सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Monday, August 16, 2010
The role of Deobandi ulema as freedom fighters रेशमी रूमाल की तहरीक भी दारूल उलूम की ही देन है। - Anwer Jamal
दुनिया का महान इस्लामी विश्व विद्यालय दारूल उलूम देवबंद ब्रिटिश शासन काल में क़ायम की गयी भारत की पहली मुफ़्त शिक्षा देने वाली संस्था है। दारूल उलूम एक विश्वविद्यालय ही नहीं है, बल्कि एक विचारधारा है जो देश और दुनिया में अंधविश्वास और कुरीतियों से लड़ते हुए इस्लाम को अपने मूल रूप में प्रसारित करता है। दारूल उलूम देवबंद की आधारशिला आज से क़रीब 143 साल पहले 30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन रह0 व मौलाना क़ासिम नानौतवी रह0 ने रखी थी। वह दौर भारत के इतिहास में राजनैतिक तनाव का था।
1857 में अंग्रेज़ों के विरूद्ध लड़े गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बादल ख़त्म न हुए थे, और उस वक्त अंग्रेज़ों का भारतीयों के साथ दमनचक्र तेज़ हो गया था। अंगे्रज़ों ने अपनी पूरी ताक़त से 1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन को कुचल कर रख दिया था। देवबंद जैसी छोटी जगह में भी 44 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था। ऐसे सुलगते माहौल में देशप्रेम और आज़ादी की चाहत ने दारूल उलूम को जन्म दिया।
भारत हमेशा एक आदर्श विचार देने के लिए मशहूर रहा है। दारूल उलूम भी इसी भारतवर्ष के हिन्दी भाषी उत्तर प्रदेश के नगर देवबंद में स्थित है। दारूल उलूम की आधार-शिला के वक्त संपूर्ण भारतवर्ष में खलबली मची हुई थी। ऐसे वक्त में भारतीय समाज को एक करने की ज़रूरत थी।
बिखरते भारतीय समाज को एकजुट करने में दारूल उलूम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। भारत की टूटती संस्कृति, शिक्षा और बिखरते समाज की सुरक्षा करते हुए दारूल उलूम ने लोगों के भीतर आज़ादी का एहसास जगाया। उस वक्त देश के उलमा ने खंडित भारतीय समाज को ज़ालिम ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ जगाने में अपनी जान की बाज़ी लगा दी।
भारत को अंग्रेजों के अत्याचार से निजात दिलाना पश्चिम की नक्ल से रोकना और अंग्रेजों की भारत के खि़लाफ नीतियों को नाकाम करना उस वक्त दारूल उलूम का एक अहम मक़सद था। दारूल उलूम के बानी मौलाना क़ासिम नानौतवी का बलिदान सुनहरे अक्षरों से लिखे जाने के क़ाबिल है। उन्होंने आज़ादी के मतवालों के दिलों में एक नयी रूह फूंक कर एक ऐसी ख़ूँरेज़ जंग का आग़ाज किया था, जिसका एतराफ़ अंग्रेज़ी शासन ने भी किया।
मौलाना क़ासिम नानौतवी की उम्र अभी 50 साल भी नहीं हुई थी कि जंगे-आज़ादी के मुख्तलिफ़ महाज़ों पर अपनी बेमिसाल सरफ़रोशी और कुर्बानियों की बुनियाद क़ायम करते हुए दुनिया से हमेशा-हमेशा के लिए रूख़सत हो गये। हज़रत नानौतवी की ज़िदगी में ही दारूल उलूम राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक सुधार के कई कामों को अंजाम दे चुका था।
मौलाना क़ासिम नानौतवी के बाद उनके शागिर्द, शेखुल हिन्द’ मौलाना महमूद हसन ने जंगे आज़ादी की कमान संभाली। उन्होंने दारूल उलूम से पढे़ सभी लोगों को जोड़ कर जमीअतुल अंसार नाम का एक संगठन बनाया जिसमें देशी और विदेशी तमाम तालीमयाफ़्ता शामिल थे। जिस वक्त शेखुल हिन्द ने मुकम्मल आज़ादी का नारा दिया, उस वक्त तक कोई भी राष्ट्रीय जमाअत या तहरीक वजूद में नहीं थी।
हज़रत मौलाना असद मदनी की एक तहरीर के मुताबिक़ आज़ादी की तीसरी जंग शेखुल हिन्द की क़यादत में लड़ी गयी। जंगे आज़ादी का एक मुश्तरका प्लेटफार्म बनाने के लिए दारूल उलूम के सद्र शेखुल हिन्द ने महात्मा गांधी को लीडर बनाया। उन्होंने जमीअतुल अंसार का मुख्यालय दिल्ली में बनाया जहां उन्हें महात्मा गांधी जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, लाल लाजपत राय, मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी जैसे देश के आला नेताओं का सहयोग बख़ूबी मिला।
इतिहास में रेशमी रूमाल की तहरीक भी दारूल उलूम की ही देन है। यह उस वक्त की बात है जब मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी ने काबुल में अमीर हबीबुल्लाह से तुर्की में हमले की इजाज़त हासिल कर ली और मुआहिदा तय हो गया था। उन्होंने इसकी इत्तिला शेखुल हिन्द को देने के लिए रेशम के एक रूमाल पर संदेश को बुना लेकिन इत्तिफाक़ से यह रूमाल रास्तें में ही अंग्रेजों के हाथ लग गया और तमाम मंसूबों का राज़ फ़ाश हो गया। और इसकी सज़ा आज़ादी के दीवानों को चुकानी पड़ी। और अंजाम यह हुआ कि मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी और अमीर हबीबुल्लाह को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया।
इसी तरह शेखुल हिन्द को मक्का में एक फ़त्वे पर दस्तख़त नहीं करने के बहाने गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर बाद में माल्टा की जेल में कै़द कर दिया गया और 30 नवम्बर 1920 को शैखुल हिन्द का इन्तिक़ाल हो गया। इसके बाद भी दारूल उलूम के उस्तादों में आज़ादी का जज़्बा कम नहीं हुआ। 1920 और 1942 की लड़ाई में दारूल उलूम के नौजवानों ने बखूबी हिस्सा लिया और और आखि़रकार 1947 में पूरे देश में आज़ादी की शमा रौशन हुई। एम0 अबसारूल हसन
1857 में अंग्रेज़ों के विरूद्ध लड़े गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बादल ख़त्म न हुए थे, और उस वक्त अंग्रेज़ों का भारतीयों के साथ दमनचक्र तेज़ हो गया था। अंगे्रज़ों ने अपनी पूरी ताक़त से 1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन को कुचल कर रख दिया था। देवबंद जैसी छोटी जगह में भी 44 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था। ऐसे सुलगते माहौल में देशप्रेम और आज़ादी की चाहत ने दारूल उलूम को जन्म दिया।
भारत हमेशा एक आदर्श विचार देने के लिए मशहूर रहा है। दारूल उलूम भी इसी भारतवर्ष के हिन्दी भाषी उत्तर प्रदेश के नगर देवबंद में स्थित है। दारूल उलूम की आधार-शिला के वक्त संपूर्ण भारतवर्ष में खलबली मची हुई थी। ऐसे वक्त में भारतीय समाज को एक करने की ज़रूरत थी।
बिखरते भारतीय समाज को एकजुट करने में दारूल उलूम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। भारत की टूटती संस्कृति, शिक्षा और बिखरते समाज की सुरक्षा करते हुए दारूल उलूम ने लोगों के भीतर आज़ादी का एहसास जगाया। उस वक्त देश के उलमा ने खंडित भारतीय समाज को ज़ालिम ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ जगाने में अपनी जान की बाज़ी लगा दी।
भारत को अंग्रेजों के अत्याचार से निजात दिलाना पश्चिम की नक्ल से रोकना और अंग्रेजों की भारत के खि़लाफ नीतियों को नाकाम करना उस वक्त दारूल उलूम का एक अहम मक़सद था। दारूल उलूम के बानी मौलाना क़ासिम नानौतवी का बलिदान सुनहरे अक्षरों से लिखे जाने के क़ाबिल है। उन्होंने आज़ादी के मतवालों के दिलों में एक नयी रूह फूंक कर एक ऐसी ख़ूँरेज़ जंग का आग़ाज किया था, जिसका एतराफ़ अंग्रेज़ी शासन ने भी किया।
मौलाना क़ासिम नानौतवी की उम्र अभी 50 साल भी नहीं हुई थी कि जंगे-आज़ादी के मुख्तलिफ़ महाज़ों पर अपनी बेमिसाल सरफ़रोशी और कुर्बानियों की बुनियाद क़ायम करते हुए दुनिया से हमेशा-हमेशा के लिए रूख़सत हो गये। हज़रत नानौतवी की ज़िदगी में ही दारूल उलूम राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक सुधार के कई कामों को अंजाम दे चुका था।
मौलाना क़ासिम नानौतवी के बाद उनके शागिर्द, शेखुल हिन्द’ मौलाना महमूद हसन ने जंगे आज़ादी की कमान संभाली। उन्होंने दारूल उलूम से पढे़ सभी लोगों को जोड़ कर जमीअतुल अंसार नाम का एक संगठन बनाया जिसमें देशी और विदेशी तमाम तालीमयाफ़्ता शामिल थे। जिस वक्त शेखुल हिन्द ने मुकम्मल आज़ादी का नारा दिया, उस वक्त तक कोई भी राष्ट्रीय जमाअत या तहरीक वजूद में नहीं थी।
हज़रत मौलाना असद मदनी की एक तहरीर के मुताबिक़ आज़ादी की तीसरी जंग शेखुल हिन्द की क़यादत में लड़ी गयी। जंगे आज़ादी का एक मुश्तरका प्लेटफार्म बनाने के लिए दारूल उलूम के सद्र शेखुल हिन्द ने महात्मा गांधी को लीडर बनाया। उन्होंने जमीअतुल अंसार का मुख्यालय दिल्ली में बनाया जहां उन्हें महात्मा गांधी जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, लाल लाजपत राय, मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी जैसे देश के आला नेताओं का सहयोग बख़ूबी मिला।
इतिहास में रेशमी रूमाल की तहरीक भी दारूल उलूम की ही देन है। यह उस वक्त की बात है जब मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी ने काबुल में अमीर हबीबुल्लाह से तुर्की में हमले की इजाज़त हासिल कर ली और मुआहिदा तय हो गया था। उन्होंने इसकी इत्तिला शेखुल हिन्द को देने के लिए रेशम के एक रूमाल पर संदेश को बुना लेकिन इत्तिफाक़ से यह रूमाल रास्तें में ही अंग्रेजों के हाथ लग गया और तमाम मंसूबों का राज़ फ़ाश हो गया। और इसकी सज़ा आज़ादी के दीवानों को चुकानी पड़ी। और अंजाम यह हुआ कि मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी और अमीर हबीबुल्लाह को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया।
इसी तरह शेखुल हिन्द को मक्का में एक फ़त्वे पर दस्तख़त नहीं करने के बहाने गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर बाद में माल्टा की जेल में कै़द कर दिया गया और 30 नवम्बर 1920 को शैखुल हिन्द का इन्तिक़ाल हो गया। इसके बाद भी दारूल उलूम के उस्तादों में आज़ादी का जज़्बा कम नहीं हुआ। 1920 और 1942 की लड़ाई में दारूल उलूम के नौजवानों ने बखूबी हिस्सा लिया और और आखि़रकार 1947 में पूरे देश में आज़ादी की शमा रौशन हुई। एम0 अबसारूल हसन
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15 comments:
दारूल उलूम देवबंद वाकई दुनिया का महान इस्लामी विश्व विद्यालय है. हमारे वतन की आजादी में इसका योगदान महत्वपूर्ण है.
दारूल उलूम देवबंद वाकई दुनिया का महान इस्लामी विश्व विद्यालय है. हमारे वतन की आजादी में इसका योगदान महत्वपूर्ण है.
आपने सही फ़रमाया भाईजान!
मेरा ब्लॉग
खूबसूरत, लेकिन पराई युवती को निहारने से बचें
http://iamsheheryar.blogspot.com/2010/08/blog-post_16.html
एक बेहतरीन पोस्ट !
शुक्रिया !
Darul Ulum hi nahi balki Hindustan Ka har musalman Azadi ki ladai main aage raha hai. Aur Desh bhakti ke mudde par Hindu aur Musalman dono aage bhi ek sath rahenge.
dono Main duriyan sirf Dharm ne paida ki hai.
दारुल उलूम का आपने बिल्कुल सही परिचय दिया है
दारूल उलूम एक विश्वविद्यालय ही नहीं है, बल्कि एक विचारधारा है जो देश और दुनिया में अंधविश्वास और कुरीतियों से लड़ते हुए इस्लाम को अपने मूल रूप में प्रसारित करता है ?
kabhi deoband ka aqeedah bhi padaa hai ? ya sirf aur kisse kahaani ki kitaabo ki tarah koi history book pad lee deoband ki,
kufr aur shirk ka aqeedah hai deoband ka.
kufr aur shirk karne vaale ashraf ali thanvi, maulana zakariya ko hakeem tul ummat kehte hai.
aise aise hakeem honge ummat ke to bimaari to la ilaaj hi hogi is ummat ki.
fir inlogo ne partition ka virodh kyo nahi kia.. ???????
fir inlogo ne partition ka virodh kyo nahi kia.. ???????
@ बेनामी ! देवबंद के आलिमों ने पार्टीशन का विरोध किया , इतिहास में दर्ज है .
@ तारकेश्वर जी ! दूरियां 'धर्म' ने नहीं लालच की राजनीति ने पैदा की हैं . धर्म तो शांति का मूल है . इस्लाम का धात्वर्थ ही शान्ति है .
आप बहुत अच्छा कर रहे हैं.तारीखी चीज़ें सामने आनी ही चाहिए.
मुसलमानों की जान्फिशानियों को लोग भूल गए आप अच्छा कर रहे हैं और भी चीज़ें सामने लायें.आपका एक नया ही रूप देखने को मिलेगा.
nice post !
तारीखी चीज़ें सामने आनी ही चाहिए
khususi or achchi zruri jaankaariyaan he aesi jaankaaiyon kaa age bhi km se km mujhe to hmeshaan intizaar rhegaa bhejoge naaa bhaayi jaan. akhtr khan akela kota rajsthan
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