सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Thursday, November 18, 2010
Haj or Yaj विभिन्न धर्म-परंपराओं का संगम : हज By S. Abdullah Tariq
हज, अनेक महापुरूषों की परंपराओं का दर्शन
हज, एक ऐसी इबादत और ऐसा उत्सव है जिसे सारे विश्व के लोग, कुछ पसंदीदगी से और कुछ ईष्र्या से देखते हैं, परंतु एक ही समय में एक स्थान पर, एक वेशभूषा के 25 लाख श्रद्धालुओं के प्रतिवर्ष समूह को कोई नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। हज संबंधी संस्कारों में कुछ अनिवार्य हैं जिनके बिना हज नहीं होता और कुछ क्रियाएं आवश्यक तो हैं किन्तु उनके छूट जाने पर हज हो जाता है बशर्ते कि उनके बदले कुछ निश्चित तावान अदा कर दिया जाए। प्रथम श्रेणी की पृष्ठभूमि में जो मुस्लिम परंपराएं हैं वह पृथ्वी के पहले मानव ह. आदम अ. तक पहुंचती हैं और उनकी झलक हम हिन्दू परंपराओं में भी पाते है और द्वितीय प्रकार की क्रियाओं के पीछे जो इतिहास है उसके अंश यहूदी तथा ईसाई धार्मिक इतिहास में देखने को मिल सकते हैं। इस प्रकार हज के दार्शनिक इतिहास के पीछे हैं हिन्दू, यहूदी तथा ईसाई परंपराएं और इन सभी के संगठन का नाम है ‘हज‘-मुस्लिम परंपरा।
मानवता का प्रारंभ भारत से
स्वर्गलोक से समस्त मानवजाति के पिता का आगमन धरती पर हुआ। उनका नाम आदम था और उनकी पत्नी का नाम हव्वा।
‘‘आदमो नाम पुरूषः पत्नी हव्यवती तथा‘‘
(भविष्य पुराण-प्रतिसर्ग पर्व 4, 18)
अनुवाद-आदम नाम का पुरूष तथा पत्नी का नाम हव्यवती था।
‘‘अतः प्रभु परमेश्वर ने मनुष्य को अदन के उद्यान में भेज दिया कि वह उस भूमि पर खेती करे जिससे उसे बनाया गया था।‘‘ (बाइबिल, उत्पत्ति, 3, 23)
‘‘मनुष्य ने अपनी पत्नी का नाम हव्वा रखा क्योंकि वह समस्त जीवनधारी प्राणियों की माता बनी। (बाइबिल, उत्पत्ति, 3,20)
कुरआन के प्रसिद्ध भाष्यकार इब्ने कसीर ने मुस्नद ए अब्दुर्रज़्ज़ाक़ को उद्धृत करते हुए अपने भाष्य में लिखा है कि ‘‘ह. आदम अ. भारत की भूमि पर उतरे थे। उनका क़द बहुत लम्बा था।‘‘
ईशदूत ह. मुहम्मद स. के सत्संगिंयों तथा अन्य मुस्लिम संतों और इतिहासकारों की एक बड़ी संख्या से यही उल्लिखित है कि पृथ्वी के पहले मानव ने, जो ईश्वर के पहले दूत भी थे, अपना पहला क़दम भारत में रखा। उन्होंने अपनी संतान में ईश-प्रदत्त सनातन धर्म (अरबी भाषा में दीन-ए-क़य्यिम) का प्रचार प्रसार किया और बाद में समय समय पर संसार के विभिन्न भागों में ईशदूतों ने उसी एक ईश्वरीय धर्म को पुनर्जीवित किया। आदम या आदिम शब्द, जिसका अर्थ है ‘‘सबसे पहला‘‘, भारतीय मूल का होना भी यही सिद्ध करता है कि आदि मानव भारत में उतरा। उसी को बाद में भारतीय साहित्य में आदि मनु या स्वयंभू मनु कहा गया।
स्वायंभू मनु अरू सतरूपा।
जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा।।
दंपत्ति धरम आचरण नीका।
अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका।।
(रामचरित मानस, दो. 141, चौ. 1)
अर्थात स्वायम्भूव मनु और उसकी पत्नी शत्रूपा जिन से मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति पत्नी के धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे आज भी वेद जिनकी मर्यादा का गान करते हैं।
अरफ़ात, पति पत्नी के मिलने का स्थान
इस्लामी परंपरा के अनुसार आदम की पत्नी हव्वा को स्वर्गलोक से जिद्दा (सऊदी अरब) में उतारा गया। दोनों एक दूसरे को तलाशते रहे, यहां तक कि दोनों की मुलाक़ात अरफ़ात में हुई जो मक्का से 12 किमी. दूर एक निर्जन खुले क्षेत्र का नाम है। हज के महीने की 9वीं तारीख़ को सुबह चलकर अरफ़ात पहुंचना और सूर्य अस्त से पहले तक समय वहां ईश्वर से प्रार्थना आदि में बिताना हज का सबसे प्रमुख अंग है।
काबे की प्ररिक्रमा
तत्पश्चात मानव जाति के पूर्वज दोनों पति पत्नी ने पृथ्वी की नाभि, काबा की ओर प्रस्थान किया। उस समय न मक्का नगर था और न ‘काबा‘ का वर्तमान निर्मित अस्तित्व। काबा पृथ्वी की उस जड़ का नाम था जिसे देवताओं (फ़रिश्तों) ने परमेश्वर के आदेश से स्थित किया था और जिस के नीचे से इस्लामी परंपरा के अनुसार पृथ्वी का विस्तार हुआ था।
भूमि के अस्तित्व से पहले पृथ्वी पर जल था और उस स्थान पर जहां आज बैतुल्लाह (काबा) है, पानी पर झाग और बुलबुले थे। यहीं से भूमि फैलाई गई (इब्ने कसीर)
ह. आदम अ. और हव्वा अ. ने वहां काबे का निर्माण किया और उसकी परिक्रमा की। कुरआन और हदीस में इस हदीस में इस घटना के कुछ विवरण इस प्रकार हैं-
‘‘निस्संदेह मानव जाति के लिए जो पहला (उपासना कां) स्थल निर्मित किया गया वह यही है जो मुबारक है और सब संसारों के लिए मार्गदर्शन (केन्द्र) है।‘‘ (कुरआन, 3, 96)
‘‘आदम और हव्वा ने बैतुल्लाह (काबे) का निर्माण किया और परिक्रमा की और परमेश्वर ने कहा -तुम पहले मानव हो और यह पहला उपासना स्थल है।‘‘ (बैहिक़ी)
हज के अन्तिम चरणों में काबे की सात परिक्रमाएं, हज का दूसरा अनिवार्य अंग है जिसके बिना हज नहीं हो सकता।
वेदों में अनेकों स्थानों पर काबे के उल्लेख में से एक निम्न है-
इलायास्त्वा पदे क्यं नाभा पृथिव्या अधि।
(ऋग्वेद 3, 29, 4)
सर मौनियर विलियम्स ने अपने संस्कृत-अंग्रेज़ीशब्दकोष में ‘इलायास्पद‘ का अर्थ (इला अर्थात पूजा का स्थल) लिखा है और पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने ऋग्वेद 3, 23, 4 में इस शब्द का अनुवाद ‘पवित्र स्थान‘ किया है।
अन्य भारतीय धर्म साहित्य में काबे को ‘आदि पुष्कर तीर्थ‘ भी कहा गया है जो अन्य देश में है और जिसके स्थित होने का स्थान आज तक अज्ञात है। (स्पष्ट रहे कि पुष्कर के नाम से एक तीर्थ अजमेर में है परन्तु आदि पुष्कर तीर्थ कहां है ?, जहां स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति पद्म पुराण में बताई गई है, यह सर्वथा अज्ञात है)
काबे से संबंध की झलक भारत में
आदि मनु या आदम जिनकी हम सब संतान होने के नाते एक वर्ण और परस्पर भाई-भाई हैं, उनकी इस याद को सबसे प्राचीन धार्मिक जातियों के समूह हिन्दुओं ने अपने विभिन्न धार्मिक रीतियों में सात परिक्रमाओं के रूप में शेष रखा हुआ है और अन्य यादें उस घटना की सांकेतिक रूप से हिन्दुओं में आज तक प्रचलित हैं। उदाहरणतः अन्तिम ईशदूत ह. मुहम्मद स. ने निर्देश दिया कि हज के समय यात्री या तो नंगे पैर रहें या फिर केवल ऐसे चप्पल या खड़ांव पहन लें जिनका केवल तला हो पर ऊपरी भाग न हो। इन चप्पलों का आदर्श रूप वे खूंटे वाली खड़ांव हैं जो भारतीय ऋषियों मुनियों को चित्रों में पहने दिखाया जाता है और जिनका तीर्थ यात्राओं पर पहनना आज भी उत्तम समझा जाता है। अंतिम ईशदूत स. ने यह भी निर्देश दिया कि यात्री (हज की एक शास्त्र विधि) अपने सिर के बालों का मुंडन कराएं कराएं या कम से कम कुछ कटवाएं। यह प्रथा भी आज तक हिन्दू यात्रियों में प्राचीन काल से चली आ रही है।
शिला का चुम्बन
आदम स्वर्ग से अपने साथ एक शिला लाए थे जिसे हिन्दू परंपरा में कहीं मत शिला और कहीं मत्स्य शिला भी कहा गया है। मुस्लिम परंपरा के अनुसार यह मतदान की शिला थी। स्वर्गलोक में हम सभी की आत्माओं ने परमेश्वर को अपना प्रभु मानने का वचन देकर अपने अहं का जो दान किया था, वह वचन इस शिला में रिकॉर्ड है। यह पत्थर जिसे मुसलमान हज्र-ए-अस्वद (काला पत्थर) कहते हैं, काबे की दीवार के एक कोने में आदम द्वारा स्थित किया गया था। काबे की प्रत्येक परिक्रमा के बाद हाजी इस पत्थर को चूमते हैं ताकि वह वचन ताज़ा हो सके जो आत्मालोक में उन्होंने परमेश्वर को दिया। पत्थर को चूमने से उसकी पूजा या उपासना या ईश्वर का प्रतीक मानना या उस तक पहुंचने का साधन समझने का अर्थ लिया जाना एक भ्रम है। यह पत्थर न कुछ देने की शक्ति रखता है और न ईश्वर तक पहुंचने का साधन है, हां स्वर्ग-लोक का होने के कारण पवित्र अवश्य है।
यह पत्थर जो आदम के साथ स्वर्ग से उतरा, आरंभ में चमकते हुए हीरे के समान था। बाद में आदम की संतान (मानव जाति)के पापों के कारण यह काला हो गया। (इब्ने कसीर)
बिना सिले वस्त्र
हज का तीसरा अनिवार्य अंग ‘अहराम‘ है। अहराम वे बिना सिले वस्त्र हैं जो हाजी पहनते हैं। दो बिना सिले कपड़े जिनमें से एक को धोती या तहबंद के स्थान पर और दूसरे को चादर की तरह लपेट लिया जाता है। लाखों हाजियों को यही वेशभूषा अपनानी होती है ताकि
1. छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब और हर प्रकार का अन्तर मिटने की भावना उत्पन्न हो।
2. मानव जाति मौत को याद कर सके कि ऐसा ही बिना सिला कफ़न पहनकर उसे एक दिन संसार से विदा होना है और यह जीवन कुछ समय का अवकाश है।
3. अहराम पहनने के बाद पुनः गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने तक बहुत सी वे चीज़ें जो पहले वैध थीं अब उन पर अंकुश लगा दिया जाता है, जैसे पति-पत्नी का शारीरिक संबंध अहराम त्यागने तक मना है ताकि सब नर-नारी अपने को एक समान समझ कर सांसारिक ऐश्वर्य को त्याग कर पूर्णतः ईश्वर की ओर ध्यानमग्न हो सकें।
स्वाभाविक संयोग
अहराम की यह प्रथा भी हिन्दू धार्मिक जातियों ने ऐसी अपनाई कि साधारण जीवन में भी धोती और साड़ी के रूप में बिना सिले वस्त्र धारण कर लिए।
ह. आदम और हव्वा काबे की परिक्रमा करने के पश्चात भारत लौट आए जो उनका मुख्य प्रचार क्षेत्र और वतन है।
‘‘एक परंपरा के अनुसार आदम और हव्वा ने भारत से पैदल चलकर चालीस बार हज किया। (तारीख़-ए-तबरी)
कोई आश्चर्य नहीं है कि विश्व में केवल भारतीय मूल की जातियों ने ही काबा संबंधी प्रथाओं को सांकेतिक रूप में अपने सामान्य जीवन में शेष रखा हुआ है।
‘सई‘ , व्याकुल हाजिरा की याद
हज की अन्य अधिकतर क्रियाओं का संबंध ईशदूत हज़रत इबराहीम अ., उनकी पत्नी हाजिरा और उनके पुत्र इस्माईल अ. से है जो बाद में स्वयं ईश्वर के दूत हुए। ये सभी क्रियाएं हज के अनिवार्य (फ़र्ज़) अंग नहीं हैं बल्कि आवश्यक (वाजिब) अंग हैं। इबराहीम और उनके परिवार की प्रासंगिक घटनाओं के कुछ अंश बाइबिल में भी हैं।
परमेश्वर के आदेशानुसार हज़रत इबराहीम अ. अपनी दूसरी पत्नी ह. हाजिरा और उनसे उत्पन्न अपने पुत्र इस्माईल को जो उस समय गोद में थे, लेकर देवताओं (फ़रिश्तों) के मार्गदर्शन में काबे की ओर चले। ईशदूत हज़रत नूह अ. (महाजलप्लावन वाले मनु) के समय में जो जल प्रलय आई थी, उस कारण वह निर्माण नष्ट हो चुका था जिसे हज़रत आदम अ. ने बनाया था। जल प्रलय के बाद बहुत समय बीत जाने से वह स्थान एक मरूस्थल बन चुका था जिसके मध्य में काबे के स्थान पर एक टीला था। इबराहीम ने वहां पहुंचकर अपनी पत्नी और नन्हें बच्चे को छोड़ दिया।
हदीस के प्रामाणिक ग्रंथ बुख़ारी के मुताबिक़ आगे का बयान इस प्रकार है-
‘‘उस समय मक्का में कोई न रहता था और आस-पास कहीं पानी न था। उनके पास एक थैले में खजूरें और एक चमड़े के थैले में पानी था। फिर ह. इबराहीम लौटने लगे तो इस्माईल की माता ने उनका पीछा किया और कहने लगीं, हे इबराहीम ! आप ऐसी घाटी में हमें छोड़कर कहां जा रहे हैं ?
उन्होंने कई बार ये शब्द दोहराये परन्तु इबराहीम ने उनकी ओर मुड़कर नहीं देखा बल्कि केवल इतना कहा -‘मुझे ईश्वर ने यही करने का आदेश दिया है।‘
वह बोलीं-‘यदि ऐसा है तो वह हमें नष्ट नहीं होने देगा।‘
इबराहीम अ. मुड़े और चलते रहे...इस्माईल की माता उन्हें दूध पिलाती रहीं यहां तक कि पानी समाप्त हो गया...उन्होंने देखा कि बच्चा एड़ियां रगड़ रहा है। वह इस दृश्य को सहन न करके पानी की तलाश में निकलीं। निकट ही सफ़ा पहाड़ी थी। उस पर चढ़कर घाटी की ओर देखा परन्तु कोई दिखाई न दिया। यह उतर आईं और घाटी में दामन समेटकर ऐसे दौड़ीं जैसे कोई मुसीबत का मारा दौड़ता है।...मरवा पहाड़ी (मेरू पर्वत) पर पहुंची...यही भागदौड़ (एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी पर भागना) उन्होंने सात बार की...जब अन्तिम बार वह मरवा पहाड़ी पर चढ़ीं तो उन्होंने एक आवाज़ सुनी...उन्होंने एक फ़रिश्ते को देखा तो उसने अपनी ऐड़ी मारी यहां तक कि पानी निकलने लगा...उसके बाद पानी धरती से उबलने लगा।...फ़रिश्ते ने कहा अपने नष्ट होने का विचार भी मन में न आने देना क्योंकि यहां बैतुल्लाह (काबा) है जिसे यह बालक और इसके पिता (इबराहीम) निर्मित करेंगे।...बैतुल्लाह पृथ्वी से कुछ ऊँचा था जैसे टीला। बाढ़ आती तो पानी कटकर उसके इधर उधर से निकल जाता।‘‘ (बुख़ारी-किताबुलअम्बिया)
इस उल्लेख से मालूम हुआ कि काबा जिसका पुनर्निर्माण ह. इबराहीम अ. को करना था यहां टीले रूप में पहले से मौजूद था।
हज़रत हाजिरा जिन पहाड़ियों के बीच भागी थीं, उनके बीच उसी प्रकार सात चक्कर लगाकर हाजी उनके बलिदान की याद ताज़ा करते हैं। इसे ‘‘सई‘‘ (प्रयत्न) कहते हैं।
बाइबिल की पुष्टि
बाइबिल में इस घटना का उल्लेख इस प्रकार है-
‘‘अब्राहम सबेरे उठे उन्होंने रोटी और पानी से भरी चमड़े की थैली हाजिरा को दी। उसे हाजिरा के कंधे पर रख दिया और बालक सहित उसको विदा कर दिया। हाजिरा चली गई और बएर-शबा के निर्जन प्रदेश में भटकने लगी। जब थैली का पानी समाप्त हो गया तब उसने बालक को एक झाड़ी के नीचे छोड़ दिया। वह बालक के सामने पर्याप्त दूर-तीर के निशाने पर बैठ गई, क्योंकि वह सोचती थी, मैं अपने बच्चे की मृत्यु अपनी आंखों से नहीं देख सकती। जब वह उसके सामने दूर बैठी तब बालक चीख़ मार कर रोने लगा। परमेश्वर ने बालक के रोने की आवाज़ सुनी, परमेश्वर के दूत ने स्वर्ग से हाजिरा को पुकारा और कहा, हाजिरा तुझे क्या हुआ है ? मत डर, जहां तेरा बालक पड़ा है वहां से परमेश्वर ने उसकी आवाज़ सुनी है। उठ और बालक को उठा। उसे अपने हाथों से सावधानी से संभाल, क्योंकि मैं उससे एक महान राष्ट्र का उद्भव अवश्य करूंगा। तब परमेश्वर ने उसकी आंखें खोल दीं। उसे एक कुआं दिखाई दिया, वह उसके निकट गई और चमड़े की थैली को पानी से भर लिया। तत्पश्चात उसने बालक को पानी पिलाया। परमेश्वर बालक के साथ था। वह बड़ा होता गया। वह निर्जन प्रदेश में रहता था। वह विख्यात धनुर्धारी बना। वह पारन (वर्तमान मक्का नगर) के निर्जन प्रदेश में रहता था।
शैतान का बहकाना और ‘रमी‘
मरूस्थल में पानी का सोता फूटने से वहां क़ाफ़िले रूकने लगे और आबादी हो गई। जब परमेश्वर 13 वर्ष के हुए तो परमेश्वर ने अपने दूत ह. इबराहीम अ. की एक और कड़ी परीक्षा ली। उन्होंने स्वप्न में देखा कि वे अपने पुत्र की बलि दे रहे हैं। तीन दिन तक निरन्तर एक ही स्वप्न देखते रहे। ह. इस्माईल उनके बुढ़ापे की सन्तान की संतान थे और उस समय तक इकलौते ही थे। अभी इस्हाक़ का जन्म नहीं हुआ था जो उनकी पहली पत्नी सायरा से थे और इस्माईल से 14 वर्ष छोटे थे। पुत्र को एक बार तो वह मौत की गोद में फेंक ही चुके थे। ईश्वर के आदेश को समझकर वह मक्का पहुंचे, इस्माईल को साथ लिया और आबादी से बाहर चल पड़े। जहां आजकल मिना है (मक्का से 4 किमी. दूर) शैतान ने वहां तीन बार इस्माईल को पिता के इरादों की सूचना देकर बहकाने की कोशिश की परन्तु उन्होंने उसे हर बार धुतकार दिया। इन तीनों स्थानों पर इस्माईल अ. की दृढ़ता की याद में हाजी लोग कंकरियां फेंक कर सांकेतिक रूप में शैतानको मारते हैं। इसे ‘रमी‘ कहते हैं।
कुरबानी, अभूतपूर्व बलिदान की निशानी
थोड़ी दूर पहुंचकर इबराहीम रूक गए और पुत्र को अपना इरादा और ईश्वर का आदेश बताया। इस्माईल सहर्ष राज़ी हो गए और पिता को सुझाव दिया कि अपनी आंखों पर पट्टी बांध लें ताकि छुरी चलाते समय नीयत न डगमगाए। पुत्र को लिटा कर इबराहीम छुरी चलाने ही वाले थे कि फ़रिश्ते की आवाज़ आई कि यह तो केवल एक परीक्षा थी जिस में आप पूरे उतरे फिर उसने एक मेंढा प्रस्तुत किया कि उसे ज़िबह कर लें।
आत्म बलिदान की इस महान घटना की याद में हाजी लोग मिना में उस स्थान पर पशुओं की कुरबानी करते हैं और उसी दिन अर्थात हज के महीने की 10 तारीख़ को पूरे विश्व के मुस्लिम प्रातः ईश्वर को धन्यवाद अर्पित करने के लिए ईदुल अज़्हा की नमाज़ पढ़ते हैं और फिर कुरबानी करते हैं।
कुरआन में बलिदान का विवरण
कुरआन में इस घटना का वृतान्त निम्न है-
इबराहीम ने कहा ‘मैं अपने प्रभु के (मार्ग) की ओर जाता हूं वही मेरा पथ प्रदर्शन करेगा। हे प्रभु, मुझे एक पुत्र प्रदान कर जो नेक हो।‘ हमने उसे एक संयमशील पुत्र कीश शुभ सूचना दी। यह बालक जब उसके साथ परिश्रम करने की आयु को पहुंचा तो इबराहीम ने (एक दिन) कहा ‘हे पुत्र, मैं स्वप्न में स्वयं को तुझे ज़िबह करते हुए देख रहा हूं, तू बता तेरा क्या विचार है ? बालक ने कहा, पिताजी आपको जो आदेश मिला है कर डालिए, ईश्वर ने चाहा तो आप मुझे धैर्यवान ही पाएंगे। फिर जब दोनों ने (प्रभु की इच्छा के प्रति) समर्पण कर दिया और इबराहीम ने पुत्र को माथे के बल लिटा दिया और हमने पुत्र को आवाज़ दी कि ‘हे इबराहीम तूने सपना साकार कर दिखाया। हम नेकी करने वालों को ऐसा ही बदला देते हैं।‘ निश्चय ही यह एक खुली परीक्षा थी और हमने एक बड़ी कुरबानी बदले में देकर उस बालक को छुड़ा लिया और उसकी प्रशंसा सदा के लिए आने वाली नस्लों में निश्चित कर दी। सलाम (शांति) है इबराहीम पर।
हम परोपकारी को ऐसा ही बदला देते हैं। निश्चय ही वह आस्तिक बन्दों में से था और फिर हमने उसे इस्हाक़ (दूसरे पु़त्र) के जन्म की शुभ सूचना दी। जिसे एक परोपकारी ईशदूत बनाना था। (कुरआन, 37,101 से 112 तक)
बाइबिल का बयान
बाइबिल में उपरोक्त कुरबानी की घटना में यह मुख्य अंतर है कि उसमें इबराहीम अ. अपने छोटे पुत्र इसहाक़ अ. को कुरबानी के लिए लेकर निकलते बताए गए हैं। बाइबिल में नक़ल करने वालों के हाथों अनेकों ग़लतियां होना ईसाई शोधकर्ताओं को मान्य है। इसके अतिरिक्त स्वयं बाइबिल में एकलौते पुत्र की कुरबानी का उल्लेख है। एकलौते पुत्र तो 14 वर्ष की आयु को पहुंचने तक इस्माईल ही थे जैसा कि स्वयं बाइबिल भी बताती है।
‘‘जब हाजिरा ने अब्राम (अब्राहम) से यिश्माएल (इस्माईल) को जन्म दिया तब अब्राम छियासी वर्ष के थे (उत्पत्ति, 16,16)
‘‘अपने पुत्र इसहाक़ के जन्म के समय अब्राहम सौ वर्ष के थे।‘‘ (उत्पत्ति, 21,5)
अंतर का महत्व नहीं
सत्य की खोज के लिए शोध कार्य का अपना महत्व है परन्तु इब्राहीम के वह पुत्र इस्माईल थे या इसहाक़ इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। सांप्रदायिक जातिवाद से ऊपर न उठ सकने वाले यहूदियों, ईसाईयों या मुसलमानों की दृष्टि में हो सकता है, इनमें से किसी एक का महत्व अधिक हो (क्योंकि ह. इसहाक़ की सन्तान में उन ईशदूतों ने जन्म लिया जिनमें यहूदी तथा ईसाई आस्था रखते हैं और ह. इस्माईल अ. के वंश में अंतिम देवदूत ह. मुहम्मद स. उत्पन्न हुए) किन्तु सच्चे मुसलमानों के लिए महत्व केवल इस बात का है कि ह. इब्राहीम अ. ईश्वर के आदेश पर अपने एकलौते पुत्र की कुरबानी देने के लिए तैयार हो गए थे। मुसलमान ह. इस्माईल और ह. इसहाक़ में एक समान आस्था रखते हैं क्योंकि कुरआन ने उन्हें पृथ्वी के हर भाग और हर जाति में आए सभी ईशदूतों में आस्था रखने और उनमें भेद न करने का आदेश दिया है।
अंतिम ईशदूत स. द्वारा परमेश्वर के आदेशानुसार मुसलमान इस बलिदान की घटना की याद में प्रत्येक वर्ष कुरबानी (यज्ञ) करते हैं और कुरबानी (यज्ञ) के मांस का एक तिहाई भाग ग़रीबों में बांटते हैं।
हिन्दू परंपरा में मांसाहार
वर्तमान में हिन्दू भाइयों की दृष्टि में कुरबानी करना धार्मिक रीति तो क्या, घोर पाप है, परंतु अतीत में बौद्धों और जैनियों के प्रभाव से पूर्व ऐसी किसी धारणा का अस्तित्व न केवल नहीं था बल्कि हिन्दू ग्रंथों में आज भी कुरबानी और मांस भक्षण का उल्लेख मौजूद है। मनु स्मृति जिसे समाज का एक वर्ग ब्राह्मणों द्वारा रचित विधान और व्यवस्था का नाम देता है, के पंचम अध्याय का अधिकतर भाग कुरबानी तथा मांस भक्षण पर ही आधारित है। उदाहरण के लिए -
यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः ।
भृत्यानां चैव वृत्यर्थमगस्त्यो ह्याचरत्पुरा ।। (मनु. 5,22)
अर्थात यज्ञ के लिए तो अवश्य तथा रक्षणीय की रक्षा के लिए शास्त्र-विहित मृग और पक्षियों का वध करे। ऐसा अगस्त्य ऋषि ने पहले किया था।
प्राणास्यान्नमिदं सर्वं प्रजापतिरकल्पयत् ।
स्थावर। जंगमं चैव सर्व प्राणस्य भोजनम् ।। (मनु. 5, 28)
अर्थात प्रजापति ने जीव का सब कुछ खाने योग्य कहा है। सब स्थावर (फल, सब्ज़ी आदि) तथा जंगम (पशु-पक्षी, जलचर आदि) जीव जीवों के खाद्य भक्ष्य हैं।
नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्प्राणिनोऽहन्यहन्यपि ।
धात्रैव सृष्टा ह्याद्याश्च प्राणिनात्तार एव च ।। (मनु. 5, 30)
अर्थात प्रतिदिन भक्ष्य जीवों को खाने वाला भी भक्षक दोषी नहीं होता है, क्योंकि सृष्टा ने ही भक्ष्य तथा भक्षक, दोनों को बनाया है।
नाद्यादविधिना मांस विधिज्ञोपनदि द्विजः । (मनु. 5, 33)
अर्थात विधान को जानने वाला द्विज बिना आपत्तिकाल में पड़े विधिरहित मांस को न खाए।
नियुक्तस्युक्त यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः ।
स प्रेत्य पशुतां याति संभवानेकविंशतिम् ।। (मनु. 5, 35)
अर्थात शास्त्रानुसार नियुक्त जो मनुष्य मांस को नहीं खाता है, वह मर कर इक्कीस जन्म तक पशु होता है।
यज्ञार्थं पशवः सृष्टा स्वयमेव स्वयंभुवा ।
यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य यस्याद्यज्ञे वधोर्वधः ।। (मनु. 5, 39)
अर्थात सृष्टा ने यज्ञ के लिए पशुओं को स्वयं बनाया है और यज्ञ संपूर्ण संसार की उन्नति के लिए है, इस कारण यज्ञ में पशु का वध वध नहीं है।
उपरोक्त ‘लोकों से स्पष्ट है कि स्मृतिकार की दृष्टि में केवल विधिरहित वध का निषेध है। ईशदूतों की सिखलाई विधि के अनुसार ईश्वर का नाम लेकर कुरबानी करना उत्तम है और कुरबानी या यज्ञ का मांस न खाना पाप है।
आजकल मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी की गाथाएं बड़ी लोकप्रिय हैं, परन्तु उनकी गाथाओं के मूल आधार वाल्मीकि रामायण का साधारण जनता को कम ही ज्ञान है। वाल्मीकि रामायण में अनेकों स्थानों पर श्री रामचन्द्र जी के शिकार करने और मांस खाने का उल्लेख है। केवल एक उदाहरण यहां उद्धृत किया जा रहा है -
तां तदा दर्शयित्वा तु मैथिली गिरिनिम्नगाम् ।
निषसाद गिरिप्रस्थे सीतां मांसेन छन्दयन् ।।
इदं मध्यमिदं स्वादु निष्टप्तमिद मग्निना ।
एवमास्ते स धर्मात्मा सीतया सह राघवः ।।
(वाल्मीकि रामायण, अयोध्या काण्ड, 96, 1 व 2)
अर्थात इस प्रकार सीता जी को (नदी के) दर्शन कराकर उस समय श्री रामचन्द्र जी उनके पास बैठ गए और तपस्वी जनों के उपभोग में आने योग्य मांस से उनका इस प्रकार लालन करने लगे, ‘‘इधर देखो प्रिये, यह कितना मुलायम है, स्वादिष्ट है और इसको आग पर अच्छी तरह सेका गया है।‘‘
इसके अतिरिक्त श्री रामचन्द्र जी के मृगादि के शिकार तथा मांस खाने के वृतान्त के लिए वाल्मीकि रामायण में देखें - अयोध्या काण्ड, 52-102; 56-22 से 28; और अरण्य काण्ड 47-23 व 24 आदि।
पाराशर, पतंजलि और याजनवल्क्य के मांस भक्षण संबंधी उद्धरण तो वर्तमान अज्ञान की स्थिति में प्रस्तुत करना उचित ही नहीं है क्योंकि उससे शाकाहारियों और गौ-प्रेमियों की भावनाएं उत्तेजित होंगी। यद्यपि उन्हें धार्मिक भावनाएं नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये उद्धरण तो धार्मिक ग्रंथों के ही हैं।
अंतर्राष्ट्रीय समानता का आह्वान
इस प्रकार हज केवल एक उपासना या तीर्थ ही नहीं बल्कि हर रंग, वंश और जाति के लोगों की अंतर्राष्ट्रीय एकता का एक ऐसा विचित्र सामूहिक प्रदर्शन है जिस में सभी मुख्य धर्मों की परंपराओं की झलक भी है। कुरआन कहता है कि
प्रस्तुत लेख ‘विश्व एकता संदेश, पाक्षिक, रामपुर, जून प्रथम पक्ष 1994 के अंक‘ से आपके ज्ञानवर्धन के लिए साभार प्रस्तुत है। इस लेख के संबंध में किसी भी प्रकार की अधिक जानकारी के लिए आप ‘विश्व कल्याण आगम संस्थान, बाज़ार नसरूल्लाह ख़ां, रामपुर 244901‘ पर पत्राचार कर सकते हैं। जनाब तारिक़ साहब की लिखी पुस्तकों को भी आप इसी जगह से मंगा सकते हैं। ‘वेद और कुरआन फ़ैसला करते हैं- कितने दूर कितने पास‘ जनाब की लिखी हुई विश्व प्रसिद्ध किताबों में से एक है।
वेद और कुरआन के समान सूत्रों के आधार पर भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों के दरम्यान दिव्य एकत्व का बोध कराना जनाब के जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।
हज, एक ऐसी इबादत और ऐसा उत्सव है जिसे सारे विश्व के लोग, कुछ पसंदीदगी से और कुछ ईष्र्या से देखते हैं, परंतु एक ही समय में एक स्थान पर, एक वेशभूषा के 25 लाख श्रद्धालुओं के प्रतिवर्ष समूह को कोई नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। हज संबंधी संस्कारों में कुछ अनिवार्य हैं जिनके बिना हज नहीं होता और कुछ क्रियाएं आवश्यक तो हैं किन्तु उनके छूट जाने पर हज हो जाता है बशर्ते कि उनके बदले कुछ निश्चित तावान अदा कर दिया जाए। प्रथम श्रेणी की पृष्ठभूमि में जो मुस्लिम परंपराएं हैं वह पृथ्वी के पहले मानव ह. आदम अ. तक पहुंचती हैं और उनकी झलक हम हिन्दू परंपराओं में भी पाते है और द्वितीय प्रकार की क्रियाओं के पीछे जो इतिहास है उसके अंश यहूदी तथा ईसाई धार्मिक इतिहास में देखने को मिल सकते हैं। इस प्रकार हज के दार्शनिक इतिहास के पीछे हैं हिन्दू, यहूदी तथा ईसाई परंपराएं और इन सभी के संगठन का नाम है ‘हज‘-मुस्लिम परंपरा।
मानवता का प्रारंभ भारत से
स्वर्गलोक से समस्त मानवजाति के पिता का आगमन धरती पर हुआ। उनका नाम आदम था और उनकी पत्नी का नाम हव्वा।
‘‘आदमो नाम पुरूषः पत्नी हव्यवती तथा‘‘
(भविष्य पुराण-प्रतिसर्ग पर्व 4, 18)
अनुवाद-आदम नाम का पुरूष तथा पत्नी का नाम हव्यवती था।
‘‘अतः प्रभु परमेश्वर ने मनुष्य को अदन के उद्यान में भेज दिया कि वह उस भूमि पर खेती करे जिससे उसे बनाया गया था।‘‘ (बाइबिल, उत्पत्ति, 3, 23)
‘‘मनुष्य ने अपनी पत्नी का नाम हव्वा रखा क्योंकि वह समस्त जीवनधारी प्राणियों की माता बनी। (बाइबिल, उत्पत्ति, 3,20)
कुरआन के प्रसिद्ध भाष्यकार इब्ने कसीर ने मुस्नद ए अब्दुर्रज़्ज़ाक़ को उद्धृत करते हुए अपने भाष्य में लिखा है कि ‘‘ह. आदम अ. भारत की भूमि पर उतरे थे। उनका क़द बहुत लम्बा था।‘‘
ईशदूत ह. मुहम्मद स. के सत्संगिंयों तथा अन्य मुस्लिम संतों और इतिहासकारों की एक बड़ी संख्या से यही उल्लिखित है कि पृथ्वी के पहले मानव ने, जो ईश्वर के पहले दूत भी थे, अपना पहला क़दम भारत में रखा। उन्होंने अपनी संतान में ईश-प्रदत्त सनातन धर्म (अरबी भाषा में दीन-ए-क़य्यिम) का प्रचार प्रसार किया और बाद में समय समय पर संसार के विभिन्न भागों में ईशदूतों ने उसी एक ईश्वरीय धर्म को पुनर्जीवित किया। आदम या आदिम शब्द, जिसका अर्थ है ‘‘सबसे पहला‘‘, भारतीय मूल का होना भी यही सिद्ध करता है कि आदि मानव भारत में उतरा। उसी को बाद में भारतीय साहित्य में आदि मनु या स्वयंभू मनु कहा गया।
स्वायंभू मनु अरू सतरूपा।
जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा।।
दंपत्ति धरम आचरण नीका।
अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका।।
(रामचरित मानस, दो. 141, चौ. 1)
अर्थात स्वायम्भूव मनु और उसकी पत्नी शत्रूपा जिन से मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति पत्नी के धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे आज भी वेद जिनकी मर्यादा का गान करते हैं।
अरफ़ात, पति पत्नी के मिलने का स्थान
इस्लामी परंपरा के अनुसार आदम की पत्नी हव्वा को स्वर्गलोक से जिद्दा (सऊदी अरब) में उतारा गया। दोनों एक दूसरे को तलाशते रहे, यहां तक कि दोनों की मुलाक़ात अरफ़ात में हुई जो मक्का से 12 किमी. दूर एक निर्जन खुले क्षेत्र का नाम है। हज के महीने की 9वीं तारीख़ को सुबह चलकर अरफ़ात पहुंचना और सूर्य अस्त से पहले तक समय वहां ईश्वर से प्रार्थना आदि में बिताना हज का सबसे प्रमुख अंग है।
काबे की प्ररिक्रमा
तत्पश्चात मानव जाति के पूर्वज दोनों पति पत्नी ने पृथ्वी की नाभि, काबा की ओर प्रस्थान किया। उस समय न मक्का नगर था और न ‘काबा‘ का वर्तमान निर्मित अस्तित्व। काबा पृथ्वी की उस जड़ का नाम था जिसे देवताओं (फ़रिश्तों) ने परमेश्वर के आदेश से स्थित किया था और जिस के नीचे से इस्लामी परंपरा के अनुसार पृथ्वी का विस्तार हुआ था।
काबे की परिक्रमा करते हाजी |
ह. आदम अ. और हव्वा अ. ने वहां काबे का निर्माण किया और उसकी परिक्रमा की। कुरआन और हदीस में इस हदीस में इस घटना के कुछ विवरण इस प्रकार हैं-
‘‘निस्संदेह मानव जाति के लिए जो पहला (उपासना कां) स्थल निर्मित किया गया वह यही है जो मुबारक है और सब संसारों के लिए मार्गदर्शन (केन्द्र) है।‘‘ (कुरआन, 3, 96)
‘‘आदम और हव्वा ने बैतुल्लाह (काबे) का निर्माण किया और परिक्रमा की और परमेश्वर ने कहा -तुम पहले मानव हो और यह पहला उपासना स्थल है।‘‘ (बैहिक़ी)
हज के अन्तिम चरणों में काबे की सात परिक्रमाएं, हज का दूसरा अनिवार्य अंग है जिसके बिना हज नहीं हो सकता।
वेदों में अनेकों स्थानों पर काबे के उल्लेख में से एक निम्न है-
इलायास्त्वा पदे क्यं नाभा पृथिव्या अधि।
(ऋग्वेद 3, 29, 4)
सर मौनियर विलियम्स ने अपने संस्कृत-अंग्रेज़ीशब्दकोष में ‘इलायास्पद‘ का अर्थ (इला अर्थात पूजा का स्थल) लिखा है और पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने ऋग्वेद 3, 23, 4 में इस शब्द का अनुवाद ‘पवित्र स्थान‘ किया है।
अन्य भारतीय धर्म साहित्य में काबे को ‘आदि पुष्कर तीर्थ‘ भी कहा गया है जो अन्य देश में है और जिसके स्थित होने का स्थान आज तक अज्ञात है। (स्पष्ट रहे कि पुष्कर के नाम से एक तीर्थ अजमेर में है परन्तु आदि पुष्कर तीर्थ कहां है ?, जहां स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति पद्म पुराण में बताई गई है, यह सर्वथा अज्ञात है)
काबे से संबंध की झलक भारत में
आदि मनु या आदम जिनकी हम सब संतान होने के नाते एक वर्ण और परस्पर भाई-भाई हैं, उनकी इस याद को सबसे प्राचीन धार्मिक जातियों के समूह हिन्दुओं ने अपने विभिन्न धार्मिक रीतियों में सात परिक्रमाओं के रूप में शेष रखा हुआ है और अन्य यादें उस घटना की सांकेतिक रूप से हिन्दुओं में आज तक प्रचलित हैं। उदाहरणतः अन्तिम ईशदूत ह. मुहम्मद स. ने निर्देश दिया कि हज के समय यात्री या तो नंगे पैर रहें या फिर केवल ऐसे चप्पल या खड़ांव पहन लें जिनका केवल तला हो पर ऊपरी भाग न हो। इन चप्पलों का आदर्श रूप वे खूंटे वाली खड़ांव हैं जो भारतीय ऋषियों मुनियों को चित्रों में पहने दिखाया जाता है और जिनका तीर्थ यात्राओं पर पहनना आज भी उत्तम समझा जाता है। अंतिम ईशदूत स. ने यह भी निर्देश दिया कि यात्री (हज की एक शास्त्र विधि) अपने सिर के बालों का मुंडन कराएं कराएं या कम से कम कुछ कटवाएं। यह प्रथा भी आज तक हिन्दू यात्रियों में प्राचीन काल से चली आ रही है।
शिला का चुम्बन
‘हजरे अस्वद‘, स्वर्ग से आई शिला जो काबे की दीवार में स्थित है |
यह पत्थर जो आदम के साथ स्वर्ग से उतरा, आरंभ में चमकते हुए हीरे के समान था। बाद में आदम की संतान (मानव जाति)के पापों के कारण यह काला हो गया। (इब्ने कसीर)
बिना सिले वस्त्र
हज का तीसरा अनिवार्य अंग ‘अहराम‘ है। अहराम वे बिना सिले वस्त्र हैं जो हाजी पहनते हैं। दो बिना सिले कपड़े जिनमें से एक को धोती या तहबंद के स्थान पर और दूसरे को चादर की तरह लपेट लिया जाता है। लाखों हाजियों को यही वेशभूषा अपनानी होती है ताकि
‘अहराम‘ बिना सिले वस्त्र |
2. मानव जाति मौत को याद कर सके कि ऐसा ही बिना सिला कफ़न पहनकर उसे एक दिन संसार से विदा होना है और यह जीवन कुछ समय का अवकाश है।
3. अहराम पहनने के बाद पुनः गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने तक बहुत सी वे चीज़ें जो पहले वैध थीं अब उन पर अंकुश लगा दिया जाता है, जैसे पति-पत्नी का शारीरिक संबंध अहराम त्यागने तक मना है ताकि सब नर-नारी अपने को एक समान समझ कर सांसारिक ऐश्वर्य को त्याग कर पूर्णतः ईश्वर की ओर ध्यानमग्न हो सकें।
स्वाभाविक संयोग
अहराम की यह प्रथा भी हिन्दू धार्मिक जातियों ने ऐसी अपनाई कि साधारण जीवन में भी धोती और साड़ी के रूप में बिना सिले वस्त्र धारण कर लिए।
ह. आदम और हव्वा काबे की परिक्रमा करने के पश्चात भारत लौट आए जो उनका मुख्य प्रचार क्षेत्र और वतन है।
‘‘एक परंपरा के अनुसार आदम और हव्वा ने भारत से पैदल चलकर चालीस बार हज किया। (तारीख़-ए-तबरी)
कोई आश्चर्य नहीं है कि विश्व में केवल भारतीय मूल की जातियों ने ही काबा संबंधी प्रथाओं को सांकेतिक रूप में अपने सामान्य जीवन में शेष रखा हुआ है।
‘सई‘ , व्याकुल हाजिरा की याद
हज की अन्य अधिकतर क्रियाओं का संबंध ईशदूत हज़रत इबराहीम अ., उनकी पत्नी हाजिरा और उनके पुत्र इस्माईल अ. से है जो बाद में स्वयं ईश्वर के दूत हुए। ये सभी क्रियाएं हज के अनिवार्य (फ़र्ज़) अंग नहीं हैं बल्कि आवश्यक (वाजिब) अंग हैं। इबराहीम और उनके परिवार की प्रासंगिक घटनाओं के कुछ अंश बाइबिल में भी हैं।
अरफ़ात में हाजियों के लाखों तम्बू |
हदीस के प्रामाणिक ग्रंथ बुख़ारी के मुताबिक़ आगे का बयान इस प्रकार है-
‘‘उस समय मक्का में कोई न रहता था और आस-पास कहीं पानी न था। उनके पास एक थैले में खजूरें और एक चमड़े के थैले में पानी था। फिर ह. इबराहीम लौटने लगे तो इस्माईल की माता ने उनका पीछा किया और कहने लगीं, हे इबराहीम ! आप ऐसी घाटी में हमें छोड़कर कहां जा रहे हैं ?
उन्होंने कई बार ये शब्द दोहराये परन्तु इबराहीम ने उनकी ओर मुड़कर नहीं देखा बल्कि केवल इतना कहा -‘मुझे ईश्वर ने यही करने का आदेश दिया है।‘
वह बोलीं-‘यदि ऐसा है तो वह हमें नष्ट नहीं होने देगा।‘
इबराहीम अ. मुड़े और चलते रहे...इस्माईल की माता उन्हें दूध पिलाती रहीं यहां तक कि पानी समाप्त हो गया...उन्होंने देखा कि बच्चा एड़ियां रगड़ रहा है। वह इस दृश्य को सहन न करके पानी की तलाश में निकलीं। निकट ही सफ़ा पहाड़ी थी। उस पर चढ़कर घाटी की ओर देखा परन्तु कोई दिखाई न दिया। यह उतर आईं और घाटी में दामन समेटकर ऐसे दौड़ीं जैसे कोई मुसीबत का मारा दौड़ता है।...मरवा पहाड़ी (मेरू पर्वत) पर पहुंची...यही भागदौड़ (एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी पर भागना) उन्होंने सात बार की...जब अन्तिम बार वह मरवा पहाड़ी पर चढ़ीं तो उन्होंने एक आवाज़ सुनी...उन्होंने एक फ़रिश्ते को देखा तो उसने अपनी ऐड़ी मारी यहां तक कि पानी निकलने लगा...उसके बाद पानी धरती से उबलने लगा।...फ़रिश्ते ने कहा अपने नष्ट होने का विचार भी मन में न आने देना क्योंकि यहां बैतुल्लाह (काबा) है जिसे यह बालक और इसके पिता (इबराहीम) निर्मित करेंगे।...बैतुल्लाह पृथ्वी से कुछ ऊँचा था जैसे टीला। बाढ़ आती तो पानी कटकर उसके इधर उधर से निकल जाता।‘‘ (बुख़ारी-किताबुलअम्बिया)
इस उल्लेख से मालूम हुआ कि काबा जिसका पुनर्निर्माण ह. इबराहीम अ. को करना था यहां टीले रूप में पहले से मौजूद था।
हज़रत हाजिरा जिन पहाड़ियों के बीच भागी थीं, उनके बीच उसी प्रकार सात चक्कर लगाकर हाजी उनके बलिदान की याद ताज़ा करते हैं। इसे ‘‘सई‘‘ (प्रयत्न) कहते हैं।
बाइबिल की पुष्टि
बाइबिल में इस घटना का उल्लेख इस प्रकार है-
‘‘अब्राहम सबेरे उठे उन्होंने रोटी और पानी से भरी चमड़े की थैली हाजिरा को दी। उसे हाजिरा के कंधे पर रख दिया और बालक सहित उसको विदा कर दिया। हाजिरा चली गई और बएर-शबा के निर्जन प्रदेश में भटकने लगी। जब थैली का पानी समाप्त हो गया तब उसने बालक को एक झाड़ी के नीचे छोड़ दिया। वह बालक के सामने पर्याप्त दूर-तीर के निशाने पर बैठ गई, क्योंकि वह सोचती थी, मैं अपने बच्चे की मृत्यु अपनी आंखों से नहीं देख सकती। जब वह उसके सामने दूर बैठी तब बालक चीख़ मार कर रोने लगा। परमेश्वर ने बालक के रोने की आवाज़ सुनी, परमेश्वर के दूत ने स्वर्ग से हाजिरा को पुकारा और कहा, हाजिरा तुझे क्या हुआ है ? मत डर, जहां तेरा बालक पड़ा है वहां से परमेश्वर ने उसकी आवाज़ सुनी है। उठ और बालक को उठा। उसे अपने हाथों से सावधानी से संभाल, क्योंकि मैं उससे एक महान राष्ट्र का उद्भव अवश्य करूंगा। तब परमेश्वर ने उसकी आंखें खोल दीं। उसे एक कुआं दिखाई दिया, वह उसके निकट गई और चमड़े की थैली को पानी से भर लिया। तत्पश्चात उसने बालक को पानी पिलाया। परमेश्वर बालक के साथ था। वह बड़ा होता गया। वह निर्जन प्रदेश में रहता था। वह विख्यात धनुर्धारी बना। वह पारन (वर्तमान मक्का नगर) के निर्जन प्रदेश में रहता था।
शैतान का बहकाना और ‘रमी‘
मरूस्थल में पानी का सोता फूटने से वहां क़ाफ़िले रूकने लगे और आबादी हो गई। जब परमेश्वर 13 वर्ष के हुए तो परमेश्वर ने अपने दूत ह. इबराहीम अ. की एक और कड़ी परीक्षा ली। उन्होंने स्वप्न में देखा कि वे अपने पुत्र की बलि दे रहे हैं। तीन दिन तक निरन्तर एक ही स्वप्न देखते रहे। ह. इस्माईल उनके बुढ़ापे की सन्तान की संतान थे और उस समय तक इकलौते ही थे। अभी इस्हाक़ का जन्म नहीं हुआ था जो उनकी पहली पत्नी सायरा से थे और इस्माईल से 14 वर्ष छोटे थे। पुत्र को एक बार तो वह मौत की गोद में फेंक ही चुके थे। ईश्वर के आदेश को समझकर वह मक्का पहुंचे, इस्माईल को साथ लिया और आबादी से बाहर चल पड़े। जहां आजकल मिना है (मक्का से 4 किमी. दूर) शैतान ने वहां तीन बार इस्माईल को पिता के इरादों की सूचना देकर बहकाने की कोशिश की परन्तु उन्होंने उसे हर बार धुतकार दिया। इन तीनों स्थानों पर इस्माईल अ. की दृढ़ता की याद में हाजी लोग कंकरियां फेंक कर सांकेतिक रूप में शैतानको मारते हैं। इसे ‘रमी‘ कहते हैं।
कुरबानी, अभूतपूर्व बलिदान की निशानी
थोड़ी दूर पहुंचकर इबराहीम रूक गए और पुत्र को अपना इरादा और ईश्वर का आदेश बताया। इस्माईल सहर्ष राज़ी हो गए और पिता को सुझाव दिया कि अपनी आंखों पर पट्टी बांध लें ताकि छुरी चलाते समय नीयत न डगमगाए। पुत्र को लिटा कर इबराहीम छुरी चलाने ही वाले थे कि फ़रिश्ते की आवाज़ आई कि यह तो केवल एक परीक्षा थी जिस में आप पूरे उतरे फिर उसने एक मेंढा प्रस्तुत किया कि उसे ज़िबह कर लें।
आत्म बलिदान की इस महान घटना की याद में हाजी लोग मिना में उस स्थान पर पशुओं की कुरबानी करते हैं और उसी दिन अर्थात हज के महीने की 10 तारीख़ को पूरे विश्व के मुस्लिम प्रातः ईश्वर को धन्यवाद अर्पित करने के लिए ईदुल अज़्हा की नमाज़ पढ़ते हैं और फिर कुरबानी करते हैं।
कुरआन में बलिदान का विवरण
कुरआन में इस घटना का वृतान्त निम्न है-
इबराहीम ने कहा ‘मैं अपने प्रभु के (मार्ग) की ओर जाता हूं वही मेरा पथ प्रदर्शन करेगा। हे प्रभु, मुझे एक पुत्र प्रदान कर जो नेक हो।‘ हमने उसे एक संयमशील पुत्र कीश शुभ सूचना दी। यह बालक जब उसके साथ परिश्रम करने की आयु को पहुंचा तो इबराहीम ने (एक दिन) कहा ‘हे पुत्र, मैं स्वप्न में स्वयं को तुझे ज़िबह करते हुए देख रहा हूं, तू बता तेरा क्या विचार है ? बालक ने कहा, पिताजी आपको जो आदेश मिला है कर डालिए, ईश्वर ने चाहा तो आप मुझे धैर्यवान ही पाएंगे। फिर जब दोनों ने (प्रभु की इच्छा के प्रति) समर्पण कर दिया और इबराहीम ने पुत्र को माथे के बल लिटा दिया और हमने पुत्र को आवाज़ दी कि ‘हे इबराहीम तूने सपना साकार कर दिखाया। हम नेकी करने वालों को ऐसा ही बदला देते हैं।‘ निश्चय ही यह एक खुली परीक्षा थी और हमने एक बड़ी कुरबानी बदले में देकर उस बालक को छुड़ा लिया और उसकी प्रशंसा सदा के लिए आने वाली नस्लों में निश्चित कर दी। सलाम (शांति) है इबराहीम पर।
हम परोपकारी को ऐसा ही बदला देते हैं। निश्चय ही वह आस्तिक बन्दों में से था और फिर हमने उसे इस्हाक़ (दूसरे पु़त्र) के जन्म की शुभ सूचना दी। जिसे एक परोपकारी ईशदूत बनाना था। (कुरआन, 37,101 से 112 तक)
बाइबिल का बयान
बाइबिल में उपरोक्त कुरबानी की घटना में यह मुख्य अंतर है कि उसमें इबराहीम अ. अपने छोटे पुत्र इसहाक़ अ. को कुरबानी के लिए लेकर निकलते बताए गए हैं। बाइबिल में नक़ल करने वालों के हाथों अनेकों ग़लतियां होना ईसाई शोधकर्ताओं को मान्य है। इसके अतिरिक्त स्वयं बाइबिल में एकलौते पुत्र की कुरबानी का उल्लेख है। एकलौते पुत्र तो 14 वर्ष की आयु को पहुंचने तक इस्माईल ही थे जैसा कि स्वयं बाइबिल भी बताती है।
‘‘जब हाजिरा ने अब्राम (अब्राहम) से यिश्माएल (इस्माईल) को जन्म दिया तब अब्राम छियासी वर्ष के थे (उत्पत्ति, 16,16)
‘‘अपने पुत्र इसहाक़ के जन्म के समय अब्राहम सौ वर्ष के थे।‘‘ (उत्पत्ति, 21,5)
आगे घटनाक्रम का जो उल्लेख उद्धृत किया जा रहा है, उसमें इकलौते पुत्र इसहाक़ का नाम है जबकि इकलौत इस्माईल थे (14 वर्ष तक)
इन घटनाओं के पश्चात परमेश्वर ने अब्राहम को कसौटी पर कसा। उसने उन्हें पुकारा ‘अब्राहम‘। उन्होंने उत्तर दिया ‘प्रभु, क्या आज्ञा है ?‘ परमेश्वर ने कहा, ‘तू अपने पुत्र, अपने एकलौते पुत्र इसहाक़ को प्यार करता है। तू उसको लेकर मोरियाह देश जा। वहां मैं तुझे एक पहाड़ बताऊंगा, तू उस पहाड़ पर अपने पुत्र को अग्नि-बलि में चढ़ाना। अब्राहम सवेरे उठे। उन्होंने अपने गधे पर ज़ीन कसी, अपने साथ दो सेवकों एवं अपने पुत्र इसहाक़ को लिया, अग्नि बलि के लिए लकड़ी काटी और स्थान की ओर चले... उन्होंने अपने सेवकों से कहा तुम यहीं गधे के पास ठहरो... वे उस स्थान पर पहुंचे जिसके विषय में परमेश्वर ने अब्राहम से कहा था। वहां अब्राहम ने एक वेदी बनाकर उस पर लकड़ियां रख दीं। तब उन्होंने अपने पुत्र इसहाक़ को बांधा और उसे लकड़ियों के ऊपर वेदी पर लिटा दिया। फिर अब्राहम ने अपने पुत्र को बलि करने के लिए हाथ बढ़ाकर छुरा उठाया। किन्तु प्रभु के दूत ने स्वर्ग से उन्हें पुकार कर कहा, ‘‘अब्राहम, अब्राहम। वह बोले, ‘प्रभु क्या आज्ञा है ?‘ दूत ने कहा, ‘बालक की ओर अपना हाथ मत बढ़ा और न उसे कुछ कर। अब मैं जान गया हूं कि तू परमेवर का सच्चा भक्त है... अब्राहम ने अपनी आंखें ऊपर उठाईं तो देखा कि उनके पीछे एक मेंढा खड़ा है। वह अपने सींगों से एक झाड़ी में फंसा हुआ है। अब्राहम गए। उन्होंने उस मेंढे को पकड़ा और अपने पुत्र के स्थान पर उसकी अग्नि-बलि चढ़ाई। (उत्पत्ति, 22,1 से 13)अंतर का महत्व नहीं
सत्य की खोज के लिए शोध कार्य का अपना महत्व है परन्तु इब्राहीम के वह पुत्र इस्माईल थे या इसहाक़ इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। सांप्रदायिक जातिवाद से ऊपर न उठ सकने वाले यहूदियों, ईसाईयों या मुसलमानों की दृष्टि में हो सकता है, इनमें से किसी एक का महत्व अधिक हो (क्योंकि ह. इसहाक़ की सन्तान में उन ईशदूतों ने जन्म लिया जिनमें यहूदी तथा ईसाई आस्था रखते हैं और ह. इस्माईल अ. के वंश में अंतिम देवदूत ह. मुहम्मद स. उत्पन्न हुए) किन्तु सच्चे मुसलमानों के लिए महत्व केवल इस बात का है कि ह. इब्राहीम अ. ईश्वर के आदेश पर अपने एकलौते पुत्र की कुरबानी देने के लिए तैयार हो गए थे। मुसलमान ह. इस्माईल और ह. इसहाक़ में एक समान आस्था रखते हैं क्योंकि कुरआन ने उन्हें पृथ्वी के हर भाग और हर जाति में आए सभी ईशदूतों में आस्था रखने और उनमें भेद न करने का आदेश दिया है।
अंतिम ईशदूत स. द्वारा परमेश्वर के आदेशानुसार मुसलमान इस बलिदान की घटना की याद में प्रत्येक वर्ष कुरबानी (यज्ञ) करते हैं और कुरबानी (यज्ञ) के मांस का एक तिहाई भाग ग़रीबों में बांटते हैं।
हिन्दू परंपरा में मांसाहार
वर्तमान में हिन्दू भाइयों की दृष्टि में कुरबानी करना धार्मिक रीति तो क्या, घोर पाप है, परंतु अतीत में बौद्धों और जैनियों के प्रभाव से पूर्व ऐसी किसी धारणा का अस्तित्व न केवल नहीं था बल्कि हिन्दू ग्रंथों में आज भी कुरबानी और मांस भक्षण का उल्लेख मौजूद है। मनु स्मृति जिसे समाज का एक वर्ग ब्राह्मणों द्वारा रचित विधान और व्यवस्था का नाम देता है, के पंचम अध्याय का अधिकतर भाग कुरबानी तथा मांस भक्षण पर ही आधारित है। उदाहरण के लिए -
यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः ।
भृत्यानां चैव वृत्यर्थमगस्त्यो ह्याचरत्पुरा ।। (मनु. 5,22)
अर्थात यज्ञ के लिए तो अवश्य तथा रक्षणीय की रक्षा के लिए शास्त्र-विहित मृग और पक्षियों का वध करे। ऐसा अगस्त्य ऋषि ने पहले किया था।
प्राणास्यान्नमिदं सर्वं प्रजापतिरकल्पयत् ।
स्थावर। जंगमं चैव सर्व प्राणस्य भोजनम् ।। (मनु. 5, 28)
अर्थात प्रजापति ने जीव का सब कुछ खाने योग्य कहा है। सब स्थावर (फल, सब्ज़ी आदि) तथा जंगम (पशु-पक्षी, जलचर आदि) जीव जीवों के खाद्य भक्ष्य हैं।
नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्प्राणिनोऽहन्यहन्यपि ।
धात्रैव सृष्टा ह्याद्याश्च प्राणिनात्तार एव च ।। (मनु. 5, 30)
अर्थात प्रतिदिन भक्ष्य जीवों को खाने वाला भी भक्षक दोषी नहीं होता है, क्योंकि सृष्टा ने ही भक्ष्य तथा भक्षक, दोनों को बनाया है।
नाद्यादविधिना मांस विधिज्ञोपनदि द्विजः । (मनु. 5, 33)
अर्थात विधान को जानने वाला द्विज बिना आपत्तिकाल में पड़े विधिरहित मांस को न खाए।
नियुक्तस्युक्त यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः ।
स प्रेत्य पशुतां याति संभवानेकविंशतिम् ।। (मनु. 5, 35)
अर्थात शास्त्रानुसार नियुक्त जो मनुष्य मांस को नहीं खाता है, वह मर कर इक्कीस जन्म तक पशु होता है।
यज्ञार्थं पशवः सृष्टा स्वयमेव स्वयंभुवा ।
यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य यस्याद्यज्ञे वधोर्वधः ।। (मनु. 5, 39)
अर्थात सृष्टा ने यज्ञ के लिए पशुओं को स्वयं बनाया है और यज्ञ संपूर्ण संसार की उन्नति के लिए है, इस कारण यज्ञ में पशु का वध वध नहीं है।
उपरोक्त ‘लोकों से स्पष्ट है कि स्मृतिकार की दृष्टि में केवल विधिरहित वध का निषेध है। ईशदूतों की सिखलाई विधि के अनुसार ईश्वर का नाम लेकर कुरबानी करना उत्तम है और कुरबानी या यज्ञ का मांस न खाना पाप है।
आजकल मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी की गाथाएं बड़ी लोकप्रिय हैं, परन्तु उनकी गाथाओं के मूल आधार वाल्मीकि रामायण का साधारण जनता को कम ही ज्ञान है। वाल्मीकि रामायण में अनेकों स्थानों पर श्री रामचन्द्र जी के शिकार करने और मांस खाने का उल्लेख है। केवल एक उदाहरण यहां उद्धृत किया जा रहा है -
तां तदा दर्शयित्वा तु मैथिली गिरिनिम्नगाम् ।
निषसाद गिरिप्रस्थे सीतां मांसेन छन्दयन् ।।
इदं मध्यमिदं स्वादु निष्टप्तमिद मग्निना ।
एवमास्ते स धर्मात्मा सीतया सह राघवः ।।
(वाल्मीकि रामायण, अयोध्या काण्ड, 96, 1 व 2)
अर्थात इस प्रकार सीता जी को (नदी के) दर्शन कराकर उस समय श्री रामचन्द्र जी उनके पास बैठ गए और तपस्वी जनों के उपभोग में आने योग्य मांस से उनका इस प्रकार लालन करने लगे, ‘‘इधर देखो प्रिये, यह कितना मुलायम है, स्वादिष्ट है और इसको आग पर अच्छी तरह सेका गया है।‘‘
इसके अतिरिक्त श्री रामचन्द्र जी के मृगादि के शिकार तथा मांस खाने के वृतान्त के लिए वाल्मीकि रामायण में देखें - अयोध्या काण्ड, 52-102; 56-22 से 28; और अरण्य काण्ड 47-23 व 24 आदि।
पाराशर, पतंजलि और याजनवल्क्य के मांस भक्षण संबंधी उद्धरण तो वर्तमान अज्ञान की स्थिति में प्रस्तुत करना उचित ही नहीं है क्योंकि उससे शाकाहारियों और गौ-प्रेमियों की भावनाएं उत्तेजित होंगी। यद्यपि उन्हें धार्मिक भावनाएं नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये उद्धरण तो धार्मिक ग्रंथों के ही हैं।
अंतर्राष्ट्रीय समानता का आह्वान
इस प्रकार हज केवल एक उपासना या तीर्थ ही नहीं बल्कि हर रंग, वंश और जाति के लोगों की अंतर्राष्ट्रीय एकता का एक ऐसा विचित्र सामूहिक प्रदर्शन है जिस में सभी मुख्य धर्मों की परंपराओं की झलक भी है। कुरआन कहता है कि
काबा विश्व की सभी जातियों के लिए मार्गदर्शन का केन्द्र है। (3, 96)
और परमेश्वर सभी को इस शांति स्थल की ओर आमंत्रित कर रहा है। (10, 25)
जनाब एस. अब्दुल्लाह तारिक़ साहब का नाम तुलनात्मक धार्मिक अध्ययन के क्षेत्र में विश्व स्तर पर प्रसिद्ध है। जनाब तारिक़ साहब आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब के ज्येष्ठ शिष्य हैं और विश्व कल्याण आगम संस्थान, रामपुर, उ. प्र. के अध्यक्ष हैं। आपका उद्देश्य धर्मग्रंथों के एकत्व को जनसामान्य के सामने लाना है। गुजराती भाषा के वेदभाष्यकार आचार्य विष्णुदेव पंडित जी समेत अनेक विद्वानों ने आपके शोधकार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। नॉर्थ गुजरात यूनिवर्सिटी, अहमदाबाद के डा. गजेन्द्र कुमार पण्डा जी व जयपुर के वेदाचार्य डा. श्री राजेन्द्र प्रसाद मिश्र जी समेत कई प्रतिष्ठित विद्वानों के साथ देश के विभिन्न प्रांतों में आपके प्रोग्राम हो चुके हैं। पीस टी. वी. उर्दू पर आपके लेक्चर्स नियमित रूप से आते रहते हैं।और परमेश्वर सभी को इस शांति स्थल की ओर आमंत्रित कर रहा है। (10, 25)
S. Abdullah Tariq and Shanti Kunj workers |
वेद और कुरआन के समान सूत्रों के आधार पर भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों के दरम्यान दिव्य एकत्व का बोध कराना जनाब के जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।
Tuesday, November 16, 2010
Sacrifice of animals in Vedic yag वैदिक यज्ञ में पशुबलि और ब्राह्मणों द्वारा गोमांसाहार - According to Sayan and Vivekanand
स्वामी विवेकानंद ने पुराणपंथी ब्राह्मणों को उत्साहपूर्वक बतलाया कि वैदिक युग में मांसाहार प्रचलित था . जब एक दिन उनसे पूछा गया कि भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कौन सा काल था तो उन्होंने कहा कि वैदिक काल स्वर्णयुग था जब "पाँच ब्राह्मण एक गाय चट कर जाते थे ." (देखें स्वामी निखिलानंद रचित 'विवेकानंद ए बायोग्राफ़ी' प॰ स॰ 96)
€ @ अमित जी, क्या अपने विवेकानंद जी की जानकारी भी ग़लत है ?
या वे भी सैकड़ों यज्ञ करने वाले आर्य राजा वसु की तरह असुरोँ के प्रभाव में आ गए थे ?
2- ब्राह्मणो वृषभं हत्वा तन्मासं भिन्न भिन्नदेवताभ्यो जुहोति .
ब्राह्मण वृषभ (बैल) को मारकर उसके मांस से भिन्न भिन्न देवताओं के लिए आहुति देता है .
-ऋग्वेद 9/4/1 पर सायणभाष्य
सायण से ज्यादा वेदों के यज्ञपरक अर्थ की समझ रखने वाला कोई भी नहीं है . आज भी सभी शंकराचार्य उनके भाष्य को मानते हैं । Banaras Hindu University में भी यही पढ़ाया जाता है ।
क्या सायण और विवेकानंद की गिनती कुक्कुरों , पशुओं और असुरों में करने की धृष्टता क्षम्य है ?
जो मुँह में आए कह देते हैं यह नहीं देखते कि अपना कहा हुआ दूसरों से पहले खुद पर ही पड़ रहा है और वैदिक सभ्यता के बारे मेँ खुद को नादान साबित कर रहे हैं बेतुकी और झूठी बात कहने वाले ।
सभी उद्धरण डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात की पुस्तक 'क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिन्दू धर्म' से साभार
€ @ अमित जी, क्या अपने विवेकानंद जी की जानकारी भी ग़लत है ?
या वे भी सैकड़ों यज्ञ करने वाले आर्य राजा वसु की तरह असुरोँ के प्रभाव में आ गए थे ?
2- ब्राह्मणो वृषभं हत्वा तन्मासं भिन्न भिन्नदेवताभ्यो जुहोति .
ब्राह्मण वृषभ (बैल) को मारकर उसके मांस से भिन्न भिन्न देवताओं के लिए आहुति देता है .
-ऋग्वेद 9/4/1 पर सायणभाष्य
सायण से ज्यादा वेदों के यज्ञपरक अर्थ की समझ रखने वाला कोई भी नहीं है . आज भी सभी शंकराचार्य उनके भाष्य को मानते हैं । Banaras Hindu University में भी यही पढ़ाया जाता है ।
क्या सायण और विवेकानंद की गिनती कुक्कुरों , पशुओं और असुरों में करने की धृष्टता क्षम्य है ?
जो मुँह में आए कह देते हैं यह नहीं देखते कि अपना कहा हुआ दूसरों से पहले खुद पर ही पड़ रहा है और वैदिक सभ्यता के बारे मेँ खुद को नादान साबित कर रहे हैं बेतुकी और झूठी बात कहने वाले ।
सभी उद्धरण डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात की पुस्तक 'क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिन्दू धर्म' से साभार
Sunday, November 14, 2010
The role of women in Islam जिसे 'सत्य की खोज' है, जो अपनी ज़िंदगी का मक़सद और उसे पाने का तरीक़ा जानना चाहता है उसके लिए यह लेक्चर बहुत क़ीमती है
1. औरत को मारने का हुक्म है कुरआन में।
2. औरत का हिस्सा मर्द के मुक़ाबले कम है इस्लाम में ।
3. दो औरतों की गवाही एक मर्द के बराबर है इस्लाम में।
4. ‘दुनिया की चीज़ों में मुझे औरत पसंद है‘ ऐसा आया है हदीस में।
5. औरत तुम्हारे लिए खेती है, ऐसा आया है कुरआन में।
6. औरत को घरों में बंद करके एक घुटन भरी ज़िंदगी देता है इस्लाम।
7. इस्लाम की हुकूमत क़ायम करना ही एकमात्र मक़सद होता है मुसलमान का।
इस तरह के ऐतराज़ नए नहीं हैं और न ही इनके जवाब ही नए हैं। आज अपनी वेबसाइट ‘इस्लामहिंदी डॉट कॉम‘ के उद्घाटन के लिए जब हम मौलाना वहीदुददीन ख़ान साहब के सेंटर ‘सीपीएस ग्लोबल, 1 निज़ामुद्दीन वेस्ट, नई दिल्ली 100013‘ पहुंचे तो उनका लेक्चर चल रहा था और उसका विषय था ‘द रोल आफ़ वूमेन इन इस्लाम‘।
उनके इस एक लेक्चर में ही इन सारे सवालों के जवाब मौजूद हैं। जिसे 'सत्य की खोज' है, जो अपनी ज़िंदगी का मक़सद और उसे पाने का तरीक़ा जानना चाहता है उसके लिए यह लेक्चर बहुत क़ीमती है।
इस लेक्चर के बाद सवाल जवाब का सेशन हुआ और फिर मौलाना के मुबारक हाथों से का उद्घाटन हुआ।
इस प्रोग्राम की कुछ झलक आप यहां देख सकते हैं।
इस्लाम के बारे में यदि आप कुछ और जानना चाहें तो आप ईमेल कर सकते हैं Email: info@cps.org.in
फ़ोन पर भी आप जानकारी ले सकते हैं- +91-11-24357333
यह लेक्चर आज की तारीख़ (14-11-2010) का है इसके अलावा आप उनके पुरानी तारीख़ के लेक्चर भी देख सकते हैं यहाँ. http://www.cpsglobal.org/content/video-streams
2. औरत का हिस्सा मर्द के मुक़ाबले कम है इस्लाम में ।
3. दो औरतों की गवाही एक मर्द के बराबर है इस्लाम में।
4. ‘दुनिया की चीज़ों में मुझे औरत पसंद है‘ ऐसा आया है हदीस में।
5. औरत तुम्हारे लिए खेती है, ऐसा आया है कुरआन में।
6. औरत को घरों में बंद करके एक घुटन भरी ज़िंदगी देता है इस्लाम।
7. इस्लाम की हुकूमत क़ायम करना ही एकमात्र मक़सद होता है मुसलमान का।
इस तरह के ऐतराज़ नए नहीं हैं और न ही इनके जवाब ही नए हैं। आज अपनी वेबसाइट ‘इस्लामहिंदी डॉट कॉम‘ के उद्घाटन के लिए जब हम मौलाना वहीदुददीन ख़ान साहब के सेंटर ‘सीपीएस ग्लोबल, 1 निज़ामुद्दीन वेस्ट, नई दिल्ली 100013‘ पहुंचे तो उनका लेक्चर चल रहा था और उसका विषय था ‘द रोल आफ़ वूमेन इन इस्लाम‘।
उनके इस एक लेक्चर में ही इन सारे सवालों के जवाब मौजूद हैं। जिसे 'सत्य की खोज' है, जो अपनी ज़िंदगी का मक़सद और उसे पाने का तरीक़ा जानना चाहता है उसके लिए यह लेक्चर बहुत क़ीमती है।
इस लेक्चर के बाद सवाल जवाब का सेशन हुआ और फिर मौलाना के मुबारक हाथों से का उद्घाटन हुआ।
इस प्रोग्राम की कुछ झलक आप यहां देख सकते हैं।
इस्लाम के बारे में यदि आप कुछ और जानना चाहें तो आप ईमेल कर सकते हैं Email: info@cps.org.in
फ़ोन पर भी आप जानकारी ले सकते हैं- +91-11-24357333
यह लेक्चर आज की तारीख़ (14-11-2010) का है इसके अलावा आप उनके पुरानी तारीख़ के लेक्चर भी देख सकते हैं यहाँ. http://www.cpsglobal.org/content/video-streams
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Saturday, November 13, 2010
Hindu mariage ceremonies क्या एक दादा की औलाद की आपस में शादी हो सकती है ?
संघ आंदोलित है।
लेकिन भाई क्यों आंदोलित है ?
उसके एक वरिष्ठ कार्यकर्ता के ख़िलाफ़ आतंकवाद के जुर्म में चार्जशीट दाख़िल कर दी गई है।
तो इसमें इतना बिफरने की क्या बात है ?
हमारी पत्रकार बहन के सरपरस्त इन्द्रेश जी बेगुनाह हुए तो छूट ही जाएंगे न ?
क्या संघ को देश के क़ानून पर , न्यायपालिका पर ज़रा भी ऐतबार नहीं है ?
अपनी छवि पर आंच आते ही बौखला उठा संघ आखि़र उन 22 नौजवानों के बंधक बने होने पर आंदोलित क्यों नहीं हुआ जो बेचारे 8 मई 2010 से ही सोमालिया के समुद्री डाकुओं की गिरफ़्त में हैं ?
देश की छवि पर आंच आती है तो आए अपनी बला से, बस अपनी छवि पर बट्टा नहीं लगना चाहिए, है न ?
लेकिन वह तो और भी ज़्यादा लग रहा है।
मोहन भागवत जी ने सोनिया जी पर बेतुका आरोप लगा डाला।
मुसीबत में अक्ल पहले साथ छोड़ देती है। उनके बयान से यही बात साबित हो रही है।
सोनिया जी विदेशी हैं, यह बात सही है लेकिन वह इस देश की कोई पहली विदेशी बहू तो हैं नहीं।
गांधारी खुद क़ंधार की थीं।
क्या कहा ?
क़ंधार तो आर्यवर्त का ही भाग था इसलिए वे विदेशी नहीं मानी जा सकतीं।
ठीक कहते हैं आप, मैं भी अफ़ग़ानिस्तान के आर्यों से आपके रक्त संबंध को ही याद दिलाना चाहता था।
अमेरिका तो आर्यवर्त में नहीं आता था, क्यों ?
कहते हैं कि आज का अमेरिका ही पुराणों का पाताल लोक है।
चलिए, अगर ऐसा ही है तो फिर मानना पड़ेगा कि बनियों के आदि पिता महाराजा अग्रसैन जी अपने सिंघल और जिंदल आदि 18 बेटों की बारात लेकर अमेरिका गए थे, अब से लगभग 5200 साल पहले। वहां से वे 18 विदेशी बहुएं लेकर आए। उनसे उनका वंश चला। सिंघल, जिंदल, मित्तल और अग्रवाल आदि 18 या 18 से भी ज़्यादा गोत्र उन बहुओं से ही चले। इन्हीं गोत्रों से उत्पन्न लोग आज संघ की रीढ़ हैं। विदेशी बहुओं का इतना बड़ा उपकार है देश पर, विशेषकर संघ पर लेकिन संघ फिर भी विदेशी बहू की तौहीन कर रहा है।
संघ तो संस्कार पर ज़ोर देता है, फिर यह बदतमीज़ी भरे आरोप लगाना कौन सा संस्कार है ?
अब एक बात यहां पर गोत्रों की भी हो जाए।
ज्ञानी लोग विराजते हैं नेट पर, कुछ काम की बात ही पता चल जाएगी।
पहली बात तो यह है कि क्या भारत देश जैसे विशाल देश में गुणवती लड़कियों का अकाल पड़ गया था जो महाराजा साहब को विदेश से बहुएं लानी पड़ीं ?
दूसरी बात यह है कि सिंघल, मित्तल, जिंदल और अग्रवाल आदि सभी महाराजा अग्रसेन के बेटे थे। जिंदल के बेटे का विवाह मित्तल की बेटी से क्यों हो जाता है ?
ये दोनों तो आपस में चाचा की औलाद होने से भाई बहन का रिश्ता रखते हैं। ये सभी तो एक दादा अग्रसैन की संतान हैं।
क्या एक दादा की औलाद की आपस में शादी हो सकती है ?
ऐसी ही शादी मुसलमान करें तो उन पर इल्ज़ाम क्यों लगाए जाते हैं ?
सिंघल का बेटा सिंघल की बेटी से तो विवाह नहीं करता लेकिन अपने चाचा की बेटी से कर लेता है और फिर मुसलमान पर हंसता है, क्यों हंसता है भाई ?
हंसना है तो हंसो लेकिन अपनी अक्ल पर कि चल रहे हैं मुसलमानों के ही तरीक़े पर और पता है नहीं।
पता न होना ही इस देश में हिन्दू मुसलमानों को दो किए हुए है।
अच्छा है जितनी जल्दी लोगों को पता हो जाए ताकि दुई की दीवार गिर जाए और हम सब उस एकत्व को पा लें जो कि हमारे दरम्यान वास्तव में है लेकिन जिसका हमें अहसास नहीं है।
बहरहाल संघ परेशान क्यों है ?
संघ जिस कारण भी परेशान हो, लगे हाथों उसे सोमालिया में बंधक पड़े नौजवानों का मुद्दा भी उठा लेना चाहिए। इससे एक तरफ़ तो बंधकों की समस्या हाईलाइट होगी और दूसरी तरफ़ जनता में उसकी छवि ऐसी बनेगी जैसे कि वह वास्तव में कोई राष्ट्रवादी संगठन हो।
वन्दे ईश्वरम् !
लेकिन भाई क्यों आंदोलित है ?
उसके एक वरिष्ठ कार्यकर्ता के ख़िलाफ़ आतंकवाद के जुर्म में चार्जशीट दाख़िल कर दी गई है।
तो इसमें इतना बिफरने की क्या बात है ?
हमारी पत्रकार बहन के सरपरस्त इन्द्रेश जी बेगुनाह हुए तो छूट ही जाएंगे न ?
क्या संघ को देश के क़ानून पर , न्यायपालिका पर ज़रा भी ऐतबार नहीं है ?
अपनी छवि पर आंच आते ही बौखला उठा संघ आखि़र उन 22 नौजवानों के बंधक बने होने पर आंदोलित क्यों नहीं हुआ जो बेचारे 8 मई 2010 से ही सोमालिया के समुद्री डाकुओं की गिरफ़्त में हैं ?
देश की छवि पर आंच आती है तो आए अपनी बला से, बस अपनी छवि पर बट्टा नहीं लगना चाहिए, है न ?
लेकिन वह तो और भी ज़्यादा लग रहा है।
मोहन भागवत जी ने सोनिया जी पर बेतुका आरोप लगा डाला।
मुसीबत में अक्ल पहले साथ छोड़ देती है। उनके बयान से यही बात साबित हो रही है।
सोनिया जी विदेशी हैं, यह बात सही है लेकिन वह इस देश की कोई पहली विदेशी बहू तो हैं नहीं।
गांधारी खुद क़ंधार की थीं।
क्या कहा ?
क़ंधार तो आर्यवर्त का ही भाग था इसलिए वे विदेशी नहीं मानी जा सकतीं।
ठीक कहते हैं आप, मैं भी अफ़ग़ानिस्तान के आर्यों से आपके रक्त संबंध को ही याद दिलाना चाहता था।
अमेरिका तो आर्यवर्त में नहीं आता था, क्यों ?
कहते हैं कि आज का अमेरिका ही पुराणों का पाताल लोक है।
चलिए, अगर ऐसा ही है तो फिर मानना पड़ेगा कि बनियों के आदि पिता महाराजा अग्रसैन जी अपने सिंघल और जिंदल आदि 18 बेटों की बारात लेकर अमेरिका गए थे, अब से लगभग 5200 साल पहले। वहां से वे 18 विदेशी बहुएं लेकर आए। उनसे उनका वंश चला। सिंघल, जिंदल, मित्तल और अग्रवाल आदि 18 या 18 से भी ज़्यादा गोत्र उन बहुओं से ही चले। इन्हीं गोत्रों से उत्पन्न लोग आज संघ की रीढ़ हैं। विदेशी बहुओं का इतना बड़ा उपकार है देश पर, विशेषकर संघ पर लेकिन संघ फिर भी विदेशी बहू की तौहीन कर रहा है।
संघ तो संस्कार पर ज़ोर देता है, फिर यह बदतमीज़ी भरे आरोप लगाना कौन सा संस्कार है ?
अब एक बात यहां पर गोत्रों की भी हो जाए।
ज्ञानी लोग विराजते हैं नेट पर, कुछ काम की बात ही पता चल जाएगी।
पहली बात तो यह है कि क्या भारत देश जैसे विशाल देश में गुणवती लड़कियों का अकाल पड़ गया था जो महाराजा साहब को विदेश से बहुएं लानी पड़ीं ?
दूसरी बात यह है कि सिंघल, मित्तल, जिंदल और अग्रवाल आदि सभी महाराजा अग्रसेन के बेटे थे। जिंदल के बेटे का विवाह मित्तल की बेटी से क्यों हो जाता है ?
ये दोनों तो आपस में चाचा की औलाद होने से भाई बहन का रिश्ता रखते हैं। ये सभी तो एक दादा अग्रसैन की संतान हैं।
क्या एक दादा की औलाद की आपस में शादी हो सकती है ?
ऐसी ही शादी मुसलमान करें तो उन पर इल्ज़ाम क्यों लगाए जाते हैं ?
सिंघल का बेटा सिंघल की बेटी से तो विवाह नहीं करता लेकिन अपने चाचा की बेटी से कर लेता है और फिर मुसलमान पर हंसता है, क्यों हंसता है भाई ?
हंसना है तो हंसो लेकिन अपनी अक्ल पर कि चल रहे हैं मुसलमानों के ही तरीक़े पर और पता है नहीं।
पता न होना ही इस देश में हिन्दू मुसलमानों को दो किए हुए है।
अच्छा है जितनी जल्दी लोगों को पता हो जाए ताकि दुई की दीवार गिर जाए और हम सब उस एकत्व को पा लें जो कि हमारे दरम्यान वास्तव में है लेकिन जिसका हमें अहसास नहीं है।
बहरहाल संघ परेशान क्यों है ?
संघ जिस कारण भी परेशान हो, लगे हाथों उसे सोमालिया में बंधक पड़े नौजवानों का मुद्दा भी उठा लेना चाहिए। इससे एक तरफ़ तो बंधकों की समस्या हाईलाइट होगी और दूसरी तरफ़ जनता में उसकी छवि ऐसी बनेगी जैसे कि वह वास्तव में कोई राष्ट्रवादी संगठन हो।
वन्दे ईश्वरम् !
Tuesday, November 9, 2010
Obama in India पाकिस्तान से आने वाले आतंकियों को हथियार किस देश से मिलते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर से भारतवासी अपने असली दुश्मन को आसानी से पहचान सकते हैं। केवल अपने ही नहीं बल्कि पूरे एशिया के दुश्मन को .
बहन दिव्या जी ने बहुत कम समय में ही ब्लागिस्तान में एक बुलन्द मक़ाम हासिल कर लिया है तो इसके पीछे उनकी यह ख़ूबी है कि अगर कोई बात उन्हें अच्छी लगती है तो वे उसे अच्छा कहने का हौसला रखती हैं। वे यह नहीं देखतीं कि उस बात को कहने वाला हिन्दू क्यों नहीं है ?
जनाब सलीम ख़ान साहब ने दुनिया में होने वाले ज़ुल्म की वजह बताते हुए ‘स्वच्छ संदेश‘ ब्लाग पर अपने एक लेख में यह दिखाया है ज़ुल्म की इंतेहा मज़लूमों को अपने ख़िलाफ़ ख़ुद ही खड़ा कर लेता है। जहां जहां अमेरिका की फौजे गईं, उन्होंने वहां ज़ुल्म किया और उन्हें वहां के नागरिकों ने मार कर भगाया। जहां से अमेरिका भाग आया वहां ख़ुद ब ख़ुद शांति हो गई। ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लड़ना इन्सान की नेचर में शामिल है। किसी मुल्क का इतिहास ऐसी लड़ाईयों से ख़ाली नहीं है। लेकिन आज दुनिया में इस लड़ाई का मक़सद सिर्फ़ दुनियावी संसाधनों पर क़ब्ज़ा जमाना भर रह गया है, इन्सानी गुणों के लिए, इन्सानों के लिए लड़ने वाला आज ज़माने भर में कोई नहीं है। अगर है तो उसके पीछे सीधे या परोक्ष तौर पर इस्लाम ही मिलेगा।
ज़ुल्म और ज़ालिम के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना ही जिहाद है। बुराई को मिटाना ही जिहाद है। इसके लिए लड़ना भी पड़े तो लड़ना भी जिहाद है। ध्यान रहे ‘लड़ना ही‘ नहीं कह रहा हूं क्योंकि जिहाद का अर्थ युद्ध नहीं होता। युद्ध को अरबी में ‘क़िताल‘ कहते हैं। ‘जिहाद‘ का अर्थ है ‘जिद्दोजहद करना, जानतोड़ संघर्ष करना‘ और जब इस्लामी पारिभाषिक शब्द के तौर पर इसे बोला जाता है तो इसका मतलब होता है ‘बुराई के ख़िलाफ़ जानतोड़ संघर्ष करना‘। यह अनिवार्य है हरेक इन्सान पर चाहे वह किसी भी धर्म-मत को क्यों न मानता हो, चाहे वह किसी भी देश में क्यों न रहता हो ?
जिस सोसायटी से यह अमल ख़त्म हो जाता है, उस सोसायटी की स्टीयरिंग सीट पर बुरे लोगों का क़ब्ज़ा हो जाता है जैसा कि आज तक़रीबन दुनिया के हर देश में हो भी चुका है। दुनिया के कमज़ोरों के शोषण और युद्धों और महायुद्धों के पीछे यही चन्द मुठ्ठी भर ख़ुदग़र्ज़ हैवान हैं, जो शक्ल से इन्सान हैं।
बहरहाल मैं यह कह रहा था कि बहन दिव्या जी ने सलीम साहब का लेख पढ़ा और बेहिचक उसे सराहा और साथ ही यह भी पूछा कि क्या इसका उपयोग सही दिशा में हो रहा है ?
जिस लेख को दिव्या जी ने अच्छा कहा है, कुछ लोग उसमें भी पीलिया के रोगी की तरह पीलापन देखते हुए आपको मिलेंगे। लेख अच्छा है, मैंने भी इस पर टिप्पणी दी है।
वरिष्ठ चिंतक और पत्रकार जनाब भाई सय्यद मासूम साहब ने भाई ओबामा के इंडिया आने के बारे में
एक सुदंर मज़मून ब्लागिस्तान के पाठकों की नज़्र किया है। बात अमेरिका की हो और उसकी नीति-कुटनीति की न हो, यह कैसे हो सकता है ?
मासूम साहब ने दुनिया को एक बार फिर वही बताया जिसे वह रूस के पतन से पहले प्रायः जाना करती थी-
‘ताक़तवर देश का हमला युद्ध कहलाता है शांति की रक्षा उसका मक़सद बताया जाता है, जबकि कमज़ोर पीड़ित का हमला आतंवाद प्रचारित किया जाता है और सज़ा के तौर पर उसके पूरे देश को बर्बाद कर दिया जाता है ताकि शांति बहाल हो सके। शांति, क़ब्रिस्तान जैसी शांति। यही न्याय है, यही सभ्यता है।‘
मज़्मून अच्छा लगा। मैंने टिप्पणी नहीं दी है क्योंकि जब टिप्पणी करने बैठा तो ज़हन में एक पूरी पोस्ट का मज़मून तैरने लगा, जोकि हाजि़रे ख़िदमत है।
सलीम साहब सुन्नी हैं जबकि सय्यद साहब शिया और दोनों का नज़रिया एक है। ऐसा क्यों है ?
कहीं दोनों आपस में मिले हुए तो नहीं हैं ?
हो सकता है कि अमेरिका निर्दोष हो और ये लोग सलाह करके उसे बदनाम करना चाहते हों ?
हो सकता है इनसे ओबामा के आने के बाद होने वाली भारत की तरक्क़ी न देखी जा रही हो ?
मेरे मन में शक सा हुआ।
ऐसा कौन है, जिससे इसे हल किया जा सके ?
कोई तीसरा पक्ष होना चाहिए।
मुसलमान की बात का ऐतबार इस मुल्क में ज़रा कम ही किया जाता है, तो क्यों न कोई ग़ैर मुस्लिम ढूंढा जाए। ग़ैर मुस्लिमों में भी अगर कोई भूदेव मिल जाए यानि जिसे हिन्दू भाई भूमि पर साक्षात ईश्वर मानते हैं यानि कि ब्राह्मण तो क्या ही कहने ?
ख़ुशनसीबी मेरी कि मुझे यह दौलत भी सय्यद साहब के दरे दौलत पर ही नसीब हो गई।
श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी एक ऐसे ही इन्सान हैं जो अच्छी ख़ासी पढ़ाई लिखाई के बावजूद सच बोलने लगे और बुढ़ापे में बदनाम हो गए। लोग तो यह सोचते हैं कि अगर ब्राह्मण हैं तो कथा सुनाएं, उसे ही सच मान लिया जाएगा लेकिन ऐसी बातें क्यों करते हैं जिनसे देश में सच बोलने की परंपरा चल पड़े और उसका फ़ायदा मुसलमान ले भागें।
मुझे धमकी देने वाले साहब एक इंजीनियर है नोएडा के। नोएडा में तो भूमिगत बिल्डिंग बनाने का रिवाज बहुत है। बाहर से देखने में लगेगा कि कुछ भी नहीं है लेकिन अंदर जाकर देखेंगे तो हैरान रह जाएंगे कि इंजीनियर ने कितनी कुशलता से जाल बिछाया है रास्तों का, पाइप फिटिंग का और हर चीज़ का। लेकिन साथ ही आप यह भी देखेंगे कि इतने सुदंर जाल बिछाने के बावजूद वहां इंजीनियर का नाम कोई भी न जानता होगा कि इसे बिछाया किस इंजीनियर ने है ?
एक इंजीनियर का सबसे बड़ा ड्रा बैक भी यही है और सबसे बड़ी ख़ुशनसीबी भी यही है।
ख़ैर गोडसे और उसके प्रशंसकों का इस देश में कोई भविष्य नहीं है। आतंकवादियों को प्रशिक्षण और हथियार देने वाले देश तक से कोई आता है तो कोई नहीं पूछता कि गोडसे हमारे विचार का था, कहां है उसकी समाधि ?
अब ओबामा ही आये तो वे भी गांधी-गांधी ही करते रहे या फिर हुमायूं को याद करते रहे।
बाबरी मस्जिद तो रही नहीं अब ओबामा जी ने हुमायूं का मक़बरा और याद दिला दिया। उनके जाने के बाद मुझे डर है कि इसमें भी कोई मूर्ति न निकल आए और कह दिया जाए कि यह इन्द्रप्रस्थ है। यहां अभिमन्यु की जन्मस्थली है। अभिमन्यु की समाधि थी यहां। अभिमन्यु का नाम ही बिगड़ हुमायूं हो गया है वर्ना हुमायूं तो यहां कभी हुआ ही नहीं और कभी हुआ भी हो तो ईरान भाग गया होगा, फिर नहीं लौटा और अगर लौटा भी हो तो मरा नहीं होगा और अगर मरा भी हो तो दफ़्न बाबर के पास ही हुआ है और कोई इतिहासकार न माने तो कह देंगे कि भाई यह हमारी आस्था है। अब तो कोर्ट आस्था को भी प्रमाण मानने लगी है। आस्था के दावेदाद अब 66 प्रतिशत के हिस्सेदार हो जाते हैं बशर्ते कि वह आस्था हिन्दू आस्था हो।
बहरहाल हमें ख़ुशी है कि हिन्दू भाई आस्थावान हैं। नादान बच्चे बेजान गुड्डे-गुड़ियों से खेलते हैं लेकिन जब वे जवान हो जाते हैं तो वे असलियत जान जाते हैं। हिन्दुओं में सभी नादान नहीं हैं। उनके समझदार समझाएंगे उन्हें कि यह रास्ता कल्याण का नहीं है। हम समझाएंगे तो धर्म परिवर्तन का ठप्पा लगाएंगे और जब उनके स्वामी जी बताएंगे तो उन्हें समाधि में ज्ञान पाया हुआ समझेंगे।
कुछ देर के लिए लोगों के सामने आंखे बंद करके बैठना भी बहुत ज़रूरी है। इससे लोगों में एक इमेज बनती है। किसी को क्या पता कि समाधि घटित हुई या नहीं ?
ओशो एक स्पष्टवादी लेकिन बहुत रहस्यमय आदमी थे। एक बेहतरीन क़ाबिलियत रखने वाले आदमी। उनसे वह अमेरिका भी थर्रा गया जिससे दुनिया भी थर्राती है। अमेरिका ने चाहे सद्दाम को बाद में मारा हो, चाहे वह ओसामा को अब तक ढूंढ न पाया हो और ईरान पर अब तक हमला भी न किया हो लेकिन ओशो को निपटाने में तनिक देर न की। ओशो के मुंह से निकलने वाला सच ज़हर बनाकर उनके ही हलक़ में उतार दिया गया। ओशो ज़िन्दा रहते तो वे सच सामने लाते रहते, अमेरिका का सबकुछ ख़त्म हो जाता।
ओबामा भारत आए। इराक़ पर हमला किए जाने का अफ़सोस जताया लेकिन अफ़सोस का एक शब्द भी ओशो के प्रति व्यक्त न किया और न ही किसी भारतीय नेता ने और न ही भारतीय नेता ने उन्हें याद दिलाया कि आपके मुल्क में हमारी एक अद्भुत प्रतिभा के साथ कैसा दुर्व्यवहार किया गया ?
ओबामा इस देश की धरती पर खड़े होकर फ़ख़्र से कह रहे हैं कि पाकिस्तान उनका दोस्त है। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान की ज़मीन से जारी आतंकी हरकतें ख़ुद अमेरिका की ही कूटनीति है ?
हैदर अली और टीपू सुल्तान का मिशन फ़ेल होता सा दिख रहा है।
गुलामों को बता दिया गया है कि हम जो लड़ाई लड़ते हैं अगर उसे क्रूसेड भी कह दें तब भी उसे शांति का युद्ध ही कहना। ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं‘ मानने वाले बेचारे कर ही क्या सकते हैं ?
और जो कर सकते हैं उन्हें तो चैन से न जीने देने के लिए वे ख़ुद कटिबद्ध हैं।
विदेशी हमलावर पहले जब कभी यहां आए और वे कामयाब हुए तो तब यहां के हालात ऐसे ही थे। यहां के लोग अपनों के ख़िलाफ़ विदेशियों का साथ हमेशा से देते आए हैं।
जो अमेरिका अपने दोस्त इराक़ का दोस्त न हो सका वह भारत का दोस्त कैसे हो सकता है ?
नए ज़माने में उसने गुलामों का नाम ‘दोस्त‘ रख दिया है, इससे दूसरों को ज़िल्लत फ़ील नहीं होती। ज़िल्लत तो हमारे लोग तब भी फ़ील नहीं करते जबकि हमारे एक नेता की तलाशी नंगा करके ली गई।
हमें अगर ठस्से से जीना है तो आपस में एका करना होगा। दोस्त को दोस्त और दुश्मन को दुश्मन के रूप में पहचानना सीखना होगा। पाकिस्तान से आने वाले आतंकियों को हथियार किस देश से मिलते हैं ?
इस प्रश्न के उत्तर से भारतवासी अपने असली दुश्मन को आसानी से पहचान सकते हैं। केवल अपने ही नहीं बल्कि पूरे एशिया के दुश्मन को।
बहरहाल हमने तो लिख दिया लेकिन अगर दिव्या जी को लेख अच्छा लगे तो इसे अच्छा समझा जाए।
जनाब सलीम ख़ान साहब ने दुनिया में होने वाले ज़ुल्म की वजह बताते हुए ‘स्वच्छ संदेश‘ ब्लाग पर अपने एक लेख में यह दिखाया है ज़ुल्म की इंतेहा मज़लूमों को अपने ख़िलाफ़ ख़ुद ही खड़ा कर लेता है। जहां जहां अमेरिका की फौजे गईं, उन्होंने वहां ज़ुल्म किया और उन्हें वहां के नागरिकों ने मार कर भगाया। जहां से अमेरिका भाग आया वहां ख़ुद ब ख़ुद शांति हो गई। ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लड़ना इन्सान की नेचर में शामिल है। किसी मुल्क का इतिहास ऐसी लड़ाईयों से ख़ाली नहीं है। लेकिन आज दुनिया में इस लड़ाई का मक़सद सिर्फ़ दुनियावी संसाधनों पर क़ब्ज़ा जमाना भर रह गया है, इन्सानी गुणों के लिए, इन्सानों के लिए लड़ने वाला आज ज़माने भर में कोई नहीं है। अगर है तो उसके पीछे सीधे या परोक्ष तौर पर इस्लाम ही मिलेगा।
ज़ुल्म और ज़ालिम के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना ही जिहाद है। बुराई को मिटाना ही जिहाद है। इसके लिए लड़ना भी पड़े तो लड़ना भी जिहाद है। ध्यान रहे ‘लड़ना ही‘ नहीं कह रहा हूं क्योंकि जिहाद का अर्थ युद्ध नहीं होता। युद्ध को अरबी में ‘क़िताल‘ कहते हैं। ‘जिहाद‘ का अर्थ है ‘जिद्दोजहद करना, जानतोड़ संघर्ष करना‘ और जब इस्लामी पारिभाषिक शब्द के तौर पर इसे बोला जाता है तो इसका मतलब होता है ‘बुराई के ख़िलाफ़ जानतोड़ संघर्ष करना‘। यह अनिवार्य है हरेक इन्सान पर चाहे वह किसी भी धर्म-मत को क्यों न मानता हो, चाहे वह किसी भी देश में क्यों न रहता हो ?
जिस सोसायटी से यह अमल ख़त्म हो जाता है, उस सोसायटी की स्टीयरिंग सीट पर बुरे लोगों का क़ब्ज़ा हो जाता है जैसा कि आज तक़रीबन दुनिया के हर देश में हो भी चुका है। दुनिया के कमज़ोरों के शोषण और युद्धों और महायुद्धों के पीछे यही चन्द मुठ्ठी भर ख़ुदग़र्ज़ हैवान हैं, जो शक्ल से इन्सान हैं।
बहरहाल मैं यह कह रहा था कि बहन दिव्या जी ने सलीम साहब का लेख पढ़ा और बेहिचक उसे सराहा और साथ ही यह भी पूछा कि क्या इसका उपयोग सही दिशा में हो रहा है ?
जिस लेख को दिव्या जी ने अच्छा कहा है, कुछ लोग उसमें भी पीलिया के रोगी की तरह पीलापन देखते हुए आपको मिलेंगे। लेख अच्छा है, मैंने भी इस पर टिप्पणी दी है।
वरिष्ठ चिंतक और पत्रकार जनाब भाई सय्यद मासूम साहब ने भाई ओबामा के इंडिया आने के बारे में
एक सुदंर मज़मून ब्लागिस्तान के पाठकों की नज़्र किया है। बात अमेरिका की हो और उसकी नीति-कुटनीति की न हो, यह कैसे हो सकता है ?
मासूम साहब ने दुनिया को एक बार फिर वही बताया जिसे वह रूस के पतन से पहले प्रायः जाना करती थी-
‘ताक़तवर देश का हमला युद्ध कहलाता है शांति की रक्षा उसका मक़सद बताया जाता है, जबकि कमज़ोर पीड़ित का हमला आतंवाद प्रचारित किया जाता है और सज़ा के तौर पर उसके पूरे देश को बर्बाद कर दिया जाता है ताकि शांति बहाल हो सके। शांति, क़ब्रिस्तान जैसी शांति। यही न्याय है, यही सभ्यता है।‘
मज़्मून अच्छा लगा। मैंने टिप्पणी नहीं दी है क्योंकि जब टिप्पणी करने बैठा तो ज़हन में एक पूरी पोस्ट का मज़मून तैरने लगा, जोकि हाजि़रे ख़िदमत है।
सलीम साहब सुन्नी हैं जबकि सय्यद साहब शिया और दोनों का नज़रिया एक है। ऐसा क्यों है ?
कहीं दोनों आपस में मिले हुए तो नहीं हैं ?
हो सकता है कि अमेरिका निर्दोष हो और ये लोग सलाह करके उसे बदनाम करना चाहते हों ?
हो सकता है इनसे ओबामा के आने के बाद होने वाली भारत की तरक्क़ी न देखी जा रही हो ?
मेरे मन में शक सा हुआ।
ऐसा कौन है, जिससे इसे हल किया जा सके ?
कोई तीसरा पक्ष होना चाहिए।
मुसलमान की बात का ऐतबार इस मुल्क में ज़रा कम ही किया जाता है, तो क्यों न कोई ग़ैर मुस्लिम ढूंढा जाए। ग़ैर मुस्लिमों में भी अगर कोई भूदेव मिल जाए यानि जिसे हिन्दू भाई भूमि पर साक्षात ईश्वर मानते हैं यानि कि ब्राह्मण तो क्या ही कहने ?
ख़ुशनसीबी मेरी कि मुझे यह दौलत भी सय्यद साहब के दरे दौलत पर ही नसीब हो गई।
श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी एक ऐसे ही इन्सान हैं जो अच्छी ख़ासी पढ़ाई लिखाई के बावजूद सच बोलने लगे और बुढ़ापे में बदनाम हो गए। लोग तो यह सोचते हैं कि अगर ब्राह्मण हैं तो कथा सुनाएं, उसे ही सच मान लिया जाएगा लेकिन ऐसी बातें क्यों करते हैं जिनसे देश में सच बोलने की परंपरा चल पड़े और उसका फ़ायदा मुसलमान ले भागें।
ख़बरदार ! इस देश में सच केवल तब बोला जाए जबकि उसका फ़ायदा सवर्ण हिन्दुओं को मिलता हो या कम से कम मुसलमानों को फ़ायदा हरगिज़ न मिंलता हो।
लोगों में आम चै मै गोइयां हैं कि देखो ये चतुर्वेदी होकर ऐसा कर रहे हैं, आस्तिक होकर ऐसा कर रहे हैं। अरे ऐसा तो द्विवेदी भी नहीं करते।उन्होंने 3 नामों वालों एक देश के 3 जजों के एक आस्थागत जजमेंट में अपनी अनास्था व्यक्त करते हुए उसे अक़ानूनी क़रार दे दिया तो जिनके नाम तक में मिश्री घुली हुई है वे भी उन्हें कड़वी-कसैली सुनाने जा पहुंचे। उन्हें क़ानून की धमकी भी दी गई जो भंडाफोड़ू तक को अब तक किसी ने न दी।
ख़ैर, यह तो उनके चरित्र का चित्रण था। मैं उन्हें बेहद पसंद करता हूं क्योंकि क़ानून की धमकी मुझे भी कई बार मिल चुकी है, एक ऐसे आदमी से जो गोपाल गोड्से का प्रशंसक भी है और उससे मिल भी चुका है। गोडसे आज़ाद भारत का पहला आतंकवादी था, नाथूराम गोडसे ।मुझे धमकी देने वाले साहब एक इंजीनियर है नोएडा के। नोएडा में तो भूमिगत बिल्डिंग बनाने का रिवाज बहुत है। बाहर से देखने में लगेगा कि कुछ भी नहीं है लेकिन अंदर जाकर देखेंगे तो हैरान रह जाएंगे कि इंजीनियर ने कितनी कुशलता से जाल बिछाया है रास्तों का, पाइप फिटिंग का और हर चीज़ का। लेकिन साथ ही आप यह भी देखेंगे कि इतने सुदंर जाल बिछाने के बावजूद वहां इंजीनियर का नाम कोई भी न जानता होगा कि इसे बिछाया किस इंजीनियर ने है ?
एक इंजीनियर का सबसे बड़ा ड्रा बैक भी यही है और सबसे बड़ी ख़ुशनसीबी भी यही है।
ख़ैर गोडसे और उसके प्रशंसकों का इस देश में कोई भविष्य नहीं है। आतंकवादियों को प्रशिक्षण और हथियार देने वाले देश तक से कोई आता है तो कोई नहीं पूछता कि गोडसे हमारे विचार का था, कहां है उसकी समाधि ?
अब ओबामा ही आये तो वे भी गांधी-गांधी ही करते रहे या फिर हुमायूं को याद करते रहे।
बाबरी मस्जिद तो रही नहीं अब ओबामा जी ने हुमायूं का मक़बरा और याद दिला दिया। उनके जाने के बाद मुझे डर है कि इसमें भी कोई मूर्ति न निकल आए और कह दिया जाए कि यह इन्द्रप्रस्थ है। यहां अभिमन्यु की जन्मस्थली है। अभिमन्यु की समाधि थी यहां। अभिमन्यु का नाम ही बिगड़ हुमायूं हो गया है वर्ना हुमायूं तो यहां कभी हुआ ही नहीं और कभी हुआ भी हो तो ईरान भाग गया होगा, फिर नहीं लौटा और अगर लौटा भी हो तो मरा नहीं होगा और अगर मरा भी हो तो दफ़्न बाबर के पास ही हुआ है और कोई इतिहासकार न माने तो कह देंगे कि भाई यह हमारी आस्था है। अब तो कोर्ट आस्था को भी प्रमाण मानने लगी है। आस्था के दावेदाद अब 66 प्रतिशत के हिस्सेदार हो जाते हैं बशर्ते कि वह आस्था हिन्दू आस्था हो।
बहरहाल हमें ख़ुशी है कि हिन्दू भाई आस्थावान हैं। नादान बच्चे बेजान गुड्डे-गुड़ियों से खेलते हैं लेकिन जब वे जवान हो जाते हैं तो वे असलियत जान जाते हैं। हिन्दुओं में सभी नादान नहीं हैं। उनके समझदार समझाएंगे उन्हें कि यह रास्ता कल्याण का नहीं है। हम समझाएंगे तो धर्म परिवर्तन का ठप्पा लगाएंगे और जब उनके स्वामी जी बताएंगे तो उन्हें समाधि में ज्ञान पाया हुआ समझेंगे।
कुछ देर के लिए लोगों के सामने आंखे बंद करके बैठना भी बहुत ज़रूरी है। इससे लोगों में एक इमेज बनती है। किसी को क्या पता कि समाधि घटित हुई या नहीं ?
किसी के पास इसकी चैकिंग का कोई पैमाना ही नहीं है।
हरेक साधक ईश्वर, सत्य और कर्तव्य के बारे में अलग अलग बताता है और यहां सबको मान्यता दी जाती है। शंकराचार्य जी भी समाधि एक्सपर्ट और दयानंद जी भी और महावीर भी और ओशो जी भी। ओशो एक स्पष्टवादी लेकिन बहुत रहस्यमय आदमी थे। एक बेहतरीन क़ाबिलियत रखने वाले आदमी। उनसे वह अमेरिका भी थर्रा गया जिससे दुनिया भी थर्राती है। अमेरिका ने चाहे सद्दाम को बाद में मारा हो, चाहे वह ओसामा को अब तक ढूंढ न पाया हो और ईरान पर अब तक हमला भी न किया हो लेकिन ओशो को निपटाने में तनिक देर न की। ओशो के मुंह से निकलने वाला सच ज़हर बनाकर उनके ही हलक़ में उतार दिया गया। ओशो ज़िन्दा रहते तो वे सच सामने लाते रहते, अमेरिका का सबकुछ ख़त्म हो जाता।
ओबामा भारत आए। इराक़ पर हमला किए जाने का अफ़सोस जताया लेकिन अफ़सोस का एक शब्द भी ओशो के प्रति व्यक्त न किया और न ही किसी भारतीय नेता ने और न ही भारतीय नेता ने उन्हें याद दिलाया कि आपके मुल्क में हमारी एक अद्भुत प्रतिभा के साथ कैसा दुर्व्यवहार किया गया ?
ओबामा इस देश की धरती पर खड़े होकर फ़ख़्र से कह रहे हैं कि पाकिस्तान उनका दोस्त है। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान की ज़मीन से जारी आतंकी हरकतें ख़ुद अमेरिका की ही कूटनीति है ?
चलिए पाकिस्तान तो अमेरिका को दोस्त है लेकिन सोमालिया तो उसका दोस्त नहीं है। 8 मई 2010 से हमारे 22 नौजवान वहां फंसे पड़े हैं और विश्व भर से आतंकवाद का सफ़ाया करने का दम भरने वाला लीडर हमारे यहां पधारा हुआ है। क्यों नहीं उससे कहा कि हमारे नौजवान रिहा कराओ ?
सब कुछ भुलाकर व्यापार की बातें की जा रही हैं, उनके हित की बातें की जा रही हैं, देश को गुलाम बनाने की बातें की जा रही हैं। कहीं यह सब अपने कमीशन की फ़िक्र तो नहीं है ?हैदर अली और टीपू सुल्तान का मिशन फ़ेल होता सा दिख रहा है।
गुलामों को बता दिया गया है कि हम जो लड़ाई लड़ते हैं अगर उसे क्रूसेड भी कह दें तब भी उसे शांति का युद्ध ही कहना। ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं‘ मानने वाले बेचारे कर ही क्या सकते हैं ?
और जो कर सकते हैं उन्हें तो चैन से न जीने देने के लिए वे ख़ुद कटिबद्ध हैं।
विदेशी हमलावर पहले जब कभी यहां आए और वे कामयाब हुए तो तब यहां के हालात ऐसे ही थे। यहां के लोग अपनों के ख़िलाफ़ विदेशियों का साथ हमेशा से देते आए हैं।
जो अमेरिका अपने दोस्त इराक़ का दोस्त न हो सका वह भारत का दोस्त कैसे हो सकता है ?
नए ज़माने में उसने गुलामों का नाम ‘दोस्त‘ रख दिया है, इससे दूसरों को ज़िल्लत फ़ील नहीं होती। ज़िल्लत तो हमारे लोग तब भी फ़ील नहीं करते जबकि हमारे एक नेता की तलाशी नंगा करके ली गई।
हमें अगर ठस्से से जीना है तो आपस में एका करना होगा। दोस्त को दोस्त और दुश्मन को दुश्मन के रूप में पहचानना सीखना होगा। पाकिस्तान से आने वाले आतंकियों को हथियार किस देश से मिलते हैं ?
इस प्रश्न के उत्तर से भारतवासी अपने असली दुश्मन को आसानी से पहचान सकते हैं। केवल अपने ही नहीं बल्कि पूरे एशिया के दुश्मन को।
बहरहाल हमने तो लिख दिया लेकिन अगर दिव्या जी को लेख अच्छा लगे तो इसे अच्छा समझा जाए।
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Osho ओशो एक स्पष्टवादी लेकिन बहुत रहस्यमय आदमी थे। एक बेहतरीन क़ाबिलियत रखने वाले आदमी। उनसे वह अमेरिका भी थर्रा गया जिससे दुनिया भी थर्राती है
ओशो एक स्पष्टवादी लेकिन बहुत रहस्यमय आदमी थे। एक बेहतरीन क़ाबिलियत रखने वाले आदमी। उनसे वह अमेरिका भी थर्रा गया जिससे दुनिया भी थर्राती है। अमेरिका ने चाहे सद्दाम को बाद में मारा हो, चाहे वह ओसामा को अब तक ढूंढ न पाया हो और ईरान पर अब तक हमला भी न किया हो लेकिन ओशो को निपटाने में तनिक देर न की। ओशो के मुंह से निकलने वाला सच ज़हर बनाकर उनके ही हलक़ में उतार दिया गया। ओशो ज़िन्दा रहते तो वे सच सामने लाते रहते, अमेरिका का सबकुछ ख़त्म हो जाता।
ओबामा भारत आए। इराक़ पर हमला किए जाने का अफ़सोस जताया लेकिन अफ़सोस का एक शब्द भी ओशो के प्रति व्यक्त न किया और न ही किसी भारतीय नेता ने और न ही भारतीय नेता ने उन्हें याद दिलाया कि आपके मुल्क में हमारी एक अद्भुत प्रतिभा के साथ कैसा दुव्र्यवहार किया गया ?
ओबामा इस देश की धरती पर खड़े होकर फ़ख़्र से कह रहे हैं कि पाकिस्तान उनका दोस्त है। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान की ज़मीन से जारी आतंकी हरकतें ख़ुद अमेरिका की ही कूटनीति है ?
चलिए पाकिस्तान तो अमेरिका को दोस्त है लेकिन सोमालिया तो उसका दोस्त नहीं है। 8 मई 2010 से हमारे 22 नौजवान वहां फंसे पड़े हैं और विश्व भर से आतंकवाद का सफ़ाया करने का दम भरने वाला लीडर हमारे यहां पधारा हुआ है। क्यों नहीं उससे कहा कि हमारे नौजवान रिहा कराओ ?
सब कुछ भुलाकर व्यापार की बातें की जा रही हैं, उनके हित की बातें की जा रही हैं, देश को ग़्ाुलाम बनाने की बातें की जा रही हैं। कहीं यह सब अपने कमीशन की फ़िक्र तो नहीं है ?
हैदर अली और टीपू सुल्तान का मिशन फ़ेल होता सा दिख रहा है।
गुलामों को बता दिया गया है कि हम जो लड़ाई लड़ते हैं अगर उसे क्रूसेड भी कह दें तब भी उसे शांति का युद्ध ही कहना। ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं‘ मानने वाले बेचारे कर ही क्या सकते हैं ?
और जो कर सकते हैं उन्हें तो चैन से न जीने देने के लिए वे ख़ुद कटिबद्ध हैं।
विदेशी हमलावर पहले जब कभी यहां आए और वे कामयाब हुए तो तब यहां के हालात ऐसे ही थे। यहां के लोग अपनों के ख़िलाफ़ विदेशियों का साथ हमेशा से देते आए हैं।
जो अमेरिका अपने दोस्त इराक़ का दोस्त न हो सका वह भारत का दोस्त कैसे हो सकता है ?
नए ज़माने में उसने गुलामों का नाम ‘दोस्त‘ रख दिया है, इससे दूसरों को ज़िल्लत फ़ील नहीं होती। ज़िल्लत तो हमारे लोग तब भी फ़ील नहीं करते जबकि हमारे एक नेता की तलाशी नंगा करके ली गई।
हमें अगर ठस्से से जीना है तो आपस में एका करना होगा। दोस्त को दोस्त और दुश्मन का दुश्मन के रूप में पहचानना सीखना होगा। पाकिस्तान से आने वाले आतंकियों को हथियार किस देश से मिलते हैं ?
इस प्रश्न के उत्तर से भारतवासी अपने असली दुश्मन को आसानी से पहचान सकते हैं। केवल अपने ही नहीं बल्कि पूरे एशिया के दुश्मन को।
बहरहाल हमने तो लिख दिया लेकिन अगर दिव्या जी को लेख अच्छा लगे तो इसे अच्छा समझा जाए।
ओबामा भारत आए। इराक़ पर हमला किए जाने का अफ़सोस जताया लेकिन अफ़सोस का एक शब्द भी ओशो के प्रति व्यक्त न किया और न ही किसी भारतीय नेता ने और न ही भारतीय नेता ने उन्हें याद दिलाया कि आपके मुल्क में हमारी एक अद्भुत प्रतिभा के साथ कैसा दुव्र्यवहार किया गया ?
ओबामा इस देश की धरती पर खड़े होकर फ़ख़्र से कह रहे हैं कि पाकिस्तान उनका दोस्त है। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान की ज़मीन से जारी आतंकी हरकतें ख़ुद अमेरिका की ही कूटनीति है ?
चलिए पाकिस्तान तो अमेरिका को दोस्त है लेकिन सोमालिया तो उसका दोस्त नहीं है। 8 मई 2010 से हमारे 22 नौजवान वहां फंसे पड़े हैं और विश्व भर से आतंकवाद का सफ़ाया करने का दम भरने वाला लीडर हमारे यहां पधारा हुआ है। क्यों नहीं उससे कहा कि हमारे नौजवान रिहा कराओ ?
सब कुछ भुलाकर व्यापार की बातें की जा रही हैं, उनके हित की बातें की जा रही हैं, देश को ग़्ाुलाम बनाने की बातें की जा रही हैं। कहीं यह सब अपने कमीशन की फ़िक्र तो नहीं है ?
हैदर अली और टीपू सुल्तान का मिशन फ़ेल होता सा दिख रहा है।
गुलामों को बता दिया गया है कि हम जो लड़ाई लड़ते हैं अगर उसे क्रूसेड भी कह दें तब भी उसे शांति का युद्ध ही कहना। ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं‘ मानने वाले बेचारे कर ही क्या सकते हैं ?
और जो कर सकते हैं उन्हें तो चैन से न जीने देने के लिए वे ख़ुद कटिबद्ध हैं।
विदेशी हमलावर पहले जब कभी यहां आए और वे कामयाब हुए तो तब यहां के हालात ऐसे ही थे। यहां के लोग अपनों के ख़िलाफ़ विदेशियों का साथ हमेशा से देते आए हैं।
जो अमेरिका अपने दोस्त इराक़ का दोस्त न हो सका वह भारत का दोस्त कैसे हो सकता है ?
नए ज़माने में उसने गुलामों का नाम ‘दोस्त‘ रख दिया है, इससे दूसरों को ज़िल्लत फ़ील नहीं होती। ज़िल्लत तो हमारे लोग तब भी फ़ील नहीं करते जबकि हमारे एक नेता की तलाशी नंगा करके ली गई।
हमें अगर ठस्से से जीना है तो आपस में एका करना होगा। दोस्त को दोस्त और दुश्मन का दुश्मन के रूप में पहचानना सीखना होगा। पाकिस्तान से आने वाले आतंकियों को हथियार किस देश से मिलते हैं ?
इस प्रश्न के उत्तर से भारतवासी अपने असली दुश्मन को आसानी से पहचान सकते हैं। केवल अपने ही नहीं बल्कि पूरे एशिया के दुश्मन को।
बहरहाल हमने तो लिख दिया लेकिन अगर दिव्या जी को लेख अच्छा लगे तो इसे अच्छा समझा जाए।
Sunday, November 7, 2010
What said about Dayanand ji स्वामी दयानन्द ने सत्य और केवल सत्य पर खड़े होने का दावा किया है लेकिन उन्होंने न जानते हुए जैन धर्म, इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म और स्वयं हिन्दू धर्म को ग़लत रूप से प्रस्तुत किया है - Mohandas Karmchand Gandhi
ओबामा भारत आए। उन्होंने गांधी जी को याद किया। यह अच्छी बात है। इस बहाने उनकी बातों को याद तो किया जा रहा है।
क्यों न इस अलबेली बेला में हम भी उनके उन विचारों को सामने लाएं जो कि अक्सर लोगों की नज़रों से ओझल हैं ?
जब से मैंने मानव जाति की एकता के लिए
‘एक ईश्वर एक धर्म‘ का कॉन्सेप्ट लोगों के सामने रखा है तब से ही मेरा विरोध किया गया। यह विरोध उन लोगों द्वारा किया गया जो सत्य के बारे में भ्रमित हैं। इन लोगों में आर्य समाज के मानने वालों का नाम भी शामिल है।
आज हम यह जानेंगे कि गांधी जी उनके बारे में क्या विचार रखते थे ?
गांधी जी अपने अख़बार ‘यंग इंडिया‘ में लिखते हैं-
‘‘मेरे दिल में दयानन्द सरस्वती के लिए भारी सम्मान है। मैं सोचा करता हूं कि उन्होंने हिन्दू धर्म की भारी सेवा की है। उनकी बहादुरी में सन्देह नहीं लेकिन उन्होंने अपने धर्म को तंग बना दिया है। मैंने आर्य समाजियों की सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ा है, जब मैं यर्वदा जेल में आराम कर रहा था। मेरे दोस्तों ने इसकी तीन कापियां मेरे पास भेजी थीं। मैंने इतने बड़े रिफ़ार्मर की लिखी इससे अधिक निराशाजनक किताब कोई नहीं पढ़ी। स्वामी दयानन्द ने सत्य और केवल सत्य पर खड़े होने का दावा किया है लेकिन उन्होंने न जानते हुए जैन धर्म, इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म और स्वयं हिन्दू धर्म को ग़लत रूप से प्रस्तुत किया है। जिस व्यक्ति को इन धर्मों का थोड़ा सा भी ज्ञान है वह आसानी से इन ग़लतियों को मालूम कर सकता है, जिनमें इस उच्च रिफ़ार्मर को डाला गया है। उन्होंने इस धरती पर अत्यन्त उत्तम और स्वतंत्र धर्मों में से एक को तंग बनाने की चेष्टा की है। यद्यपि मूर्तिपूजा के विरूद्ध थे लेकिन वे बड़ी बारीकी के साथ मूर्ति पूजा का बोलबाला करने में सफल हुए क्योंकि उन्होंने वेदों के शब्दों की मूर्ति बना दी है और वेदों में हरेक ज्ञान को विज्ञान से साबित करने की चेष्टा की है। मेरी राय में आर्य समाज सत्यार्थ प्रकाश की शिक्षाओं की विशेषता के कारण प्रगति नहीं कर रहा है बल्कि अपने संस्थापक के उच्च आचरण के कारण कर रहा है। आप जहां कहीं भी आर्य समाजियों को पाएंगे वहां ही जीवन की सरगर्मी मौजूद होगी। तंग और लड़ाई की आदत के कारण वे या तो धर्मों के लोगों से लड़ते रहते हैं और यदि ऐसा न कर सकें तो एक दूसरे से लड़ते झगड़ते रहते हैं।
(अख़बार प्रताप 4 जून 1924, अख़बार यंग इंडिया, अहमदाबाद 29 मई 1920)
मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूं कि आज तक इन्होंने मेरी पोस्ट के विषय पर तर्क वितर्क नहीं किया।
मिंसाल के तौर पर मैंने पूछा कि ‘दर्शनों की रचना से पहले धर्म का स्रोत क्या था ?‘
किसी ने इस सवाल का जवाब देने का कष्ट गवारा न किया लेकिन पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. की शाने आली में गुस्ताख़ियां करने चले आए, जैसा कि दयानन्द जी ने उन्हें सिखाया है।
दयानन्द जी ने उन्हें तो गुरूकुल में पढ़ने के लिए और ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए भी कहा है। उन्हें चोटी और जनेऊ धारण करके दो समय यज्ञ करने के लिए भी कहा है और जो ऐसा न करे शूद्रवत उसका बहिष्कार करने के लिए भी कहा है। (सत्यार्थ प्रकाश, चतुर्थसमुल्लास)
दयानन्द जी ने इन्हें धर्म की संज्ञा दी है। जिसे दयानन्द जी ने धर्म निश्चित किया है, उस पर तो कोई आर्य समाजी बंधु अमल करने के लिए आज तैयार नहीं है लेकिन इस्लाम और पैग़म्बर साहब स. की मज़ाक़ उड़ाना ये आज भी ज़रूरी समझते हैं।
जो खुद अपने धर्म की नज़र में ‘शूद्र‘ अर्थात ‘मूर्ख और अनाड़ी‘ हों उन्हें क्या अधिकार है ‘सत्य सनातन धर्म‘ का मज़ाक़ उड़ाने का, लोगों को भ्रमित करने का ?
अगर ये लोग वास्तव में ही ज्ञानी हैं तो इन्हें मेरी पोस्ट पर उठाए गए सवालों जवाब देना चाहिए था। उनकी सुविधा के लिए मैं सिर्फ़ चन्द सवाल यहां पेश कर रहा हूं। उनके उत्तर से या उनके कन्नी काटकर भाग जाने से आप समझ सकते हैं कि इन्हें पास देने के लिए सिवाय नफ़रत और फ़साद के कुछ भी नहीं है।
कुछ सवाल आर्य समाजियों से
1. सृष्टि की रचना दयानंद जी के अनुसार कितने समय पहले हुई ?
2. वेदों को ईश्वर ने कब प्रकट किया ?
3. वेदों के कितने अरब साल बाद, दयानन्द जी के अनुसार, दर्शनों की रचना हुई ?
4. दर्शनों की रचना से पहले धर्म का आधार क्या था ?
5. दयानन्द जी के अनुसार यदि किसी धर्मग्रंथ में सत्य के साथ असत्य भी मिश्रित हो तो क्या करना चाहिए ?
क- उस ग्रंथ के असत्य भाग को निकाल कर सत्य ग्रहण कर लेना चाहिए ?
ख- उस ग्रंथ को ऐसे फेंक देना चाहिए जैसे कि विषयुक्त अन्न को पूरा का पूरा ही फेंक दिया जाता है ?
उनकी अच्छी बातें मैं स्वीकारने के लिए तैयार हूं लेकिन कोई ज्ञान की बात तर्क सहित बताए तो सही!!!
क्यों न इस अलबेली बेला में हम भी उनके उन विचारों को सामने लाएं जो कि अक्सर लोगों की नज़रों से ओझल हैं ?
जब से मैंने मानव जाति की एकता के लिए
‘एक ईश्वर एक धर्म‘ का कॉन्सेप्ट लोगों के सामने रखा है तब से ही मेरा विरोध किया गया। यह विरोध उन लोगों द्वारा किया गया जो सत्य के बारे में भ्रमित हैं। इन लोगों में आर्य समाज के मानने वालों का नाम भी शामिल है।
आज हम यह जानेंगे कि गांधी जी उनके बारे में क्या विचार रखते थे ?
गांधी जी अपने अख़बार ‘यंग इंडिया‘ में लिखते हैं-
‘‘मेरे दिल में दयानन्द सरस्वती के लिए भारी सम्मान है। मैं सोचा करता हूं कि उन्होंने हिन्दू धर्म की भारी सेवा की है। उनकी बहादुरी में सन्देह नहीं लेकिन उन्होंने अपने धर्म को तंग बना दिया है। मैंने आर्य समाजियों की सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ा है, जब मैं यर्वदा जेल में आराम कर रहा था। मेरे दोस्तों ने इसकी तीन कापियां मेरे पास भेजी थीं। मैंने इतने बड़े रिफ़ार्मर की लिखी इससे अधिक निराशाजनक किताब कोई नहीं पढ़ी। स्वामी दयानन्द ने सत्य और केवल सत्य पर खड़े होने का दावा किया है लेकिन उन्होंने न जानते हुए जैन धर्म, इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म और स्वयं हिन्दू धर्म को ग़लत रूप से प्रस्तुत किया है। जिस व्यक्ति को इन धर्मों का थोड़ा सा भी ज्ञान है वह आसानी से इन ग़लतियों को मालूम कर सकता है, जिनमें इस उच्च रिफ़ार्मर को डाला गया है। उन्होंने इस धरती पर अत्यन्त उत्तम और स्वतंत्र धर्मों में से एक को तंग बनाने की चेष्टा की है। यद्यपि मूर्तिपूजा के विरूद्ध थे लेकिन वे बड़ी बारीकी के साथ मूर्ति पूजा का बोलबाला करने में सफल हुए क्योंकि उन्होंने वेदों के शब्दों की मूर्ति बना दी है और वेदों में हरेक ज्ञान को विज्ञान से साबित करने की चेष्टा की है। मेरी राय में आर्य समाज सत्यार्थ प्रकाश की शिक्षाओं की विशेषता के कारण प्रगति नहीं कर रहा है बल्कि अपने संस्थापक के उच्च आचरण के कारण कर रहा है। आप जहां कहीं भी आर्य समाजियों को पाएंगे वहां ही जीवन की सरगर्मी मौजूद होगी। तंग और लड़ाई की आदत के कारण वे या तो धर्मों के लोगों से लड़ते रहते हैं और यदि ऐसा न कर सकें तो एक दूसरे से लड़ते झगड़ते रहते हैं।
(अख़बार प्रताप 4 जून 1924, अख़बार यंग इंडिया, अहमदाबाद 29 मई 1920)
मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूं कि आज तक इन्होंने मेरी पोस्ट के विषय पर तर्क वितर्क नहीं किया।
मिंसाल के तौर पर मैंने पूछा कि ‘दर्शनों की रचना से पहले धर्म का स्रोत क्या था ?‘
किसी ने इस सवाल का जवाब देने का कष्ट गवारा न किया लेकिन पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. की शाने आली में गुस्ताख़ियां करने चले आए, जैसा कि दयानन्द जी ने उन्हें सिखाया है।
दयानन्द जी ने उन्हें तो गुरूकुल में पढ़ने के लिए और ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए भी कहा है। उन्हें चोटी और जनेऊ धारण करके दो समय यज्ञ करने के लिए भी कहा है और जो ऐसा न करे शूद्रवत उसका बहिष्कार करने के लिए भी कहा है। (सत्यार्थ प्रकाश, चतुर्थसमुल्लास)
दयानन्द जी ने इन्हें धर्म की संज्ञा दी है। जिसे दयानन्द जी ने धर्म निश्चित किया है, उस पर तो कोई आर्य समाजी बंधु अमल करने के लिए आज तैयार नहीं है लेकिन इस्लाम और पैग़म्बर साहब स. की मज़ाक़ उड़ाना ये आज भी ज़रूरी समझते हैं।
जो खुद अपने धर्म की नज़र में ‘शूद्र‘ अर्थात ‘मूर्ख और अनाड़ी‘ हों उन्हें क्या अधिकार है ‘सत्य सनातन धर्म‘ का मज़ाक़ उड़ाने का, लोगों को भ्रमित करने का ?
अगर ये लोग वास्तव में ही ज्ञानी हैं तो इन्हें मेरी पोस्ट पर उठाए गए सवालों जवाब देना चाहिए था। उनकी सुविधा के लिए मैं सिर्फ़ चन्द सवाल यहां पेश कर रहा हूं। उनके उत्तर से या उनके कन्नी काटकर भाग जाने से आप समझ सकते हैं कि इन्हें पास देने के लिए सिवाय नफ़रत और फ़साद के कुछ भी नहीं है।
कुछ सवाल आर्य समाजियों से
1. सृष्टि की रचना दयानंद जी के अनुसार कितने समय पहले हुई ?
2. वेदों को ईश्वर ने कब प्रकट किया ?
3. वेदों के कितने अरब साल बाद, दयानन्द जी के अनुसार, दर्शनों की रचना हुई ?
4. दर्शनों की रचना से पहले धर्म का आधार क्या था ?
5. दयानन्द जी के अनुसार यदि किसी धर्मग्रंथ में सत्य के साथ असत्य भी मिश्रित हो तो क्या करना चाहिए ?
क- उस ग्रंथ के असत्य भाग को निकाल कर सत्य ग्रहण कर लेना चाहिए ?
ख- उस ग्रंथ को ऐसे फेंक देना चाहिए जैसे कि विषयुक्त अन्न को पूरा का पूरा ही फेंक दिया जाता है ?
उनकी अच्छी बातें मैं स्वीकारने के लिए तैयार हूं लेकिन कोई ज्ञान की बात तर्क सहित बताए तो सही!!!
Thursday, November 4, 2010
What was before Darshan आप सोचिए कि दर्शन धर्म का आधार होते तो दर्शन की रचना होने से पहले के लोग क्या धर्म से हीन थे ?- Anwer Jamal
पंकज सिंह राजपूत ने कहा…
D@@@@@ R. ANWER JAMAL
साहब बिल्कुल, उम्मीद लायक जबाब दिया आपने - मैं बच्चों की तरह रंगों की कोई पहेलियाँ नहीं बुछा रहा और न तो आपके सामान्य ज्ञान की परीक्षा ले रहा हूँ - मै तो इन निम्न वाक्यों की तरफ आप का ध्यान दिलाना चाहता हूँ -
परमेश्वर के वचन के अर्थ निर्धारण के लिए केवल मनुष्य की बुद्धि काफ़ी नहीं है। इसे आप परमेश्वर की वाणी कुरआन के आलोक में देखिए।
आप का कहना है की दर्शन और धर्म में अंतर है, (आपकी मूल समस्या)
परन्तु वैदिक धर्म का तो आधार ही दर्शन है, इसीलिए ये छोटा सा प्रश्न पूछा -
ईश्वर (परमेश्वर) तत्त्व है या व्यक्तित्व ?
फोन पर तो आप केवल मेरी जिज्ञासा ही शांत कर पायेंगे, परन्तु जिज्ञासु तो यहाँ और भी है, उनका भी ख्याल कीजिये !!!!
बाकी पत्तियों वाली बात और रंगों वाली बात, इस जिज्ञासा की शांति के बाद !!!!
प्रतीक्षा उत्तर की OOOOOOOOOOOOO..............
.....................................................................................................................................
प्यारे भाई पंकज सिंह राजपूत जी ! आपका और आपके सवालों का स्वागत है।
आपने लिखा है कि मेरी मूल समस्या यह है कि मैं धर्म और दर्शन में अंतर करता हूं। जबकि वैदिक धर्म का आधार ही दर्शन हैं।
मेरे भाई , आप ज़रा सा ग़ौर करते तो समझ लेते कि सनातनी और आर्य समाजी दोनों तरफ़ के विद्वान धर्म का आधार ‘वेद‘ को मानते हैं। वेद जितने समय पुराने हैं दर्शन उतने पुराने नहीं हैं। दर्शनों की रचना उनके बहुत बाद हुई । कुछ के अनुसार अरबों साल बाद और कुछ के अनुसार कुछ हज़ार साल बाद। सभी दर्शनों की रचना एक साथ नहीं हुई है बल्कि एक एक करके अलग अलग टाइम में हुई है।
अब आप सोचिए कि दर्शन धर्म का आधार होते तो दर्शन की रचना होने से पहले के लोग क्या धर्म से हीन थे ?
यदि वे धर्म से युक्त थे तो मानना पड़ेगा कि उन्हें धर्म की व्याख्या के लिए दर्शनों की कोई ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। उनके लिए तो धर्म का आधार ईश्वर की वाणी ‘वेद‘ था। बाद में लोगों ने धर्म का आधार केवल वेद न मानकर उनके साथ दर्शनों को भी सम्मिलित कर लिया और फिर पुराणों को भी। उसके बाद भी जो कुछ काव्य और साहित्य रचा जाता रहा उसे धर्म के आधार में सम्मिलित करने की प्रक्रिया अनवरत चलती रही। वास्तविक वेदार्थ के लुप्त होने का यह मूल कारण है।
कृपया ध्यान रखिएगा कि मैं दर्शनों के महत्व का इन्कार नहीं कर रहा हूं और न ही मैं पुराण , इतिहास या काव्य को ही पूरी तरह ख़ारिज कर रहा हूं कि इनमें कुछ भी सत्य नहीं है। नहीं , बल्कि मैं केवल इन्हें धर्म का मूल नहीं मानता क्योंकि इनकी रचना से पहले भी धर्म था और धर्म का पालन करने वाला समाज भी था जो आज के समाज की तरह ‘कन्फ़्यूज़्ड‘ नहीं था।
धर्म का आधार तो वेद हैं लेकिन वेद का वास्तविक अर्थ जानना आज केवल मनुष्य की बुद्धि के बस का काम नहीं है। दयानंद जी का उदाहरण सामने है। उन्होंने ‘वसु‘ की व्याख्या करते हुए लिख डाला कि सूर्य, चन्द्र और समस्त तारों और नक्षत्रों पर मनुष्य आबाद हैं और वे इन्हीं चारों वेदों का पठन पाठन और पालन करते हैं। (देखिए सत्यार्थ प्रकाश, 8 वां समुल्लास)
ज़ाहिर है बुद्धि तो उनमें कुछ कम न थी। इसी तरह परंपरा से प्राप्त महीधर जी का वेदार्थ भी कुछ जगहों पर स्वीकार्य नहीं हो पाता।
ईश्वर और वस्तुओं के लिए प्रयुक्त नामों में एकरूपता भी वास्तविक वेदार्थ तक पहुंच पाने में एक बड़ी बाधा है जैसे कि यह समस्या ऋग्वेद के पहले सूक्त के पहले ही मंत्र से आरंभ हो जाती है कि ‘अग्नि‘ का अर्थ जलाने वाली आग लिया जाए या कि ‘ईश्वर‘। दोनों ही अर्थ वेदविदों ने किए हैं। मेरा इसमें किंचित भी हस्तक्षेप नहीं है।
धर्म का आधार तो वेद को माना जाए और दर्शन व अन्य साहित्य को भी इसी के आधार पर परखा जाए लेकिन वेद के वास्तविक मंतव्य को कैसे समझा जाएगा ?
यह एक समस्या है जिससे आम पब्लिक अन्जान है लेकिन वेदविद इससे परेशान हैं। मुझे कुरआन से मदद मिली और मुझे निश्चय हो गया कि अगर ‘अग्निमीले‘ के दो अर्थ में से एक लेना है तो कौन सा लेना है। मैंने वह ले लिया जो कुरआन की बिल्कुल पहली सूरा की पहली आयत में वर्णित है। वहां ‘विशेष स्तवन-वंदन परमेश्वर के लिए है जो सब लोकों का स्वामी है‘ लिखा मिलता है।
‘अग्निमीले‘ में भी अग्नि के ईलन-स्तवन की बात आई है सो यह तो केवल ईश्वर के लिए ही विशेष है। यही है कुरआन के आलोक में वेद को देखना। परमेश्वर की वाणी को परमेश्वर की ही वाणी में देखा जाए तो वास्तविक वेदार्थ प्रकट हो जाता है।
आपने यह भी पूछा है कि ईश्वर व्यक्तित्व है या तत्व ?
मैं आपसे कहना चाहूंगा कि क्या मेरे लिए लाज़िमी है कि मैं इन दो शब्दों में से ही किसी शब्द को ज़रूर चुनूं। आप यह पूछिए कि ईश्वर कौन है ?
ईश्वर एक चेतन अस्तित्व है जो सभी उत्कृष्ट गुणों से युक्त है। उसका अस्तित्व और उसके गुण हमारे ज्ञान और कल्पना से परे हैं। उसने हमें अपनी मनन शक्ति से उत्पन्न किया और हमें जीवन दिया , जीने का मक़सद दिया, जीने का विधान दिया, सफलता का मार्ग दिखाया। उसके नियमों का नाम धर्म है। धार्मिक कर्मकांड के ज़रिए उसकी वाणी की सुरक्षा की जाती है , उसके नियमों को स्मृति में सुरक्षित रखा जाता है। जीवन में उनका पालन किया जाता है।
जिस ऋषि के अंतःकरण पर वाणी का अवतरण होता है , वह सारे समाज के लिए आदर्श होता है। वैदिक ऋषियों के आचरण को सुरक्षित न रखे जाने से भी बहुत भारी समस्या का सामना करना पड़ता है।
ये सभी समस्याएं आज वास्तव में सामने हैं। मैंने जो उचित समझा उसका हल आपको बता दिया। आपको इससे ज़्यादा बेहतर हल कोई दूसरा लगे तो आप मुझे वह बताएं।
D@@@@@ R. ANWER JAMAL
साहब बिल्कुल, उम्मीद लायक जबाब दिया आपने - मैं बच्चों की तरह रंगों की कोई पहेलियाँ नहीं बुछा रहा और न तो आपके सामान्य ज्ञान की परीक्षा ले रहा हूँ - मै तो इन निम्न वाक्यों की तरफ आप का ध्यान दिलाना चाहता हूँ -
परमेश्वर के वचन के अर्थ निर्धारण के लिए केवल मनुष्य की बुद्धि काफ़ी नहीं है। इसे आप परमेश्वर की वाणी कुरआन के आलोक में देखिए।
आप का कहना है की दर्शन और धर्म में अंतर है, (आपकी मूल समस्या)
परन्तु वैदिक धर्म का तो आधार ही दर्शन है, इसीलिए ये छोटा सा प्रश्न पूछा -
ईश्वर (परमेश्वर) तत्त्व है या व्यक्तित्व ?
फोन पर तो आप केवल मेरी जिज्ञासा ही शांत कर पायेंगे, परन्तु जिज्ञासु तो यहाँ और भी है, उनका भी ख्याल कीजिये !!!!
बाकी पत्तियों वाली बात और रंगों वाली बात, इस जिज्ञासा की शांति के बाद !!!!
प्रतीक्षा उत्तर की OOOOOOOOOOOOO..............
.....................................................................................................................................
प्यारे भाई पंकज सिंह राजपूत जी ! आपका और आपके सवालों का स्वागत है।
आपने लिखा है कि मेरी मूल समस्या यह है कि मैं धर्म और दर्शन में अंतर करता हूं। जबकि वैदिक धर्म का आधार ही दर्शन हैं।
मेरे भाई , आप ज़रा सा ग़ौर करते तो समझ लेते कि सनातनी और आर्य समाजी दोनों तरफ़ के विद्वान धर्म का आधार ‘वेद‘ को मानते हैं। वेद जितने समय पुराने हैं दर्शन उतने पुराने नहीं हैं। दर्शनों की रचना उनके बहुत बाद हुई । कुछ के अनुसार अरबों साल बाद और कुछ के अनुसार कुछ हज़ार साल बाद। सभी दर्शनों की रचना एक साथ नहीं हुई है बल्कि एक एक करके अलग अलग टाइम में हुई है।
अब आप सोचिए कि दर्शन धर्म का आधार होते तो दर्शन की रचना होने से पहले के लोग क्या धर्म से हीन थे ?
यदि वे धर्म से युक्त थे तो मानना पड़ेगा कि उन्हें धर्म की व्याख्या के लिए दर्शनों की कोई ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। उनके लिए तो धर्म का आधार ईश्वर की वाणी ‘वेद‘ था। बाद में लोगों ने धर्म का आधार केवल वेद न मानकर उनके साथ दर्शनों को भी सम्मिलित कर लिया और फिर पुराणों को भी। उसके बाद भी जो कुछ काव्य और साहित्य रचा जाता रहा उसे धर्म के आधार में सम्मिलित करने की प्रक्रिया अनवरत चलती रही। वास्तविक वेदार्थ के लुप्त होने का यह मूल कारण है।
कृपया ध्यान रखिएगा कि मैं दर्शनों के महत्व का इन्कार नहीं कर रहा हूं और न ही मैं पुराण , इतिहास या काव्य को ही पूरी तरह ख़ारिज कर रहा हूं कि इनमें कुछ भी सत्य नहीं है। नहीं , बल्कि मैं केवल इन्हें धर्म का मूल नहीं मानता क्योंकि इनकी रचना से पहले भी धर्म था और धर्म का पालन करने वाला समाज भी था जो आज के समाज की तरह ‘कन्फ़्यूज़्ड‘ नहीं था।
धर्म का आधार तो वेद हैं लेकिन वेद का वास्तविक अर्थ जानना आज केवल मनुष्य की बुद्धि के बस का काम नहीं है। दयानंद जी का उदाहरण सामने है। उन्होंने ‘वसु‘ की व्याख्या करते हुए लिख डाला कि सूर्य, चन्द्र और समस्त तारों और नक्षत्रों पर मनुष्य आबाद हैं और वे इन्हीं चारों वेदों का पठन पाठन और पालन करते हैं। (देखिए सत्यार्थ प्रकाश, 8 वां समुल्लास)
ज़ाहिर है बुद्धि तो उनमें कुछ कम न थी। इसी तरह परंपरा से प्राप्त महीधर जी का वेदार्थ भी कुछ जगहों पर स्वीकार्य नहीं हो पाता।
ईश्वर और वस्तुओं के लिए प्रयुक्त नामों में एकरूपता भी वास्तविक वेदार्थ तक पहुंच पाने में एक बड़ी बाधा है जैसे कि यह समस्या ऋग्वेद के पहले सूक्त के पहले ही मंत्र से आरंभ हो जाती है कि ‘अग्नि‘ का अर्थ जलाने वाली आग लिया जाए या कि ‘ईश्वर‘। दोनों ही अर्थ वेदविदों ने किए हैं। मेरा इसमें किंचित भी हस्तक्षेप नहीं है।
धर्म का आधार तो वेद को माना जाए और दर्शन व अन्य साहित्य को भी इसी के आधार पर परखा जाए लेकिन वेद के वास्तविक मंतव्य को कैसे समझा जाएगा ?
यह एक समस्या है जिससे आम पब्लिक अन्जान है लेकिन वेदविद इससे परेशान हैं। मुझे कुरआन से मदद मिली और मुझे निश्चय हो गया कि अगर ‘अग्निमीले‘ के दो अर्थ में से एक लेना है तो कौन सा लेना है। मैंने वह ले लिया जो कुरआन की बिल्कुल पहली सूरा की पहली आयत में वर्णित है। वहां ‘विशेष स्तवन-वंदन परमेश्वर के लिए है जो सब लोकों का स्वामी है‘ लिखा मिलता है।
‘अग्निमीले‘ में भी अग्नि के ईलन-स्तवन की बात आई है सो यह तो केवल ईश्वर के लिए ही विशेष है। यही है कुरआन के आलोक में वेद को देखना। परमेश्वर की वाणी को परमेश्वर की ही वाणी में देखा जाए तो वास्तविक वेदार्थ प्रकट हो जाता है।
आपने यह भी पूछा है कि ईश्वर व्यक्तित्व है या तत्व ?
मैं आपसे कहना चाहूंगा कि क्या मेरे लिए लाज़िमी है कि मैं इन दो शब्दों में से ही किसी शब्द को ज़रूर चुनूं। आप यह पूछिए कि ईश्वर कौन है ?
ईश्वर एक चेतन अस्तित्व है जो सभी उत्कृष्ट गुणों से युक्त है। उसका अस्तित्व और उसके गुण हमारे ज्ञान और कल्पना से परे हैं। उसने हमें अपनी मनन शक्ति से उत्पन्न किया और हमें जीवन दिया , जीने का मक़सद दिया, जीने का विधान दिया, सफलता का मार्ग दिखाया। उसके नियमों का नाम धर्म है। धार्मिक कर्मकांड के ज़रिए उसकी वाणी की सुरक्षा की जाती है , उसके नियमों को स्मृति में सुरक्षित रखा जाता है। जीवन में उनका पालन किया जाता है।
जिस ऋषि के अंतःकरण पर वाणी का अवतरण होता है , वह सारे समाज के लिए आदर्श होता है। वैदिक ऋषियों के आचरण को सुरक्षित न रखे जाने से भी बहुत भारी समस्या का सामना करना पड़ता है।
ये सभी समस्याएं आज वास्तव में सामने हैं। मैंने जो उचित समझा उसका हल आपको बता दिया। आपको इससे ज़्यादा बेहतर हल कोई दूसरा लगे तो आप मुझे वह बताएं।
Wednesday, November 3, 2010
Vedic mantras in the light of Holy qur'an सत्य की खोज में कुरआन आपकी सहायता करता है - Anwer Jamal
भाई बी. एन. शर्मा को हमने समझाया कि ‘अल्लाह‘ नाम अल्लोपनिषद में है और इसकी धातु ‘ईल्य‘ पूजनीय के ही अर्थों में वेदों में भी है। जो नाम वेद में हो, उपनिषद में हो, बाइबिल में हो और दूसरी बहुत सी भाषाओं में हो, उसके बारे में यह कहना कि यह ईश्वर का नाम नहीं है और उसकी मज़ाक़ बनाना एक बिल्कुल अनुचित बात है।
उन्होंने अपने ब्लॉग की उसी पोस्ट के कमेंट में कहा कि हम इस्लाम को भी सच मानते हैं जबकि आप केवल इस्लाम को ही सच मानते हैं।
मैंने उनसे कहा कि अगर आप वाक़ई इस्लाम की सच्चाई के क़ायल हैं तो फिर आप इस्लाम को झूठा साबित करने पर क्यों तुले हुए हैं ?
बताइये जो आदमी इस्लाम और कुरआन का भांडा फोड़ने का दावा कर रहा है खुद वही कह रहा है कि इस्लाम ‘सत्य‘ है। यह है सच्चाई की ताक़त, यह है इस्लाम की ताक़त।
अब अगर वे किसी और विचारधारा को भी सच मानते हैं तो वे उसका नाम और उसके सिद्धांत बताएं।
अगर वे सचममुच सत्य हुईं तो हम उन्हें भी सत्य मान लेंगे। लेकिन आज तक उन्होंने इस्लाम पर कीचड़ उछालने के सिवा कभी यह नहीं बताया कि ‘सत्य‘ क्या है ?
यह है इस्लाम के विरोधियों की वह शिकस्त जिसे हर कोई देख सकता है।
2. आज आनंद पाण्डेय जी की पोस्ट पर नज़र पड़ गई। वहां जाकर देखा तो वे तौसीफ़ हिन्दुस्तानी जी को बता रहे हैं कि वेद में ‘श्लोक‘ बाद में नहीं जोड़े गए।
मैंने उन्हें याद दिलाया कि वेद में तो ‘श्लोक‘ होता ही नहीं है, उसमें तो हिन्दू विद्वान ‘मंत्र‘ या ‘ऋचा‘ होना ही बताते आए हैं।
भाई अमित तुरंत बोले - ‘आप चुप रहिए जी आपको पता नहीं है।‘ इतना कहकर उन्होंने तुरंत वेद में श्लोक सिद्ध कर दिए। धन्य हैं पंडित जी महाराज। जो चाहे सिद्ध कर दें।
ये चाहें तो आग को ईश्वर के दर्जे पर पहुंचा दें और ये चाहें तो ईश्वर को ही आग बना दें। इनकी इन्हीं क़लाबाज़ियों की वजह से वेद का अस्ल अर्थ कहीं खो चुका है।
वेद में विज्ञान सिद्ध करने के जोश में भाई आनंद पाण्डेय जी ने ऋग्वेद के पहले सूक्त के पहले मंत्र में आए शब्द ‘अग्निमीले‘ में अग्नि का अर्थ ‘जलाने वाली आग‘ कर डाला और बहुत खुश हुए कि उन्होंने आग की खोज वेदों में सिद्ध कर दी।
दयानंद जी ने ‘अग्नि‘ का अर्थ ईश्वर बताया है यहां पर और उनसे बहुत पहले स्थौलाष्ठीवि ऋषि ने भी ‘अग्नि‘ का अर्थ ‘अग्रणी‘ बताया है। हां हरेक जगह ‘अग्नि‘ का एक ही अर्थ नहीं है, कहीं कहीं पावक अग्नि भी अभिप्रेत है। लेकिन ऋग्वेद 1,1,1 में ‘अग्नि‘ का अर्थ ‘अग्रणी परमेश्वर‘ ही है , भौतिक अग्नि नहीं। यहां ‘अग्नि‘ के ईलन का ज़िक्र चल रहा है और कोई भी तत्वदर्शी मनुष्य भौतिक अग्नि को ‘पुरोहित‘ मानकर उसका ‘ईलन‘ नहीं कर सकता। इत्तेफ़ाक़ से मैंने भाई बी. एन. शर्मा जी को जवाब देते हुए इसी मंत्र का अर्थ लिखा था , जो इस प्रकार है-
‘हे ईश्वर ! तू पूर्व और नूतनए छोटे और बड़े सभी के लिए पूजनीय है। तुझे केवल विद्वान ही समझ सकते हैं।‘ ;ऋण् 1य1य1 द्ध
अब कुरआन की बिल्कुल पहली सूरत की सबसे पहली आयत का अर्थ भी देख लीजिए-
अल्.हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन ण्
अर्थात विशेष प्रशंसा है परमपूज्य के लिए जो पालनहार है सभी लोकों का।
(अलफ़ातिहा, 1)
आपने देखा कि न सिर्फ़ ‘अल्लाह‘ नाम बिल्कुल पहली ही आयत में और बिल्कुल पहले वेदमंत्र में है बल्कि अर्थ भी बहुत समीप है या फिर शायद एक ही है। विषय है ‘अग्नि‘ के ईलन का। यहां वेदविद् हज़ारों साल से अग्नि का अर्थ आग करते आ रहे हैं और कुछ वेदज्ञ यहां ईश्वर अभिप्रेत समझते आए हैं। यहां आप कुरआन की मदद से निश्चित कर सकते हैं कि वास्तव में सही अर्थ क्या है यहां ?
हमें वेद से नफ़रत नहीं है तो आप क्यों कुरआन से नफ़रत करते हैं ?
ईश्वर और चीज़ों के नाम वेदों में गडमड हैं और वेदों के वास्तविक अर्थ निर्धारण में यह एक सबसे बड़ी समस्या है। सायण जिस शब्द का अर्थ सूर्य बता रहे हैं , उसी का अर्थ मैक्समूलर साहब घोड़ा बता रहे हैं और दयानंद जी कह रहे हैं कि इसका अर्थ है ‘ईश्वर‘। अब बताइये कि कैसे तय करेंगे कि कहां क्या अर्थ है ?
परमेश्वर के वचन के अर्थ निर्धारण के लिए केवल मनुष्य की बुद्धि काफ़ी नहीं है। इसे आप परमेश्वर की वाणी कुरआन के आलोक में देखिए। जहां घोड़ा है वहां आपको घोड़ा नज़र आएगा, जहां सूर्य है वहां सूर्य दिखेगा और जहां ईश्वर है वहां ईश्वर के ही दर्शन होंगे।
कुरआन एक दिव्य आलोक है। इसका इन्कार करने के बाद आप कभी नहीं जान सकते कि कहां क्या है ?
चाहे आप कितने ही बड़े ज्ञानी क्यों न बन जाएं ?
दयानंद जैसे बड़े वेदज्ञ दुनिया को ‘नियोग‘ की शिक्षा देकर गए और उन्हें वेद में यह नज़र आया कि सूर्य , चंद्र और सारे तारों पर आदमी रहते हैं और वे वेद पढ़ते हैं और यज्ञ करते हैं।
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है ?
----------------------------------------------------------------------------------
पोस्ट प्रकाशित करने से पहले मैंने एक नज़र लिंक देने की ग़र्ज़ से डाली तो भाई आनंद पाण्डेय जी ने मेरे विचार से सहमति जताई है कि अग्नि का एक अर्थ अग्रणी भी है। यह एक अच्छी बात है। उनमें भाई अमित जैसा हठ नहीं है, हालांकि वे भी ‘पाण्डेय‘ क़िस्म के ब्राह्मण हैं।
धन्यवाद है परमेश्वर का कि अभी सच को सहने और उसे स्वीकारने वाले लोग भी हमारे दरम्यान हैं
उन्होंने अपने ब्लॉग की उसी पोस्ट के कमेंट में कहा कि हम इस्लाम को भी सच मानते हैं जबकि आप केवल इस्लाम को ही सच मानते हैं।
मैंने उनसे कहा कि अगर आप वाक़ई इस्लाम की सच्चाई के क़ायल हैं तो फिर आप इस्लाम को झूठा साबित करने पर क्यों तुले हुए हैं ?
बताइये जो आदमी इस्लाम और कुरआन का भांडा फोड़ने का दावा कर रहा है खुद वही कह रहा है कि इस्लाम ‘सत्य‘ है। यह है सच्चाई की ताक़त, यह है इस्लाम की ताक़त।
अब अगर वे किसी और विचारधारा को भी सच मानते हैं तो वे उसका नाम और उसके सिद्धांत बताएं।
अगर वे सचममुच सत्य हुईं तो हम उन्हें भी सत्य मान लेंगे। लेकिन आज तक उन्होंने इस्लाम पर कीचड़ उछालने के सिवा कभी यह नहीं बताया कि ‘सत्य‘ क्या है ?
यह है इस्लाम के विरोधियों की वह शिकस्त जिसे हर कोई देख सकता है।
2. आज आनंद पाण्डेय जी की पोस्ट पर नज़र पड़ गई। वहां जाकर देखा तो वे तौसीफ़ हिन्दुस्तानी जी को बता रहे हैं कि वेद में ‘श्लोक‘ बाद में नहीं जोड़े गए।
मैंने उन्हें याद दिलाया कि वेद में तो ‘श्लोक‘ होता ही नहीं है, उसमें तो हिन्दू विद्वान ‘मंत्र‘ या ‘ऋचा‘ होना ही बताते आए हैं।
भाई अमित तुरंत बोले - ‘आप चुप रहिए जी आपको पता नहीं है।‘ इतना कहकर उन्होंने तुरंत वेद में श्लोक सिद्ध कर दिए। धन्य हैं पंडित जी महाराज। जो चाहे सिद्ध कर दें।
ये चाहें तो आग को ईश्वर के दर्जे पर पहुंचा दें और ये चाहें तो ईश्वर को ही आग बना दें। इनकी इन्हीं क़लाबाज़ियों की वजह से वेद का अस्ल अर्थ कहीं खो चुका है।
वेद में विज्ञान सिद्ध करने के जोश में भाई आनंद पाण्डेय जी ने ऋग्वेद के पहले सूक्त के पहले मंत्र में आए शब्द ‘अग्निमीले‘ में अग्नि का अर्थ ‘जलाने वाली आग‘ कर डाला और बहुत खुश हुए कि उन्होंने आग की खोज वेदों में सिद्ध कर दी।
दयानंद जी ने ‘अग्नि‘ का अर्थ ईश्वर बताया है यहां पर और उनसे बहुत पहले स्थौलाष्ठीवि ऋषि ने भी ‘अग्नि‘ का अर्थ ‘अग्रणी‘ बताया है। हां हरेक जगह ‘अग्नि‘ का एक ही अर्थ नहीं है, कहीं कहीं पावक अग्नि भी अभिप्रेत है। लेकिन ऋग्वेद 1,1,1 में ‘अग्नि‘ का अर्थ ‘अग्रणी परमेश्वर‘ ही है , भौतिक अग्नि नहीं। यहां ‘अग्नि‘ के ईलन का ज़िक्र चल रहा है और कोई भी तत्वदर्शी मनुष्य भौतिक अग्नि को ‘पुरोहित‘ मानकर उसका ‘ईलन‘ नहीं कर सकता। इत्तेफ़ाक़ से मैंने भाई बी. एन. शर्मा जी को जवाब देते हुए इसी मंत्र का अर्थ लिखा था , जो इस प्रकार है-
‘हे ईश्वर ! तू पूर्व और नूतनए छोटे और बड़े सभी के लिए पूजनीय है। तुझे केवल विद्वान ही समझ सकते हैं।‘ ;ऋण् 1य1य1 द्ध
अब कुरआन की बिल्कुल पहली सूरत की सबसे पहली आयत का अर्थ भी देख लीजिए-
अल्.हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन ण्
अर्थात विशेष प्रशंसा है परमपूज्य के लिए जो पालनहार है सभी लोकों का।
(अलफ़ातिहा, 1)
आपने देखा कि न सिर्फ़ ‘अल्लाह‘ नाम बिल्कुल पहली ही आयत में और बिल्कुल पहले वेदमंत्र में है बल्कि अर्थ भी बहुत समीप है या फिर शायद एक ही है। विषय है ‘अग्नि‘ के ईलन का। यहां वेदविद् हज़ारों साल से अग्नि का अर्थ आग करते आ रहे हैं और कुछ वेदज्ञ यहां ईश्वर अभिप्रेत समझते आए हैं। यहां आप कुरआन की मदद से निश्चित कर सकते हैं कि वास्तव में सही अर्थ क्या है यहां ?
हमें वेद से नफ़रत नहीं है तो आप क्यों कुरआन से नफ़रत करते हैं ?
ईश्वर और चीज़ों के नाम वेदों में गडमड हैं और वेदों के वास्तविक अर्थ निर्धारण में यह एक सबसे बड़ी समस्या है। सायण जिस शब्द का अर्थ सूर्य बता रहे हैं , उसी का अर्थ मैक्समूलर साहब घोड़ा बता रहे हैं और दयानंद जी कह रहे हैं कि इसका अर्थ है ‘ईश्वर‘। अब बताइये कि कैसे तय करेंगे कि कहां क्या अर्थ है ?
परमेश्वर के वचन के अर्थ निर्धारण के लिए केवल मनुष्य की बुद्धि काफ़ी नहीं है। इसे आप परमेश्वर की वाणी कुरआन के आलोक में देखिए। जहां घोड़ा है वहां आपको घोड़ा नज़र आएगा, जहां सूर्य है वहां सूर्य दिखेगा और जहां ईश्वर है वहां ईश्वर के ही दर्शन होंगे।
कुरआन एक दिव्य आलोक है। इसका इन्कार करने के बाद आप कभी नहीं जान सकते कि कहां क्या है ?
चाहे आप कितने ही बड़े ज्ञानी क्यों न बन जाएं ?
दयानंद जैसे बड़े वेदज्ञ दुनिया को ‘नियोग‘ की शिक्षा देकर गए और उन्हें वेद में यह नज़र आया कि सूर्य , चंद्र और सारे तारों पर आदमी रहते हैं और वे वेद पढ़ते हैं और यज्ञ करते हैं।
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है ?
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पोस्ट प्रकाशित करने से पहले मैंने एक नज़र लिंक देने की ग़र्ज़ से डाली तो भाई आनंद पाण्डेय जी ने मेरे विचार से सहमति जताई है कि अग्नि का एक अर्थ अग्रणी भी है। यह एक अच्छी बात है। उनमें भाई अमित जैसा हठ नहीं है, हालांकि वे भी ‘पाण्डेय‘ क़िस्म के ब्राह्मण हैं।
धन्यवाद है परमेश्वर का कि अभी सच को सहने और उसे स्वीकारने वाले लोग भी हमारे दरम्यान हैं
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मद्य
Tuesday, November 2, 2010
Allah in Indian scriptures वेद-उपनिषद में भी है अल्लाह का नाम - Anwer Jamal
आज़ाद देश के ये ग़ुलाम बाशिन्दे
इन्सान का सबसे बड़ा दुश्मन इन्सान खुद है। लोग समझते हैं कि समस्याओं का हल शिक्षा से संभव है लेकिन यह सिर्फ़ एक मुग़ालता है। आज जितने बड़े अपराधी हैं सभी शिक्षित हैं बल्कि देशों के प्रमुख तक हैं। उनके सलाहकार भी अपराधी ही हैं। मामूली अपराधी तो जेब काटते हैं या फिर लूटकर छोड़ देते हैं लेकिन ये अपराधी तो देशों पर हमले कर डालते हैं, मासूम बच्चों को अनाथ बना देते हैं और उस देश की संपदा ही नहीं लूटते बल्कि उसका गौरव भी लूट लेते हैं। ये लाखों लोगों को मार डालते हैं लेकिन इन्हें कोई आतंकवादी नहीं कह सकता बल्कि ये उन लोगों को आतंकवादी कहते हैं जिन्होंने इनके गिनती के लोग बदले में मार दिए होते हैं। पिछलग्गू देश अपनी ख़ैर मनाते हुए इनकी हां में हां मिलाते हैं और उनके बाशिन्दे इस ग़ुलामी पर फ़ख़्र करते हैं।
पूरा देश बंधक है विदेश में
इन ग़ुलामों में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो बहती गंगा में हाथ धो लेना चाहते हैं। इस समय दुनिया का हाल कुछ ऐसा ही नज़र आ रहा है। खि़लाफ़त का ख़ात्मा करने के बाद अंग्रेज़ और अमेरिकन मुस्लिम देशों को लूटते रहे। इन्होंने यूरोप को एक कर लिया और एशिया को बांट दिया। इन्होंने हिन्दुस्तान को बांट दिया। बंटे हुए हिन्दुस्तान में अब भी और ज़्यादा बंटने की मांग उठती रहती है। लोगों ने एक भ्रम खड़ा कर रखा है कि हिन्दुस्तान बहुत पावरफ़ुल होकर उभर रहा है। हालांकि यह एक हक़ीक़त है तब भी एक भ्रम है। भारत एक एटमिक शक्ति संपन्न देश है लेकिन उसके 22 नौजवानों को महीनों से सोमालियाई लुटेरों ने बंधक बनाकर रखा हुआ है। भारत न तो उन्हें छुड़ा पाया है और न ही उसके पास कोई योजना है उन्हें छुड़ाने की। वे सब आम लोगों के बच्चे हैं और सभी हिन्दू हैं। जर्मनी के इस जहाज़ के कैप्टन मुम्बई के महादेवल मकाने हैं और दूसरे नौजवान देश के अलग अलग इलाकों से हैं। ग़ाज़ियाबाद के चिराग़ हैं, सुल्तानपुर के शरद कुमार हैं, उड़ीसा के सुधांशु पांडेय हैं, देहरादून के संदीप डंगवाल हैं, राजस्थान के जितेन्द्र राठौर हैं, आदि आदि। देश के हरेक हिस्से का युवा बंधक है, देश के हरेक इलाक़े का प्रतिनिधि बंधक पड़ा है। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि पूरा देश ही प्रतीकात्मक रूप से बंधक पड़ा है। एक-दो दिन से नहीं बल्कि 8 मई से बंधक पड़े हैं। पूरा देश कहीं विदेश में बंधक पड़ा है लेकिन उसे आज़ाद कराने की चिंता न देश के नेतृत्व को है और न ही उन्हें अपना प्रमुख चुनने वाली जनता को।
एक महाशक्ति का तौर तरीक़ा क्या होना चाहिए ?
राम के देश के लोग कहीं किसी रावण के हाथ में हैं लेकिन लोगों को उस रावण से लड़ने की कोई इच्छा तक नहीं है लेकिन वे कब के मर चुके रावण के फ़र्ज़ी काग़ज़ी पुतले बना रहे हैं। फिर वे उनमें आग लगाएंगे और अख़बारों में छापेंगे कि रावण बुराई का प्रतीक है उसे जलाने का मतलब है बुराई को नष्ट करने का संकल्प लेना। न जाने कब से खुद को धोखा देते आ रहे हैं, कब से जुआ खेलते आ रहे हैं। कब से रावण के पुतले जला रहे हो ? किसी एक भी बुराई को समाज से मिटा सके ?
सोमालिया के लुटेरे रावण बने हुए पूरे देश की शक्ति को चुनौती दे रहे हैं लेकिन क्या कोई लड़ने गया है उनसे अब तक ?
जब भारत ऐसी दयनीय दीनता का परिचय देगा तो क्या फ़ायदा उसे संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता लेकर ?
पहले जो शक्ति आपको हासिल है उसे इस्तेमाल करना तो सीख लीजिए।
देश बंधक पड़ा है विदेश में। उन नौजवानों के घरों में मातम है। लेकिन पूरा देश दीवाली की तैयारी करने में मगन है। एक-दूसरे को शुभकामनाएं दी जा रही हैं।
किस बात की शुभकामनाएं हैं ये ?
असली रावण के मुक़ाबले से कतराने की ?
दुनिया में अपने देश की दुर्बलता के प्रदर्शन की ?
ऐसी ही बेग़ैरती के आलम में देश ने खेलगांव में ‘खेल‘ भी देखे ?
इनका दिल कैसे होता है किसी त्यौहार को मनाने का या कोई खेल देखने का ?
हां, ज़मीर मर चुका हो, अहसास और ग़ैरत रूख्सत हो चुकी हो तो कोई कुछ भी कर सकता है।
घर के शेर
सचमुच के विदेशी रावण के सामने पड़ने से भी घबराने वाले अपने घर में ज़रूर शेर हैं।
क्या कोई बता सकता है कि अपने घर में कौन शेर होता है ?
कहीं पता चल जाए कि कोई दलित किसी मरी हुई गाय की खाल उतार रहा है, बस उसमें ज़रूर आग लगा देंगे। सिक्खों को जला देंगे, ईसाईयों को जला देंगे और जब जलाने पर आएंगे तो ये गाय को भी जला देंगे बस शर्त यह है कि वह गाय होनी किसी मुसलमान की चाहिए। तोड़ने पर आएंगे तो ये अयोध्या के मंदिर भी तोड़ देंगे और लड़ने पर आएंगे तो इतना बहाना भी काफ़ी है कि उन्हीं के विस्फोटक उनकी ग़लती से ट्रेन के अंदर से जल जाएं और उनके कार्यकर्ता मारे जाएं।
अंग्रेज़ों की दया पर पलने वाले ये लोग उन पर हमला करते हैं जो सदा ही अंग्रेज़ों से लड़ते आए हैं। कहीं ये अंग्रेज़ों के एजेंट तो नहीं हैं ?
आखि़र इनके लड़ाई दंगों का फ़ायदा देश को तो मिलने वाला है नहीं। देश की लड़ाई देश को खोखला ही कर रही है। जो लोग ‘जन गण मन‘ नहीं गाते क्योंकि उसे कभी जार्ज पंचम के लिए लिखा गया था तो ये ‘वन्दे मातरम्‘ क्यों गाते हैं ?
‘वन्दे मातरम्‘ भी अंग्रेज़ों के एक चापलूस नौकर ने ही लिखा है।
खुद को मिटाने का मक़सद क्या है ?
इनका मक़सद विवाद खड़ा करना है। लोगों को बांटना है। अगर लोग ‘जन गण मन‘ गा रहे हैं तो ये नहीं गाएंगे ताकि लोग बंटे। अगर जागरूक लोग ‘वन्दे मातरम्‘ नहीं गाना चाहते तो ये लोग ज़ोर डालेंगे कि ज़रूर गाना पड़ेगा। इनके पास सेना है, संगठन है, शक्ति है, अनुशासन है लेकिन किसी सचमुच के विदेशी रावण से लड़ने की हिम्मत इनमें भी नहीं है। अपनी शक्ति का प्रयोग ये केवल भस्मासुर की तरह करते हैं। खुद अपने ही देशवासियों को नष्ट करने में ये दक्ष और कुशल हैं। देश के मुसलमानों को पाकिस्तान का साबित करेंगे और जो सचमुच का पाकिस्तानी होगा उसे अपना प्रमुख बना लेंगे बल्कि उसे देश का प्रधानमंत्री बनाने के लिए अपना सारा ज़ोर लगा देंगे।
इतना अंतर क्यों ?
क्या सिर्फ़ इसलिए कि वह मुसलमान नहीं है ?
लेकिन सोमालियाई लुटेरों की गिरफ़्त में बंधक पड़े नौजवान भी तो मुसलमान नहीं हैं। चलिए आप हिन्दुओं की ही फ़िक्र कर लीजिए। इन्हें न हिन्दुओं की कोई फ़िक्र है और न ही युवा शक्ति की। इन्हें बस फ़िक्र है अपनी शक्ति की। ये हिन्दुओं का , उनके युवाओं का इस्तेमाल करते हैं अपनी शक्ति बढ़ाने में। अपनी शक्ति का लाभ इनका उच्च वर्ग खुद उठाता है, किसी को लाभ पहुंचाता नहीं है। अयोध्या आंदोलन में मारे गए हिन्दू युवाओं की विधवाएं आज तक बेसहारा घूम रही हैं। धर्म इनके पास बचा नहीं है और संस्कृति के गुणगान से ये पीछे नहीं हटते। भारतीय संस्कृति का गुणगान करने वाले ये लोग जब कभी इकठ्ठा होते हैं तो पहनते हैं अंग्रज़ी स्टाइल का ख़ाकी नेकर ?
यह कौन सी संस्कृति है ?
इनके पास संस्कृति भी नहीं है। इसीलिए मैं कहता हूं कि राष्ट्रवाद केवल एक ढकोसला है। राष्ट्रवादियों को न तो देश के युवाओं की चिंता है और न ही भारतीय संस्कृति की। इन्हें केवल इस बात की चिंता है कि मुसलमानों का मनोबल कैसे डाउन रखा जाए ?
दबे-कुचले लोगों को समानता और मुक्ति का पाठ पढ़ाने वाले मुसलमानों, ईसाईयों और वामपंथियों को कैसे सबक़ सिखाया जाए ?
सफलता में असफलता
इन्होंने आंदोलन चलाए, लाखों लोग उजाड़ दिए। इनके आंदोलन की सफलता ही इनकी असफलता सिद्ध हुई। इन्हें उनके वोट मिलने बंद हो गए। ये खुद ही सत्ता से बेदख़ल हो गए। इनकी तबाही झेल चुके मुसलमानों के आपसी मतभेद ख़त्म हो गए। देश के शिया-सुन्नी एक हो गए। पाकिस्तान में शिया सुन्नी एक दूसरे की मस्जिदों में और दरगाहों में बम फोड़ रहे हैं और देश के हुक्मरां अपना सर फ़ोड़ रहे हैं कि इस ख़ून-ख़राबे को कैसे रोकें ?
लेकिन भारत के शिया सुन्नी चैन से जी रहे हैं। क्या वजह है इस चैन की ?
क्या भारत के शिया और सुन्नियों की आइडियोलॉजी कुछ अलग है वहां के शिया सुन्नियों से ?
बिल्कुल नहीं। दोनों ही जगह के लोगों की एक ही विचारधारा है।
दरअस्ल विचारधारा का नहीं बल्कि हालात का फ़र्क़ है। पाकिस्तान के हुक्मरां अपने देश के मुसलमानों को जो न दे सके, भारत के मुसलमानों को एकता का वह बेनज़ीर तोहफ़ा दिया है उनके वुजूद से नफ़रत करने वालों ने।
अल्लाह शर से भी ख़ैर पैदा कर देता है
अल्लाह का शुक्र है हर हाल में, बेशक वह हर हाल में मेहरबान है अपने बन्दों पर। वह किस तदबीर से बन्दों को क्या बख्शता है उसे कोई नहीं जान सकता। अल्लाह की यह मेहरबानी सिर्फ़ मुसलमानों पर ही नहीं है बल्कि हिन्दुओं पर भी है कि उनके देश में मुसलमान आबाद हैं, जिनके पास वास्तव में ‘धर्म‘ है। वह सनातन धर्म जिसे वे बहुत पहले खो चुके हैं।
इस्लाम वास्तव में सनातन धर्म है, यह इतना ज़्यादा स्पष्ट है कि अगर कोई हिन्दू निष्पक्षता से इस्लाम के बुनियादी अक़ीदों पर और उसके पांच स्तम्भों पर ही नज़र डाल ले तो वह आसानी से सत्य जान लेगा।
इस्लाम के बुनियादी अक़ीदे
1. तौहीद यानि एक परमेश्वर के प्रति निष्ठा और समर्पण रखना
2. रिसालत यानि एक ऐसे आदर्श पुरूष को गुरू बनाकर उसका अनुसरण करना जिसके अंतःकरण पर ईश्वर की वाणी का अवतरण हुआ हो।
3. आखि़रत यानि परलोक, एक ऐसा स्थायी जगत जहां मानव जाति को उसके सभी कर्मों का फल न्यायानुसार मिल सके।
इस्लाम के पांच स्तम्भ
1. कलिमा यानि ईश्वर को स्वामी और पूज्य मानना और हज़रत मुहम्मद साहब स. को उसका दास और दूत मानना।
2. नमाज़ यानि केवल एक परमेश्वर के सामने ही समर्पण करना और जो उसके नियम हैं, उसकी आज्ञाएं हैं उनका पालन करने का संकल्प लेना।
3. ज़कात यानि समर्थ लोगों द्वारा एक निश्चित राशि अनिवार्य रूप से समाज के ज़रूरतमंदों को दान देना।
4. रोज़ा यानि चांद के बारह महीनों में से एक निश्चित माह में उपवास रखना।
5. हज यानि तीर्थ यात्रा काबा की परिक्रमा करना। काबा एक तीर्थ है इसे हिन्दू भाई अच्छी तरह से जानते हैं।
धर्म एक है सबका
अब बताइये, इनमें ऐसी कौन सी बात है जिस पर हिन्दू भाई खुद विश्वास न रखते हों। हो सकता है वे हज़रत मुहम्मद साहब स. को रसूल और गुरू न मानते हों तब भी उन्हें गुरू की ज़रूरत वास्तव में है। वे उनके स्थान पर किसी और को गुरू बनाते हैं। गुरू और गुरूवाद में तो बहरहाल वे विश्वास रखते ही हैं। इन सभी बातों को वे मानते हैं चाहे उनके मानने की रीति थोड़ी अलग ही क्यों न हो ?
इस्लाम ऐसी कौन सी बात उनसे मनवाना चाहता है जिसे वे पहले से ही न मानते हों ?
इस्लाम की विशेषता
इस्लाम तो उन्हें उन विपरीत विचारों और कुरीतियों से मुक्ति देता है जो ‘समन्वय‘ और ‘अनेकता में एकता‘ के चक्कर में मान्यता पाकर समाज को नुक्सान पहुंचा रही हैं। इस्लाम अगर एक ईश्वर की वंदना-उपासना के लिए कहता है तो फिर किसी मूर्ति की आरती की इजाज़त वह नहीं देता। वह रावण के काग़ज़ी पुतलों में धन और ऊर्जा बर्बाद करने के बजाए असली रावण को ठिकाने लगाने की प्रेरणा देता है। वह आग में घी डालने के बजाए इन्सान के पेट की आग बुझाने का रास्ता दिखाता है। वह पत्थर की मूर्तियों को दिखावटी भोग लगाने के बजाए हाड़-मांस की ईश्वरकृत जीवित मूर्तियों को सच्चा भोग कराने का हुक्म देता है। नर के रूप में नारायण की कल्पना तो सनातन धर्म में भी पाई जाती है। उसे वास्तव में सिद्ध करना केवल इस्लाम में ही संभव है। केवल इस्लाम ही बता सकता है कि कहां किस बात को अलंकार के अर्थ में लेना है और कहां उसे उसके शाब्दिक अर्थ में ?
इस्लाम आपका सहायक, आपका मुक्तिदाता
इस्लाम आपकी हज़ारों साल पुरानी उलझी हुई गुत्थियों को सुलझा सकता है। ऐसा धर्म हिन्दू लोगों को आज उनके अपने ही देश में सुलभ है। उन पर यह अल्लाह का ख़ास ईनाम है।
लेकिन जो लोग मुसलमानों की नफ़रत में अंधे हो चुके हैं उन्हें यह ईश्वरीय उपहार दिखाई नहीं दे रहा है। उन्हें तो ‘अल्लाह‘ नाम से भी घृणा है। इसी ब्लागजगत में ‘अल्लाह‘ के नाम की खिल्ली उड़ाई जा रही है। दुनिया जानती है कि ईश्वर अल्लाह एक ही स्रष्टा के नाम हैं दो अलग-अलग भाषाओं में लेकिन इन्कार करने वाले इस सच्चाई से इन्कार कर रहे हैं।
चलिए नहीं मानना है तो मत मानिए, अल्लाह के नाम का मज़ाक़ तो मत उड़ाइये।
शांति का कोई दिखावटपरस्त नहीं फटकता वहां समझाने के लिए, क्यों ?
क्या सिर्फ़ इसलिए कि यह हिन्दुस्तान है और मज़ाक़ उड़ाने वाला एक हिन्दू है ?
लेकिन यह हिन्दुस्तान भी अल्लाह ही का है। ज़मीन व आसमान अल्लाह ही का है। हर चीज़ उसी की है। किसी भी चीज़ को हक़ नहीं है कि वह अल्लाह की मज़ाक़ उड़ाए।
लोग नाम की मज़ाक़ उड़ाते हुए यह भूल जाते हैं कि नाम भले ही अलग हैं लेकिन ये सब नाम जिसके हैं वह तो एक ही है।
अल्लाह स्वामी है सब लोकों का
अरबी में ‘इलाह‘ का अर्थ पूज्य है। अरब के लोग अल्लाह को भी ‘इलाह‘ अर्थात पूज्य मानते थे और जब धर्म का लोप हो गया था तो वे दूसरी क़ौमों की नक़ल में कुछ और चीज़ों को भी ‘इलाह‘ कहने लगे थे जो कि वास्तव में इलाह नहीं थे। अल्लाह शब्द में ‘इलाह‘ खुद ही समाहित है। इलाह का अर्थ है पूज्य और ‘अल + इलाह‘ के योग से बने शब्द अल्लाह का अर्थ है ‘परमपूज्य‘।
कुरआन की पहली सूरत की बिल्कुल पहली ही आयत में उसका परिचय इस तरह मिलता है-
अल्-हम्दु लिल्लाहि रब्बिल अ़ालमीन .
अर्थात विशेष प्रशंसा है परमपूज्य के लिए जो पालनहार है सभी लोकों का।
वेद-उपनिषद में भी है अल्लाह का नाम
अल्लाह नाम भी हिन्दुओं के लिए अजनबी नहीं है। अल्लोपनिषद में यह नाम आया है।
जो लोग अल्लोपनिषद को नहीं मानते। वे इस नाम में समाहित ‘इलाह‘ को थोड़े अंतर के साथ वेद में भी देख सकते हैं लेकिन वहां भी उसका अर्थ पूज्य ही है।
ऋग्वेद में ईश्वर के लिए जिन नामों को प्रयोग हुआ है, उनमें से एक नाम ‘इला‘ है जिसका मूल तत्व ‘इल‘ या ‘ईल‘ है और जिसका अर्थ है पूजा करना, स्तुति करना। ‘ईल्य‘ का धात्वर्थ है ‘पूजनीय‘। ऋग्वेद के बिल्कुल शुरू में ही यह शब्द प्रयुक्त हुआ है जिसका स्पष्ट अर्थ है कि ‘हे ईश्वर ! तू पूर्व और नूतन, छोटे और बड़े सभी के लिए पूजनीय है। तुझे केवल विद्वान ही समझ सकते हैं।‘ (ऋ. 1;1;1 )
यह नाम इतना पुरातन है कि लगभग 6 हज़ार साल पहले सुमेरिया की भाषा में ‘ईल‘ शब्द परमेश्वर के लिए बोला जाता था। सुमेरियन नगर ‘बाबिलोन‘ शब्द दरअस्ल ‘बाबेईल‘ था अर्थात ईश्वर का द्वार, हरिद्वार । यही वह शब्द है जो किसी न किसी रूप में इब्रानी, सुरयानी तथा कलदानी भाषाओं में ईश्वर के अस्तित्व के लिए इस्तेमाल होता आया है। जिस वुजूद के लिए यह नाम हमेशा से इस्तेमाल होता आया है वह सबका मालिक है। सबका मालिक एक है।
अल्लाह का नाम, एकता का आधार
इस पवित्र नाम से सब लोकों को और सब लोगों को इस बात यक़ीन हासिल हो सकता है। उस मालिक के सभी नाम अच्छे हैं लेकिन जो ख़ासियत ‘इलाह‘ और ‘अल्लाह‘ नाम में है वह किसी और में नहीं है। इसी लिए उस मालिक ने इस्लाम का जो कलिमा निश्चित किया है, उसमें इन दोनों नामों का इस्तेमाल किया है।
‘ला इलाहः इल-लल्लाह‘
अर्थात अल्लाह के अतिरिक्त कोई अन्य इलाह नहीं है, परमपूज्य के अलावा कोई पूज्य नहीं है। जो सच्चाई की तलाश में है, जो अपने गं्रथ का जानकार है, वह जानता है कि यह बात सच है। आज लोगों ने बहुत सी चीज़ों को पूज्य बना रखा है बल्कि परमपूज्य भी कहते हैं, मां को, बाप को, गुरू को बल्कि जानवरों तक को। हर चीज़ को परमपूज्य बना लिया। परमपूज्य का स्थान जब वे किसी और से भर चुके हैं तो अब वे कैसे जान पाएंगे कि दौलत परमपूज्य नहीं है, ज्ञान और ज्ञानी परमपूज्य नहीं है बल्कि परमपूज्य वह है जो इन सबका दाता है।
दौलत के पुजारी
अब दीवाली आ रही है। रावण जलाया जा चुका है और अब ‘लक्ष्मी‘ पूजी जाएगी। जिस समाज में दौलत की पूजा आम हो, वहां केवल दौलतमंद को ही जीने का अधिकार शेष रह जाता है। दीवाली तो उनकी दीवाली है जो पूरे देश का दिवाला निकाल रहे हैं। उन्हें किसी की शुभकामनाओं की ज़रूरत नहीं है। देश में जो भी शुभ था सब उन्होंने समेट लिया है। ग़रीब लोगों का गुज़र कोरी शुभकामनाओं से होता नहीं। धर्म और ईश्वर से कटने के बाद शुभकामनाएं देना केवल एक फ़िज़ूल रस्म है जिससे किसी का कुछ भी शुभ नहीं होता।
सोमालिया में पकड़े गए नौजवान अगर 22 न होकर 1 भी होता लेकिन होता वह किसी दौलतमंद नेता के घर से तो उसे छुड़ाने के लिए वह सब कुछ किया जाता जो कि नहीं भी करना चाहिए था। रूबिया सईद की रिहाई की कोशिशें इसकी मिसाल हैं। तब यह भी नहीं देखा जाता कि जिसके लिए कोशिशें की जा रही हैं वह एक मुसलमान है। हिन्दू मुसलमान का भेद तब ख़त्म हो जाता है यहां। एक दौलतमंद मुसलमान नेता की लड़की को छुड़ाने के लिए सौदेबाज़ी की जा चुकी है लेकिन मध्यमवर्गीय हिन्दू युवाओं को छुड़ाने के लिए किसी के माथे पर चिंता की कोई लकीर तक नहीं है।
मुसलमान भी इस पर ध्यान दें
मुसलमान जो अपने साथ भेदभाव की शिकायत करते हैं, उन्हें सोचना चाहिए कि बेचारे हिन्दू किससे शिकायत करें ?
हिन्दू मुसलमान के भेद केवल राजनीति की दुकानें करने के लिए फैलाया जाता है वर्ना समाज में दौलत को ही खुदा का, ईश्वर का दर्जा दिया जा चुका है। वासना इनका धर्म है, ऐश इनका मक़सद है और अपराध इनका पेशा है। ये लोग समाज पर लदे हुए हैं। समाज को यही लोग तबाह कर रहे हैं। समाज के लोग ईश्वर को भुलाने का दण्ड भुगत रहे हैं तरह तरह की समस्याओं के रूप में। तमाम समस्याओं का हल सही नेता और समुचित योजना का चुनाव करने से ही हो सकता है। सही नेता चुनने के लायक़ समाज तब बनता है जब वह ‘सही‘ का चुनाव करना सीख लेता है। जो समाज सही तरीक़े से सच्चे ईश्वर को चुनने के लायक़ न हो वह सही नेता का चुनाव कैसे कर सकता है ?
सच क्या है ?
सच केवल इस्लाम है, अल्लाह का नाम है .
जो मानना चाहे मान ले, यही मेरा पैग़ाम है .
हालात इजाज़त नहीं देते इसलिए मैं किसी को भी ‘दीपावली की शुभकामनाएं‘ नहीं कह सकता। रस्म के तौर पर कह देना फ़िज़ूल है और सच में मुल्क के हालात शुभ हैं नहीं।
प्रार्थना पर टिकी हैं भविष्य की आशाएं
फिर भी ...
ईश्वर अल्लाह से हम शुभमति और सन्मति की प्रार्थना तो कर ही सकते हैं क्योंकि कोई नहीं जानता कि वह भविष्य में हम पर कैसे मेहरबान हो जाए ?
मालिक हमारे हर दिन को खुशियों से भर दे।
आप सबके दिल को मुहब्बत से भर दे।
आप सबके घर को प्यार भरे रिश्तों की सच्ची दौलत से भर दे।
आप सबके साथ जो भी अच्छाई वह मालिक करे वही मेरे साथ भी हो।
आमीन, तथास्तु।
ओउम शांति।
श
इन्सान का सबसे बड़ा दुश्मन इन्सान खुद है। लोग समझते हैं कि समस्याओं का हल शिक्षा से संभव है लेकिन यह सिर्फ़ एक मुग़ालता है। आज जितने बड़े अपराधी हैं सभी शिक्षित हैं बल्कि देशों के प्रमुख तक हैं। उनके सलाहकार भी अपराधी ही हैं। मामूली अपराधी तो जेब काटते हैं या फिर लूटकर छोड़ देते हैं लेकिन ये अपराधी तो देशों पर हमले कर डालते हैं, मासूम बच्चों को अनाथ बना देते हैं और उस देश की संपदा ही नहीं लूटते बल्कि उसका गौरव भी लूट लेते हैं। ये लाखों लोगों को मार डालते हैं लेकिन इन्हें कोई आतंकवादी नहीं कह सकता बल्कि ये उन लोगों को आतंकवादी कहते हैं जिन्होंने इनके गिनती के लोग बदले में मार दिए होते हैं। पिछलग्गू देश अपनी ख़ैर मनाते हुए इनकी हां में हां मिलाते हैं और उनके बाशिन्दे इस ग़ुलामी पर फ़ख़्र करते हैं।
पूरा देश बंधक है विदेश में
इन ग़ुलामों में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो बहती गंगा में हाथ धो लेना चाहते हैं। इस समय दुनिया का हाल कुछ ऐसा ही नज़र आ रहा है। खि़लाफ़त का ख़ात्मा करने के बाद अंग्रेज़ और अमेरिकन मुस्लिम देशों को लूटते रहे। इन्होंने यूरोप को एक कर लिया और एशिया को बांट दिया। इन्होंने हिन्दुस्तान को बांट दिया। बंटे हुए हिन्दुस्तान में अब भी और ज़्यादा बंटने की मांग उठती रहती है। लोगों ने एक भ्रम खड़ा कर रखा है कि हिन्दुस्तान बहुत पावरफ़ुल होकर उभर रहा है। हालांकि यह एक हक़ीक़त है तब भी एक भ्रम है। भारत एक एटमिक शक्ति संपन्न देश है लेकिन उसके 22 नौजवानों को महीनों से सोमालियाई लुटेरों ने बंधक बनाकर रखा हुआ है। भारत न तो उन्हें छुड़ा पाया है और न ही उसके पास कोई योजना है उन्हें छुड़ाने की। वे सब आम लोगों के बच्चे हैं और सभी हिन्दू हैं। जर्मनी के इस जहाज़ के कैप्टन मुम्बई के महादेवल मकाने हैं और दूसरे नौजवान देश के अलग अलग इलाकों से हैं। ग़ाज़ियाबाद के चिराग़ हैं, सुल्तानपुर के शरद कुमार हैं, उड़ीसा के सुधांशु पांडेय हैं, देहरादून के संदीप डंगवाल हैं, राजस्थान के जितेन्द्र राठौर हैं, आदि आदि। देश के हरेक हिस्से का युवा बंधक है, देश के हरेक इलाक़े का प्रतिनिधि बंधक पड़ा है। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि पूरा देश ही प्रतीकात्मक रूप से बंधक पड़ा है। एक-दो दिन से नहीं बल्कि 8 मई से बंधक पड़े हैं। पूरा देश कहीं विदेश में बंधक पड़ा है लेकिन उसे आज़ाद कराने की चिंता न देश के नेतृत्व को है और न ही उन्हें अपना प्रमुख चुनने वाली जनता को।
एक महाशक्ति का तौर तरीक़ा क्या होना चाहिए ?
राम के देश के लोग कहीं किसी रावण के हाथ में हैं लेकिन लोगों को उस रावण से लड़ने की कोई इच्छा तक नहीं है लेकिन वे कब के मर चुके रावण के फ़र्ज़ी काग़ज़ी पुतले बना रहे हैं। फिर वे उनमें आग लगाएंगे और अख़बारों में छापेंगे कि रावण बुराई का प्रतीक है उसे जलाने का मतलब है बुराई को नष्ट करने का संकल्प लेना। न जाने कब से खुद को धोखा देते आ रहे हैं, कब से जुआ खेलते आ रहे हैं। कब से रावण के पुतले जला रहे हो ? किसी एक भी बुराई को समाज से मिटा सके ?
सोमालिया के लुटेरे रावण बने हुए पूरे देश की शक्ति को चुनौती दे रहे हैं लेकिन क्या कोई लड़ने गया है उनसे अब तक ?
जब भारत ऐसी दयनीय दीनता का परिचय देगा तो क्या फ़ायदा उसे संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता लेकर ?
पहले जो शक्ति आपको हासिल है उसे इस्तेमाल करना तो सीख लीजिए।
देश बंधक पड़ा है विदेश में। उन नौजवानों के घरों में मातम है। लेकिन पूरा देश दीवाली की तैयारी करने में मगन है। एक-दूसरे को शुभकामनाएं दी जा रही हैं।
किस बात की शुभकामनाएं हैं ये ?
असली रावण के मुक़ाबले से कतराने की ?
दुनिया में अपने देश की दुर्बलता के प्रदर्शन की ?
ऐसी ही बेग़ैरती के आलम में देश ने खेलगांव में ‘खेल‘ भी देखे ?
इनका दिल कैसे होता है किसी त्यौहार को मनाने का या कोई खेल देखने का ?
हां, ज़मीर मर चुका हो, अहसास और ग़ैरत रूख्सत हो चुकी हो तो कोई कुछ भी कर सकता है।
घर के शेर
सचमुच के विदेशी रावण के सामने पड़ने से भी घबराने वाले अपने घर में ज़रूर शेर हैं।
क्या कोई बता सकता है कि अपने घर में कौन शेर होता है ?
कहीं पता चल जाए कि कोई दलित किसी मरी हुई गाय की खाल उतार रहा है, बस उसमें ज़रूर आग लगा देंगे। सिक्खों को जला देंगे, ईसाईयों को जला देंगे और जब जलाने पर आएंगे तो ये गाय को भी जला देंगे बस शर्त यह है कि वह गाय होनी किसी मुसलमान की चाहिए। तोड़ने पर आएंगे तो ये अयोध्या के मंदिर भी तोड़ देंगे और लड़ने पर आएंगे तो इतना बहाना भी काफ़ी है कि उन्हीं के विस्फोटक उनकी ग़लती से ट्रेन के अंदर से जल जाएं और उनके कार्यकर्ता मारे जाएं।
अंग्रेज़ों की दया पर पलने वाले ये लोग उन पर हमला करते हैं जो सदा ही अंग्रेज़ों से लड़ते आए हैं। कहीं ये अंग्रेज़ों के एजेंट तो नहीं हैं ?
आखि़र इनके लड़ाई दंगों का फ़ायदा देश को तो मिलने वाला है नहीं। देश की लड़ाई देश को खोखला ही कर रही है। जो लोग ‘जन गण मन‘ नहीं गाते क्योंकि उसे कभी जार्ज पंचम के लिए लिखा गया था तो ये ‘वन्दे मातरम्‘ क्यों गाते हैं ?
‘वन्दे मातरम्‘ भी अंग्रेज़ों के एक चापलूस नौकर ने ही लिखा है।
खुद को मिटाने का मक़सद क्या है ?
इनका मक़सद विवाद खड़ा करना है। लोगों को बांटना है। अगर लोग ‘जन गण मन‘ गा रहे हैं तो ये नहीं गाएंगे ताकि लोग बंटे। अगर जागरूक लोग ‘वन्दे मातरम्‘ नहीं गाना चाहते तो ये लोग ज़ोर डालेंगे कि ज़रूर गाना पड़ेगा। इनके पास सेना है, संगठन है, शक्ति है, अनुशासन है लेकिन किसी सचमुच के विदेशी रावण से लड़ने की हिम्मत इनमें भी नहीं है। अपनी शक्ति का प्रयोग ये केवल भस्मासुर की तरह करते हैं। खुद अपने ही देशवासियों को नष्ट करने में ये दक्ष और कुशल हैं। देश के मुसलमानों को पाकिस्तान का साबित करेंगे और जो सचमुच का पाकिस्तानी होगा उसे अपना प्रमुख बना लेंगे बल्कि उसे देश का प्रधानमंत्री बनाने के लिए अपना सारा ज़ोर लगा देंगे।
इतना अंतर क्यों ?
क्या सिर्फ़ इसलिए कि वह मुसलमान नहीं है ?
लेकिन सोमालियाई लुटेरों की गिरफ़्त में बंधक पड़े नौजवान भी तो मुसलमान नहीं हैं। चलिए आप हिन्दुओं की ही फ़िक्र कर लीजिए। इन्हें न हिन्दुओं की कोई फ़िक्र है और न ही युवा शक्ति की। इन्हें बस फ़िक्र है अपनी शक्ति की। ये हिन्दुओं का , उनके युवाओं का इस्तेमाल करते हैं अपनी शक्ति बढ़ाने में। अपनी शक्ति का लाभ इनका उच्च वर्ग खुद उठाता है, किसी को लाभ पहुंचाता नहीं है। अयोध्या आंदोलन में मारे गए हिन्दू युवाओं की विधवाएं आज तक बेसहारा घूम रही हैं। धर्म इनके पास बचा नहीं है और संस्कृति के गुणगान से ये पीछे नहीं हटते। भारतीय संस्कृति का गुणगान करने वाले ये लोग जब कभी इकठ्ठा होते हैं तो पहनते हैं अंग्रज़ी स्टाइल का ख़ाकी नेकर ?
यह कौन सी संस्कृति है ?
इनके पास संस्कृति भी नहीं है। इसीलिए मैं कहता हूं कि राष्ट्रवाद केवल एक ढकोसला है। राष्ट्रवादियों को न तो देश के युवाओं की चिंता है और न ही भारतीय संस्कृति की। इन्हें केवल इस बात की चिंता है कि मुसलमानों का मनोबल कैसे डाउन रखा जाए ?
दबे-कुचले लोगों को समानता और मुक्ति का पाठ पढ़ाने वाले मुसलमानों, ईसाईयों और वामपंथियों को कैसे सबक़ सिखाया जाए ?
सफलता में असफलता
इन्होंने आंदोलन चलाए, लाखों लोग उजाड़ दिए। इनके आंदोलन की सफलता ही इनकी असफलता सिद्ध हुई। इन्हें उनके वोट मिलने बंद हो गए। ये खुद ही सत्ता से बेदख़ल हो गए। इनकी तबाही झेल चुके मुसलमानों के आपसी मतभेद ख़त्म हो गए। देश के शिया-सुन्नी एक हो गए। पाकिस्तान में शिया सुन्नी एक दूसरे की मस्जिदों में और दरगाहों में बम फोड़ रहे हैं और देश के हुक्मरां अपना सर फ़ोड़ रहे हैं कि इस ख़ून-ख़राबे को कैसे रोकें ?
लेकिन भारत के शिया सुन्नी चैन से जी रहे हैं। क्या वजह है इस चैन की ?
क्या भारत के शिया और सुन्नियों की आइडियोलॉजी कुछ अलग है वहां के शिया सुन्नियों से ?
बिल्कुल नहीं। दोनों ही जगह के लोगों की एक ही विचारधारा है।
दरअस्ल विचारधारा का नहीं बल्कि हालात का फ़र्क़ है। पाकिस्तान के हुक्मरां अपने देश के मुसलमानों को जो न दे सके, भारत के मुसलमानों को एकता का वह बेनज़ीर तोहफ़ा दिया है उनके वुजूद से नफ़रत करने वालों ने।
अल्लाह शर से भी ख़ैर पैदा कर देता है
अल्लाह का शुक्र है हर हाल में, बेशक वह हर हाल में मेहरबान है अपने बन्दों पर। वह किस तदबीर से बन्दों को क्या बख्शता है उसे कोई नहीं जान सकता। अल्लाह की यह मेहरबानी सिर्फ़ मुसलमानों पर ही नहीं है बल्कि हिन्दुओं पर भी है कि उनके देश में मुसलमान आबाद हैं, जिनके पास वास्तव में ‘धर्म‘ है। वह सनातन धर्म जिसे वे बहुत पहले खो चुके हैं।
इस्लाम वास्तव में सनातन धर्म है, यह इतना ज़्यादा स्पष्ट है कि अगर कोई हिन्दू निष्पक्षता से इस्लाम के बुनियादी अक़ीदों पर और उसके पांच स्तम्भों पर ही नज़र डाल ले तो वह आसानी से सत्य जान लेगा।
इस्लाम के बुनियादी अक़ीदे
1. तौहीद यानि एक परमेश्वर के प्रति निष्ठा और समर्पण रखना
2. रिसालत यानि एक ऐसे आदर्श पुरूष को गुरू बनाकर उसका अनुसरण करना जिसके अंतःकरण पर ईश्वर की वाणी का अवतरण हुआ हो।
3. आखि़रत यानि परलोक, एक ऐसा स्थायी जगत जहां मानव जाति को उसके सभी कर्मों का फल न्यायानुसार मिल सके।
इस्लाम के पांच स्तम्भ
1. कलिमा यानि ईश्वर को स्वामी और पूज्य मानना और हज़रत मुहम्मद साहब स. को उसका दास और दूत मानना।
2. नमाज़ यानि केवल एक परमेश्वर के सामने ही समर्पण करना और जो उसके नियम हैं, उसकी आज्ञाएं हैं उनका पालन करने का संकल्प लेना।
3. ज़कात यानि समर्थ लोगों द्वारा एक निश्चित राशि अनिवार्य रूप से समाज के ज़रूरतमंदों को दान देना।
4. रोज़ा यानि चांद के बारह महीनों में से एक निश्चित माह में उपवास रखना।
5. हज यानि तीर्थ यात्रा काबा की परिक्रमा करना। काबा एक तीर्थ है इसे हिन्दू भाई अच्छी तरह से जानते हैं।
धर्म एक है सबका
अब बताइये, इनमें ऐसी कौन सी बात है जिस पर हिन्दू भाई खुद विश्वास न रखते हों। हो सकता है वे हज़रत मुहम्मद साहब स. को रसूल और गुरू न मानते हों तब भी उन्हें गुरू की ज़रूरत वास्तव में है। वे उनके स्थान पर किसी और को गुरू बनाते हैं। गुरू और गुरूवाद में तो बहरहाल वे विश्वास रखते ही हैं। इन सभी बातों को वे मानते हैं चाहे उनके मानने की रीति थोड़ी अलग ही क्यों न हो ?
इस्लाम ऐसी कौन सी बात उनसे मनवाना चाहता है जिसे वे पहले से ही न मानते हों ?
इस्लाम की विशेषता
इस्लाम तो उन्हें उन विपरीत विचारों और कुरीतियों से मुक्ति देता है जो ‘समन्वय‘ और ‘अनेकता में एकता‘ के चक्कर में मान्यता पाकर समाज को नुक्सान पहुंचा रही हैं। इस्लाम अगर एक ईश्वर की वंदना-उपासना के लिए कहता है तो फिर किसी मूर्ति की आरती की इजाज़त वह नहीं देता। वह रावण के काग़ज़ी पुतलों में धन और ऊर्जा बर्बाद करने के बजाए असली रावण को ठिकाने लगाने की प्रेरणा देता है। वह आग में घी डालने के बजाए इन्सान के पेट की आग बुझाने का रास्ता दिखाता है। वह पत्थर की मूर्तियों को दिखावटी भोग लगाने के बजाए हाड़-मांस की ईश्वरकृत जीवित मूर्तियों को सच्चा भोग कराने का हुक्म देता है। नर के रूप में नारायण की कल्पना तो सनातन धर्म में भी पाई जाती है। उसे वास्तव में सिद्ध करना केवल इस्लाम में ही संभव है। केवल इस्लाम ही बता सकता है कि कहां किस बात को अलंकार के अर्थ में लेना है और कहां उसे उसके शाब्दिक अर्थ में ?
इस्लाम आपका सहायक, आपका मुक्तिदाता
इस्लाम आपकी हज़ारों साल पुरानी उलझी हुई गुत्थियों को सुलझा सकता है। ऐसा धर्म हिन्दू लोगों को आज उनके अपने ही देश में सुलभ है। उन पर यह अल्लाह का ख़ास ईनाम है।
लेकिन जो लोग मुसलमानों की नफ़रत में अंधे हो चुके हैं उन्हें यह ईश्वरीय उपहार दिखाई नहीं दे रहा है। उन्हें तो ‘अल्लाह‘ नाम से भी घृणा है। इसी ब्लागजगत में ‘अल्लाह‘ के नाम की खिल्ली उड़ाई जा रही है। दुनिया जानती है कि ईश्वर अल्लाह एक ही स्रष्टा के नाम हैं दो अलग-अलग भाषाओं में लेकिन इन्कार करने वाले इस सच्चाई से इन्कार कर रहे हैं।
चलिए नहीं मानना है तो मत मानिए, अल्लाह के नाम का मज़ाक़ तो मत उड़ाइये।
शांति का कोई दिखावटपरस्त नहीं फटकता वहां समझाने के लिए, क्यों ?
क्या सिर्फ़ इसलिए कि यह हिन्दुस्तान है और मज़ाक़ उड़ाने वाला एक हिन्दू है ?
लेकिन यह हिन्दुस्तान भी अल्लाह ही का है। ज़मीन व आसमान अल्लाह ही का है। हर चीज़ उसी की है। किसी भी चीज़ को हक़ नहीं है कि वह अल्लाह की मज़ाक़ उड़ाए।
लोग नाम की मज़ाक़ उड़ाते हुए यह भूल जाते हैं कि नाम भले ही अलग हैं लेकिन ये सब नाम जिसके हैं वह तो एक ही है।
अल्लाह स्वामी है सब लोकों का
अरबी में ‘इलाह‘ का अर्थ पूज्य है। अरब के लोग अल्लाह को भी ‘इलाह‘ अर्थात पूज्य मानते थे और जब धर्म का लोप हो गया था तो वे दूसरी क़ौमों की नक़ल में कुछ और चीज़ों को भी ‘इलाह‘ कहने लगे थे जो कि वास्तव में इलाह नहीं थे। अल्लाह शब्द में ‘इलाह‘ खुद ही समाहित है। इलाह का अर्थ है पूज्य और ‘अल + इलाह‘ के योग से बने शब्द अल्लाह का अर्थ है ‘परमपूज्य‘।
कुरआन की पहली सूरत की बिल्कुल पहली ही आयत में उसका परिचय इस तरह मिलता है-
अल्-हम्दु लिल्लाहि रब्बिल अ़ालमीन .
अर्थात विशेष प्रशंसा है परमपूज्य के लिए जो पालनहार है सभी लोकों का।
वेद-उपनिषद में भी है अल्लाह का नाम
अल्लाह नाम भी हिन्दुओं के लिए अजनबी नहीं है। अल्लोपनिषद में यह नाम आया है।
जो लोग अल्लोपनिषद को नहीं मानते। वे इस नाम में समाहित ‘इलाह‘ को थोड़े अंतर के साथ वेद में भी देख सकते हैं लेकिन वहां भी उसका अर्थ पूज्य ही है।
ऋग्वेद में ईश्वर के लिए जिन नामों को प्रयोग हुआ है, उनमें से एक नाम ‘इला‘ है जिसका मूल तत्व ‘इल‘ या ‘ईल‘ है और जिसका अर्थ है पूजा करना, स्तुति करना। ‘ईल्य‘ का धात्वर्थ है ‘पूजनीय‘। ऋग्वेद के बिल्कुल शुरू में ही यह शब्द प्रयुक्त हुआ है जिसका स्पष्ट अर्थ है कि ‘हे ईश्वर ! तू पूर्व और नूतन, छोटे और बड़े सभी के लिए पूजनीय है। तुझे केवल विद्वान ही समझ सकते हैं।‘ (ऋ. 1;1;1 )
यह नाम इतना पुरातन है कि लगभग 6 हज़ार साल पहले सुमेरिया की भाषा में ‘ईल‘ शब्द परमेश्वर के लिए बोला जाता था। सुमेरियन नगर ‘बाबिलोन‘ शब्द दरअस्ल ‘बाबेईल‘ था अर्थात ईश्वर का द्वार, हरिद्वार । यही वह शब्द है जो किसी न किसी रूप में इब्रानी, सुरयानी तथा कलदानी भाषाओं में ईश्वर के अस्तित्व के लिए इस्तेमाल होता आया है। जिस वुजूद के लिए यह नाम हमेशा से इस्तेमाल होता आया है वह सबका मालिक है। सबका मालिक एक है।
अल्लाह का नाम, एकता का आधार
इस पवित्र नाम से सब लोकों को और सब लोगों को इस बात यक़ीन हासिल हो सकता है। उस मालिक के सभी नाम अच्छे हैं लेकिन जो ख़ासियत ‘इलाह‘ और ‘अल्लाह‘ नाम में है वह किसी और में नहीं है। इसी लिए उस मालिक ने इस्लाम का जो कलिमा निश्चित किया है, उसमें इन दोनों नामों का इस्तेमाल किया है।
‘ला इलाहः इल-लल्लाह‘
अर्थात अल्लाह के अतिरिक्त कोई अन्य इलाह नहीं है, परमपूज्य के अलावा कोई पूज्य नहीं है। जो सच्चाई की तलाश में है, जो अपने गं्रथ का जानकार है, वह जानता है कि यह बात सच है। आज लोगों ने बहुत सी चीज़ों को पूज्य बना रखा है बल्कि परमपूज्य भी कहते हैं, मां को, बाप को, गुरू को बल्कि जानवरों तक को। हर चीज़ को परमपूज्य बना लिया। परमपूज्य का स्थान जब वे किसी और से भर चुके हैं तो अब वे कैसे जान पाएंगे कि दौलत परमपूज्य नहीं है, ज्ञान और ज्ञानी परमपूज्य नहीं है बल्कि परमपूज्य वह है जो इन सबका दाता है।
दौलत के पुजारी
अब दीवाली आ रही है। रावण जलाया जा चुका है और अब ‘लक्ष्मी‘ पूजी जाएगी। जिस समाज में दौलत की पूजा आम हो, वहां केवल दौलतमंद को ही जीने का अधिकार शेष रह जाता है। दीवाली तो उनकी दीवाली है जो पूरे देश का दिवाला निकाल रहे हैं। उन्हें किसी की शुभकामनाओं की ज़रूरत नहीं है। देश में जो भी शुभ था सब उन्होंने समेट लिया है। ग़रीब लोगों का गुज़र कोरी शुभकामनाओं से होता नहीं। धर्म और ईश्वर से कटने के बाद शुभकामनाएं देना केवल एक फ़िज़ूल रस्म है जिससे किसी का कुछ भी शुभ नहीं होता।
सोमालिया में पकड़े गए नौजवान अगर 22 न होकर 1 भी होता लेकिन होता वह किसी दौलतमंद नेता के घर से तो उसे छुड़ाने के लिए वह सब कुछ किया जाता जो कि नहीं भी करना चाहिए था। रूबिया सईद की रिहाई की कोशिशें इसकी मिसाल हैं। तब यह भी नहीं देखा जाता कि जिसके लिए कोशिशें की जा रही हैं वह एक मुसलमान है। हिन्दू मुसलमान का भेद तब ख़त्म हो जाता है यहां। एक दौलतमंद मुसलमान नेता की लड़की को छुड़ाने के लिए सौदेबाज़ी की जा चुकी है लेकिन मध्यमवर्गीय हिन्दू युवाओं को छुड़ाने के लिए किसी के माथे पर चिंता की कोई लकीर तक नहीं है।
मुसलमान भी इस पर ध्यान दें
मुसलमान जो अपने साथ भेदभाव की शिकायत करते हैं, उन्हें सोचना चाहिए कि बेचारे हिन्दू किससे शिकायत करें ?
हिन्दू मुसलमान के भेद केवल राजनीति की दुकानें करने के लिए फैलाया जाता है वर्ना समाज में दौलत को ही खुदा का, ईश्वर का दर्जा दिया जा चुका है। वासना इनका धर्म है, ऐश इनका मक़सद है और अपराध इनका पेशा है। ये लोग समाज पर लदे हुए हैं। समाज को यही लोग तबाह कर रहे हैं। समाज के लोग ईश्वर को भुलाने का दण्ड भुगत रहे हैं तरह तरह की समस्याओं के रूप में। तमाम समस्याओं का हल सही नेता और समुचित योजना का चुनाव करने से ही हो सकता है। सही नेता चुनने के लायक़ समाज तब बनता है जब वह ‘सही‘ का चुनाव करना सीख लेता है। जो समाज सही तरीक़े से सच्चे ईश्वर को चुनने के लायक़ न हो वह सही नेता का चुनाव कैसे कर सकता है ?
सच क्या है ?
सच केवल इस्लाम है, अल्लाह का नाम है .
जो मानना चाहे मान ले, यही मेरा पैग़ाम है .
हालात इजाज़त नहीं देते इसलिए मैं किसी को भी ‘दीपावली की शुभकामनाएं‘ नहीं कह सकता। रस्म के तौर पर कह देना फ़िज़ूल है और सच में मुल्क के हालात शुभ हैं नहीं।
प्रार्थना पर टिकी हैं भविष्य की आशाएं
फिर भी ...
ईश्वर अल्लाह से हम शुभमति और सन्मति की प्रार्थना तो कर ही सकते हैं क्योंकि कोई नहीं जानता कि वह भविष्य में हम पर कैसे मेहरबान हो जाए ?
मालिक हमारे हर दिन को खुशियों से भर दे।
आप सबके दिल को मुहब्बत से भर दे।
आप सबके घर को प्यार भरे रिश्तों की सच्ची दौलत से भर दे।
आप सबके साथ जो भी अच्छाई वह मालिक करे वही मेरे साथ भी हो।
आमीन, तथास्तु।
ओउम शांति।
श
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Monday, November 1, 2010
Truth lies in every soul जब कुरआन फैलना शुरू ही हुआ था तब उसके खि़लाफ़ कोई साज़िश कामयाब न हुई तो अब क्या होगी ? - Anwer Jamal
वक़ालल-लज़ीना कफ़रू ला तसमऊ़ लिहाज़ल क़ुरआनि वलग़ौ फ़ीहि लाअ़ल्लकुम तग़लिबून .
अर्थात और कुफ़्र करने वालों ने कहा कि इस क़ुरआन को न सुनो और इसमें ख़लल डालो ताकि तुम छा जाओ। (क़ुरआन, 41, 26)
तर्क का उद्देश्य सत्य का निर्णय होना चाहिए
आलोचना का तरीक़ा पूरी तरह जायज़ तरीक़ा है मगर ऐब लगाने का तरीक़ा कुफ्ऱ करने वालों का तरीक़ा है। मज़ीद यह कि ऐब लगाने का तरीक़ा रब की निशानियों का इन्कार है क्योंकि हर सच्ची दलील रब की एक निशानी है। जो लोग दलील के आगे न झुकें और ऐबजोई और इल्ज़ामतराशी का तरीक़ा इख्तियार करके उसे दबाना चाहें वे गोया रब की निशानी का इन्कार कर रहे हैं। ऐसे लोग आखि़रत में निहायत सख्त सज़ा के मुस्तहिक़ क़रार दिए जाएंगे।
(तज़्कीरूल क़ुरआन, पृष्ठ 1306-1307, उर्दू से हिन्दी)
सब इन्सान आपस में बराबर हैं, एक राष्ट्र हैं
परमेश्वर ने अपनी वाणी कुरआन मे सच को झुठलाने वाले नास्तिकों का एक लक्षण यह दिया है कि वे बेहूदा बातें करके बहस में ख़लल डालते हैं ताकि लोगों तवज्जो अस्ल मुद्दे से हट जाए और सच लोगों के सामने न आने पाए और उनकी झूठी परंपराओं के फन्दे से लोग आज़ाद न होने पाएं। उनकी सरदारी बदस्तूर बनी रहे, उनका सम्मान और उनकी बड़ाई बनी रहे। जाति, भाषा, रंग, देश और राष्ट्र, इनमें से हरेक बुनियाद खुद ही बेबुनियाद है, इनमें से कोई भी चीज़ इन्सान को बड़ा या छोटा बनाने के लिए काफ़ी नहीं है। सब इन्सान बराबर हैं। उनमें परमेश्वर की नज़र में वही सबसे ज़्यादा प्यारा है जिसके दिल में मालिक का प्यार है। किसी बन्दे के दिल में मालिक का प्यार सचमुच है या नहीं, इसका पता उसके अमल से ही चल सकता है कि वह उस मालिक के हुक्म को कितना मानता है और उन्हें कितना पूरा करता है ?
यह बात इस पूरी दुनिया में केवल इस्लाम कहता है, कुरआन कहता है।
विरोधियों की ऊर्जा से फ़ायदा ही पहुंचता है
जो लोग दुनिया को ग़ुलाम बनाए हुए हैं और बदस्तूर बनाए रखना चाहते हैं, वे कुरआन के इस आज़ादी के हुक्मानामे को आम नहीं होने देना चाहते। इसके लिए पहले तो वे कुछ सवाल क़ायम करते हैं जिससे लोगों के सामने कुरआन और कुरआन के बारे में भ्रम फैले और लोग इस्लाम और मुसलमानों से नफ़रत करने लगें लेकिन जब कोई आदमी सही बात सामने लाकर उस भ्रम को दूर करके समाज से नफ़रत मिटा देना चाहता है तो उन्हें अपनी सारी मेहनत पर पानी फिरता हुआ दिखाई देता है। तब वे दलील नहीं देते बल्कि गालियां देते हैं, मज़ाक़ उड़ाते हैं ताकि बात किसी निर्णय तक न पहुंचन पाए।
जब से मैंने अपने ब्लॉग ‘वेद कुरआन‘ पर लोगों के सामने सच रखने की कोशिश की है तब से इस तरह के लोग इस ब्लॉग पर भी प्रकट होते रहे। मैंने उनकी तरफ़ कभी तवज्जो नहीं दी बल्कि उनकी ऊर्जा को उनके ही खि़लाफ़ इस्तेमाल किया। उनके विरोध ने मेरे ब्लॉग को वहां पहुंचा दिया जहां मैं केवल प्रशंसकों के सहारे हरगिज़ नहीं पहुंच सकता था। मेरे विरोधियों ने परोक्ष रूप से मेरा सहयोग ही किया है। इसलिए भी मैं उन्हें दुआ ही देता हूं।
समझ बढ़ती है तो लोगों का फ़ैसला भी बदल जाता है
लोग मेरे आदी होते चले गए। कुछ लोग सच बात समझ गए और कुछ लोग थककर हट गए। मैं भी लोगों का आदी हो गया, उनकी आदतों का आदी हो गया। जो उन्हें करना है वे ज़रूर करें लेकिन मैं उनके लिए भलाई की दुआ करता रहूंगा और भली बात उन्हें समझाता रहूंगा।
एक दिन लोग ज़रूर समझेंगे कि मैंने हमेशा उन्हें सच्ची बात ही बताई है और बदले में उनसे कुछ भी नहीं चाहा। उनका प्यार ही मेरे लिए सबसे बड़ा तोहफ़ा है और जो मुझसे नफ़रत करता है दरअस्ल वह भी मुझे अपने दिलो-दिमाग़ में जगह देता है। यह भी प्यार का ही एक रूप है। नफ़रत कभी भी मुहब्बत में बदल सकती है। ऐसा बहुत बार हुआ है, इसीलिए मैं किसी के आज की गालियों को देखकर उससे मायूस नहीं होता।
इतिहास की गवाही
अरब के लोगों ने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. के साथ बदसुलूकी की इंतेहा की लेकिन आखि़रकार वे अपनी नफ़रतों के बोझ से खुद ही घबरा गए। समय लगा लेकिन वे बदले, उनके दिल बदले और ऐसे बदले कि जो कल तक पैग़म्बर साहब स. की जान लेने की ताक में रहते थे वे उनके लिए जान देने के मौक़े ढूंढने लगे और जब समय आया तो वे अपनी जान देने में आगे ही रहे। जो नहीं दे सके वे अफ़सोस करते रहे और रोते रहे कि उनके लिए जान देने का सौभाग्य हमें नहीं मिल पाया।
सत्य आदमी की आत्मा में रचा-बसा है
आदमी दुनिया से लड़ सकता है, सारी दुनिया को झुठला सकता है लेकिन कोई भी आदमी खुद को नहीं झुठला सकता। एक बार आदमी के सामने सच आ जाए तो उसकी आत्मा सत्य को तरंत पहचान लेती है। वह लोक दिखावे के लिए अपने इन्कार पर डटा रहता है लेकिन दरअस्ल नफ़रत की बुनियाद पर खड़ी हुई भ्रम की दीवार उसके मन में गिरना शुरू हो जाती है।
इस बात को एक प्रचारक जानता है और उसे रोकने वाला भी यह सच जानता है लेकिन आम पब्लिक इस प्रक्रिया का आदि, अंत और इसका प्रभाव नहीं जानती। मैंने आज यह लेख इसीलिए लिखा है ताकि हरेक जान ले और विचलित न हो।
सत्य की विजय है
जब कुरआन फैलना शुरू ही हुआ था तब उसके खि़लाफ़ कोई साज़िश कामयाब न हुई तो अब क्या होगी ?
अब तो वह सारी दुनिया में फैल चुका है और लोगों का ज़हन भी पहले से काफ़ी आज़ाद हो चुका है सोचने में और अपनी भलाई का रास्ता चुनने में। इन्सान की भलाई उसके मालिक के हाथ में है, उसके बताए रास्ते पर चलने में है। कुरआन यही बताता है। कुरआन से पहले जो भी ‘ज्ञान‘ मालिक की तरफ़ से आया उसने भी यही बताया है। यही सत्य सनातन है। यही सत्य सुंदर है। यही सत्य कल्याणकारी है। सत्य ही प्रभावी होता है। जीत हमेशा सत्य की ही होती है। यह नियम आदि से ही चला आ रहा है और आज भी क़ायम है।
अर्थात और कुफ़्र करने वालों ने कहा कि इस क़ुरआन को न सुनो और इसमें ख़लल डालो ताकि तुम छा जाओ। (क़ुरआन, 41, 26)
तर्क का उद्देश्य सत्य का निर्णय होना चाहिए
‘वलग़ौ फ़ीहि‘ की व्याख्या हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने ‘अय्यबूहु‘ के लफ़्ज़ से की है। (तफ़्सीर इब्ने कसीर) यानि क़ुरआन और पैग़म्बरे कुरआन में ऐब लगाओ और इस तरह लोगों को इससे दूर कर दो।
किसी बात या किसी आदमी के बारे में राय ज़ाहिर करने के दो तरीक़े हैं। एक आलोचना , दूसरा ऐब लगाना। आलोचना का मतलब है तथ्यों की बुनियाद पर बहस के मुद्दे का विश्लेषण करना। इसके खि़लाफ़ ऐब लगाना यह है कि आदमी बहस के मुद्दे पर दलीलें पेश न करे। वह सिर्फ़ उसमें ऐब निकाले, वह उस पर इल्ज़ाम लगाकर उस पर व्यंग्य करे।आलोचना का तरीक़ा पूरी तरह जायज़ तरीक़ा है मगर ऐब लगाने का तरीक़ा कुफ्ऱ करने वालों का तरीक़ा है। मज़ीद यह कि ऐब लगाने का तरीक़ा रब की निशानियों का इन्कार है क्योंकि हर सच्ची दलील रब की एक निशानी है। जो लोग दलील के आगे न झुकें और ऐबजोई और इल्ज़ामतराशी का तरीक़ा इख्तियार करके उसे दबाना चाहें वे गोया रब की निशानी का इन्कार कर रहे हैं। ऐसे लोग आखि़रत में निहायत सख्त सज़ा के मुस्तहिक़ क़रार दिए जाएंगे।
(तज़्कीरूल क़ुरआन, पृष्ठ 1306-1307, उर्दू से हिन्दी)
सब इन्सान आपस में बराबर हैं, एक राष्ट्र हैं
परमेश्वर ने अपनी वाणी कुरआन मे सच को झुठलाने वाले नास्तिकों का एक लक्षण यह दिया है कि वे बेहूदा बातें करके बहस में ख़लल डालते हैं ताकि लोगों तवज्जो अस्ल मुद्दे से हट जाए और सच लोगों के सामने न आने पाए और उनकी झूठी परंपराओं के फन्दे से लोग आज़ाद न होने पाएं। उनकी सरदारी बदस्तूर बनी रहे, उनका सम्मान और उनकी बड़ाई बनी रहे। जाति, भाषा, रंग, देश और राष्ट्र, इनमें से हरेक बुनियाद खुद ही बेबुनियाद है, इनमें से कोई भी चीज़ इन्सान को बड़ा या छोटा बनाने के लिए काफ़ी नहीं है। सब इन्सान बराबर हैं। उनमें परमेश्वर की नज़र में वही सबसे ज़्यादा प्यारा है जिसके दिल में मालिक का प्यार है। किसी बन्दे के दिल में मालिक का प्यार सचमुच है या नहीं, इसका पता उसके अमल से ही चल सकता है कि वह उस मालिक के हुक्म को कितना मानता है और उन्हें कितना पूरा करता है ?
यह बात इस पूरी दुनिया में केवल इस्लाम कहता है, कुरआन कहता है।
विरोधियों की ऊर्जा से फ़ायदा ही पहुंचता है
जो लोग दुनिया को ग़ुलाम बनाए हुए हैं और बदस्तूर बनाए रखना चाहते हैं, वे कुरआन के इस आज़ादी के हुक्मानामे को आम नहीं होने देना चाहते। इसके लिए पहले तो वे कुछ सवाल क़ायम करते हैं जिससे लोगों के सामने कुरआन और कुरआन के बारे में भ्रम फैले और लोग इस्लाम और मुसलमानों से नफ़रत करने लगें लेकिन जब कोई आदमी सही बात सामने लाकर उस भ्रम को दूर करके समाज से नफ़रत मिटा देना चाहता है तो उन्हें अपनी सारी मेहनत पर पानी फिरता हुआ दिखाई देता है। तब वे दलील नहीं देते बल्कि गालियां देते हैं, मज़ाक़ उड़ाते हैं ताकि बात किसी निर्णय तक न पहुंचन पाए।
जब से मैंने अपने ब्लॉग ‘वेद कुरआन‘ पर लोगों के सामने सच रखने की कोशिश की है तब से इस तरह के लोग इस ब्लॉग पर भी प्रकट होते रहे। मैंने उनकी तरफ़ कभी तवज्जो नहीं दी बल्कि उनकी ऊर्जा को उनके ही खि़लाफ़ इस्तेमाल किया। उनके विरोध ने मेरे ब्लॉग को वहां पहुंचा दिया जहां मैं केवल प्रशंसकों के सहारे हरगिज़ नहीं पहुंच सकता था। मेरे विरोधियों ने परोक्ष रूप से मेरा सहयोग ही किया है। इसलिए भी मैं उन्हें दुआ ही देता हूं।
समझ बढ़ती है तो लोगों का फ़ैसला भी बदल जाता है
लोग मेरे आदी होते चले गए। कुछ लोग सच बात समझ गए और कुछ लोग थककर हट गए। मैं भी लोगों का आदी हो गया, उनकी आदतों का आदी हो गया। जो उन्हें करना है वे ज़रूर करें लेकिन मैं उनके लिए भलाई की दुआ करता रहूंगा और भली बात उन्हें समझाता रहूंगा।
एक दिन लोग ज़रूर समझेंगे कि मैंने हमेशा उन्हें सच्ची बात ही बताई है और बदले में उनसे कुछ भी नहीं चाहा। उनका प्यार ही मेरे लिए सबसे बड़ा तोहफ़ा है और जो मुझसे नफ़रत करता है दरअस्ल वह भी मुझे अपने दिलो-दिमाग़ में जगह देता है। यह भी प्यार का ही एक रूप है। नफ़रत कभी भी मुहब्बत में बदल सकती है। ऐसा बहुत बार हुआ है, इसीलिए मैं किसी के आज की गालियों को देखकर उससे मायूस नहीं होता।
इतिहास की गवाही
अरब के लोगों ने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. के साथ बदसुलूकी की इंतेहा की लेकिन आखि़रकार वे अपनी नफ़रतों के बोझ से खुद ही घबरा गए। समय लगा लेकिन वे बदले, उनके दिल बदले और ऐसे बदले कि जो कल तक पैग़म्बर साहब स. की जान लेने की ताक में रहते थे वे उनके लिए जान देने के मौक़े ढूंढने लगे और जब समय आया तो वे अपनी जान देने में आगे ही रहे। जो नहीं दे सके वे अफ़सोस करते रहे और रोते रहे कि उनके लिए जान देने का सौभाग्य हमें नहीं मिल पाया।
सत्य आदमी की आत्मा में रचा-बसा है
आदमी दुनिया से लड़ सकता है, सारी दुनिया को झुठला सकता है लेकिन कोई भी आदमी खुद को नहीं झुठला सकता। एक बार आदमी के सामने सच आ जाए तो उसकी आत्मा सत्य को तरंत पहचान लेती है। वह लोक दिखावे के लिए अपने इन्कार पर डटा रहता है लेकिन दरअस्ल नफ़रत की बुनियाद पर खड़ी हुई भ्रम की दीवार उसके मन में गिरना शुरू हो जाती है।
इस बात को एक प्रचारक जानता है और उसे रोकने वाला भी यह सच जानता है लेकिन आम पब्लिक इस प्रक्रिया का आदि, अंत और इसका प्रभाव नहीं जानती। मैंने आज यह लेख इसीलिए लिखा है ताकि हरेक जान ले और विचलित न हो।
सत्य की विजय है
जब कुरआन फैलना शुरू ही हुआ था तब उसके खि़लाफ़ कोई साज़िश कामयाब न हुई तो अब क्या होगी ?
अब तो वह सारी दुनिया में फैल चुका है और लोगों का ज़हन भी पहले से काफ़ी आज़ाद हो चुका है सोचने में और अपनी भलाई का रास्ता चुनने में। इन्सान की भलाई उसके मालिक के हाथ में है, उसके बताए रास्ते पर चलने में है। कुरआन यही बताता है। कुरआन से पहले जो भी ‘ज्ञान‘ मालिक की तरफ़ से आया उसने भी यही बताया है। यही सत्य सनातन है। यही सत्य सुंदर है। यही सत्य कल्याणकारी है। सत्य ही प्रभावी होता है। जीत हमेशा सत्य की ही होती है। यह नियम आदि से ही चला आ रहा है और आज भी क़ायम है।
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