तब की बात है जबकि धर्म यहां अपने शुद्ध रूप में था,
जिसे हम जानते हैं क्योंकि इस्लाम यही है।

सच्चे ऋषियों के जाने के बाद बहुत से लोगों ने बहुत से प्रयोग किए। उन्होंने अपने लौकिक और आध्यात्मिक प्रयोगों से जो पाया, उसके आधार उन्होंने भी व्यवस्था दी। उनकी बातें भी धर्म का अंग बन गईं और फिर ऐसे भी लोग आए जिन्होंने खुद को ऊंचा बनाए रखने के लिए धर्म में ऐसी बातें मिला दीं जो कि खुले तौर पर धर्म के विरूद्ध थीं। लोगों के विरोध से बचने के लिए इन्होंने ये नियम अपने नाम से न देकर ईश्वर और ऋषियों के नाम से दिए।
ईश्वर और ऋषियों का नाम देखकर आम जन मानस तो क्या बड़े बड़े राजे महाराजे इनका विरोध न कर पाए। इस तरह धर्म की बातें भी चलती रहीं और कुछ विकार भी आ गए।
आज भी हिंदू शास्त्र और हिंदू जन मानस धर्म से पूरी तरह कोरा नहीं है।
विकारी परंपराओं और कुरीतियों को त्यागते ही उनके पास केवल शुद्ध धर्म शेष रहेगा।
यही धर्म वास्तव में सनातन धर्म है और इसी धर्म का नाम इस्लाम है।

ऐसा नहीं है कि शुद्ध धर्म में मिलावट केवल हिंदुओं ने ही की है। यह मिलावट यहूदियों ने भी की है और ईसाईयों ने भी की है। दुनिया की हरेक क़ौम ने यह मिलावट की है। यहां तक कि ख़ुद मुसलमानों ने भी अपने धर्म में ऐसी बातें मिला दीं जो कि उन्हें पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने नहीं सिखाई थीं। इन्हीं बातों को बिदअत कहा जाता है।

शुद्ध धर्म की ज़रूरत आज हरेक इंसान को है। जिसने धर्म में अपनी तरफ़ से जो कुछ मिलाया है, उसे हटाए। हिंदू भी हटाए और मुस्लिम भी हटाए। यहूदी भी हटाए और ईसाई भी हटाए।
तब सबका धर्म एक होगा।
धर्म बहुत से हैं ही नहीं।
धर्म तो केवल एक ही है और सदा से बस केवल एक ही धर्म है।

विकृतियां न तो पहले कभी धर्म का अंग थीं और न ही आज हैं।
जैसे जैसे विकृतियां दूर होती चली जाएंगी, वैसे धर्म अपने शुद्ध रूप में प्रकट होता चला जाएगा।
अब इस धर्म को जिस नाम से चाहे पुकार लो,
नाम पर कोई झगड़ा होना ही नहीं चाहिए।
एक ही नदी को एक जगह गंगोत्री कहा जाता है तो उससे आगे उसका नाम बदलकर गंगा हो जाता है और बंगाल में उसे बूढ़ी गंगा कहा जाता है। नामों की अधिकता तो उसकी व्यापकता को प्रदर्शित करते हैं।

आप बताएं कि हमारी बात कहां ग़लत है ताकि हम उसे सुधार लें ?
हम भी आखि़र इंसान ही हैं।
हमारे सोचने और कहने में ग़लती हो सकती है।
टिप्पणी बॉक्स इसीलिए रखा गया है कि आप लोग हमारे विचार की तथ्यपरक समीक्षा करें,
आप विश्वास रखिए कि आपके हरेक सद्-विचार को सदैव ग्रहण किया जाएगा।

धन्यवाद !
sarwar said...
असलामुअलेकुम . जमाल अनवर साहब आपने इस्लाम धर्म व् हिन्दू धर्म का जो तुलनात्मक विश्लेषण किया है वह सचाई पर आधारित है बहुत से लोग इस्लामिक व्य्र्वस्था का अनुकरण करते हैं लेकिन इस बात को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं. दुनिया बहुत तेज़ी से इस्लाम की ओर बढ रही है इस्लाम प्रकीर्ति का धर्म है मानव की मुक्ति इस्लाम मैं है . मैंने आपके ब्लॉग पर लोगों के कमेंट्स का अवलोकन किया तो पाया की उन्होंने आपके लेख का कोई भी जवाब नहीं दिया बल्किं नाराज़गी और गुस्से का इज़हार किया क्योंकि आपकी बात का उनके पास जवाब नहीं है और न ही होगा क्योकि आपने हकीकत का बयां किया है .
1 THING MORE I WOULD LIKE 2 ADD
islam has been derived from the word salam i.e salamati .
and momin has been derived from the word aman so how could muslims be terrorist .........just think over it THIS IS THE BEAUTY OF THIS RELIGION
main iske qabil to nhi phir bhi Dr.Jamal sahab ek request hai.
please aap islam ka prachar beshak kariye but kisi dusre dharm ko neecha mat dikhaye isse nafrat k alawa kuch nhi milega .example k liye aapne dekha hi hoga k doose log bhale aap se na kahe par khi nakhi unko bura lag hi jata hai aur zahir si bat hai kyon na lage ,akhir hum kaon hote hai unhe bura kehne wale .aur phir QURAN ne bhi kha- "lakum dinakum wali yadin" tmhare pas tmhara deen ,hmare pas hmara deen aur ek aur jagah farmaya "la iqraha fiddin" deen katai zabr nhi hai.....islam khud itna khubsurat hai bhai ki usko kisi ko badsurat kehne ki zarurat .nhi .agar islam haq hai to to kyun na uski seerat logon ko dikhai jai na ki dusron ki kamiyan.


akhir me main bas itna hi kehna chahta hun apne non muslim bhaiyon se k please aap bura mat maniye




aur mai Dr. sahab se bas itna hi kehna chahta hun k haq batil k upar fatah hamesha pata hai par sirf haq k raste se.......ye sabak mere aaqa o maula IMAM HUSSAIN (r.a
) ne puri ummat ko karbala me pehle hi de diya
Pravin Dubey said...
अनवर साहब मै मनोज जी की बात से सहमत हु और एक बात को कन्फर्म करना चाहता हु, हिन्दू अपनी मुह बोली बहन से भी शादी की बात नहीं सोचते जबकि इस्लाम अपनी ही बहन से निकाह की इजाजत देता है ऐसा क्यु??
DR. ANWER JAMAL said...
@ प्रवीण दुबे जी ! आपको हिन्दू रीती रिवाज की जानकारी नहीं है . आंध्र प्रदेश का मनोहर रेड्डी हमारा दोस्त था . उसने बताया कि हमारे यहाँ तो मामा अपनी भांजी से भी विवाह कर लेता है . मुंह बोली बहनों की बात जाने दीजिये, रिश्ते की बहनों के साथ विवाह करना भी हिन्दू समाज में प्रचलित है .
यह पोस्ट देखिये -

क्षत्रिय ममेरी फुफेरी बहनों से विवाह करते हैं Bal vivah
ये हैं जय और जिया... उम्र महज दो साल...रिश्ता, भावी पति-पत्नी...यह बात अलग है जय की मां मीना जिया के पिता राम की बहन है...यानी जय और जिया ममेरे-फुफेरे भाई-बहन हैं...रविवार को इन दोनों की सगाई हो गई...ये दोनों गुजरात के लेउवा पटेल समाज के हैं...


इस समाज में प्रति हजार लड़कों पर महज 750 लड़कियां हैं...समाज में भाई-बहन के बीच सगाई की इस पहली घटना को लिंगानुपात के अंतर से जोड़कर देखा जा रहा है...इस कार्यक्रम में पूर्व सांसद वीरजीभाई ठुमर भी मौजूद थे...उन्होंने लेउवा पटेलों को क्षत्रियों का वंशज बताते हुए कहा, जब क्षत्रियों में आज भी ऐसा चलन है तो इनमें ऐसे संबंध क्यों नहीं किए जा सकते...

बाबरा तहसील के चमारडी गांव में रहने वाले लेउवा पटेल समाज के सरपंच जादवभाई वस्तरपरा ने अपनी दो वर्षीय पोती जिया की सगाई अपनी बेटी मीनाबेन के दो वर्षीय पुत्र जय के साथ करवाई... इस बारे में जादवभाई का कहना है कि उन्होंने मामा-बुआ के बच्चों के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित कर एक नई प्रथा की शुरुआत की है...

लेउवा पटेल समाज के अग्रणियों के अनुसार दरअसल लेउवा पटेल मूल क्षत्रियों के वंशज हैं और क्षत्रियों में आज भी यह रिवाज प्रचलन में है...इसलिए लेउवा पटेल समाज में इस परंपरा की शुरुआत कर उन्होंने कुछ गलत नहीं किया...

इधर दो वर्षीय जिया के बड़े पापा और उद्योगपति गोपालभाई का कहना है कि यह परंपरा क्षत्रिय वंश की परंपरा है और दूसरी मुख्य बात यह कि पारिवारिक विवाह संबंध से लड़कियों को भी भविष्य में किसी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ेगा...इस प्रसंग पर लेउवा पटेल समाज की कई दिग्गज हस्तियों के साथ पूर्व सांसद वीरजीभाई ठुमर भी मौजूद थे...

सरपंच जादवभाई के अनुसार उन्हें मामा-बुआ के बच्चों के वैवाहिक रिश्तों को लेकर किसी तरह की आलोचना का भय नहीं है...उनके अनुसार इस रिश्ते के संबंध में उन्हें लेउवा पटेल समाज का समर्थन प्राप्त है और वे पूरे लेउवा समाज से इस प्रथा को आगे बढ़ाने का भी आह्वान करेंगे...

Source : http://www.deshnama.com/2012/01/blog-post_31.html

यह बाल विवाह हिंदू संस्कृति की प्रयोगशाला में होना भी अपने आप में कुछ सोचने लिए मजबूर करता है।
Pravin Dubey said...
पहले तो मै आपको हिन्दू धर्म पर इतना शोध करने के लिए धन्यवाद् देना चाहूँगा अनवर जी,और इसबात का खेद भी प्रकट करना चाहूँगा की अपने इसकी सिर्फ कमियो पर ध्यान दिया|
दूसरी बात ये की मैंने अपवादो की नहीं परंपरा की बात की थी आपही सोचिये अगर ये अपवाद नहीं होता तो खबर नहीं बनता|
मै आपसे एक घटना का जीकर जरुरी समझता हु करना जब मै हॉस्टल में था तब मेरा रूममेट शोहराब अली हुआ करता था बड़ी अच्छी दोस्ती थी हमारी अभी भी है हम मंदिर मस्जिद एक साथ जाते थे वो मुझे कुरान के बारे में बताता था और मै उसे हिन्दू पौराणिक कथाएं सुनाता था पर कभी हमारे बिच मतभेद नहीं हुए|
खैर अपना अपना नजरिया है जिसको जैसी तालीम मिली उसकी वैसी सोच है मेरा तो मानना है की कोई धर्म अच्छा या बुरा नहीं होता अछे बुरे होते है उसके मानाने वाले हम इंसान|
DR. ANWER JAMAL said...
कमी की बात न तो हिंदू धर्म हो सकती है और न ही इस्लाम
@प्रवीण दुबे जी ! हिंदू धर्म पर शोध के लिए आपने मुबारकबाद दी है, इसके लिए शुक्रिया।
आपने कहा है कि हमने सिर्फ़ हिंदू धर्म की कमियों पर ही ध्यान दिया है।
आपका यह कहना ग़लत है। कमी की बात को हमने कभी धर्म माना ही नहीं है। कमी की बात न तो हिंदू धर्म हो सकती है और न ही इस्लाम। कमी की बात को धर्म न माना जाए तो हिंदू धर्म और इस्लाम दो नहीं रहते। इस सिद्धांत को माना जाए तो सैकड़ों धर्म बाक़ी नहीं रहते। सही और सच्ची बात ही धर्म है। उसी को मानने में सबका फ़ायदा है। यही वजह है कि कमी की बात को धर्म मानने का हमने सदा विरोध किया है।

हम मस्जिद भी जाते हैं और जब मंदिर में किसी आयोजन में बुलाया जाता है तो हम वहां भी जाते हैं। इसके अलावा भी मठ-मंदिरों में हम जाते रहते हैं। जहां भी जाते हैं, एक ईश्वर के एक सत्य धर्म की ही बात करते हैं और इस पर आज तक कहीं कोई झगड़ा नहीं हुआ। हम दूसरे पक्ष की बात सुनते हैं और वे हमारी बात सुनते हैं। बहुत से लोग हमारी बात मान भी लेते हैं। दूसरा पक्ष कोई अच्छी बात प्रमाण सहित बताता है तो हम उसे मान लेते हैं।
DR. ANWER JAMAL said...
बिना विवाह किए यौन संबंध स्थापित करना परंपरा है
@ @प्रवीण दुबे जी ! रिश्ते की बहन से विवाह करना लाखों हिन्दुओं का रिवाज है। जिस काम को लाखों लोग करते हों, उसे परंपरा कहा जाता है, अपवाद नहीं। इससे भी आगे बढ़कर बहुत सी परंपराएं हिंदू समाज में हैं। जिनकी जानकारी आपको नहीं है। बिना विवाह किए यौन संबंध स्थापित करना हिंदू धर्म की परंपरा है।

केरल के समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग नायरों (इसमे पिल्लई, मेनोन, पणिक्कर, मारार, नम्बियार, कुरूप आदि लोग भी शामिल हैं) का था. तकनीकी दृष्टि से ये शूद्र थे परन्तु योद्धा हुआ करते थे. सेना में ये कार्यरत होते थे अतः क्षत्रिय सदृश माना जा सकता है. इनके समाज में अधिकार स्त्रियों के हाथों हुआ करता था. उत्तराधिकार के नियम आदि स्त्रियों पर केंद्रित थे. इस व्यवस्था को “मरुमक्कतायम” कहा जाता था. इन लोगों में विवाह नामकी कोई संस्था नहीं थी. घर की लड़कियां अपने अपने घरों (जिन्हें “तरवाड़” कहा जाता है) में ही रहतीं. सभी भाई बहन इकट्ठे अपनी माँ के साथ. घर के मुखिया के रूप में मामा(मुजुर्ग महिला का भाई) नाम के लिए प्रतिनिधित्व करता था. किसी कन्या के रजस्वला होने पर किसी उपयुक्त पुरूष की तलाश होती जिस के साथ “सम्बन्धम” किया जा सके. यहीं नम्बूतिरी ब्राहमणों का काम बन जाता था क्योंकि कई विवाह से वंचित युवक किसी सुंदर कन्या से संसर्ग के लिए लालायित रहते थे . नायर परिवार में “सम्बन्धम” के लिए नम्बूतिरी या अन्य ब्राह्मण पहली पसंद होती थी क्योंकि उन्हें बुद्धिमान समझा जाता था. जैसे नम्बूतिरी घरों के युवकों को चार स्त्रियों से सम्बन्धम की अनुमति थी वैसे ही यहाँ नायर समुदाय की स्त्रियों के लिए भी आवश्यक नहीं था कि वे केवल एक से ही सम्बन्ध बनाये रखें. एक से अधिक (Polyandry) भी हो सकते थे. अंशकालिक!. सम्बन्धम, जैसा पूर्व में ही कहा जा चुका है, साधारणतया अस्थायी पाया गया है. लेकिन स्थायी सम्बन्धम भी होते थे, किसी दूसरे संपन्न तरवाड़ के नायर युवक से. कभी कभी एक स्थाई और कुछ दूसरे अस्थायी/ अंशकालिक. एक से अधिक पुरुषों से सम्बन्ध होने की स्थिति में समय का बटवारा भी होता था. पुरूष रात्रि विश्राम के लिए स्त्री के घर आता और सुबह उठते ही अपने घर चला जाता. संतानोत्पत्ति के बाद बच्चों की परवरिश का कोई उत्तरदायित्व पुरूष का नहीं रहता था. सब “तरवाड़” के जिम्मे. परिवार की कन्याओं का सम्बन्ध धनी नम्पुतिरियों से रहने के कारण धन “मना” से “तरवाड़” की और प्रवाहित होने लगा और “तरवाड़” धनी होकर प्रतिष्ठित हो गए. कुछ तरवाडों की प्रतिष्ठा इतनी रही कि वहां की कन्याओं से सम्बन्ध बनना सामाजिक प्रतिष्ठा का भी द्योतक रहा.
नायरों जैसी ही स्थिति राज परिवारों की भी रही. उनकी कन्याओं का सम्बन्ध किसी दूसरे राज परिवार के पुरूष या किसी ब्राह्मण से हो सकता था और राज परिवार के युवकों का सम्बन्ध नायर परिवार की कन्याओं के साथ.
यहाँ यह बताना उचित होगा कि इस पूरी व्यवस्था को सामाजिक मान्यता प्राप्त थी और किसी भी दृष्टिकोण से इसे हेय नहीं समझा जाता था.