सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Monday, August 23, 2010

Submission to God for salvation . समर्पण कीजिए , उद्धार पाईये - Anwer Jamal

हर चीज़ ईश्वर के अधीन है

इस ज़मीन पर अनगिनत लोग आबाद हैं। इनमें वे लोग भी होते हैं जो न तो अक्ल से काम लेते हैं और न ही वक्त रहते अपनी वाजिब ज़िम्मेदारियों को पूरा करते हैं और इन्हीं लोगों के दरम्यान ऐसे इनसान भी होते हैं जो नज़र आने वाली चीज़ों पर विचार करके नज़र न आने वाली हक़ीकत को अपनी अक्ल से जान जाते हैं। चीज़ों में ग़ौर-फिक्र का अभ्यास उन्हें इस सच्चाई तक पहुँचा देता है कि ज़मीन और आसमान की हर चीज़ पर कोई एक ही अनन्त शक्तिशाली हस्ती कन्ट्रोल किये हुये है।
फिर वे देखते हैं कि आकाश में घूमते हुए सूरज चाँद सितारे हों या खुद ज़मीन हो, समुद में तैरने वाली नौकाएं हों या हवा के रूख़ पर उड़ते हुए बादल हों, बादलों से बरसने वाला पानी हो या पानी से ज़िन्दा होने वाली ज़मीन हो, रात और दिन का हेर फेर हो या ज़मीन पर आबाद जीवों की कोई भी किस्म हो, इनमें से कोई भी च़ीज ऐसी नहीं है कि उसका फ़ायदा इनसान को न पहुँच रहा हो। अगर इनमें से कोई एक भी चीज़ कम होती तो ज़मीन पर इनसान की ज़िन्दगी सम्भव न होती।

उसकी रहमत से है हर चीज़ का वजूद
इन चीज़ों का इन्तेज़ाम न तो खुद इनसानों के किसी लीडर वैज्ञानिक या संत-गुरू ने किया है और न ही खुद इन चीज़ों ने आपस में मशविरा करके यह व्यवस्था बनाई है और फिर यह व्यवस्था इत्तेफ़ाक़ से ख़ुद भी नहीं बन गई है क्योंकि यह सुन्दर व्यवस्था पूरे संतुलन के साथ निरन्तर बनी हुई है जबकि इत्तेफ़ाक़ एक-दो बार हो सकता है लगातार नहीं हो सकता। इस तरह तमाम चीज़ों का संतुलन जहाँ एक ही कुदरत वाले रब का पता देता है वहीं उन चीज़ों की नफ़ाबख्शी यह भी ज़ाहिर करती है कि वह मालिक सबका भला चाहने वाला और सबको नफ़ा पहुँचाने वाला है। वह रब रहमान व रहीम है, न तो उसकी कृपा की कोई हद है और न ही उसकी दया का सिलसिला कभी टूटता है।

ज्ञान की उत्पत्ति प्रेम' से है
इस ‘बोध’ के प्राप्त होते ही इनसान का दिल सच्चे ईमान के नूर से जगमगा उठता है। वह जान लेता है कि इस जगत में वह अनाथ नहीं है। उसका एक रब है जो सारी ताक़तों का मालिक है, जो उपसर हर पल अपनी रहमतों की बारिश करता रहता है। उसका दिल अपने दयालु दाता के प्रेम से इतना भर जाता है कि कोई भी चीज़ उस प्रेम से न तो आगे बढ़ पाती है और न ही उसके बराबर ही पहुँचती है। ‘प्रेम’ के ये ढाई अक्षर उसके ज्ञानचक्षु खोल देते हैं। अब उसे हर चीज़ उसी रूप में नज़र आती है जैसी कि वास्तव में वह होती है।

इनसान की कामयाबी का राज़ क्या है?
हर चीज़ को वह अपने मालिक की मिल्कियत के रूप में देखता है। हर जीव को वह एक ही मालिक का बन्दा जानता है। ऊँच-नीच और भेदभाव की दीवारें उसके लिए ढह जाती हैं। उसके लिए सब बराबर हो जाते है और वह सबके लिए नफ़ाबख्श बन जाता है। प्रेम और ज्ञान की जो दौलत उसके पास होती है वह उसे लोगों में बाँटना अपना फ़र्ज़ समझता है ताकि दूसरे भी अपने जीवन का सच्चा मक़सद समझ लें और अपना समय बर्बाद न करें।
इनसान की हकीकत इनसानियत है। इनसानियत से गिरकर आदमी कभी कामयाब नहीं हो सकता। जब इनसान लालच, नफ़रत, गुस्सा, प्रतिशोध और अहंकार के उन रूपों को धारण करता है जो ‘धारणीय’ नहीं हैं तो वह धर्म से हीन हो जाता है चाहे उसने किसी भी पवित्र माने गये रंग के कपड़े पहन रखे हों या उसकी दाढ़ी-चोटी कितनी ही लम्बी क्यों न हो?
ऐसे ही अगर इनसान नशा, जुआ, व्यभिचार, चोरी, डाका, दंगा-फ़साद और हत्या जैसे न करने लायक़ काम करता है तो वह मानवता का अपराधी बन जाता है। चाहे उसे पब्लिक बहुत बड़ा लीडर या गुरू ही क्यों न मानती हो?
और वह मोटे-मोटे पोथे भी क्यों न बाँचता हो?

जुल्म का दरवाजा कौन खोलता है?
अक्सर लोग ऐसे होते हैं जो अपने चारों तरफ़ मौजूद चीज़ों को देखते ज़रूर हैं लेकिन वे उन चीज़ों के सिर्फ़ ज़ाहिर को देखते हैं। वे एक चीज़ को दूसरी चीज़ से जोड़कर और फिर सारी चीज़ों को एक साथ जोड़कर देखने का कष्ट भी उठाना पसन्द नहीं करते। जिन चीज़ों पर वे क़ब्ज़ा जमा सकते हैं उनपर वे क़ब्ज़ा जमा लेते हैं। उनको अपनी सम्पत्ति और जागीर मानकर दूसरों को उनसे वंचित कर देते हैं और फिर उन वंचितों को भी अपना सेवक और ग़ुलाम बना लेते हैं। उन्हें ज़िल्लत के ऐसे गड्ढे में उतार देते हैं कि फिर उससे वे कभी उबर नहीं पाते। ज्ञान, कौशल और सभ्यता का हर दरवाज़ा, हर झरोखा उन पर सदा के लिए बन्द कर देते हैं।

चीज़ों को उपास्य (माबूद)  कौन बनाता है?
कुछ चीजे़ ऐसी भी होती हैं जिनपर उनका बस नहीं चलता लेकिन उनसे पहुँचने वाले नफ़े-नुक्सान से वे प्रभावित होते रहते हैं। ऐसी तमाम चीज़ों को वे अपने आप में खुद ही नफ़ा-नुक्सान पहुँचाने की शक्ति का मालिक मान बैठते हैं। ऐसी हर चीज़ का लाभ उन्हें आकर्षित भी करता है और उनसे पहुँचने वाला नुक्सान उन्हें डरने पर मजबूर भी कर देता है। सूरज, चाँद, सितारे, पेड़, पहाड़, नदियाँ, जल, वायु, अग्नि, पशु-पक्षी, उनका मल-मूत्र और खुद अपने यौनांगों की अनुभूतियाँ उन्हें बताती हैं कि उनके वजूद की पैदाइश और परवरिश इन्हीं पर निर्भर है। जिस ज़मीन पर वे बसते हैं और उसके अन्न-फल को वे खाते हैं उसकी सुन्दरता भी उन्हें मोह लेती है। वे चीज़ों पर रीझ जाते हैं और इन सब उपहारों के दाता को भुला देते हैं।
अपने रब के प्रति श्रद्धा और समर्पण का भाव हरेक जीव के अवचेतन ( Subconcious ) में मौजूद होता है। जब आदमी अपने रब को भुला देता है तो फिर उसका यह जज़्बा उनके प्रति प्रकट होता है जिनसे वह सबसे बढ़कर प्रेम करता है। आदमी जिसे भी अपने जीवन का आधार मानकर सबसे ज़्यादा प्रेम करता है वही उसकी श्रद्धा और उसके समर्पण का केन्द्र बन जाता है। यही श्रद्धा, प्रेम और आदर अपने चरम बिन्दु को पहुँचने के बाद पूजा-उपासना के रूप में बदल जाते हैं।

समाज कैसे पथभ्रष्ट होता है?
पूरी श्रद्धा और पूरे समपर्ण का सच्चा हक़दार तो केवल एक ही मालिक है लेकिन जब यह हक़ बनने-बिगड़ने वाली चीजों को इनसान दे बैठता है तो उसका वर्तमान और भविष्य सब कुछ बिगड़ जाता है। जब तक सबका पूज्य एक प्रभु परमेश्वर था सबके मन एक थे सबमें प्रेम, सहयोग और सबके मंगल की भावना थी लेकिन जैसे ही उसे भुलाकर या उसके साथ दूसरों को भी उसके बराबर का दर्जा देे दिया गया तो अब वास्तविक पूज्य के साथ बहुत से फ़र्ज़ी पूज्यों की भीड़ लग गई। जिसको जो भाया वह उसी के गीत गाने लगा और उसे ही शीश नवाने लगा। गोबर-पत्थर से लेकर आग, पानी, नदियाँ और सूरज, चाँद, सितारों की, हर चीज़ की पूजा होने लगी। जिसके क़ब्जे में धरती का जितना हिस्सा था वह उसी का पुजारी बन गया। माता-पिता, आचार्य और जीवनसाथी को भी परमेश्वर का रूप या साक्षात परमेश्वर ही मान लिया गया। जब इतने सारे भी कुछ कम लगे तो फिर मर चुके लोगों की आत्माओं का भी आह्वान किया जाने लगा। जिन्नों और शैतानों की पूजा भी खुलेआम होने लगी। ये भी कम लगे तो अपनी कल्पना से ही नये-नये पूज्य बना लिये और फिर उनकी कवितामय कहानियाँ भी रच डालीं।

परमेश्वर कौन है?
परमेश्वर वह है जो मार्गदर्शन करता है, सद्मार्ग दिखाकर कष्टों को दूर करता है और इनसान को उसके स्वाभाविक इनसानी गुणों से सुशोभित करता है। लेकिन जब इनसान उसका दामन छोड़कर प्रकृति के तत्वों या अपने ही जैसे लोगों को अपना ‘परमपूज्य’ बना लेता है तो या तो वे सिरे से उसका कोई मार्गदर्शन ही नहीं करते या फिर जो लीडर या ढोंगी गुरू कुछ नियम-क़ायदे बनाते भी हैं तो न तो वे नियम इनसान की राजनीति, अर्थ व्यापार, घर-परिवार और अध्यात्म आदि सभी क्षेत्रों में रहनुमाई करते हैं और न ही वे गुरू खुद अपने उपदेशों पर अमल करके ही दिखाते हैं।

अपनी-अपनी ढपली अपना अपना राग
हरेक गुरू का अनुमान-फ़रमान दूसरे गुरू से अलग होता है। किसी का ख़याल है कि ईश्वर, आत्मा और पदार्थ सदा से हंै। किसी ने कहा कि आत्मा और पुद्गल (पदार्थ) ही होते हैं, इस कायनात का कोई क्रिएटर नहीं है। कोई बोला कि आत्मा भी नहीं होती बस पदार्थ ही होता है और किसी ने घोषणा कर दी कि जगत मिथ्या है यहाँ कुछ नहीं है, हर चीज़ नज़र का फ़रेब है।
यही हाल खान-पान का हुआ। किसी ने कहा कि जो खा सको खाओ शाक भी, माँस भी, मुर्दार भी और शराब भी। किसी ने शाकाहार के अलावा सबको तामसिक भोजन घोषित कर दिया और कुछ ने दूध, दही, शहद, अचार और अंजीर भी वर्जित कर दिए। कोई पूरा बदन ढकने लगा तो कोई लंगोट में घूमने लगा और किसी को लंगोट सीना-पहनना भी माया-मोह दिखने लगा। कोई परिवार पालते हुए भक्ति करने को श्रेष्ठ बताता तो कोई घर वालों को छोड़कर जंगल की ओर भाग निकला। कोई विधवा विवाह को पुण्य बताने लगा तो किसी ने विधवा विवाह को पाप और नियोग को पुण्य घोषित कर दिया और किसी ने तो कुंवारे लड़के लड़कियों के मन विवाह और मैथुन से ही फेर दिए। कोई दौलत का पुजारी बन गया और किसी को अपना जीवन भार और जगत निस्सार लगने लगा। जो अपने शरीर को कष्ट देने लगे उन्हें पहुँचा हुआ सिद्ध समझा जाने लगा और उनकी आत्महत्या के लिए मोक्ष और निर्वाण जैसे शब्द गढ़ लिए गये।

जन्म लेकर पछताना क्यों ?
ईश्वर, जीव और कर्तव्य-अकर्तव्य में भारी मतभेद रखने के बावजूद इस बात पर वे सभी एकमत हो गए कि संसार एक यातनागृह है जिसमें जीव पौधों, पशु-पक्षियोंें और मानव रूप में अपने कुकर्मों का दण्ड भोग रहे हैं। हरेक चीज़ पिछले अज्ञात जन्मों की भयंकर पापी है। उन्हें जन्म लेने देने से ही नफ़रत हो गई। किसी को अपने जन्म के पीछे, अपने माँ-बाप की ग़लती नज़र आने लगी और किसी को लगा कि इस गलती का ज़िम्मेदार ईश्वर है। मनुष्य को पैदा करके वह पछताया ज़रूर होगा। ज्ञान, कर्म, भक्ति का निचोड़ यह निकाला गया कि जैसे भी हो सके खुद को मिटा डालो।
 न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
ऐसे सभी लोग खुद को और दूसरों को दुष्ट पापी मानकर मनुष्य जन्म का उद्देश्य और उसकी गरिमा जानने से महरूम रह गये। उनके दिलों में दया, करूणा और उपकार की भावनाएं कमज़ोर पड़ गईं। जिसका नतीजा शोषण और अन्याय के रूप में प्रकट होना लाज़िमी था। कुछ लोग यह दावा लेकर भी सामने आये कि वे ईश्वर का अंश-वंश और रूप हैं। उनकी ईश्वर से सैटिंग है। जो उनकी शरण में आयेगा, उनकी सेवा करेगा उसे वे ईश्वर की यातना से बचा लेंगे, या फिर लोगों ने अपने ख्याल से ही किसी महापुरूष के बलिदान के बदले में हरेक पाप माफ़ मान लिया।

पतन के कारणों का निवारण ज़रूरी है

As a whole  वे समाज को क्या देकर गये? उन्होंने समाज को इतने सारे मतों में बांट दिया कि समाज की एकता, शांति और उन्नति सब कुछ नष्ट हो गयी। हमारे प्यारे देश भारत महान का विश्व गुरू पद से पतन हो गया। जब तक पतन के कारणों को दूर करके वास्तविक प्रभु परमेश्वर से उपासना और मार्गदर्शन का सम्बन्ध फिर से स्थापित नहीं किया जाएगा तब तक न तो धर्म, कर्म और ज्ञान की प्राप्ति होगी और न ही भारत पुनः विश्व गुरू के पद पर आसीन हो सकता है।

पापनाशक ज्ञान क्या है?
पवित्र कुरआन ही वह ईश्वरीय ज्ञान है जो अज्ञान के तमाम अंधेरों को मिटा डालता है। इसकी एकेश्वरवादी शिक्षा के प्रकाश में चीजें उसी रूप में दिखाई देने लगती हैं जैसी कि हक़ीक़त में वे होती हैं। जिन चीज़ों की हक़ीक़त अक्लमन्द आदमी आज जान लेता है, वही हक़ीक़त मरने के बाद अक्ल से काम न लेने वले अत्याचारी पापी भी जान जाऐंगे कि चीज़ें तो पालन-पोषण का निमित्त भर थीं जिनके ज़रिये पालने वाला केवल एक प्रभु परमेश्वर था। तब दुनिया में लोगों को बहकाने वाले लीडरों और नक़ली गुरूओं की बोलती बन्द हो जाएगी और वे अपने अंधभक्तों से विरक्त हो जाएंगे। उनके अनुयायी भी तमन्ना करेंगे कि काश उन्होंने उनके बहकावे में आकर खून-खराबा और फ़साद न किया होता या काश उन्हें अपनी ग़लती सुधारने के लिए एक बार फिर दुनिया में भेज दिया जाए लेकिन तब उनकी ख्वाहिश बेकार होगी। अपने पापकर्मो का फल भुगतने के लिए उन्हें नरक की आग में सदा के लिए झोंक दिया जाएगा।

उद्धार का अवसर
जो लोग अभी जीवित हैं उनके लिए अभी अवसर है कि वे समय रहते चेत जाएं और खुद को सारी शक्ितयों के स्वामी के अधीन कर दें। उसी से मार्गदर्शन लें। उसकी बताई हुई हदों में रहें। खुद को प्रेम, ज्ञान, दया, न्याय और क्षमा आदि इनसानी गुणों से युक्त करें। सबका भला चाहें। खुद को नकारात्मक सोच से बचायें, निराशा से बचें, भारत और विश्व के बेहतर भविष्य की आशा रखें। मालिक से दुआ भी करें। ज्ञान को फैलाएं, नादानों के व्यंग्य और उपहास को नज़र अन्दाज़ करें। एक वक्त आयेगा जब वे जान लेंगे कि आप वास्तव में उनकी भलाई के लिए ही काम कर रहे थे।

सच्चाई की ओर बढ़ते क़दम
सबका पूज्य प्रभु एक है। वह मालिक आज भी धरती पर फूल खिलाता है, पानी बरसाता है और बच्चे पैदा करता है। इसका मतलब यह है कि वह न तो इनसान से निराश हुआ है और न ही उसने इनसान के लिए अपनी रहमत का दरवाज़ा बन्द किया है। ज्ञान-विज्ञान का दायरा भी लगातार बढ़ रहा है और नई नस्लों की बुद्धिमत्ता का स्तर ( I. Q. ) भी। सांइटिफ़िक एप्रोच बढ़ रही है। लोग जज़्बात के प्रभाव से निकलकर चीज़ों को उनके वास्तविक रूप में समझने का अभ्यास कर रहे हैं।

प्रलय के लक्षण
एक तरफ़ तो यह हो रहा है और दूसरी तरफ़ इनसान के हाथों की कमाई तबाही का रूप धारण कर चुकी है। भूकम्प, सैलाब और तेज़ाबी बारिशें हो रही हैं। वनस्पति और पशु-पक्षियों की नस्लें लुप्त हो रही हैं और बाक़ी पर भी ख़तरा मंडरा रहा है। पहले भी हज़रत नूह अलै0 (महर्षि मनु) के काल में धरती पर जल प्रलय हुई थी और अब फिर होने को तैयार है। पहले भी पापी दुराचारी डूबे थे, वही अब डूबेंगे। पहले भी ईश्वर ने अपने भक्तों की रक्षा की थी। वही ईश्वर अब भी करेगा।

उद्धार का मूल्य है निष्ठा और समर्पण
फै़सले की घड़ी क़रीब आ गयी है। आप भी जल्दी फैसला कर लीजिये कि आप खुद को किन लोगों में शामिल करना चाहते हैं, डूबने वालों में या उद्धार पाने वालों में ?
उद्धार पाने वालों में।
तो फिर अभी सच्चे दिल से खुद को पूरी तरह एक परमेश्वर के प्रति समर्पित कर दीजिये और पूरी निष्ठा और प्रेम से उसी की भक्ति कीजिए, उसी का उपकार मानिए और उसी के गुण गाइये। उसकी दया को आप हर पल अपने साथ पाऐंगे।

35 comments:

Anonymous said...

तो फिर अभी सच्चे दिल से खुद को पूरी तरह एक परमेश्वर के प्रति समर्पित कर दिया और पूरी निष्ठा और प्रेम से उसी की भक्ति करता हूँ, उसी का उपकार मानता हूँ और उसी के गुण गता हूँ । उसकी दया हर पल मेरे साथ है !

Anonymous said...

मान गए आपकों जमाल साहब

Ayaz ahmad said...

अच्छी पोस्ट

HAKEEM YUNUS KHAN said...

भूकम्प, सैलाब और तेज़ाबी बारिशें हो रही हैं। वनस्पति और पशु-पक्षियों की नस्लें लुप्त हो रही हैं और बाक़ी पर भी ख़तरा मंडरा रहा है। पहले भी हज़रत नूह अलै0 (महर्षि मनु) के काल में धरती पर जल प्रलय हुई थी और अब फिर होने को तैयार है। पहले भी पापी दुराचारी डूबे थे, वही अब डूबेंगे। पहले भी ईश्वर ने अपने भक्तों की रक्षा की थी। वही ईश्वर अब भी करेगा।

HAKEEM YUNUS KHAN said...

A nice post, really.

वन्दे ईश्वरम vande ishwaram said...

इनसान की हकीकत इनसानियत है। इनसानियत से गिरकर आदमी कभी कामयाब नहीं हो सकता।

Ayaz ahmad said...

मेरा देश मेरा धर्म आपने जमाल साहब को अब माना जबकि आप पढ़ते पहले से ही आ रहे है चलो देर आए दुरुस्त आए

Mahak said...

@आदरणीय एवं प्रिय अनवर जी

पोस्ट बहुत अच्छी लिखी है आपने , इसे पढकर एक प्रश्न मन में उठा की जो लोग किसी भी परमेश्वर या अल्लाह को ना मानें और कोई बुरा काम भी ना करें ,बस हमेशा अच्छे कर्म ही करें लेकिन ईश्वर के अस्तित्व को ना मानें , पूजा पाठ की किसी भी प्रक्रिया ,नमाज़ ,इबादत या किसी भी प्रकार का कर्म-कांड ना करकर सिर्फ अपने सत्कर्म कर्म में ही यकीन रखें

तो फिर आपके मुताबिक सर्वशक्तिमान ईश्वर उन्हें किस तरह से देखेंगे मतलब उनका नजरिया ऐसे लोगों के प्रति क्या होगा ?

महक

talib د عا ؤ ں کا طا لب said...

वह रब रहमान व रहीम है, न तो उसकी कृपा की कोई हद है और न ही उसकी दया का सिलसिला कभी टूटता है।

talib د عا ؤ ں کا طا لب said...

वह रब रहमान व रहीम है, न तो उसकी कृपा की कोई हद है और न ही उसकी दया का सिलसिला कभी टूटता है।

talib د عا ؤ ں کا طا لب said...

उसकी दया हर पल मेरे साथ है !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

"समर्पण कीजिए , उद्धार पाईये - Anwer Jamal"

डाक्टर साहेब,
आजकल अत्यधिक व्यस्तता की वजह से इस ब्लॉग जगत में मेरा विचरण सीमित है ! यदा कदा जब विचरण पर निकलता हूँ और आज जब आपकी दी गई हेडिंग पर नजर गई तो एक बार फिर से आपसे असहमति जताने का मन हुआ ! इसे दूसरे (उपदेशात्मक) तौर पर मत लेना, क्योंकि इस छोटे से ब्लॉग-इंटरेक्शन से थोड़ा बहुत शायद आपको भी मेरी सोच का अंदाजा हो गया होगा ! अपने ये पाकिस्तानी भाईबंद जो बहुत पहले ही खुदा को अपना समर्पण कर चुके, आजकल ये भिखमंगे दो गज सूखी जमीन और दाने-दाने को तरस रहे है! पता नहीं इनका समर्पण खोट्पूर्ण था या फिर और कोई बात थी,........... मगर इंसान होते हुए भी ये इतना नहीं सोच पाए कि सुखी रहने के लिए सिर्फ समर्पण से कुछ नहीं होता !.............. भूखे पेट भजन नहीं होत गोपाला .... ऐसा नहीं है कि पूरा पाकिस्तान ही डूब गया.... जो हरामखोर चालबाज, जालसाज भरष्ट है बढ़िया जमीने दबा के बैठे है ढेर सारे रुपये बटोरे मीठे है वो तो उत्तम जगहों पर ऐश कर रहे है ! मर कौन रहे है जिन्होंने समर्पण किया था.........इसलिए भाई साहब , मेरा तो ये कहना है कि किसी भी तरह के समर्पण की जरुरत नहीं ! इंसान योनी में जन्म लिया है तो ठीक से अपने फर्जों का पालन करे, परिवार को समाज के मुताविक प्रतिस्पर्धी बनाए , इतना कमा के जमापूंजी रखे कि पाकिस्तान जैसी बाढ़ यहाँ भी आ जाए तो किसी ऊँची जगह पर होटल/ कमरा बुक करके पानी घटने का इन्तजार चैन के साथ कर सके ..................शायद इससे बेहतर समर्पण और कुछ नहीं ! कोई प्र्रोफ़ आज तक किसी महापुरुष, महात्मा, पैगम्बर ने इस बारे में दिया कि यहाँ तो बाढ़ की वजह से भिखमंगे बनकर रोटी के टुकड़े के लिए अमेरिकी मदद का इन्तजार करो और मरने के बाद उद्धार पाने के ख्वाब संजोये ! रोज की भांति कुछ गलत बोल गया हूँ तो क्षमा !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

"समर्पण कीजिए , उद्धार पाईये - Anwer Jamal"

डाक्टर साहेब,
आजकल अत्यधिक व्यस्तता की वजह से इस ब्लॉग जगत में मेरा विचरण सीमित है ! यदा कदा जब विचरण पर निकलता हूँ और आज जब आपकी दी गई हेडिंग पर नजर गई तो एक बार फिर से आपसे असहमति जताने का मन हुआ ! इसे दूसरे (उपदेशात्मक) तौर पर मत लेना, क्योंकि इस छोटे से ब्लॉग-इंटरेक्शन से थोड़ा बहुत शायद आपको भी मेरी सोच का अंदाजा हो गया होगा ! अपने ये पाकिस्तानी भाईबंद जो बहुत पहले ही खुदा को अपना समर्पण कर चुके, आजकल ये भिखमंगे दो गज सूखी जमीन और दाने-दाने को तरस रहे है! पता नहीं इनका समर्पण खोट्पूर्ण था या फिर और कोई बात थी,........... मगर इंसान होते हुए भी ये इतना नहीं सोच पाए कि सुखी रहने के लिए सिर्फ समर्पण से कुछ नहीं होता !.............. भूखे पेट भजन नहीं होत गोपाला .... ऐसा नहीं है कि पूरा पाकिस्तान ही डूब गया.... जो हरामखोर चालबाज, जालसाज भरष्ट है बढ़िया जमीने दबा के बैठे है ढेर सारे रुपये बटोरे मीठे है वो तो उत्तम जगहों पर ऐश कर रहे है ! मर कौन रहे है जिन्होंने समर्पण किया था.........इसलिए भाई साहब , मेरा तो ये कहना है कि किसी भी तरह के समर्पण की जरुरत नहीं ! इंसान योनी में जन्म लिया है तो ठीक से अपने फर्जों का पालन करे, परिवार को समाज के मुताविक प्रतिस्पर्धी बनाए , इतना कमा के जमापूंजी रखे कि पाकिस्तान जैसी बाढ़ यहाँ भी आ जाए तो किसी ऊँची जगह पर होटल/ कमरा बुक करके पानी घटने का इन्तजार चैन के साथ कर सके ..................शायद इससे बेहतर समर्पण और कुछ नहीं ! कोई प्र्रोफ़ आज तक किसी महापुरुष, महात्मा, पैगम्बर ने इस बारे में दिया कि यहाँ तो बाढ़ की वजह से भिखमंगे बनकर रोटी के टुकड़े के लिए अमेरिकी मदद का इन्तजार करो और मरने के बाद उद्धार पाने के ख्वाब संजोये ! रोज की भांति कुछ गलत बोल गया हूँ तो क्षमा !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

संक्षेप में; सब बकवास है जिसने सुख- शान्ति से इस दुनिया में अपने चार पल व्यतीत कर लिए वही समर्पण है .... उससे बड़ा उद्धार और क्या हो सकता है !

ABHISHEK MISHRA said...

vaah p.c. godiyal ji
aap ne bahut hi achchi baat kahi .main aap se puri tarha sahmat hu

DR. ANWER JAMAL said...

@ मेरे अज़ीज़ भाई महक ! इनसान जो कुछ करता है या तो वह ईश्वर के आदेश से करता है या फिर अपने मन की इच्छा से। जो आदमी ईश्वर को नहीं मानता, वह उसके आदेश को भी नहीं मानता। ऐसा आदमी जो कुछ करता है अपने मन-बुद्धि के आधार पर करता है। जिस काम को वह लाभकारी समझता है करता है और जिसे कष्टकारी मानता है उसे नहीं करता। वह हानि-लाभ के आधार पर अपना सही-ग़लत तय करता है और इस तरह समाज में हर आदमी का सही-ग़लत एक दूसरे से अलग हो जाता है।
1.ईश्वर और परलोक को न मानने वाले व्यक्ति ने दुनिया में जब कोई काम ईश्वर के आदेश से किया ही नहीं तो उसे ईश्वर से कोई पुरस्कार मिलने का औचित्य ही क्या है ?
2.समस्त ब्रह्माण्ड ईश्वर का राज्य है वह अकेला इसका स्वामी है। किसी के राज्य में रहते हुए उस राज्य के राजा को न मानना बग़ावत है और बग़ावत ऐसा संगीन जुर्म है जो हरेक नेकी को खा जाता है। क्या एक बाग़ी सख्त सज़ा का हक़दार नहीं होता ?
3.आदमी जिस बात को अच्छा समझ रहा है, ज़रूरी नहीं कि वह बात वास्तव में अच्छी हो। अच्छा वह है जिसे परमेश्वर अच्छा निश्चित करे। अपने मन से किसी चीज़ को अच्छा समझ लेना और उसे पूरा करना ‘वासना‘ कहलाता है। ईश्वर के आदेश से कटने के बाद इनसान का हरेक काम वासना मात्र बनकर रह जाता है। क्या वासनापूर्ति भी कभी कल्याणकारी होती है भला ?

DR. ANWER JAMAL said...

@ ज्येष्ठ ब्लॉगर बंधु ! चश्मे वाले फ़ोटो में आप ‘डैशिंग‘ लगते थे और बिना चश्मे के फ़ोटो में आपको देखा तो आप एक ठीक-ठाक इनसान नज़र आए। नफ़रतें किसी चीज़ का हल नहीं हैं। हम मिटने वाली धरती पर एक गुज़र जाने वाली ज़िन्दगी जी रहे हैं। सत्ता के लालची नेता इस दुनिया की साझा समस्या है। भारत, नेपाल, पाकिस्तान और बांग्लादेश की पृष्ठभूमि में यह समस्या अपने विकराल रूप में नज़र आ रही है। अच्छे प्रबंधन के अभाव में जनता को रोज़गार, शिक्षा और चिकित्सा नसीब नहीं है, जुर्म हर तरफ़ है और शांति कहीं भी नहीं। जैसी अव्यवस्था बनाई है उसके शिकार खुद नेता भी हो रहे हैं। बम धमाकों के शिकार होकर जनता के साथ नेता भी मर रहे हैं और जब तक जी रहे हैं जान जाने की दहशत में जी रहे हैं। यह जीवन ऐश नहीं कहलाता, यह नरक की छाया है।
पाकिस्तान आज मानवीय और कुदरती तबाही का शिकार है। यह तबाही बता रही है कि ‘समर्पण‘ वास्तव में था ही नहीं। धर्म का नाम लेकर देश तोड़ना राष्ट्रवाद और क़ौमपरस्ती कहलाता है। क़ौमपरस्ती का पाकिस्तान में ज़ोर है और जहां क़ौमपरस्ती होती है वहां खुदापरस्ती नहीं होती। पाकिस्तान में आज धर्म कुछ आदमियों में मिल सकता है लेकिन एक क़ौम की हैसियत से पाकिस्तान को धार्मिक नहीं कहा जा सकता। राष्ट्रवाद है इनसान के दर्शन में जीना और धर्म होता है ईश्वर की व्यवस्था में जीना। जैसे ईश्वर की व्यवस्था में चलने वाला यह विशाल ब्रह्माण्ड ठीक चल रहा है और उसके ठीक होने की वजह से हम अपने जीवन के काम-काज कर पा रहे हैं ऐसे ही अगर पाकिस्तानी ईश्वरीय व्यवस्था का पालन करते
तो वे यूं तरह-तरह की तबाहियों के शिकार न होते। उनका इलाज भी समर्पण ही है, कुछ और नहीं जैसा कि आपने सुझाव दिया है।

DR. ANWER JAMAL said...

...प्लीज़ बुरा मत मानना, आपका सुझाव केवल एक खुदग़र्ज़ सोच के अलावा और कुछ भी नहीं है। आज़ादी के लिये मांओं ने अपने जवान खोये और सुहागिनें विधवा बनीं, उनके बच्चे अनाथ हुए और लावारिस होकर जिए। कितने कष्ट भोगे होंगे उन्होंने तब जाकर यह देश आज़ाद हुआ और आपका हौसला हुआ कि आप बाढ़ के समय अपने परिवार के साथ किसी होटल के बुलन्द कमरे में बैठकर जान बचाने की कोशिश करें। अगर आपकी ही तरह आज़ादी के दीवाने भी सोचते तो यह देश शायद आज़ाद ही न हुआ होता और किसी अच्छे होटल में आप घुस भी न पाते। वहां सब अंग्रेज़ होते और बाहर एक बोर्ड पर आपको लिखा मिलता ‘डॉग्स एंड इंडियन्स आर नॉट एलाउड‘।
माल जीवन नहीं बचा सकता। कितने ही अमीर आदमी आज सिर्फ़ इसीलिये मार दिये जाते हैं कि वे अमीर हैं। कितने ही बदमाश दिन भर सिर्फ़ यही पता लगाते हुए घूमते हैं कि किस अमीर के बच्चे को उठाकर कितनी फ़िरौती ऐंठी जा सकती है। शांति और सुरक्षा माल से नहीं मिला करती। यह मिलती है सिर्फ़ तब, जब समाज खुद को एक परमेश्वर के प्रति समर्पित कर देता है। उसे साक्षी मानकर नेक काम करता है और बुराई से बचता है। परमेश्वर हरेक को हर हाल में देख रहा है और वह उसे उसके किये कर्मों का फल अवश्य ही देगा, यह विचार आदमी को बुराई से बचाता है और अच्छा नागरिक बनाता है। इस विचार के कारण आदमी न सिर्फ़ सबके सामने बुराई करने से बचता है बल्कि तन्हाई में भी पाप नहीं करता, जुर्म नहीं करता क्योंकि वह जानता है कि कोई देखने वाला आदमी चाहे न हो लेकिन वह परमेश्वर उसे यहां भी देख रहा है।
अन्त में मैं यही कहूंगा कि धर्म के नाम पर चल रहे आडम्बर से घबराकर ईश्वर और धर्म से किनारा करना ठीक नहीं है। धर्म का उसके वास्तविक रूप में बोध कीजिये। इससे प्रेम उत्पन्न होगा, सारा जग आपको अपना नज़र आएगा। तब आपको न तो जीवन का मोह होगा और न ही मौत का भय। तब आप अविनाशी ईश्वर के सामीप्य को अनुभव करेंगे, सच्ची शांति का आपको अनुभव होगा, जिसे आपसे कोई नहीं छीन सकता। नफ़रतों ने अगर सरहदें खींची हैं तो आपकी मुहब्बत उन्हें गिरा देगी। राजनीति ने आज तक जितनी सरहदें खींची हैं उनकी उम्रें कभी लम्बी नहीं हुई हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश की सरहदें भी स्थायी नहीं हैं। इन्हें गिराने के लिए तो मुहब्बत का सिर्फ़ एक धक्का ही काफ़ी है। दुनिया के कई देशों में ऐसा हो भी चुका है। हमें अपनी नफ़रतों को जीतना होगा। नफ़रत एक शैतानी अमल है और मालिक के पाक नाम से शैतान दूर भागता है। सबका मालिक एक है और सबके लिये उसकी नीति भी एक ही है। एक मालिक का नाम करेगा इस बिखरी हुई मानव जाति को एक।
एकता में ही शक्ति है और शक्ति से ही नेतृत्व है। एशिया के हिन्दू-मुस्लिमों की एकता उन्हें विश्व का सिरमौर बनाएगी। अब न राजनीति से और न ही कूटनीति से बल्कि भारत का उद्धार होगा धर्मनीति से। इसके लिये परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण पहली शर्त है।
कुछ बुरा और ग़लत कहा हो तो क्षमा चाहता हूं। इंगित करेंगे तो उसे सुधार लूंगा।
ब्लॉग पर पधारने के लिये धन्यवाद !!!

Anonymous said...

TAQLEED (BLIND FOLLOWING)
ACCORDING TO QUR'ÂN AND SUNNAH

Linguistically, Taqleed means: Placing something around the neck, which encircles the neck. Technically it means: Following he whose sayings is not a proof (hujjah).

Exlcuded from our saying, "following he whose saying is not a proof" is: following the Sunnah of the Prophet (SAW)

"Indeed the people of Truth and the Sunnah do not follow anyone [unconditionally] except the messenger of Allaah SAW, the one who does not speak from his desires - it is only revelation revealed to him."

[by Shaykh Ibn Taymiyyah, Majmoo\'ah al-Fataawaa, vol 3, page 216, Daar Ibn Hazm Print, Trans: Aboo 'Abdis-Salaam]

O you who believe! Obey Allâh and obey the Messenger (Muhammad SAW), and those of you (Muslims) who are in authority. (And) if you differ in anything amongst yourselves, refer it to Allâh and His Messenger (SAW), if you believe in Allâh and in the Last Day. That is better and more suitable for final determination.

[The Noble Qur'ân 4:59]

Abu Haneefah (d. 150H) (rahimahullaah) said: "Adhere to the athar (narration) and the tareeqah (way) of the Salaf (Pious Predecessors) and beware of newly invented matters for all of it is innovation" [Reported by As-Suyootee in Sawn al Mantaq wal-Kalaam p.32]

Ibn al-Qayyim said, " And it is as Abu Umar (ibn Abdul Barr) said: Indeed, the people do not differ about the fact that knowledge is the realisation attained from proof, but without proof, it is only taqleed."

Anonymous said...

Ibn al-Qayyim said, "There are three sayings about the permissibility of giving fatwaa based upon taqleed:

1) It is not permissible to give fatwaa based upon taqleed, because it is not knowledge; since issuing a fatwaa without knowledge is forbidden. This is the saying of most of the Hanbalee scholars and the majority of the Shaafi'iyyah.

2) That it is permissible with regards to himself, but it is not permissible to give a fatwaa to others based upon taqleed.

3) That it is permissible when there is a need for it, and there is no mujtahid scholar. And this is the most correct of the sayings and is what is acted upon."

Imam Ibn Katheer, rahimahullaah, said: "And what is apparent, and Allaah knows best, is that it is general for all those who are in authority (oolul-amr),from the rulers and the scholars."

Shaykhul-Islam Ibn Taymiyyah said: "This is why those who are in authority are of two groups: the scholars and the rulers. If they are upright, the people will be upright; if they are corrupt, the people will be corrupt."

"It should be realised that the rulers are to be obeyed if they command what knowledge necessitates. So obedience to them follows on from obedience to the scholars. Indeed obedience is only in that which is good and that which is obligated by knowledge. So just as obedience to the scholars follows on from obedience to the Messenger, then obedience to the rulers follows on from obedience to the scholars." [Imaam Ibn al-Qayyim, r.a.]

Anonymous said...

The Problem : "Blind" following refers to following a person (including self) when the instructions are clearly not in accordance with Qur'ân and Sunnah. To do so is a form of shirk, because at its core is a denial of a part of the Revelation, and to deny a single ayat of Revelation is to deny it all.

Many muslims treat the noble Imaams (Imaam Shafii, Imaam Malik, etc.) as though their words are protected from error. For some people, the words of an Imaam are taken as "gospel" and followed exclusively (as if it were revelation). Even if a verse from the Qur'ân or an authentic saying of the Messenger is brought as an argument against what their chosen Imaam said, their followers forsake what Allah or the Messenger, saaws, said and follow their Imaams. This dangerous position leads to blind taqleed (following) of humans at the expense of revelation.

One such example of this is that Imaam Malik did not raise his hands during the takbeer because they had been crippled to where he could not raise them as should be done in the salah. Muslims who choose to blindly follow Imaam Malik will not raise their hands during the takbeer, even though their is clear proof to do so. There are examples too numerous to list here, examples of senseless adherence to the ways or teachings of men, teachings that are contradictory to the proof.

Some muslims blindly follow modern leaders (such as highly deviating Imaam at the local masjid), even when the man calls the people to actions and beliefs that are clearly opposing Qur'ân and Sunnah. Once again, this is an act of elevating a person's words over the Speech of Allah (i.e. the Qur'ân), if at any time we reject the clear revelation and instead act upon or embrace the contrary teachings of a person.

Just like we are to obey our parents unless they call us to the haram (prohibited), we may follow the guidance of men unless they call us to error.

Anonymous said...

This condition of ignorance and blind following was given by Revelation from Allah to the Messenger, Muhammed, saaws, who said: Verily, Allah does not take away knowledge by snatching it from the people, but (this is done) by causing (the death) of the scholars until none of them is left alive. People would then appoint ignorant leaders (as scholars) for themselves who would be consulted in matters of religion and they would give Fatawas without knowledge, falling into misguidance and misguiding others. [Muslim].

Shaykhul-Islaam Ibn Taymiyyah, rahimahullaah, said: "And the four Imaams, may Allaah be pleased with them, all forbade the people from blindly following them in all that they may say; and this was an obligation upon them [to do]."

Abu Haneefah (rahimahullaah) said: "When a hadeeth is found to be saheeh, then that is my madhhab."

[Ibn 'Aabideen in al-Haashiyah (1/63) and in his essay Rasm al-Mufti (1/4 from the Compilation of the Essays of Ibn 'Aabideen), Shaikh Saalih al-Fulaani in Eeqaaz al-Himam (p. 62) and others. Ibn \'Aabideen quoted from Sharh al-Hidaayah by Ibn al-Shahnah al-Kabeer, the teacher of Ibn al-Humaam]

"It is haram (prohibited) for someone who does not know my evidence to give fatwaa (verdicts) on the basis of my words."

Another narration adds, "... for we are mortals: we say one thing one day, and take it back the next day."

[Ibn \'Abdul Barr in Al-Intiqaa\' fi Fadaa\'il ath-Thalaathah al-A\'immah al-Fuqahaa\' (p. 145), Ibn al-Qayyim in I\'laam al-Mooqi\'een (2/309), Ibn \'Aabideen in his Footnoes on Al-Bahr ar-Raa\'iq (6/293) and in Rasm al-Mufti (pp. 29, 32) & Sha\'raani in Al-Meezaan (1/55) with the second narration. Similar narrations exist on the authority of Abu Haneefah\'s companions Zafar, Abu Yoosuf and \'Aafiyah ibn Yazeed; cf. Eeqaaz (p. 52). Ibn al-Qayyim firmly certified its authenticity on the authority of Abu Yoosuf in I\'laam al-Mooqi\'een (2/344).]

"When I say something contradicting the Book of Allah the Exalted or what is narrated from the Messenger (saaws), then ignore my saying."

[Al-Fulaani in Eeqaaz al-Himam (p. 50), tracing it to Imaam Muhammad and then saying, \"This does not apply to the mujtahid, for he is not bound to their views anyway, but it applies to the muqallid.\"]

Anonymous said...

Imaam Maalik ibn Anas (rahimahullaah) said: "Truly I am only a mortal: I make mistakes (sometimes) and I am correct (sometimes). Therefore, look into my opinions: all that agrees with the Book and the Sunnah, accept it; and all that does not agree with the Book and the Sunnah, ignore it."

[Ibn \'Abdul Barr in Jaami\' Bayaan al-\'Ilm (2/32), Ibn Hazm, quoting from the former in Usool al-Ahkaam (6/149), and similarly Al-Fulaani (p. 72)]

Imaam Shaafi'i (rahimahullaah) said: "The sunnahs of the Messenger of Allah (saaws) reach, as well as escape from, every one of us. So whenever I voice my opinion, or formulate a principle, where something contrary to my view exists on the authority of the Messenger of Allah (saaws), then the correct view is what the Messenger of Allah (saaws) has said, and it is my view."

[Related by Haakim with a continuous sanad up to Shaafi\'i, as in Taareekh Dimashq of Ibn \'Asaakir (15/1/3), I\'laam al-Mooqi\'een (2/363, 364) & Eeqaaz (p. 100).]

Anonymous said...

The Solution: The messenger of Allah (saaws) said: O mankind, I am leaving two things with you, if you cling to them you will never go astray. The Book of Allah and my way of life. [Al-Haakim and Al-Baihaqi].

The Muslim who does not want to go astray refers all matters to the Qur'ân and Sunnah of the Prophet Muhammed This does not mean he should be confrontational, ignore, or find no use for the people of knowledge - because he SHOULD refer to such people. Note emphasis on the word REFER, meaning you use the people of knowledge as a RESOURCE and GUIDE - not as a source of Revelation.

When wanting further explanation, the muslim should refer to the writings of as-Salaf as-Saalih. Make decisions based on the proofs in the Qur'ân and Sunnah, accepting the explanations given by as-Salaf as-Saalih as far superior to others.

The people choose their leaders; the leader or Imam is not self-appointed. So choose your leader / spiritual guide carefully and follow obediently only when Qur'ân and authenticated Sunnah evidence from as explained by the righteous Islamic scholars of the first three generations of righteous Muslims after the revelation of the Qur'ân.

Anonymous said...

Sharh Usool ul-I'tiqaad (1/9) - Imaam al-Laalikaa'ee (d. 418H) (rh) said: "That which is most obligatory upon a Muslim: Knowledge of the aspects of the creed of the Religion and what Allaah has obligated upon His Servants including the understanding of His Tawheed and of His Attributes, and believing in His Messengers with evidences and with certainty. And arriving at [all of] that and seeking evidences for them with clear proofs.

And among the mightiest of statements and clearest of proofs and understandings is:

The Book of Allaah, the Manifest Truth

Then the saying of the Messenger of Allaah

And of his Companions, the chosen, pious ones

Then that which the Salaf us-Saalih were unanimously agreed upon

The holding fast to all of that and remaining firm upon it till the Day of Judgement

Then turning away from the innovations and from listening to them - from amongst those things the astray people have invented"

Anonymous said...

The Noble Qur'ân - An-Nûr 24:63

Make not the calling of the Messenger (Muhammad sal.) among you as your calling of one another. Allâh knows those of you who slip away under shelter
(of some excuse without taking the permission to leave, from the Messenger SAW).

And let those who oppose the Messenger's (Muhammad sal.) commandment
(i.e. his Sunnah legal ways, orders, acts of worship, statements, etc.) (among the sects)

beware, lest some Fitnah (disbelief, trials, afflictions, earthquakes, killing, overpowered by a tyrant, etc.) befall them or a painful torment be inflicted on them.

zeashan haider zaidi said...

Good replies Anwar Bhai!

Shahvez Malik said...

Bahut Achcha Anwer Bhai, Weldone.

Mahak said...

@प्रिय अनवर भाई

मुझे नहीं लगता की उस सर्वशक्तिमान और अंतर्यामी ईश्वर को कर्म कांडों या विभिन्न धर्मों की पूजा पद्धतियौ के द्वारा अपनी चापलूसी या चमचागिरी कराने का शौक होगा ,ईश्वर हमारे अच्छे कर्मों से खुश होता है ना की दिखावे या फिर ढोंग पांखड आदि से

अब कोई मुंह पर तो राम-राम और अल्लाह -अल्लाह करे और अंदर भरा हो उसके लालच,मक्कारी और झूठ तो ऐसे लोगों से तो वो लोग अच्छे हैं जो बिना किसी सत्ता का नाम लिए या उसमें यकीन ना रखते हुए सिर्फ अपने काम और कर्तव्यों को ही अपना धर्म मानकर उन्हें निष्ठां और ईमानदारीपूर्वक पूरा करते हैं

इसे इस प्रकार ही समझिए की कोई ऊपर से तो वंदे-मातरम गाकर अपने आप को देशभक्त साबित करने की कोशिश करे और पीछे से लिप्त हो भ्रष्टाचार आदि में तो उससे तो वो व्यक्ति ज्यादा भला है जो वंदे-मातरम तो नहीं गाता लेकिन भ्रष्टाचार भी नहीं करता, अब आप बताइये क्या दिखावा करने से वो व्यक्ति देशभक्त हो जाएगा

जिस प्रकार देशभक्ति दिल में होनी चाहिए उसी प्रकार उस ईश्वर के प्रति सच्चा समर्पण तो वो माना जाएगा जिसमें भले ही उसका नाम या दिखावा किये बिना आप सच्चाई और ईमानदारी से अपने दायित्वों का पालन करें

DR. ANWER JAMAL said...

@ प्रिय महक जी ! मुझे केवल आपका प्यार भरा सवाल इस समय यहां खींच लाया। जो अपनी तलाश और अपने सवाल में सच्चा है, मैं उसकी क़द्र करता हूं और प्यार तो नाक़द्रों से भी करता हूं।
1.जो लोग मालिक का नाम केवल दिखावे के लिए लेते हैं और लालच, झूठ और मक्कारी में ही जीवन गुज़ार देते हैं, ऐसे लोगों को कपटाचारी और मुनाफ़िक़ कहा जाता है। ये लोग पूरी मानव जाति के साझा दुश्मन हैं। इनका ठिकाना नर्क में सबसे नीचे है जहां की आग सबसे तेज़ है।
2.इबादत और पूजा की ज़रूरत मालिक को नहीं है बल्कि बंदों को है। झुकना मानव का स्वभाव है। अगर उसकी यह स्वाभाविक मांग सही तरह से पूरी नहीं हुई और वह सही जगह न झुका तो फिर वह ग़लत जगह झुकेगा। दौलत के आगे झुकेगा, नामवर हस्तियों के आगे झुकेगा और अगर कहीं नहीं झुका तो फिर अपनी इच्छाओं के सामने तो उसे झुकना ही पड़ेगा। फिर वह दूसरों को अपने आगे झुकने के लिए बाध्य करेगा, कहीं धर्मगुरू बनकर और कहीं नेता बनकर। जो मालिक के सामने झुकता है फिर उसका शीश किसी के सामने नहीं झुकता और जो उसके सामने नहीं झुकता वह हज़ार चीज़ों के सामने झुकता फिरता है और मानवीय गरिमा खो बैठता है।
3.मालिक का नाम लेने से इनसान को ध्यान रहता है कि वह अनाथ नहीं है। दुनिया की मुसीबतें आज़माइश हैं और इनसे छुटकारे के लिये उसे कोई भी ग़लत काम नहीं करना है। सही तरीक़े पर चलने में चाहे कितने ही कष्ट हों या फिर मौत ही क्यों न हो तब भी उसे सही रास्ते पर ही चलना है। उसका मालिक उसे दोबारा जीवित करके पुरस्कारस्वरूप अनन्त जीवन देने की ताक़त रखता है। मौत की सरहद के दोनों तरफ़ उसी एक मालिक की सत्ता है।
4.मालिक का नाम उसके आदेशों की याद दिलाता है। मालिक के आदेश मानव को बताते हैं कि ‘वास्तव में उसके लिए अच्छा क्या है ?‘
5.मिसाल के तौर पर एक सिपाही सरहद पर लड़ रहा है। उसके कुछ साथी पीठ दिखाकर भाग आते हैं और सरकारी हथियारों से कुछ अमीर आदमियों को लूटकर फ़र्ज़ी दस्तावेज़ बनाकर ऐसे देश में भाग जाते हैं जहां भारत की प्रत्यर्पण की संधि नहीं है और कुछ समय बाद वे अपने परिवारों को भी वहीं बुला लेते हैं। वे अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में दाखि़ल करते हैं और जीवन का सुख भोगते हैं। समाज में उन्हें आला रूतबा हासिल हो जाता है। वे आला महफ़िलों की शोभा बढ़ाते हैं। जबकि दूसरी तरफ़ कुछ सिपाही मुक़ाबला करना ‘अच्छा‘ मानते हैं और डटकर लड़ते हैं और उनमें से कुछ मारे जाते हैं और कुछ बम की चपेट में आकर हमेशा के लिए अंधे और बहरे हो जाते हैं। उन्हें घर भेज दिया जाता है। थोड़ी बहुत सरकारी सहायता जो उन्हें मिलती है, वह उनके इलाज में ही स्वाहा हो जाती है। उनके बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है। उनकी लड़कियों के अच्छे रिश्ते मात्र उनकी ग़रीबी की वजह से नहीं आते। उन्हें बेमेल लोगों से ब्याह दिया जाता है। उन वतन के रखवालों को न तो किसी स्कूल में बुलाया जाता है और न ही किसी सड़क का उद्घाटन उनसे कराया जाता है। समाज के लोग भी उनके घर में जाकर नहीं झांकते। लोग फ़िल्में देखते हैं, बीयर पीते हैं और ब्लॉगिंग के मज़े लूटते रहते हैं लोगों से सूद लेकर उनका खून चूसते रहते हैं और जब बाढ़ आती है तो किसी होटल में जाकर आराम से पानी घटने का इंतज़ार करते हैं।वतन के जांबाज़ अपमान सहकर जीते हैं और सोचते हैं कि क्या उन्होंने अपना जीवन इन्हीं खुदग़र्ज़ लोगों के लिये कुरबान कर दिया ?
### अब आप बताईये कि बुज़दिल सिपाही और बहादुर सिपाही दोनों ने जो अच्छा समझा किया। अब कौन तय करेगा कि वास्तव अच्छा है क्या ?

Shah Nawaz said...

अनवर भाई,

आपका उपरोक्त कमेंट्स बहुत ही दमदार है, ऐसे विचार विरले ही सुनने/पढने को मिलते हैं...... बहुत खूब!

Mahak said...

@आदरणीय एवं प्रिय अनवर जी

अंत में जो आपने ये लाइन लिखी है की -

अब कौन तय करेगा कि वास्तव अच्छा है क्या ?

यही बात मैं भी कहना चाहता था की ये कौन तय करेगा की वास्तव में क्या अच्छा है और क्या बुरा ,कौन ये तय करेगा की ........ खैर छोडिये फिर बहस बहुत लंबी खिंच जायेगी और वैसे ही आजकल समय की अत्यधिक कमी और व्यस्तता चल रही है

आपका आज वाला जवाब मुझे अधिक तर्कशील और सत्यता के अधिक निकट प्रतीत हुआ , इसके लिए आपका बहुत-२ धन्यवाद ,हुज़ूर मैं तो कहता हूँ की इस वाले कमेन्ट को भी एक पोस्ट का रूप दे ही दीजिए क्योंकि इसे भी एक सिर्फ एक कमेन्ट के रूप में रखना इसकी ज्ञानमयी रौशनी को सीमित करना ही होगा


महक

The Straight path said...

अनवर भाई...
बहुत खूब!

Anwar Ahmad said...

मुसलमानों के रिवाज की आलोचना क्यों ?
आप ऐतराज़ करोगे तो मुसलमान पर सच आपके सामने रखना फ़र्ज़ हो जाता है ,फिर उसे आप बर्दाश्त किया कीजिये .

Unknown said...

Respected Jamal Sb.

I just don't have words good enough to describe your pain, you love and your efforts for the sake of whole of Human race.
You are doing a commendable job,
May Allah Bless you with all his bounties.