सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Monday, August 30, 2010

About Namaz on road part 2nd मस्जिद को तिमंज़िली बना लीजिये और जब तक तामीर का काम पूरा हो तब तक नमाज़ दो या तीन शिफ़्टों में पढ़ लीजिये। इस तरह नमाज़ मस्जिद के अंदर ही अदा हो जायेगी और इबादत करने वाले जुल्म करने और लोगों के लिए फ़ित्ना बनने से बच जाएंगे। - Anwer Jamal

ऐ हमारे रब ! हमें इन्कारियों के लिए फ़ित्ना न बना और ऐ हमारे रब, हमें बख् दे, बेशक तू ज़बर्दस्त है, हिकमत वाला है।          पवित्र कुरआन, 60, 5
                                                                  
दीन रहमत है, दीन ख़ैरख्वाही है, दीन अद्ल है, दीन फ़ज़्ल है, दीन हक़ है और ज़ुल्म बातिल है। दीन रहमत है न सिर्फ़ मुसलमानों के लिए बल्कि सबके लिए, सारे जहां के लिए। अगर कोई अमल दुनिया के ज़हमत बन रहा है, लोगों की हक़तल्फ़ी हो रही है, जुल्म हो रहा है तो यक़ीन कर लीजिये कि यह ‘कुछ और‘ है दीन हरगिज़ नहीं है।
ज़ुल्म इंसाफ़ का विलोम है। आम तौर पर लोग मारपीट और क़त्ल वग़ैरह को ही जुल्म मानते हैं लेकिन ‘ज़ुल्म‘ की परिभाषा है ‘चीज़ का ग़ैर महल‘ में इस्तेमाल करना यानि किसी चीज़ का वह इस्तेमाल करना जो उस चीज़ का सही इस्तेमाल न हो। मस्लन मस्जिद नमाज़ के लिए बनाई जाती है और लोग उसमें इबादत और एतकाफ़ न करें तो यह मस्जिद पर जुल्म है। इसी तरह सड़क इसलिए बनाई जाती है ताकि लोग उसपर चलकर अपनी ज़रूरतें पूरी करें। सड़क की स्वाभाविक प्रकृति उसपर चलना है। अगर कुछ लोग सड़क पर चलने के फ़ितरी अमल में ख़लल डालते हैं तो वे सड़क पर चलने वालों पर ही नहीं बल्कि खुद सड़क पर भी जुल्म करते हैं।
बारात,जुलूस और प्रदर्शनों की वजह से आये दिन लोग यह जुल्म सरे आम करते हैं। अक्सर इसे टाल दिया जाता है क्योंकि यह जुल्म करने वाले हक़ अदा करने का मिज़ाज ही कब रखते हैं, लेकिन हद तो तब हो जाती है कि जब यह जुल्म वह तबक़ा करता है जिसे रब ने ‘हक़ व इंसाफ़‘ का गवाह बनने के लिए ही उठाया हो, और फिर यह रास्ता रोकना भी इबादत करने के लिए हो तो जुर्म और भी ज़्यादा संगीन हो जाता है।
नमाज़ में दुआ मांगी जा रही है ‘दिखा और चला हमें सीधा रास्ता‘ और हालत यह है कि उनकी दुआ की ख़ातिर दूसरे बहुत से लोग रास्ता चलने से महरूम खड़े हैं या फिर दुश्वारी से गुज़र रहे हैं। यह सड़क पर भी जुल्म है और सड़क पर चलने वालों पर भी।
इसलिए कि मस्जिद छोटी पड़ जाती है और लोग ज़्यादा आ जाते हैं। इसका सीधा सा समाधान यह है कि मस्जिद को तिमंज़िली बना लीजिये और जब तक तामीर का काम पूरा हो तब तक नमाज़ दो या तीन शिफ़्टों में पढ़ लीजिये। इस तरह नमाज़ मस्जिद के अंदर ही अदा हो जायेगी और इबादत करने वाले जुल्म करने और लोगों के लिए फ़ित्ना बनने से बच जाएंगे।
हिन्दू भाईयों से हमेशा नमाज़ की अदायगी में सहयोग मिलता आया है, यह सच है और इसके लिए मुस्लिम समुदाय हिन्दू भाईयों का शुक्रगुज़ार है और खुद भी उनके आयोजनों में बाधा नहीं डालता लेकिन याद रहे कि लोगों को भड़काकर राजनीति करने वाले इंसान के रूप में शैतान भी हमारे दरम्यान ही रहते-बसते हैं। मुसलमानों को कोई भी मौक़ा शैतान को नहीं देना चाहिये जिसकी वजह से शैतान लीडर हिन्दू भाइयों और मुसलमान भाईयों को एक दूसरे के खि़लाफ़ खड़ा करने में कामयाब हो सके।
इसके अलावा एक बात यह कॉमन सेंस की है कि हम इस देश के नागरिक हैं और हम सभी को अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास होना चाहिए। आदमी अपने घर से किसी ज़रूरत के तहत ही निकलता है। कहीं आग लग रही होती है और फ़ायर ब्रिगेड को समय पर पहुंचना होता है और बैंक लुट रही होती है, औरतों की इज़्ज़तों पर डाका पड़ रहा होता है और पुलिस उस तरफ़ भागी चली जा रही होती है। किसी मरीज़ को सीरियस कंडीशन में अस्पताल ले जाया जा रहा होता है या फिर छोटे बच्चे स्कूल से अपने घर लौट रहे होते हैं। इसके अलावा भी बहुत सी इमरजेंसी होती हैं जिनके सही समय पर पूरा न होने की वजह से बहुत से लोग अपनी जान और आबरू हमेशा के लिए गंवा बैठते हैं।
दीन रहमत है और मुसलमानों को चाहिए कि वे दुनिया में रहमत फैलाने वाले बनें न कि सोये हुए फ़ित्नों को जगाने की कोशिश करें। सड़क पर नमाज़ अदा करना सड़क पर और राहगीरों पर जुल्म है, अपनी नमाज़ को गुनाह से आलूदा करना है। खुदा पाक है और पाक अमल ही उसकी बारगाह तक पहुंचता है जो आदमी इतनी सी बात भी न पहचान सके, वह बेशऊर है। ये बेशऊर लोग जो रमज़ान में मस्जिदें भर देते हैं वे रमज़ान ख़त्म होते ही नदारद हो जाते हैं।
क्या नमाज़ रमज़ान के बाद फ़र्ज़ नहीं रहती ?
हक़ीक़त यह है कि उन्हें नमाज़, दीन और उसके तक़ाज़ों का सही शऊर ही नहीं था। अगर उन्हें वाक़ई मारिफ़त और शऊर होता तो वे बाद में भी नमाज़ के पाबन्द रहते। ये लोग नमाज़ पर भी जुल्म करते हैं। दीनी संस्थाओं से वाबस्ता लोगों को चाहिए वे लोगों में दीन का सही शऊर पैदा करें और मुस्लिम समाज को सही दिशा देकर देश और दुनिया को बेहतर संदेश दें।

Friday, August 27, 2010

About Namaz on road सड़क पर नमाज़ पढ़कर लोगों को तकलीफ़ न दें -Anwer Jamal

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- ‘‘ तुम रास्ते में बैठने से बचो।‘‘
लोगों ने पूछा , ‘‘ऐ अल्लाह के रसूल ! यह तो हमारे लिए ज़रूरी है।‘‘
आपने फ़रमाया, ‘‘ अगर तुम्हारे लिए यह ज़रूरी है तो रास्ते को उसका हक़ दो।‘‘
उन्होंने मालूम किया कि ‘‘रास्ते का क्या हक़ है ?‘‘
आप स. ने फ़रमाया, ‘‘निगाहें नीची रखना, तकलीफ़ देने वाली चीज़ों को रास्ते से हटा देना, सलाम का जवाब देना, नेकी का हुक्म देना और बुराई से मना करना।‘‘  -बुख़ारी, मुस्लिम
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आज एक इलैक्ट्रिक उपकरण सही कराने के लिए रेलवे क्रासिंग पार जाना हुआ तो देखा कि सड़क किनारे बनी हुई एक छोटी सी मस्जिद के बाहर दो लेन वाली सड़कों में से एक को स्टूल वग़ैरह लगाकर ब्लॉक कर दिया है। यह देखते ही मेरे दिल पर एक घुटन सी छा गई। सड़क चलने वालों के लिए बनाई गई है या नमाज़ पढ़ने के लिए ?
क्या सरकारी सड़क पर क़ब्ज़ा करना एक ग़ैर-इस्लामी और हराम काम नहीं है ?
क्या नाजायज़ क़ब्ज़े वाली ज़मीन पर नमाज़ पढ़ना भी नाजायज़ नहीं है ?
आज जुमा का दिन है और रमज़ान का महीना है यानि हराम काम से बचने की प्रैक्टिस का महीना है। आज तो हरेक गुनाह से बहुत ही ज़्यादा बचने की कोशिश करनी चाहिए न कि अपनी इबादत को ही गुनाह से आलूदा कर लिया जाए।
अल्लाह के रसूल स. ने तो आम हालात में लोगों का सड़कों पर बैठना पसंद नहीं फ़रमाया और लोगों को तिजारत वग़ैरह जायज़ ज़रूरतों की वजह से वहां बैठने की इजाज़त दी भी तो कुछ शर्तों के साथ कि वे रास्ता चलने वालों का हक़ न मारें, उनके लिए परेशानी खड़ी न करें बल्कि अगर उन्हें परेशान करने वाली कोई झाड़ी वग़ैरह वहां पड़ी हो तो उसे हटा दें।
आज उल्टा हो रहा है कि सड़क पर जहां कुछ भी पड़ा हुआ नहीं है वहां स्टूल वग़ैरह डालकर उसे ब्लॉक किया जा रहा है। परेशान राहगीर मुसलमानों के साथ-साथ उनकी नमाज़ और उनके दीन को भी कोसेंगे। इबादतख़ाने के बाहर दीन के खि़लाफ़ अमल हो रहा है और कर कौन रहे हैं ?, जिनपर लोगों को दीन का सही शऊर देने की ज़िम्मेदारी है। यानि कि वे खुद दीन के सही शऊर से कोरे हैं।
ऐसे मौक़े पर प्रशासन मात्र इस वजह से ख़ामोश रहता है कि उसके हस्तक्षेप से बात सुधरने के बजाय और ज़्यादा बिगड़ जाएगी। उसकी ख़ामोशी से यह मतलब निकाल लिया जाता है कि प्रशासन के दख़लअंदाज़ी न करने का मतलब यह है कि उनके काम पर प्रशासन को कोई आपत्ति नहीं है।
शहर में बड़ी-बड़ी मस्जिदें हैं, उनमें जाईये। थोड़ा पहले निकलिये, अपने वक्त की कुरबानी दीजिये या फिर अपने माल की कुरबानी दीजिए और संभव हो तो आस-पास की जगह ख़रीदकर अपने पास की मस्जिद को ही अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ बड़ी बना लीजिए।
जो लोग न अपने माल की कुरबानी देना चाहते हैं और न ही अपने वक्त की, उन्हें अपनी सुविधा के लिए शहर के दूसरे तमाम राहगीरों को तकलीफ़ देने और दीन को कलंकित करने का कोई हक़ नहीं है।
2-कोई कह सकता है कि जागरण और कांवड़ जैसे धार्मिक कार्यों के लिए भी तो सड़कें ब्लॉक कर दी जाती हैं ?
इस बारे में यह कहा जाएगा कि नबी स. का फ़रमान आपके सामने हैं और एक मुस्लिम की हैसियत से आप उसे मानने के लिए पाबंद हैं। आप खुद को समाज के लिए नफ़ाबख्श बनाईये, अच्छी मिसाल क़ायम कीजिये, दूसरों तक आपकी अच्छाई का असर पहुंचेगा तो हो सकता है कि वे भी अपने व्यवहार पर विचार करें।
रमज़ान के महीने में विभिन्न दीनी संस्थाएं लोगों को रोज़े के क़ायदे-क़ानून समझाने और उनसे चन्दे की अपील करने के लिए कैलेंडर आदि छापते-बांटते हैं। इन संस्थाओं को रमज़ान के महीने में ‘सड़क पर नमाज़ की अदायगी‘ जैसे सामाजिक मुद्दों पर भी दीनी हुक्म प्रकाशित और प्रचारित करना चाहिये। मस्जिदों के इमाम साहिबान को भी अपने खुत्बों में इस पर लोगों को सही जानकारी देनी चाहिये।
3-इसी मस्जिद से दस क़दम की दूरी पर शहर का एक बेहद महंगा होटल है। वापस लौटते हुए देखा कि होटल के सामने सड़क के डिवाइडर पर रखकर आतिशबाज़ी की जा रही है और उसकी भयानक आवाज़ से मैं लगातार दहलता रहा और सोचता रहा कि अगर किसी वजह से आतिशबाज़ी के यंत्र की दिशा बदल गई तो उसकी चपेट में आकर कोई भी घायल हो सकता है। खुशियों के अवसर पर होने वाली आतिशबाज़ी और फ़ायरिंग से होने वाली मौत की ख़बरें आये दिन अख़बारों में छपती रहती हैं लेकिन लोग फिर भी झूठे दिखावे से बाज़ नहीं आते।
शर्म की बात है कि इसी देश में लोग रोटी और दवाओं जैसी बुनियादी ज़रूरतों को तरस रहे हैं और कुछ लोग दिखावे की ख़ातिर दौलत में आग लगा रहे हैं। यह बेशऊरी आम है पूरे देश में, हर इलाक़े में। खुद आतिशबाज़ के कपड़े उसकी ग़ुरबत का ऐलान कर रहे थे। मासूम बच्चों के सिरों पर रौशनी के हण्डे रखकर बारात निकालने वाले और बारात में शराब पीकर नाचने वाले सिर्फ़ यह दिखा रहे हैं कि उन्हें किसी के दुख से कोई मतलब नहीं है। फिर ऐसे लोगों का समाज अपने नेताओं से यह अपेक्षा क्यों रखता है कि वे उनकी परेशानियों पर समुचित ध्यान दें ?
बेशऊरी आम है हर तरफ़ और रमज़ान का मुक़द्दस महीना चल ही रहा है। मुसलमानों की ज़िम्मेदारी है कि वे रमज़ान का हक़ अदा करें और अपने अन्दर दीन का सही शऊर जगायें। भूखों-प्यासों के दर्द को समझने के लिये रोज़ा बेहतरीन ज़रिया है। खुदा की रहमत पाने के लिए खुद लोगों के साथ रहम का बर्ताव कीजिये। सड़क रोककर नमाज़ न पढ़ना भी लोगों के साथ रहम के बर्ताव में से ही एक अमल है। शुरूआत इसी से कीजिये।

Monday, August 23, 2010

Submission to God for salvation . समर्पण कीजिए , उद्धार पाईये - Anwer Jamal

हर चीज़ ईश्वर के अधीन है

इस ज़मीन पर अनगिनत लोग आबाद हैं। इनमें वे लोग भी होते हैं जो न तो अक्ल से काम लेते हैं और न ही वक्त रहते अपनी वाजिब ज़िम्मेदारियों को पूरा करते हैं और इन्हीं लोगों के दरम्यान ऐसे इनसान भी होते हैं जो नज़र आने वाली चीज़ों पर विचार करके नज़र न आने वाली हक़ीकत को अपनी अक्ल से जान जाते हैं। चीज़ों में ग़ौर-फिक्र का अभ्यास उन्हें इस सच्चाई तक पहुँचा देता है कि ज़मीन और आसमान की हर चीज़ पर कोई एक ही अनन्त शक्तिशाली हस्ती कन्ट्रोल किये हुये है।
फिर वे देखते हैं कि आकाश में घूमते हुए सूरज चाँद सितारे हों या खुद ज़मीन हो, समुद में तैरने वाली नौकाएं हों या हवा के रूख़ पर उड़ते हुए बादल हों, बादलों से बरसने वाला पानी हो या पानी से ज़िन्दा होने वाली ज़मीन हो, रात और दिन का हेर फेर हो या ज़मीन पर आबाद जीवों की कोई भी किस्म हो, इनमें से कोई भी च़ीज ऐसी नहीं है कि उसका फ़ायदा इनसान को न पहुँच रहा हो। अगर इनमें से कोई एक भी चीज़ कम होती तो ज़मीन पर इनसान की ज़िन्दगी सम्भव न होती।

उसकी रहमत से है हर चीज़ का वजूद
इन चीज़ों का इन्तेज़ाम न तो खुद इनसानों के किसी लीडर वैज्ञानिक या संत-गुरू ने किया है और न ही खुद इन चीज़ों ने आपस में मशविरा करके यह व्यवस्था बनाई है और फिर यह व्यवस्था इत्तेफ़ाक़ से ख़ुद भी नहीं बन गई है क्योंकि यह सुन्दर व्यवस्था पूरे संतुलन के साथ निरन्तर बनी हुई है जबकि इत्तेफ़ाक़ एक-दो बार हो सकता है लगातार नहीं हो सकता। इस तरह तमाम चीज़ों का संतुलन जहाँ एक ही कुदरत वाले रब का पता देता है वहीं उन चीज़ों की नफ़ाबख्शी यह भी ज़ाहिर करती है कि वह मालिक सबका भला चाहने वाला और सबको नफ़ा पहुँचाने वाला है। वह रब रहमान व रहीम है, न तो उसकी कृपा की कोई हद है और न ही उसकी दया का सिलसिला कभी टूटता है।

ज्ञान की उत्पत्ति प्रेम' से है
इस ‘बोध’ के प्राप्त होते ही इनसान का दिल सच्चे ईमान के नूर से जगमगा उठता है। वह जान लेता है कि इस जगत में वह अनाथ नहीं है। उसका एक रब है जो सारी ताक़तों का मालिक है, जो उपसर हर पल अपनी रहमतों की बारिश करता रहता है। उसका दिल अपने दयालु दाता के प्रेम से इतना भर जाता है कि कोई भी चीज़ उस प्रेम से न तो आगे बढ़ पाती है और न ही उसके बराबर ही पहुँचती है। ‘प्रेम’ के ये ढाई अक्षर उसके ज्ञानचक्षु खोल देते हैं। अब उसे हर चीज़ उसी रूप में नज़र आती है जैसी कि वास्तव में वह होती है।

इनसान की कामयाबी का राज़ क्या है?
हर चीज़ को वह अपने मालिक की मिल्कियत के रूप में देखता है। हर जीव को वह एक ही मालिक का बन्दा जानता है। ऊँच-नीच और भेदभाव की दीवारें उसके लिए ढह जाती हैं। उसके लिए सब बराबर हो जाते है और वह सबके लिए नफ़ाबख्श बन जाता है। प्रेम और ज्ञान की जो दौलत उसके पास होती है वह उसे लोगों में बाँटना अपना फ़र्ज़ समझता है ताकि दूसरे भी अपने जीवन का सच्चा मक़सद समझ लें और अपना समय बर्बाद न करें।
इनसान की हकीकत इनसानियत है। इनसानियत से गिरकर आदमी कभी कामयाब नहीं हो सकता। जब इनसान लालच, नफ़रत, गुस्सा, प्रतिशोध और अहंकार के उन रूपों को धारण करता है जो ‘धारणीय’ नहीं हैं तो वह धर्म से हीन हो जाता है चाहे उसने किसी भी पवित्र माने गये रंग के कपड़े पहन रखे हों या उसकी दाढ़ी-चोटी कितनी ही लम्बी क्यों न हो?
ऐसे ही अगर इनसान नशा, जुआ, व्यभिचार, चोरी, डाका, दंगा-फ़साद और हत्या जैसे न करने लायक़ काम करता है तो वह मानवता का अपराधी बन जाता है। चाहे उसे पब्लिक बहुत बड़ा लीडर या गुरू ही क्यों न मानती हो?
और वह मोटे-मोटे पोथे भी क्यों न बाँचता हो?

जुल्म का दरवाजा कौन खोलता है?
अक्सर लोग ऐसे होते हैं जो अपने चारों तरफ़ मौजूद चीज़ों को देखते ज़रूर हैं लेकिन वे उन चीज़ों के सिर्फ़ ज़ाहिर को देखते हैं। वे एक चीज़ को दूसरी चीज़ से जोड़कर और फिर सारी चीज़ों को एक साथ जोड़कर देखने का कष्ट भी उठाना पसन्द नहीं करते। जिन चीज़ों पर वे क़ब्ज़ा जमा सकते हैं उनपर वे क़ब्ज़ा जमा लेते हैं। उनको अपनी सम्पत्ति और जागीर मानकर दूसरों को उनसे वंचित कर देते हैं और फिर उन वंचितों को भी अपना सेवक और ग़ुलाम बना लेते हैं। उन्हें ज़िल्लत के ऐसे गड्ढे में उतार देते हैं कि फिर उससे वे कभी उबर नहीं पाते। ज्ञान, कौशल और सभ्यता का हर दरवाज़ा, हर झरोखा उन पर सदा के लिए बन्द कर देते हैं।

चीज़ों को उपास्य (माबूद)  कौन बनाता है?
कुछ चीजे़ ऐसी भी होती हैं जिनपर उनका बस नहीं चलता लेकिन उनसे पहुँचने वाले नफ़े-नुक्सान से वे प्रभावित होते रहते हैं। ऐसी तमाम चीज़ों को वे अपने आप में खुद ही नफ़ा-नुक्सान पहुँचाने की शक्ति का मालिक मान बैठते हैं। ऐसी हर चीज़ का लाभ उन्हें आकर्षित भी करता है और उनसे पहुँचने वाला नुक्सान उन्हें डरने पर मजबूर भी कर देता है। सूरज, चाँद, सितारे, पेड़, पहाड़, नदियाँ, जल, वायु, अग्नि, पशु-पक्षी, उनका मल-मूत्र और खुद अपने यौनांगों की अनुभूतियाँ उन्हें बताती हैं कि उनके वजूद की पैदाइश और परवरिश इन्हीं पर निर्भर है। जिस ज़मीन पर वे बसते हैं और उसके अन्न-फल को वे खाते हैं उसकी सुन्दरता भी उन्हें मोह लेती है। वे चीज़ों पर रीझ जाते हैं और इन सब उपहारों के दाता को भुला देते हैं।
अपने रब के प्रति श्रद्धा और समर्पण का भाव हरेक जीव के अवचेतन ( Subconcious ) में मौजूद होता है। जब आदमी अपने रब को भुला देता है तो फिर उसका यह जज़्बा उनके प्रति प्रकट होता है जिनसे वह सबसे बढ़कर प्रेम करता है। आदमी जिसे भी अपने जीवन का आधार मानकर सबसे ज़्यादा प्रेम करता है वही उसकी श्रद्धा और उसके समर्पण का केन्द्र बन जाता है। यही श्रद्धा, प्रेम और आदर अपने चरम बिन्दु को पहुँचने के बाद पूजा-उपासना के रूप में बदल जाते हैं।

समाज कैसे पथभ्रष्ट होता है?
पूरी श्रद्धा और पूरे समपर्ण का सच्चा हक़दार तो केवल एक ही मालिक है लेकिन जब यह हक़ बनने-बिगड़ने वाली चीजों को इनसान दे बैठता है तो उसका वर्तमान और भविष्य सब कुछ बिगड़ जाता है। जब तक सबका पूज्य एक प्रभु परमेश्वर था सबके मन एक थे सबमें प्रेम, सहयोग और सबके मंगल की भावना थी लेकिन जैसे ही उसे भुलाकर या उसके साथ दूसरों को भी उसके बराबर का दर्जा देे दिया गया तो अब वास्तविक पूज्य के साथ बहुत से फ़र्ज़ी पूज्यों की भीड़ लग गई। जिसको जो भाया वह उसी के गीत गाने लगा और उसे ही शीश नवाने लगा। गोबर-पत्थर से लेकर आग, पानी, नदियाँ और सूरज, चाँद, सितारों की, हर चीज़ की पूजा होने लगी। जिसके क़ब्जे में धरती का जितना हिस्सा था वह उसी का पुजारी बन गया। माता-पिता, आचार्य और जीवनसाथी को भी परमेश्वर का रूप या साक्षात परमेश्वर ही मान लिया गया। जब इतने सारे भी कुछ कम लगे तो फिर मर चुके लोगों की आत्माओं का भी आह्वान किया जाने लगा। जिन्नों और शैतानों की पूजा भी खुलेआम होने लगी। ये भी कम लगे तो अपनी कल्पना से ही नये-नये पूज्य बना लिये और फिर उनकी कवितामय कहानियाँ भी रच डालीं।

परमेश्वर कौन है?
परमेश्वर वह है जो मार्गदर्शन करता है, सद्मार्ग दिखाकर कष्टों को दूर करता है और इनसान को उसके स्वाभाविक इनसानी गुणों से सुशोभित करता है। लेकिन जब इनसान उसका दामन छोड़कर प्रकृति के तत्वों या अपने ही जैसे लोगों को अपना ‘परमपूज्य’ बना लेता है तो या तो वे सिरे से उसका कोई मार्गदर्शन ही नहीं करते या फिर जो लीडर या ढोंगी गुरू कुछ नियम-क़ायदे बनाते भी हैं तो न तो वे नियम इनसान की राजनीति, अर्थ व्यापार, घर-परिवार और अध्यात्म आदि सभी क्षेत्रों में रहनुमाई करते हैं और न ही वे गुरू खुद अपने उपदेशों पर अमल करके ही दिखाते हैं।

अपनी-अपनी ढपली अपना अपना राग
हरेक गुरू का अनुमान-फ़रमान दूसरे गुरू से अलग होता है। किसी का ख़याल है कि ईश्वर, आत्मा और पदार्थ सदा से हंै। किसी ने कहा कि आत्मा और पुद्गल (पदार्थ) ही होते हैं, इस कायनात का कोई क्रिएटर नहीं है। कोई बोला कि आत्मा भी नहीं होती बस पदार्थ ही होता है और किसी ने घोषणा कर दी कि जगत मिथ्या है यहाँ कुछ नहीं है, हर चीज़ नज़र का फ़रेब है।
यही हाल खान-पान का हुआ। किसी ने कहा कि जो खा सको खाओ शाक भी, माँस भी, मुर्दार भी और शराब भी। किसी ने शाकाहार के अलावा सबको तामसिक भोजन घोषित कर दिया और कुछ ने दूध, दही, शहद, अचार और अंजीर भी वर्जित कर दिए। कोई पूरा बदन ढकने लगा तो कोई लंगोट में घूमने लगा और किसी को लंगोट सीना-पहनना भी माया-मोह दिखने लगा। कोई परिवार पालते हुए भक्ति करने को श्रेष्ठ बताता तो कोई घर वालों को छोड़कर जंगल की ओर भाग निकला। कोई विधवा विवाह को पुण्य बताने लगा तो किसी ने विधवा विवाह को पाप और नियोग को पुण्य घोषित कर दिया और किसी ने तो कुंवारे लड़के लड़कियों के मन विवाह और मैथुन से ही फेर दिए। कोई दौलत का पुजारी बन गया और किसी को अपना जीवन भार और जगत निस्सार लगने लगा। जो अपने शरीर को कष्ट देने लगे उन्हें पहुँचा हुआ सिद्ध समझा जाने लगा और उनकी आत्महत्या के लिए मोक्ष और निर्वाण जैसे शब्द गढ़ लिए गये।

जन्म लेकर पछताना क्यों ?
ईश्वर, जीव और कर्तव्य-अकर्तव्य में भारी मतभेद रखने के बावजूद इस बात पर वे सभी एकमत हो गए कि संसार एक यातनागृह है जिसमें जीव पौधों, पशु-पक्षियोंें और मानव रूप में अपने कुकर्मों का दण्ड भोग रहे हैं। हरेक चीज़ पिछले अज्ञात जन्मों की भयंकर पापी है। उन्हें जन्म लेने देने से ही नफ़रत हो गई। किसी को अपने जन्म के पीछे, अपने माँ-बाप की ग़लती नज़र आने लगी और किसी को लगा कि इस गलती का ज़िम्मेदार ईश्वर है। मनुष्य को पैदा करके वह पछताया ज़रूर होगा। ज्ञान, कर्म, भक्ति का निचोड़ यह निकाला गया कि जैसे भी हो सके खुद को मिटा डालो।
 न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
ऐसे सभी लोग खुद को और दूसरों को दुष्ट पापी मानकर मनुष्य जन्म का उद्देश्य और उसकी गरिमा जानने से महरूम रह गये। उनके दिलों में दया, करूणा और उपकार की भावनाएं कमज़ोर पड़ गईं। जिसका नतीजा शोषण और अन्याय के रूप में प्रकट होना लाज़िमी था। कुछ लोग यह दावा लेकर भी सामने आये कि वे ईश्वर का अंश-वंश और रूप हैं। उनकी ईश्वर से सैटिंग है। जो उनकी शरण में आयेगा, उनकी सेवा करेगा उसे वे ईश्वर की यातना से बचा लेंगे, या फिर लोगों ने अपने ख्याल से ही किसी महापुरूष के बलिदान के बदले में हरेक पाप माफ़ मान लिया।

पतन के कारणों का निवारण ज़रूरी है

As a whole  वे समाज को क्या देकर गये? उन्होंने समाज को इतने सारे मतों में बांट दिया कि समाज की एकता, शांति और उन्नति सब कुछ नष्ट हो गयी। हमारे प्यारे देश भारत महान का विश्व गुरू पद से पतन हो गया। जब तक पतन के कारणों को दूर करके वास्तविक प्रभु परमेश्वर से उपासना और मार्गदर्शन का सम्बन्ध फिर से स्थापित नहीं किया जाएगा तब तक न तो धर्म, कर्म और ज्ञान की प्राप्ति होगी और न ही भारत पुनः विश्व गुरू के पद पर आसीन हो सकता है।

पापनाशक ज्ञान क्या है?
पवित्र कुरआन ही वह ईश्वरीय ज्ञान है जो अज्ञान के तमाम अंधेरों को मिटा डालता है। इसकी एकेश्वरवादी शिक्षा के प्रकाश में चीजें उसी रूप में दिखाई देने लगती हैं जैसी कि हक़ीक़त में वे होती हैं। जिन चीज़ों की हक़ीक़त अक्लमन्द आदमी आज जान लेता है, वही हक़ीक़त मरने के बाद अक्ल से काम न लेने वले अत्याचारी पापी भी जान जाऐंगे कि चीज़ें तो पालन-पोषण का निमित्त भर थीं जिनके ज़रिये पालने वाला केवल एक प्रभु परमेश्वर था। तब दुनिया में लोगों को बहकाने वाले लीडरों और नक़ली गुरूओं की बोलती बन्द हो जाएगी और वे अपने अंधभक्तों से विरक्त हो जाएंगे। उनके अनुयायी भी तमन्ना करेंगे कि काश उन्होंने उनके बहकावे में आकर खून-खराबा और फ़साद न किया होता या काश उन्हें अपनी ग़लती सुधारने के लिए एक बार फिर दुनिया में भेज दिया जाए लेकिन तब उनकी ख्वाहिश बेकार होगी। अपने पापकर्मो का फल भुगतने के लिए उन्हें नरक की आग में सदा के लिए झोंक दिया जाएगा।

उद्धार का अवसर
जो लोग अभी जीवित हैं उनके लिए अभी अवसर है कि वे समय रहते चेत जाएं और खुद को सारी शक्ितयों के स्वामी के अधीन कर दें। उसी से मार्गदर्शन लें। उसकी बताई हुई हदों में रहें। खुद को प्रेम, ज्ञान, दया, न्याय और क्षमा आदि इनसानी गुणों से युक्त करें। सबका भला चाहें। खुद को नकारात्मक सोच से बचायें, निराशा से बचें, भारत और विश्व के बेहतर भविष्य की आशा रखें। मालिक से दुआ भी करें। ज्ञान को फैलाएं, नादानों के व्यंग्य और उपहास को नज़र अन्दाज़ करें। एक वक्त आयेगा जब वे जान लेंगे कि आप वास्तव में उनकी भलाई के लिए ही काम कर रहे थे।

सच्चाई की ओर बढ़ते क़दम
सबका पूज्य प्रभु एक है। वह मालिक आज भी धरती पर फूल खिलाता है, पानी बरसाता है और बच्चे पैदा करता है। इसका मतलब यह है कि वह न तो इनसान से निराश हुआ है और न ही उसने इनसान के लिए अपनी रहमत का दरवाज़ा बन्द किया है। ज्ञान-विज्ञान का दायरा भी लगातार बढ़ रहा है और नई नस्लों की बुद्धिमत्ता का स्तर ( I. Q. ) भी। सांइटिफ़िक एप्रोच बढ़ रही है। लोग जज़्बात के प्रभाव से निकलकर चीज़ों को उनके वास्तविक रूप में समझने का अभ्यास कर रहे हैं।

प्रलय के लक्षण
एक तरफ़ तो यह हो रहा है और दूसरी तरफ़ इनसान के हाथों की कमाई तबाही का रूप धारण कर चुकी है। भूकम्प, सैलाब और तेज़ाबी बारिशें हो रही हैं। वनस्पति और पशु-पक्षियों की नस्लें लुप्त हो रही हैं और बाक़ी पर भी ख़तरा मंडरा रहा है। पहले भी हज़रत नूह अलै0 (महर्षि मनु) के काल में धरती पर जल प्रलय हुई थी और अब फिर होने को तैयार है। पहले भी पापी दुराचारी डूबे थे, वही अब डूबेंगे। पहले भी ईश्वर ने अपने भक्तों की रक्षा की थी। वही ईश्वर अब भी करेगा।

उद्धार का मूल्य है निष्ठा और समर्पण
फै़सले की घड़ी क़रीब आ गयी है। आप भी जल्दी फैसला कर लीजिये कि आप खुद को किन लोगों में शामिल करना चाहते हैं, डूबने वालों में या उद्धार पाने वालों में ?
उद्धार पाने वालों में।
तो फिर अभी सच्चे दिल से खुद को पूरी तरह एक परमेश्वर के प्रति समर्पित कर दीजिये और पूरी निष्ठा और प्रेम से उसी की भक्ति कीजिए, उसी का उपकार मानिए और उसी के गुण गाइये। उसकी दया को आप हर पल अपने साथ पाऐंगे।

Saturday, August 21, 2010

I love Christ , The messiah, messenger of God . आपने क्रिएशन, हज़रत ईसा मसीह को क्रिएटर बना डाला। यह ग़लत है। - Anwer Jamal

राकेश लाल जी ! आपका आना अच्छा लगा, लेकिन यह हिन्दी ब्लॉग है , अगर आप बाइबिल के वचनों को हिन्दी में दिखाते तो और भी अच्छा रहता। मैं बचपन से ही इंजील और मसीह में आस्था रखता हूं। नवीं क्लास में था तो मुझे ‘दिनाकरन जी‘ ने नया नियम भेजा, बाद में मुझे पूरी बाइबिल उर्दू में एक पादरी दोस्त ने दे दी, फिर अंग्रेज़ी में भी एक प्रति एक और पादरी मित्र ने गिफ़्ट कर दी।

यूहन्ना की पहली आयत आपने उद्धृत की है और वचन को परमेश्वर ही घोषित कर दिया है। यह एक ग़लत बात है। हज़रत ईसा मसीह अलैहिस्सलाम की ज़बान इब्रानी या सुरयानी थी। उनके सामने किसी ने उनके वचनों को संकलित नहीं किया। वेटिकन सिटी में रखे हुए नुस्ख़े लैटिन और यूनानी भाषा में हैं, जो मसीह के साढ़े तीन सौ साल बाद के हैं। उनका भी केवल अनुवाद ही उपलब्ध कराया जाता है। इस आयत में यूनानी भाषा का शब्द ‘होथिओस‘ परमेश्वर के लिये आया है और जहां ‘एन्ड द वर्ड वॉज़ गॉड‘ आया है वहां यूनानी शब्द ‘टोन्थिओस‘ आया है जिसका अर्थ है ‘ देवशक्तियों से युक्त ‘। अर्थात वचन देवशक्तियों से युक्त था। आपने क्रिएशन को क्रिएटर बना डाला। यह ग़लत है।
हज़रत ईसा मसीह अलैहिस्सलाम ने हमेशा खुद को खुदा के बन्दे के तौर पर पेश किया आप ग़लती से उन्हें खुदा का दर्जा दे बैठे।

Thursday, August 19, 2010

The reality मालिक का हुक्म कुछ है और बंदों का अमल उसके सरासर खि़लाफ़। - Anwer Jamal

सब आदमी एक आदम की औलाद हैं और एक पालनहार के बंदे हैं । उसने हर ज़माने में अपने दूतों के ज़रिये इनसान को यही शिक्षा दी है कि केवल मेरी उपासना करो और मेरे आदेश का पालन करो। खुद को पूरी तरह मेरे प्रति समर्पित कर दो। उसने अपने दूतों के अन्तःकरण पर अपनी वाणी का अवतरण किया। उसने हरेक तरह की जुल्म-ज़्यादती को हराम क़रार दिया और हरेक भलाई को लाज़िम ठहराया। उन सच्चे दूतों के बाद लोगों ने वाणी को छिपा दिया और अपनी कविता और अपने दर्शन को ही जनता में प्रचारित कर दिया। इससे लोगों के विश्वास और रीतियां अलग-अलग हो गईं। लोग मूर्तिपूजा और आडम्बर को धर्म समझने लगे। हर जगह यही हुआ, इसी वजह से आपको हिन्दू और मुसलमान अलग-अलग नज़र आ रहे हैं।

मुसलमानों की मिसाल से आप अच्छी तरह समझ सकते हैं। इसलाम में क़ब्र पक्की बनाना, उस पर चादरें चढ़ाना, रौशनी करना, म्यूज़िक बजाना, औरतों-मर्दों का मिलकर वहां क़व्वाली गाना और सुनना, मज़ार वाले से दुआ मांगना सब हराम है, यह तो है पवित्र कुरआन का हुक्म लेकिन आप ये सब होता हुआ देख ही रहे हैं। बहुत सी जगहों पर ये चीज़ें इसलाम धर्म का अंग समझी जाने लगी हैं। मालिक का हुक्म कुछ है और बंदों का अमल उसके सरासर खि़लाफ़। करोड़ों रूपये की आमदनी क़ब्रों के मुजाविरों को हो रही है। क्या ये अपनी आमदनी का दरवाज़ा खुद ही बंद कर देंगे ?
हिन्दुओं में भी ऐसे ही विकार जड़ पकड़ गये हैं। उनके धर्मग्रंथ भी मूर्तिपूजा और आडम्बर से रोकते हैं लेकिन लोग उनकी मानते कब हैं और जिनके पौ-बारह हो रहे हैं वे भला क्यों रोकेंगे ?
ईश्वर एक है, शाश्वत है और उसका धर्म सनातन है यानि सदा से है। सारी मानव जाति का कल्याण एक परमेश्वर के नाम पर एक होने में ही है। हरेक झगड़े का अंत इसी से होगा, इसी लिये मैं दोनों को एक मानता हूं और जिसे शक हो वह कुरआन शरीफ़ की सूर ए शूरा की 13 वीं आयत पढ़ लें।
Surah no. 42

Wednesday, August 18, 2010

‘मुझे हिन्द की तरफ़ से रब्बानी खुश्बूएं (ईश्वरीय ज्ञान की सुगंध) आती हैं।’ - Prophet Muhammed (s.a.w.)

‘मुझे हिन्द की तरफ़ से रब्बानी खुश्बूएं (ईश्वरीय ज्ञान की सुगंध) आती हैं।’
हज़रत मुहम्मद साहब (सल्ल॰) के इस वचन की अहमियत ठीक तरह सिर्फ़ तभी समझी जा सकती है जबकि लोगों को कहने वाले की महानता का सही बोध हो। जो लोग उन्हें ईश्वर का दूत मानते हैं उन्हें मुस्लिम कहा जाता है। लगभग 153 करोड़ मुस्लिम दिन रात अज़ान और नमाज़ में उनका नाम लेते हैं, उन्हें याद करते हैं उनके लिए दुआ करते हैं और अपनी इबादतों में भी और उसके अलावा भी वे उनकी तारीफ़ करते हैं। जो उन्हें पैग़म्बर के रूप में तो पहचान नहीं पाये लेकिन उन्हें मानवता का उद्धारकर्ता मानकर उनकी तारीफ़ करते हैं, उनकी तादाद भी कई करोड़ है।
‘मुहम्मद’ शब्द का अर्थ होता है ‘तारीफ़ किया गया’।
जिनकी तारीफ़ अपने-पराये और दोस्त-दुश्मन सब करते हों, जिनकी तारीफ़ खुद रब करता हो, जिनकी तारीफ़ बाइबिल, ज़न्द-अवेस्ता, वेद, पुराण, उपनिषद और गुरूग्रन्थ साहिब में हो, जो अल्लाह का बनाया अव्वल नूर हों और अंतिम रसूल हों, जब उनकी पवित्र वाणी से हिन्दुस्तान की तारीफ़ बयान हुई है तो यह एक ऐसी तारीफ़ है जिससे बढ़कर कोई तारीफ़ नहीं हो सकती। यह हिन्दुस्तान की पवित्रता के लिए ऐसी सनद है जिसे कोई रद्द नहीं कर सकता। यह हिन्दुस्तान के लिए ऐसा आशीर्वाद है जिसकी बरकतें ज़ाहिर होना लाज़िमी है। इसमें हिन्दुस्तान के उस मौलिक गुण की निशानदेही भी है जिसपर उसके भविष्य की बेहतरी का दारोमदार है।
ज्ञान हरेक ख़ूबी की कुंजी  है। ज्ञान ही उन्नति का आधार है। ज्ञान से ही शक्ति का उदय होता है और शक्ति से शाँति की स्थापना होती है। शाँति से समाज में समृद्धि आती है। लोगों में प्रेम, आदर, सद्भावना और सहिष्णुता के गुण पनपते हैं। ये गुण भारतीय जाति की विशेषता कल भी थे और आज भी हैं। इन्हीं गुणों की वजह से धर्म-मत-सम्प्रदायों की विभिन्नता के बावजूद लोग रोज़मर्रा के कामों में एक दूसरे का सहयोग ले दे रहे हैं। एक दूसरे की खुशी और ग़म में शरीक हो रहे हैं। हाँ, नज़रिये के अन्तर की वजह से उनमें कुछ मतभेद भी हैं और यह बिल्कुल स्वाभाविक है। मतभेद तो एक छोटे से परिवार तक में होते हैं। तब 120 करोड़ की विशाल जनसंख्या में हों तो बिल्कुल स्वाभाविक है।
मतभेद घर में होते हैं तो घर के बड़े आपस में बैठकर बातचीत के ज़रिये उन्हें दूर करते हैं। समय-समय पर सभी धर्म-मतों के आचार्यों की सभाओं और गोष्ठियों का मक़सद भी यही होता है और उनके अच्छे नतीजे भी सामने आये हैं लेकिन समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने राजनीतिक स्वार्थ की ख़ातिर लोगों में भेद डालते हैं। भड़काऊ भाषण देकर लोगों के जज़्बात भड़काते हैं। भाई को भाई से लड़ाते हैं। जिस धरती को वे माँ कहते हैं उसका आंचल उसी की सन्तान के खून से लाल कर देते हैं। कितनी सुहागिनें विधवा हो जाती हैं और कितने ही बच्चे अनाथ हो जाते हैं? बूढ़े माँ-बाप जब अपनी ज़बान औलादों की लाशें देखते हैं तो उनके दिलों पर क्या गुज़रती होगी और कैसे-कैसे श्राप उनके दिल से निकलते होंगे?
 दूसरों पर जुल्म ढाने वाला खुद भी सुखी नहीं रहता।
ज्ञान की धरती, प्रेम की धरती, इस पवित्र पुण्य भूमि पर आखिर यह अनाचार कब तक?
दारूल उलूम के आलिमों ने देश की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी है और अपनी जानें कुर्बान की हैं। उनके देशप्रेम पर वे लोग उंगली उठा रहे हैं जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में न कभी भाग लिया और न ही कोई क़ुर्बानी दी, बड़ी हास्यास्पद सी बात है।

Tuesday, August 17, 2010

Real sence of Dharma एक है धर्मसार है - Anwer Jamal

वेदसार ब्रह्मसूत्र-
एकम् ब्रह्म द्वितीयो नास्ति, नेह, ना, नास्ति किंचन।
अर्थात ब्रह्म एक है दूसरा नहीं है, नहीं है, नहीं है, किंचित मात्र नहीं है।
कुरआन का सार कलिमा ए तय्यबा है जिसका अव्वल हिस्सा  यह है-
ला इलाहा इल-लल्लाह
अर्थात अल्लाह के सिवाय कोई वंदनीय-उपासनीय नहीं है।

एक ही अजन्मे, अविनाशी सृष्टिकर्ता को संस्कृत में ‘ब्रह्म’ और अरबी भाषा में ‘अल्लाह’ कहा जाता है। शांति स्वरूप और अरबी भाषा में ‘अल्लाह’ कहा जाता है। शांतिस्वरूप और अस्सलाम भी उसी के सगुण नाम हैं। उस मालिक का नाम लेने वालों के मिज़ाज में भी शान्ति और सलमाती झलकनी चाहिये जो कि धर्म का मूल है और ‘इस्लाम’ का तो धात्वर्थ ही शांति है।

ईश्वर और धर्म शांति का स्रोत हैं।



आइये, शांति पाएं, शांति फैलाएं।।

Monday, August 16, 2010

The role of Deobandi ulema as freedom fighters रेशमी रूमाल की तहरीक भी दारूल उलूम की ही देन है। - Anwer Jamal

 दुनिया का महान इस्लामी विश्व विद्यालय दारूल उलूम देवबंद ब्रिटिश शासन काल में क़ायम की गयी भारत की पहली मुफ़्त शिक्षा देने वाली संस्था है। दारूल उलूम एक विश्वविद्यालय ही नहीं है, बल्कि एक विचारधारा है जो देश और दुनिया में अंधविश्वास और कुरीतियों से लड़ते हुए इस्लाम को अपने मूल रूप में प्रसारित करता है। दारूल उलूम देवबंद की आधारशिला आज से क़रीब 143 साल पहले 30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन रह0 व मौलाना क़ासिम नानौतवी रह0 ने रखी थी। वह दौर भारत के इतिहास में राजनैतिक तनाव का था।
1857 में अंग्रेज़ों के विरूद्ध लड़े गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बादल ख़त्म न हुए थे, और उस वक्त अंग्रेज़ों का भारतीयों के साथ दमनचक्र तेज़ हो गया था। अंगे्रज़ों ने अपनी पूरी ताक़त से 1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन को कुचल कर रख दिया था। देवबंद जैसी छोटी जगह में भी 44 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था। ऐसे सुलगते माहौल में देशप्रेम और आज़ादी की चाहत ने दारूल उलूम को जन्म दिया।
भारत हमेशा एक आदर्श विचार देने के लिए मशहूर रहा है। दारूल उलूम भी इसी भारतवर्ष के हिन्दी भाषी उत्तर प्रदेश के नगर देवबंद में स्थित है। दारूल उलूम की आधार-शिला के वक्त संपूर्ण भारतवर्ष में खलबली मची हुई थी। ऐसे वक्त में भारतीय समाज को एक करने की ज़रूरत थी।
बिखरते भारतीय समाज को एकजुट करने में दारूल उलूम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। भारत की टूटती संस्कृति, शिक्षा और बिखरते समाज की सुरक्षा करते हुए दारूल उलूम ने लोगों के भीतर आज़ादी का एहसास जगाया। उस वक्त देश के उलमा ने खंडित भारतीय समाज को ज़ालिम ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ जगाने में अपनी जान की बाज़ी लगा दी।
भारत को अंग्रेजों के अत्याचार से निजात दिलाना पश्चिम की नक्ल से रोकना और अंग्रेजों की भारत के खि़लाफ नीतियों को नाकाम करना उस वक्त दारूल उलूम का एक अहम मक़सद था। दारूल उलूम के बानी मौलाना क़ासिम नानौतवी का बलिदान सुनहरे अक्षरों से लिखे जाने के क़ाबिल है। उन्होंने आज़ादी के मतवालों के दिलों में एक नयी रूह फूंक कर एक ऐसी ख़ूँरेज़ जंग का आग़ाज किया था, जिसका एतराफ़ अंग्रेज़ी शासन ने भी किया।
मौलाना क़ासिम नानौतवी की उम्र अभी 50 साल भी नहीं हुई थी कि जंगे-आज़ादी के मुख्तलिफ़ महाज़ों पर अपनी बेमिसाल सरफ़रोशी और कुर्बानियों की बुनियाद क़ायम करते हुए दुनिया से हमेशा-हमेशा के लिए रूख़सत हो गये। हज़रत नानौतवी की ज़िदगी में ही दारूल उलूम राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक सुधार के कई कामों को अंजाम दे चुका था।
मौलाना क़ासिम नानौतवी के बाद उनके शागिर्द, शेखुल हिन्द’ मौलाना महमूद हसन ने जंगे आज़ादी की कमान संभाली। उन्होंने दारूल उलूम से पढे़ सभी लोगों को जोड़ कर जमीअतुल अंसार नाम का एक संगठन बनाया जिसमें देशी और विदेशी तमाम तालीमयाफ़्ता शामिल थे। जिस वक्त शेखुल हिन्द ने मुकम्मल आज़ादी का नारा दिया, उस वक्त तक कोई भी राष्ट्रीय जमाअत या तहरीक वजूद में नहीं थी।
हज़रत मौलाना असद मदनी की एक तहरीर के मुताबिक़ आज़ादी की तीसरी जंग शेखुल हिन्द की क़यादत में लड़ी गयी। जंगे आज़ादी का एक मुश्तरका प्लेटफार्म बनाने के लिए दारूल उलूम के सद्र शेखुल हिन्द ने महात्मा गांधी को लीडर बनाया। उन्होंने जमीअतुल अंसार का मुख्यालय दिल्ली में बनाया जहां उन्हें महात्मा गांधी जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, लाल लाजपत राय, मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी जैसे देश के आला नेताओं का सहयोग बख़ूबी मिला।
इतिहास में रेशमी रूमाल की तहरीक भी दारूल उलूम की ही देन है। यह उस वक्त की बात है जब मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी ने काबुल में अमीर हबीबुल्लाह से तुर्की में हमले की इजाज़त हासिल कर ली और मुआहिदा तय हो गया था। उन्होंने इसकी इत्तिला शेखुल हिन्द को देने के लिए रेशम के एक रूमाल पर संदेश को बुना लेकिन इत्तिफाक़ से यह रूमाल रास्तें में ही अंग्रेजों  के हाथ लग गया और तमाम मंसूबों का राज़ फ़ाश हो गया। और इसकी सज़ा आज़ादी के दीवानों को चुकानी पड़ी। और अंजाम यह हुआ कि मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी और अमीर हबीबुल्लाह को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया।
इसी तरह शेखुल हिन्द को मक्का में एक फ़त्वे पर दस्तख़त नहीं करने के बहाने गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर बाद में माल्टा की जेल में कै़द कर दिया गया और 30 नवम्बर 1920 को शैखुल हिन्द का इन्तिक़ाल हो गया। इसके बाद भी दारूल उलूम के उस्तादों में आज़ादी का जज़्बा कम नहीं हुआ। 1920 और 1942 की लड़ाई में दारूल उलूम के नौजवानों ने बखूबी हिस्सा लिया और और आखि़रकार 1947 में पूरे देश में आज़ादी की शमा रौशन हुई।                           एम0 अबसारूल हसन

Sunday, August 15, 2010

Sacrifices of muslim ulema हज़रत मौलाना क़ासिम नानौतवी साहब रहमतुल्लाह अलैह ने तैयार की थी फ़ौज - Anwer Jamal

दारूल उलूम देवबन्द के संस्थापक हज़रत मौलाना क़ासिम नानौतवी साहब रहमतुल्लाह अलैह ने अंगे्रजों की मुखालिफत ही नहीं की बल्कि उनके ख़िलाफ़ एक पूरी फौज भी तैयार की थी।
मौलाना कासिम साहब का जन्म सन् 1832 में कस्बा नानौता के एक दीनदार परिवार में हुआ था। वह इब्तिदाई तालिम हासिल करने के बाद 22 जनवरी, 1844 को मौलाना ममलूक अली नानौतवी के पास दिल्ली चले गए। 19 अक्टूबर 1951 को मौलाना ममलूक अली साहब का इंतकाल हो गया। तब वह उनके बेटे मौलाना याकूब साहब के साथ दिल्ली के कूचा चीलान में रहने लगे। यहां रहते हुये उन्होंने नौजवानों को अंग्रेजों  के खिलाफ मुसल्लह बग़ावत की प्रेरणा दी। 1857 की क्रान्ति के शुरू होते ही शामली के इलाके में उनके नेतृत्व में अंग्रेजों की फौज को हरा दिया गया। अंग्रेजों ने उनके वारण्ट निकाल दिये। क्रान्ति के नाकाम होने के बाद अंग्रेजों ने क्रान्तिकारियों का केन्द्र मदरसा अजीजिया, दिल्ली को पूरी तरह नेस्तोनाबूद कर दिया, और हज़ारों आलिमों को फांसी पर लटका दिया। तब मौलाना ने 1967 में दारूल उलूम की स्थापना की। 15 अप्रैल  1880 को मौलाना इस
दार-ए-फ़ानी से कूच कर गये। मौलाना जब तक जीवित रहे अंग्रेजों की मुखालिफत में सरगर्म रहे। उनकी कोशिशों से नस्ल दर नस्ल मुसलमानों में क्रान्तिकारी पैदा होते रहे। मौलाना सिर्फ़ मुसलमानों में ही नही बल्कि गैर मुस्लिमों में भी बहुत मक़बूल थे।
अफ़सोस की बात है कि दूसरे मुसलमानों के साथ उनकी कुर्बानियों को भी भुला दिया गया, जिसकी वजह से लोगों में नाउम्मीदी और बदगुमानी पैदा हुई और फ़िरक़ापरस्ती  का रूझान बढ़ा। मुल्क की सलामती और तरक्की के लिये फ़िरक़ापरस्ती का ख़ात्मा ज़रूरी है और इसके लिये वतन की खातिर जान देने वाले मुसलमानों को उनका वाजिब हक़ दिया जाना ज़रूरी है।

Saturday, August 14, 2010

Only 'He' can save us एक ईश्वर की वंदना : हरेक समस्या का सच्चा समाधान - Anwer Jamal

15 अगस्त 1947 ई0 को भारत आज़ाद हुआ। उससे पहले अंगे्रजों ने पाकिस्तान को अलग देश बनाया और फिर कुछ समय बाद ही बांग्लादेश भी बन गया। तीनों देशों के नेताओं ने दशकों शासन किया लेकिन ग़रीबी, भूख और अपराध का खात्मा न कर सके बल्कि सत्ता की कुर्सियों पर अपराधी तत्व ही क़ाबिज़ हो गए।
धर्म सिखाता है क्षमा, प्रेम, दया और उपकार, मतभेद के बबावजूद एक दूसरे के मानवाधिकारों का सम्मान और सुरक्षा करना। तीनों देशों के नेताओं ने इसे उलट दिया। इनका ज़िक्र और उपदेश तो कहीं पीछे छूट गया। उन्होंने लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काया, उनके विवेक को सुलाया और एक दूसरे से टकरा दिया। अक्सर धर्म गुरू भी उनके साथ ही रहे या फिर अलोकप्रिय हो जाने के डर से ख़ामोश रहे।
आज हालत यह है कि देश ‘यह’ हो या ‘वह’ लेकिन मंदिर-मस्जिद-दरगाह और इमामबाड़ों में बम धमाके आम बात हो गए हैं। इस तरह की समस्याएं लोगों का ध्यान शिक्षा, रोज़गार और विकास के मुद्दों से हटा देती हैं। देश की समस्याएं नेताओं की समस्या हल करती हैं।
कश्मीर काफ़ी हद तक शांत था। शांतिकाल में वहां शिक्षा, रोज़गार और विकास के लिए जो काम किये जाने चाहियें थे, नहीं किये गये। नतीजा यह हुआ कि आज कश्मीरी जवान पत्थर मार रहा है और गोली खा रहा है। कश्मीर के विकास के लिये दिये गये ‘आर्थिक पैकेजेज़’ का करोड़ों रूपया कोई अकेले ही डकार गया या उसे मिल-बांटकर खाया गया ?, इसे न कोई पूछता है और न ही कोई बताता है। नक्सलवाद के मूल में भी यही कारण है। ग़लत हैं नीतियां नेताओं की ओर मारे जाते है फ़ौजी और आम लोग।
स्वतन्त्रता दिवस कल आने वाला है और माह-ए-रमज़ान चल ही रहा है। माह-ए-रमज़ान के रोजे़ इंसान को उसकी ज़िम्मेदारी का अहसास दिलाते हैं उसमें गुनाह से बचने का भाव जगाते हैं, उसे नेकी और भलाई के कामों पर उभारते हैं। यह दुनिया ही सब कुछ नहीं है। मौत के बाद भी जीवन है और प्रलय के बाद भी सृष्टि है परलोक है जहां हरेक जीव को अपने कर्मो का ‘पूरा फल’ भोगना ही है।
नेताओं में जब तक ‘तक़वा’ अर्थात ज़ुल्म-ज़्यादती और पाप से बचने का भाव नहीं जगेगा तब तक लोगों की कोई समस्या हल न हो सकेगी, देश चाहे ‘यह’ हो या ‘वह’ या फिर कोई तीसरा।
ईश्वर एक है और मानव जाति को भी एक हो जाना चाहिये। अलगाववाद और हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं है। एक परमेश्वर की वंदना और उसके आदेशों का पालन ही हरेक समस्या का सच्चा और स्थायी समाधान है।

वंदे ईश्वरम्

Thursday, August 12, 2010

Oneness एकता से बढ़कर है ‘एकत्व‘ जो कि राम के भक्त और रहीम के बन्दों के दरम्यान पहले से ही मौजूद है लेकिन उन्हें बोध नहीं है। दोनों के ही लिये वासनाओं के पीछे दौड़ना जायज़ नहीं है। -Anwer Jamal

हिन्दू हो या मुसलमान, हरेक को उस अजन्मे अविनाशी सृष्टिकर्ता परमेश्वर के आदेश का पालन उस रीति से करना चाहिये जिस तरह ऋषियों ने करके दिखाया।
कुरआन परमेश्वर की वाणी है और हज़रत मुहम्मद साहब स. उसके दूत हैं इसीलिये हम उनका अनुकरण करते हैं। आप भी उनका अनुकरण कीजिये लेकिन अगर आप कुरआन को परमेश्वर की वाणी और हज़रत मुहम्मद साहब स. को उसका दूत नहीं मानते तो आप जिस ग्रंथ में निर्भ्रांत सत्य पायें और जिस व्यक्ति में ऋषि का मूल लक्षण; ‘सर्वविद्याओं का यथावत जानना‘ पायें उसका अनुकरण करें। अपनी वासना के पीछे दौड़ना न मुसलमान के लिये जायज़ है और न ही हिन्दू के लिये। यही वासना भ्रष्टाचार का मूल है जो देश-समाज को किसी घुन की तरह चाट रहा है। कल्याण के लिये ‘तत्व‘ को समझना ज़रूरी है। सृष्टिकर्ता को मुसलमान अल्लाह, रहमान, रहीम और हिन्दू भाई ईश्वर, ब्रह्म और राम कहते हैं। उसे सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और न्यायकारी बताते हैं। हरेक चीज़ को उसी ‘एक‘ के द्वारा उत्पन्न किया जाना मानते हैं। भलाई-बुराई का फल भी उसी के द्वारा दिया जाना मानते हैं। लोग एकता की बातें करते हैं लेकिन मैं ‘एकत्व‘ का बोध कराना चाहता हूं। लोगों को चाहिये कि वे अपने लिये जो व्यवहार पसंद करते हैं वही दूसरों के साथ भी करें।
भाई सुज्ञ के अनुरोध पर मैं यह टिप्पणी एक पोस्ट के रूप में पेश कर रहा हूं उम्मीद है कि राम के भक्त और रहीम के बन्दे इस पर अपेक्षित ध्यान देकर खुद को वासनाओं की भंवर से निकालने और देश-समाज को बेहतर बनाने की कोशिश करेंगे।
  • रमज़ान के इस पवित्र माह में अब ब्लॉगिंग के लिये समय मिल पाना मुश्किल है, सो अब कभी-कभार ही कहने-सुनने का मौक़ा मिल पाएगा।

Tuesday, August 10, 2010

Ramazan जिस्म और रूह की बेहतरी है रोज़े में - Anwer Jamal

सेहत के लिए फायदेमंद है रोजा

अल्लाह तबारक व तआला क़ुरआन शरीफ़ के पारा नम्बर दो सूरह बकर की आयत नम्बर 182-183 में इर्शाद फ़रमाता है कि ” ऐ ईमान वालो! तुम पर रोज़े फ़र्ज़ किए गए जैसे कि अगली उम्मत पर फ़र्ज़ किए गए थे ताकि तुम मुत्तक़ी और परहेज़गार बन सको ।“
आसमानी किताब क़ुरआन पाक की इस आयत के तर्जुमे से अगर सबक़ हासिल करें और देखें तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भी इस बात से क़तई इन्कार नहीं किया कि सेहत और तन्दुरुस्ती के लिए भी तक़वा व परहेज़गारी बहुत ही ज़रुरी है। हमें सेहतमन्द और तन्दुरुस्त रहने के लिए समय पर खाना-पीना, सोना और मेहनत करना ज़रुरी है जिसे एक रोज़ादार बख़ूबी अन्जाम देकर बीमारियों से बचता है। समय पर खाने-पीने से रोज़ादार का हाज़मा दुरुस्त रहता है। इसलिए रोज़ादार को क़ब्ज़, बदहज़मी और गैस जैसी हाजमे संबंधी बीमारियां नहीं होती हैं। आधुनिक रोज़ा चिकित्सा विज्ञान के जन्मदाता अमेरिकन विद्वान ड़ाक्टर ड़यूई ने टाइफा़इड़ के एक रोगी को ज़बरदस्ती दूध पिलाना शुरु किया लेकिन मरीज़ दूध पीते ही उल्टी कर देता था। तरह-तरह की दवाओं से रोगी का हाजमे का निजाम ठीक करने की कोशिश की गई लेकिन सारी कोशिशें नाकाम रहीं। थक-हार कर ड़ाक्टर ने मरीज़ को खिलाना-पिलाना बन्द करवा दिया जैसा कि रोज़ा के दौरान होता है। इस तरीक़े को अपनाने से मरीज़ धीरे-धीरे सेहतमन्द और तन्दुरुस्त हो गया। ‘‘फिजिकल कल्चर’’ में ड़ाक्टर एनीरिले हैल ने लिखा है कि फ़ेफ़ड़ों की टीबी के लिए मरीज़ को बीस-पच्चीस दीन रोज़े रखवाकर जांच की जाए तो टीबी के बैक्टीरिया ( जीवाणु ) पूरी तरह खत्म हो जाते हैं। रोज़ाना ज़्यादा खाने से पाचन क्रिया के अंगों को अधिक मेहनत करनी पड़ती है, जबकि रोज़े के दौरान इन्हें आराम मिलता है जिससे पेप्टिक अल्सर जैसे रोग ठीक हो जाते हैं।
रोज़े की हालत में नज़ला, ज़ुकाम, टांन्सिलाइटीज़, दमा, बवासीर, एग्ज़ीमा और ड़ाइबीटीज़ जैसे ख़तरनाक रोगों में करिश्माई फ़ायदा पहुंचता है। तम्बाकू युक्त पान, बीड़ी, सिगरेट वग़ैरह सेहत के लिए नुक़सान देह है क्योंकि तम्बाकू में निकोटिन नामक नशीला पदार्थ होता है जो दिमाग और शरीर पर बुरा असर ड़ालता है जिससे दिल की बीमारियां, अल्सर और कैंसर जैसे खतरनाक रोग पैदा होने की आशंका बनी रहती है। रोजा रखकर इन्हें आसानी से छोड़ा जा सकता है ।इन बातों से ज़ाहिर होता है कि रोज़े ना सिर्फ़ आखि़रत की कमाई है बल्कि मौजूदा ज़िन्दगी में भी ये बेशुमार मर्ज़ों का इलाज है।रमज़ान के रोज़े के बेशुमार फ़ायदों में से एक बहुत बड़ा फ़ायदा यह भी है कि इससे दिल साफ़ होता है और अल्लाह से करीबी हासिल होती है। ग़रीबों पर रहम आता है। भूखे को देखकर दिल में हमदर्दी पैदा होती है। भूख में उनकी हिमायत नसीब होती है । दुनिया में कई लोग हैं जिन्हें खाना मयस्सर नहीं होता। वे भूखे रहते हैं। रोज़ेदार भी रमज़ान में भ्ूखा रह कर उनका साथ देता है। वर्षों पुरानी बात है। उस ज़माने के एक बहुत बड़े बुजु़र्ग, महान सूफ़ी सन्त हज़रत बशर हाफ़ी रहमतुल्लाह अ़लैह को एक आदमी ने देखा कि सर्दी से हज़रत कंपकपा रहें हैं जबकि उनके गर्म कपड़े सामने ही रखे हुए थे। उस आदमी ने पूछा क्यों ऐ बशर! यह क्या बात है कि गर्म कपड़े होते हुए भी आप सर्दी की तकलीफ़ उठा रहें हैं। इस पर हज़रत बशर हाफ़ी ने फ़रमाया कि फ़क़ीर बहुत हैं और मेरे लिए सबकी देख-भाल नामुम्किन है इसलिए मैं भी सर्दी की तकलीफ़ उठाने में उनका साथ दे रहा हूं ।रोज़ा में आदमी भूखा रहता है।
हज़रत इमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अ़लैह ने भूख के दस फ़ायदे बताए हैं।
पहला फ़ायदाः दिल की सफ़ाई होती है। पेट भर कर खाने से तबियत में सुस्ती आती है और दिल का नूर जाता रहता है। ज़्यादा खाने से बुख़ारात यानी गैस दिमाग़ को घेरते हैं। जिसका असर दिल पर भी पड़ता है। वली-ए-कामिल हज़रत शिबली रहमतुल्लाह अ़लैह फ़रमाते हैं कि मैं अल्लाह के लिए जिस दिन भूखा रहा मैंने अपने अन्दर इबरत व नसीहत का एक दरवाज़ा खुला पाया।
 दूसरा फ़ायदाः दिल का नरम होना है जिससे ज़िक्र वग़ैरह का असर दिल पर होता है। कई बार बहुत मेहनत व तवज्जोह से ज़िक्र करने पर भी दिल उससे लज़्ज़त हासिल नहीं करता है और ना ही उससे प्रभावित होता है मगर जिस समय दिल नरम होता है तो ज़िक्र में भी लज़्ज़त आती है । हज़रत अबू सुलेमान दारानी रहमतुल्लाह अ़लैह कहते हैं कि मुझे इबादत में तब मज़ा आता है जब मेरा पेट भूख की वजह से कमर को लग जाए।
तीसरा फ़यदाः यह है कि इससे आजिज़ी व इन्केसारी पैदा होती है और अकड और घमण्ड जाता रहता है ।
चोथा फ़ायदाः यह है कि मुसिबतज़दों व फ़ाक़ाज़दों से इबादत में ग़फ़लत पैदा नहीं होती है। पेट भरे आदमी को बिल्कुल अन्दाज़ा नहीं होता है कि भूखों और मोहताजों पर क्या गुज़र रही हैं। पांचवा फा़यदाः जो असल व अहम है गुनाहों से बचना । पेट भरना कई बुराइयों की जड़ है और भूखा रहना हर क़िस्म की बुराइयों से बचाव है जैसा कि सरकश घोड़े को भूखा रखकर का़बू में रखा जा सकता है और जब वह खूब खाता-पीता रहता है तो सरकश हो जाता है। इन्द्रीय वासनाओं का भी यही हाल है।
छठा फ़ायदाः यह है कि कम खाने से नींद कम आती है। ज़्यादा जागने की दौलत नसीब होती है। सातवां फ़ायदाः इबादत पर सहूलत पैदा होती है कि पेट भर खाने से अक्सर काहिली व सुस्ती पैदा होती है जो इबादत को रोकने वाली होती है और ख़ुद खाने ही में बहुत सा समय बर्बाद हो जाता है।
आठवां फ़ायदाः कम खाने से सेहत बनी रहती है क्योंकि बहुत से रोग ज़्यादा खाने से ही पैदा होते हैं। इसकी वजह से रगों में अनावश्यक चर्बी पैदा हो जाती है जिससे कई तरह की बीमारियां पैदा हो जाती हैं।
नवां फ़ायदाः खर्चों की कमी है जो आदमी कम खाने का अ़ादी होगा उसका ख़र्च भी कम होगा और ज़्यादा खाने में ख़र्च भी बढ़ेंगे।
 दसवां फ़ायदाः क़ुर्बानी, हमदर्दी और सदक़ात की ज़्यादती का सबब है। कम खाने से जितना खाना बचेगा वह यतीम, मिस्कीन, ग़रीब व फ़क़ीर वग़ैरह पर सदक़ा होकर क़यामत में उसके लिए साया करेगा।
मौलाना सैफुल्लाह खां अस्दकी
http://www.islamicwebduniaa.blogspot.com/
से शुक्रिया के साथ पेश है।

Saturday, August 7, 2010

Is it fair ? जो लोग कहते हैं कि हिन्दू आस्थाओं पर प्रहार क़तई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। वे भी आराम से बर्दाश्त कर लेते हैं बल्कि नास्तिकों से भी बढ़कर खुद हिन्दू धर्मग्रंथों पर प्रहार करते हैं। - Anwer Jamal

मैं एक मनुवंशी हूं और मनुवादी भी सो रामवादी स्वतः ही हूं। श्री रामचन्द्र जी मेरे पूर्वज हैं , उनका मैं आदर करता हूं और प्यार भी। इस्लाम मेरा दीन है । इस्लाम अपने पूर्वजों से प्यार करने से नहीं रोकता बल्कि उनसे प्यार करने की प्रेरणा देता है। वह रोकता है अज्ञानता से , शिर्क से। उपासक को उपासनीय बना लेना ही शिर्क है। श्री रामचन्द्र जी जीवन भर ईश्वर की उपासना करते रहे, उससे सहायता की प्रार्थना करते रहे। मूर्तिपूजा पहले आर्यों में नहीं थी, जैनियों की देखा देखी सनातन धर्मियों ने भी करनी शुरू कर दी। हिन्दुओं में भी बहुत लोग हैं जो मूर्तिपूजा नहीं करते लेकिन श्री रामचन्द्र जी का आदर करते हैं।
श्री रामचन्द्र जी का आदर करने के लिये मूर्तिपूजा करना ज़रूरी नहीं है।
 सो मैं मूर्तिपूजा नहीं करता लेकिन श्री रामचन्द्र जी का आदर-सम्मान करता हूं। इसमें कोई विरोधाभास नहीं है। मैंने सुना है कि मलेशिया और इंडोनेशिया के मुसलमान भी श्री रामचन्द्र जी की कथा पढ़ते-सुनते हैं और आदर-सम्मान भी करते हैं। यह हर्ष का विषय है।
मैं बाल्मीकि रामायण को एक उत्तम कोटि का काव्य मानता हूं। इसे मैंने अपने घर की अलमारी में सबसे बुलंद ख़ाने में रखा हुआ है जहां मैं अन्य इस्लामी किताबें रखता हूं ताकि बच्चों के हाथ से सुरक्षित रहे।
बाल्मीकि के सारे वक्तव्यों से सहमत न होने के बावजूद मैं बाल्मीकि रामायण को पसंद करता हूं क्योंकि इसमें श्री रामचन्द्र जी के चरित्र की झलक मौजूद है। हिंदुस्तान में प्रचलित सारी रामकथाएं इसी पर आधारित या प्रेरित हैं और वे सब इसके बाद की रचनाएं हैं।
श्री रामचन्द्र जी हिन्दुओं के साथ मुसलमानों के भी पूर्वज हैं। मुसलमानों को अपने पूर्वजों के बारे में पढ़ने, विचारने और दूसरों से सहमत या असहमत का पूरा अधिकार है।
श्री रामचन्द्र जी की कथा रामायण के अलावा पुराणों में भी आई है। मैं पुराणों की भी बहुत सी बातों को सत्य मानता हूं। मैं जानता हूं कि मेरे ऐसा कहने से ‘तत्व‘ से नावाक़िफ़ मुसलमान मुझसे नाराज़ हो सकते हैं और हिन्दू मुझे कभी सत्यवक्ता स्वीकारने वाले नहीं। इसके बावजूद मैं यह सब कह रहा हूं क्योंकि हरेक आदमी भेड़चाल का शिकार नहीं होता, कोई कोई गडरिया अर्थात बुद्धिजीवी भी होता है।
एक मुसलमान अगर श्री रामचन्द्र जी की तारीफ़ भी करे तब भी उसकी मंशा तक पर सवाल खड़े किये जाते हैं जबकि हिंदू
ईश्वर-अल्लाह को ताले में बंद रखने की बात कहे तो आयं-बायं-शायं कमेंट करके गुज़र जाते हैं और बेग़ैरती की हद तो तब होती है जब मालिक से साथ बेहूदगी करने को उसके साथ प्यार जताना बताया जाता है।
जो लोग कहते हैं कि हिन्दू आस्थाओं पर प्रहार क़तई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। वे भी आराम से बर्दाश्त कर लेते हैं बल्कि नास्तिकों से भी बढ़कर खुद हिन्दू धर्मग्रंथों पर प्रहार करते हैं। देखिये-
इसे यहाँ प्रस्तुत करके आप कहना क्या चाहते हैं ? पुराण तो गधों के लिए ही लिखे गए हैं -आप को क्या कहा जाय ?http://vedictoap.blogspot.com/2010/07/blog-post_27.html    

1-ब्लॉग जगत के वे सभी लोग जिन्हें मेरे ब्लॉग पर आते ही संजयदृष्टि प्राप्त हो जाती है, इन जैसे कमेंट्स पर, पोस्ट्स पर धृतराष्ट्र का पार्ट प्ले करने लगते हैं , क्यों ?
2-मैं विनतीपूर्वक आपसे यह पूछना चाहता हूं, अगर पूछने पर पाबंदी न हो तो । आप लोग मुझ जैसे मनुवादी कहने वाले मुसलमान का भी हौसला पस्त करने के प्रयास करेंगे तो दूसरे ईमानदार मुसलमानों
को कैसे जोड़ पाएंगे ?
3-कौन और क्यूं है राम ? इस पोस्ट पर किसी ने श्री अरविन्द मिश्रा जी से यह न कहा कि आप हिंदू और मुसलमानों की तुलना न करें लेकिन जब मैं तुलना करके कहूंगा कि यह वक्तव्य कबीर साहब का नहीं है, उनके ग्रंथ में यह है ही नहीं तो यही लोग ऐतराज़ करने आ जाएंगे।
  • साथ ही अपनी ओर से पहुंचने वाली हरेक पीड़ा पर आपसे क्षमा याचना भी करता हूं।

Wednesday, August 4, 2010

I like Ramchandra ji श्री रामचन्द्र जी के प्रति मेरा अनुराग और चिंतन - Anwer Jamal


ब्लॉग जगत में बाबरी मस्जिद को लेकर बहस चल रही है तो राम मंदिर और अयोध्या का ज़िक्र तो आना ही है। ऐसे समय में मैं श्री रामचन्द्र जी के बारे में अपने अनुराग को साफ़ कर देना ज़रूरी समझता हूं।
जीवन की पाठशाला वाले भावेश जी ने बताया है कि पहले रामायण पत्तियों पर लिखी हुई थी, बाद में वे पत्तियां हिल गईं और कई जगह अर्थ का अनर्थ हो गया। जिन विद्वानों ने रामकथा पर रिसर्च की है वे प्रमाण सहित बताते हैं कि रामायण में व्यापक स्तर पर घटत-बढ़त हुई है। इसी कारण मैं रामायण को अक्षरशः सत्य नहीं मानता। न तो मैं श्री रामचन्द्र जी को सर्वज्ञ ईश्वर का अवतार मानता हूं और न ही मैं यह मानता हूं कि उन्होंने जीवन में किसी पर कभी जुल्म किया होगा , जैसा कि रामायण के आधार पर दलित बंधु या सरिता-मुक्ता का पब्लिशर मानता है।

मैं मानता हूं कि श्री रामचन्द्र जी अपने काल के एक आदर्श प्रजावत्सल राजा रहे होंगे। उनके काम की वजह से ही जनता ने उन्हें अपने दिल में जगह दी और वे मर्यादा पुरूषोत्तम कहलाये। वे अपने जीवनकाल में कई बार ब्राह्मणों से भिड़े और एक ब्राह्मण वेदभाष्यकार राजा रावण का अंत भी किया। इसी कारण से ब्राह्मणों ने उनका जीना हराम कर दिया और उनके जीवन का अंत भी एक ब्राह्मण दुर्वासा के ही कारण हुआ। उनके बाद ब्राह्मणों ने उनकी जीवनी लिखने के नाम पर ऐसे प्रसंग उनके विषय में लिख दिये जिसकी वजह से नारी और समाज के कमज़ोर तबक़ों के अलावा बुद्धिजीवी भी उन पर आरोप लगाने लगे, उन्हें ग़लत समझने लगे। श्री रामचन्द्र जी ग़लत नहीं थे । ग़लत थे वे लोग जिन्होंने उनके बारे में मिथ्या बातें लिखीं। श्री रामचन्द्र जी अयोध्या में शांति चाहते थे और उन्होंने सारे राजपाट और वैभव को ठुकराकर यह बता भी दिया कि वे लालची और युद्धाकांक्षी नहीं हैं।
इस देश की जनता भोली है और नेता जैसे हैं उन्हें सब जानते हैं। जनता सुख चैन , रोज़गार और सुरक्षा चाहती है। नेता इसका वादा तो हमेशा करते हैं लेकिन दे आज तक नहीं पाये। यह जनता अपने स्वरूप का बोध न कर ले , एक न हो जाये , इसलिये इसे बांटना और आपस में लड़ाना उनकी मजबूरी है और अफ़सोस की बात यह है कि हम न चाहते हुए भी आपस में टकराते रहते हैं।
आज भारत अशांत पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल और कठोर चीन से घिरा हुआ है। देश के अन्दर भी नक्सलवाद जैसे बहुत से हिंसक आंदोलन चल रहे हैं। हरेक सूबे नौजवान असंतुष्ट हैं। देश के हालात नाज़ुक हैं। धर्म मंच से जुड़े लोगों को ऐसे समय में लोगों को प्रेम और एकता का संदेश देना चाहिये। शैतान के दांव बहुत घातक होते हैं। उसके दांव-घात को नाकाम करना चाहिये।
हर चीज़ इतिहास के दायरे में नहीं आ सकती है। इनसानी आबादी इतिहास लेखन से भी पहले से इस ज़मीन पर आबाद है। हर क़ौम में नबी आये हैं, सुधारक और नेक आदमी हुए हैं, पवित्र कुरआन ऐसा कहता है। बाद के लोगों ने उनके बारे में बहुत अतिश्योक्ति से काम लिया और उन्हें बन्दगी के मक़ाम से उठाकर मालिक ही ठहरा दिया।
देवबंद के आलिम श्री रामचन्द्र जी और श्री कृष्ण जी का सम्मान करते हैं और कहते हैं कि हो सकता है कि वे अपने दौर के नबी रहे हों क्योंकि कुल 1,24,000 नबी हुए हैं। इसलाम में नबी का पद इनसानों में सबसे बड़ा होता है।
ईश्वर, धर्म और महापुरूषों ने सदा लोगों क्षमा,प्रेम और त्याग की तालीम दी है। उनके नाम पर लड़ना-लड़ाना खुद को मालिक की नज़र से गिराना है।
कोर्ट कुछ भी फ़ैसला दे या देश में आग लगाउ तत्व कुछ भी कहें, मुसलमान को यह देखना है कि वह शांति को कैसे क़ायम रखेगा क्योंकि शांति उसके धर्म ‘इसलाम‘ का पर्याय है, शांति भंग करना या उसे होते देखना स्वयं इसलाम पर चोट करना या होते देखना है, जिसे कोई मुसलमान कभी गवारा नहीं करता और न ही उसे करना चाहिये।
वक्त की ज़रूरत है शांति। शांति बनी रहे तो देश का बौद्धिक विकास मानव जाति को उस मक़ाम पर ले जाकर खड़ा कर देगा जहां वे सत्य का इन्कार न कर सकेंगे। बहुत से पाखण्ड तो हमारे देखते-देखते दम तोड़ भी चुके हैं और बाक़ी कुरीतियां अपने समय का इंतेज़ार कर रही हैं। मुसलमान भी सब्र करें और वे काम करें जो करने के काम हैं और उस पर फ़र्ज़ किये गये हैं।
इनमें सबसे पहला काम हरेक जुर्म और पाप से तौबा है, अपना सुधार निखार और विकास है , दूसरों के साथ भी वैसा ही व्यवहार करना है जैसा कि एक मुसलमान अपने लिये पसंद करता है। देश उनका दुश्मन नहीं है और न ही सारे देशवासी और थोड़ा बहुत उठापटख़ तो हर घर में चलती ही है, उसे हिकमत और सूझबूझ से सुलझाना चाहिये।
देश के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को कोई समझे या न समझे मुसलमान को तो समझना ही चाहिये। श्री रामचन्द्र जी ने भी यही संदेश अपने आचरण से दिया है, उनके अच्छे आचरण को अपनाना उनके प्रति अपने अनुराग को प्रकट करने के लिये मैं सबसे उपयुक्त तरीक़ा मानता हूं।
हदीस पाक में आया भी है कि हिकमत मोमिन की मीरास है, जहां से भी मिले ले लो।