सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Tuesday, October 4, 2011

कामनाएं और प्रार्थनाएं कब फलीभूत होती हैं ? Vedic Hymns

यह सही है कि दुख और अभाव का रोना हर दौर में रोया गया है और उसे पुराने साहित्य में भी देखा जा सकता है।
लेकिन हमें सोचना चाहिए कि आखिर ऐसा होता क्यों आया है ?
धरती से अन्न तो सही उपज रहा है और सरकारी गोदामों में भी वह सुरक्षित है बल्कि कहीं कहीं तो वह पड़ा रहा है या उसे जबरन सड़ाया जा रहा है और यह भी सही है कि लोग भूख और कुपोषण से मर रहे हैं।
यही बात आतंक और आतंकवाद की है और इसकी चपेट में आकर मरने वालों की है।
समाज में दीगर बुरी आदतें नशा, जुआ और व्याभिचार भी हैं और इसी तरह के बहुत से दूसरे जुर्म भी हैं और उनसे फैलने वाली तबाहियां भी हम देख रहे हैं।
यह सब जुर्म और पाप आज हो रहे हैं लेकिन आदमी चाहता है कि ये सब न हों, यह कामना आदमी आज ही नहीं कर रहा है बल्कि वेद-उपनिषद में भी यही कामना देखी जा सकती है।
ऋषियों और ज्ञानियों ने ऐसी बहुत सी प्रार्थनाएं सिखाई हैं जिनमें भक्त कल्याण की प्रार्थना करता है और वह चाहता है कि उस पर और उसके समुदाय पर या मानव जाति पर आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक, इन तीनों प्रकार की विपत्तियों में से कोई सी भी विपत्ति न आए।
क्या यह कामना-प्रार्थना गलत है ?
क्या इसका पूरा होना असंभव है ?
क्या हमारे ऋषि ऐसी बात को लक्ष्य बनाकर जीते रहे, जिसे कभी पूरा होना ही नहीं था ?
और उसी की शिक्षा हमें देकर चले गए ?
जाहिर है कि हमारी तरह आप भी यही जवाब देंगे कि जो कुछ ऋषियों ने आचरण किया और जिस तरह का आचरण करने का उपदेश दिया वह कल्याणकारी और फलप्रद है और संभव भी लेकिन उसे साकार करने के लिए उसी के अनुरूप पुरूषार्थ भी चाहिए, तभी वे कामनाएं और प्रार्थनाएं फलीभूत होती हैं।
हमने ऋषियों का लक्ष्य तो मन में रखा लेकिन उनका पथ भुला दिया,
सो रोग, शोक और पतन हमारा मुक़द्दर बन गया और ऐसा मुक़द्दर बन गया कि इससे मुक्ति की आशा भी क्षीण से क्षीणतर होती जा रही है।
निराशा आदमी को हत्या और आत्महत्या के लिए प्रेरित करती है।
दुख और भय की इसी छाया में हम अपने श्वास पूर्ण कर रहे हैं।
यह वह परम पद नहीं है जिसके लिए विधाता ने हमें रचा है, हमें अपने पद, पथ और लक्ष्य का बोध हो जाए तो हम आज भी इस दशा से निकल सकते हैं।
मेरी टिप्पणी का और मेरे समस्त लेखों का आशय मात्र यही है।

2 comments:

Sadhana Vaid said...

दुःख और हैरानी इसी बात की होती है कि जो भी कुछ गलत और अवांछनीय होता है उसका समाज में डंका पीटने वाले और आलोचना करने वाले भी कम नहीं होते फिर भी कोई सुधार नहीं आ पाता ! टनों गेहूं सरकारी गोदामों में सड़ रहा है रोज इस पर इलेक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया पर जम कर आलोचना होती है लेकिन हल कोई नहीं निकलता ! समाज हित में सही निर्णय लिये जायें और प्रभावी रूप से अमल में लाये जा सकें इस दिशा में सार्थक पहल किये जाने की बहुत आवश्यकता है !

Zafar said...

Respected Sadhana Ji, Your suggestion is good, but no laws, inspiring writeups or speeches can initiate it, it can be achieved only by making the masses aware of the "True & Unadultrated Dharam", which will cultivate a sense of accountability before God for each and every of our actions. Nothing else can bear the good fruits.

Regards
Iqbal Zafar