सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Tuesday, June 29, 2010
Dua for Anam , My daughter सभी ने बच्ची की सेहत और बेहतर मुस्तक़बिल के लिए दुआ की .
बच्ची का नाम "अनम" रखा गया है . डाक्टर अयाज़ साहब , हकीम सऊद अनवर खान साहब, हकीम युनुस खान साहब के अलावा डाक्टर असलम क़ासमी साहब भी मेरी बीमार बच्ची को देखने के लिए तशरीफ़फ़रमाँ हैं . सभी ने बच्ची की सेहत और बेहतर मुस्तक़बिल के लिए दुआ भी की . फोटो में नज़र आने वाले बच्चे भी इस छोटी सी बच्ची के ही भाई बहन हैं . बच्ची का ज़ख्म लगातार हील हो रहा है . अल्हम्दुलिल्लाह .
बच्ची की भूख , प्यास और नींद सेहतमंद बच्चों की तरह है . टांगें बदस्तूर बेहिस ओ हरकत हैं . दीगर लोगों के अलावा ब्लोगर्स भाइयों में से जनाब सतीश सक्सेना जी, भाई तारकेश्वर गिरी जी और भाई शाहनवाज़ सिद्दीक़ी साहब ने भी फोन पर मुझे तस्सली दी और मेरी बच्ची की खैर ओ आफ़ियत पूछी . मैं इन सभी लोगों का और ब्लॉग पर आने वाले भाई बहनों का शुक्रगुज़ार हूँ . मालिक इन्हें इनकी नेकदिलीऔर हमदर्दी का सिला अपने ख़ज़ाने से अता करे .
बच्ची की भूख , प्यास और नींद सेहतमंद बच्चों की तरह है . टांगें बदस्तूर बेहिस ओ हरकत हैं . दीगर लोगों के अलावा ब्लोगर्स भाइयों में से जनाब सतीश सक्सेना जी, भाई तारकेश्वर गिरी जी और भाई शाहनवाज़ सिद्दीक़ी साहब ने भी फोन पर मुझे तस्सली दी और मेरी बच्ची की खैर ओ आफ़ियत पूछी . मैं इन सभी लोगों का और ब्लॉग पर आने वाले भाई बहनों का शुक्रगुज़ार हूँ . मालिक इन्हें इनकी नेकदिलीऔर हमदर्दी का सिला अपने ख़ज़ाने से अता करे .
Sunday, June 27, 2010
Manner ? क्या महिला ब्लॉगर्स और इन पुरूष बुद्धिजीवियों से मेरी शिकायत वाजिब है या ग़ैर वाजिब है ?
कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिये आजकल इतनी ज़्यादा आवाज़ें उठाई जा रही हैं कि ऐसा करना आज बुद्धिजीवी कहलाने और जागरूक सा दिखने के लिये कम्पलसरी हो गया है। महिला अधिकारों के लिये आवाज़ बुलन्द करने वाली महिला ब्लॉगर्स भी इस विषय पर अक्सर फ़िक्रमंद सी दिखने की कोशिश करती हैं।
क्या वाक़ई ये अपनी सोच के लिये ज़रा भी प्रतिबद्ध हैं ?
ऐसा सवाल मेरे मन में क्यों खड़ा हुआ ?
मेरी प्रेग्नेंट वाइफ़ को देखकर लेडी डाक्टर श्रीमति मीनाक्षी राना ने गर्भ गिराने की सलाह दी जिसे हम दोनों ने तुरन्त ठुकरा दिया। 24 जून 2010 को दोपहर के समय हमारे घर में एक नन्हीं सी बच्ची ने जन्म लिया। वह अपनी अल्ट्रा साउंड रिपोर्ट के मुताबिक़ अपाहिज है। उसके दिमाग़ में कमी है, उसकी रीढ़ की हड्डी पर एक बड़ा सा खुला हुआ ज़ख्म है। दोनों टांगें भी हरकत नहीं कर रही हैं और वज़्न भी निहायत कम है। मैंने अपाहिज भ्रूण के जन्म लेने के हक़ के बारे में आवाज़ उठाई, कई लेख इसी ब्लॉग पर प्रकाशित किये लेकिन किसी एक भी महिला ब्लॉगर ने मेरे नज़रिये का समर्थन करने की तकलीफ़ गवारा न की। अब जब एक छोटी सी बच्ची अपने जीवन के लिये मौत से एक भयंकर लड़ाई लड़ रही है तो भी उनमें से किसी एक ने भी उसके लिये दो बोल आशीर्वाद के अदा करना ज़रूरी न समझा , क्यों ?
इस नन्हीं सी बच्ची के जन्म लेने और उसके बीमार होने के बारे में मैंने अपने ब्लॉग के अलावा ‘प्रेम संदेश‘, ‘हमारी अंजुमन‘ और ‘मेरे गीत‘ पर भी इत्तिला देकर दुआ के लिये कहा है। ये सभी ब्लॉग्स ज़्यादा पढ़े जाने वाले ब्लॉग्स में गिने जाते हैं और इन्हें औरत मर्द सभी पढ़ते हैं। इसके अलावा मैंने दीगर लागों के साथ बहन फ़िरदौस और लावण्यम जी को ईमेल भी की थी।
क्या महिलाओं को अपने ही वर्ग की एक मासूम कली के प्रति कोई हमदर्दी और फ़िक्रमंदी नहीं है ?
क्या अपने वर्ग की सदस्या की हिफ़ाज़त के लिये दौड़भाग करने वाले एक पुरूष की भी उनकी नज़र में कोई अहमियत नहीं है ?
क्या इनकी सारी चिंतांएं केवल अपनी पोस्ट बनाने और दिखाने तक ही सीमित हैं ?
यही शिकायत मुझे उन ब्लॉगर्स से भी है जो ‘प्यार लुटाने वाले‘ भाई सतीश सक्सेना जी के ब्लॉग पर अपनी हाज़िरी लगाते रहते हैं।
उनकी पोस्ट पर किसी भी समय मर जाने वाली मेरी बेटी का ज़िक्र कई बार आया, सक्सेना जी ने भी उन पर उचित चिंता प्रकट की लेकिन क्या मजाल कि कला, मनोविज्ञान और शिष्टाचार के इन माहिरों में से कोई ज़रा भी विचलित हुआ हो ?
तंगदिल-संगदिल तो ये सब हो नहीं सकते तो फिर इन्हें एक मासूम बीमार बच्ची के हक़ में हमदर्दी के दो बोल बोलने से किस चीज़ ने रोका ?
जबकि ये जिन सतीश जी का लेख पढ़कर उन्हें ‘अनुकरणीय‘ बता रहे हैं वे मेरी बच्ची के बारे में इतने फ़िक्रमंद हो गये कि बोले कि अगर रात में भी बुलाओगे तो मैं आउंगा। ये उनके अनुकरण में इतना भी करने के लिये तैयार न हुये जितना कि ‘इनसान‘ कहलाने के लिये बुनियादी तौर पर ज़रूरी है ।
क्या इन पुरूष बुद्धिजीवियों से मेरी शिकायत वाजिब है या ग़ैर वाजिब है ?
मेरी मतभिन्नता का मतलब हमेशा विरोध नहीं होता और मेरे विरोध का मतलब दुश्मनी तो कभी नहीं होता। मान और अमित शर्मा जी के बर्ताव ने भी यही बताया कि वे मेरे दुश्मन नहीं हैं हालांकि मुझसे असहमत हैं। उन्होंने परिवार के सदस्यों की तरह मुझे दिलासा दिया। डाक्टर नरेश सैनी के बाद मुसलसल डाक्टर अयाज़ साहब ने मेरी बच्ची की ड्रेसिंग की , उन्होंने एक डाक्टर और एक दोस्त का हक़ अदा किया और भाई हकीम सउद साहब तो दोस्त से कहीं बढ़कर हैं। मेरे ब्लॉग को नियमित पढ़ने वाले सभी भाइयों ने मेरे ब्लॉग पर आकर या फ़ोन करके अपना फ़र्ज़ पूरा किया मैं इन सभी का शुक्रगुज़ार हूं।
आज बच्ची का नाम रखा जाएगा। बच्ची बदस्तूर ख़तरे में है और उसके साथ मैं भी आपकी दुआओं का ज़रूरतमंद और तलबगार हूं।
... और पोस्ट पब्लिश करने के दरम्यान ही नज़र पड़ी कि ऐसे नाजुक समय में भी आर्यसमाजी युवा विद्वान मुझे अपनी बच्ची की दवा पाकिस्तान और बांग्लादेश से मंगाने की सलाह दे रहे हैं।
राज साहब उच्च शिक्षा प्राप्त हैं और प्रसिद्ध आर्य विद्वान श्री राजेन्द्र ‘जिज्ञासु‘ जी के शिष्य हैं, मुरादाबाद में रहते हैं, बैंकों का आडिट करते हैं। आर्य समाज के युवा वर्ग में इनकी ख़ासी प्रतिष्ठा है। इस सबके बावजूद
इनकी संगदिली का आलम यह है। हम दुआ करते हैं कि मालिक जीवन में इन्हें कभी औलाद का दुख न दिखाए। एक मासूम बच्ची जब फोड़े की दुखन से तड़पकर रोती है, ऐसा पल इनके जीवन में कभी न आए।
क्या वाक़ई ये अपनी सोच के लिये ज़रा भी प्रतिबद्ध हैं ?
ऐसा सवाल मेरे मन में क्यों खड़ा हुआ ?
मेरी प्रेग्नेंट वाइफ़ को देखकर लेडी डाक्टर श्रीमति मीनाक्षी राना ने गर्भ गिराने की सलाह दी जिसे हम दोनों ने तुरन्त ठुकरा दिया। 24 जून 2010 को दोपहर के समय हमारे घर में एक नन्हीं सी बच्ची ने जन्म लिया। वह अपनी अल्ट्रा साउंड रिपोर्ट के मुताबिक़ अपाहिज है। उसके दिमाग़ में कमी है, उसकी रीढ़ की हड्डी पर एक बड़ा सा खुला हुआ ज़ख्म है। दोनों टांगें भी हरकत नहीं कर रही हैं और वज़्न भी निहायत कम है। मैंने अपाहिज भ्रूण के जन्म लेने के हक़ के बारे में आवाज़ उठाई, कई लेख इसी ब्लॉग पर प्रकाशित किये लेकिन किसी एक भी महिला ब्लॉगर ने मेरे नज़रिये का समर्थन करने की तकलीफ़ गवारा न की। अब जब एक छोटी सी बच्ची अपने जीवन के लिये मौत से एक भयंकर लड़ाई लड़ रही है तो भी उनमें से किसी एक ने भी उसके लिये दो बोल आशीर्वाद के अदा करना ज़रूरी न समझा , क्यों ?
इस नन्हीं सी बच्ची के जन्म लेने और उसके बीमार होने के बारे में मैंने अपने ब्लॉग के अलावा ‘प्रेम संदेश‘, ‘हमारी अंजुमन‘ और ‘मेरे गीत‘ पर भी इत्तिला देकर दुआ के लिये कहा है। ये सभी ब्लॉग्स ज़्यादा पढ़े जाने वाले ब्लॉग्स में गिने जाते हैं और इन्हें औरत मर्द सभी पढ़ते हैं। इसके अलावा मैंने दीगर लागों के साथ बहन फ़िरदौस और लावण्यम जी को ईमेल भी की थी।
क्या महिलाओं को अपने ही वर्ग की एक मासूम कली के प्रति कोई हमदर्दी और फ़िक्रमंदी नहीं है ?
क्या अपने वर्ग की सदस्या की हिफ़ाज़त के लिये दौड़भाग करने वाले एक पुरूष की भी उनकी नज़र में कोई अहमियत नहीं है ?
क्या इनकी सारी चिंतांएं केवल अपनी पोस्ट बनाने और दिखाने तक ही सीमित हैं ?
यही शिकायत मुझे उन ब्लॉगर्स से भी है जो ‘प्यार लुटाने वाले‘ भाई सतीश सक्सेना जी के ब्लॉग पर अपनी हाज़िरी लगाते रहते हैं।
उनकी पोस्ट पर किसी भी समय मर जाने वाली मेरी बेटी का ज़िक्र कई बार आया, सक्सेना जी ने भी उन पर उचित चिंता प्रकट की लेकिन क्या मजाल कि कला, मनोविज्ञान और शिष्टाचार के इन माहिरों में से कोई ज़रा भी विचलित हुआ हो ?
तंगदिल-संगदिल तो ये सब हो नहीं सकते तो फिर इन्हें एक मासूम बीमार बच्ची के हक़ में हमदर्दी के दो बोल बोलने से किस चीज़ ने रोका ?
जबकि ये जिन सतीश जी का लेख पढ़कर उन्हें ‘अनुकरणीय‘ बता रहे हैं वे मेरी बच्ची के बारे में इतने फ़िक्रमंद हो गये कि बोले कि अगर रात में भी बुलाओगे तो मैं आउंगा। ये उनके अनुकरण में इतना भी करने के लिये तैयार न हुये जितना कि ‘इनसान‘ कहलाने के लिये बुनियादी तौर पर ज़रूरी है ।
क्या इन पुरूष बुद्धिजीवियों से मेरी शिकायत वाजिब है या ग़ैर वाजिब है ?
मेरी मतभिन्नता का मतलब हमेशा विरोध नहीं होता और मेरे विरोध का मतलब दुश्मनी तो कभी नहीं होता। मान और अमित शर्मा जी के बर्ताव ने भी यही बताया कि वे मेरे दुश्मन नहीं हैं हालांकि मुझसे असहमत हैं। उन्होंने परिवार के सदस्यों की तरह मुझे दिलासा दिया। डाक्टर नरेश सैनी के बाद मुसलसल डाक्टर अयाज़ साहब ने मेरी बच्ची की ड्रेसिंग की , उन्होंने एक डाक्टर और एक दोस्त का हक़ अदा किया और भाई हकीम सउद साहब तो दोस्त से कहीं बढ़कर हैं। मेरे ब्लॉग को नियमित पढ़ने वाले सभी भाइयों ने मेरे ब्लॉग पर आकर या फ़ोन करके अपना फ़र्ज़ पूरा किया मैं इन सभी का शुक्रगुज़ार हूं।
आज बच्ची का नाम रखा जाएगा। बच्ची बदस्तूर ख़तरे में है और उसके साथ मैं भी आपकी दुआओं का ज़रूरतमंद और तलबगार हूं।
... और पोस्ट पब्लिश करने के दरम्यान ही नज़र पड़ी कि ऐसे नाजुक समय में भी आर्यसमाजी युवा विद्वान मुझे अपनी बच्ची की दवा पाकिस्तान और बांग्लादेश से मंगाने की सलाह दे रहे हैं।
राज साहब उच्च शिक्षा प्राप्त हैं और प्रसिद्ध आर्य विद्वान श्री राजेन्द्र ‘जिज्ञासु‘ जी के शिष्य हैं, मुरादाबाद में रहते हैं, बैंकों का आडिट करते हैं। आर्य समाज के युवा वर्ग में इनकी ख़ासी प्रतिष्ठा है। इस सबके बावजूद
इनकी संगदिली का आलम यह है। हम दुआ करते हैं कि मालिक जीवन में इन्हें कभी औलाद का दुख न दिखाए। एक मासूम बच्ची जब फोड़े की दुखन से तड़पकर रोती है, ऐसा पल इनके जीवन में कभी न आए।
Wednesday, June 23, 2010
What is best ? तुम दुनियावी ज़िन्दगी को प्राथमिकता देते हो और परलोक बेहतर है और शाश्वत है। यही पूर्व ग्रंथों में भी है,
परमेश्वर कहता है-
और ‘हमने‘ आदम की औलाद को इज़्ज़त दी और ‘हमने‘ उन्हें जल-थल में सवार किया और उन्हें पाक चीज़ों में से रोज़ी दी और ‘हमने‘ उन्हें अपनी बहुत सी सृष्टि पर प्रधानता दी। -बनी इस्राईल, 70
‘हमने‘ इनसान को बेहतरीन संरचना पर पैदा किया। -अलअलक़, 4
तो इनसान को देखना चाहिये कि वह किस चीज़ से पैदा किया गया है। वह एक उछलते पानी से पैदा किया गया है। -अत्तारिक़, 5-6
सो नसीहत करो अगर नसीहत फ़ायदा पहुंचाये। वह शख्स नसीहत कुबूल करेगा जो डरता है और उससे बचेगा वह जो बदबख्त होगा। वह पड़ेगा बड़ी आग में। फिर न उसमें मरेगा और न जिएगा। कामयाब हुआ जिसने ख़ुद को पाक किया और अपने रब का नाम लिया, फिर नमाज़ क़ायम की, बल्कि तुम दुनियावी ज़िन्दगी को प्राथमिकता देते हो और परलोक बेहतर है और शाश्वत है।
यही पूर्व ग्रंथों में भी है, मूसा और इबराहीम के सहीफ़ों में। -अलआला,10-19
-------------------------------------------------------------------------------------------
1. सारे इनसान एक बाप की औलाद हैं।
2. सारे इनसान एक परिवार हैं।
3. इस परिवार का मुखिया स्वयं परमेश्वर है।
4. जल थल में इनसान के लिये भोजन और सवारी का परमेश्वर ने ही किया है न कि इनसान ने।
5. एक गंदे पानी में उछलकर गर्भाशय तक जाने की क्षमता भी उसी दयालु मालिक ने रखी है।
6. एक नापाक पानी से परमेश्वर ने मनुष्य की रचना की ताकि उसके लिये घमण्ड करने की कोई वजह न बचे और जब भी वह अपनी संरचना पर विचार करे तो वह अपने मालिक की कुदरत का क़ायल और शुक्रगुज़ार बन जाये।
7. इनसान को मालिक ने बेहतरीन रूप आकार और योग्यता के साथ पैदा किया। उसे इज़्ज़त भी दी और बहुत सी चीज़ों और जीवों पर उसे प्रधानता दी।
8. अब इनसान को चाहिये कि वह अपनी ताक़त और अपने साधनों को रचनात्मक कामों में, सेवा के कामों में लगाये जैसा कि उसे मालिक ने हुक्म दिया है। सफलता इसी में है।
9. जो लोग मालिक के हुक्म को भुलाकर अपनी ख्वाहिशों की पूर्ति में ही मगन हो गये और न तो अपना फ़र्ज़ पूरा किया और न ही लोगों को उनका हक़ दिया और जब उन्हें नेक नसीहत की तो उसे नज़रअन्दाज़ कर दिया तो ये लोग दुनिया में फ़साद फैलने का कारण बनते हैं। दंगे, युद्ध और आपसी संघर्ष इन्हीं लोगों की नाजायज़ ख्वाहिशों के नतीजे में भड़कते हैं। इन्हीं लोगों के कारण लोगों का ईश्वर, धर्म और नैतिकता पर से विश्वास उठ जाता है और पूरा समाज ख़राबियों का शिकार हो जाता है।
10. इन कुकर्मों का नतीजा दुनिया में तो चाहे वे भोगने से बच जायें लेकिन परलोक में इनका ठिकाना आग का गड्ढा होगा।
11. इस लोक के बजाय परलोक का जीवन बेहतर और शाश्वत है।
12. परमेश्वर कहता है कि कुरआन से पहले भी जब कभी ईश्वरीय वाणी की प्रकाशना की गयी है, उसमें भी यही बताया गया है।
13. इस्लाम के नियम नये नहीं हैं और न ही ये पुराने ग्रंथों की नक़ल हैं बल्कि जिस ईश्वर की ओर से पूर्व ग्रंथों की प्रकाशना की हुई है उसी ने कुरआन को भी अवतरित किया है।
14. जो कुछ भिन्नता है वह पुराने ग्रंथों में क्षेपक और विद्वानों के अनुवाद और व्याख्या के कारण है। धर्म के मौलिक सिद्धान्त जैसे कि ईश्वर का एक होना, कर्मों का पूरा फल परलोक में मिलना और ईश्वर की ओर से मनुष्य को ज्ञान की प्रकाशना होना आदि कभी नहीं बदले।
15. धर्म के इम्पलीमेंटेशन के तरीक़े से परम्पराओं में भी अन्तर देखा जा सकता है लेकिन यह सब गौण है। मुख्य चीज़ सिद्धान्त है, वह सदा से ही एक हैं।
16. सबका मालिक एक है और सबका धर्म भी एक ही है।
और ‘हमने‘ आदम की औलाद को इज़्ज़त दी और ‘हमने‘ उन्हें जल-थल में सवार किया और उन्हें पाक चीज़ों में से रोज़ी दी और ‘हमने‘ उन्हें अपनी बहुत सी सृष्टि पर प्रधानता दी। -बनी इस्राईल, 70
‘हमने‘ इनसान को बेहतरीन संरचना पर पैदा किया। -अलअलक़, 4
तो इनसान को देखना चाहिये कि वह किस चीज़ से पैदा किया गया है। वह एक उछलते पानी से पैदा किया गया है। -अत्तारिक़, 5-6
सो नसीहत करो अगर नसीहत फ़ायदा पहुंचाये। वह शख्स नसीहत कुबूल करेगा जो डरता है और उससे बचेगा वह जो बदबख्त होगा। वह पड़ेगा बड़ी आग में। फिर न उसमें मरेगा और न जिएगा। कामयाब हुआ जिसने ख़ुद को पाक किया और अपने रब का नाम लिया, फिर नमाज़ क़ायम की, बल्कि तुम दुनियावी ज़िन्दगी को प्राथमिकता देते हो और परलोक बेहतर है और शाश्वत है।
यही पूर्व ग्रंथों में भी है, मूसा और इबराहीम के सहीफ़ों में। -अलआला,10-19
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1. सारे इनसान एक बाप की औलाद हैं।
2. सारे इनसान एक परिवार हैं।
3. इस परिवार का मुखिया स्वयं परमेश्वर है।
4. जल थल में इनसान के लिये भोजन और सवारी का परमेश्वर ने ही किया है न कि इनसान ने।
5. एक गंदे पानी में उछलकर गर्भाशय तक जाने की क्षमता भी उसी दयालु मालिक ने रखी है।
6. एक नापाक पानी से परमेश्वर ने मनुष्य की रचना की ताकि उसके लिये घमण्ड करने की कोई वजह न बचे और जब भी वह अपनी संरचना पर विचार करे तो वह अपने मालिक की कुदरत का क़ायल और शुक्रगुज़ार बन जाये।
7. इनसान को मालिक ने बेहतरीन रूप आकार और योग्यता के साथ पैदा किया। उसे इज़्ज़त भी दी और बहुत सी चीज़ों और जीवों पर उसे प्रधानता दी।
8. अब इनसान को चाहिये कि वह अपनी ताक़त और अपने साधनों को रचनात्मक कामों में, सेवा के कामों में लगाये जैसा कि उसे मालिक ने हुक्म दिया है। सफलता इसी में है।
9. जो लोग मालिक के हुक्म को भुलाकर अपनी ख्वाहिशों की पूर्ति में ही मगन हो गये और न तो अपना फ़र्ज़ पूरा किया और न ही लोगों को उनका हक़ दिया और जब उन्हें नेक नसीहत की तो उसे नज़रअन्दाज़ कर दिया तो ये लोग दुनिया में फ़साद फैलने का कारण बनते हैं। दंगे, युद्ध और आपसी संघर्ष इन्हीं लोगों की नाजायज़ ख्वाहिशों के नतीजे में भड़कते हैं। इन्हीं लोगों के कारण लोगों का ईश्वर, धर्म और नैतिकता पर से विश्वास उठ जाता है और पूरा समाज ख़राबियों का शिकार हो जाता है।
10. इन कुकर्मों का नतीजा दुनिया में तो चाहे वे भोगने से बच जायें लेकिन परलोक में इनका ठिकाना आग का गड्ढा होगा।
11. इस लोक के बजाय परलोक का जीवन बेहतर और शाश्वत है।
12. परमेश्वर कहता है कि कुरआन से पहले भी जब कभी ईश्वरीय वाणी की प्रकाशना की गयी है, उसमें भी यही बताया गया है।
13. इस्लाम के नियम नये नहीं हैं और न ही ये पुराने ग्रंथों की नक़ल हैं बल्कि जिस ईश्वर की ओर से पूर्व ग्रंथों की प्रकाशना की हुई है उसी ने कुरआन को भी अवतरित किया है।
14. जो कुछ भिन्नता है वह पुराने ग्रंथों में क्षेपक और विद्वानों के अनुवाद और व्याख्या के कारण है। धर्म के मौलिक सिद्धान्त जैसे कि ईश्वर का एक होना, कर्मों का पूरा फल परलोक में मिलना और ईश्वर की ओर से मनुष्य को ज्ञान की प्रकाशना होना आदि कभी नहीं बदले।
15. धर्म के इम्पलीमेंटेशन के तरीक़े से परम्पराओं में भी अन्तर देखा जा सकता है लेकिन यह सब गौण है। मुख्य चीज़ सिद्धान्त है, वह सदा से ही एक हैं।
16. सबका मालिक एक है और सबका धर्म भी एक ही है।
Tuesday, June 22, 2010
बच्चा मासूम होता है। लोग उसे फ़रिश्ते की मानिन्द मानते हैं। हज़रत ईसा मसीह अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते जब तक कि तुम बच्चों की भांति न हो जाओ।
बच्चे अबोध और मासूम होते हैं। शिकवे शिकायत और रंजिंशे देर तक उनके मन में नहीं ठहरतीं। साथ खेलते हैं तो लड़ भी लेते हैं और छीन झपट भी कर लेते हैं लेकिन बच्चे बदनीयत नहीं होते।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्ल. ने भी बच्चों को जन्नत का फूल फ़रमाया है।
हिन्दू धर्मग्रंथों में भी बच्चों की उपमा किसी अच्छी चीज़ से ही दी गयी होगी।
इसके बावजूद लोग मानते हैं कि बच्चे बीमार इसलिये पड़ते हैं क्योंकि वे पिछले जन्म में कुछ पाप करके आये हैं।
हम तो बच्चों को मासूम और निष्पाप मानते हैं, जो कोई उन्हें पापी मानता है वह अपनी मान्यता पर विचार करे।
... और शीघ्र हीमैं बाप बनने वाला हूं एक ऐसे बच्चे का जो पिछले जन्म का पापी नहीं है क्योंकि इस धरती पर उसका किसी भी योनि में कोई जन्म नहीं हुआ है। वह एकदम फ़्रेश आत्मा है। सीधे आत्मालोक से गर्भ में आयी और अब हमारी गोद में खेलेगी।
जो लोग दुआ करते हैं, उनसे दुआ की दरख्वास्त है।
बच्चे अबोध और मासूम होते हैं। शिकवे शिकायत और रंजिंशे देर तक उनके मन में नहीं ठहरतीं। साथ खेलते हैं तो लड़ भी लेते हैं और छीन झपट भी कर लेते हैं लेकिन बच्चे बदनीयत नहीं होते।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्ल. ने भी बच्चों को जन्नत का फूल फ़रमाया है।
हिन्दू धर्मग्रंथों में भी बच्चों की उपमा किसी अच्छी चीज़ से ही दी गयी होगी।
इसके बावजूद लोग मानते हैं कि बच्चे बीमार इसलिये पड़ते हैं क्योंकि वे पिछले जन्म में कुछ पाप करके आये हैं।
हम तो बच्चों को मासूम और निष्पाप मानते हैं, जो कोई उन्हें पापी मानता है वह अपनी मान्यता पर विचार करे।
... और शीघ्र ही
जो लोग दुआ करते हैं, उनसे दुआ की दरख्वास्त है।
Monday, June 21, 2010
इस्लाम के पैग़म्बरःहज़रत मुहम्मद (सल्ल.) Written by Prof. Ramakrishna Rao
अध्याय .1
इस्लाम के पैग़म्बरःहज़रत मुहम्मद (सल्ल.)
मुहम्मद (सल्ल.) का जन्म अरब के रेगिस्तान में मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार 20 अप्रैल 571 ई. में हुआ। ‘मुहम्मद’ का अर्थ होता है ‘जिस की अत्यन्त प्रशंसा की गई हो।’ मेरी नज़र में आप अरब के सपूतों में महाप्रज्ञ और सबसे उच्च बुद्धि के व्यक्ति हैं। क्या आपसे पहले और क्या आप के बाद, इस लाल रकतीले अगम रेगिस्तान में जन्मे सभी कवियों और शासकों की अपेक्षा आप का प्रभाव कहीं अधिक व्यापक है।जब आप पैदा हूए अरब उपमहीद्वीप केवल एक सूना रेगिस्तान था। मुहम्मद(सल्ल.) की सशक्त आत्मा ने इस सूने रेगिस्तान से एक नए संसार का निर्माण किया, एक नए जीवन का, एक नई संस्कृति और नई सभ्यता का। आपके द्वारा एक ऐसे नये राज्य की स्थापना हुई, जो मराकश से ले कर इंडीज़ तक फैला और जिसने तीन महाद्वीपों-एशिया, अफ्ऱीक़ा, और यूरोप के विचार और जीवन पर अपना अभूतपूर्व प्रभाव डाला।
उदारता की ज़रूरत
मैंने जब पैग़म्बर मुहम्मद के बारे में लिखने का इरादा किया तो पहले तो मुझे संकोच हुआ, क्योंकि यह एक ऐसे धर्म के बारे में लिखने का मामला था जिसका मैं अनुयायी नहीं हूँ और यह एक नाज़ूक मामला भी है क्योंकि दूनिया में विभिन्न धर्मों के माननेवाले लोग पाए जाते हैं और एक धर्म के अनुयायी भी परस्पर विरोधी मतों (school of thought) और फ़िरक़ों में बंटे रहते हैं।हालाँकि कभी-कभी यह दावा किया जाता है कि धर्म पूर्णतः एक व्यक्तिगत मामला है, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि धर्म में पूरे जगत् को अपने घेरे में ले लेने की प्रवृत्ति पाई जाती है, चाहे उसका संबंध प्रत्यक्ष से हो या अप्रत्यक्ष चीज़ों से। वह किसी न किसी तरह और कभी न कभी हमारे हृदय, हमारी आत्माओं और हमारे मन और मस्तिष्क में अपनी राह बना लेता है। चाहे उसका ताल्लुक़ उसके चेतन से हो, अवचेतन या अचेतन से हो या किसी ऐसे हिस्से से हो जिसकी हम कल्पना कर सकते हों। यह समस्या उस समय और ज़्यादा गंभीर और अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाता है जबकि इस बात का गहरा यक़ीन भी हो कि हमारा भूत, वर्तमान और भविष्य सब के सब एक अत्यन्त कोमल, नाज़ुक, संवेदनशील रेशमी सूत्रों से बंधे हुए हैं। यदि हम कुछ ज़्यादा ही संवेदनशील हुए तो फिर हमारे सन्तुलन केन्द्र के अत्यन्त तनाव की स्थिति में रहने की संभावना बनी रहती है। इस दृष्टि से देखा जाए तो दूसरों के धर्म के बारे में जितना कम कुछ कहा जाए उतना ही अच्छा है। हमारे धर्मों को तो बहुत ही छिपा रहना चाहिए। उनका स्थान तो हमारे हृदय के अन्दर होना चाहिए और इस सिलसिले में हमारी ज़ुबान बिल्कुल नहीं खुलनी चाहिए।
मनुष्य: एक सामाजिक प्राणी
लेकिन समस्या का एक दूसरा पहलू भी है। मनुष्य समाज में रहता है और हमारा जीवन चाहे-अनचाहे, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे लोगों के जीवन से जुड़ा होता है। हम एक ही धरती का अनाज खाते हैं, एक ही जल-स्रोत का पानी पीते हैं और एक ही वायुमंडल की हवा में सांस लेते हैं। ऐसी दशा में भी, जबकि हम अपने निजी विचारों व धार्मिक धारणाओं पर क़ायम हों, अगर हम थोड़ा-बहुत यह भी जान लें कि हमारा पड़ोसी किस तरह सोचता है, उसके कर्मों के मुख्य प्रेरणा-स्रोत क्या हैं? तो यह जानकारी कम से कम अपने माहौल के साथ तालमेल पैदा करने में सहायक बनेगी। यह बहुत ही पसन्दीदा बात है कि आदमी को संसार मे धर्मों के बारे में उचित भावना के साथ जानने की कोशिश करनी चाहिये, ताकि आपसी जानकारी और मेल-मिलाप को बढ़ावा मिले और हम बेहतर तरीक़े से अपने क़रीब या दूर के पास-पड़ोस के लोगों की क़द्र कर सकें।फिर हमारे विचार वास्तव में उतने बिखरे नहीं हैं जैसा कि वे ऊपर से दिखाई देते हैं। वास्तव में वे कुछ केन्द्रों के गिर्द जमा होकर स्टाफ़िक़ जैसा रूप धारण कर लेते हैं, जिन्हें दुनिया के महान धर्मों और जीवन्त आस्थाओं के रूप में देखते हैं। जो धरती में लाखों ज़िन्दगियों का मार्गदर्शन करते और उन्हें प्रेरित करते हैं। अतः अगर हम इस संसार के आदर्श नागरिक बनना चाहते हैं तो यह हमारी जि़म्मेदारी भी है कि उन महान धर्मों और उन दार्शनिक सिद्धान्तों को जानने की अपने बस भर कोशिश करें, जिनका मानव पर शासन रहा है।
पैग़म्बर : ऐतिहासिक व्यक्तित्व
इन आरम्भिक टिप्पणियों के बावजूद धर्म का क्षेत्र ऐसा है, जहाँ प्रायः बुद्धि और संवेदन के बीच संघर्ष पाया जाता है। यहाँ फिसलने की इतनी सम्भावना रहती है कि आदमी को उन कम समझ लोगों का बराबर ध्यान रखना पड़ता है, जो वहाँ भी घुसने से नहीं चूकते, जहाँ प्रवेश करते हुए फ़रिश्ते भी डरते है। इस पहलू से भी यह अत्यन्त जटिल समस्या है। मेरे लेख का विषय एक विशेष धर्म के सिद्धान्तों से है। वह धर्म ऐतिहासिक है और उसके पैग़म्बर का व्यक्तित्व भी ऐतिहासिक है। यहाँ तक कि सर विलियम म्यूर जैसा इस्लाम विरोधी आलोचक भी कु़रआन के बारे में कहता है, ‘‘शायद संसार में (कु़रआन के अतिक्ति) कोई अन्य पुस्तक ऐसी नहीं है, जो बारह शताब्दियों तक अपने विशुद्ध मूल के साथ इस प्रकार सुरक्षित हो।’’1 मैं इसमें इतना और बढ़ा सकता हूँ कि पैग़म्बर मुहम्मद भी एक ऐसे अकेले ऐतिहासिक महापुरुष हैं, जिनके जीवन की एक-एक घटना को बड़ी सावधनी के साथ बिल्कुल शुद्ध रूप में बारीक से बारीक विवरण के साथ आनेवाली नसलों के लिए सुरक्षित कर लिया गया है। उनका जीवन और उनके कारनामे रहस्य के परदों में छुपे हुए नहीं हैं। उनके बारे में सही-सही जानकारी प्राप्त करने के लिए किसी को सिर खपाने और भटकने की ज़रूरत नहीं। सत्य रूपी मोती प्राप्त करने के लिए ढेर सारी रास से भूसा उड़ाकर चन्द दाने प्राप्त करने जैसे कठिन परिश्रम की ज़रूरत है।
पूर्वकालीन भ्रामक चित्रण
मेरा काम इस लिए और आसान हो गया है कि अब वह समय तेज़ी से गुज़र रहा है, जब कुछ राजनैतिक और इसी प्रकार के दूसरे कारणों से कुछ आलोचक इस्लाम का ग़लत और बहुत ही भ्रामक चित्रण किया करते थे।1
प्रोफ़सर बीबान ‘केम्ब्रिज मेडिवल हिस्ट्री (Cambrigd madieval history) में लिखता है-‘‘ इस्लाम और मुहम्मद के संबंध में 19वीं सदी के आरम्भ से पूर्व यूरोप में जो पुस्तकें प्रकाशित हुईं उनकी हैसियत केवल साहित्यिक कौतूहलों की रह गई है’’मेरे लिए पैग़म्बर मुहम्मद के जीवन-चित्र के लिखने की समस्या बहुत ही आसान हो गई है, क्योंकि अब हम इस प्रकार के भ्रामक ऐसिहासिक तथ्यों का सहारा लेने के लिए मजबूर नहीं हैं और इस्लाम के संबंध में भ्रमक निरूपणों के स्पष्ट करने में हमारा समय बर्बाद नहीं होता।मिसाल के तौर पर इस्लामी सिद्धान्त और तलवार की बात किसी उल्लेखनीय क्षेत्र में ज़ोरदार अन्दाज़ में सुनने को नहीं मिलती। इस्लाम का यह सिद्धान्त कि ‘धर्म के मामले में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नही’, आज सब पर भली-भाँति विदित है।
पूरी किताब पढने के लिए .... http://islaminhindi.blogspot.com/
Sunday, June 20, 2010
K. S. SIDDARTH SAID --- कट्टरता को त्यागें और प्रतिबद्धता को अपनाएं ।
"वन्दे मातरम" लेख पर
भाई के. एस. सिद्धार्थ जी की टिपण्णी एक पूरे लेख की भी हैसियत रखती है और हमें एक नेक नसीहत भी करती है . मैं अपने ब्लॉग पर एक चिन्तनशील आदमी का सम्मान भी करना चाहता हूँ और यह भी चाहता हूँ कि हमारे अन्दर निखार पैदा हो . अच्छी बात हरेक से ली जानी चाहियें .
K S Siddharth said...
हमें जीवन के किसी भी पहलू के अपने तरीके पर प्रतिबद्ध होना चाहिए , क्योंकि प्रतिबद्ध होने का मतलब ही अपनी मान्यताओं व विश्वासों को अच्छी तरह जानकर और हर कसौटी पर खरा उतारकर उसके प्रति गहरी आस्था होना है, साथ ही साथ दूसरों की आस्था का सम्मान करना भी है जबकि कट्टरता अपनी मान्यताओं व विश्वासों के प्रति बिना किसी कसौटी पर जांचे और जाने अन्ध श्रद्धा रखना है और इसमें दूसरों की मान्यताओं व विश्वासों को हेय व घ्रणा की द्रष्टि से देखना है
हमें लोगों की प्रतिबद्धता का सम्मान करना चाहिए तथा कट्टरता का विरोध करना चाहिए भले ही वह अपने ही वर्ग या समाज विशेष में क्यों न हो
यह सांप्रदायिक कट्टरता हिन्दू और मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों में देखने को मिलती है जबकि ऐसे तत्व दोनों ही ओर से अपने आप को श्रेष्ठ बताते हैं तथा विपरीत पक्ष की उसे सांप्रदायिक या कट्टर बताकर आलोचना करते हैं
इसके लिए प्रतिबद्धता और कट्टरता में पहले तो अंतर समझें, कुमार अम्बुज की इस कविता से:
देखताहूं कि प्रतिबद्धता को लेकर कुछ लोग इस तरह बात करते हैं मानो प्रतिबद्ध होना, कट्टर होना है ।
जबकि सीधी-सच्ची बात है कि प्रतिबद्धता समझ से पैदा होती है, कट्टरता नासमझी से ।
प्रतिबद्धता वैचारिक गतिशीलता को स्वीकार करती है, कट्टरता एक हदबंदी में अपनी पताका फहराना चाहती है ।
प्रतिबद्धता दृढ़ता और विश्वास पैदा करती है , कट्टरता घृणा और संकीर्ण श्रेष्ठि भाव ।
प्रतिबद्ध होने से आप किसी को व्यक्तिगत शत्रु नहीं मानते हैं,कट्टर होने से व्यक्तिगत शत्रुताएं बनती ही हैं ।
प्रतिबद्धता सामूहिकता में एक सर्जनात्मक औज़ार है और कट्टरता अपनी सामूहिकता में विध्वंसक हथियार ।
प्रतिबद्धता आपको जिम्मेवार नागरिक बनाती है और कट्टरता अराजक ।
जो प्रतिबद्ध नहीं होना चाहते हैं, वे लोग कुतर्कों से प्रतिबद्धता को कट्टरता के समकक्ष रख देना चाहते हैं -- कुमार अंबुज , यह कविता जनपक्ष पर देखी गयी
इसलिए कट्टरता को त्यागें और प्रतिबद्धता को अपनाएं ।
भाई के. एस. सिद्धार्थ जी की टिपण्णी एक पूरे लेख की भी हैसियत रखती है और हमें एक नेक नसीहत भी करती है . मैं अपने ब्लॉग पर एक चिन्तनशील आदमी का सम्मान भी करना चाहता हूँ और यह भी चाहता हूँ कि हमारे अन्दर निखार पैदा हो . अच्छी बात हरेक से ली जानी चाहियें .
प्रतिबद्धता दृढ़ता और विश्वास पैदा करती है , कट्टरता घृणा और संकीर्ण श्रेष्ठि भाव । इसलिए कट्टरता को त्यागें और प्रतिबद्धता को अपनाएं ।
हमें जीवन के किसी भी पहलू के अपने तरीके पर प्रतिबद्ध होना चाहिए , क्योंकि प्रतिबद्ध होने का मतलब ही अपनी मान्यताओं व विश्वासों को अच्छी तरह जानकर और हर कसौटी पर खरा उतारकर उसके प्रति गहरी आस्था होना है, साथ ही साथ दूसरों की आस्था का सम्मान करना भी है जबकि कट्टरता अपनी मान्यताओं व विश्वासों के प्रति बिना किसी कसौटी पर जांचे और जाने अन्ध श्रद्धा रखना है और इसमें दूसरों की मान्यताओं व विश्वासों को हेय व घ्रणा की द्रष्टि से देखना है
हमें लोगों की प्रतिबद्धता का सम्मान करना चाहिए तथा कट्टरता का विरोध करना चाहिए भले ही वह अपने ही वर्ग या समाज विशेष में क्यों न हो
यह सांप्रदायिक कट्टरता हिन्दू और मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों में देखने को मिलती है जबकि ऐसे तत्व दोनों ही ओर से अपने आप को श्रेष्ठ बताते हैं तथा विपरीत पक्ष की उसे सांप्रदायिक या कट्टर बताकर आलोचना करते हैं
इसके लिए प्रतिबद्धता और कट्टरता में पहले तो अंतर समझें, कुमार अम्बुज की इस कविता से:
देखताहूं कि प्रतिबद्धता को लेकर कुछ लोग इस तरह बात करते हैं मानो प्रतिबद्ध होना, कट्टर होना है ।
जबकि सीधी-सच्ची बात है कि प्रतिबद्धता समझ से पैदा होती है, कट्टरता नासमझी से ।
प्रतिबद्धता वैचारिक गतिशीलता को स्वीकार करती है, कट्टरता एक हदबंदी में अपनी पताका फहराना चाहती है ।
प्रतिबद्धता दृढ़ता और विश्वास पैदा करती है , कट्टरता घृणा और संकीर्ण श्रेष्ठि भाव ।
प्रतिबद्ध होने से आप किसी को व्यक्तिगत शत्रु नहीं मानते हैं,कट्टर होने से व्यक्तिगत शत्रुताएं बनती ही हैं ।
प्रतिबद्धता सामूहिकता में एक सर्जनात्मक औज़ार है और कट्टरता अपनी सामूहिकता में विध्वंसक हथियार ।
प्रतिबद्धता आपको जिम्मेवार नागरिक बनाती है और कट्टरता अराजक ।
जो प्रतिबद्ध नहीं होना चाहते हैं, वे लोग कुतर्कों से प्रतिबद्धता को कट्टरता के समकक्ष रख देना चाहते हैं -- कुमार अंबुज , यह कविता जनपक्ष पर देखी गयी
इसलिए कट्टरता को त्यागें और प्रतिबद्धता को अपनाएं ।
Friday, June 18, 2010
Tagore said- वन्देमातरम् वास्तव में दुर्गा देवी की वन्दना है। यह सत्य इतना स्पष्ट है कि इस पर बहस नहीं की जा सकती।
वन्देमातरम् : समर्थन और विरोध् के विविध् आयाम
वन्देमातरम् के समर्थन और विरोध की प्रक्रिया प्रायः तभी शुरू हो गई थी, जब यह गीत छपकर पाठकों के सामने आया था। उसी समय से हिन्दुत्ववादी शक्ति इसका समर्थन करती आ रही है। इसके विपरीत अल्पंसख्यक समुदाय, विशेषकर मुस्लिम समुदाय, इसका विरोधी रहा है। समर्थक और विरोधी दोनों वर्ग के अपने-अपने तर्क हैं।
बंकिमचन्द्र चटर्जी के विवादास्पद उपन्यास ‘आनंदमठ’ से उद्धृत इस गीत का समर्थन करने वाले लोग कहते हैं कि इसका विरोध करने वाले लोग न तो भारत के प्रति निष्ठावान हो सकते हैं और न यहां की सभ्यता और संस्कृति का आदर ही कर सकते हैं। विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंघल वन्देमातरम् या सरस्वती वन्दना के गायन के विरोध को ‘राष्ट्र का अपमान तथा हिन्दू समाज के प्रति घृणा का प्रदर्शन’ कहते हैं।
विपरीत अल्पसंख्यक समुदाय का कहना है कि हम वन्देमातरम् या सरस्वती वन्दना का विरोध नहीं करते हैं, इस गीत को गै़र हिन्दू समुदाय पर थोपने का विरोध करते हैं। हिन्दू भाई गाएं और रात-दिन गाएं, गाते रहें। हम नहीं गाएंगे। इसे हम पर न थोपा जाए।
मुस्लिम समुदाय कहता है कि वन्देमातरम् में अनेक देवी-देवताओं की वन्दना की गई है। इसलिए यह इस्लाम की मूल अवधारणा-एकेश्वरवाद-के खि़लाफ़ है। मुसलमान सिर्फ़ अल्लाह की इबादत करता है, उसी के समक्ष झुकता है, अन्य किसी की न तो वह इबादत या वन्दना कर सकता है और न ही किसी दूसरे के सामने झुक सकता है। वह तो अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की भी इबादत नहीं करते , इबादत के लायक़ तो केवल अल्लाह है, अन्य कोई नहीं। अतः मुस्लिम समुदाय दुर्गा, सरस्वती, माता, मातृभूमि या अन्य किसी भी देवी-देवता की वन्दना नहीं कर सकता।
संघ परिवार के बहुत निकट समझे जाने वाले एक मौलाना भी इस तथ्य से इनकार नहीं करते कि वन्दना में धरती या देश को विभिन्न देवी-देवताओं के रूप में दिखलाया गया है। मौलाना का कहना है कि मुसलमान मानता है कि अल्लाह एक है। सिर्फ़ उसी के आगे झुकना है। इसलिए यह मुस्लिम चित्त को ठेस पहुँचाता है। मुसलमान का हृदय हर उस बात से आन्दोलित होता है, जो इस विश्वास के खि़लाफ़ जाता है। इसका मतलब यह नहीं है कि मुसलमान देशभक्त नहीं है। भारत के प्रति या अपने देश के लिए मुसलमान के मन में अपार श्रद्धा है। परन्तु यह उस तरह की मातृ भक्ति कदापि नहीं कर सकता, जैसी संघ परिवार चाहता है।
मौलाना एक उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि लाखों लोग सड़क पर चलते हैं। उनमें औरतें भी होती हैं। एक औरत होती है, जिसने हमें जन्म दिया है। वह औरत भी हज़ारों-लाखों औरतों की तरह मामूली है। उन्हीं की तरह चेहरा-मोहरा, चाल-ढाल है, थोड़े से हेरफेर के साथ वैसी ही शक्ल-सूरत है। लेकिन उस औरत के प्रति विशेष लगाव क्यों आ जाता है, जिसने हमें जन्म दिया है? उस लगाव का ऐलान नहीं करना पड़ता। गीत गाकर आपको बताना नहीं पड़ता कि यह मेरी माँ है और मैं इसकी इज़्ज़त करता हूँ क्योंकि यह मुहब्बत स्वाभाविक है। वह माँ के प्रति प्यार की तरह स्वाभाविक है। उसके लिए गीत गाना ज़रूरी नहीं है। यह भी नहीं समझना चाहिए कि देशगान गाएंगे तो ही देशभक्त साबित होंगे, वरना नहीं।
यहां गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर के एक पत्र का उल्लेख प्रसंगानुकूल होगा। उन्होंने 1937 ई॰ में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘‘वन्देमातरम् वास्तव में दुर्गा देवी की वन्दना है। यह सत्य इतना स्पष्ट है कि इस पर बहस नहीं की जा सकती। बंकिम ने अपने इस गीत में बंगाल से दुर्गा का अटूट संबंध बताया है। इसलिए किसी भी मुसलमान से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह दस हाथों वाली इस देवी को राष्ट्रीयता की भावना से स्वदेश के रूप में पूजेगा। इस साल हमारी पत्रिका के बहुत से पाठकों ने वन्देमातरम् के गायन वाले कुछ स्कूलों के हवाले दिए हैं और सबूतों के साथ सम्पादकों को लिखा है कि यह गीत दुर्गा देवी का भजन ही है।’’ (सेलेक्टेड लेटर्स आफ रवीन्द्रनाथ टैगोर, सम्पादक दत्ता तथा रॉबिन्सन, कैम्ब्रिज, 1997, पृ॰ 487)
वन्देमातरम् और संघ परिवार
वन्देमातरम् गाने या न गाने का विवाद जब ज़ोरों पर था, तभी संघ परिवार के प्रमुख नेता सदाशिव माधव गोलवलकर ने अपने एक लेख में यह लिखकर वन्देमातरम् विवाद को एक नया मोड़ दे दिया था कि जो लोग देश को अपनी मां नहीं समझते, इस रूप में उसे पूज्य नहीं मानते, वन्देमातरम् गाने से परहेज़ करते हैं, वे इस देश के प्रति निष्ठावान नहीं हो सकते।
आज भी संघ परिवार गुरूजी के नक्शेक़दम पर चल रहा है। संघ परिवार भारतीय मुसलमानों को नया नाम देना चाहता है। क्या है वह नया नाम? वह नाम है ‘मुहम्मदी हिन्दू’ अर्थात् ऐसे प्रत्येक मुसलमान को ‘मुहम्मदी हिन्दू’ कहा जा सकता है, जो पूरी तरह हिन्दुत्व के रंग में रंग जाए और यहां की देवियों तथा यहां के देवताओं एवं महापुरूषों को अपना पूज्य माने, उनके आगे पूरे श्रद्धाभाव से झुके। उनका नाम मुसलमानों जैसा हो, लेकिन काम पूरी तरह हिन्दुओं जैसा। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर एक बार गुरूजी ने मज़ारपरस्त मुसलमानों के बारे में कहा था कि इन्हें न छेड़ो, इनकी मदद करो, क्योंकि ये हमारे भटके हुए भाई हैं। - मुहम्मद इलियास हुसैन
मासिक कान्ति जुलाई 1999 से साभार
सुशोभित, शक्तिशालिनी, अजर-अमर
मैं तेरी वन्दना करता हूँ।
वन्देमातरम् के समर्थन और विरोध की प्रक्रिया प्रायः तभी शुरू हो गई थी, जब यह गीत छपकर पाठकों के सामने आया था। उसी समय से हिन्दुत्ववादी शक्ति इसका समर्थन करती आ रही है। इसके विपरीत अल्पंसख्यक समुदाय, विशेषकर मुस्लिम समुदाय, इसका विरोधी रहा है। समर्थक और विरोधी दोनों वर्ग के अपने-अपने तर्क हैं।
बंकिमचन्द्र चटर्जी के विवादास्पद उपन्यास ‘आनंदमठ’ से उद्धृत इस गीत का समर्थन करने वाले लोग कहते हैं कि इसका विरोध करने वाले लोग न तो भारत के प्रति निष्ठावान हो सकते हैं और न यहां की सभ्यता और संस्कृति का आदर ही कर सकते हैं। विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंघल वन्देमातरम् या सरस्वती वन्दना के गायन के विरोध को ‘राष्ट्र का अपमान तथा हिन्दू समाज के प्रति घृणा का प्रदर्शन’ कहते हैं।
विपरीत अल्पसंख्यक समुदाय का कहना है कि हम वन्देमातरम् या सरस्वती वन्दना का विरोध नहीं करते हैं, इस गीत को गै़र हिन्दू समुदाय पर थोपने का विरोध करते हैं। हिन्दू भाई गाएं और रात-दिन गाएं, गाते रहें। हम नहीं गाएंगे। इसे हम पर न थोपा जाए।
मुस्लिम समुदाय कहता है कि वन्देमातरम् में अनेक देवी-देवताओं की वन्दना की गई है। इसलिए यह इस्लाम की मूल अवधारणा-एकेश्वरवाद-के खि़लाफ़ है। मुसलमान सिर्फ़ अल्लाह की इबादत करता है, उसी के समक्ष झुकता है, अन्य किसी की न तो वह इबादत या वन्दना कर सकता है और न ही किसी दूसरे के सामने झुक सकता है। वह तो अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की भी इबादत नहीं करते , इबादत के लायक़ तो केवल अल्लाह है, अन्य कोई नहीं। अतः मुस्लिम समुदाय दुर्गा, सरस्वती, माता, मातृभूमि या अन्य किसी भी देवी-देवता की वन्दना नहीं कर सकता।
संघ परिवार के बहुत निकट समझे जाने वाले एक मौलाना भी इस तथ्य से इनकार नहीं करते कि वन्दना में धरती या देश को विभिन्न देवी-देवताओं के रूप में दिखलाया गया है। मौलाना का कहना है कि मुसलमान मानता है कि अल्लाह एक है। सिर्फ़ उसी के आगे झुकना है। इसलिए यह मुस्लिम चित्त को ठेस पहुँचाता है। मुसलमान का हृदय हर उस बात से आन्दोलित होता है, जो इस विश्वास के खि़लाफ़ जाता है। इसका मतलब यह नहीं है कि मुसलमान देशभक्त नहीं है। भारत के प्रति या अपने देश के लिए मुसलमान के मन में अपार श्रद्धा है। परन्तु यह उस तरह की मातृ भक्ति कदापि नहीं कर सकता, जैसी संघ परिवार चाहता है।
मौलाना एक उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि लाखों लोग सड़क पर चलते हैं। उनमें औरतें भी होती हैं। एक औरत होती है, जिसने हमें जन्म दिया है। वह औरत भी हज़ारों-लाखों औरतों की तरह मामूली है। उन्हीं की तरह चेहरा-मोहरा, चाल-ढाल है, थोड़े से हेरफेर के साथ वैसी ही शक्ल-सूरत है। लेकिन उस औरत के प्रति विशेष लगाव क्यों आ जाता है, जिसने हमें जन्म दिया है? उस लगाव का ऐलान नहीं करना पड़ता। गीत गाकर आपको बताना नहीं पड़ता कि यह मेरी माँ है और मैं इसकी इज़्ज़त करता हूँ क्योंकि यह मुहब्बत स्वाभाविक है। वह माँ के प्रति प्यार की तरह स्वाभाविक है। उसके लिए गीत गाना ज़रूरी नहीं है। यह भी नहीं समझना चाहिए कि देशगान गाएंगे तो ही देशभक्त साबित होंगे, वरना नहीं।
यहां गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर के एक पत्र का उल्लेख प्रसंगानुकूल होगा। उन्होंने 1937 ई॰ में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘‘वन्देमातरम् वास्तव में दुर्गा देवी की वन्दना है। यह सत्य इतना स्पष्ट है कि इस पर बहस नहीं की जा सकती। बंकिम ने अपने इस गीत में बंगाल से दुर्गा का अटूट संबंध बताया है। इसलिए किसी भी मुसलमान से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह दस हाथों वाली इस देवी को राष्ट्रीयता की भावना से स्वदेश के रूप में पूजेगा। इस साल हमारी पत्रिका के बहुत से पाठकों ने वन्देमातरम् के गायन वाले कुछ स्कूलों के हवाले दिए हैं और सबूतों के साथ सम्पादकों को लिखा है कि यह गीत दुर्गा देवी का भजन ही है।’’ (सेलेक्टेड लेटर्स आफ रवीन्द्रनाथ टैगोर, सम्पादक दत्ता तथा रॉबिन्सन, कैम्ब्रिज, 1997, पृ॰ 487)
वन्देमातरम् और संघ परिवार
वन्देमातरम् गाने या न गाने का विवाद जब ज़ोरों पर था, तभी संघ परिवार के प्रमुख नेता सदाशिव माधव गोलवलकर ने अपने एक लेख में यह लिखकर वन्देमातरम् विवाद को एक नया मोड़ दे दिया था कि जो लोग देश को अपनी मां नहीं समझते, इस रूप में उसे पूज्य नहीं मानते, वन्देमातरम् गाने से परहेज़ करते हैं, वे इस देश के प्रति निष्ठावान नहीं हो सकते।
आज भी संघ परिवार गुरूजी के नक्शेक़दम पर चल रहा है। संघ परिवार भारतीय मुसलमानों को नया नाम देना चाहता है। क्या है वह नया नाम? वह नाम है ‘मुहम्मदी हिन्दू’ अर्थात् ऐसे प्रत्येक मुसलमान को ‘मुहम्मदी हिन्दू’ कहा जा सकता है, जो पूरी तरह हिन्दुत्व के रंग में रंग जाए और यहां की देवियों तथा यहां के देवताओं एवं महापुरूषों को अपना पूज्य माने, उनके आगे पूरे श्रद्धाभाव से झुके। उनका नाम मुसलमानों जैसा हो, लेकिन काम पूरी तरह हिन्दुओं जैसा। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर एक बार गुरूजी ने मज़ारपरस्त मुसलमानों के बारे में कहा था कि इन्हें न छेड़ो, इनकी मदद करो, क्योंकि ये हमारे भटके हुए भाई हैं। - मुहम्मद इलियास हुसैन
मासिक कान्ति जुलाई 1999 से साभार
Wednesday, June 16, 2010
Behaviour जिस इनसान के अन्दर ईमान की कैफ़ियत होगी उसके अन्दर विनम्रता भी ज़रूर होगी। ये दोनों चीजे़ कभी एक दूसरे से जुदा नहीं हो सकतीं।
मानव धर्म : पैग़म्बर की वाणी में मौलाना वहीदुद्दीन ख़ाँ
ईमान वाले बन्दे की मिसाल ऐसे नर्म पौधे की सी है जिसके पत्ते सायादार होते हैं। जिस दिशा से भी हवा चलती है वह उसे झुका देती है। जब हवा रूकती है तो वह सीधा हो जाता है। यही हाल मोमिन का है जो लगातार आज़माइशों के भार से दबा रहता है और सत्य के इनकारी की मिसाल सख्त पेड़ (ठूंठ) की तरह है जो निश्चल एक हालत में खड़ा रहता है यहां तक कि परमेश्वर उसे जब चाहता है उखाड़कर फेंक देता है। (फ़तह-उल-बारी, किताबुत्तौहीद 13/55-454)
इस हदीस में पौधे की मिसाल के ज़रिये मोमिन बन्दे की उस सिफ़त को बताया गया है जिसको तवाज़ो (विनम्रता) कहा जाता है। विनम्रता मोमिन का एक गुण है। जिस इनसान के अन्दर ईमान की कैफ़ियत होगी उसके अन्दर विनम्रता भी ज़रूर होगी। ये दोनों चीजे़ कभी एक दूसरे से जुदा नहीं हो सकतीं। मोमिन के अन्दर सूखी लकड़ी की तरह अकड़ नहीं होती। बल्कि नर्म पौधे की तरह लचक होती है। उससे कोई कोताही हो जाये तो फ़ौरन ही वह अपनी ग़लती मान लेता है। किसी से मामला पड़े तो वह हमेशा उसके साथ नर्मी का बर्ताब करता है। किसी से विवाद हो जाये तो वह एक तरफ़ा तौर पर सुलह के लिये तैयार रहता है। हक़ के झगड़े में वह अपना हक़ भी दूसरे को देने पर राज़ी हो जाता है ताकि मामला शिद्दत के मरहले तक न पहुँचे।
एक इनसान जब दूसरे इनसान के साथ शिद्दत का मामला करता है तो उसकी वजह यह होती है कि वह उसको अपने जैसे एक इनसान का मामला समझता है। यही सायकोलॉजी आदमी को सख्त बनाती है। लेकिन मोमिन इसके विपरीत हर मामले को ईश्वर का मामला समझता है। यह सायकोलॉजी उसके अन्दर शिद्दत का ख़ात्मा कर देती है। एक इनसान दूसरे इनसान के मुक़ाबले में बड़ा हो सकता है लेकिन ईश्वर के मुक़ाबले में कोई भी इनसान न तो बड़ा है और न ताक़तवर। इसी फ़र्क का यह नतीजा है कि इनसान और इनसान का मामला हो तो उनमें से कोई छोटा नज़र आता है और कोई बड़ा मगर जब इनसान और ईश्वर का मामला हो तो सारे इनसान बराबर हैसियत इख्तियार कर लेते हैं। अब बड़ा सिर्फ एक परमेश्वर होता है और बाकी तमाम इनसान उसके मुक़ाबले में छोटे।
अलरिसाला, उर्दू मासिक, अंक जून 2003, पृष्ठ 5
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पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद स. का वचन भी प्यारा है और उसकी व्याख्या भी। इस वचन को कोई अपने जीवन में उतारे या न उतारे लेकिन एक मोमिन को तो फ़ौरन ही इसे अपने अन्दर उतार लेना चाहिये। अक्सर लोगों में योग्यता की कमी नहीं होती लेकिन उनके अन्दर एक प्रकार की अकड़ पायी जाती है जिसकी वजह से वे अपने जीवन में कई तरह की समस्याओं के शिकार हो जाते हैं। घर और ससुराल में भी उनका टकराव होता रहता है और रोज़गार के फ़ील्ड में भी। रिश्तेदारियों में तल्ख़ी पैदा हो जाती है और वर्किंग प्लेस में वे लोग नापसंदीदा बनकर रह जाते हैं। दूसरों के मुक़ाबले वे पिछड़ जाते हैं या फिर नौकरी ही उनको अलविदा कह देती है। इन हालात में भी वे अपने बर्ताव का जायज़ा लेने के बजाय यही कहते हैं कि ऐसा उनके साथ उनकी खुददारी की वजह से हो रहा है। दूसरे लोग चापलूस हैं इसलिये वे आगे बढ़ रहे हैं। ग़लत काम, बेशक न तो करना चाहिये और न ही होने देना चाहिये लेकिन जहां तक हो सके अंदाज़ नरमी का ही होना चाहिये। नसीहत के साथ नरमी न हो तो वह सामने वाली की इगो को ही हर्ट करेगी और फिर जो भी ताक़तवर होगा वह कमज़ोर पर सवार हो जायेगा। नेक नसीहत करने वाले खुददारों को इस पॉइंट का ख़ास ध्यान रखना चाहिये। ज़ुल्म के खि़लाफ़ आवाज़ उठानी चाहिये लेकिन लहजे में नरमी होनी ही चाहिये। इस एक बिन्दु का ध्यान रखने से भी बहुत सी समस्याओं का ख़ात्मा किया जा सकता है।
विनम्रता
ईमान वाले बन्दे की मिसाल ऐसे नर्म पौधे की सी है जिसके पत्ते सायादार होते हैं। जिस दिशा से भी हवा चलती है वह उसे झुका देती है। जब हवा रूकती है तो वह सीधा हो जाता है। यही हाल मोमिन का है जो लगातार आज़माइशों के भार से दबा रहता है और सत्य के इनकारी की मिसाल सख्त पेड़ (ठूंठ) की तरह है जो निश्चल एक हालत में खड़ा रहता है यहां तक कि परमेश्वर उसे जब चाहता है उखाड़कर फेंक देता है। (फ़तह-उल-बारी, किताबुत्तौहीद 13/55-454)
इस हदीस में पौधे की मिसाल के ज़रिये मोमिन बन्दे की उस सिफ़त को बताया गया है जिसको तवाज़ो (विनम्रता) कहा जाता है। विनम्रता मोमिन का एक गुण है। जिस इनसान के अन्दर ईमान की कैफ़ियत होगी उसके अन्दर विनम्रता भी ज़रूर होगी। ये दोनों चीजे़ कभी एक दूसरे से जुदा नहीं हो सकतीं। मोमिन के अन्दर सूखी लकड़ी की तरह अकड़ नहीं होती। बल्कि नर्म पौधे की तरह लचक होती है। उससे कोई कोताही हो जाये तो फ़ौरन ही वह अपनी ग़लती मान लेता है। किसी से मामला पड़े तो वह हमेशा उसके साथ नर्मी का बर्ताब करता है। किसी से विवाद हो जाये तो वह एक तरफ़ा तौर पर सुलह के लिये तैयार रहता है। हक़ के झगड़े में वह अपना हक़ भी दूसरे को देने पर राज़ी हो जाता है ताकि मामला शिद्दत के मरहले तक न पहुँचे।
एक इनसान जब दूसरे इनसान के साथ शिद्दत का मामला करता है तो उसकी वजह यह होती है कि वह उसको अपने जैसे एक इनसान का मामला समझता है। यही सायकोलॉजी आदमी को सख्त बनाती है। लेकिन मोमिन इसके विपरीत हर मामले को ईश्वर का मामला समझता है। यह सायकोलॉजी उसके अन्दर शिद्दत का ख़ात्मा कर देती है। एक इनसान दूसरे इनसान के मुक़ाबले में बड़ा हो सकता है लेकिन ईश्वर के मुक़ाबले में कोई भी इनसान न तो बड़ा है और न ताक़तवर। इसी फ़र्क का यह नतीजा है कि इनसान और इनसान का मामला हो तो उनमें से कोई छोटा नज़र आता है और कोई बड़ा मगर जब इनसान और ईश्वर का मामला हो तो सारे इनसान बराबर हैसियत इख्तियार कर लेते हैं। अब बड़ा सिर्फ एक परमेश्वर होता है और बाकी तमाम इनसान उसके मुक़ाबले में छोटे।
अलरिसाला, उर्दू मासिक, अंक जून 2003, पृष्ठ 5
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पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद स. का वचन भी प्यारा है और उसकी व्याख्या भी। इस वचन को कोई अपने जीवन में उतारे या न उतारे लेकिन एक मोमिन को तो फ़ौरन ही इसे अपने अन्दर उतार लेना चाहिये। अक्सर लोगों में योग्यता की कमी नहीं होती लेकिन उनके अन्दर एक प्रकार की अकड़ पायी जाती है जिसकी वजह से वे अपने जीवन में कई तरह की समस्याओं के शिकार हो जाते हैं। घर और ससुराल में भी उनका टकराव होता रहता है और रोज़गार के फ़ील्ड में भी। रिश्तेदारियों में तल्ख़ी पैदा हो जाती है और वर्किंग प्लेस में वे लोग नापसंदीदा बनकर रह जाते हैं। दूसरों के मुक़ाबले वे पिछड़ जाते हैं या फिर नौकरी ही उनको अलविदा कह देती है। इन हालात में भी वे अपने बर्ताव का जायज़ा लेने के बजाय यही कहते हैं कि ऐसा उनके साथ उनकी खुददारी की वजह से हो रहा है। दूसरे लोग चापलूस हैं इसलिये वे आगे बढ़ रहे हैं। ग़लत काम, बेशक न तो करना चाहिये और न ही होने देना चाहिये लेकिन जहां तक हो सके अंदाज़ नरमी का ही होना चाहिये। नसीहत के साथ नरमी न हो तो वह सामने वाली की इगो को ही हर्ट करेगी और फिर जो भी ताक़तवर होगा वह कमज़ोर पर सवार हो जायेगा। नेक नसीहत करने वाले खुददारों को इस पॉइंट का ख़ास ध्यान रखना चाहिये। ज़ुल्म के खि़लाफ़ आवाज़ उठानी चाहिये लेकिन लहजे में नरमी होनी ही चाहिये। इस एक बिन्दु का ध्यान रखने से भी बहुत सी समस्याओं का ख़ात्मा किया जा सकता है।
Tuesday, June 15, 2010
The night जिसने कंजूसी की और (लोगों की समस्याओं से) बेपरवाह रहा और भलाई को झुठलाया तो ‘हम‘ उसको कठिन मार्ग की सुविधा देंगे और उसका माल उसके काम न आयेगा जब वह गड्ढे में गिरेगा।
आरम्भ परमेश्वर के नाम से जो अनन्त दयावान और सदा कृपाशील है
साक्षी है रात जबकि वह छा जाये और साक्षी है दिन जबकि वह रौशन हो और साक्षी है उसकी बनाई सृष्टि, नर और मादा कि तुम्हारी कोशिशें अलग अलग हैं। सो जिसने दिया और वह डरा और उसने भलाई को सच माना तो ‘हम‘ आसान कर देंगे उसको ‘सहज मार्ग‘ और जिसने कंजूसी की और (लोगों की समस्याओं से) बेपरवाह रहा और भलाई को झुठलाया तो ‘हम‘ उसको कठिन मार्ग की सुविधा देंगे और उसका माल उसके काम न आयेगा जब वह गड्ढे में गिरेगा।
बेशक ‘हमारे‘ ज़िम्मे है राह बताना और बेशक हमारे अख्तियार में है लोक व परलोक। सो हमने तुमको डरा दिया भड़कती आग से। उसमें वही पड़ेगा जो बड़ा बदबख्त है, जिसने झुठलाया और मुंह फेर लिया और ‘हम‘ उससे बचा देंगे ज़्यादा डरने वाले को, जो (लोकहित में) अपना माल देता है शुद्धि पाने के लिये और उसपर किसी का अहसान नहीं जिसका बदला उसे देना हो मगर सिर्फ़ अपने पालनहार की रज़ा के लिये और बहुत जल्द वह खुश हो जायेगा।
अलकुरआन,सूरह अल्लैल,1-21
Monday, June 14, 2010
True spirituality आप ईश्वर से रोज़ मिलते हैं लेकिन पहचानते नहीं। / खुददार शहरोज़ के हवाले से एक सनातन सच का बयान
हज़रत अबू हुरैरह रज़ि. से रिवायत है कि परमेश्वर के दूत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कहा कि परमेश्वर क़ियामत के दिन किसी बन्दे से कहेगाः ‘‘हे आदम के बेटे! मैं बीमार हुआ तूने मेरी बीमारपुर्सी नहीं की।‘‘ वह बन्दा कहेगा कि हे पालनहार! मैं तेरी बीमारपुर्सी कैसे करता तू तो सारे जगत का पालनहार है ?
वह कहेगाः ‘‘क्या तू नहीं जानता था कि मेरा अमुक बन्दा बीमार है तूने उसकी बीमारपुर्सी नहीं की ? क्या तू नहीं जानता था कि अगर तू उसकी बीमारपुर्सी करता तो अवश्य ही तू मुझे उसके पास पाता। हे आदम के बेटे! मैंने तुझसे खाना मांगा लेकिन तूने मुझे खाना नहीं खिलाया।‘‘
बन्दा कहेगाः‘‘ हे पालनहार! मैं तुझे कैसे खिलाता तू तो जगत का पालनहार है ?
वह कहेगाः‘‘क्या तुझे नहीं मालूम कि मेरे अमुक बन्दे ने तुझसे खाना मांगा लेकिन तूने उसे नहीं खिलाया। क्या तूने न जाना कि अगर तूने उसे खिलाया होता तो उसको मेरे पास पाता।
हे आदम के बेटे! मैंने तुझसे पानी मांगा लेकिन तूने मुझे पानी न पिलाया।‘‘
बन्दा कहेगाः‘‘हे पालनहार! मैं तुझे कैसे पानी पिलाता तू तो सारे जगत का पालनहार है।‘‘
वह कहेगाः‘‘मेरे अमुक बन्दे ने तुझसे पानी मांगा लेकिन तूने उसे न पिलाया अगर तू उसे पानी पिलाता तो उसे मेरे पास पाता।‘‘ - हदीस ग्रंथ मुस्लिम
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हरेक रचनाकार को अपनी रचनाओं से प्रेम होता है। ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है मानव। उसने मनुष्य को दुनिया में भेजा ताकि जो कुछ ज्ञान उसने मनुष्य के अंदर रखा है वह उसे बरतना सीख ले। यह दुनिया मनुष्य के लिये प्रशिक्षण की जगह भी है और परीक्षा की भी। मानव की विशेषता है मानवता और मानवता के प्रधान गुण हैं दया, प्रेम, करूणा और उपकार। हालात के उतार चढ़ाव की वजह से समाज में हमेशा ऐसे लोग रहते हैं जिन्हें सहायता की ज़रूरत रहती है। हरेक समाज में उनके कल्याण के लिये सामूहिक रूप से फ़ण्ड की व्यवस्था की जाती है, हमारे देश में भी है। लेकिन दूसरी योजनाओं की तरह यह फ़ण्ड भी उनके हक़दारों तक नहीं पहुंच पाता। ऐसे में समाज के सदस्यों को ही अपने बीच के ज़रूरतमंदों का ध्यान रखना होगा। भारत जैसे आध्यात्मिक देश के नागरिकों के लिये इसकी अहमियत दूसरों के मुक़ाबले और भी ज़्यादा है। अपने रचयिता की दया, करूणा और सहायता पाने का यह एक सरल उपाय है कि आप खुद को भी इन ईश्वरीय गुणों का दर्पण बना लें। आपको देखकर लोगों को ईश्वर की याद आये। आज आप जो भी करेंगे , आने वाले वक्त में आप उसका फल खुद ही उठायेंगे।
शहरोज़ भाई की पुकार को ब्लॉगर्स ने अनसुना नहीं किया है यह अच्छी बात है लेकिन कई शहरोज़ ऐसे भी हैं जो अपनी समस्या को ढंग से बताने की लियाक़त नहीं रखते।
कुछ लोग खुद को मुसीबत का मारा बताकर लोगों को ठगते हैं उनकी शिनाख्त तो ज़रूरी है लेकिन सच्चे ज़रूरतमंदों को पहचानना भी ज़रूरी है।
रात के ढाई तीन बजे, जबकि दुनिया सो रही थी तब भी कुछ लोग जाग रहे थे। हिन्दु इसे ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं और मुसलमान इसे तहज्जुद का वक्त कहते हैं। कोई ध्यान में समाधि का अनुभव कर रहा था और कोई नमाज़ में सज्दे कर रहा था। इन्हीं लोगों के दरम्यान
भाई जनाब सतीश सक्सेना जी शहरोज़ भाई की परेशानी को दूर करने के लिये चिंतित थे।
इनमें से कोई भी एक चीज़ दूसरे का बदल नहीं है लेकिन हमें चाहिये कि हमारा ध्यान और इबादत हमें उपकारी बनाये और हमारा उपकार हमें सच्चे मालिक के उपकारों की ऐसे याद दिलाये कि
हम मालिक के सामने झुक जायें और अपनी वह चीज़ अपने प्रभु को अर्पित कर दें जिसका नाम दिल है।
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ब्रह्म मुहूर्त
Sunday, June 13, 2010
Muslim means ? मैं मज़ार पर नहीं जाता और न ही मुझे इस पर गर्व है कि मैं मुस्लिम हूं।
1- यहां सब शांति शांति है। तो क्यों न ऐसे में जनाब सतीश सक्सेना साहब को ही छेड़ लिया जाये। रोते हुए बच्चों को हंसाने की ज़िम्मेदारी भी तो उन्हीं के सिर है। जनाब पेरिस गये तो वहां से भी किसी बच्चे की फ़ोटो खींच लाए। बचपन खोते ज़िम्मेदार बच्चों की गिनती दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। ख़ैर, बच्चे ही क्या बड़े भी रोते हैं तो जनाब उनके लिए भी अपील जारी कर देते हैं। ब्लॉगर्स पर बिल्कुल चित्रगुप्त स्टाइल में नज़र रखते हैं और यह बिल्कुल स्वाभाविक भी है क्योंकि माना जाता है कि चित्रगुप्त जी से उनकी बिरादरी का रिश्तेदारी का लिंक है।
बहरहाल बहुत पहले उनकी एक पोस्ट का शीर्षक किसी ने मुझे फ़ोन पर बताया था तभी मेरे मन में अपने लिए यह लाइन उभरी थी कि मैं मज़ार पर नहीं जाता और न ही मुझे इस पर गर्व है कि मैं मुस्लिम हूं।
ऐसा इसलिए है कि सभी बुजुर्गों के मज़ारों पर जाना इस्लाम में नहीं है। इस्लाम का अर्थ है समर्पण और मुस्लिम वह है जो अपने विचार और कामों को सच्चे मालिक के हुक्म के अधीन कर दे।
मैं जब भी अपना जायज़ा लेता हूं तो मुझे अपनी कमियां ही नज़र आती हैं अभी तक समर्पण के उस वांछित स्तर तक मैं नहीं पहुंचा जिसका आदर्श मनु महाराज, हज़रत इबराहीम और पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद स. ने हमारे सामने रखा है और जिसे उनके पवित्र सत्संगियों ने प्रत्यक्ष करके दिखाया है। इस्लाम मेरे लिए गर्व यानि फ़ख्र की नहीं बल्कि फ़िक्र की बात है। फ़िक्र इस बात की कि क्या मैं इस्लाम अर्थात समर्पण के अपने दावे में सच्चा हूं ?
मोमिन की तो 2 ही हालतें हैं कि मोमिन मुश्किलों और आज़माईशों पर सब्र करता है और नेमत पर शुक्र। फ़ख्र करने की तालीम इस्लाम नहीं देता इसीलिये मैं इस्लाम पर गर्व नहीं करता। अक्सर लोगों ने वे काम तो छोड़ दिये जिन्हें करना था और उन कामों को करने लगे जिन्हें नहीं करना था, गर्व करना भी उन्हीं में से एक है।
2- पेरिस रिटर्न जनाब सतीश जी आजकल कुछ फ़ुर्सत में नज़र आ रहे हैं क्योंकि ताज़ा पोस्ट को उन्होंने तब पब्लिश किया जबकि दो तिहाई रात गुज़र चुकी थी।
एक निस्तेज से नौजवान को देखकर उन्होंने कुछ ऐसा लिखा कि हम पढ़ते ही उनके मौहल्ले की तरफ़ दौड़ लिये। हस्बे मामूल सांकल लगी हुई थी फिर भी अपनी चिठ्ठी दरवाज़े के नीचे से अन्दर सरका ही दी। ख़ैर जनाब ने उसे पढ़ा भी और दुनिया को पढ़वाया भी और फिर क़हक़हा मारकर बताया कि मैं तो वाइन पीता ही नहीं।
ठीक है साहब, नहीं पीते तो अच्छा है लेकिन सुबह की चाय तो भाभी के साथ पी लिया कीजिये। आप रात को 4.00 बजे सोयेंगे तो फिर उठेंगे कब ?
फिर अगर वे आपको चाय बनाकर न दें और आप बर्दाश्त कर लें तो आपका क्या कमाल ?
कमाल तो हमारी मां समान भाभी का है इंजीनियर साहब कि आपका कम्प्यूटर अभी तक सलामत है और सिर आदि भी।
क्या मैं यहां थोड़ा सा मुस्कुरा सकता हूं ? ---:)
मैं तो अपनी हालत जानता हूं कि कैसे अपनी बीवी की फटकार झेलता हूं और इसी पर आपकी हालत को क़यास कर सकता हूं। अब तो बच्चे भी मुझे कम्प्यूटर वाले अब्बू कहने लगे हैं।
Saturday, June 12, 2010
भाई तारकेश्वर गिरी ने बुरक़े और परदे के बारे में लिखकर सवाल भेजा तो मौलाना ने जवाब दिया -‘ नबी स. के ज़माने बुरक़ा नहीं था। हनफ़ी आलिम कहते हैं कि तीन चीज़ें Exempted हैं .
भाई तारकेश्वर गिरी ने बुरक़े और परदे के बारे में लिखकर सवाल भेजा तो भाई रजत मल्होत्रा ने उसे पढ़कर मौलाना को सुनाया।
मौलाना ने जवाब दिया -‘ नबी स. के ज़माने बुरक़ा नहीं था। हनफ़ी आलिम कहते हैं कि तीन चीज़ें Exempted हैं-
1- वज्ह यानि चेहरा
2- कफ़्फ़ैन यानि दोनों हाथ गटटों तक
3- क़दमैन यानि दोनों पैर टख़नों तक
‘ख़ातूने इस्लाम‘ में मैंने इस पर लिखा है।
भाई शाहनवाज़ सिददीक़ी ने इससे पहले सवाल किया था कि क्या सब्र के ज़रिये आतंकवाद से लड़ा जा सकता है ?
मौलाना साहब ने गांधी जी की मिसाल देकर कहा कि बिल्कुल लड़ा जा सकता है।
मौलाना ख़ान साहब की उम्र लगभग 100 साल है और उसके बावजूद उनकी सेहत क़ाबिले रश्क है। मौलाना अंग्रेज़ी अल्फ़ाज़ का बेतकल्लुफ़ इस्तेमाल करते हैं और सवालों का स्वागत करते हैं, जिसकी वजह से आधुनिक शिक्षा प्राप्त नई नस्ल उनसे बेहिचक सवाल करती है। उनकी मजलिस में वे मर्द औरतें भी होती हैं जो बरसों से उनसे सीख रहे हैं और वे लड़के लड़कियां भी होते हैं जो बिल्कुल पहली ही बार आये हुए होते हैं। हिजाब की पाबन्दी करने वाली औरतों और लड़कियों के साथ बिना हिजाब के नज़र आने वाली लड़कियां भी होती हैं। धीरे धीरे लोगों की ज़िंदगियां बदलती चली जाती हैं। मौलाना उनकी सोच और अमल में यह बदलाव उन्हें ज्ञान देकर लाते हैं और हमेशा खुद भी कुछ नया सीखने के लिये तैयार रहते हैं।
मौलाना कहते हैं कि मैं आज भी पूरे दिन मौक़ा ढूंढता रहता हूं कि मैं कह सकूं कि I was wrong .
ताकि फ़रिश्तों के रिकॉर्ड में मेरा नाम दर्ज हो जाये।
मौलाना में विनय का यह भाव लोगों की सोच को पहली ही मुलाक़ात में बदल देता है।
Friday, June 11, 2010
The Prophet पैग़म्बर साहब स. की पूरी ज़िन्दगी सब्र की पॉलिसी है।
पैग़म्बर साहब स. की पूरी ज़िन्दगी सब्र की पॉलिसी है।
हुज़ूर सल्ललाहु अलैहि वसल्लम को एक बार एक तंग पहाड़ी दर्रे से गुज़रना पड़ा। लोगों ने उनके सामने मसला रखा कि कैसे इस दर्रे से गुज़रा जाए ?
पैग़म्बर सल्ललाहु अलैहि वसल्लम ने उनसे उस दर्रे का नाम पूछा तो उन्होंने कहा कि इसका नाम ‘अज़्ज़ाएक़ा‘ यानि तंग है।
आप स. ने कहा कि इसका नाम ‘अलयुसरा‘ यानि आसान है।
आपके कहने पर फैले हुए लोग क़तार बनाकर उस दर्रे से गुज़र गये।
Wise plan बनाने के ठंडा दिमाग़ चाहिये। सब्र का मतलब यही है।
मौलाना वहीदुददीन ख़ान साहब ने अपनी ज़िंदगी से भी मिसाल देकर समझाया।अपने बच्चे शम्सुल इस्लाम की कम उम्र में ही मरने का वाक़या सुनाया कि उसकी मौत के वक्त वे घर पर मौजूद नहीं थे। बच्चे की मौत की ख़बर उन्हें टेलीग्राम से मिली। मौलाना ने टेलीग्राम पढ़ और वुज़ू करके नमाज़ अदा की और चंद सेकेंड में ही टेंशन फ़्री हो गये।
मौलाना ने कहा कि आज हरेक की ज़िंदगी में टेंशन है। सब्र टेंशन से आज़ाद करता है।
क्लास में मौजूद सभी औरत मर्द आला तालीमयाफ़्ता थे। सभी गंभीरता से मौलाना की बातों को सुन भी रहे थे और नोट भी कर रहे थे। कोई लैपटॉप पर नोट कर रहा था और कोई डायरी में।
हुज़ूर सल्ललाहु अलैहि वसल्लम को एक बार एक तंग पहाड़ी दर्रे से गुज़रना पड़ा। लोगों ने उनके सामने मसला रखा कि कैसे इस दर्रे से गुज़रा जाए ?
पैग़म्बर सल्ललाहु अलैहि वसल्लम ने उनसे उस दर्रे का नाम पूछा तो उन्होंने कहा कि इसका नाम ‘अज़्ज़ाएक़ा‘ यानि तंग है।
आप स. ने कहा कि इसका नाम ‘अलयुसरा‘ यानि आसान है।
आपके कहने पर फैले हुए लोग क़तार बनाकर उस दर्रे से गुज़र गये।
Wise plan बनाने के ठंडा दिमाग़ चाहिये। सब्र का मतलब यही है।
मौलाना वहीदुददीन ख़ान साहब ने अपनी ज़िंदगी से भी मिसाल देकर समझाया।अपने बच्चे शम्सुल इस्लाम की कम उम्र में ही मरने का वाक़या सुनाया कि उसकी मौत के वक्त वे घर पर मौजूद नहीं थे। बच्चे की मौत की ख़बर उन्हें टेलीग्राम से मिली। मौलाना ने टेलीग्राम पढ़ और वुज़ू करके नमाज़ अदा की और चंद सेकेंड में ही टेंशन फ़्री हो गये।
मौलाना ने कहा कि आज हरेक की ज़िंदगी में टेंशन है। सब्र टेंशन से आज़ाद करता है।
क्लास में मौजूद सभी औरत मर्द आला तालीमयाफ़्ता थे। सभी गंभीरता से मौलाना की बातों को सुन भी रहे थे और नोट भी कर रहे थे। कोई लैपटॉप पर नोट कर रहा था और कोई डायरी में।
Minus voting अच्छाई या बुराई
लेख का केवल अच्छा और सार्थक होना ही उसके HOT मेँ आने के लिये काफ़ी नहीँ है । अगर लेख मेँ अंधविश्वास का विरोध किया गया है और लेखक अकेला है तो अंधविश्वास मेँ आकंठ डूबे हुए लोग उसे पसंद का वोट और कमेँट न देकर भी KILL कर देते हैँ । अगर लेख को विश्वासी भाइयोँ की सपोर्ट मिल तो गुटबाज़ ब्लागर फिर ब्लागवाणी को इमोशनली बलैकमेल करते हैँ । ब्लागवाणी का स्टाफ़ गुटबाज़ोँ के दबाव मेँ आकर सार्थक पोस्ट को नीचे ही अटकाये रखती है । मुझसे कम पाठक , प्लस वोट और कमेँट्स वाली पोस्टस को आप मेरी पोस्टस से आगे जाता हुआ रोज़ाना देख सकते हैँ । मेरा हक़ मारकर ब्लागवाणी को भला क्या मिलेगा सिवाय अपनी विश्वसनीयता गँवाने के ? और एक व्यापारी के लिये साख की वही अहमियत है जो किसी नेक औरत के लिये उसके सतीत्व की होती है । अब देखना यह है कि ब्लागवाणी को अपने सतीत्व की कितनी परवाह है ?
Thursday, June 10, 2010
You have to delink problem to opportunities . अरब देश अपनी ग़लत पॉलिसियों की क़ीमत अदा कर रहे हैं।
कश्मीर के मसले को भी मुसलमानों ने ही बिगाड़ा है। सन् 1949 में वल्र्ड वॉर सेकंड में जापान ने ओकिनावा जज़ीरे पर क़ब्ज़ा कर लिया। जापान के रिकन्सट्रक्शन के लिए वहां के रहनुमा ने 30 का एक प्रोग्राम बनाया। उसने ओकिनावा को वैसे ही छोड़ दिया। जापान इकॉनॉमिक सुपर पॉवर बनकर उभरा और 1972 में अमेरिका को वहां से अपना क़ब्ज़ा हटा लिया। इसे ‘डीलिंकिंग पॉलिसी‘ कहा जाता है। पाकिस्तान को बिज़नेस की अपॉरचुनिटी पर ध्यान देना चाहिये और कश्मीर के मसले बातचीत के लिए मेज़ पर छोड़ देना चाहिये। You have to delink problem to opportunities .
जापान ने सब्र किया और इकॉनॉमिक सुपर पॉवर बन गया और पाकिस्तान ने बेसब्री दिखायी और आज वह एक फ़ेल्ड स्टेट बनकर रह गया है। वह आज अमेरिका की मदद से चल रहा है।
यही हाल सददाम हुसैन का हुआ। 57 मुस्लिम देश हैं। सब जगह इस्राईल को सबसे बड़ा दुश्मन बताया जाता है। मैं कहता हूं कि अरब देश अपनी ग़लत पॉलिसियों की क़ीमत अदा कर रहे हैं।
इस मजलिस में हमारे साथ भाई तारकेश्वर गिरी, डा. अयाज़, मास्टर अनवार और भाई शाहनवाज़ भी थे। सभी को एक बिल्कुल रूहानी अहसास हो रहा था।
सहनशीलता सारी कामयाबियों की कुंजी है, जब कोई व्यक्ति सहनशीलता धारण करता है तो सारी प्राकृतिक शक्तियां उसकी सहायता करना शुरू कर देती है। वहीँ असहनशीलता अर्थात बेसब्री स्थिति को सामान्य करने की प्राकृतिक प्रक्रिया को समाप्त कर देती है।
मौलाना बिना किसी लाग लपेट के अपनी बात कह रहे थे और मैं सोच रहा था कि यह सब आज एक सपना हो चुका है। आज जितने भी वाद हैं वे दरअस्ल विवाद हैं न कि विवादों का समाधान । सारे मसलों का हल सच को जानना और मानना है।
Wednesday, June 9, 2010
Pakistan is a failed state पाकिस्तान नफ़रत में अंधा हो गया है। उसने 4 बार इन्डिया पर अटैक किया और चारों बार हारा। कश्मीर के मसले को भी मुसलमानों ने ही बिगाड़ा है।
बेशक मुश्किल के साथ आसानी है। -अलकुरआन
प्रॉब्लम और अपॉरचुनिटीज़ दोनों ‘ट्विन‘ हैं। दोनों साथ साथ होती हैं। अगर आप भड़क उठते हैं तो आप अंधे हो जाते हैं। पाकिस्तान नफ़रत में अंधा हो गया है। उसने 4 बार इन्डिया पर अटैक किया और चारों बार हारा। उसे चाहिये था कि समस्याओं को बातचीत के ज़रिये हल करता और अपॉरचुनिटीज़ को इस्तेमाल करता। पाकिस्तान के पास सुई गैस है वह उसे इन्डिया को बेचता और उसे कोयले की ज़रूरत है वह कोयला यहां से ख़रीदता। पाकिस्तान आस्ट्रेलिया से कोयला ख़रीदता है जोकि उसे कई गुना महंगा पड़ता है। पाकिस्तान ने अपॉरचुनिटीज़ को नहीं देखा। मैं इसे
‘डीलिंकिंग की पॉलिसी‘ कहता हूं।
कश्मीर के मसले को भी मुसलमानों ने ही बिगाड़ा है।
मौलाना वहीदुददीन ख़ान साहब का लेक्चर जारी था जिसे हाज़िरीने मजलिस के साथ साथ दुनिया के दूर दराज़ में बैठे लोग भी इंटरनेट पर देख रहे थे। मौलाना के लेक्चर को प्रत्येक रविवार को भारतीय समय के अनुसार 10 : 30 बजे सुबह देखा जा सकता है। इस लेक्चर को इस लिंक पर देखा जा सकता है।
http://www.youtube.com/watch?v=cJvIgiII5QU&feature=related
मौलाना बिना किसी लाग लपेट के सच को खुद भी स्वीकार करते हैं और दूसरों को भी सच को जानने मानने की तालीम देते हैं और हक़ीक़त भी यही है कि जब तक हमारे अन्दर यह गुण पैदा नहीं होगा हमारे मसलों का हल होने वाला नहीं है।
क्लास के बाद भाई तारकेश्वर गिरी जी के तास्सुरात भी यही थे कि यहां जो कुछ देखा वह उससे बहुत अलग है जो मेरे दिमाग़ में था। मौलाना ख़ान साहब और गिरी जी, दोनों में दो बातें समान हैं। एक तो यह कि दोनों ही सच को बेखटके स्वीकारते हैं और दूसरी बात यह कि दोनों ही आज़मगढ़ के बाशिन्दे हैं।
भाई शाहनवाज़ ने भी मौलाना के अनमोल मोतियों से अपनी झोली भर ली।
प्रॉब्लम और अपॉरचुनिटीज़ दोनों ‘ट्विन‘ हैं। दोनों साथ साथ होती हैं। अगर आप भड़क उठते हैं तो आप अंधे हो जाते हैं। पाकिस्तान नफ़रत में अंधा हो गया है। उसने 4 बार इन्डिया पर अटैक किया और चारों बार हारा। उसे चाहिये था कि समस्याओं को बातचीत के ज़रिये हल करता और अपॉरचुनिटीज़ को इस्तेमाल करता। पाकिस्तान के पास सुई गैस है वह उसे इन्डिया को बेचता और उसे कोयले की ज़रूरत है वह कोयला यहां से ख़रीदता। पाकिस्तान आस्ट्रेलिया से कोयला ख़रीदता है जोकि उसे कई गुना महंगा पड़ता है। पाकिस्तान ने अपॉरचुनिटीज़ को नहीं देखा। मैं इसे
‘डीलिंकिंग की पॉलिसी‘ कहता हूं।
कश्मीर के मसले को भी मुसलमानों ने ही बिगाड़ा है।
मौलाना वहीदुददीन ख़ान साहब का लेक्चर जारी था जिसे हाज़िरीने मजलिस के साथ साथ दुनिया के दूर दराज़ में बैठे लोग भी इंटरनेट पर देख रहे थे। मौलाना के लेक्चर को प्रत्येक रविवार को भारतीय समय के अनुसार 10 : 30 बजे सुबह देखा जा सकता है। इस लेक्चर को इस लिंक पर देखा जा सकता है।
http://www.youtube.com/watch?v=cJvIgiII5QU&feature=related
मौलाना बिना किसी लाग लपेट के सच को खुद भी स्वीकार करते हैं और दूसरों को भी सच को जानने मानने की तालीम देते हैं और हक़ीक़त भी यही है कि जब तक हमारे अन्दर यह गुण पैदा नहीं होगा हमारे मसलों का हल होने वाला नहीं है।
क्लास के बाद भाई तारकेश्वर गिरी जी के तास्सुरात भी यही थे कि यहां जो कुछ देखा वह उससे बहुत अलग है जो मेरे दिमाग़ में था। मौलाना ख़ान साहब और गिरी जी, दोनों में दो बातें समान हैं। एक तो यह कि दोनों ही सच को बेखटके स्वीकारते हैं और दूसरी बात यह कि दोनों ही आज़मगढ़ के बाशिन्दे हैं।
भाई शाहनवाज़ ने भी मौलाना के अनमोल मोतियों से अपनी झोली भर ली।
Tuesday, June 8, 2010
The result of patience सब्र का फल
नफरत में आदमी अंधा हो जाता है । वह wise planning नहीं कर पाता । सब्र करने वाला wise planning करने की हालत में होता है । मुसीबत का खात्मा सब्र से होता है । जबकि नफरत मुसीबतों को और बढ़ा देती है । - मौलाना वहीदुददीन खाँ
Sunday, June 6, 2010
Power of patience सब्र की ताक़त के बारे में जाना दिल्ली ब्लोगर मजलिस ने
मेरे अलावा डॉ अयाज़, मास्टर अनवार, भाई शाहनवाज़ भी मौजूद थे और मानो या ना मानो अथवा आश्चर्य जनक किंतु सत्य की उक्ति को चरितार्थ करते हुए मेरे साथ भाई तारकेश्वर गिरी जी भी वहां तशरीफ फर्मा थे। पूरा वक्त बेहतरीन और यादगार गुज़रा। मेरे साथ के लोग इसके गवाह हैं।
सब्र की ताक़त के बारे में जाना दिल्ली ब्लोगर मजलिस ने
बेशक परमेश्वर सब्र करने वालों के साथ है। - अलकुरआन
मौलाना वहीदुददीन ख़ान साहब ने अरबी में आयत पढ़ने के बाद उसका अर्थ बताने के बाद कहा कि जान लो कामयाबी सब्र के साथ है। जब इनसान सब्र करता है तो सारी नेचुरल फ़ोर्सेज़ उसे सपोर्ट करती हैं जैसे कि वे किसी चोट का हील करने में करती हैं।
एक पश्चिमी स्कॉलर ने एक किताब ‘द हन्ड्रेड‘ लिखी। उसने दुनिया के सौ कामयाब लोगों की सूची बनाई तो उसने सबसे ऊपर पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद स. का नाम रखा। उसने उनकी कामयाबी का राज़ नहीं लिखा।
पैगम्बर स. की पूरी ज़िंदगी सब्र का बेहतरीन नमूना है। उनकी कामयाबी के पीछे सब्र की ताकत है।
कुरआन में आया है कि:
सब्र करने वाले अनलिमिटेड बदला पाएंगे।
यह खुशखबरी सिर्फ सब्र के लिए दी गई है। ऐसी खुशखबरी नमाज़, रोज़ा और हज के बारे में नहीं दी गई है।
आज सुबह 10.30 बजे शुरू होने वाली इस क्लास में हर एक धर्म मत के औरत मर्द शामिल थे। ब्लॉग जगत से मेरे अलावा डॉ अयाज़, मास्टर अनवार और भाई शाहनवाज़ सिद्दीकी प्रेम रस लुटाते हुए मौजूद थे और मानो या ना मानो अथवा आश्चर्य जनक किंतु सत्य की उक्ति को चरितार्थ करते हुए मेरे साथ भाई तारकेश्वर गिरी जी भी वहां तशरीफ फर्मा थे। पूरा वक्त बेहतरीन और यादगार गुज़रा। मेरे साथ के लोग इसके गवाह हैं।
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Saturday, June 5, 2010
Namaz नमाज़ को उसकी सम्पूर्णता में अदा करना ही इनसान को उसकी मन्ज़िल तक पहुंचाने का एकमात्र मार्ग है।
हे पैग़म्बर! जब आपसे मेरे बन्दे मेरे बारे में पूछें तो उन्हें बता दीजिये कि मैं तो क़रीब ही हूं। मैं सुनता हूं पुकारने वाले की पुकार जब वह मुझे पुकारता है सो उन्हें चाहिये कि वे भी मेरी पुकार पर ध्यान दें ताकि वे सफलता का मार्ग पा जायें। - अलकुरआन
परमेश्वर दूर नहीं है बल्कि क़रीब है, सामने है, साथ है लेकिन हमें बोध नहीं है। हम परमेश्वर के स्वरूप को नहीं पहचानते लेकिन हम दुनिया पर यह ज़ाहिर करते हैं कि हम जानते हैं। अज्ञान और अहंकार हमें सत्य को स्वीकार करने नहीं देता। मस्जिदों से मालिक के दरबार में हाज़िर होकर ज्ञान पाने के लिए पुकारा जाता है लेकिन अक्सर लोग सुनकर भी अनसुना कर देते हैं। मालिक अजन्मा है लेकिन लोग उसे एवॉइड करके उनकी पूजा में लगे रहते हैं जिन्होंने जन्म लिया और मर गये।
नम + अज = नमाज अर्थात अजन्मे को नमन करना।
नमाज़ में बन्दा अपने रब के सामने झुक जाता है, अपने अहंकार का त्याग करता है। वह अपने मालिक का हुक्म अर्थात कुरआन सुनता है जो उसके अज्ञान का अन्त कर देता है। नमाज़ से इनसान को वह सब कुछ मिलता है जो बन्दे को रब तक पहुंचाने के लिए ज़रूरी है। नमाज़ को उसकी सम्पूर्णता में अदा करना ही इनसान को उसकी मन्ज़िल तक पहुंचाने का एकमात्र मार्ग है।
Friday, June 4, 2010
www.cpsglobal.org अगर मौलाना वहीदुददीन ख़ान साहब को आपने अभी तक नहीं देखा, उनसे नहीं मिले हैं तो आप कुछ यादगार पल के अहसास से खुद को महरूम रखे हुए हैं
अगर आप दिल्ली या ग़ाज़ियाबाद रहते हैं और मौलाना वहीदुददीन ख़ान साहब को आपने अभी तक नहीं देखा, उनसे नहीं मिले हैं तो आप कुछ यादगार पल के अहसास खुद को महरूम रखे हुए हैं। बरसों पहले मैं उनसे मिला था लेकिन अब से डेढ़ साल पहले फिर उनसे मिलना नसीब हुआ तो देखा कि उनका लेक्चर रूम हरेक धर्म मत के पढ़े लिखे लोगों से भरा हुआ है। पहले उनका लेक्चर हुआ और फिर उनसे लोगों ने सवाल किये। उनके प्रोग्राम को भाई रजत मल्होत्रा कन्डक्ट कर रहे थे। सारी बातचीत की वीडियो कवरेज की जा रही थी। मैं अब तक जितने भी मौलाना साहिबान से मिला हूं उन सबमें मौलाना वहीदुददीन ख़ान साहब ने आधुनिक तकनीक का सबसे उम्दा इस्तेमाल किया है।
जिस बात को वे अपनी तहक़ीक़ में सच पाते हैं उसे बिना किसी लाग लपेट के कह देते हैं। उनकी इस आदत की वजह से परम्परागत मुस्लिम समाज में उनके बारे में नाराज़गी और बदगुमानी भी पाई जाती है। कुछ माह पहले विश्व पुस्तक मेले में ‘धर्म की बात‘ के स्टाल पर जाना हुआ तो पहले उनसे मुलाक़ात की। उनके पास जाने के बाद आदमी को हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई और दीगर मतानुयायियों के बीच प्यार के अंकुर फूटते हुए महसूस होते हैं।
रविवार को उनकी क्लास में औरत मर्द, हरेक ख़ास ओ आम को आने की इजाज़त है। उनके लेक्चर का इन्टरनेट पर भी लाइव टेलीकास्ट किया जाता है।
समय सुबह 9.00 बजे
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Wednesday, June 2, 2010
Iman and wisdom और वे (ईमान वाले) ऐसे हैं कि जब उन्हें उनके रब की आयतों के ज़रिये नसीहत की जाती है तो वे उनपर बहरे और अन्धे होकर नहीं गिरते।
दयालु पालनहार का फ़रमान है-
और वे (ईमान वाले) ऐसे हैं कि जब उन्हें उनके रब की आयतों के ज़रिये नसीहत की जाती है तो वे उनपर बहरे और अन्धे होकर नहीं गिरते।
अलफ़ुरक़ान, 73
जो शख्स यह जानता है कि जो कुछ तुम्हारे पालनहार की तरफ़ से उतारा गया है वह सत्य है, क्या वह उसके मानिन्द हो सकता है जो अन्धा है ?, नसीहत तो अक्ल वाले लोग ही कुबूल करते हैं।
अलरअद, 19
और वे जो समूद थे, तो हमने उन्हें हिदायत का रास्ता दिखाया मगर उन्होंने हिदायत के मुक़ाबले अन्धेपन को पसन्द किया तो उन्हें अपमानजनक यातना के कड़के ने पकड़ लिया उनकी बदकारियों की वजह से । और हमने उन लोगों को मुक्ति दी जो ईमान लाये और डरने वाले थे।
हामीम सज्दा, 17- 18
सच को जानने और मानने का नाम ईमान है। सच को जानने के लिए अक्ल की ज़रूरत होती है और उसे मानने के लिए इनसान को अपने जज़्बात से ऊपर भी उठना पड़ता है। इनसान की कामयाबी इनसान बनने में है। इनसान बनने के लिए उसमें नैतिक गुणों का होना बहुत ज़रूरी है। इनसान बनने के लिए फ़र्ज़ का अदा करना भी ज़रूरी है।
इनसान पर इनसानों के भी हक़ है और उन चीज़ों के भी, जिन्हें वह बरतता है। इन सबकी अदायगी में संतुलन भी ज़रूरी है। जो आदमी ईश्वर को नहीं मानते वे उसकी हिदायत को भी नहीं मानते और न ही वे उसकी ओर से आने वाले किसी मार्गदर्शक का अनुसरण करना ही ज़रूरी समझते हैं। वे पाप पुण्य को भी नहीं मानते। जाहिल लोग अपनी जहालत के कारण ऐसा करते हैं और पढ़े लिखे लोग अपनी बातों को दर्शन का रूप दे देते हैं। बहुत से लोग बहुत से मतों को जन्म देते हैं और हरेक देश और समाज की नैतिकता, हक़ और फ़र्ज़ में बुनियादी अन्तर आ जाता है। इसी अन्तर से असंतुलन पैदा होता है जो अन्ततः सभ्यता के विनाश का कारण बनता है।
समूद भी इसी वजह से नष्ट हुए और आज भी मानव जाति फिर उसी ग़लती को दोहरा रही है। अक्लमन्दी का तक़ाज़ा तो यह है कि पिछली नष्ट हो चुकी सभ्यताओं की ग़लतियों को न दोहराया जाए।
परमेश्वर ईमान वाले बन्दों का गुण बताता है कि वे उसके वचन पर भी अंधे बहरे होकर नहीं गिरते अर्थात उसे मानने के लिए अपनी अक्ल का बेहतरीन इस्तेमाल करते हैं। इसलाम का यह बुनियादी सबक़ है कि ईमान वाला अपनी अक्ल को हमेशा अलर्ट रखे।
Tuesday, June 1, 2010
Everyone will get the result soon . भलाई या बुराई जो कोई भी करेगा वह उसका फल ज़रूर पायेगा चाहे वह औरत हो या मर्द
दयालु और न्यायकारी परमेश्वर कहता है-
122. और जो लोग ईमान लाये और उन्होंने नेक काम किये उनको हम ऐसे बाग़ों में दाखि़ल करेंगे जिनके नीचे नहरें जारी होंगी, परमेश्वर का वादा सच्चा है और परमेश्वर से बढ़कर कौन अपनी बात में सच्चा होगा ?
123. न तुम्हारी इच्छा पर है और न पूर्व ईशग्रन्थ वालों की इच्छा पर। जो कोई भी बुरा करेगा उसका बदला पायेगा और परमेश्वर के सिवा अपना कोई हिमायती और मददगार न पायेगा।
124. और जो कोई नेक काम करेगा चाहे वह मर्द हो या औरत बशर्ते कि वह विश्वासी हो तो ऐसे लोग स्वर्ग में प्रवेश करेंगे और उनपर ज़रा भी ज़ुल्म न होगा।
125. और उससे बेहतर किस का धर्म है जो अपना चेहरा परमेश्वर की ओर झुका दे और वह नेकी करने वाला हो और वह चले इबराहीम के मार्ग पर जो एकनिष्ठ था और परमेश्वर ने इबराहीम को अपना मित्र बना लिया था।
126. और परमेश्वर का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है और परमेश्वर ने सब चीज़ों को अपने घेरे में ले रखा है।
कुरआन मजीद,सूरह ए निसा, 122-126
दुनिया की चीज़ों को मालिक ने इनसान को दिया ताकि वह उन्हें बरतना सीख ले। इसी शिक्षण, प्रशिक्षण और परीक्षण के लिए मालिक ने दुनिया को और इनसान को बनाया है।
जिन लोगों ने मालिक की इस नीति और योजना को जान लिया, उन्होंने एकनिष्ठ होकर पूर्ण समर्पण भाव से मालिक के हरेक हुक्म का पालन किया और लोकहित में अपनी तमाम राहतें और खुशियां कुर्बान कर दीं। यही लोग मानवता के आदर्श और धर्मपथ के मार्गदीप हैं। इन्हीं में एक नाम हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम का है। स्वर्ग में प्रवेश करने के लिये उनका अनुकरण लाज़िमी है, केवल दावा और इच्छा करना ही काफ़ी नहीं है।
भलाई या बुराई जो कोई भी करेगा वह उसका फल ज़रूर पायेगा चाहे वह औरत हो या मर्द, मुसलमान हो या फिर पहले अवतरित हो चुके ज्ञान पर विश्वास रखने वाला।
इनसान की सफलता इसी में है कि जो कुछ उसे कल नज़र आने वाला है उसे वह अपनी अक्ल से आज ही पहचान ले और खुद को उस मालिक के प्रति पूरी तरह से समर्पित कर दे और लोगों का हक़ और अपना फ़र्ज़ बेहतरीन तरीक़े से अदा करे ताकि वह स्वर्ग में प्रवेश करने का पात्र सिद्ध हो।अफ़सोस इनसान के हाल पर कि वह दुनिया की मामूली चीज़ों को पाने के लिये तो योजनाबद्ध तरीक़े से मेहनत करता है और सदा के स्वर्गिक सुख को पाने के लिये वह केवल इच्छा, दावे और दिखावे की रस्मों को ही काफ़ी समझता है।
122. और जो लोग ईमान लाये और उन्होंने नेक काम किये उनको हम ऐसे बाग़ों में दाखि़ल करेंगे जिनके नीचे नहरें जारी होंगी, परमेश्वर का वादा सच्चा है और परमेश्वर से बढ़कर कौन अपनी बात में सच्चा होगा ?
123. न तुम्हारी इच्छा पर है और न पूर्व ईशग्रन्थ वालों की इच्छा पर। जो कोई भी बुरा करेगा उसका बदला पायेगा और परमेश्वर के सिवा अपना कोई हिमायती और मददगार न पायेगा।
124. और जो कोई नेक काम करेगा चाहे वह मर्द हो या औरत बशर्ते कि वह विश्वासी हो तो ऐसे लोग स्वर्ग में प्रवेश करेंगे और उनपर ज़रा भी ज़ुल्म न होगा।
125. और उससे बेहतर किस का धर्म है जो अपना चेहरा परमेश्वर की ओर झुका दे और वह नेकी करने वाला हो और वह चले इबराहीम के मार्ग पर जो एकनिष्ठ था और परमेश्वर ने इबराहीम को अपना मित्र बना लिया था।
126. और परमेश्वर का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है और परमेश्वर ने सब चीज़ों को अपने घेरे में ले रखा है।
कुरआन मजीद,सूरह ए निसा, 122-126
दुनिया की चीज़ों को मालिक ने इनसान को दिया ताकि वह उन्हें बरतना सीख ले। इसी शिक्षण, प्रशिक्षण और परीक्षण के लिए मालिक ने दुनिया को और इनसान को बनाया है।
जिन लोगों ने मालिक की इस नीति और योजना को जान लिया, उन्होंने एकनिष्ठ होकर पूर्ण समर्पण भाव से मालिक के हरेक हुक्म का पालन किया और लोकहित में अपनी तमाम राहतें और खुशियां कुर्बान कर दीं। यही लोग मानवता के आदर्श और धर्मपथ के मार्गदीप हैं। इन्हीं में एक नाम हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम का है। स्वर्ग में प्रवेश करने के लिये उनका अनुकरण लाज़िमी है, केवल दावा और इच्छा करना ही काफ़ी नहीं है।
भलाई या बुराई जो कोई भी करेगा वह उसका फल ज़रूर पायेगा चाहे वह औरत हो या मर्द, मुसलमान हो या फिर पहले अवतरित हो चुके ज्ञान पर विश्वास रखने वाला।
इनसान की सफलता इसी में है कि जो कुछ उसे कल नज़र आने वाला है उसे वह अपनी अक्ल से आज ही पहचान ले और खुद को उस मालिक के प्रति पूरी तरह से समर्पित कर दे और लोगों का हक़ और अपना फ़र्ज़ बेहतरीन तरीक़े से अदा करे ताकि वह स्वर्ग में प्रवेश करने का पात्र सिद्ध हो।अफ़सोस इनसान के हाल पर कि वह दुनिया की मामूली चीज़ों को पाने के लिये तो योजनाबद्ध तरीक़े से मेहनत करता है और सदा के स्वर्गिक सुख को पाने के लिये वह केवल इच्छा, दावे और दिखावे की रस्मों को ही काफ़ी समझता है।
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