सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
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Sunday, June 20, 2010
K. S. SIDDARTH SAID --- कट्टरता को त्यागें और प्रतिबद्धता को अपनाएं ।
"वन्दे मातरम" लेख पर
भाई के. एस. सिद्धार्थ जी की टिपण्णी एक पूरे लेख की भी हैसियत रखती है और हमें एक नेक नसीहत भी करती है . मैं अपने ब्लॉग पर एक चिन्तनशील आदमी का सम्मान भी करना चाहता हूँ और यह भी चाहता हूँ कि हमारे अन्दर निखार पैदा हो . अच्छी बात हरेक से ली जानी चाहियें .
K S Siddharth said...
हमें जीवन के किसी भी पहलू के अपने तरीके पर प्रतिबद्ध होना चाहिए , क्योंकि प्रतिबद्ध होने का मतलब ही अपनी मान्यताओं व विश्वासों को अच्छी तरह जानकर और हर कसौटी पर खरा उतारकर उसके प्रति गहरी आस्था होना है, साथ ही साथ दूसरों की आस्था का सम्मान करना भी है जबकि कट्टरता अपनी मान्यताओं व विश्वासों के प्रति बिना किसी कसौटी पर जांचे और जाने अन्ध श्रद्धा रखना है और इसमें दूसरों की मान्यताओं व विश्वासों को हेय व घ्रणा की द्रष्टि से देखना है
हमें लोगों की प्रतिबद्धता का सम्मान करना चाहिए तथा कट्टरता का विरोध करना चाहिए भले ही वह अपने ही वर्ग या समाज विशेष में क्यों न हो
यह सांप्रदायिक कट्टरता हिन्दू और मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों में देखने को मिलती है जबकि ऐसे तत्व दोनों ही ओर से अपने आप को श्रेष्ठ बताते हैं तथा विपरीत पक्ष की उसे सांप्रदायिक या कट्टर बताकर आलोचना करते हैं
इसके लिए प्रतिबद्धता और कट्टरता में पहले तो अंतर समझें, कुमार अम्बुज की इस कविता से:
देखताहूं कि प्रतिबद्धता को लेकर कुछ लोग इस तरह बात करते हैं मानो प्रतिबद्ध होना, कट्टर होना है ।
जबकि सीधी-सच्ची बात है कि प्रतिबद्धता समझ से पैदा होती है, कट्टरता नासमझी से ।
प्रतिबद्धता वैचारिक गतिशीलता को स्वीकार करती है, कट्टरता एक हदबंदी में अपनी पताका फहराना चाहती है ।
प्रतिबद्धता दृढ़ता और विश्वास पैदा करती है , कट्टरता घृणा और संकीर्ण श्रेष्ठि भाव ।
प्रतिबद्ध होने से आप किसी को व्यक्तिगत शत्रु नहीं मानते हैं,कट्टर होने से व्यक्तिगत शत्रुताएं बनती ही हैं ।
प्रतिबद्धता सामूहिकता में एक सर्जनात्मक औज़ार है और कट्टरता अपनी सामूहिकता में विध्वंसक हथियार ।
प्रतिबद्धता आपको जिम्मेवार नागरिक बनाती है और कट्टरता अराजक ।
जो प्रतिबद्ध नहीं होना चाहते हैं, वे लोग कुतर्कों से प्रतिबद्धता को कट्टरता के समकक्ष रख देना चाहते हैं -- कुमार अंबुज , यह कविता जनपक्ष पर देखी गयी
इसलिए कट्टरता को त्यागें और प्रतिबद्धता को अपनाएं ।
भाई के. एस. सिद्धार्थ जी की टिपण्णी एक पूरे लेख की भी हैसियत रखती है और हमें एक नेक नसीहत भी करती है . मैं अपने ब्लॉग पर एक चिन्तनशील आदमी का सम्मान भी करना चाहता हूँ और यह भी चाहता हूँ कि हमारे अन्दर निखार पैदा हो . अच्छी बात हरेक से ली जानी चाहियें .
प्रतिबद्धता दृढ़ता और विश्वास पैदा करती है , कट्टरता घृणा और संकीर्ण श्रेष्ठि भाव । इसलिए कट्टरता को त्यागें और प्रतिबद्धता को अपनाएं ।
हमें जीवन के किसी भी पहलू के अपने तरीके पर प्रतिबद्ध होना चाहिए , क्योंकि प्रतिबद्ध होने का मतलब ही अपनी मान्यताओं व विश्वासों को अच्छी तरह जानकर और हर कसौटी पर खरा उतारकर उसके प्रति गहरी आस्था होना है, साथ ही साथ दूसरों की आस्था का सम्मान करना भी है जबकि कट्टरता अपनी मान्यताओं व विश्वासों के प्रति बिना किसी कसौटी पर जांचे और जाने अन्ध श्रद्धा रखना है और इसमें दूसरों की मान्यताओं व विश्वासों को हेय व घ्रणा की द्रष्टि से देखना है
हमें लोगों की प्रतिबद्धता का सम्मान करना चाहिए तथा कट्टरता का विरोध करना चाहिए भले ही वह अपने ही वर्ग या समाज विशेष में क्यों न हो
यह सांप्रदायिक कट्टरता हिन्दू और मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों में देखने को मिलती है जबकि ऐसे तत्व दोनों ही ओर से अपने आप को श्रेष्ठ बताते हैं तथा विपरीत पक्ष की उसे सांप्रदायिक या कट्टर बताकर आलोचना करते हैं
इसके लिए प्रतिबद्धता और कट्टरता में पहले तो अंतर समझें, कुमार अम्बुज की इस कविता से:
देखताहूं कि प्रतिबद्धता को लेकर कुछ लोग इस तरह बात करते हैं मानो प्रतिबद्ध होना, कट्टर होना है ।
जबकि सीधी-सच्ची बात है कि प्रतिबद्धता समझ से पैदा होती है, कट्टरता नासमझी से ।
प्रतिबद्धता वैचारिक गतिशीलता को स्वीकार करती है, कट्टरता एक हदबंदी में अपनी पताका फहराना चाहती है ।
प्रतिबद्धता दृढ़ता और विश्वास पैदा करती है , कट्टरता घृणा और संकीर्ण श्रेष्ठि भाव ।
प्रतिबद्ध होने से आप किसी को व्यक्तिगत शत्रु नहीं मानते हैं,कट्टर होने से व्यक्तिगत शत्रुताएं बनती ही हैं ।
प्रतिबद्धता सामूहिकता में एक सर्जनात्मक औज़ार है और कट्टरता अपनी सामूहिकता में विध्वंसक हथियार ।
प्रतिबद्धता आपको जिम्मेवार नागरिक बनाती है और कट्टरता अराजक ।
जो प्रतिबद्ध नहीं होना चाहते हैं, वे लोग कुतर्कों से प्रतिबद्धता को कट्टरता के समकक्ष रख देना चाहते हैं -- कुमार अंबुज , यह कविता जनपक्ष पर देखी गयी
इसलिए कट्टरता को त्यागें और प्रतिबद्धता को अपनाएं ।
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