सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Showing posts with label शूद्र. Show all posts
Showing posts with label शूद्र. Show all posts

Sunday, November 7, 2010

What said about Dayanand ji स्वामी दयानन्द ने सत्य और केवल सत्य पर खड़े होने का दावा किया है लेकिन उन्होंने न जानते हुए जैन धर्म, इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म और स्वयं हिन्दू धर्म को ग़लत रूप से प्रस्तुत किया है - Mohandas Karmchand Gandhi

ओबामा भारत आए। उन्होंने गांधी जी को याद किया। यह अच्छी बात है। इस बहाने उनकी बातों को याद तो किया जा रहा है।
क्यों न इस अलबेली बेला में हम भी उनके उन विचारों को सामने लाएं जो कि अक्सर लोगों की नज़रों से ओझल हैं ?
जब से मैंने मानव जाति की एकता के लिए
‘एक ईश्वर एक धर्म‘ का कॉन्सेप्ट लोगों के सामने रखा है तब से ही मेरा विरोध किया गया। यह विरोध उन लोगों द्वारा किया गया जो सत्य के बारे में भ्रमित हैं। इन लोगों में आर्य समाज के मानने वालों का नाम भी शामिल है।
आज हम यह जानेंगे कि गांधी जी उनके बारे में क्या विचार रखते थे ?
गांधी जी अपने अख़बार ‘यंग इंडिया‘ में लिखते हैं-
‘‘मेरे दिल में दयानन्द सरस्वती के लिए भारी सम्मान है। मैं सोचा करता हूं कि उन्होंने हिन्दू धर्म की भारी सेवा की है। उनकी बहादुरी में सन्देह नहीं लेकिन उन्होंने अपने धर्म को तंग बना दिया है। मैंने आर्य समाजियों की सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ा है, जब मैं यर्वदा जेल में आराम कर रहा था। मेरे दोस्तों ने इसकी तीन कापियां मेरे पास भेजी थीं। मैंने इतने बड़े रिफ़ार्मर की लिखी इससे अधिक निराशाजनक किताब कोई नहीं पढ़ी। स्वामी दयानन्द ने सत्य और केवल सत्य पर खड़े होने का दावा किया है लेकिन उन्होंने न जानते हुए जैन धर्म, इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म और स्वयं हिन्दू धर्म को ग़लत रूप से प्रस्तुत किया है। जिस व्यक्ति को इन धर्मों का थोड़ा सा भी ज्ञान है वह आसानी से इन ग़लतियों को मालूम कर सकता है, जिनमें इस उच्च रिफ़ार्मर को डाला गया है। उन्होंने इस धरती पर अत्यन्त उत्तम और स्वतंत्र धर्मों में से एक को तंग बनाने की चेष्टा की है। यद्यपि मूर्तिपूजा के विरूद्ध थे लेकिन वे बड़ी बारीकी के साथ मूर्ति पूजा का बोलबाला करने में सफल हुए क्योंकि उन्होंने वेदों के शब्दों की मूर्ति बना दी है और वेदों में हरेक ज्ञान को विज्ञान से साबित करने की चेष्टा की है। मेरी राय में आर्य समाज सत्यार्थ प्रकाश की शिक्षाओं की विशेषता के कारण प्रगति नहीं कर रहा है बल्कि अपने संस्थापक के उच्च आचरण के कारण कर रहा है। आप जहां कहीं भी आर्य समाजियों को पाएंगे वहां ही जीवन की सरगर्मी मौजूद होगी। तंग और लड़ाई की आदत के कारण वे या तो धर्मों के लोगों से लड़ते रहते हैं और यदि ऐसा न कर सकें तो एक दूसरे से लड़ते झगड़ते रहते हैं।
                 (अख़बार प्रताप 4 जून 1924, अख़बार यंग इंडिया, अहमदाबाद 29 मई 1920)
मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूं कि आज तक इन्होंने मेरी पोस्ट के विषय पर तर्क वितर्क नहीं किया।
मिंसाल के तौर पर मैंने पूछा कि ‘दर्शनों की रचना से पहले धर्म का स्रोत क्या था ?‘
किसी ने इस सवाल का जवाब देने का कष्ट गवारा न किया लेकिन पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. की शाने आली में गुस्ताख़ियां करने चले आए, जैसा कि  दयानन्द जी ने उन्हें सिखाया है।
दयानन्द जी ने उन्हें तो गुरूकुल में पढ़ने के लिए और ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए भी कहा है। उन्हें चोटी और जनेऊ धारण करके दो समय यज्ञ करने के लिए भी कहा है और जो ऐसा न करे शूद्रवत उसका बहिष्कार करने के लिए भी कहा है। (सत्यार्थ प्रकाश, चतुर्थसमुल्लास)
दयानन्द जी ने इन्हें धर्म की संज्ञा दी है। जिसे दयानन्द जी ने धर्म निश्चित किया है, उस पर तो कोई आर्य समाजी बंधु अमल करने के लिए आज तैयार नहीं है लेकिन इस्लाम और पैग़म्बर साहब स. की मज़ाक़ उड़ाना ये आज भी ज़रूरी समझते हैं।
जो खुद अपने धर्म की नज़र में ‘शूद्र‘ अर्थात ‘मूर्ख और अनाड़ी‘ हों उन्हें क्या अधिकार है ‘सत्य सनातन धर्म‘ का मज़ाक़ उड़ाने का, लोगों को भ्रमित करने का ?
अगर ये लोग वास्तव में ही ज्ञानी हैं तो इन्हें मेरी पोस्ट पर उठाए गए सवालों जवाब देना चाहिए था। उनकी सुविधा के लिए मैं सिर्फ़ चन्द सवाल यहां पेश कर रहा हूं। उनके उत्तर से या उनके कन्नी काटकर भाग जाने से आप समझ सकते हैं कि इन्हें पास देने के लिए सिवाय नफ़रत और फ़साद के कुछ भी नहीं है।
कुछ सवाल आर्य समाजियों से
1. सृष्टि की रचना दयानंद जी के अनुसार कितने समय पहले हुई ?
2. वेदों को ईश्वर ने कब प्रकट किया ?
3. वेदों के कितने अरब साल बाद, दयानन्द जी के अनुसार, दर्शनों की रचना हुई ?
4. दर्शनों की रचना से पहले धर्म का आधार क्या था ?
5. दयानन्द जी के अनुसार यदि किसी धर्मग्रंथ में सत्य के साथ असत्य भी मिश्रित हो तो क्या करना चाहिए ?
क- उस ग्रंथ के असत्य भाग को निकाल कर सत्य ग्रहण कर लेना चाहिए ?
ख- उस ग्रंथ को ऐसे फेंक देना चाहिए जैसे कि विषयुक्त अन्न को पूरा का पूरा ही फेंक दिया जाता है ?
उनकी अच्छी बातें मैं स्वीकारने के लिए तैयार हूं लेकिन कोई ज्ञान की बात तर्क सहित बताए तो सही!!!

Wednesday, September 1, 2010

A comparative study about fasting by S. Abdullah Tariq सभी ईशग्रंथों में रोज़े (उपवास) की महिमा

पवित्र कुरआन अपने अनुयायियों को रोज़े का आदेश देते हुए कहता है- ‘‘हे आस्तिको ! तुम्हारे लिए रोज़े निर्धारित किए गए जैसे कि तुम से पूर्व लोगों के लिए निर्धारित किए गए थे ताकि तुम परहेज़गार बन सको।‘‘ (क़ुरआन 2 : 183)

सनातन धर्म में रोज़े को व्रत या उपवास कहते हैं। व्रत का आदेश करते हुए वेद कहते हैं ‘‘व्रत के संकल्प से वह पवित्रता को प्राप्त होता है। पवित्रता से दीक्षा को प्राप्त होता है, दीक्षा से श्रद्धा को और श्रद्धा से सद्ज्ञान को प्राप्त होता है।‘‘ (यजुर्वेद 19 : 30)

नीयत  :
 रोज़े के लिए नीयत या संकल्प आवश्यक है। बिना इसके वह रोज़ा या उपवास न होकर मात्र फ़ाक़ा रह जाता है।
अभुक्त्वा प्रातरहारं स्नात्वाऽचम्य समाहितः निवेद्य व्रतमाचरेत।

                                                                                       (देवल)
अर्थात उषः काल (सूर्योदय से दो मुहूर्त पूर्व) उठकर स्नानादि करके प्रातः काल में निश्चय करके व्रत का आरंभ करे।
फ़ज्र (सूर्योदय से लगभग डेढ़ घंटा पहले) का समय प्रारंभ होने के साथ या उससे पूर्व रोज़े की नीयत न करने रोज़ा नहीं होता।
‘‘हज़रत इब्ने उमर (र.) का कथन है कि ईशदूत (स.) ने फ़रमाया- जिस व्यक्ति ने फ़ज्र प्रारंभ होने से पहले दृढ़ संकल्प नहीं लिया उसका रोज़ा नहीं होगा।‘‘ (तिरमिज़ी, अबू दाऊद)
उपवास के अधिकारी :
 स्कंद पुराण के अनुसार, ऐसे सभी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र जो वर्णाश्रम का आचरण करने वाले हों, निष्कपट, निर्लोभी, सत्यवादी और सभी के हितकारी हों, वेद का अनुसरण करने वाले, बुद्धिमान तथा पहले से निश्चय करके यथावत कर्म करने वाले हों, व्रत के अधिकारी हैं।

निजवर्णाश्रमाचारनिरतः शुद्धमानसः।

अलुब्धः सत्यवादी च सर्वभूतहिते रतः।।

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव द्विजोत्तम।

अवेदनिन्दको धीमानधिकारी व्रतादिषु।।

(स्कन्द)

इस्लामी संविधान के अनुसार रमज़ान मास के रोज़े प्रत्येक स्वस्थ-चित्त, व्यस्क, स्वस्थ शरीर, मुक़ीम (जो यात्री न हो), पुरूष व स्त्री के लिए अनिवार्य है, कुरआन का आदेश है ‘‘तुम में से जो भी इस महीने को पाए इसके रोज़े रखे।‘‘ (2 :184)

विभिन्न हदीसों के अनुसार बालक, पागल, रजस्वला स्त्री, वृद्ध, गर्भवती या दूध पिलाने वाली स्त्रियां जबकि रोज़े से स्वयं उन्हें या बच्चे को हानि का ख़तरा हो, मुसाफ़िर तथा रोगी के लिए रोज़ा रखना ज़रूरी नहीं। इनमें से कुछ तो बिल्कुल मुक्त हैं और कुछ ऐसे हैं जिन्हें बाद में रमज़ान के छूटे हुए रोज़े पूरे करने का आदेश है।

उपवास या रोज़ों की संख्या :
 सनातन धर्म की प्रचलित मान्यताओं के अनुसार विभिन्न पर्वों व अवसरों पर किए जाने वाले उपवास के दिनों की संख्या भिन्न है।

शिशु चन्द्रायण व्रत निरन्तर एक मास तक ऐसे रखा जाता है कि शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष से आरंभ करके एक मास तक केवल प्रातः काल और सूर्यास्त पर थोड़ा खाने की अनुमति होती है। यह व्रत रमज़ान के रोज़ों से समानता में निकटतम हैं।

‘‘सावधान चित्त, चार ग्रास प्रातः काल तथा चार ग्रास सूर्यास्त होने पर एक मास तक प्रतिदिन भोजन करे तो यह शिशु चन्द्रायण व्रत कहा गया है। इस व्रत को महर्षियों ने सब पापों के नाश के लिए किया था।‘‘ (मनु. 11 : 219,221)

इस्लामी विधान में रमज़ान मास का चांद दिखलाई पड़ने के बाद पूरे महीने के रोज़े अनिवार्य हैं जब तक कि आगामी महीने का चांद न निकले। यह संख्या कभी 29 दिन की होती है और कभी 30 दिन की। रमज़ान के अनिवार्य रोज़ों के अतिरिक्त ‘नफ़िली रोज़े‘ वर्ष की विभिन्न तारीख़ों में होते हैं। नफ़िली रोज़ों का रखना किसी के लिए ज़रूरी नहीं है।

लम्बी अवधि के लगातार रोज़ों का उल्लेख यहूदियों के धर्मग्रंथों (बाइबिल के पुराने नियम की पुस्तकों) में मिलंता है।

‘‘समस्त देशवासियों और पुरोहितों से यह कह  : जो उपवास और शोक पिछले सत्तर वर्षों से वर्ष के पांचवें और सातवें महीने में तुम करते आ रहे हो, क्या तुम यह मेरे लिए करते हो ?‘‘ (ज़कर्याह 7 :5)

बाइबिल के नये नियम के अनुसार ईसाईयों के लिए 40 दिनों के लगातार रोज़े अनिवार्य किए गए थे।

‘‘जब यीशु चालीस दिन और चालीस रात उपवास कर चुके तब उन्हें भूख लगी।‘‘ (मत्ती 4ः2)

परन्तु उन्होंने अपने तीन वर्षीय प्रचार काल में चूंकि अपने सहसंगियों के साथ निरन्तर मुसाफ़िर के तुल्य कठोर जीवन व्यतीत किया, इसलिए उस अवधि में उन्होंने अपने सहसंगियों को रोज़े से मुक्त कर दिया था परन्तु यह भी स्पष्ट कर दिया था कि यह छूट केवल उतने दिनों की है, जब तक वे उनके मध्य हैं।

यहूदियों में जो अधिक धार्मिक प्रवृत्ति के होते थे वे प्रति सप्ताह दो दिन ‘नफ़िली रोज़े‘ रखते थे, जो हरेक के लिए अनिवार्य नहीं थे।

‘‘फ़रीसी खड़े होकर मन ही मन यों प्रार्थना करने लगा, ‘‘हे परमेश्वर, मैं तुझ को धन्यवाद देता हूं कि मैं अन्य लोगों के समान नहीं हूं। मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूं... ।‘‘ (लूका 18 :11-12)
‘‘हज़रत आयशा (रज़ि.) का कथन है कि ईशदूत (स.) प्रत्येक सोमवार तथा बृहस्पतिवार के रोज़े प्रतीक्षा करके रखते थे।‘‘ (तिरमिज़ी, नसाई, अबूदाऊद)

बाइबिल के अनुसार नफ़िली रोज़ों के अनेकों उद्देश्य हो सकते हैं। इनमें मुख्य हैं। आपत्ति के दिनों में परमेश्वर से सहायता मांगने के लिए पापों से क्षमा के लिए, परमेश्वर के समक्ष अपने दोष स्वीकार करने के लिए, परमेश्वर से सद्मार्ग प्रार्थना के लिए और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इत्यादि।
यह ख़बर सुनकर यहोशाकट डर गया और उसने प्रभु की इच्छा जानने का प्रयत्न किया। उसने समस्त यहूदा प्रदेश में सामूहिक उपवास की घोषणा कर दी।‘‘ (2 इतिहास 20 :3)
‘‘उपवास का दिन घोषित करो, धर्म महासभा की बैठक बुलाओ। प्रभु परमेश्वर के भवन में धर्मवृद्धों और देशवासियों को एकत्र करो। सब प्रभु की दुहाई दें।‘‘ (योएल 1 :14)
इसी महीने के 24वें दिन इस्राइली समाज ने सामूहिक उपवास किया। उन्होंने इस देश की अन्य जातियों से स्वयं को अलग किया और खड़े होकर अपने पूर्वजों के अधर्म और पापों को स्वीकार किया।‘‘ (नहेम्याह 9 : 1,2)

‘‘तब मैंने अहवा नदी के तट पर सामूहिक उपवास की घोषणा की ताकि हम परमेश्वर के सम्मुख विनम्र बनें और उससे स्वयं की, अपने बच्चों की तथा संपत्ति की रक्षा के लिए निर्विघ्न यात्रा की मांग करें।‘‘ (एज्रा 8 : 21)

‘‘दाऊद ने कहा, जब तक बालक जीवित रहा मैंने उपवास किया। मैं रोया, मैं सोचता था, कौन जाने प्रभु मुझ पर कृपा करे और बालक बच जाए।‘‘ (2 शामूएल 12 : 22)

उपवास भंग करने वाले कार्यः
असकृज्जलपानाच्च दिवास्वापाच्च मैथुनात्
उपवासः प्रणश्येत सकृत्ताम्बूलभक्षणात (विष्णु)
अर्थात् खाने पीने, दिन में सोने, स्त्री सहयोग तथा पान चबाने से उपवास भंग हो जाता है।
हदीस ग्रंथों के अनुसार जानबूझ कर खाने-पीने, जानबूझ कर मतली करने तथा जानबूझ कर वीर्यपात करने से रोज़ा टूट जाता है।
सनातनी ग्रंथों के अनुरूप दातौन करना उपवास में मना है और व्रत आरंभ करने के बाद स्त्री के रजस्वला होने व्रत में रूकावट नहीं होती। इस्लामी विधान मिस्वाक (दातौन) की अनुमति देता है और रोज़े के मध्य में स्त्री के रजस्वला होने पर रोज़ा टूट जाने की घोषित करता है।

  •  उपवासे न खादेद्दन्तधावनम् (स्मृत्यन्तर)

  •  प्रारब्धदीर्घतपसां नारीणां यद्रजो भवेत ।

न तत्रापि व्रतस्य स्यादुपरोधः कदाचन।।

                                    (सत्यव्रत)

‘‘हज़रत आमिर बिन रबीआ (रज़ि.) का कथन है कि मैं गिन नहीं सकता कितनी बार मैंने ईशदूत (स.) को रोज़े की अवस्था में मिस्वाक करते हुए देखा है।‘‘ (तिरमिज़ी)
‘‘इस पर सर्वसम्मति है कि यदि रोज़े में दिन के समय स्त्री रजस्वला हो जाए तो उसका रोज़ा टूट जाता है।
(अलफ़िक़ः अलल मज़ाहिबुल अरबआ)

इफ़्तार (रोज़ा खोलने) के समय विद्यापन (पूजा आदि):

कुर्यादुद्यापन चवै समाप्तौ यददीरितम्।
उद्यापन बिना युक्त तदव्रतं निष्फलं भवेत।।
अर्थात व्रत के समाप्त होने पर ही उद्यापन करे। यदि उद्यापन न किया तो व्रत निष्फल हो जाएगा।

रोज़ा इफ़्तार करते समय के लिए ईशदूत (स.) ने निम्न प्रार्थना सिखलाई-
‘‘हे अल्लाह, मैं तेरे लिए ही रोज़ा रखता हूं और तुझपर आस्था रखता हूं और (आवश्यकताओं के लिए) तुझ पर ही भरोसा करता हूं और तेरी प्रदान की हुई जीविका से इफ़्तार करता हूं।‘‘

पत्नी का व्रत पति की अनुमति से  :


पत्नी पत्युरनुज्ञाता व्रतादिष्वधिकारिणी (व्यास)

अर्थात पत्नी पति की आज्ञा से व्रत की अधिकारिणी होती है।

इस्लामी विधान में रमज़ान के अनिवार्य रोज़े प्रत्येक स्त्री के लिए ज़रूरी हैं परन्तु नफ़िली रोज़ों के लिए उसे पति की सहमति प्राप्त करना चाहिए।

‘‘अबू हुरैरा (रज़ि.) के अनुसार ईशदूत (स.) ने फ़रमाया- पत्नी अपने पति की उपस्थिति में उसकी इजाज़त के बिना एक दिन भी रोज़ा न रखे सिवाय रमज़ान के‘‘ (बुख़ारी, मुस्लिम)

अन्य ध्यान देने योग्य बातें :
क्रोधात्प्रमादल्लोभाद्वा व्रत भंगो भवेद्यदि। (गरूड़)
अर्थात क्रोध, लोभ, मोह या आलस्य से व्रत भंग हो जाता है।

क्षमा सत्यं दया दानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
देवपूजनाग्निहवनं सन्तोषः स्तेयवर्जनम्।
सर्वव्रतेष्वयं धर्मः सामान्यो दशधां स्थ्तिः।।

                                                      (भविष्य)
अर्थात व्रत के दिनों में क्षमा, सत्य, दया, दान, शौच, इन्द्रियनिग्रह, तपस्या, हवन और सन्तोष का पालन करे और चोरी से भी इन्हें न त्यागे।

बाइबिल में ईश्वर कहता है-
‘‘देखो जब तुम उपवास करते हो तब तुम्हारा उद्देश्य अपनी इच्छाओं को पूर्ण करना होता है, तुम अपने मज़दूरों पर अत्याचार करते हो। देखो तुम केवल लड़ाई-झगड़ा करने के लिए उपवास करते हो। तुम्हारे आजकल के उपवास से तुम्हारी प्रार्थना स्वर्ग में नहीं सुनाई देगी। क्या मैं ऐसे उपवास से प्रसन्न होता हूं ? ... क्या सिर को झाऊ वृक्ष की तरह झुकाना, अपने नीचे राख और टाट-वस्त्र बिछाना, उपवास कहलाता है ?... जिस उपवास से मैं प्रसन्न होता हूं वह यह है; दुर्जनता के बन्धनों से मनुष्य को मुक्त करना, व्यक्ति की गर्दन से जुआ उतारना, अत्याचार की गुलामी में इन्सान को स्वतन्त्र करना, अपना भोजन दूसरों को खिलाना, बेघर ग़रीब को अपने घर में जगह देना, किसी को नंगे देखकर उसे कपड़े पहिनाना, अपने ज़रूरतमंद भाई से मुंह न छिपाना। (यशायाह 58 : 3-7)

मुहम्मद ईशदूत (स.) ने फ़रमाया :
‘‘रोज़ा ढाल है। सो जब तुम में से किसी व्यक्ति का रोज़ा हो तो उसे चाहिए कि न अपशब्द मुंह से निकाले, न शोर करे और न अज्ञानता की बातें करे।‘‘ (मुस्लिम)
‘‘जिस व्यक्ति ने रोज़ा रखकर भी झूठ और झूठ के अनुसरण को न त्यागा तो अल्लाह को कोई ज़रूरत नहीं कि वह अपना खाना पीना छोड़े।‘‘ (बुख़ारी)

उपवास का अर्थ :
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ‘देवता (फ़रिश्ते) जानते हैं कि जब कोई उपवास का संकल्प लेता है तो आगामी सुबह को उसकी नीयत यज्ञ की होती है, इसलिए देवता उसके घर आ जाते हैं और उसके साथ उसके घर में उपवास करते हैं, अतः उस दिन को उपवासथ कहते हैं। (1:1:1:7)