सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Friday, August 27, 2010
About Namaz on road सड़क पर नमाज़ पढ़कर लोगों को तकलीफ़ न दें -Anwer Jamal
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- ‘‘ तुम रास्ते में बैठने से बचो।‘‘
लोगों ने पूछा , ‘‘ऐ अल्लाह के रसूल ! यह तो हमारे लिए ज़रूरी है।‘‘
आपने फ़रमाया, ‘‘ अगर तुम्हारे लिए यह ज़रूरी है तो रास्ते को उसका हक़ दो।‘‘
उन्होंने मालूम किया कि ‘‘रास्ते का क्या हक़ है ?‘‘
आप स. ने फ़रमाया, ‘‘निगाहें नीची रखना, तकलीफ़ देने वाली चीज़ों को रास्ते से हटा देना, सलाम का जवाब देना, नेकी का हुक्म देना और बुराई से मना करना।‘‘ -बुख़ारी, मुस्लिम
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आज एक इलैक्ट्रिक उपकरण सही कराने के लिए रेलवे क्रासिंग पार जाना हुआ तो देखा कि सड़क किनारे बनी हुई एक छोटी सी मस्जिद के बाहर दो लेन वाली सड़कों में से एक को स्टूल वग़ैरह लगाकर ब्लॉक कर दिया है। यह देखते ही मेरे दिल पर एक घुटन सी छा गई। सड़क चलने वालों के लिए बनाई गई है या नमाज़ पढ़ने के लिए ?
क्या सरकारी सड़क पर क़ब्ज़ा करना एक ग़ैर-इस्लामी और हराम काम नहीं है ?
क्या नाजायज़ क़ब्ज़े वाली ज़मीन पर नमाज़ पढ़ना भी नाजायज़ नहीं है ?
आज जुमा का दिन है और रमज़ान का महीना है यानि हराम काम से बचने की प्रैक्टिस का महीना है। आज तो हरेक गुनाह से बहुत ही ज़्यादा बचने की कोशिश करनी चाहिए न कि अपनी इबादत को ही गुनाह से आलूदा कर लिया जाए।
अल्लाह के रसूल स. ने तो आम हालात में लोगों का सड़कों पर बैठना पसंद नहीं फ़रमाया और लोगों को तिजारत वग़ैरह जायज़ ज़रूरतों की वजह से वहां बैठने की इजाज़त दी भी तो कुछ शर्तों के साथ कि वे रास्ता चलने वालों का हक़ न मारें, उनके लिए परेशानी खड़ी न करें बल्कि अगर उन्हें परेशान करने वाली कोई झाड़ी वग़ैरह वहां पड़ी हो तो उसे हटा दें।
आज उल्टा हो रहा है कि सड़क पर जहां कुछ भी पड़ा हुआ नहीं है वहां स्टूल वग़ैरह डालकर उसे ब्लॉक किया जा रहा है। परेशान राहगीर मुसलमानों के साथ-साथ उनकी नमाज़ और उनके दीन को भी कोसेंगे। इबादतख़ाने के बाहर दीन के खि़लाफ़ अमल हो रहा है और कर कौन रहे हैं ?, जिनपर लोगों को दीन का सही शऊर देने की ज़िम्मेदारी है। यानि कि वे खुद दीन के सही शऊर से कोरे हैं।
ऐसे मौक़े पर प्रशासन मात्र इस वजह से ख़ामोश रहता है कि उसके हस्तक्षेप से बात सुधरने के बजाय और ज़्यादा बिगड़ जाएगी। उसकी ख़ामोशी से यह मतलब निकाल लिया जाता है कि प्रशासन के दख़लअंदाज़ी न करने का मतलब यह है कि उनके काम पर प्रशासन को कोई आपत्ति नहीं है।
शहर में बड़ी-बड़ी मस्जिदें हैं, उनमें जाईये। थोड़ा पहले निकलिये, अपने वक्त की कुरबानी दीजिये या फिर अपने माल की कुरबानी दीजिए और संभव हो तो आस-पास की जगह ख़रीदकर अपने पास की मस्जिद को ही अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ बड़ी बना लीजिए।
जो लोग न अपने माल की कुरबानी देना चाहते हैं और न ही अपने वक्त की, उन्हें अपनी सुविधा के लिए शहर के दूसरे तमाम राहगीरों को तकलीफ़ देने और दीन को कलंकित करने का कोई हक़ नहीं है।
2-कोई कह सकता है कि जागरण और कांवड़ जैसे धार्मिक कार्यों के लिए भी तो सड़कें ब्लॉक कर दी जाती हैं ?
इस बारे में यह कहा जाएगा कि नबी स. का फ़रमान आपके सामने हैं और एक मुस्लिम की हैसियत से आप उसे मानने के लिए पाबंद हैं। आप खुद को समाज के लिए नफ़ाबख्श बनाईये, अच्छी मिसाल क़ायम कीजिये, दूसरों तक आपकी अच्छाई का असर पहुंचेगा तो हो सकता है कि वे भी अपने व्यवहार पर विचार करें।
रमज़ान के महीने में विभिन्न दीनी संस्थाएं लोगों को रोज़े के क़ायदे-क़ानून समझाने और उनसे चन्दे की अपील करने के लिए कैलेंडर आदि छापते-बांटते हैं। इन संस्थाओं को रमज़ान के महीने में ‘सड़क पर नमाज़ की अदायगी‘ जैसे सामाजिक मुद्दों पर भी दीनी हुक्म प्रकाशित और प्रचारित करना चाहिये। मस्जिदों के इमाम साहिबान को भी अपने खुत्बों में इस पर लोगों को सही जानकारी देनी चाहिये।
3-इसी मस्जिद से दस क़दम की दूरी पर शहर का एक बेहद महंगा होटल है। वापस लौटते हुए देखा कि होटल के सामने सड़क के डिवाइडर पर रखकर आतिशबाज़ी की जा रही है और उसकी भयानक आवाज़ से मैं लगातार दहलता रहा और सोचता रहा कि अगर किसी वजह से आतिशबाज़ी के यंत्र की दिशा बदल गई तो उसकी चपेट में आकर कोई भी घायल हो सकता है। खुशियों के अवसर पर होने वाली आतिशबाज़ी और फ़ायरिंग से होने वाली मौत की ख़बरें आये दिन अख़बारों में छपती रहती हैं लेकिन लोग फिर भी झूठे दिखावे से बाज़ नहीं आते।
शर्म की बात है कि इसी देश में लोग रोटी और दवाओं जैसी बुनियादी ज़रूरतों को तरस रहे हैं और कुछ लोग दिखावे की ख़ातिर दौलत में आग लगा रहे हैं। यह बेशऊरी आम है पूरे देश में, हर इलाक़े में। खुद आतिशबाज़ के कपड़े उसकी ग़ुरबत का ऐलान कर रहे थे। मासूम बच्चों के सिरों पर रौशनी के हण्डे रखकर बारात निकालने वाले और बारात में शराब पीकर नाचने वाले सिर्फ़ यह दिखा रहे हैं कि उन्हें किसी के दुख से कोई मतलब नहीं है। फिर ऐसे लोगों का समाज अपने नेताओं से यह अपेक्षा क्यों रखता है कि वे उनकी परेशानियों पर समुचित ध्यान दें ?
बेशऊरी आम है हर तरफ़ और रमज़ान का मुक़द्दस महीना चल ही रहा है। मुसलमानों की ज़िम्मेदारी है कि वे रमज़ान का हक़ अदा करें और अपने अन्दर दीन का सही शऊर जगायें। भूखों-प्यासों के दर्द को समझने के लिये रोज़ा बेहतरीन ज़रिया है। खुदा की रहमत पाने के लिए खुद लोगों के साथ रहम का बर्ताव कीजिये। सड़क रोककर नमाज़ न पढ़ना भी लोगों के साथ रहम के बर्ताव में से ही एक अमल है। शुरूआत इसी से कीजिये।
लोगों ने पूछा , ‘‘ऐ अल्लाह के रसूल ! यह तो हमारे लिए ज़रूरी है।‘‘
आपने फ़रमाया, ‘‘ अगर तुम्हारे लिए यह ज़रूरी है तो रास्ते को उसका हक़ दो।‘‘
उन्होंने मालूम किया कि ‘‘रास्ते का क्या हक़ है ?‘‘
आप स. ने फ़रमाया, ‘‘निगाहें नीची रखना, तकलीफ़ देने वाली चीज़ों को रास्ते से हटा देना, सलाम का जवाब देना, नेकी का हुक्म देना और बुराई से मना करना।‘‘ -बुख़ारी, मुस्लिम
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आज एक इलैक्ट्रिक उपकरण सही कराने के लिए रेलवे क्रासिंग पार जाना हुआ तो देखा कि सड़क किनारे बनी हुई एक छोटी सी मस्जिद के बाहर दो लेन वाली सड़कों में से एक को स्टूल वग़ैरह लगाकर ब्लॉक कर दिया है। यह देखते ही मेरे दिल पर एक घुटन सी छा गई। सड़क चलने वालों के लिए बनाई गई है या नमाज़ पढ़ने के लिए ?
क्या सरकारी सड़क पर क़ब्ज़ा करना एक ग़ैर-इस्लामी और हराम काम नहीं है ?
क्या नाजायज़ क़ब्ज़े वाली ज़मीन पर नमाज़ पढ़ना भी नाजायज़ नहीं है ?
आज जुमा का दिन है और रमज़ान का महीना है यानि हराम काम से बचने की प्रैक्टिस का महीना है। आज तो हरेक गुनाह से बहुत ही ज़्यादा बचने की कोशिश करनी चाहिए न कि अपनी इबादत को ही गुनाह से आलूदा कर लिया जाए।
अल्लाह के रसूल स. ने तो आम हालात में लोगों का सड़कों पर बैठना पसंद नहीं फ़रमाया और लोगों को तिजारत वग़ैरह जायज़ ज़रूरतों की वजह से वहां बैठने की इजाज़त दी भी तो कुछ शर्तों के साथ कि वे रास्ता चलने वालों का हक़ न मारें, उनके लिए परेशानी खड़ी न करें बल्कि अगर उन्हें परेशान करने वाली कोई झाड़ी वग़ैरह वहां पड़ी हो तो उसे हटा दें।
आज उल्टा हो रहा है कि सड़क पर जहां कुछ भी पड़ा हुआ नहीं है वहां स्टूल वग़ैरह डालकर उसे ब्लॉक किया जा रहा है। परेशान राहगीर मुसलमानों के साथ-साथ उनकी नमाज़ और उनके दीन को भी कोसेंगे। इबादतख़ाने के बाहर दीन के खि़लाफ़ अमल हो रहा है और कर कौन रहे हैं ?, जिनपर लोगों को दीन का सही शऊर देने की ज़िम्मेदारी है। यानि कि वे खुद दीन के सही शऊर से कोरे हैं।
ऐसे मौक़े पर प्रशासन मात्र इस वजह से ख़ामोश रहता है कि उसके हस्तक्षेप से बात सुधरने के बजाय और ज़्यादा बिगड़ जाएगी। उसकी ख़ामोशी से यह मतलब निकाल लिया जाता है कि प्रशासन के दख़लअंदाज़ी न करने का मतलब यह है कि उनके काम पर प्रशासन को कोई आपत्ति नहीं है।
शहर में बड़ी-बड़ी मस्जिदें हैं, उनमें जाईये। थोड़ा पहले निकलिये, अपने वक्त की कुरबानी दीजिये या फिर अपने माल की कुरबानी दीजिए और संभव हो तो आस-पास की जगह ख़रीदकर अपने पास की मस्जिद को ही अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ बड़ी बना लीजिए।
जो लोग न अपने माल की कुरबानी देना चाहते हैं और न ही अपने वक्त की, उन्हें अपनी सुविधा के लिए शहर के दूसरे तमाम राहगीरों को तकलीफ़ देने और दीन को कलंकित करने का कोई हक़ नहीं है।
2-कोई कह सकता है कि जागरण और कांवड़ जैसे धार्मिक कार्यों के लिए भी तो सड़कें ब्लॉक कर दी जाती हैं ?
इस बारे में यह कहा जाएगा कि नबी स. का फ़रमान आपके सामने हैं और एक मुस्लिम की हैसियत से आप उसे मानने के लिए पाबंद हैं। आप खुद को समाज के लिए नफ़ाबख्श बनाईये, अच्छी मिसाल क़ायम कीजिये, दूसरों तक आपकी अच्छाई का असर पहुंचेगा तो हो सकता है कि वे भी अपने व्यवहार पर विचार करें।
रमज़ान के महीने में विभिन्न दीनी संस्थाएं लोगों को रोज़े के क़ायदे-क़ानून समझाने और उनसे चन्दे की अपील करने के लिए कैलेंडर आदि छापते-बांटते हैं। इन संस्थाओं को रमज़ान के महीने में ‘सड़क पर नमाज़ की अदायगी‘ जैसे सामाजिक मुद्दों पर भी दीनी हुक्म प्रकाशित और प्रचारित करना चाहिये। मस्जिदों के इमाम साहिबान को भी अपने खुत्बों में इस पर लोगों को सही जानकारी देनी चाहिये।
3-इसी मस्जिद से दस क़दम की दूरी पर शहर का एक बेहद महंगा होटल है। वापस लौटते हुए देखा कि होटल के सामने सड़क के डिवाइडर पर रखकर आतिशबाज़ी की जा रही है और उसकी भयानक आवाज़ से मैं लगातार दहलता रहा और सोचता रहा कि अगर किसी वजह से आतिशबाज़ी के यंत्र की दिशा बदल गई तो उसकी चपेट में आकर कोई भी घायल हो सकता है। खुशियों के अवसर पर होने वाली आतिशबाज़ी और फ़ायरिंग से होने वाली मौत की ख़बरें आये दिन अख़बारों में छपती रहती हैं लेकिन लोग फिर भी झूठे दिखावे से बाज़ नहीं आते।
शर्म की बात है कि इसी देश में लोग रोटी और दवाओं जैसी बुनियादी ज़रूरतों को तरस रहे हैं और कुछ लोग दिखावे की ख़ातिर दौलत में आग लगा रहे हैं। यह बेशऊरी आम है पूरे देश में, हर इलाक़े में। खुद आतिशबाज़ के कपड़े उसकी ग़ुरबत का ऐलान कर रहे थे। मासूम बच्चों के सिरों पर रौशनी के हण्डे रखकर बारात निकालने वाले और बारात में शराब पीकर नाचने वाले सिर्फ़ यह दिखा रहे हैं कि उन्हें किसी के दुख से कोई मतलब नहीं है। फिर ऐसे लोगों का समाज अपने नेताओं से यह अपेक्षा क्यों रखता है कि वे उनकी परेशानियों पर समुचित ध्यान दें ?
बेशऊरी आम है हर तरफ़ और रमज़ान का मुक़द्दस महीना चल ही रहा है। मुसलमानों की ज़िम्मेदारी है कि वे रमज़ान का हक़ अदा करें और अपने अन्दर दीन का सही शऊर जगायें। भूखों-प्यासों के दर्द को समझने के लिये रोज़ा बेहतरीन ज़रिया है। खुदा की रहमत पाने के लिए खुद लोगों के साथ रहम का बर्ताव कीजिये। सड़क रोककर नमाज़ न पढ़ना भी लोगों के साथ रहम के बर्ताव में से ही एक अमल है। शुरूआत इसी से कीजिये।
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30 comments:
Ek Acchi Koshish hai mubarak ho. kisi ne to aawaj uthaya.
Acchi post
सड़क रोककर नमाज़ न पढ़ना भी लोगों के साथ रहम के बर्ताव में से ही एक अमल है। शुरूआत इसी से कीजिये।
nice post
सड़क रोककर नमाज़ न पढ़ना भी लोगों के साथ रहम के बर्ताव में से ही एक अमल है। शुरूआत इसी से कीजिये।
अच्छी सलाह ! यदि कोई अमल करे !
हम भी हर शुक्रवार को ओखला में नमाज के दौरान सड़क जाम किये जाने का दंश झेलते है |
दिल की बात लिखी आपने . मेरे शहर मे भी सडक पर नमाज़ होती है और कई मस्जिदे खाली पडी रहती है .
मिसाल क़ायम कीजिये, दूसरों तक आपकी अच्छाई का असर पहुंचेगा तो हो सकता है कि वे भी अपने व्यवहार पर विचार करें।
बहुत अच्छी और सच्ची पोस्ट ,इससे लोगों में कुछ ना कुछ जागरूकता तो आएगी ही,मैं आपसे सहमत हूँ
महक
an action is greater than words
learn correct way of Salaat (Salaah)
A Description of Prophet's (SAW) Prayer
http://www.qibla.org/pray.htm
Masha Allah, Bahut achi post hai.
बेहतर !! सुन्दर रचना ! inspiring really!!!
समय हों तो ज़रूर पढ़ें:
पैसे से खलनायकी सफ़र कबाड़ का http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_26.html
शहरोज़
बिलकुल सही कहा, सड़क पर चलने वालो का हक है, और किसी का हक मार कर कोई इबादत नहीं हो सकती है. जुलूस निकलना, लौदिस्पिकर का इस्तेमाल करना, सड़क पर नमाज़ इत्यादि पूजा-पाठ करना लोगों का हक मारना है.
क़यामत के रोज़ अल्लाह ता`आला अपने हक तो माफ़ कर सकता है, लेकिन लोगो के हक के बदले अपने अच्छे कार्य दुसरे की झोली में चलें जाएँगे.
ऐसी ही पोस्टों की ज़रुरत है!मैं अपने पड़ोस की मस्जिद से परेशान हूँ जहां अज़ान के साथ साथ नमाज़ भी माइक से होती है और वह भी फुल वोल्यूम में.
अच्छी पोस्ट
आपका यह आर्टिकल अच्छा है, यु ही लिखते रहिये
आप ने भी क्या खूब कहा है. बड़ी मस्जिद में जाकर नमाज़ पढने का मशवरा देकर समझ लिया की मसला हल हो गया लेकिन आप यह भूल गए की बड़ी मस्जिद की कैपेसिटी के मुताबिक ही लोग आयेंगे आप पहले पहुंचेंगे तो दूसरे बाद में आने वाले लोग रह जायेंगे लिहाज़ा कुछ ऐसे लोग ज़रूर बाकी रहेंगे जिनको अंदर जगह नहीं मिलेगी और उनको बाहर नमाज़ पढनी पड़ेगी. हमने अक्सर यह देखा है कि मस्जिद के बाहर नमाज़ पढने कि स्थिति में गैर मुस्लिम भाई पूरा सहयोग करते हैं और किसी को कोई शिकायत नहीं होती. इसी तरह से भगवती जागरण तो अक्सर पूरी सड़क बंद करके होता है और पूरी रात चलता है परन्तु मुस्लिम भाई कभी इसकी शिकायत नहीं करते. इस प्रकार के आयोजनों से परस्पर प्रेम पैदा होता है न कि नफरत.
सही हे डॉ. साहब अच्छी पोस्ट ,धन्यवाद
हमारे नगर में हिन्दुओं के मोहल्ले में स्थित मस्जिद में जुमे की नमाज़ में अक्सर बाहर नमाज़ पढ़ लेते हैं किसी को कोई ऐतराज़ नहीं होता. रमजान के महीने में रात को तरावीह पढने के समय में बिजली न होने पर अक्सर परेशानी होती थी तो वहां एक हिदू भाई ने अपने घर के जेनेराटर की सुविधा मस्जिद को उपलब्ध करा दी. हमारे पड़ोस में कुछ त्योहारों पर आधी सड़क घेर कर भंडारा लगाया जाता है जिसका किसी ने ऐतराज़ नहीं किया बल्कि उनको मुस्लिम भाइयों का पूरा सेयोग मिलता है. सामने चूंकि मस्जिद है इसलिए पूरी आवाज़ से होने वाली रेकोर्डिंग नमाज़ के वक़्त बंद कर दी जाती है. जब मैरिज होमों कस चलन नहीं था तब आधी सड़क घेर कर शामयाना लगा दिया जाता था और उसी में विवाह की पूरी रस्में और भोज आदि का आयोजन होता था लेकिन किसी को ऐतराज़ नहीं होता था. फ़िज़ूल की वाहवाही लूटने की खातिर आप ऐसे शागुफे न छोडें और हदीस का सहारा लेकर लोगों को न बहकाएं.
शरीफ साहब माफ कीजियेगा आपकी बात से इत्तेफाक नहीं रखता हूँ अगर आपके मोहल्ले में लोग मिल जुल कर रहते है तो इसका ये मतलब नहीं की दुनिया भर सभी लोग ऐसे है जैसे आपके मोहल्ले के और सभी ऐसा ही व्यवहार करेंगे जैसे आपके मोहल्ले वाले,
इस्लाम की तालीम है की अपनी हद में रहो तो सुकून शांति बनी रहती है,
हर जगह जुदा जुदा मिजाज वाले लोग है किसी को कुछ कहने सुनने या करने का मौका ही क्यों दे की कोई वबाल, बखेडा खडा हो,
रमजान में और रमजान के जुमे में सड़क रोक वो लोग नमाज पड़ने आते है जो साल भर मस्जिद की तरफ रुख भी नहीं करते, अगर साल भर ऐसे लोग नमाज पड़ने आये तो क्या कोई रोज रोज रास्ता रोकने देगा ?
फिर क्या हल निकला जाएगा ?
उस वक्त लोग इस मसले को सुलझाने के लिए कुछ माल खर्च करके मस्जिद को बड़ी करेंगे, दुसरी जगह जमीन खरीद कर एक नयी मस्जिद बनाएंगे,
यहाँ बात अनवार साहब ने यही कही की साल भर जो दीन ईमान की किसी बात पर अमल नहीं करते नमाज जैसे फ़र्ज़ को तो छोड़े रहते है वो रमजान में आ कर हर जगह कब्ज़ा जमा कर बैठ जाते है !
लोग तो कैलकुलेटर लेके बैठ जाते है रमजान में 1 का 70 मिलेगा तो दिन भर की पांच नमाज पड़ी तो 350 नमाज का सवाब मिल गया और 30 दिन पुरे महीने पड़ी तो 10500 का सवाब मिल गया !
जबकि साल भर में पांच वक्त की पड़ता तो भी 1800 का ही सवाब मिलता यानी अब वो ये समझ लेते है उसे नमाज पड़ने की जरुरत नहीं साल भर ? बल्कि 5-6 साल ही जरुरत नहीं ?
ये क्या दीन इस्लाम की तालीम है की सिर्फ एक महीने रमजान का या हफ्ते का एक दिन जुमा का या साल के दो दिन ईद के नमाज कर अपने आपको सच्चा और सबसे अच्चा मुलमान घोषित कर दो !
कहने का मतलब यही है लोग अपने दीन के लिए यूँ बेखबर है की न तो और दिन फ़र्ज़ अदा करते है न ही दूसरे हुक्मो को अदा करते है,
जो अपने दीन के लिए रोज नमाज की पड़ने की तकलीफ नहीं उठाना चाहते, जो लोग अल्लाह और रसूल के हुक्मो को नजरअंदाज करके दुनिया के सारे भले बुरे काम करते है, जो लोग अल्लाह का हुक्म रसूलल्लाह की पैरवी करने के लिए अपनी खाविशो के की कुर्बानी नहीं दे सकते, तो उन्हें क्या ये हक हासिल हो जाता है की वो इस तरह दीन इस्लाम के नाम पर या नमाज के नाम पर रास्ता रोक कर लोगो परेशान करे और ये जाताये को हम नमाज पड़ रहे इसलिए हमारी खातिर आप तकलीफ उठाये ?
उलेमा इस बात पर एकमत है की कोई भी अमल कुबूल होने के लिए दो शर्ते है
1. वो अमल सिर्फ अल्लाह के लिए किया जाए
2. अमल में तरीका रासुल्लुल्लाह का हो
मुस्लिमो के लिए ये तोहफा है उम्मीद है कुबूल करेंगे, मुझे यकीन है की आप अबतक नमाज किसी इमाम के तरीके पर ही अदा करते आये है, तो अब आप अपनी नमाज को रासुल्लुल्लाह के तरीके पर अदा करे उसके लिए इस किताब को पड़े, उम्मीद है आप अपने इमाम की बात को रासुल्लुलाह की बात के ऊपर नहीं रखेंगे और न ही इमाम के तरीके को रासुल्लुलाह के तरीके के ऊपर रखेंगे और अपनी और दसरो की इस्लाह करेंगे !
A Description of Prophet's (SAW) Prayer
http://www.qibla.org/pray.htm
जजाकल्लाह
शरीफ़ साहब आपकी "वेदकुरान" के लेख (Abut Namaz on Road ) पर दी गयी टिपण्णी से असहमत होकर लिख रहा हूँ,
"हज़रत इब्ने उमर ( रज़ि० ) फ़रमाते हैं कि अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) ने 7 जगहों पर नमाज़ पढ़ने से मना फ़रमाया है।
(1) नापाक जगह ( कूड़ा गाह )
(2) कमेला ( जानवरों को ज़िबह करने कि जगह )
(3) क़ब्रिस्तान
(4) सड़क और आम रास्तों में
(5) गुसल खाना
(6) ऊंट के बाड़े में
(7 ) बैतुल्लाह कि छत पर " ( तिर्मज़ी)
इस हदीस में नमाज़ का ज़िक्र किया गया है ( जुमे की नमाज़ का भी)
एक और हदीस है कि फैसले के दिन मोमिन के तराज़ू में जो अमल रखे जाएँगे, तो उनमें सबसे वज़नी अमल ( अखलाकी अमल ) होगा।
सड़क या आम रास्ता रोक कर किसी भी तरह की इबादत करना कैसे अखलाकी अमल हो सकता है?
हमारे देश में सड़कों तक दुकान लगाना, सड़क पर ठेला लगाना आदि-आदि को अतिक्रमण कहा जाता है और उनके ख़िलाफ़ अभियान चलाया जाता है, हालंकि वे लोग भी अपनी रोज़ी रोटी कमाने की खातिर करते हैं कोई गुनाह नहीं करते फिर भी उनके इस कार्य से आम आदमी के मानवाधिकार का हनन होता है, और मानवाधिकार की बुनियाद इस्लाम है,
इससे यह साबित होता है की सड़क रोक कर नमाज़ पढ़ना चाहे एक बार हो या अनेक बार अखलाक़ी अमल नहीं हो सकता।
और इस्लाम का प्रचार करना कोई वाहवही लूटना नहीं होता।
हमारे लिए कुरआन और हदीस की दलील हुज्जत है, किसी आदमी का निजी विचार या अमल नहीं।
अपने विचार के हक में कुरआन और हदीस से दलील देना आपकी दिनी ज़िम्मेदारी है।
यहाँ मेरा मक़सद आपके दिल को किसी तरह की ठेस पहुँचाना नहीं है। आप मेरे बुज़ुर्ग हैं आपका एहतराम करना मेरा फ़र्ज़ है ।
शरीफ साहब अगर किसी काम में हिंदु सहयोग कर रहे और यह अच्छी बात है लेकिन फिर भी किसी गलत परंपरा को सिर्फ इसी लिए जारी रखना गलत होगा
मस्जिद को बड़ा करना इस समस्या से निपटने का उपाय है जो अनवर साहब ने लिखा भी है आपने उस पर अपना कोई विचार नही रखा
ऐ हमारे रब ! हमें इन्कारियों के लिए फ़ित्ना न बना और ऐ हमारे रब, हमें बख् दे, बेशक तू ज़बर्दस्त है, हिकमत वाला है। पवित्र कुरआन, 60, 5
दीन रहमत है, दीन ख़ैरख्वाही है, दीन अद्ल है, दीन फ़ज़्ल है, दीन हक़ है और ज़ुल्म बातिल है। दीन रहमत है न सिर्फ़ मुसलमानों के लिए बल्कि सबके लिए, सारे जहां के लिए। अगर कोई अमल दुनिया के ज़हमत बन रहा है, लोगों की हक़तल्फ़ी हो रही है, जुल्म हो रहा है तो यक़ीन कर लीजिये कि यह ‘कुछ और‘ है दीन हरगिज़ नहीं है।
ज़ुल्म इंसाफ़ का विलोम है। आम तौर पर लोग मारपीट और क़त्ल वग़ैरह को ही जुल्म मानते हैं लेकिन ‘ज़ुल्म‘ की परिभाषा है ‘चीज़ का ग़ैर महल‘ में इस्तेमाल करना यानि किसी चीज़ का वह इस्तेमाल करना जो उस चीज़ का सही इस्तेमाल न हो। मस्लन मस्जिद नमाज़ के लिए बनाई जाती है और लोग उसमें इबादत और एतकाफ़ न करें तो यह मस्जिद पर जुल्म है। इसी तरह सड़क इसलिए बनाई जाती है ताकि लोग उसपर चलकर अपनी ज़रूरतें पूरी करें। सड़क की स्वाभाविक प्रकृति उसपर चलना है। अगर कुछ लोग सड़क पर चलने के फ़ितरी अमल में ख़लल डालते हैं तो वे सड़क पर चलने वालों पर ही नहीं बल्कि खुद सड़क पर भी जुल्म करते हैं।
बारात,जुलूस और प्रदर्शनों की वजह से आये दिन लोग यह जुल्म सरे आम करते हैं। अक्सर इसे टाल दिया जाता है क्योंकि यह जुल्म करने वाले हक़ अदा करने का मिज़ाज ही कब रखते हैं, लेकिन हद तो तब हो जाती है कि जब यह जुल्म वह तबक़ा करता है जिसे रब ने ‘हक़ व इंसाफ़‘ का गवाह बनने के लिए ही उठाया हो, और फिर यह रास्ता रोकना भी इबादत करने के लिए हो तो जुर्म और भी ज़्यादा संगीन हो जाता है।
नमाज़ में दुआ मांगी जा रही है ‘दिखा और चला हमें सीधा रास्ता‘ और हालत यह है कि उनकी दुआ की ख़ातिर दूसरे बहुत से लोग रास्ता चलने से महरूम खड़े हैं या फिर दुश्वारी से गुज़र रहे हैं। यह सड़क पर भी जुल्म है और सड़क पर चलने वालों पर भी।
सड़क पर नमाज़ पढ़ने की नौबत क्यों आती है ?
इसलिए कि मस्जिद छोटी पड़ जाती है और लोग ज़्यादा आ जाते हैं। इसका सीधा सा समाधान यह है कि मस्जिद को तिमंज़िली बना लीजिये और जब तक तामीर का काम पूरा हो तब तक नमाज़ दो या तीन शिफ़्टों में पढ़ लीजिये। इस तरह नमाज़ मस्जिद के अंदर ही अदा हो जायेगी और इबादत करने वाले जुल्म करने और लोगों के लिए फ़ित्ना बनने से बच जाएंगे।
हिन्दू भाईयों से हमेशा नमाज़ की अदायगी में सहयोग मिलता आया है, यह सच है और इसके लिए मुस्लिम समुदाय हिन्दू भाईयों का शुक्रगुज़ार है और खुद भी उनके आयोजनों में बाधा नहीं डालता लेकिन याद रहे कि लोगों को भड़काकर राजनीति करने वाले इंसान के रूप में शैतान भी हमारे दरम्यान ही रहते-बसते हैं। मुसलमानों को कोई भी मौक़ा शैतान को नहीं देना चाहिये जिसकी वजह से शैतान लीडर हिन्दू भाइयों और मुसलमान भाईयों को एक दूसरे के खि़लाफ़ खड़ा करने में कामयाब हो सके।
इसके अलावा एक बात यह कॉमन सेंस की है कि हम इस देश के नागरिक हैं और हम सभी को अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास होना चाहिए। आदमी अपने घर से किसी ज़रूरत के तहत ही निकलता है। कहीं आग लग रही होती है और फ़ायर ब्रिगेड को समय पर पहुंचना होता है और बैंक लुट रही होती है, औरतों की इज़्ज़तों पर डाका पड़ रहा होता है और पुलिस उस तरफ़ भागी चली जा रही होती है। किसी मरीज़ को सीरियस कंडीशन में अस्पताल ले जाया जा रहा होता है या फिर छोटे बच्चे स्कूल से अपने घर लौट रहे होते हैं। इसके अलावा भी बहुत सी इमरजेंसी होती हैं जिनके सही समय पर पूरा न होने की वजह से बहुत से लोग अपनी जान और आबरू हमेशा के लिए गंवा बैठते हैं।
दीन रहमत है और मुसलमानों को चाहिए कि वे दुनिया में रहमत फैलाने वाले बनें न कि सोये हुए फ़ित्नों को जगाने की कोशिश करें। सड़क पर नमाज़ अदा करना सड़क पर और राहगीरों पर जुल्म है, अपनी नमाज़ को गुनाह से आलूदा करना है। खुदा पाक है और पाक अमल ही उसकी बारगाह तक पहुंचता है जो आदमी इतनी सी बात भी न पहचान सके, वह बेशऊर है। ये बेशऊर लोग जो रमज़ान में मस्जिदें भर देते हैं वे रमज़ान ख़त्म होते ही नदारद हो जाते हैं।
क्या नमाज़ रमज़ान के बाद फ़र्ज़ नहीं रहती ?
हक़ीक़त यह है कि उन्हें नमाज़, दीन और उसके तक़ाज़ों का सही शऊर ही नहीं था। अगर उन्हें वाक़ई मारिफ़त और शऊर होता तो वे बाद में भी नमाज़ के पाबन्द रहते। ये लोग नमाज़ पर भी जुल्म करते हैं। दीनी संस्थाओं से वाबस्ता लोगों को चाहिए वे लोगों में दीन का सही शऊर पैदा करें और मुस्लिम समाज को सही दिशा देकर देश और दुनिया को बेहतर संदेश दें।
शरीफ साहब अगर मस्जिद में जगह कम है तो नमाज़ दो-तीन या इससे भी ज्यादह बार हो सकती है, लेकिन किसी भी तरह से लोगो का रास्ता रोक कर या लोगों को तकलीफ पहुंचा कर दिखावा तो कर सकता है लेकिन इबादत नहीं.
Dr. Anwar JAmal sahab , aap apne mission me kaamyaab hue bahut mubark ho. mash allah 90 % se zyada log aapke es baseless issue par kaafi dhyan de rahe hain. again congrates.kiya wakai es baat ki zarurat thi ki jahan hamare pass aur dusre masael issues bankar khade huee hain, wahan aapke pass time pass karne ke liye isse achcha koi masla ya mudda nahi hai? aapne bina zarurat es mamle ko touch karke jo logoon ka waqt liya hai jiska koi hal nikal hi nahi sakta, ye samanye taur par apne ilm ki aad me logon ke sath mazak hai. apne khayalat ko apne tareeqe se analyze kar kisi hadeeth shareef ko galat interpret na karen. public support ke liye esse bhi achche tareeqe ho sakte hain. kindly adopt them. jazakallah.
जमाल साहब आपके शुभ चिंतन का समर्थन करता हूं
शरीफ़ साहब के उस दृष्टिकोण की भर्त्सना करता हूं, जिसमें हिंदुओ द्वारा दिये जाते सहयोग को तो अधिकार माना जा रहा है,और सभी के लिये सुविधाजनक बने रहने के भाव को 'भडकाना'माना जा रहा है।
एक बार पुनः जमाल साहब के अच्छे भाव का आदर।
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