सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Tuesday, September 28, 2010

Several names are for same God in Vedas एक ही सर्वोच्च शक्ति के अनेक नाम हैं - Pandit Ved Prakash Upadhyay

एक ही सर्वोच्च शक्ति के अनेक नाम हैं
चराचर जगत में चैतन्य रूप से व्याप्त ईश्वर की सत्ता का वर्णन ऋग्वेद में अनेक रूपों में प्राप्त होता है। कुछ वेदविशारदों ने अनेक देववाद का प्रतिपादन करके ऋग्वेद को अनेकदेववादी बना दिया है और कुछ लोग ऋग्वेद में उपलब्ध अनेक सर्वोत्कृष्ट देवताओं की कल्पना करते हैं। यह केवल ऋग्वेद का पूर्णतया अनुशीलन न करने पर होता है। वास्तव में सत्ता एक ही है, जिसका अनेक सूक्तों में अनेकधा वर्णन प्राप्त होता है।
इन्द्र, मित्र, वरूण, अग्नि, गरूत्मान, यम और मातरिश्वा आदि नामों से एक ही सत्ता का वर्णन ब्रह्मज्ञानियों द्वारा अनेक प्रकार से किया गया है-
‘‘इन्द्रं मित्रं वरूणमग्निमाहुदथो दिव्यः स सुपर्णो गरूत्मान्।

एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः।।
                                     (ऋग्वेद, मं. 10, सू. 114, मं. 5)
वेदान्त में कहा गया है कि ‘एकं ब्रह्म द्वितीयं नास्ति, नेह, ना, नास्ति किंचन‘ अर्थात् परमेश्वर एक है, उसके अतिरिक्त दूसरा नहीं।
परमेश्वर प्रकाशकों का प्रकाशक, सज्जनों की इच्छा पूर्ण करने वाला, स्वामी, विष्णु (व्यापक), बहुतों से स्तुत, नमस्करणीय, मन्त्रों का स्वामी, धनवान, ब्रह्मा (सबसे बड़ा), विविध पदार्थों का सृष्टा, तथा विभिन्न बुद्धियों में रहने वाला है, जैसा कि ऋग्वेद, 2,1,3 से पुष्ट होता है-
‘‘त्वमग्ने इन्द्रो वृषभः सत्रामसि, त्वं विष्णुरूरूगायो नमस्यः।
त्वं ब्रह्मा रयिबिद् ब्रह्मणास्पते त्वं विधर्तः सचसे पुरन्ध्या।।‘‘
अधोलिखित मंत्र में परमेश्वर को द्युलोक का रक्षक, शंकर, मरूतों के बल का आधार, अन्नदाता, तेजस्वी, वायु के माध्यम से सर्वत्रगामी, कल्याणकारी, पूषा (पोषण करने वाला), पूजा करने वाले की रक्षा करने वाला कहा गया है-
‘‘त्वमग्ने रूद्रो असुरो महोदिवस्त्वं शर्धो मारूतं पृक्ष ईशिषे।
त्वं वातैररूणैर्याति शंगयस्तवं पूषा विधतः पासि नुत्मना।।
                                     (ऋग्वेद, मं. 2, सू. 1, मं. 6)
परमेश्वर स्तोता को धन देने वाला है, रत्न धारण करने वाला सविता (प्रेरक) देव है। वह मनुष्यों का पालन करने वाला, भजनीय, धनों का स्वामी, घर में पूजा करने वाले की रक्षा करने वाला है। इसके प्रमाण में ऋग्वेद मं. 2, सू. 1, मं. 7 से प्रस्तुत है-

‘‘त्वमग्ने द्रविणोदा अरंकृते त्वं देवः सविता रत्नधा असि।
त्वं भगो नृपते वस्व ईशिषे त्वं पायुर्दमे यस्तेऽविधत्।।
इस मन्त्र में प्रयुक्त ‘अग्नि‘ शब्द ‘अज‘ (प्रकाशित होना) + दह् (प्रकाशित होना) + नी (ले जाना) + क्विप् प्रत्यय से निष्पन्न होकर प्रकाशक परमेश्वर का अर्थ निष्पादक है। ‘नृपति‘ शब्द नृ (मनुष्य) + पा (रक्षा करना) + ‘डति‘ प्रत्यय से बन कर ‘मनुष्यों का पालक अर्थ देता है। इसी प्रकार प्रेरणार्थक ‘सु‘ धातु में तृच् प्रत्ययान्त ‘सु‘ प्रत्यय से प्रेरक अर्थ ‘सविता‘ शब्द से निष्पादित होता है।
सभी के मन में प्रविष्ट होकर जो सब के अन्तःकरण की बात जानता है, वह सत्ता ईश्वर एक ही है। इसका प्रतिपादन अथर्ववेद (10, 8, 28) में ‘एको ह देवो प्रविष्टः‘ कथन से किया गया है।
ऋग्वेद में प्रतिपादित ‘एकं सत्‘ के विषय में कृष्ण यजुर्वेदीय ‘श्वेताश्वतर उपनिषद्‘ (6,21) में वृहत् विवेचन किया गया है- वह एक है, सभी प्राणियों का एक अन्तर्यामी परमात्मा है, सभी प्राणियों के अन्दर व्याप्त है, सर्वव्यापक है, कर्मों का अधिष्ठाता है, सभी का आश्रय है, साक्षी है, चेतन है तथा गुणातीत है-      ‘‘एकोदेव सर्वभूतेषू गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
                         कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः, साक्षी चेताकेवलो निर्गुणश्च।।‘‘
                                                                              (श्वेता. अध्याय 6, मं. 11)
            उस ब्रह्म के विषय में कुछ लोग कहते हैं कि वह है, कुछ लोग कहते हैं कि वह नहीं हैं, वही अपने अरि की सम्पदाओं को विजयी की भांति नष्ट करता है। उसके अरि वही हैं जो उसे नहीं मानते। इस बात का प्रतिपादन ऋग्वेद मं. 2, सू. 12, मं. 5 में हुआ है-
यच्छोत्रेण न श्रृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम्।
तदेव ब्रह्म बिद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
                                         (उपनिषद)

जो कान से नहीं सुनता अपितु जिसके कारण सुनने की शक्ति है, उसी को ब्रह्म समझो,
वह ब्रह्म नहीं है जिसकी उपासना करते हो।

‘‘यं स्मा पृच्छन्ति कुह सेति घोरमुतेमाहुनैषो अस्तीत्येनम्।
सो अर्यः पृश्टभर्विज इवामिनाति श्रदस्मै धत्त स जनास इन्द्रः।।‘‘
   वह परमात्मा समृद्ध का, दरिद्र का याचना करते हुए मन्त्र स्तोता का प्रेरक है। उसी की कृपा से धन मिलता है, उसी के कोप से मनुष्य अपनी समृद्धियों से हीन होता है।
डगमगाती हुई पृथ्वी को एवं चंचल पर्वतों को स्थिर करने वाला तथा द्युलोक का स्तम्भन करने
वाला परमेश्वर है। इसके प्रमाण में ऋग्वेद मं. 2, सू. 21, मं. 2 में प्रस्तुत है-
‘‘यः पृथिवीं व्यथामनामहं हद्
यः पर्वतान् प्रकुपिताँ अरम्णात्।
यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो
यो द्यामस्तभ्नात् स जनास इन्द्रः।।‘‘
ऋग्वेद में अग्निसूक्त, वरूणसूक्त, विष्णु-सूक्त आदि में जिस सत्ता का गुणगान हुआ है वही सत्ता ईश्वर है। उसका ग्रहण लोग अनेक प्रकार से करते हैं। कोई उसे शिव मानता है, कोई शक्ति, कोई ब्रह्म कोई उसे बुद्ध मानता है, कोई उसे कत्र्ता कोई उसे अर्हत् मानता है। एक को अनेक रूपों में मानना सबसे बड़ा विभेद है और ऐसा करना वेदों के अर्थ का अनर्थ करना है तथा यह आर्य धर्म के विरूद्ध है। देवी हो या देव, नर हो या नारी, अच्छा हो बुरा, चराचर जगत में चेतनता रूप में वह ईश्वर सभी पर अधिष्ठित है। यदि चेतनता रूप में वह ईश्वर जगत् में व्याप्त न हो तो जगत् का क्रियाकलाप ही स्थगित हो जाए। जो मनुष्य शुद्ध अन्तःकरण का है, एवं विकारों से रहित है, उसके अन्दर उस परमानन्दमयी सत्ता का प्रकाश रहता है। इसलिए उस ईश्वर को सर्वत्र अनुभव करना चाहिए एवं सदाचार और एकनिष्ठा से उसे प्राप्त करने का प्रयत्न भी करना चाहिए।
लेखक-पं. वेदप्रकाश उपाध्याय, विश्व एकता संदेश 1-15 जून 1994 से साभार, पृष्ठ 10-11
विशेष नोट - लेख के साथ दिखाई दे रहा चित्र मेरे बेटे Anas Khan , class 5 ने मात्र 10 मिनट के नोटिस पर तैयार किया है।
A special gift for truthseekers
वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है।

Saturday, September 25, 2010

The mystery of Ram nam राम नाम का रहस्य और उसकी महिमा _ Anwer Jamal

राम नाम का रहस्य

मालिक ने अपने बन्दों को नेकी का सीधा रास्ता दिखाने के लिए हमेशा किसी नेक बन्दे को ही चुना। उन नेक बन्दों ने मालिक के हुक्म से लोगों को नेक बातें बताईं और खुद उन पर अमल करके दिखाया। उन्होंने सख्त तकलीफ़ें उठाईं और बड़ी कुर्बानियां दीं, लोगों के लिए मिसाल और आदर्श क़ायम किया। ऐसा हरेक क़ौम में हुआ।

वलिकुल्लि क़ौमिन हाद (अलकुरआन)
अर्थात और हरेक क़ौम के लिए एक मार्गदर्शक हुआ है।
जिस क़ौम में नबी आया, उसी क़ौम की ज़बान में उसके दिल पर मालिक का कलाम नाज़िल हुआ और उसी क़ौम की ज़बान में उसने उपदेश दिया। उनके जाने के बाद जब उनकी स्मृति को लिखा गया तो मालिक का कलाम, नबी का उपदेश, उनके हालात-इतिहास और लिखने वालों के नज़रिये सब एक जगह जमा हो गए। इंजील इसकी मिसाल है।

आज अधिकतर ईसाई हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के कलाम में बयान की गई मिसालों को हक़ीक़ी अर्थों में लेते हैं और हज़रत ईसा मसीह अ. को ‘गॉड‘ कहते हैं। जिसने सारी दुनिया को पैदा किया है उसे भी ईसाई भाई ‘गॉड‘ ही कहते हैं।
अनुवाद का उसूल 
कुरआन के आलिम जब कुरआन का अंग्रेज़ी में अनुवाद करते हैं तो अल्लाह के लिए वे ‘गॉड‘ शब्द का इस्तेमाल बेहिचक करते हैं और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बारे में साफ़ कर देते हैं वे ‘गॉड‘ नहीं हैं बल्कि प्रौफ़ेट ऑफ़ गॉड हैं।
इसी तरह जब आलिमों ने फ़ारसी में तर्जुमा किया तो अल्लाह के लिए खुदा लफ़्ज़ इस्तेमाल किया जबकि फ़ारसी बोलने वाले ‘दो खुदा‘ मानते थे। लफ़्ज़ खुदा को लिया गया और उनसे कहा गया कि खुदा दो नहीं होते सिर्फ़ एक होता है।
‘गॉड‘ और ‘खुदा‘ अल्फ़ाज़ की मौजूदगी बताती है कि उस पैदा करने वाले मालिक के लिए हर ज़बान में अच्छे नाम मौजूद हैं और कामिल आलिमों द्वारा उनका इस्तेमाल करना उनके इस्तेमाल को जायज़ साबित करता है।
‘गॉड‘ और ‘खुदा‘ का इस्तेमाल न करना सिर्फ़ अपनी तंगनज़री और कमइल्मी को ज़ाहिर करता है।
इसी तरह हिन्दी में मालिक की खूबियां बयान करने के बारे में देखा जा सकता है कि उसका एक नाम राम है और हिन्दू भाईयों में यह आम रिवाज में है। एक मशहूर राजा हुए हैं उनका नाम मालिक के नाम पर रामचन्द्र रखा गया। लोगों ने उन्हें चाहा, ये चाहतें इतनी बढ़ीं कि कवियों ने उनकी शान में महाकाव्य रच डाले। प्रेम में उन्होंने अति की और उन्हें ईश्वर ही मशहूर कर दिया। हिन्दू ज्ञानियों में आज भी ऐसे लोग हैं जो इस सत्य को जानते हैं और जनसामान्य को समझाते भी रहते हैं लेकिन भावनाओं में जीने वाली जनता ‘तथ्यों‘ की अनदेखी सदा से करती आयी है। लोगों के ग़लत अक़ीदे की वजह से राम नाम दूषित नहीं हो जाता। जो बात ईसाईयों और पारसियों से कही गई वही बात हिन्दू भाईयों से भी कही जाएगी कि ईश्वर एक है, राम उसका एक सुंदर सगुण नाम है, कोई भी राजा ईश्वर नहीं हो सकता। राजा रामचन्द्र ईश्वर नहीं हैं। उनका जीवन इस बात का साक्षी है।
शिर्क  के  नुक्सान से  बचाने के लिएलोगों को शिर्क से, नुक्सान से बचाने के लिए पहले बरसों किसी मदरसे में पढ़कर पूरा आलिम-फ़ाज़िल होना ज़रूरी है। यह बात कुरआन-हदीस में तो कहीं आई नहीं। हां, हज़रत मुहम्मद स. ने यह ज़रूर कहा है-

बल्लिग़ू अन्नी वलौ आयह (अल-हदीस)
अर्थात मेरी तरफ़ से पहुंचाओ चाहे एक ही आयत पहुंचाओ।

इस देश में मालिक को राम कहने वाले भी मौजूद हैं और उसे रहीम कहने वाले भी। दोनों को ही मालिक से प्यार है।
नेकी की बात
एक वर्ग इबादतगाह को ‘मंदिर‘ कहता है और दूसरा ‘मस्जिद‘। मस्जिद में मालिक की इबादत उस तरीक़े से होती है जैसे कि हज़रत मुहम्मद स. ने सिखाया और मंदिर में मालिक की पूजा उस तरीक़े से नहीं होती जैसे कि हिन्दुओं में आ चुके ऋषि सिखा कर गए थे। वे ऋषियों के मार्ग से हट चुके हैं और अब दार्शनिकों और कवियों का अनुसरण कर रहे हैं। अगर हम एक बेहतर बात पर हैं तो हम अपने हिन्दू भाईयों को यह सोचकर नहीं छोड़ सकते कि पहले हम अपना घर ठीक कर लें बाद में उन्हें सही बात बताएंगे। जब हम उन्हें नेकी की बात बताएंगे तो हिन्दी-संस्कृत का इस्तेमाल लाज़िमन करना पड़ेगा और मालिक के उन नामों का भी जो कि हिन्दी-संस्कृत में आम तौर पर बोले और समझे जाते हैं। अगर उनके बारे में कोई भ्रम होगा तो उसे भी स्पष्ट कर दिया जाएगा कि बात ऐसे नहीं बल्कि ऐसे है।
सारी नेकियों की जड़ क्या है ?
सारी  नेकियों की जड़ ‘तौहीद‘ यानि ‘एकेश्वरवाद‘ है और सारी बुराईयों की जड़ ‘शिर्क‘ है यानि एक सच्चे मालिक के साथ या उसके गुणों में किसी अन्य को साझीदार ठहराना। शिर्क की वजह से मानव जाति की एकता खंडित होती है और बहुत से मत-मतांतर बनते हैं। उन सभी मतों में श्रेष्ठता और वर्चस्व की जंग छिड़ती है और टकराव में मानव जाति तबाह होती है। उनकी जंगों को देखकर लोगों में ईश्वर और धर्म से वितृष्णा और बेज़ारी फैलती है। लोग उच्च आदर्शों के बजाय अपने मन की तुच्छ वासनाओं के लिए जीने लगते हैं हर आदमी दौलत के अंबार लगा लेना चाहता है। दौलत की होड़ में आदमी अपने ही बच्चों को उनकी मां की कोख में ही मार डालने लगता है, ऐसे आदमियों से दूसरों को दया कैसे मिल सकती है ?
धर्म की स्थापना कैसे हो ?
पढ़े-लिखे लोग नास्तिक हो जाते हैं। दीन-धर्म की बातें नासमझों की बातें क़रार दे दी जाती हैं और जब वे लोग दीन-धर्म के नाम पर एक-दूसरे का खून बहाते हैं तो उससे नास्तिक लोगों के आरोप की ही पुष्टि होती है। इससे नास्तिकता के ख़ात्मे और दीन के क़ियाम यानि धर्म की स्थापना का काम एक असंभव काम बनकर रह जाता है।
आलिमों-ज्ञानियों के दरम्यान कोई झगड़ा नहीं है 
धार्मिक लोगों का आपसी टकराव समाज को तबाह और ईश्वर-अल्लाह को नाराज़ करता है। शान्ति के सामान्य नियम हमारे संविधान का हिस्सा हैं जिनका कि पालन हर हाल में किया जाना चाहिए और जिस बात पर भी विवाद हो उसे आलिमों-ज्ञानियों के लिए छोड़ देना चाहिए। उसे वे शान्ति के दायरे में सुलझा लेंगे। वस्तुतः उनके दरम्यान कोई झगड़ा है भी नहीं। झगड़ा तो राजनीति के धंधेबाज़ों ने सत्ता हथियाने के लिए खड़ा किया है। उन्होंने ‘राम‘ नाम का अवैध इस्तेमाल करके लोगों की भावनाएं भड़काईं। लोग मारे गए और उन्होंने राज किया। अब लोग भड़कते नहीं सो वे भी भड़काते नहीं। दो बार से वे केन्द्र की सत्ता से दूर हैं। सो वे भी सोच रहे हैं कि अब कैसे सत्ता हथियाई जाए, पुराने हथकंडे अब काम आ नहीं रहे हैं ?
गुनाहों से तौबा करके एक ही मालिक के हुक्म की फ़र्मांबरदारी  कीजिए
ऐसे में मुसलमान की ही यह ज़िम्मेदारी है कि वह सभी लोगों को बताए कि ज़िन्दगी मालिक ने दी है ताकि वह आज़माए। हरेक आदमी आज़माया जा रहा है। जैसा करेगा वैसा फल उसे मिलना है। हर आदमी अपने धार्मिक ग्रंथों से जुड़े, ईश्वर के गुणों को जाने और ईश्वर के सच्चे स्वरूप को पहचाने। सच की तलाश ही उसे सच तक पहुंचाएगी और लोक-परलोक के तमाम कष्टों से मुक्ति दिलाएगी। सभी नबियों ने यही कहा है और दुनिया के अंत में आखि़री नबी हज़रत मुहम्मद स. ने भी लोगों को गुनाहों से तौबा करके एक ही मालिक के हुक्म की फ़र्मांबरदारी के लिए कहा है।
पिछली पोस्ट का विषय यही था।

@ सर्वेंट ऑफ़ अल्लाह ! पहले आप यह बताईये कि क्या अल्लाह के लिए ‘गॉड‘ या ‘खुदा‘ नाम इस्तेमाल करना आपके मसलक में जायज़ हैं ? जबकि ये नाम न तो कुरआन में हैं और न ही हदीसों में हैं। बाक़ी बातें आपके इस एक जवाब में होंगी।
भलाई का हुक्म देना और बुराई से रोकना
@ वॉइस ऑफ़ पीपुल ! पिछली पोस्ट में मैंने लोगों को बताया कि सबका मालिक एक है, वह पैदा नहीं होता और न ही उसे मौत आती है। अलग-अलग ज़बानों में उसके नाम ज़रूर अलग-अलग हैं लेकिन वह एक ही है, सभी को उसी एक मालिक की पूजा-इबादत करनी चाहिए।
क्या यह बात ‘अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुन्कर‘ अर्थात भलाई का हुक्म देना और बुराई से रोकना कहलाएगी या नहीं ?.
### कमेंट अनवार अहमद साहब की तरफ़ से था।

ऋषि मार्ग ही श्रेष्ठ है
@ रविन्द्र जी ! निराकार-साकार और सगुण-निर्गुण का भेद दार्शनिकों का पैदा किया हुआ है, जिसे कवियों ने अलंकारों से सजाकर जनमानस में लोकप्रिय बना दिया। ज्ञानियों को तो केवल यह देखना है कि ऋषि किस मार्ग पर खुद चले और किस मार्ग पर चलने की प्रेरणा आजीवन वे देते रहे ?
ऋषि मार्ग ही श्रेष्ठ है, अनुकरणीय है। उनसे हटकर हर चीज़ गुमराही है और उसमें समाज की तबाही है। केवल और केवल ऋषि मार्ग ही कल्याणकारी और कष्टों से मुक्ति देने वाला है।

Wednesday, September 22, 2010

Mandir-Masjid मैं चाहता हूं कि अयोध्या में राम मन्दिर बने - Anwer Jamal

शीर्षक ही ग़लत
‘राम मन्दिर-बाबरी मस्जिद विवाद‘ का शीर्षक ही ग़लत है। इस विवाद के अब तक न सुलझ पाने का एक बड़ा कारण यह भी है। राम मन्दिर उस जगह का नाम इसलिए हुआ कि रामभक्त उस जगह राम मन्दिर बनाना चाहते हैं जिसमें राम की पूजा-उपासना की जाएगी। मस्जिद में उस पैदा करने वाले मालिक की पूजा की जाती है इसलिए मस्जिद के साथ बाबर बादशाह का नाम जोड़ने के बजाय उस सच्चे बादशाह का नाम जोड़ना ज़्यादा उचित है जिसकी पूजा-इबादत मस्जिद में की जाती है और मस्जिद का मालिक भी वही है।
जिसे ‘राम‘ कहते हैं उसी को ‘रहीम‘ कहते हैं

‘राम मन्दिर-रहीम मस्जिद विवाद‘ इस प्रकरण के लिए पूरी तरह उचित है। यदि इतना भी कर लिया जाए तो राजनीतिबाज़ों की फैलाई सारी नफ़रतें पल भर में काफ़ूर हो सकती हैं। क्योंकि राम भी उसी मालिक का नाम है और रहीम भी, संस्कृत में जिसे ‘राम‘ कहते हैं अरबी में उसी को ‘रहीम‘ कहते हैं।
जो सदा से है, जिसने किसी से जन्म नहीं लिया और न ही किसी को इनसानों की तरह जन्म दिया, जो सब कुछ जानता है और हर तरह की शक्ति जिसके अधीन है, उस अजन्मे-अविनाशी एक ही पालनहार को राम और रहीम कहा जाता है।
मस्जिद में मुसलमान जिस मालिक की पूजा-इबादत करते हैं हिन्दू भाई उसे ही राम कहते हैं। मस्जिद कहते हैं उस जगह को जहां मालिक को बड़ा मानकर बन्दे खुद को छोटा ज़ाहिर करने के लिए उसके सामने ‘सज्दा‘ करते हैं। सज्दे को संस्कृत में साष्टांग कहते हैं।
नमाज़ में चार मुख्य आसन इस प्रकार हैं-
गीता में  नमाज़
1. क़ियाम - स्थिर आसन अर्थात खड़ा होना।
2. रूकूअ़ - जानुबद्ध आसन अर्थात घुटनों पर हाथ रखकर झुके होने की दशा में कमर को सीधा रखना।
3. सज्दा - साष्टांग अर्थात वह आसन जिसमें धरती को शरीर के आठ अंग स्पर्श करें।
4. क़ाइदा - उपविश्यासन या वज्रासन अर्थात दोनों घुटने मोड़कर बैठना।

गीता के 6ठे अध्याय के 10वें ‘लोक से 14वें ‘लोक तक सूक्ष्म रूप में इन चारों आसनों का वर्णन है और 15वें ‘लोक में इस रीति से योग करने वाले को मृत्यु के बाद भगवद्धाम की प्राप्ति होना बताया है।
इससे पता चलता है कि हिन्दू मनीषियों के लिए न तो नमाज अपरिचित है और न ही वह मालिक जिसके लिए नमाज में नमन और साष्टांग किया जाता है। वस्तुतः नमाज़ भी अरबी भाषा का शब्द नहीं है, यह फ़ारसी भाषा का शब्द है जो संस्कृत से विशेष रूप से क़रीब है। नमाज़ को अरबी में ‘सलात‘ बोलते हैं। ईरान में इस्लाम आया तो उन्होंने अल्लाह को खुदा और सलात को नमाज़ कहा। इससे कोई अन्तर नहीं पड़ा।
मस्जिद में उसी एक पालनहार को नमन किया जाता है जिसे हिन्दू भाई ‘राम‘ कहते हैं। अगर भाषा भेद से ऊपर उठकर देखा जाए तो मस्जिद तो वास्तव में होती ही है ‘राम मन्दिर‘। मस्जिद इतने ज़्यादा आदर्श रूप में राम मन्दिर होती है कि उससे ज़्यादा बना पाना तो दूर कोई सोच भी नहीं सकता।
रामभक्त जब बाबरी मस्जिद पर कुदाल चलाकर खुश हो रहे थे और सोच रहे थे कि वे एक मस्जिद ढहा रहे हैं तब वास्तव में वे एक ‘राम मन्दिर‘ ही ढहा रहे थे और ऐसा राम मन्दिर ढहा रहे थे जैसा कि वे अपने जीवन में कभी बनाने की सोच भी नहीं सकते। ये लोग अपने साथ बाबरी मस्जिद की ईंटें लेकर गये और उनके साथ तरह-तरह से अपमानजनक बर्ताव करके अपनी कुंठाओं को शांत किया। उनके बुरे नतीजे भी सामने आये और आज तक आ ही रहे हैं।
आज भारत विश्व की एक उभरती हुई शक्ति है लेकिन हम खुद अन्दर से ही कमज़ोर हैं। मन्दिर-मस्जिद के विवाद को न सुलझा पाना हमारी एक ऐसी कमज़ोरी है जिसे आज सारी दुनिया देख रही है। ऐसे में क्या तो हमारी छवि बनेगी और कौन हमसे मार्गदर्शन लेगा ?
राम नाम में शक्ति है
  • हम कहते हैं कि राम नाम में शक्ति है, अल्लाह के नाम में ताक़त है। हमारे धर्मगुरू सत्य और न्याय की बात करते हैं। तब क्यों नहीं हमारे धर्मगुरू बताते कि राम कौन है और रहीम कौन है ?

  • उसकी पूजा-इबादत की सही रीति क्या है ?

  • उसके बन्दों के दरम्यान जब विवाद की नौबत आ जाए तो उन्हें क्या करना चाहिए ?

राम के भक्त और रहीम के बन्दे आपस में लड़ेंगे तो उनका मालिक उनसे राज़ी नहीं होगा और उनके हालात देखकर दूसरे बहुत से लोग ईश्वर और धर्म से पल्ला झाड़कर नास्तिक ज़रूर बन जाएंगे। इन सबके पापों का बोझ भी उनपर ही पड़ेगा।
रामचन्द्र  उपासक थे , उपासनीय नहीं यह आलिम-ज्ञानियों का काम है। उनका कर्तव्य है कि वे लोगों को बताएं कि राम-रहीम एक ही मालिक के नाम हैं और यह कि रामचन्द्र जी जीवन भर उपासना करते रहे, वे उपासक थे , उपासनीय नहीं हैं। वे सर्वज्ञ नहीं थे, दूसरे राजकुमारों की तरह उन्होंने भी वसिष्ठ को गुरू बनाकर उनसे ज्ञान प्राप्त किया। वे सर्वशक्तिमान भी नहीं थे, उन्हें अपनी योजनाओं को सफल बनाने के लिए बहुत से लोगों से सहयोग लेना पड़ा। उन्होंने त्याग किया, कष्ट सहे, संघर्ष किया और विजय पाई। उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम कहकर याद किया जाता है। उन्हें ईश्वर कहना उनके सारे परिश्रम पर पानी फेरना है, ईश्वर की अवज्ञा करना है। ईश्वर उपासनीय है और श्री रामचन्द्र जी आदरणीय हैं।
इतने दंगे हुए, इतना खून बहा लेकिन आज भी मुसलमानों श्री रामचन्द्र जी का नाम आदर से ही लेते हैं। नफ़रत की बुनियाद पर भ्रम की दीवारें खड़ी करने वाले तो पवित्र कुरआन के विरूद्ध पत्रक छापकर बांटते देखे जा सकते हैं लेकिन किसी मुसलमान आलिम ने आज तक रामायण से लेकर कोई पत्रक तैयार नहीं किया।
ज़्यादातर हिन्दू और ज़्यादातर मुसलमान शांतिप्रिय हैं। नफ़रत फैलाने वाले कम हैं और आजकल तो कमज़ोर भी हैं।
‘जोड़ो और राज करो‘ की नीति पर चलने का समय  है
राम का सच्चा स्वरूप सामने आते ही मन्दिर-मस्जिद विवाद स्वतः ही समाप्त हो जाएगा। आज तक बांटो और राज करो की नीति पर चला गया। अब ‘जोड़ो और राज करो‘ की नीति पर चलने का समय आ गया है। भारत को नये चैलेंजेज़ के मुक़ाबले के लायक़ बनाने के लिए और उसे विश्व का सिरमौर बनाने के लिए अब यही एकमात्र मार्ग है। यदि इस मार्ग पर आगे न बढ़ा गया तो अपनी आपसी लड़ाईयों से ही हम खुद तबाह हो जाएंगे।

राम तारक मंत्र इस तबाही से बचा सकता है-

राम रामायः नमः
अर्थात राम के राम के लिए नमन है।

मैं चाहता हूं कि अयोध्या में राम मन्दिर बने
जिस राम को यहां नमन किया जा रहा है, उसके स्वरूप का परिचय आम किया जाए तो हिन्दू और मुसलमान तब दो नहीं रहेंगे और न ही उनमें कोई विवाद ही रहेगा।
मैं चाहता हूं कि अयोध्या में राम मन्दिर बने, लेकिन वास्तव में केवल पालनहार राम का ही मन्दिर बनना चाहिए, अन्य का नहीं। मेरा मक़सद तो आपको एक सच्चे मालिक की पहचान कराना है, आप हिन्दी-संस्कृत जानते हैं तो उसे उसमें पहचान लीजिए, अगर आप उर्दू-अरबी जानते हैं तो उसके ज़रिए जान लीजिये कि आप का एक मालिक है जिसने आपको ज़िन्दगी बतौर इम्तेहान दी है और वह आपसे आपके कर्मों का हिसाब लेगा। हमें चाहिए कि हम उसके सामने ज़ालिम और मुजरिम बनकर न जाएं। चारों तरफ़ तबाही मची हुई है, हम सच्चे दिल से तौबा करें और नेक राह पर चलें और दूसरों को भी नेकी की प्रेरणा दें।

Sunday, September 19, 2010

The Life style of Sri Krishna आखि़र कोई तो बताये कि श्री कृष्ण जी ने कहां कहा है कि वे ईश्वर हैं और लोगों को उनकी पूजा-उपासना करनी चाहिये ? - Anwer Jamal

@ श्री रविन्द्र जी ! आप मुसलमानों से कह रहे हैं कि यदि वे श्रीकृष्ण जी का आदर करते हैं तो उनकी जन्मभूमि पर जबरन और नाजायज़ तौर पर बनाई गई मस्जिद हिन्दुओं को वापस कर दें।

मुफ़्तख़ोरी के लिए ही इस्लाम पर बेबुनियाद आरोप
1. इस संबंध में मुझे यह कहना है कि अयोध्या हो या काशी हरेक जगह मस्जिदें और मुसलमान कम हैं। अगर कोई शासक वहां मन्दिर तोड़ता तो सारे ही तोड़ता और जैसा कि कहा जाता है कि हिन्दुओं से इस्लाम कुबूल करने के लिए कहा जाता था और जो इस्लाम कुबूल नहीं करता था, उसकी गर्दन काट दी जाती थी। अगर मुस्लिम शासकों ने वाक़ई ऐसा किया होता तो इन हिन्दू धर्म नगरियों में आज मुसलमान और मस्जिदें अल्प संख्या में न होतीं। इनकी संख्या में कमी से पता चलता है कि मस्जिदें जायज़ तरीक़े से ही बनाई गई हैं लेकिन ऐतिहासिक पराजय झेलने वाले ख़ामख्वाह विवाद पैदा कर रहे हैं ताकि इस्लाम को बदनाम करके उसके बढ़ते प्रभाव को रोका जा सके। अगर लोग इस्लाम को मान लेंगे तो फिर न कोइ शनि को तेल चढ़ाएगा और न ही कोई मूर्ति को भोग लगाएगा। इस तरह बैठे बिठाए खाने वालों को तब खुद मेहनत करके खानी पड़ेगी। अपनी मुफ़्तख़ोरी को बनाये रखने के लिए ही इस्लाम पर बेबुनियाद आरोप लगाए जाते हैं जिन्हें निष्पक्ष सत्यान्वेषी कभी नहीं मानते।

सब कुछ पूर्वजन्मों के कर्मफल के अनुसार ही मिलता है
2. इससे यह भी पता चलता है कि हिन्दुओ को अपनी मान्यताओं पर खुद ही विश्वास नहीं है। हिन्दुओं का मानना है कि जो कुछ इस जन्म में किसी को मिलता है वह सब प्रारब्ध के अर्थात पूर्वजन्मों के कर्मफल के अनुसार ही मिलता है। प्रारब्ध को भोगना ही पड़ता है। बिना भोगे यह क्षीण नहीं होता। ईश्वर भी इसे नहीं टाल सकता। यही कारण है कि अर्जुन आदि को भी नर्क में जाना पड़ा था। आपके पिछले जन्मों के फल आज आपके सामने हैं इसमें मुसलमान कहां से ज़िम्मेदार हो गया भाई ?, ज़रा सोचो तो सही। जो कुछ हुआ सब प्रभु की इच्छा से ही हुआ, ऐसा आपको मानना चाहिए अपनी मान्यता के अनुसार।

श्रीकृष्ण जी के असली और जायज़ वारिस केवल मुसलमान हैं
3. केवल मुसलमान ही श्रीकृष्ण जी का आदर करते हैं तब क्यों वे मस्जिद को उन लोगों को दे दें जो श्रीकृष्ण जी को ‘चोर‘ , ‘जार‘ ‘रणछोड़‘ और ‘जुआरियों का गुरू‘ बताकर उनका अपमान कर रहे हैं। अपनी कल्पना से बनाई मूर्ति पर फूल चढ़ाकर मन्दिरों में नाचने और ज़ोर ज़ोर से ‘माखन चोर नन्द किशोर‘ गाने वालों का श्री कृष्ण जी से क्या नाता ?

श्री कृष्ण जी से नाता है उन लोगों का जो श्री कृष्ण जी के आचरण को अपनाये हुए हैं
श्री कृष्ण जी ने एक से ज़्यादा विवाह किये और जितने ज़्यादा हो सके उतने ज़्यादा बच्चे पैदा किये। शिकार खेला और इन्द्र की पूजा रूकवायी और अपनी कभी करने के लिये कहा नहीं। ये सभी आचरण धर्म हैं जिनसे आज एक हिन्दू कोरा है । अगर आज ये बातें कहीं दिखाई देती हैं तो केवल मुसलमानों के अन्दर। इसीलिए मैं कहता हूं कि केवल मुसलमान ही श्री कृष्ण जी के असली और जायज़ वारिस हैं क्योंकि ‘धर्म‘ आज उनके ही पास है।

सब तरीक़े ठीक हैं तो फिर किसी एक विशेष पूजा-पद्धति पर बल क्यों ?
4. आप यह भी कहते हैं कि उपासना पद्धति से कोई अन्तर नहीं पड़ता सभी तरीक़े ठीक हैं। सभी नामरूप एक ही ईश्वर के हैं। तब आप क्यों चाहते हैं कि मस्जिद को ढहाकर एक विशेष स्टाइल का भवन बनाया जाए और उसमें नमाज़ से भिन्न किसी अन्य तरीक़े से पूजा की जाए ?
इसके बावजूद आप एक मस्जिद क्या भारत की सारी मस्जिदें ले लीजिए, हम देने के लिए तैयार हैं। पूरे विश्व की मस्जिदें ले लीजिए बल्कि काबा भी ले लीजिये जो सारी मस्जिदों का केन्द्र आपका प्राचीन तीर्थ है लेकिन पवित्र ईश्वर के इस तीर्थ को, मस्जिदों को पाने के लायक़ भी तो बनिये। अपने मन से ऐसे सभी विचारों को त्याग दीजिए जो ईश्वर को एक के बजाय तीन बताते हैं और उसकी महिमा को बट्टा लगाते हैं।
ऐसे विचारों को छोड़ दीजिए जिनसे उसका मार्ग दिखाने वाले सत्पुरूषों में लोगा खोट निकालें। आप खुद को पवित्र बनाएं, ईश्वर और उसके सत्पुरूषों को पवित्र बताएं जैसे कि मुसलमान बताते हैं। तब आपको कोई मस्जिद मांगनी न पड़ेगी बल्कि काबा सहित हरेक मस्जिद खुद-ब-खुद आपकी हो जाएगी।
आओ और ले लो यहां की मस्जिद, वहां की मस्जिद।
ले लो मदीने की मस्जिद, ले लो मक्का की मस्जिद ।।
@ मान भाई ! ऊंचा नाम मालिक का है। जब आप उसकी शरण में आएंगे तो आपका यह भ्रम निर्मूल हो जाएगा कि कोई आपको नीचा दिखाना चाहता है। यहां केवल सच है और प्यार है, सच्चा प्यार ।
@ श्री रविन्द्र जी और श्री अभिषेक जी ! मैं स्वयं को श्रेष्ठ तो नहीं मानता क्योंकि निजी तौर पर मैं श्रेष्ठता का स्वामी नहीं हूं। मैं एक जीवन जी रहा हूं और नहीं जानता कि अन्त किस हाल में होगा, सत्य पर या असत्य पर, मालिक के प्रेम में या फिर तुच्छ सांसारिक लोभ में ?


श्रेष्ठता का आधार कर्म बनते हैं। जब जीवन का अन्त होता है तब कर्मपत्र बन्द कर दिया जाता है। जिस कर्म पर जीवनपत्र बन्द होता है यदि वह श्रेष्ठ होता है तो मरने वाले को श्रेष्ठ कहा जा सकता है। मेरी मौत से ही मैं जान पाऊँगा कि मैं श्रेष्ठ हूं कि नहीं ? तब तक आप भी इन्तेज़ार कीजिये।

मैं अपने बारे में तो नहीं कह सकता लेकिन ईश्वर अवश्य ही श्रेष्ठ है, उसका आदेश भी श्रेष्ठ है। उसकी उपासना करना और उसका आदेश मानना एक श्रेष्ठ कर्म है। ऋषियों का सदा यही विषय रहा है। मेरा विषय भी यही है और आपका भी यही होना चाहिए। भ्रम की दीवार को गिराने के लिए विश्वास का बल चाहिए। पाकिस्तान क्या चीज़ है सारी एशिया का सिरमौर आप बनें ऐसी हमारी दुआ और कोशिश है। इसके लिए चाहिए आपस में एकता बल्कि ‘एकत्व‘।

हमारी आत्मा एक ही आत्मा का अंश है तो फिर हमारे मन और शरीरों को भी एक हो जाना चाहिए। इसी से शक्ति का उदय होगा, इसी शक्ति से भारत विश्व का नेतृत्व करेगा। भारत की तक़दीर पलटा खा रही है, युवा शक्ति ज्ञान की अंगड़ाई ले रही है। जो महान घटित होने जा रहा है हम उसके निमित्त और साक्षी बनें और ऐसे में क्यों न विवाद के सभी आउटडेटिड वर्ज़न्स त्याग दें।

आखि़र कोई तो बताये कि श्री कृष्ण जी ने कहां कहा है कि वे ईश्वर हैं और लोगों को उनकी पूजा-उपासना करनी चाहिये ?

Wednesday, September 15, 2010

Real praise for Sri Krishna श्री कृष्ण जी की बुलन्द और सच्ची शान को जानने के लिये कवियों की झूठी कल्पनाओं को त्यागना ज़रूरी है - Anwer Jamal

कवियों ने श्री कृष्ण जी का चरित्र लिखने में भी झूठी कल्पनाओं का सहारा लिया। श्री कृष्ण जी द्वारा गोपियों आदि के साथ रासलीला खेलने का बयान लिख दिया। यह भी कवि की कल्पना मात्र है। सच नहीं बल्कि झूठ है।
श्रीमद्भागवत महापुराण 10, 59 में लिख दिया कि उनके रूक्मणी और सत्यभामा आदि 8 पटरानियां थीं। एक अवसर पर उन्होंने भौमासुर को मारकर सोलह हज़ार एक सौ राजकन्याओं को मुक्त कराया और उन सभी को अपनी पत्नी बनाकर साधारण गृहस्थ मनुष्य की तरह उनके साथ प्रेमालाप किया और इनके अलावा भी उन्होंने बहुत सी कन्याओं से विवाह किये। इन सभी के 10-10 पुत्र पैदा हुए। इस तरह श्री कृष्ण जी के बच्चों की गिनती 1,80,000 से ज़्यादा बैठती है।
कॉमन सेंस से काम लेने वाला हरेक आदमी कवि के झूठ को बड़ी आसानी से पकड़ लेगा। मिसाल के तौर पर 10वें स्कन्ध के अध्याय 58 में कवि कहता है कि कोसलपुरी अर्थात श्री कृष्ण जी ने अयोध्या के राजा नग्नजित की कन्या सत्या का पाणिग्रहण किया। राजा ने अपनी कन्या को जो दहेज दिया उसकी लिस्ट पर एक नज़र डाल लीजिए।
‘राजा नग्नजित ने दस हज़ार गौएं और तीन हज़ार ऐसी नवयुवती दासियां जो सुन्दर वस्त्र तथा गले में स्वर्णहार पहने हुए थीं, दहेज में दीं। इनके साथ ही नौ हज़ार हाथी, नौ लाख रथ, नौ करोड़ घोड़े और नौ अरब सेवक भी दहेज में दिये।। 50-51 ।। कोसलनरेश राजा नग्नजित ने कन्या और दामाद को रथ पर चढ़ाकर एक बड़ी सेना के साथ विदा किया। उस समय उनका हृदय वात्सल्य-स्नेह उद्रेक से द्रवित हो रहा था।। 52 ।।‘
तथ्य- क्या वाक़ई अयोध्या इतनी बड़ी है कि उसमें नौ अरब सेवक, नौ करोड़ घोड़े और नौ लाख रथ समा सकते हैं ?
जिस महल में ये सब रहते होंगे, वह कितना बड़ा होगा?
इनके अलावा एक बड़ी सेना भी थी, उसकी संख्या भी अरबों में ही होगी। यह सब कवि की कल्पना में होना तो संभव है लेकिन हक़ीक़त में ऐसा होना संभव नहीं है। इतिहास में भी भारत के किसी एक राज्य की तो क्या पूरे भारत की जनसंख्या भी कभी इतनी नहीं रही।
कृष्ण बड़े हैं कवि नहीं। सत्य बड़ा है कल्पना नहीं। आदर प्रेम ज़रूरी है। श्री कृष्ण जी के प्रति आदर व्यक्त करने के लिए हरेक आदमी की बात को मानने से पहले यह परख लेना वाजिब है कि इसमें कितना सच है ?
श्री कृष्ण जी का आदर मुसलमान भी करते हैं बल्कि सच तो यह है कि उनका आदर सिर्फ़ मुसलमान ही करते हैं क्योंकि वे उनके बारे में न तो कोई मिथ्या बात कहते हैं और न ही मिथ्या बात सुनते हैं। उनकी शान में बट्टा लगाने वाली हरेक बात को कहना-सुनना पाप और हराम मानते हैं।

Sunday, September 5, 2010

The real sense of worship सर्वशक्तिमान ईश्वर को लोगों की पूजा-इबादत की क्या ज़रूरत है ? - Anwer Jamal

मालिक बेनियाज़ है, बन्दे उसके मोहताज हैं
कुछ लोग पूछते हैं कि सर्वशक्तिमान ईश्वर को लोगों की पूजा-इबादत की क्या ज़रूरत है ? वह क्यों हमारे मुंह से अपनी तारीफ़ सुनना चाहता है ?, उस मालिक को हमारे रोज़ों की क्या ज़रूरत है ?, वह क्यों हमें भूखा रखना चाहता है ?
हक़ीक़त यह है कि लोगों का ऐसे सवाल करना यह बताता है कि वे इबादत के मूल भाव को नहीं समझ पाए हैं इसलिए ऐसे सवाल कर रहे हैं। नमाज़-रोज़ा दीन का हिस्सा हैं, उसका रूक्न हैं। दीन की ज़रूरत बन्दों को है जबकि उस मालिक को न दीन की ज़रूरत है और न ही बन्दों की, वह तो निरपेक्ष और बेनियाज़ है।

अलफ़ातिहा  : दुआ भी और हिदायत भी
नमाज़ में बन्दा खुदा से ‘सीधा मार्ग‘ दिखाने की दुआ करता है। यह दुआ कुरआन की पहली सूरा ‘अलफ़ातिहा‘ में है। नमाज़ में यह दुआ कम्पलसरी है। यह दुआ मालिक ने बन्दों को खुद अपने पैग़म्बर के ज़रिये सिखाई है। यह दुआ हिदायत की दुआ है और खुद भी हिदायत है। पूरा कुरआन इसी दुआ का जवाब है, ‘अलफ़ातिहा‘ की तफ़्सील है। जो कुछ पूरे कुरआन में विस्तार से आया है वह सार-संक्षेप और खुलासे की शक्ल में ‘अलफ़ातिहा‘ में मौजूद है।
‘सीधे रास्ते‘ की दुआ करने के बाद एक नमाज़ी पवित्र कुरआन का कुछ हिस्सा पढ़ता-सुनता है, जिसमें उसे मालिक बताता है कि उसका मक़सद क्या है ? और उसे पूरा करने का ‘मार्ग‘ क्या है ? उसके लिए क्या करना सही है ? और क्या करना ग़लत है ? उसके कामों का नतीजा इस दुनिया में और मरने के बाद परलोक में किस रूप में उसके सामने आएगा ?

तमाम खूबियों का असली मालिक खुदा है
 कुरआन के ज़रिये नमाज़ी को जो ज्ञान और हुक्म मिलता है, उसके सामने मालिक की जो बड़ाई और खूबियां ज़ाहिर होती हैं, उसके बाद नमाज़ी शुक्र और समर्पण के जज़्बे से अपने रब के सामने झुक जाता है। उसकी बड़ाई और खूबियों को मान लेता है और अपनी ज़बान से भी इक़रार करता है। खुदा सभी खूबियों का असली मालिक है और जो खूबियों का मालिक होता है, वह तारीफ़ का हक़दार भी होता है, यह हक़ीक़त है। नमाज़ के ज़रिये इनसान इसी हक़ीक़त से रू-ब-रू होता है।

नमाज़ के ज़रिये होती है अहंकार से मुक्ति
कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। सच पाने के लिए झूठ को और ज्ञान पाने के लिए अज्ञान को खोना ही पड़ेगा। ‘मैं बड़ा हूं‘ यह एक झूठ है, अज्ञान है, इसी का नाम अहंकार है। एक बन्दा जब नमाज़ में झुकता है और अपनी नाक खुदा के सामने ज़मीन पर रख देता है, अपने आप को ज़मीन पर डाल देता है, तब वह मान लेता है कि ‘खुदा बड़ा है‘ जो कि एक हक़ीक़त है।
इस हक़ीक़त के मानने से खुदा को कोई फ़ायदा नहीं होता, फ़ायदा होता है बन्दे को। वह झूठ, अज्ञान और अहंकार से मुक्ति पा जाता है, उसके अन्दर विनय और आजिज़ी की सिफ़त पैदा होती है। इसी सिफ़त के बाद इनसान ‘ज्ञान‘ पाने के लायक़ बनता है। ज्ञान पाने के बाद जब नमाज़ी उसके आलोक में चलता है तो उसे ‘मार्ग‘ स्पष्ट नज़र आता है। अब उसके पास मालिक का हुक्म होता है कि क्या करना है ? और क्या नहीं करना है ?

रोज़े के ज़रिये मिलती है भक्ति की शक्ति
नमाज़ी के सामने ‘मार्ग‘ होता है और उसपर चलने का हुक्म भी लेकिन किसी भी रास्ते पर चलने के लिए ज़यरत होती है ताक़त की। हरेक सफ़र में कुछ न कुछ दुश्वारियां ज़रूर पेश आती हैं। ज़िन्दगी का यह सफ़र भी बिना दुश्वारियों के पूरा नहीं होता, ख़ासकर तब जबकि चलने वाला सच्चाई के रास्ते पर चल रहा हो और ज़माने के लोग झूठे रिवाजों पर। कभी ज़माने के लोग उसे सताएंगे और कभी खुद उसके अंदर की ख्वाहिशें ही उसे ‘मार्ग‘ से विचलित कर देंगी।
रोज़े के ज़रिये इनसान में सब्र की सिफ़त पैदा होती है। रोज़े की हालत में इनसान खुदा के हुक्म से खुद को खाने-पीने और सम्भोग से रोकता है जोकि उसके लिए आम हालत में जायज़ है। रोज़े से इनसान के अंदर खुदा के रोके से रूक जाने की सिफ़त पैदा होती है, जिसे तक़वा कहते हैं।

रोज़ा इनसान को नफ़ाबख्श बनाता है
रोज़े में इनसान भूख-प्यास की तकलीफ़ झेलता है। इससे उसके अंदर सच्चाई के लिए तकलीफ़ उठाने का माद्दा पैदा होता है और वह दूसरे भूखे-प्यासों की तकलीफ़ का सच्चा अहसास होता है। इसी अहसास से उसमें उनके लिए हमदर्दी पैदा होती है जो उसे लोगों की भलाई के लिए अपना जान-माल और वक्त कुरबान करने पर उभारती है। खुदा की इबादत इनसान को समाज के लिए नफ़ाबख्श बनाती है। जिन लोगों को रोज़ेदार से नफ़ा पहुंचता है उनके दिलों में उसके लिए इज़्ज़त और मुहब्बत पैदा होती है। वे भी चाहते हैं कि वह खूब फले-फूले। इस तरह समाज में अमीर-ग़रीब के बीच की खाई पटती चली जाती है।
जिस समाज में रोज़े का चलन आम हो, वहां के ग़रीब लोग कभी अपने समाज के मालदारों के ख़ात्मे का आंदोलन नहीं चलाते जैसा कि रूस आदि देशों में चलाया गया और करोड़ों पूंजीपतियों का खून बहाया गया या जैसा कि नक्सलवादी आज भी देश में बहा रहे हैं।

समरस समाज को बनाता है रोज़ा
रोज़े की हालत में आदमी खुद को झूठ, चुग़ली, लड़ाई-झगड़े और बकवास कामों से बचाता है, गुस्से पर क़ाबू पाना सीखता है। इनमें से हरेक बात समाज में फ़साद फैलने का ज़रिया बनती है। रोज़ेदार दूसरों को सताकर या मिलावट करके या सूद लेकर माल कमाना नाजायज़ मानता है और आमदनी के तमाम नाजायज़ तरीक़े छोड़ देता है। ये तमाम तरीक़े भी मुख्तलिफ़ तरीक़ों से समाज में बिगाड़ फैलाते हैं और वर्ग संघर्ष का कारण बनते हैं। इसके विपरीत रोज़ेदार बन्दा खुदा के हुक्म से ज़कात-फ़ितरा और सद्क़ा की शक्ल में दान देता है। वह लोगों को भूखों को खिलाता है और ज़रूरतमंदों की ज़रूरत पूरी करता है। ऐसा करके वह न तो लोगों से शुक्रिया की चाहत रखता है और न ही वह दिखावा ही करता है क्योंकि यह सब वह मालिक की मुहब्बत में करता है। वह किसी जाति-भाषा या राष्ट्र और इलाक़े की बुनियाद पर यह सब नहीं करता। मानव जाति में भेद पैदा करने वाली हरेक दीवार उसके लिए ढह जाती है। समाज में एकता और समरसता पैदा होती है यह सारी बरकतें होती हैं रोज़े की, खुदा की इबादत की।
रोज़े की ज़रूरत इनसान को है, उस सर्वशक्तिमान ईश्वर को नहीं।

इबादत का अर्थ क्या है ?
‘इबादत‘ कहते हैं हुक्म मानने को। नमाज़ भी इबादत है और रोज़ा भी। बन्दा हुक्म मानता है तभी तो नमाज़-रोज़ा अदा करता है और फिर नमाज़-रोज़े ज़रिये के ज़रिये उसमें जो सिफ़तें पैदा होती हैं उनके ज़रिये वह ‘मार्ग‘ पर चलने के लायक़ बनता है, और ज़्यादा इबादत करने के क़ाबिल बनता है। इबादतों के ज़रिये उसके अंदर विनय, समर्पण, सब्र, तक़वा, हमदर्दी, मुहब्बत और कुरबानी की सिफ़तें पैदा होती हैं, जिनमें से हरेक सिफ़त उसके अंदर दूसरी बहुत सी सिफ़तें और खूबियां पैदा करती हैं। जो बन्दा खुद को खुदा के हवाले कर देता है और उसके हुक्म पर चलता है जोकि तमाम खूबियों का असली मालिक है, उस बन्दे के अंदर भी वे तमाम खूबियां ‘डेवलप‘ हो जाती हैं जोकि उसे ‘मार्ग‘ पर चलने में सफल बनाती हैं, उसे उसकी सच्ची मंज़िल तक पहुंचाती हैं। इबादत के ज़रिये बन्दा अपने रब से जुड़ता है और इबादत के ज़रिये ही उसके अंदर ये तमाम खूबियां डेवलप होती हैं, इसलिए इबादत बन्दों की ज़रूरत है न कि खुदा की।

रूहानी भोजन क्या है ?
जहां खुदा ने हवा-पानी, मौसम-फ़सल और धरती-आकाश बनाया ताकि लोगों के शरीरों की ज़रूरतें पूरी हों, वहीं उसने उनके लिए अपनी इबादत निश्चित की ताकि वे न भटकें और उनके मन-बुद्धि-आत्मा की ज़रूरतें पूरी हों।
आज इनसानी आबादी का एक बड़ा हिस्सा भूखा सोता है और जो लोग खा-पी रहे हैं उनके भोजन में भी प्रोटीन, विटामिन्स और मिनरल्स आदि ज़रूरी तत्व सही मात्रा में नहीं होते, यह एक हक़ीक़त है। ठीक ऐसे ही आज बहुत से लोग नास्तिक बनकर रूहानी तौर पर भूखे-प्यासे भटक रहे हैं लेकिन न तो वे अपनी भूख-प्यास का शऊर रखते हैं और न ही यह जानते हैं कि उन्हें तृप्ति कहां और कैसे मिलेगी ?

धर्म के नाम पर अधर्म क्यों ?

जो लोग समझते हैं कि वे मालिक का नाम ले रहे हैं, ईश्वर का नाम ले रहे हैं, उसका गुण-कीर्तन कर रहे हैं, उनका भी बौद्धिक और चारित्रिक विकास नहीं हो पा रहा है क्योंकि न तो उनकी श्रद्धा और समर्पण की रीति सही है और न ही उन्हें सही तौर पर रूहानी भोजन के सभी तत्व समुचित मात्रा में मिल पा रहे हैं और वे इसे जानते भी नहीं हैं।

जो लोग मालिक की बताई रीति से पूजा-इबादत नहीं करते और अपनी तरफ़ से भक्ति के नये-नये तरीक़े निकालते हैं और समझते हैं कि वे उसके भजन गा रहे हैं, उसकी तारीफ़ कर रहे हैं और उनकी स्तुति-वंदना से प्रसन्न होकर वह उनकी कामनाएं-प्रार्थनाएं पूरी करेगा, वास्तव में वे लोग उस सच्चे मालिक पर झूठे इल्ज़ाम लगा रहे होते हैं, उसे गालियां दे रहे होते हैं। जिससे मालिक नाराज़ हो रहा होता है और वे अपने घोर पाप के कारण उसके दण्ड के भागी बन रहे होते हैं।

ईश्वर के विषय में पाप की कल्पना क्यों ?
ये लोग एक मालिक के बजाय तीन मालिक बताते हैं। कोई कहता है कि पैदा करने वाले ने अपनी बेटी के साथ करोड़ों साल तक बलात्कार किया तब जाकर यह सारी सृष्टि पैदा हुई।
कोई कहता है कि जिसके ज़िम्मे पालने का काम है वह चार महीने के लिए पाताल लोक में जाकर सो जाता है। वह आदमी बनकर मां के पेट से जन्म लेता है। जन्म लेकर वह समाज में ऊंचनीच क़ायम करता है, चोरी करता है, युद्ध करता है और जीतने के लिए युद्ध के नियम भंग करता है।
कोई मारने वाले को नशा करने वाला बताता है और कहता कि वह मौत के डर से अपने ही भक्त से डरकर भाग खड़ा हुआ। ये लोग ईश्वर को मनुष्यों की तरह लिंग-योनि और औलाद वाला नर-नारी बताते हैं। नाचना-कूदना, उन्हें छेड़ना, उनका अपहरण कर लेना, रूप बदलकर कुवांरी कन्याओं से और पतिव्रताओं से राज़ी-बिना राज़ी सम्भोग करना, हरेक ऐब उसके साथ जोड़ दिया। कह दिया कि वह लोगों को भटकाकर पाप कराने के लिए भी धरती पर जन्म ले चुका है। यहां तक लिख डाला कि वह कछुआ-मछली, बल्कि सुअर तक बनकर दुनिया में आ चुका है।

माइथोलॉजी का आधार ही मिथ्या है
इन्हीं सब ‘मिथ्या‘ बातों पर उन्होंने अपनी माइथोलॉजी खड़ी की और अपने दर्शन रचे। इन्हीं बातों की वे कथा सुनाते हैं और इन्हीं बातों को वे अपने भजनों में गाते हैं।
जो लोग इन बातों को नहीं मानते वे नास्तिक बन जाते हैं और दूध का जला बनकर छाछ को भी फूंक मारते रहते हैं और जो लोग इन बातों को मान लेते हैं वे जीवन भर लुटते रहते हैं और समाज में ग़लत परम्पराओं को बढ़ावा देते हैं। दोनों ही तरह इनसान अज्ञान में फंसकर जीता है और अपने जन्म का मक़सद जाने बिना और उसे पूरा किये बिना ही मर जाता है।

ईश्वर के दूत का अपमान क्यों ?
कुछ दूसरे लोगों ने कहा कि ईश्वर ने दुनिया में अपने इकलौते पुत्र को भेजा और वह लोगों के पापों के बदले में क्रूस पर लानती होकर मर गया। जिससे प्रार्थना कर रहे हैं, उसी को लानती कह रहे हैं और चाहते हैं कि उनकी प्रार्थनाएं सुनी जाएं, उनके संकट उनसे दूर किये जाएं।

ज्ञान के बिना व्यर्थ है कर्म और भक्ति
यह सब इसलिए हो रहा है कि ये लोग अपने कॉमन सेंस से काम नहीं ले रहे हैं और ईश्वर की सिखाई रीति के बजाय मनमाने तरीक़े से भक्ति कर रहे हैं। अगर सेंस से काम न लिया जाए तो फिर नमाज़-रोज़ा भी महज़ रस्म और दिखावा बनकर रह जाते हैं जिनपर मालिक की तरफ़ से ईनाम मिलने के बजाय सज़ा मिलती है।
खुदा की इबादत, ईश्वर की भक्ति हरेक इनसान पर उसी रीति से करना अनिवार्य है जो रीति ईश्वर ने अपने दूतों-पैग़म्बरों के माध्यम से सिखाई है। जो इस बात को मानता है वह आस्तिक-मोमिन है और जो नकारता है वह नास्तिक अर्थात काफ़िर है।

अक्लमन्द इनसान कभी मालिक की नाशुक्री नहीं करता
‘काफ़िर‘ का अर्थ नाशुक्रा भी होता है। ईश्वर की ओर से मानव जाति पर हर पल बेशुमार नेमतें बरसती हैं। ईश्वर के उपहार पाकर इनसान को उसका उपकार मानना चाहिए और खुद भी दूसरों पर उपकार करना चाहिए, यही है ईश्वर का सच्चा आभार मानना, उसे सच्चे अर्थों में धन्यवाद कहना।
एक अच्छा इनसान, बुद्धि-विवेक से काम लेने वाला इनसान कभी नाशुक्रा और नास्तिक नहीं हो सकता सिवाय उसके जो ‘इबादत‘ के सही अर्थ को न समझ पाया हो और अपने सच्चे मालिक की सही अर्थों में पूजा-इबादत न कर पाया हो।
ऐ मालिक ! हमें माफ़ कर दे और हमसे राज़ी हो जा
ईश्वर पवित्र है हरेक ऐब और कमी से और वह तमाम खूबियों का असली मालिक है। हम रब की पनाह चाहते हैं इस बात से कि उसके बारे में कभी कोई ऐसी बात सुनें जो उसकी शान के मुनासिब न हो। जो लोग नादानी में उसके विषय में मिथ्या कल्पना करते हैं हम उनके बारे में भी हम उस मालिक से माफ़ी मांगते हैं।

Thursday, September 2, 2010

The Creator of nature has many names एक ही सर्वोच्च शक्ति के अनेक नाम हैं - Pandit Ved Prakash Upadhyay

एक ही सर्वोच्च शक्ति के अनेक नाम हैं
चराचर जगत में चैतन्य रूप से व्याप्त ईश्वर की सत्ता का वर्णन ऋग्वेद में अनेक रूपों में प्राप्त होता है। कुछ वेदविशारदों ने अनेक देववाद का प्रतिपादन करके ऋग्वेद को अनेकदेववादी बना दिया है और कुछ लोग ऋग्वेद में उपलब्ध अनेक सर्वोत्कृष्ट देवताओं की कल्पना करते हैं। यह केवल ऋग्वेद का पूर्णतया अनुशीलन न करने पर होता है। वास्तव में सत्ता एक ही है, जिसका अनेक सूक्तों में अनेकधा वर्णन प्राप्त होता है।
इन्द्र, मित्र, वरूण, अग्नि, गरूत्मान, यम और मातरिश्वा आदि नामों से एक ही सत्ता का वर्णन ब्रह्मज्ञानियों द्वारा अनेक प्रकार से किया गया है-

‘‘इन्द्रं मित्रं वरूणमग्निमाहुदथो दिव्यः स सुपर्णो गरूत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः।।

                                         (ऋग्वेद, मं. 10, सू. 114, मं. 5)
वेदान्त में कहा गया है कि ‘एकं ब्रह्म द्वितीयं नास्ति, नेह, ना, नास्ति किंचन‘ अर्थात् परमेश्वर एक है, उसके अतिरिक्त दूसरा नहीं।
परमेश्वर प्रकाशकों का प्रकाशक, सज्जनों की इच्छा पूर्ण करने वाला, स्वामी, विष्णु (व्यापक), बहुतों से स्तुत, नमस्करणीय, मन्त्रों का स्वामी, धनवान, ब्रह्मा (सबसे बड़ा), विविध पदार्थों का सृष्टा, तथा विभिन्न बुद्धियों में रहने वाला है, जैसा कि ऋग्वेद, 2,1,3 से पुष्ट होता है-
‘‘त्वमग्ने इन्द्रो वृषभः सत्रामसि, त्वं विष्णुरूरूगायो नमस्यः।
त्वं ब्रह्मा रयिबिद् ब्रह्मणास्पते त्वं विधर्तः सचसे पुरन्ध्या।।‘‘

अधोलिखित मंत्र में परमेश्वर को द्युलोक का रक्षक, शंकर, मरूतों के बल का आधार, अन्नदाता, तेजस्वी, वायु के माध्यम से सर्वत्रगामी, कल्याणकारी, पूषा (पोषण करने वाला), पूजा करने वाले की रक्षा करने वाला कहा गया है-
‘‘त्वमग्ने रूद्रो असुरो महोदिवस्त्वं शर्धो मारूतं पृक्ष ईशिषे।
त्वं वातैररूणैर्याति शंगयस्तवं पूषा विधतः पासि नुत्मना।।

                                            (ऋग्वेद, मं. 2, सू. 1, मं. 6)
परमेश्वर स्तोता को धन देने वाला है, रत्न धारण करने वाला सविता (प्रेरक) देव है। वह मनुष्यों का पालन करने वाला, भजनीय, धनों का स्वामी, घर में पूजा करने वाले की रक्षा करने वाला है। इसके प्रमाण में ऋग्वेद मं. 2, सू. 1, मं. 7 से प्रस्तुत है-
‘‘त्वमग्ने द्रविणोदा अरंकृते त्वं देवः सविता रत्नधा असि।
त्वं भगो नृपते वस्व ईशिषे त्वं पायुर्दमे यस्तेऽविधत्।।

इस मन्त्र में प्रयुक्त ‘अग्नि‘ शब्द ‘अज‘ (प्रकाशित होना) + दह् (प्रकाशित होना) + नी (ले जाना) + क्विप् प्रत्यय से निष्पन्न होकर प्रकाशक परमेश्वर का अर्थ निष्पादक है। ‘नृपति‘ शब्द नृ (मनुष्य) + पा (रक्षा करना) + ‘डति‘ प्रत्यय से बन कर ‘मनुष्यों का पालक अर्थ देता है। इसी प्रकार प्रेरणार्थक ‘सु‘ धातु में तृच् प्रत्ययान्त ‘सु‘ प्रत्यय से प्रेरक अर्थ ‘सविता‘ शब्द से निष्पादित होता है।
सभी के मन में प्रविष्ट होकर जो सब के अन्तःकरण की बात जानता है, वह सत्ता ईश्वर एक ही है। इसका प्रतिपादन अथर्ववेद (10, 8, 28) में ‘एको ह देवो प्रविष्टः‘  कथन से किया गया है।
ऋग्वेद में प्रतिपादित ‘एकं सत्‘ के विषय में कृष्ण यजुर्वेदीय ‘श्वेताश्वतर उपनिषद्‘ (6,21) में वृहत् विवेचन किया गया है-  वह एक है, सभी प्राणियों का एक अन्तर्यामी परमात्मा है, सभी प्राणियों के अन्दर व्याप्त है, सर्वव्यापक है, कर्मों का अधिष्ठाता है, सभी का आश्रय है, साक्षी है, चेतन है तथा गुणातीत है-

‘‘एकोदेव सर्वभूतेषू गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः, साक्षी चेताकेवलो निर्गुणश्च।।‘‘
                                                     (श्वेता. अध्याय 6, मं. 11)
उस ब्रह्म के विषय में कुछ लोग कहते हैं कि वह है, कुछ लोग कहते हैं कि वह नहीं हैं, वही अपने अरि की सम्पदाओं को विजयी की भांति नष्ट करता है। उसके अरि वही हैं जो उसे नहीं मानते। इस बात का प्रतिपादन ऋग्वेद मं. 2, सू. 12, मं. 5 में हुआ है-
यच्छोत्रेण न श्रृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम्।
तदेव ब्रह्म बिद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
                                         (उपनिषद)
जो कान से नहीं सुनता अपितु जिसके कारण सुनने की शक्ति है, उसी को ब्रह्म समझो,
वह ब्रह्म नहीं है जिसकी उपासना करते हो।
‘‘यं स्मा पृच्छन्ति कुह सेति घोरमुतेमाहुनैषो अस्तीत्येनम्।
सो अर्यः पृश्टभर्विज इवामिनाति श्रदस्मै धत्त स जनास इन्द्रः।।‘‘
वह परमात्मा समृद्ध का, दरिद्र का याचना करते हुए मन्त्र स्तोता का प्रेरक है। उसी की कृपा से धन मिलता है, उसी के कोप से मनुष्य अपनी समृद्धियों से हीन होता है।
डगमगाती हुई पृथ्वी को एवं चंचल पर्वतों को स्थिर करने वाला तथा द्युलोक का स्तम्भन करने
वाला परमेश्वर है। इसके प्रमाण में ऋग्वेद मं. 2, सू. 21, मं. 2 में प्रस्तुत है-
‘‘यः पृथिवीं व्यथामनामहं हद्
यः पर्वतान् प्रकुपिताँ अरम्णात्।
यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो
यो द्यामस्तभ्नात् स जनास इन्द्रः।।‘‘
ऋग्वेद में अग्निसूक्त, वरूणसूक्त, विष्णु-सूक्त आदि में जिस सत्ता का गुणगान हुआ है वही सत्ता ईश्वर है। उसका ग्रहण लोग अनेक प्रकार से करते हैं। कोई उसे शिव मानता है, कोई शक्ति, कोई ब्रह्म कोई उसे बुद्ध मानता है, कोई उसे कत्र्ता कोई उसे अर्हत् मानता है। एक को अनेक रूपों में मानना सबसे बड़ा विभेद है और ऐसा करना वेदों के अर्थ का अनर्थ करना है तथा यह आर्य धर्म के विरूद्ध है। देवी हो या देव, नर हो या नारी, अच्छा हो बुरा, चराचर जगत में चेतनता रूप में वह ईश्वर सभी पर अधिष्ठित है। यदि चेतनता रूप में वह ईश्वर जगत् में व्याप्त न हो तो जगत् का क्रियाकलाप ही स्थगित हो जाए। जो मनुष्य शुद्ध अन्तःकरण का है, एवं विकारों से रहित है, उसके अन्दर उस परमानन्दमयी सत्ता का प्रकाश रहता है। इसलिए उस ईश्वर को सर्वत्र अनुभव करना चाहिए एवं सदाचार और एकनिष्ठा से उसे प्राप्त करने का प्रयत्न भी करना चाहिए।
लेखक-पं. वेदप्रकाश उपाध्याय, विश्व एकता संदेश 1-15 जून 1994 से साभार, पृष्ठ 10-11
विशेष नोट - लेख के साथ दिखाई दे रहा चित्र मेरे बेटे Anas Khan , class 5  ने मात्र 10 मिनट के नोटिस पर तैयार किया है।
A special gift for truthseekers
श्लोक : श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते।
तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृति‌र्त्वरा॥
भावार्थ : अर्थात जहाँ कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहाँ वेद की बात की मान्य होगी।

Wednesday, September 1, 2010

A comparative study about fasting by S. Abdullah Tariq सभी ईशग्रंथों में रोज़े (उपवास) की महिमा

पवित्र कुरआन अपने अनुयायियों को रोज़े का आदेश देते हुए कहता है- ‘‘हे आस्तिको ! तुम्हारे लिए रोज़े निर्धारित किए गए जैसे कि तुम से पूर्व लोगों के लिए निर्धारित किए गए थे ताकि तुम परहेज़गार बन सको।‘‘ (क़ुरआन 2 : 183)

सनातन धर्म में रोज़े को व्रत या उपवास कहते हैं। व्रत का आदेश करते हुए वेद कहते हैं ‘‘व्रत के संकल्प से वह पवित्रता को प्राप्त होता है। पवित्रता से दीक्षा को प्राप्त होता है, दीक्षा से श्रद्धा को और श्रद्धा से सद्ज्ञान को प्राप्त होता है।‘‘ (यजुर्वेद 19 : 30)

नीयत  :
 रोज़े के लिए नीयत या संकल्प आवश्यक है। बिना इसके वह रोज़ा या उपवास न होकर मात्र फ़ाक़ा रह जाता है।
अभुक्त्वा प्रातरहारं स्नात्वाऽचम्य समाहितः निवेद्य व्रतमाचरेत।

                                                                                       (देवल)
अर्थात उषः काल (सूर्योदय से दो मुहूर्त पूर्व) उठकर स्नानादि करके प्रातः काल में निश्चय करके व्रत का आरंभ करे।
फ़ज्र (सूर्योदय से लगभग डेढ़ घंटा पहले) का समय प्रारंभ होने के साथ या उससे पूर्व रोज़े की नीयत न करने रोज़ा नहीं होता।
‘‘हज़रत इब्ने उमर (र.) का कथन है कि ईशदूत (स.) ने फ़रमाया- जिस व्यक्ति ने फ़ज्र प्रारंभ होने से पहले दृढ़ संकल्प नहीं लिया उसका रोज़ा नहीं होगा।‘‘ (तिरमिज़ी, अबू दाऊद)
उपवास के अधिकारी :
 स्कंद पुराण के अनुसार, ऐसे सभी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र जो वर्णाश्रम का आचरण करने वाले हों, निष्कपट, निर्लोभी, सत्यवादी और सभी के हितकारी हों, वेद का अनुसरण करने वाले, बुद्धिमान तथा पहले से निश्चय करके यथावत कर्म करने वाले हों, व्रत के अधिकारी हैं।

निजवर्णाश्रमाचारनिरतः शुद्धमानसः।

अलुब्धः सत्यवादी च सर्वभूतहिते रतः।।

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव द्विजोत्तम।

अवेदनिन्दको धीमानधिकारी व्रतादिषु।।

(स्कन्द)

इस्लामी संविधान के अनुसार रमज़ान मास के रोज़े प्रत्येक स्वस्थ-चित्त, व्यस्क, स्वस्थ शरीर, मुक़ीम (जो यात्री न हो), पुरूष व स्त्री के लिए अनिवार्य है, कुरआन का आदेश है ‘‘तुम में से जो भी इस महीने को पाए इसके रोज़े रखे।‘‘ (2 :184)

विभिन्न हदीसों के अनुसार बालक, पागल, रजस्वला स्त्री, वृद्ध, गर्भवती या दूध पिलाने वाली स्त्रियां जबकि रोज़े से स्वयं उन्हें या बच्चे को हानि का ख़तरा हो, मुसाफ़िर तथा रोगी के लिए रोज़ा रखना ज़रूरी नहीं। इनमें से कुछ तो बिल्कुल मुक्त हैं और कुछ ऐसे हैं जिन्हें बाद में रमज़ान के छूटे हुए रोज़े पूरे करने का आदेश है।

उपवास या रोज़ों की संख्या :
 सनातन धर्म की प्रचलित मान्यताओं के अनुसार विभिन्न पर्वों व अवसरों पर किए जाने वाले उपवास के दिनों की संख्या भिन्न है।

शिशु चन्द्रायण व्रत निरन्तर एक मास तक ऐसे रखा जाता है कि शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष से आरंभ करके एक मास तक केवल प्रातः काल और सूर्यास्त पर थोड़ा खाने की अनुमति होती है। यह व्रत रमज़ान के रोज़ों से समानता में निकटतम हैं।

‘‘सावधान चित्त, चार ग्रास प्रातः काल तथा चार ग्रास सूर्यास्त होने पर एक मास तक प्रतिदिन भोजन करे तो यह शिशु चन्द्रायण व्रत कहा गया है। इस व्रत को महर्षियों ने सब पापों के नाश के लिए किया था।‘‘ (मनु. 11 : 219,221)

इस्लामी विधान में रमज़ान मास का चांद दिखलाई पड़ने के बाद पूरे महीने के रोज़े अनिवार्य हैं जब तक कि आगामी महीने का चांद न निकले। यह संख्या कभी 29 दिन की होती है और कभी 30 दिन की। रमज़ान के अनिवार्य रोज़ों के अतिरिक्त ‘नफ़िली रोज़े‘ वर्ष की विभिन्न तारीख़ों में होते हैं। नफ़िली रोज़ों का रखना किसी के लिए ज़रूरी नहीं है।

लम्बी अवधि के लगातार रोज़ों का उल्लेख यहूदियों के धर्मग्रंथों (बाइबिल के पुराने नियम की पुस्तकों) में मिलंता है।

‘‘समस्त देशवासियों और पुरोहितों से यह कह  : जो उपवास और शोक पिछले सत्तर वर्षों से वर्ष के पांचवें और सातवें महीने में तुम करते आ रहे हो, क्या तुम यह मेरे लिए करते हो ?‘‘ (ज़कर्याह 7 :5)

बाइबिल के नये नियम के अनुसार ईसाईयों के लिए 40 दिनों के लगातार रोज़े अनिवार्य किए गए थे।

‘‘जब यीशु चालीस दिन और चालीस रात उपवास कर चुके तब उन्हें भूख लगी।‘‘ (मत्ती 4ः2)

परन्तु उन्होंने अपने तीन वर्षीय प्रचार काल में चूंकि अपने सहसंगियों के साथ निरन्तर मुसाफ़िर के तुल्य कठोर जीवन व्यतीत किया, इसलिए उस अवधि में उन्होंने अपने सहसंगियों को रोज़े से मुक्त कर दिया था परन्तु यह भी स्पष्ट कर दिया था कि यह छूट केवल उतने दिनों की है, जब तक वे उनके मध्य हैं।

यहूदियों में जो अधिक धार्मिक प्रवृत्ति के होते थे वे प्रति सप्ताह दो दिन ‘नफ़िली रोज़े‘ रखते थे, जो हरेक के लिए अनिवार्य नहीं थे।

‘‘फ़रीसी खड़े होकर मन ही मन यों प्रार्थना करने लगा, ‘‘हे परमेश्वर, मैं तुझ को धन्यवाद देता हूं कि मैं अन्य लोगों के समान नहीं हूं। मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूं... ।‘‘ (लूका 18 :11-12)
‘‘हज़रत आयशा (रज़ि.) का कथन है कि ईशदूत (स.) प्रत्येक सोमवार तथा बृहस्पतिवार के रोज़े प्रतीक्षा करके रखते थे।‘‘ (तिरमिज़ी, नसाई, अबूदाऊद)

बाइबिल के अनुसार नफ़िली रोज़ों के अनेकों उद्देश्य हो सकते हैं। इनमें मुख्य हैं। आपत्ति के दिनों में परमेश्वर से सहायता मांगने के लिए पापों से क्षमा के लिए, परमेश्वर के समक्ष अपने दोष स्वीकार करने के लिए, परमेश्वर से सद्मार्ग प्रार्थना के लिए और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इत्यादि।
यह ख़बर सुनकर यहोशाकट डर गया और उसने प्रभु की इच्छा जानने का प्रयत्न किया। उसने समस्त यहूदा प्रदेश में सामूहिक उपवास की घोषणा कर दी।‘‘ (2 इतिहास 20 :3)
‘‘उपवास का दिन घोषित करो, धर्म महासभा की बैठक बुलाओ। प्रभु परमेश्वर के भवन में धर्मवृद्धों और देशवासियों को एकत्र करो। सब प्रभु की दुहाई दें।‘‘ (योएल 1 :14)
इसी महीने के 24वें दिन इस्राइली समाज ने सामूहिक उपवास किया। उन्होंने इस देश की अन्य जातियों से स्वयं को अलग किया और खड़े होकर अपने पूर्वजों के अधर्म और पापों को स्वीकार किया।‘‘ (नहेम्याह 9 : 1,2)

‘‘तब मैंने अहवा नदी के तट पर सामूहिक उपवास की घोषणा की ताकि हम परमेश्वर के सम्मुख विनम्र बनें और उससे स्वयं की, अपने बच्चों की तथा संपत्ति की रक्षा के लिए निर्विघ्न यात्रा की मांग करें।‘‘ (एज्रा 8 : 21)

‘‘दाऊद ने कहा, जब तक बालक जीवित रहा मैंने उपवास किया। मैं रोया, मैं सोचता था, कौन जाने प्रभु मुझ पर कृपा करे और बालक बच जाए।‘‘ (2 शामूएल 12 : 22)

उपवास भंग करने वाले कार्यः
असकृज्जलपानाच्च दिवास्वापाच्च मैथुनात्
उपवासः प्रणश्येत सकृत्ताम्बूलभक्षणात (विष्णु)
अर्थात् खाने पीने, दिन में सोने, स्त्री सहयोग तथा पान चबाने से उपवास भंग हो जाता है।
हदीस ग्रंथों के अनुसार जानबूझ कर खाने-पीने, जानबूझ कर मतली करने तथा जानबूझ कर वीर्यपात करने से रोज़ा टूट जाता है।
सनातनी ग्रंथों के अनुरूप दातौन करना उपवास में मना है और व्रत आरंभ करने के बाद स्त्री के रजस्वला होने व्रत में रूकावट नहीं होती। इस्लामी विधान मिस्वाक (दातौन) की अनुमति देता है और रोज़े के मध्य में स्त्री के रजस्वला होने पर रोज़ा टूट जाने की घोषित करता है।

  •  उपवासे न खादेद्दन्तधावनम् (स्मृत्यन्तर)

  •  प्रारब्धदीर्घतपसां नारीणां यद्रजो भवेत ।

न तत्रापि व्रतस्य स्यादुपरोधः कदाचन।।

                                    (सत्यव्रत)

‘‘हज़रत आमिर बिन रबीआ (रज़ि.) का कथन है कि मैं गिन नहीं सकता कितनी बार मैंने ईशदूत (स.) को रोज़े की अवस्था में मिस्वाक करते हुए देखा है।‘‘ (तिरमिज़ी)
‘‘इस पर सर्वसम्मति है कि यदि रोज़े में दिन के समय स्त्री रजस्वला हो जाए तो उसका रोज़ा टूट जाता है।
(अलफ़िक़ः अलल मज़ाहिबुल अरबआ)

इफ़्तार (रोज़ा खोलने) के समय विद्यापन (पूजा आदि):

कुर्यादुद्यापन चवै समाप्तौ यददीरितम्।
उद्यापन बिना युक्त तदव्रतं निष्फलं भवेत।।
अर्थात व्रत के समाप्त होने पर ही उद्यापन करे। यदि उद्यापन न किया तो व्रत निष्फल हो जाएगा।

रोज़ा इफ़्तार करते समय के लिए ईशदूत (स.) ने निम्न प्रार्थना सिखलाई-
‘‘हे अल्लाह, मैं तेरे लिए ही रोज़ा रखता हूं और तुझपर आस्था रखता हूं और (आवश्यकताओं के लिए) तुझ पर ही भरोसा करता हूं और तेरी प्रदान की हुई जीविका से इफ़्तार करता हूं।‘‘

पत्नी का व्रत पति की अनुमति से  :


पत्नी पत्युरनुज्ञाता व्रतादिष्वधिकारिणी (व्यास)

अर्थात पत्नी पति की आज्ञा से व्रत की अधिकारिणी होती है।

इस्लामी विधान में रमज़ान के अनिवार्य रोज़े प्रत्येक स्त्री के लिए ज़रूरी हैं परन्तु नफ़िली रोज़ों के लिए उसे पति की सहमति प्राप्त करना चाहिए।

‘‘अबू हुरैरा (रज़ि.) के अनुसार ईशदूत (स.) ने फ़रमाया- पत्नी अपने पति की उपस्थिति में उसकी इजाज़त के बिना एक दिन भी रोज़ा न रखे सिवाय रमज़ान के‘‘ (बुख़ारी, मुस्लिम)

अन्य ध्यान देने योग्य बातें :
क्रोधात्प्रमादल्लोभाद्वा व्रत भंगो भवेद्यदि। (गरूड़)
अर्थात क्रोध, लोभ, मोह या आलस्य से व्रत भंग हो जाता है।

क्षमा सत्यं दया दानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
देवपूजनाग्निहवनं सन्तोषः स्तेयवर्जनम्।
सर्वव्रतेष्वयं धर्मः सामान्यो दशधां स्थ्तिः।।

                                                      (भविष्य)
अर्थात व्रत के दिनों में क्षमा, सत्य, दया, दान, शौच, इन्द्रियनिग्रह, तपस्या, हवन और सन्तोष का पालन करे और चोरी से भी इन्हें न त्यागे।

बाइबिल में ईश्वर कहता है-
‘‘देखो जब तुम उपवास करते हो तब तुम्हारा उद्देश्य अपनी इच्छाओं को पूर्ण करना होता है, तुम अपने मज़दूरों पर अत्याचार करते हो। देखो तुम केवल लड़ाई-झगड़ा करने के लिए उपवास करते हो। तुम्हारे आजकल के उपवास से तुम्हारी प्रार्थना स्वर्ग में नहीं सुनाई देगी। क्या मैं ऐसे उपवास से प्रसन्न होता हूं ? ... क्या सिर को झाऊ वृक्ष की तरह झुकाना, अपने नीचे राख और टाट-वस्त्र बिछाना, उपवास कहलाता है ?... जिस उपवास से मैं प्रसन्न होता हूं वह यह है; दुर्जनता के बन्धनों से मनुष्य को मुक्त करना, व्यक्ति की गर्दन से जुआ उतारना, अत्याचार की गुलामी में इन्सान को स्वतन्त्र करना, अपना भोजन दूसरों को खिलाना, बेघर ग़रीब को अपने घर में जगह देना, किसी को नंगे देखकर उसे कपड़े पहिनाना, अपने ज़रूरतमंद भाई से मुंह न छिपाना। (यशायाह 58 : 3-7)

मुहम्मद ईशदूत (स.) ने फ़रमाया :
‘‘रोज़ा ढाल है। सो जब तुम में से किसी व्यक्ति का रोज़ा हो तो उसे चाहिए कि न अपशब्द मुंह से निकाले, न शोर करे और न अज्ञानता की बातें करे।‘‘ (मुस्लिम)
‘‘जिस व्यक्ति ने रोज़ा रखकर भी झूठ और झूठ के अनुसरण को न त्यागा तो अल्लाह को कोई ज़रूरत नहीं कि वह अपना खाना पीना छोड़े।‘‘ (बुख़ारी)

उपवास का अर्थ :
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ‘देवता (फ़रिश्ते) जानते हैं कि जब कोई उपवास का संकल्प लेता है तो आगामी सुबह को उसकी नीयत यज्ञ की होती है, इसलिए देवता उसके घर आ जाते हैं और उसके साथ उसके घर में उपवास करते हैं, अतः उस दिन को उपवासथ कहते हैं। (1:1:1:7)