सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Tuesday, September 28, 2010
Several names are for same God in Vedas एक ही सर्वोच्च शक्ति के अनेक नाम हैं - Pandit Ved Prakash Upadhyay
एक ही सर्वोच्च शक्ति के अनेक नाम हैं
चराचर जगत में चैतन्य रूप से व्याप्त ईश्वर की सत्ता का वर्णन ऋग्वेद में अनेक रूपों में प्राप्त होता है। कुछ वेदविशारदों ने अनेक देववाद का प्रतिपादन करके ऋग्वेद को अनेकदेववादी बना दिया है और कुछ लोग ऋग्वेद में उपलब्ध अनेक सर्वोत्कृष्ट देवताओं की कल्पना करते हैं। यह केवल ऋग्वेद का पूर्णतया अनुशीलन न करने पर होता है। वास्तव में सत्ता एक ही है, जिसका अनेक सूक्तों में अनेकधा वर्णन प्राप्त होता है।
इन्द्र, मित्र, वरूण, अग्नि, गरूत्मान, यम और मातरिश्वा आदि नामों से एक ही सत्ता का वर्णन ब्रह्मज्ञानियों द्वारा अनेक प्रकार से किया गया है-
‘‘इन्द्रं मित्रं वरूणमग्निमाहुदथो दिव्यः स सुपर्णो गरूत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः।।
(ऋग्वेद, मं. 10, सू. 114, मं. 5)
वेदान्त में कहा गया है कि ‘एकं ब्रह्म द्वितीयं नास्ति, नेह, ना, नास्ति किंचन‘ अर्थात् परमेश्वर एक है, उसके अतिरिक्त दूसरा नहीं।
परमेश्वर प्रकाशकों का प्रकाशक, सज्जनों की इच्छा पूर्ण करने वाला, स्वामी, विष्णु (व्यापक), बहुतों से स्तुत, नमस्करणीय, मन्त्रों का स्वामी, धनवान, ब्रह्मा (सबसे बड़ा), विविध पदार्थों का सृष्टा, तथा विभिन्न बुद्धियों में रहने वाला है, जैसा कि ऋग्वेद, 2,1,3 से पुष्ट होता है-
‘‘त्वमग्ने इन्द्रो वृषभः सत्रामसि, त्वं विष्णुरूरूगायो नमस्यः।
त्वं ब्रह्मा रयिबिद् ब्रह्मणास्पते त्वं विधर्तः सचसे पुरन्ध्या।।‘‘
अधोलिखित मंत्र में परमेश्वर को द्युलोक का रक्षक, शंकर, मरूतों के बल का आधार, अन्नदाता, तेजस्वी, वायु के माध्यम से सर्वत्रगामी, कल्याणकारी, पूषा (पोषण करने वाला), पूजा करने वाले की रक्षा करने वाला कहा गया है-
‘‘त्वमग्ने रूद्रो असुरो महोदिवस्त्वं शर्धो मारूतं पृक्ष ईशिषे।
त्वं वातैररूणैर्याति शंगयस्तवं पूषा विधतः पासि नुत्मना।।
(ऋग्वेद, मं. 2, सू. 1, मं. 6)
परमेश्वर स्तोता को धन देने वाला है, रत्न धारण करने वाला सविता (प्रेरक) देव है। वह मनुष्यों का पालन करने वाला, भजनीय, धनों का स्वामी, घर में पूजा करने वाले की रक्षा करने वाला है। इसके प्रमाण में ऋग्वेद मं. 2, सू. 1, मं. 7 से प्रस्तुत है-
‘‘त्वमग्ने द्रविणोदा अरंकृते त्वं देवः सविता रत्नधा असि।
त्वं भगो नृपते वस्व ईशिषे त्वं पायुर्दमे यस्तेऽविधत्।।
इस मन्त्र में प्रयुक्त ‘अग्नि‘ शब्द ‘अज‘ (प्रकाशित होना) + दह् (प्रकाशित होना) + नी (ले जाना) + क्विप् प्रत्यय से निष्पन्न होकर प्रकाशक परमेश्वर का अर्थ निष्पादक है। ‘नृपति‘ शब्द नृ (मनुष्य) + पा (रक्षा करना) + ‘डति‘ प्रत्यय से बन कर ‘मनुष्यों का पालक अर्थ देता है। इसी प्रकार प्रेरणार्थक ‘सु‘ धातु में तृच् प्रत्ययान्त ‘सु‘ प्रत्यय से प्रेरक अर्थ ‘सविता‘ शब्द से निष्पादित होता है।
सभी के मन में प्रविष्ट होकर जो सब के अन्तःकरण की बात जानता है, वह सत्ता ईश्वर एक ही है। इसका प्रतिपादन अथर्ववेद (10, 8, 28) में ‘एको ह देवो प्रविष्टः‘ कथन से किया गया है।
ऋग्वेद में प्रतिपादित ‘एकं सत्‘ के विषय में कृष्ण यजुर्वेदीय ‘श्वेताश्वतर उपनिषद्‘ (6,21) में वृहत् विवेचन किया गया है- वह एक है, सभी प्राणियों का एक अन्तर्यामी परमात्मा है, सभी प्राणियों के अन्दर व्याप्त है, सर्वव्यापक है, कर्मों का अधिष्ठाता है, सभी का आश्रय है, साक्षी है, चेतन है तथा गुणातीत है- ‘‘एकोदेव सर्वभूतेषू गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः, साक्षी चेताकेवलो निर्गुणश्च।।‘‘
(श्वेता. अध्याय 6, मं. 11)
उस ब्रह्म के विषय में कुछ लोग कहते हैं कि वह है, कुछ लोग कहते हैं कि वह नहीं हैं, वही अपने अरि की सम्पदाओं को विजयी की भांति नष्ट करता है। उसके अरि वही हैं जो उसे नहीं मानते। इस बात का प्रतिपादन ऋग्वेद मं. 2, सू. 12, मं. 5 में हुआ है-
यच्छोत्रेण न श्रृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम्।
तदेव ब्रह्म बिद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
(उपनिषद)
जो कान से नहीं सुनता अपितु जिसके कारण सुनने की शक्ति है, उसी को ब्रह्म समझो,
वह ब्रह्म नहीं है जिसकी उपासना करते हो।
‘‘यं स्मा पृच्छन्ति कुह सेति घोरमुतेमाहुनैषो अस्तीत्येनम्।
सो अर्यः पृश्टभर्विज इवामिनाति श्रदस्मै धत्त स जनास इन्द्रः।।‘‘
वह परमात्मा समृद्ध का, दरिद्र का याचना करते हुए मन्त्र स्तोता का प्रेरक है। उसी की कृपा से धन मिलता है, उसी के कोप से मनुष्य अपनी समृद्धियों से हीन होता है।
डगमगाती हुई पृथ्वी को एवं चंचल पर्वतों को स्थिर करने वाला तथा द्युलोक का स्तम्भन करने
वाला परमेश्वर है। इसके प्रमाण में ऋग्वेद मं. 2, सू. 21, मं. 2 में प्रस्तुत है-
‘‘यः पृथिवीं व्यथामनामहं हद्
यः पर्वतान् प्रकुपिताँ अरम्णात्।
यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो
यो द्यामस्तभ्नात् स जनास इन्द्रः।।‘‘
ऋग्वेद में अग्निसूक्त, वरूणसूक्त, विष्णु-सूक्त आदि में जिस सत्ता का गुणगान हुआ है वही सत्ता ईश्वर है। उसका ग्रहण लोग अनेक प्रकार से करते हैं। कोई उसे शिव मानता है, कोई शक्ति, कोई ब्रह्म कोई उसे बुद्ध मानता है, कोई उसे कत्र्ता कोई उसे अर्हत् मानता है। एक को अनेक रूपों में मानना सबसे बड़ा विभेद है और ऐसा करना वेदों के अर्थ का अनर्थ करना है तथा यह आर्य धर्म के विरूद्ध है। देवी हो या देव, नर हो या नारी, अच्छा हो बुरा, चराचर जगत में चेतनता रूप में वह ईश्वर सभी पर अधिष्ठित है। यदि चेतनता रूप में वह ईश्वर जगत् में व्याप्त न हो तो जगत् का क्रियाकलाप ही स्थगित हो जाए। जो मनुष्य शुद्ध अन्तःकरण का है, एवं विकारों से रहित है, उसके अन्दर उस परमानन्दमयी सत्ता का प्रकाश रहता है। इसलिए उस ईश्वर को सर्वत्र अनुभव करना चाहिए एवं सदाचार और एकनिष्ठा से उसे प्राप्त करने का प्रयत्न भी करना चाहिए।
लेखक-पं. वेदप्रकाश उपाध्याय, विश्व एकता संदेश 1-15 जून 1994 से साभार, पृष्ठ 10-11
विशेष नोट - लेख के साथ दिखाई दे रहा चित्र मेरे बेटे Anas Khan , class 5 ने मात्र 10 मिनट के नोटिस पर तैयार किया है।
A special gift for truthseekers
चराचर जगत में चैतन्य रूप से व्याप्त ईश्वर की सत्ता का वर्णन ऋग्वेद में अनेक रूपों में प्राप्त होता है। कुछ वेदविशारदों ने अनेक देववाद का प्रतिपादन करके ऋग्वेद को अनेकदेववादी बना दिया है और कुछ लोग ऋग्वेद में उपलब्ध अनेक सर्वोत्कृष्ट देवताओं की कल्पना करते हैं। यह केवल ऋग्वेद का पूर्णतया अनुशीलन न करने पर होता है। वास्तव में सत्ता एक ही है, जिसका अनेक सूक्तों में अनेकधा वर्णन प्राप्त होता है।
इन्द्र, मित्र, वरूण, अग्नि, गरूत्मान, यम और मातरिश्वा आदि नामों से एक ही सत्ता का वर्णन ब्रह्मज्ञानियों द्वारा अनेक प्रकार से किया गया है-
‘‘इन्द्रं मित्रं वरूणमग्निमाहुदथो दिव्यः स सुपर्णो गरूत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः।।
(ऋग्वेद, मं. 10, सू. 114, मं. 5)
वेदान्त में कहा गया है कि ‘एकं ब्रह्म द्वितीयं नास्ति, नेह, ना, नास्ति किंचन‘ अर्थात् परमेश्वर एक है, उसके अतिरिक्त दूसरा नहीं।
परमेश्वर प्रकाशकों का प्रकाशक, सज्जनों की इच्छा पूर्ण करने वाला, स्वामी, विष्णु (व्यापक), बहुतों से स्तुत, नमस्करणीय, मन्त्रों का स्वामी, धनवान, ब्रह्मा (सबसे बड़ा), विविध पदार्थों का सृष्टा, तथा विभिन्न बुद्धियों में रहने वाला है, जैसा कि ऋग्वेद, 2,1,3 से पुष्ट होता है-
‘‘त्वमग्ने इन्द्रो वृषभः सत्रामसि, त्वं विष्णुरूरूगायो नमस्यः।
त्वं ब्रह्मा रयिबिद् ब्रह्मणास्पते त्वं विधर्तः सचसे पुरन्ध्या।।‘‘
अधोलिखित मंत्र में परमेश्वर को द्युलोक का रक्षक, शंकर, मरूतों के बल का आधार, अन्नदाता, तेजस्वी, वायु के माध्यम से सर्वत्रगामी, कल्याणकारी, पूषा (पोषण करने वाला), पूजा करने वाले की रक्षा करने वाला कहा गया है-
‘‘त्वमग्ने रूद्रो असुरो महोदिवस्त्वं शर्धो मारूतं पृक्ष ईशिषे।
त्वं वातैररूणैर्याति शंगयस्तवं पूषा विधतः पासि नुत्मना।।
(ऋग्वेद, मं. 2, सू. 1, मं. 6)
परमेश्वर स्तोता को धन देने वाला है, रत्न धारण करने वाला सविता (प्रेरक) देव है। वह मनुष्यों का पालन करने वाला, भजनीय, धनों का स्वामी, घर में पूजा करने वाले की रक्षा करने वाला है। इसके प्रमाण में ऋग्वेद मं. 2, सू. 1, मं. 7 से प्रस्तुत है-
‘‘त्वमग्ने द्रविणोदा अरंकृते त्वं देवः सविता रत्नधा असि।
त्वं भगो नृपते वस्व ईशिषे त्वं पायुर्दमे यस्तेऽविधत्।।
इस मन्त्र में प्रयुक्त ‘अग्नि‘ शब्द ‘अज‘ (प्रकाशित होना) + दह् (प्रकाशित होना) + नी (ले जाना) + क्विप् प्रत्यय से निष्पन्न होकर प्रकाशक परमेश्वर का अर्थ निष्पादक है। ‘नृपति‘ शब्द नृ (मनुष्य) + पा (रक्षा करना) + ‘डति‘ प्रत्यय से बन कर ‘मनुष्यों का पालक अर्थ देता है। इसी प्रकार प्रेरणार्थक ‘सु‘ धातु में तृच् प्रत्ययान्त ‘सु‘ प्रत्यय से प्रेरक अर्थ ‘सविता‘ शब्द से निष्पादित होता है।
सभी के मन में प्रविष्ट होकर जो सब के अन्तःकरण की बात जानता है, वह सत्ता ईश्वर एक ही है। इसका प्रतिपादन अथर्ववेद (10, 8, 28) में ‘एको ह देवो प्रविष्टः‘ कथन से किया गया है।
ऋग्वेद में प्रतिपादित ‘एकं सत्‘ के विषय में कृष्ण यजुर्वेदीय ‘श्वेताश्वतर उपनिषद्‘ (6,21) में वृहत् विवेचन किया गया है- वह एक है, सभी प्राणियों का एक अन्तर्यामी परमात्मा है, सभी प्राणियों के अन्दर व्याप्त है, सर्वव्यापक है, कर्मों का अधिष्ठाता है, सभी का आश्रय है, साक्षी है, चेतन है तथा गुणातीत है- ‘‘एकोदेव सर्वभूतेषू गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः, साक्षी चेताकेवलो निर्गुणश्च।।‘‘
(श्वेता. अध्याय 6, मं. 11)
उस ब्रह्म के विषय में कुछ लोग कहते हैं कि वह है, कुछ लोग कहते हैं कि वह नहीं हैं, वही अपने अरि की सम्पदाओं को विजयी की भांति नष्ट करता है। उसके अरि वही हैं जो उसे नहीं मानते। इस बात का प्रतिपादन ऋग्वेद मं. 2, सू. 12, मं. 5 में हुआ है-
यच्छोत्रेण न श्रृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम्।
तदेव ब्रह्म बिद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
(उपनिषद)
जो कान से नहीं सुनता अपितु जिसके कारण सुनने की शक्ति है, उसी को ब्रह्म समझो,
वह ब्रह्म नहीं है जिसकी उपासना करते हो।
‘‘यं स्मा पृच्छन्ति कुह सेति घोरमुतेमाहुनैषो अस्तीत्येनम्।
सो अर्यः पृश्टभर्विज इवामिनाति श्रदस्मै धत्त स जनास इन्द्रः।।‘‘
वह परमात्मा समृद्ध का, दरिद्र का याचना करते हुए मन्त्र स्तोता का प्रेरक है। उसी की कृपा से धन मिलता है, उसी के कोप से मनुष्य अपनी समृद्धियों से हीन होता है।
डगमगाती हुई पृथ्वी को एवं चंचल पर्वतों को स्थिर करने वाला तथा द्युलोक का स्तम्भन करने
वाला परमेश्वर है। इसके प्रमाण में ऋग्वेद मं. 2, सू. 21, मं. 2 में प्रस्तुत है-
‘‘यः पृथिवीं व्यथामनामहं हद्
यः पर्वतान् प्रकुपिताँ अरम्णात्।
यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो
यो द्यामस्तभ्नात् स जनास इन्द्रः।।‘‘
ऋग्वेद में अग्निसूक्त, वरूणसूक्त, विष्णु-सूक्त आदि में जिस सत्ता का गुणगान हुआ है वही सत्ता ईश्वर है। उसका ग्रहण लोग अनेक प्रकार से करते हैं। कोई उसे शिव मानता है, कोई शक्ति, कोई ब्रह्म कोई उसे बुद्ध मानता है, कोई उसे कत्र्ता कोई उसे अर्हत् मानता है। एक को अनेक रूपों में मानना सबसे बड़ा विभेद है और ऐसा करना वेदों के अर्थ का अनर्थ करना है तथा यह आर्य धर्म के विरूद्ध है। देवी हो या देव, नर हो या नारी, अच्छा हो बुरा, चराचर जगत में चेतनता रूप में वह ईश्वर सभी पर अधिष्ठित है। यदि चेतनता रूप में वह ईश्वर जगत् में व्याप्त न हो तो जगत् का क्रियाकलाप ही स्थगित हो जाए। जो मनुष्य शुद्ध अन्तःकरण का है, एवं विकारों से रहित है, उसके अन्दर उस परमानन्दमयी सत्ता का प्रकाश रहता है। इसलिए उस ईश्वर को सर्वत्र अनुभव करना चाहिए एवं सदाचार और एकनिष्ठा से उसे प्राप्त करने का प्रयत्न भी करना चाहिए।
लेखक-पं. वेदप्रकाश उपाध्याय, विश्व एकता संदेश 1-15 जून 1994 से साभार, पृष्ठ 10-11
विशेष नोट - लेख के साथ दिखाई दे रहा चित्र मेरे बेटे Anas Khan , class 5 ने मात्र 10 मिनट के नोटिस पर तैयार किया है।
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वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है।
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24 comments:
मैं भी यही कहता हूँ कि मालिक के नाम पर गले मिलो एक दूसरे के गले मत काटो .
मैं तो ऐसे मामलों पे चुप हूँ बहुत दिनों से . क्योंकि बात चाहे सही हो तब भी कहने वाले को वैल्यू क्यों दें ? ये सिर्फ मुझ से डरता है तभी मेरे ब्लॉग कि तरफ नहीं झांकता . साड़ी फसल डूब गयी वरना इसे तो मैं बताता , फिर भी मैं इस पोस्ट पर कुछ नहीं कहूँगा .
जब बड़े बड़े ब्लोगर्स नहीं आते , मैंने भी आना छोड़ दिया तो हमारी बच्चा पार्टी क्यों आती है यहाँ , भागो यहाँ से , तुमने इसके कमेंट्स कि संख्या ७० से पार करा दी मज़े मज़े में और समझ रहे हो खुद को चाणक्य ?
@ परम जी ! वेद प्रकाश उपाध्याय जी का बड़ा नाम है , उनकी बात को काटना मुश्किल है . इसीलिए आप एक पंडित का नाम देखकर चुप हो गए . मेरा लेख होता तो ज़रूर विरोध करते .
अयाज अहमद जी
यजुर वेद के १६ अध्याय में पूरा शिव रूपी परमात्मा का विवरण है
जायदा ही वेद पर बात करना हो तो आप मेरे घर आओ दिन रात वेद पर ही बात होगी
कुछ सूत्र दे रह हू|
नमस्ते रूद्र मन्वते तुइश्वे नमह भाहूमुत ते नमह|
या ते रूर्दा शिव त्न्रून घेरापपा नस्किकी ||
ये सही नही लिखा होगा पर आप यजुर वेद के १६ अध्याय में पूरा शिव रूपी परमात्मा का विवरण पड़ सकते हो
आप ने तो कही नही दिखया की वेद में नरक/स्वर्ग का विवरण है
वैसे ये बार आप जमाल जी से पूछ लेते तो जायदा बता देते
"एख रूद्र दुतीय नास्ति"
एक मात्र वो शिव ,रूद्र है दूसरा भी है ये कहने वाल टिक नही सकता
http://www.aryasamajjamnagar.org/thevedas/yajurveda/yajurveda.htm
जमाल भाई, मुझे वेदों की तो जानकारी नहीं है, लेकिन उनका सम्मान अवश्य ही करता हूँ. पंडित वेदप्रकाश उपाध्याय जी के वेदों पर एक अछि जानकारी देने वाले लेख से रूबरू करवाने के लिए धन्यवाद!
जमाल भाई, मुझे वेदों की तो जानकारी नहीं है, लेकिन उनका सम्मान अवश्य ही करता हूँ. पंडित वेदप्रकाश उपाध्याय जी के वेदों पर एक अछि जानकारी देने वाले लेख से रूबरू करवाने के लिए धन्यवाद!
वंदे ईश्वरम्
जमाल जी , मुझे वेदों की अधिक जानकारी तो नहीं है, लेकिन उनमें समाहित अच्छी बातों का सम्मान अवश्य ही करता हूँ. पंडित वेदप्रकाश उपाध्याय जी के वेदों पर एक अच्छी जानकारी देने वाले लेख से रूबरू करवाने के लिए आपका धन्यवाद एवं आभार
शाहनवाज़ भाई के कमेन्ट को थोड़ा सा modify करके उस पर अपना नजरिया डाला है
धन्यवाद
महक
आपका लेख अच्छा है . वेदों में सवर्ग नरक का बयान कहाँ है इसे तो जो भी बताये लेकिन कुरआन पाक में जन्नत जहन्नम का बयान आसानी से मिल जाता है . जो सुधरना चाहे उसके लिए तो जहन्नम का नाम भी काफी है . मालिक का डर गुनाहों से बचाएगा और गुनाहों से , जुर्म से बचना ही जहन्नम में गिरने बचाएगा . अछे बनो और जहन्नम से बचो .
.
It's a beautiful post , written without any bias. keep it up .
Regards,
.
@आलोक मोहन जी नर्क का वर्णन वेदों मे - ऋग्वेद 4:5:5 में देखें 'जो पापी और बुरे कर्म करने वाले हैं उनके लिए यह अथाह गहराई वाला स्थान बना है ' सायणाचार्य ने इस स्थान का भाष्य नरक स्थान किया है । वेद के पंडितों के लिए यह एक अनोखी जानकारी है कि शिव नाम अब वेदों मे मिलने लगा है आपने मंत्र लिखा लेकिन कौन सा मंत्र है यह नही लिखा कृप्या मंत्र संख्या लिखे ? आपने घर बुलाया लेकिन घर का पता नही लिखा पता क्या है ? क्या आप शिवजी की फ़ैमिली और उनके ऐनिमीज़ और शिवजी का भस्मासुर से डरना आदि सत्य मानते हो या असत्य ?
एक मालिक के हैं बहुत नाम
रहीम है जो वही है राम
आपने यह बड़ी खूबसूरती से साबित कर दिया है, और मानव जाती को धर्म और ईश्वर के नाम पर बाँटने भड़काने वालों के लिए कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी है ।
ईश्वर एक है, धरती एक है
बहुत अच्छा लेख प्रस्तुत किया है डा0 जमाल भाई आपने। डा0 वेदे प्रकाश उपाध्याय ने सत्य को खोल कर बयान कर दिया है। अब धार्मिक ग्रन्थों का यदि संकेत एक ईश्वर की ओर है तो हमें चाहिए कि उसको अपने व्यवहारिक जीवन में भी स्थान दें। मात्र सम्मान कर लेने से काम चलने को नहीं है...
वेद प्रकाश जी की पुस्तक 'कल्कि अवतार और मुहम्मद साहब' मैं ने पढी थी
बहुत अच्छा लिखा है
आपका वेद और कुरआन का ज्ञान अतुलनीय है
ईश्वर आपकी बात
पाठकों को समझने की समझ दे
ऐसी दुआ है मेरी
आमीन
डॉ.अयाज अहमद जी
शिव नाम बिलकुल भी नया नही है सदियों से संत और समाज इसको पूजता और, मानता आया है
शायद आप ने ठीक से सुना और पड़ा नही
आप यजुर वेद ले लीजये उसका १६वा चैप्टर पड़ लीजिये
या आप नेट पर दयानद जी से लिखी यजुर वेद नेट पर पड़ लीजिये
हिंदी इंग्लिश और संस्कृत तीन भाषाओं में मिल जाएगी
यहाँ विस्तार करना मुस्किल है
इसके अतिरिक्त ८ प्रमुख उपनिषाद में प्रमुख रूप से इसका विस्तार है
पर आप ने जिस तरह से reply दिया वो बड़ा ही नकारात्मक था
आप कुछ जानना नही चाहते केवल विरोध करना जानते है
आगे कुछ बताने का फायदा नही है
इसके अलावा आप ज्ञानी पुरुष अनवर जमाल से पता करसकते है ,जो की वेद और कुरान के मास्टर है
शिव का स्वरुप क्या है ?
अलोक जी ! आपका कहना बिलकुल सही है कि शिव नाम बहुत पुराना है . "शिव" नाम यहाँ तब भी बोला जाता था जब कि भारत में आर्य आये भी न थे . द्रविड़ "शिव" कि पूजा करते थे , लिंगोपासना और प्रकृति कि पूजा भी आम थी लेकिन यह बात भी सही है कि वेदों में कहीं भी "शिव" नाम नहीं आया है . "रूद्र" नाम आया है इसे ही शिव का नाम करार दे दिया गया , ऐसा मेरा ज्ञान अभी तक है जो कि गलत भी हो सकता है क्योंकि आपका दावा है कि "शिव" नाम वेदों में है . आज मैं भी यजुर्वेद का १६ वां अध्याय देखूंगा लेकिन अगर आप मंत्र संख्या बता देते तो ज़रा सहूलत हो जाती . इतना तो आपको करना भी चाहिए था . शिव जी के बारे में हरेक हिन्दू कि मान्यता अलग हो सकती है . ब्रह्माकुमारी मत शिव को शंकर से अलग मानता है और शिव को निराकार मानता है . आपकी मान्यता उनसे अलग हो सकती है. महज़ नाम बता देने से यह पता नहीं चलता कि आप शिव का गुण और उसका स्वरुप क्या मानते हैं ? इसलिए डाक्टर साहब ने पूछ लिया जो कि मैं खुद भी जानना चाहता हूँ
जमाल जी मै आप को मंत्र संख्या क्या दू ,
पूरा चैप्टर ही शिव परमात्मा को समर्पित है|
जहा तक मेरे विचार का सवाल है
मै भी अन्य संतो की तरह उस निराकार ,सेर्ववय्पी ,सेर्वसक्तिमान परमात्मा को शिव नाम से बुलाता हु|
क्योकि शिव का मतलब ही कल्याण होता है शिव शिव का ही जप करने के केवल कल्याण संभव है|
केवल यही एक एसा नाम है जिसके कारण शरीर में इस्थित सभी चक्रो में असर होता है|
इसलिए केवल यही नाम का जप करना चाहिए
जहा तक शंकर नाम का सवाल है,
सुरुवात में लोगो को जब संतो ने उस निराकार परमात्मा के बारे में बताया तो बहुत लोगो के समझ के बाहर थी |
इसलिए संतो ने उनको उनके रूप में ढालना सुरु किया
सबसे पहले उन्होंने ने शिव लिंग की स्थपाना की पर ये भी कुछ जटिल लगा |
जैसे हम सब इंसान है तो इंसान से ही प्यार लगाव संभव है ..सो उनका एक इंसानी रूप बनाया
जिसके बीवी बच्चे है ...जिसका नाम शंकर या शम्भू(खुदा ) रखा| इससे एक बड़ा फायदा ये था की लोग किसी न किसी रूप से शिव को पूजने लगे|
और जैसे उस समय पशुधन बहुत बड़ी चीज होती थी तो उनका नाम पशुपति नाथ बता कर शंकर की पूजा करवाई
उसे जगतनाथ,विस्वनाथ ,वैदनाथ,महादेव
वो न तो नर है और न ही नारी सो कुछ नाम जैसे अर्धनारीशर,अल(अल्लाह) बताया
शंकर की मूर्ति को आप अगर ध्यान से देखे तो ये परमात्मा का एकदम सही रूप है
जैसे उनको जमीं से लेकर चंदमा तक बैठा हुआ दिखया हुआ है उनके सर पर चंदमा दिखया गया है इसका मतलब है की वो ज़मी से लेकर हर जगह याप्त है
जातो में गंगा उनके ज्ञान के बहाव को दिखाती है और भी बाते पर अगली बार
यथार्थ में इसका कोई महत्वा नही है
बाकी शिव पुराण या कोई भी पुराण एक कथा है उसमे सत्यता जैसे कोई भी चीज नही है
vedon ki jaankari achchi lagi.
राम नाम सत्य है
श्री रामचन्द्र जी की शान इससे बुलंद हैकि कलयुगी जीव उन्हें न्याय दे सकें, और श्री राम चन्द्र जी के राम की महिमा इससे भी ज्यादा बुलंद कि उसे शब्दों में पूरे तौर पर बयान किया जा सके संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि राम नाम सत्य है और सत्य में ही मुक्ति है।अब राम भक्तों को राम के सत्य स्वरुप को भी जानने का प्रयास करना चाहिए, इससे भारत बनेगा विश्व नायक, हमें अपनी कमज़ोरियों को अपनी शक्ति में बदलने का हुनर अब सीख लेना चाहिए।
एक कम्पनी ने अकाउंटेंट पोस्ट की वैकेंसी निकाली, इंटरवियु में बॉस ने एक कैंडीडेट से पूछा बताओ दो और दो कितने होते है ? वो कैंडीडेट कुर्सी से उठा दरवाजे पे जाकर देखा, दांये बांये खिड़कियों में नजर दौडाई फिर बॉस के पास आकार फुसफुसाया दो और दो कितने होते ये छोडिये आपको कितने करने है ये बताईये ?
उसे तुरंत नौकरी पर रख लिया गया
वैदिक ऋषियों ने तो अनुक्रमणिका में ‘शिव‘ नाम लिखा नहीं
@ युवा चिंतक भाई आलोक जी ! यजुर्वेद के 16 वें अध्याय को पढ़ा। इसके शुरू में ही जो अनुक्रमणिका दी गई है। उसमें इसके देवता के नाम आये हैं, देवता-रूद्राः, एकरूद्राः, बहुरूद्राः।
1. इससे एक बात तो यह पता चलती है कि यह अध्याय सारा का सारा शिव जी की महिमा से ही भरा हुआ नहीं है जैसा कि आपने कहा है बल्कि अन्य बहुत से रूद्रों की प्रशंसा से भी भरा हुआ है।
2. दूसरी बात यह है कि अगर शिव नाम की महिमा वैसी ही होती जैसी कि आपने समझ ली है तो इसे वैदिक ऋषि ज़रूर जानते और तब वे कम महत्व के नाम ‘रूद्र‘ के बजाय ‘शिव‘ नाम को अनुक्रमणिका में दर्ज करते।
3. इस अध्याय में शिव शब्द 3-4 बार रूद्र के गुण के तौर पर आया है लेकिन ‘रूद्र‘ शब्द नाम के तौर पर आया है और देवता को रूद्र कहकर ऋषियों ने दर्जनों बार संबोधित किया है। इससे शिव शब्द गौण और रूद्र नाम प्रधान नज़र आता है।
4.आप शिव पुराण आदि में सत्य नहीं मानते। यदि आपकी बात को मान लिया जाए तो फिर हम यजुर्वेद 16, 7 ‘नमोस्तु नीलग्रीवाय‘ अर्थात ‘इन रूद्र की ग्रीवा विष धारण से नीली पड़ गई थी।‘ को कभी नहीं जान पाएंगे कि इसका वास्तविक अर्थ क्या है ? किन परिस्थितियों में रूद्र को विषपान करना पड़ा था ?
5. मैं तो मालिक के सभी नाम अच्छे मानता हूं चाहे वे किसी भी भाषा में क्यों न हों लेकिन इस अध्याय में रूद्र अजन्मे परमेश्वर का नाम मालूम नहीं होता क्योंकि इसमें एक नहीं बल्कि बहुत से रूद्रों की चर्चा हो रही है और परमेश्वर कई होते नहीं।
दिल से आती है आवाज़ सचमुच
6. आपने शरीर के सूक्ष्म चक्रों पर ‘शिव‘ नाम का सबसे अधिक प्रभाव होना बताया है। शरीर के सूक्ष्म चक्र आपके लिए केवल एक सुनी हुई बात है जबकि मेरे लिए एक नित्य व्यवहार। चिश्तिया और नक्शबंदिया जैसे सूफ़ी सिलसिलों में ये सभी चक्र केवल ‘अल्लाह‘ के ज़िक्र से जागृत कर लिये जाते हैं। यह एक अभ्यास है। इसे किसी भी नाम के साथ किया जा सकता है। इस अभ्यास के बाद पहले दिल और बाद में पूरे बदन का हरेक कण ‘अल्लाह-अल्लाह‘ कहता रहता है जिसे भौतिक कान से सुना जा सकता है। जिसे शक हो वह मेरे पास चला आए। यदि कोई साधक ‘राम-राम‘ या ‘हरि-हरि‘ का अभ्यास करता है तो उसे अपने दिल से यही नाम सुनाई देगा और यह उसका वहम न होगा। यह एक अभ्यास है जो तभी फलदायी होता है जबकि साधक का जीवन ईश्वरीय विधान के अनुसार गुज़र रहा हो वर्ना वह एक मानसिक एक्सरसाईज़ मात्र बनकर रह जाता है। ईश्वरीय व्यवस्था के उल्लंघन के बाद आदमी केवल ईश्वर के दण्ड का पात्र होता है न कि परम पद का।
मालिक का प्यारा बंदा कौन ?
7. जैसे इनसान को शारीरिक अनुभूतियां नित्य होती हैं लेकिन केवल उन अनुभूतियों के कारण ही लोगों को मालिक का प्यारा नहीं मान लिया जाता बल्कि उसका आचरण देखा जाता है कि वह रब की मर्ज़ी पर चल रहा है या मनमर्ज़ी पर ? ऐसे ही ध्यान-स्मरण आदि के ज़रिए आदमी को आत्मिक अनुभूतियां होती हैं लेकिन केवल उन अनुभूतियों के आधार पर ही आदमी को मालिक का प्यारा नहीं माना जा सकता बल्कि उसके जीवन-व्यवहार को देखा जाएगा कि वह ईश्वरीय व्यवस्था का उसके ऋषि-पैग़म्बर के आदर्श के अनुसार पालन कर रहा है या खुद ही जो चाहता है करता रहता है ?
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