सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Thursday, October 24, 2013
कैसे और कहाँ खो गया सत्य? Bodhkatha
ज्ञानतंत्र की रहस्य-बोध कथाएं: कैसे और कहाँ खो गया सत्य?
प्राचीन काल की बात है। गाय घोड़े चरते चरते पूरब की तरफ़ निकल आए।
ये गाय घोड़े कहां से चले थे?,
इसके विषय में मतभेद है लेकिन इतना तय है कि वे जिस देश से चले थे। उस देश में हाथी न होता था। अपने गाय घोड़ों के पीछे उनके मालिक भी चले आए। वे मूर्तिपूजक न थे। वे महान थे। वे कवि थे। जहां रवि नहीं पहुंचता था वे वहां भी पहुंच जाते थे। वे आत्मा से ईश्वर तक जा पहुंचे थे। वे लंबे और गोरे थे, संगठित और अनुशासित थे। चलते चलते वे हरे देश तक चले आए। यहां नदी के पास आबाद काले और नाटे लोगों ने उन्हें देखा तो वे मारे भय के पीले पड़ गए और जंगलों में चढ़ गए। जो जंगलों में न जा सके। उन्हें नगर के किनारे रखा गया और जंगल का पूरा सुख दिया गया। इस तरह यह देश विदेशियों का हो गया और विदेशी देश के हो गए।
विदेशी सभ्य होते ही हैं। सो ये भी सभ्य थे। शासक न्यायप्रिय होता है। सो ये भी न्यायप्रिय ही थे। ये जो करते थे वही सभ्यता थी, वही न्याय था। ये प्रकृति से बातें करते थे। इन्होंने आग और पानी से ही नहीं बल्कि भूमि और आकाश तक से बातें कीं। इनका बौद्धिक स्तर ऊँचा था। उनकी नस्लों ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाया। उनके बाद और भी विदेशी अपनी सभ्यताएं लेकर आते रहे। उन्हें भी उनकी संस्कृति समेत एडजस्ट कर लिया गया। उन्होंने भी कविता रचना सीख लिया। उनमें से कोई प्रकृतिपूजक था और कोई मूर्तिपूजक। उनकी कविता का विषय प्रकृतिपूजा होता था या फिर मूर्तिपूजा।
विदेशी धड़ाधड़ आ रहे थे। वे अपने साथ अपनी संस्कृतियां भी ला रहे थे। वे भी कविता कर रहे थे। कोई नर पर और कोई नारी पर। कोई हवा पर और कोई दवा पर। जितनी बुद्धियां थीं, उतने ही विचार थे। नए विचारों की भरमार हो गई और पुराना सत्य विचार उसमें कहीं दबता चला गया।
जितनी नस्लें थीं, उतनी ही संस्कृतियां थीं। सबकी संस्कृतियों को समाहित किए बिना चारा न था। किसी का दमन और किसी का भजन किया जा रहा था। राजनैतिक चौधराहट बनाए रखने के लिए जो कुछ नहीं करना था, वह भी किया गया। लोग धर्मप्राण होने के बजाय धनप्राण बनते चले गए। पवित्र लोगों के वंशज अंततः पतित होकर रह गए।
आदिकाल के कवियों की वाणी महान थी। उसमें सत्य था। उसे लिखने की परंपरा तब न थी। वह श्रुति (सुनने) और स्मृति (मेमोरी) के ज़रिये नई नस्लों तक पहुंच रहा था। युग बदलते चले गए। नस्लों में नस्लें मिक्स हो गईं। सबका ख़ून मिक्स हो गया। सबकी संस्कृतियां मिक्स हो गई। सबका साहित्य मिक्स हो गया। वह सत्य बाद के साहित्य में खो गया। तब उस साहित्य को संकलित करके उसकी संहिता बना दी गई।
वह सत्य क्या था?
वह सत्य विद्या थी, एक विशेष विद्या, अनुपम विद्या। उसी विशेष विद्या के विषय में ‘सा विद्या या विमुक्तये’ कहा गया है। वह सत्य अमृत था।
उस खोए सत्य की खोज आज तक जारी है।
‘जो ढूंढता है, वह पाता है।’ यह जगत का विधान है। ढूंढने वाले ढूंढते चले आ रहे आ रहे हैं और उन्हें सत्य मिलता आ रहा है।
वास्तव में सत्य मिटा नहीं था बल्कि खो गया था या यूं कहें कि सत्य तो हमारे सामने ही था लेकिन हम उसके लक्षण भूल गए थे। हम उसे पहचानने की क्षमता खो बैठे थे।
हमारी ‘श्रुति’ और ‘स्मृति’ आज हमारे पास है। सत्य को पहचानने में ये दोनों ही हमारी मदद कर रही हैं। पतित से पवित्र होने का हमारा सफ़र लगातार जारी है। चाहे हमें इसका पता हो या न हो।
हमारे गाय और हमारे घोड़े अब भी आगे बढ़ रहे हैं और उनके पीछे हम भी आगे बढ़ रहे हैं। अब हमारे गाय घोड़े भौतिक नहीं हैं और हमें भी देह के साथ सफ़र करने की ज़रूरत नहीं रही है। इसीलिए अब हमारा सफ़र ख़ुद हमें भी नज़र नहीं आ रहा है।
चरैवेति, ...चरैवेति. किसी ने कभी कहा था और हम आज भी चले ही जा रहे हैं।
मंज़िल ऐसे लोगों का ख़ुद बढ़कर स्वागत करती है। चलकर जाने वालों की तरफ़ ईश्वर दौड़कर आता है। अपनी शाखाओं को विस्तार देकर तीर्थराज स्वयं उनसे मिलने के लिए आता है। ईश्वर आ चुका है। हमारे गली मुहल्लों में मौजूद तीर्थराज की शाखाएं इसका प्रमाण हैं।
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http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/BUNIYAD/entry/truth
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Tuesday, October 22, 2013
हज और क़ुरबानी के विषय में एक ज्ञानवर्धक लेख
आज पत्र-पत्रिकाओं के बारे में कहा जाता है कि उनमें अश्लीलता की भरमार होती है और अधिकतर पत्र-पत्रिकाओं के बारे में यह बात सही भी है। उनमें ग्लैमर के नाम पर अश्लीलता परोसी जाती है या फिर वे किसी न किसी राजनैतिक पार्टी का गुणगान करती रहती हैं। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में भी यही सब देखने में आ रहा है। इनके मालिक समाज में अपना क़द ऊंचा करने के लिए और अपने राजनैतिक आक़ाओं को ख़ुश रखने के लिए नैतिक मूल्यों को ध्वस्त करते चले जा रहे हैं।
इनके दरम्यान कुछ हिन्दी पत्र-पत्रिकाएं ऐसी भी देखने में आई हैं। जिन्होंने नीति और मर्यादा की अपने अपने हिसाब से रक्षा करने की कोशि की है।
हम अपने किशोरपने में पंडित श्रीराम आचार्य जी की पत्रिका अखण्ड ज्योति को इसीलिए पढ़ा करते थे कि उससे अच्छे गुणों की प्रेरणा भी मिलती थी और पुराने इतिहास की जानकारी भी।
विश्व एकता संदेश को भी हम इसीलिए पसंद करते थे कि जो बातें आम तौर पर किसी पत्रिका में पढ़ने के लिए नहीं मिलतीं। वे बातें उसमें मिल जाती थीं।
इनके दरम्यान कुछ हिन्दी पत्र-पत्रिकाएं ऐसी भी देखने में आई हैं। जिन्होंने नीति और मर्यादा की अपने अपने हिसाब से रक्षा करने की कोशि की है।
हम अपने किशोरपने में पंडित श्रीराम आचार्य जी की पत्रिका अखण्ड ज्योति को इसीलिए पढ़ा करते थे कि उससे अच्छे गुणों की प्रेरणा भी मिलती थी और पुराने इतिहास की जानकारी भी।
विश्व एकता संदेश को भी हम इसीलिए पसंद करते थे कि जो बातें आम तौर पर किसी पत्रिका में पढ़ने के लिए नहीं मिलतीं। वे बातें उसमें मिल जाती थीं।
यह लेख उसी पाक्षिक पत्र से लेकर इस ब्लॉग पर पेश किया गया था। जिसे हमारे हिन्दी पाठकों ने बहुत सराहा है। इस लेख पर कुछ भाईयों ने सवाल भी किए हैं। जिनका उत्तर हमें मासिक कान्ति के ताज़ा अंक में हज के संबंध में छपे एक लेख में नज़र आया। यह लेख वास्तव में ही अच्छा और ज्ञानवर्धक आलेख है। आप भी देख सकते हैं।
हमें अपने ब्लॉग पर हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के बारे में भी जानकारी देते रहना चाहिए ताकि हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के बारे में हिन्दी पाठकों को जानकारी मिल सके और हिन्दी का प्रचार प्रसार हो सके। इस तरह अलग अलग समुदाय के लोग एक दूसरे की मान्यताओं और संस्कृतियों के बारे में भी जान सकेंगे और वे परस्पर एक दूसरे का सहयोग करते हुए एक मज़बूत भारत का निर्माण कर सकेंगे। आजकल हमारे ब्लॉग ‘बुनियाद’ पर क़ुरबानी और हज के विषय में चर्चा चल रही है।
कान्ति मासिक हिन्दी साहित्य की एक ज्ञानवर्धक पत्रिका है। जो लोग इसे ऑनलाइन पढ़ना चाहें वे इसे ऑनलाइन पढ़ सकते हैं और पाठक इसकी नमूना प्रति मंगाना चाहें वे पत्रिका के ऑफ़िस में फ़ोन करके या पत्र लिखकर इसकी नमूना प्रति मुफ़्त मंगा सकते हैं।
Tuesday, October 15, 2013
क़ुरबानी, एक सनातन परम्परा kurbani aur haj
बक़रीद के अवसर पर हमारे सब पाठकों और ग़ैर पाठकों को बहुत बहुत शुभकामनाएं!
हमारे ब्लॉग के पाठक जानते ही हैं कि हमारे आदरणीय आर्यसमाजी भाई विजय कुमार सिंघल जी ने हमें वैदिक धर्म में वापस आने का न्यौता दिया था। इस पर हमने उनसे पूछा था कि
हमारे ब्लॉग के पाठक जानते ही हैं कि हमारे आदरणीय आर्यसमाजी भाई विजय कुमार सिंघल जी ने हमें वैदिक धर्म में वापस आने का न्यौता दिया था। इस पर हमने उनसे पूछा था कि
‘देश की शांति में बौद्धों और जैनियों के योगदान’ नामक पोस्ट पर भी चर्चा कर चुके हैं। हमारी दूसरी पोस्ट्स की तरह यह पोस्ट भी नवभारत टाइम्स के सुपर हिट पोस्ट और सबसे चर्चित पोस्ट का मक़ाम पा चुकी है। इस पोस्ट पर दिनांक 14 अक्तूबर 2013 को आदरणीय विजय कुमार सिंघल जी ने एक कमेंट करते हुए कहा है-
डा. जमाल साहब, यह देखलर खुशी होती है कि आपको जैन और बौद्ध धर्मों के प्रति इतना सम्मान है. अब कृपया इनके मुख्य सिद्धांत अहिंसा का पालन करे और कराएं. बकरीद पर लाखों बकरो की जान बख्शें. जो कुर्बानी करना चाहे कद्दू या लौकी की कुर्बानी करें. अगर हज़रत इब्राहीम की परम्परा का पूरी तरह पालन करना है तो अपने-अपने बेटे की कुर्बानी करें. इससे बाप-बेटे दोनों सीधे जन्नत में जायेंगे.
धन्यवाद.
इसके जवाब में हमने उनसे विनम्रतापूर्वक यह निवेदन किया है-
आदरणीय विजय जी! आप तो हमारे द्वारा दिया गया सत्यार्थप्रकाश का हवाला देखकर अपने ब्लॉग पर जैन मूर्तियों के तोड़े जाने और शंकराचार्य द्वारा जैन मंदिरों में वेदों की पाठशाला खोले जाने को सही भी ठहरा चुके हैं और उसे समाज सेवा भी बता चुके हैं।
आप जानते ही हैं कि शंकराचार्य वेदों में पशु की बलि का विधान मानते हैं। वे जैनियों के मंदिरों में पशुबलि का पाठ आज तक पढ़ाते आ रहे हैं और आप इसे समाज सेवा ठहरा ही चुके हैं। अब आप हमसे कह रहे हैं कि हम समाज सेवा न करें ?
यह क्या बात हुई कि शंकराचार्य तो जैन मंदिर को समाज सेवा के काम में लाएं और हम अपने घर को भी समाज सेवा के काम में न लाएं।
ग़रीब ज़रूरतमंद लोगों को आज रोटी की ही नहीं बल्कि उत्तम क्वालिटी के प्रोटीन की भी सख्त ज़रूरत है। यज्ञ में पशुबलि के माध्यम से हमारे ऋषियों ने लोगों की इसी आवश्यकता को पूरा करके बड़ी समाज सेवा की है। इस विषय में यजुर्वेद का 23वां व 24वां अध्याय पढ़ें।
आप भी समाज सेवा की यह रीत अपना लें तो अच्छा है।
शुभकामनाएं।
आदरणीय विजय सिंघल जी का कमेंट पढ़कर हम यह सोचते रहे कि अज्ञानता का कैसा घोर अन्धकार लोगों की बुद्धियों पर छा गया है कि ख़ुद तो धर्म की सनातन वैदिक परम्परा का पालन करते ही नहीं हैं और जो दूसरे लोग करते हैं तो उन पर वैसे ही व्यंग्य करते हैं जैसे कि पहले कभी बौद्ध, जैन और नास्तिक वैदिक यज्ञों पर करते थे। वेदों में आस्था रखने वालों कर्म नास्तिकों के समान होने का कारण केवल इतिहास और परम्परा से ही नहीं बल्कि वेदों से भी अन्जान होना है। विजय सिंघल जी का तख़ल्लुस ‘अन्जान’ ही है। सिर्फ़ आदरणीय विजय सिंघल साहब ही नहीं बल्कि उन जैसे करोड़ों लोग वेदों के सत्य से अन्जान हैं।
वे जान ही नहीं पाए कि ऋषि वास्तव में कितने महान हैं और उन्होंने कितनी महान ऋचाओं की रचना की है?
वेद की ऋचाओं में अद्भुत ज्ञान है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने आज यह पता लगाया है कि इनसान की हेल्थ के लिए बेलेंस्ड डाइट की ज़रूरत है और बेलेंस्ड डाइट में मुर्ग़ा-मछली आदि होना बहुत ज़रूरी है। प्रोटीन के महत्व को हमारे ऋषियों ने प्राचीन काल में ही जान लिया था। इस महान ज्ञान को वह वेदों में हमारे लिए छोड़कर गए हैं।
हमारे महान ऋषियों ने केवल मौखिक ज्ञान ही नहीं दिया बल्कि यज के रूप में एक ऐसी परम्परा भी दी। जिससे आर्यों का कल्याण हो। यज में होने वाली पशुबलि ने आर्यों को महान शक्ति से पूर्ण किया।
कालान्तर में यज के रूप बदलते चले गए और वे लगातार जटिल होते चले गए। इसी के साथ ब्राह्मण वर्ग का एकछत्र राज्य हो गया और वे निरंकुश हो गए। उनमें अच्छे ब्राह्मण भी थे लेकिन वे कम रह गए थे। बौद्ध, जैन और चारवाक आदि ने यज्ञों मे पशुबलि का विरोध किया और जनसमर्थन उनके पक्ष में हो गया। ब्राह्मणों को यज्ञ और पशुबलि बंद करनी पड़ी। धार्मिक रीति रिवाजों में हेर फेर का अंजाम यही होता है। जब तक धर्म की रीति को बिना हेर फेर के संपन्न किया जाता रहा, तब तक जनता यज और बलि के समर्थन में ही रही।
यजुर्वेद के 25वें अध्याय के मंत्रों में भी घोड़े की बलि का वर्णन है। इस अध्याय के पहले मंत्र में घोड़े के दांतों से शाद देवता को, दंतमूल से अवका देवता को, दांतों की पछाड़ियों से मृद देवता को, दाढ़ों से तेग देवता को, तालु से आवक्रन्द देवता को, जिव्हा के अग्र भाग द्वारा सरस्वती को व इसी प्रकार घोड़े के अलग अलग अंगों के द्वारा अलग अलग देवी-देवताओं को प्रसन्न करने की बात कही गई है।
यह पूरा अध्याय तो यहां लिखना संभव नहीं है। जिनके पास वेद हों, वे वेद में देख सकते हैं। एक मंत्र का अनुवाद यहां दिया जा रहा है-
‘वनिष्ठु से पूषा देवता को, स्थूल गुद से आंध्र सर्पों को, आंत से विह्रुत को, वस्ति से जल को, अण्ड से वृषण को, मेढ से वाजी को, वीर्य से अपत्य को पित्त से चाष देवता को, तृतीय भाग से प्रदरों को और शाकपिण्ड से कूष्मों को प्रसन्न करता हूं।’
-यजुर्वेद 25/7
यज की परम्परा को हज में आज भी देखा जा सकता है। मक्का में पशुओं की बलि बिना किसी बड़े तामझाम के ठीक वैसे ही दी जाती है जैसे कि आदिकाल में आर्य ऋषि वहां जाकर दिया करते थे। मक्का और काबा से आर्य जाति का बहुत पुराना संबंध है। हज में पशुबलि होती है और उसका मांस ग़रीब देशों को पैक करके भेज दिया जाता है।
बक़रीद के मौक़े पर भी जानवरों की क़ुरबानी होती है। क़ुरबानी का एक तिहाई गोश्त ग़रीब ज़रूरतमंदों को बांट दिया जाता है और एक तिहाई दोस्तों और रिश्तेदारों में और एक तिहाई अपने लिए रख लिया जाता है।
अब समय आ गया है कि वैदिक धर्म के लोग ऋषियों की प्राचीन परम्परा को प्राचीन रीति से ही मनाएं।
धर्म की प्राचीन परम्पराओं को प्राचीन रीति से ही मनाया जाए तो हिन्दू और मुसलमानों को एक होते देर नहीं लगेगी। इस एकता से उस महान शक्ति का उदय होगा, जिसकी कल्पना भी मुश्किल है। यह एकता केवल पशुओं की बलि से ही संभव नहीं है बल्कि इसके लिए हमें अपने अहंकार और अपनी पाश्विक प्रवृत्तियों का बलिदान करना होगा। पशुबलि का एक मक़सद यह भी है बल्कि यही मक़सद पशुबलि का सबसे बड़ा मक़सद है। अपने अहंकार और पशु प्रवृत्ति का दान करने वाला वास्तव में ही आत्म बलिदान करता है। ऐसा ही मनुष्य दुष्टों से धर्म और सत्य की रक्षा कर सकता है।
जिन लोगों ने इस बलिदान को हीन समझा और इसकी निन्दा की। वे अपने दुश्मनों से अपने राज्य की तो क्या अपनी भी रक्षा न कर पाए और सदा के लिए अपने दुश्मनों के ग़ुलाम बनकर रह गए। अपना सब कुछ लुटवा कर भी वे यह न समझ पाए कि अति हर चीज़ की बुरी होती है। अहिंसा की अति भी बुरी होती है। हिंसा के भी रचनात्मक प्रयोग समाज में देखे जा सकते हैं। हमें ध्यान रखना होगा कि अहिंसा कायरता न बन जाए और हिंसा ज़ुल्म न बन जाए।
यज मे पशुबलि के माध्यम से ऋषियों ने इस अति को संतुलित करके दिखाया है।
धन्यवाद.
इसके जवाब में हमने उनसे विनम्रतापूर्वक यह निवेदन किया है-
आदरणीय विजय जी! आप तो हमारे द्वारा दिया गया सत्यार्थप्रकाश का हवाला देखकर अपने ब्लॉग पर जैन मूर्तियों के तोड़े जाने और शंकराचार्य द्वारा जैन मंदिरों में वेदों की पाठशाला खोले जाने को सही भी ठहरा चुके हैं और उसे समाज सेवा भी बता चुके हैं।
आप जानते ही हैं कि शंकराचार्य वेदों में पशु की बलि का विधान मानते हैं। वे जैनियों के मंदिरों में पशुबलि का पाठ आज तक पढ़ाते आ रहे हैं और आप इसे समाज सेवा ठहरा ही चुके हैं। अब आप हमसे कह रहे हैं कि हम समाज सेवा न करें ?
यह क्या बात हुई कि शंकराचार्य तो जैन मंदिर को समाज सेवा के काम में लाएं और हम अपने घर को भी समाज सेवा के काम में न लाएं।
ग़रीब ज़रूरतमंद लोगों को आज रोटी की ही नहीं बल्कि उत्तम क्वालिटी के प्रोटीन की भी सख्त ज़रूरत है। यज्ञ में पशुबलि के माध्यम से हमारे ऋषियों ने लोगों की इसी आवश्यकता को पूरा करके बड़ी समाज सेवा की है। इस विषय में यजुर्वेद का 23वां व 24वां अध्याय पढ़ें।
आप भी समाज सेवा की यह रीत अपना लें तो अच्छा है।
शुभकामनाएं।
आदरणीय विजय सिंघल जी का कमेंट पढ़कर हम यह सोचते रहे कि अज्ञानता का कैसा घोर अन्धकार लोगों की बुद्धियों पर छा गया है कि ख़ुद तो धर्म की सनातन वैदिक परम्परा का पालन करते ही नहीं हैं और जो दूसरे लोग करते हैं तो उन पर वैसे ही व्यंग्य करते हैं जैसे कि पहले कभी बौद्ध, जैन और नास्तिक वैदिक यज्ञों पर करते थे। वेदों में आस्था रखने वालों कर्म नास्तिकों के समान होने का कारण केवल इतिहास और परम्परा से ही नहीं बल्कि वेदों से भी अन्जान होना है। विजय सिंघल जी का तख़ल्लुस ‘अन्जान’ ही है। सिर्फ़ आदरणीय विजय सिंघल साहब ही नहीं बल्कि उन जैसे करोड़ों लोग वेदों के सत्य से अन्जान हैं।
वे जान ही नहीं पाए कि ऋषि वास्तव में कितने महान हैं और उन्होंने कितनी महान ऋचाओं की रचना की है?
वेद की ऋचाओं में अद्भुत ज्ञान है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने आज यह पता लगाया है कि इनसान की हेल्थ के लिए बेलेंस्ड डाइट की ज़रूरत है और बेलेंस्ड डाइट में मुर्ग़ा-मछली आदि होना बहुत ज़रूरी है। प्रोटीन के महत्व को हमारे ऋषियों ने प्राचीन काल में ही जान लिया था। इस महान ज्ञान को वह वेदों में हमारे लिए छोड़कर गए हैं।
हमारे महान ऋषियों ने केवल मौखिक ज्ञान ही नहीं दिया बल्कि यज के रूप में एक ऐसी परम्परा भी दी। जिससे आर्यों का कल्याण हो। यज में होने वाली पशुबलि ने आर्यों को महान शक्ति से पूर्ण किया।
कालान्तर में यज के रूप बदलते चले गए और वे लगातार जटिल होते चले गए। इसी के साथ ब्राह्मण वर्ग का एकछत्र राज्य हो गया और वे निरंकुश हो गए। उनमें अच्छे ब्राह्मण भी थे लेकिन वे कम रह गए थे। बौद्ध, जैन और चारवाक आदि ने यज्ञों मे पशुबलि का विरोध किया और जनसमर्थन उनके पक्ष में हो गया। ब्राह्मणों को यज्ञ और पशुबलि बंद करनी पड़ी। धार्मिक रीति रिवाजों में हेर फेर का अंजाम यही होता है। जब तक धर्म की रीति को बिना हेर फेर के संपन्न किया जाता रहा, तब तक जनता यज और बलि के समर्थन में ही रही।
यजुर्वेद के 25वें अध्याय के मंत्रों में भी घोड़े की बलि का वर्णन है। इस अध्याय के पहले मंत्र में घोड़े के दांतों से शाद देवता को, दंतमूल से अवका देवता को, दांतों की पछाड़ियों से मृद देवता को, दाढ़ों से तेग देवता को, तालु से आवक्रन्द देवता को, जिव्हा के अग्र भाग द्वारा सरस्वती को व इसी प्रकार घोड़े के अलग अलग अंगों के द्वारा अलग अलग देवी-देवताओं को प्रसन्न करने की बात कही गई है।
यह पूरा अध्याय तो यहां लिखना संभव नहीं है। जिनके पास वेद हों, वे वेद में देख सकते हैं। एक मंत्र का अनुवाद यहां दिया जा रहा है-
‘वनिष्ठु से पूषा देवता को, स्थूल गुद से आंध्र सर्पों को, आंत से विह्रुत को, वस्ति से जल को, अण्ड से वृषण को, मेढ से वाजी को, वीर्य से अपत्य को पित्त से चाष देवता को, तृतीय भाग से प्रदरों को और शाकपिण्ड से कूष्मों को प्रसन्न करता हूं।’
-यजुर्वेद 25/7
यज की परम्परा को हज में आज भी देखा जा सकता है। मक्का में पशुओं की बलि बिना किसी बड़े तामझाम के ठीक वैसे ही दी जाती है जैसे कि आदिकाल में आर्य ऋषि वहां जाकर दिया करते थे। मक्का और काबा से आर्य जाति का बहुत पुराना संबंध है। हज में पशुबलि होती है और उसका मांस ग़रीब देशों को पैक करके भेज दिया जाता है।
बक़रीद के मौक़े पर भी जानवरों की क़ुरबानी होती है। क़ुरबानी का एक तिहाई गोश्त ग़रीब ज़रूरतमंदों को बांट दिया जाता है और एक तिहाई दोस्तों और रिश्तेदारों में और एक तिहाई अपने लिए रख लिया जाता है।
अब समय आ गया है कि वैदिक धर्म के लोग ऋषियों की प्राचीन परम्परा को प्राचीन रीति से ही मनाएं।
धर्म की प्राचीन परम्पराओं को प्राचीन रीति से ही मनाया जाए तो हिन्दू और मुसलमानों को एक होते देर नहीं लगेगी। इस एकता से उस महान शक्ति का उदय होगा, जिसकी कल्पना भी मुश्किल है। यह एकता केवल पशुओं की बलि से ही संभव नहीं है बल्कि इसके लिए हमें अपने अहंकार और अपनी पाश्विक प्रवृत्तियों का बलिदान करना होगा। पशुबलि का एक मक़सद यह भी है बल्कि यही मक़सद पशुबलि का सबसे बड़ा मक़सद है। अपने अहंकार और पशु प्रवृत्ति का दान करने वाला वास्तव में ही आत्म बलिदान करता है। ऐसा ही मनुष्य दुष्टों से धर्म और सत्य की रक्षा कर सकता है।
जिन लोगों ने इस बलिदान को हीन समझा और इसकी निन्दा की। वे अपने दुश्मनों से अपने राज्य की तो क्या अपनी भी रक्षा न कर पाए और सदा के लिए अपने दुश्मनों के ग़ुलाम बनकर रह गए। अपना सब कुछ लुटवा कर भी वे यह न समझ पाए कि अति हर चीज़ की बुरी होती है। अहिंसा की अति भी बुरी होती है। हिंसा के भी रचनात्मक प्रयोग समाज में देखे जा सकते हैं। हमें ध्यान रखना होगा कि अहिंसा कायरता न बन जाए और हिंसा ज़ुल्म न बन जाए।
यज मे पशुबलि के माध्यम से ऋषियों ने इस अति को संतुलित करके दिखाया है।
हर साल बक़रीद आती है। इस साल भी आई है। आईये इस बक़रीद के अवसर पर यह संकल्प लें कि हम धर्म और सत्य की रक्षा के लिए अपने हिंसा और अहिंसा भाव को पशुबलि अर्थात क़ुरबानी के ज़रिये वैसे ही संतुलित करेंगे जैसे कि हमारे पूर्वज ऋषि और पैग़म्बर किया करते थे।
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Silver: 4986
[1]बकरीद की किस बात की शुभकामनाये क्यापशु हत्या नाम पर खून खराबा की शुभकामनाये
[2] अगर पशु हत्या अच्छी होती तो मस्जिदो मे पशु हत्या क्यो नही करते मस्जिद भी पवित्र कहलाती है पशु हत्या भी इस्लाम मे पवित्र है फिर दो पवित्र काम मे इतना भेद भाव क्यो है
[3] मुस्लिम महिलाये व कन्याये भी तो [ ईमान वाली] मुस्लिमकहलाई जाती है,वह क्यो नही गाय भैंस बकरा ऊँट की कुर्बानी देने मे अगुवाई करती है सिर्फ मुस्लिम पुरुष ही हत्या जैसा कार्य करते है?
[4] मुस्लीमबंधु भी इस देश मे अल्पसंख्यक कहलाये जाते है और छोटी सांख्या वाले जैन समुदाय की भावनाओं का ख्याल रखते हुये,इस देश का मुस्लिम समुदाय क्यो नहीपशु हत्या बंद कर देते है ! एक ओर तो इस्लाम की यह "नारे बाजी" होतीहै की इस्लाम पड़ोसी का दिल मत दुखाओ कहताहै और दूसरी ओर शाकाहरियो के सामने पशुहत्या की जाती है ? जब आप यह कहते है की गरीब देशो मे एक तिहाई मांस भेजा जाता है तब क्यो नही बकरीद के नाम पर वही मांस आप सबमुस्लिम मंगवा लेते ? जब देवबन्द का फ़तवा गाय हत्या हिन्दू भावनाओ के विषय मे आ सकता है तब जैन समुदाय की भावनाओ का खयाल रखकर मुस्लिम समुदाय स्वता पशु हत्या बंद करके कर सकता है.
[5] कुरान की वह आयत बतलाये जिसमे मुस्लिमो को इब्राहीम जी की तरह पशु हत्या की बात कही गयी हो ![
[6] शंकराचार्य जी ने कब जैन मंदिरो मे पशु हत्या की बात की
[7] शंकराचार्य जी ने जैन मत का विरोध कियालेकिन यज्ञो मे पशुहत्या का कब समर्थन किया यह आप साबित करे!
[8] मनुस्मृति के धर्म के 10 लक्षणो मे पशु हत्या का विधान क्यो नही है.,जबकि आप सनातन धर्मका विधान पशु बलि बातला रहे है
[9] महर्षी पतंजलि जी ने भी अपने योगशास्त्र 2/30,32 मे यम नियम की बात की है उसमे अहिंसा का भी नियम है फिर सनातन धर्म मेहिंसा पशु बाकी किबात कैसे है ? आपका पक्ष मजबूत कैसे हुआ
[10] यजुर्वेद 25/7मे भी यज्ञो मे पशु बलि की बात कहाँ है?
[11] दुनिया की आर्थिक समस्या "रोटी" है , न की मांस? आज संसार मांस "भी" खाता है ,लेकिन रोटी को अनदेखा नही करसक्ता
[12] मांस अनाज से बहुत ज्यादा महंगा क्यो है ! कल्पित अल्लाह ने उसको सस्ता,सर्वसुलभ अनाज जैसा "अभी तक" क्यो नही किया?
[13] गरीब को रोटी की जरूरत है मांस की नही, प्रोटीन की नही, चाहे तो गरीबो मे सर्वे करवा लीजिये ! [जारी]
[2] अगर पशु हत्या अच्छी होती तो मस्जिदो मे पशु हत्या क्यो नही करते मस्जिद भी पवित्र कहलाती है पशु हत्या भी इस्लाम मे पवित्र है फिर दो पवित्र काम मे इतना भेद भाव क्यो है
[3] मुस्लिम महिलाये व कन्याये भी तो [ ईमान वाली] मुस्लिमकहलाई जाती है,वह क्यो नही गाय भैंस बकरा ऊँट की कुर्बानी देने मे अगुवाई करती है सिर्फ मुस्लिम पुरुष ही हत्या जैसा कार्य करते है?
[4] मुस्लीमबंधु भी इस देश मे अल्पसंख्यक कहलाये जाते है और छोटी सांख्या वाले जैन समुदाय की भावनाओं का ख्याल रखते हुये,इस देश का मुस्लिम समुदाय क्यो नहीपशु हत्या बंद कर देते है ! एक ओर तो इस्लाम की यह "नारे बाजी" होतीहै की इस्लाम पड़ोसी का दिल मत दुखाओ कहताहै और दूसरी ओर शाकाहरियो के सामने पशुहत्या की जाती है ? जब आप यह कहते है की गरीब देशो मे एक तिहाई मांस भेजा जाता है तब क्यो नही बकरीद के नाम पर वही मांस आप सबमुस्लिम मंगवा लेते ? जब देवबन्द का फ़तवा गाय हत्या हिन्दू भावनाओ के विषय मे आ सकता है तब जैन समुदाय की भावनाओ का खयाल रखकर मुस्लिम समुदाय स्वता पशु हत्या बंद करके कर सकता है.
[5] कुरान की वह आयत बतलाये जिसमे मुस्लिमो को इब्राहीम जी की तरह पशु हत्या की बात कही गयी हो ![
[6] शंकराचार्य जी ने कब जैन मंदिरो मे पशु हत्या की बात की
[7] शंकराचार्य जी ने जैन मत का विरोध कियालेकिन यज्ञो मे पशुहत्या का कब समर्थन किया यह आप साबित करे!
[8] मनुस्मृति के धर्म के 10 लक्षणो मे पशु हत्या का विधान क्यो नही है.,जबकि आप सनातन धर्मका विधान पशु बलि बातला रहे है
[9] महर्षी पतंजलि जी ने भी अपने योगशास्त्र 2/30,32 मे यम नियम की बात की है उसमे अहिंसा का भी नियम है फिर सनातन धर्म मेहिंसा पशु बाकी किबात कैसे है ? आपका पक्ष मजबूत कैसे हुआ
[10] यजुर्वेद 25/7मे भी यज्ञो मे पशु बलि की बात कहाँ है?
[11] दुनिया की आर्थिक समस्या "रोटी" है , न की मांस? आज संसार मांस "भी" खाता है ,लेकिन रोटी को अनदेखा नही करसक्ता
[12] मांस अनाज से बहुत ज्यादा महंगा क्यो है ! कल्पित अल्लाह ने उसको सस्ता,सर्वसुलभ अनाज जैसा "अभी तक" क्यो नही किया?
[13] गरीब को रोटी की जरूरत है मांस की नही, प्रोटीन की नही, चाहे तो गरीबो मे सर्वे करवा लीजिये ! [जारी]
प्यारे भाई राज हैदराबादी जी!
1. धर्म की परम्परा आज भी अक्षुण्ण बनी हुई है। यह हर्ष का विषय है। इस बात की बधाई।
2. यह ज़रूरी नहीं है कि जिस काम को मस्जिद में न किया जा सके। वह धर्म का काम नहीं होता। मिसाल के तौर पर पति पत्नी आपस में रिश्ता क़ायम करते हैं। वे यह रिश्ता मस्जिद में क़ायम नहीं कर सकते लेकिन फिर भी उनका कर्म धर्म और पुण्य है।
3. मुस्लिम औरतें भी जानवर हलाल कर सकती हैं लेकिन उनकी ज़िम्मेदारी पकाने पर है। वे अपने काम में ज़्यादा बिज़ी रहती हैं।
4. मुसलमानों को बक़रीद अपने जैन भाईयों और शाकाहारी भाईयों की भावना का ध्यान रखत हुए ही मनाना चाहिए लेकिन दूसरे की भावना का ध्यान रखने का मतलब यह नहीं होता कि अपने रीति रिवाज को त्याग दिया जाए। दूसरों की भावना का ध्यान रखने का ऐसा मतलब तो जैन आचार्य भी नहीं मानते। जैन आचार्यों को पता है कि मुसलमानों में नंगे बदन घूमना अधर्म और पाप माना जाता है लेकिन इसके बावुजूद वे मुसलमानों मुहल्लों से नंगे बदन ही गुज़रते हैं। उन्होंने कभी यह नहीं किया कि वे मुसलमानों की भावना का ध्यान रखते हुए कपड़े पहनकर निकल जाया करते। देवबन्द के आलिमों ने गाय के बजाय दूसरे जानवर की क़ुरबानी करने के लिए कहा है न कि क़ुरबानी को पूरी तरह बन्द करने के लिए।
5. आप सूरा ए कौसर पढ़ लीजिए।
6. शंकराचार्य जी का वेदभाष्य पढ़ लीजिए। आपको पता चल जाएगा कि वह जैन मंदिरों को क़ब्ज़ाने के बाद क्या शिक्षा दिया करते थे।
7. शंकराचार्य जी वैदिक यज्ञों में पशुबलि का समर्थन करते थे। यह बात उनके वेद भाष्य से सिद्ध है। आप उसे पढ़ लीजिए।
8. आप मनुस्मृति के एक श्लोक पर ही क्यों अटक कर रह गए। मनुस्मृति के पांचवे अध्याय में पशुबलिक का विधान देखिए। आपको पूरा ब्यौरा मिल जाएगा।
9. योगशास्त्र की वही बात मानी जाएगी जो कि वेदानुकूल होगी। वैसे भी वेदानुसार की गई हिंसा वास्तव में अहिंसा ही होती है। ऐसा वेद विद्वानों ने कहा है कि वैदिकी हिंसा हिंसा न भवतिः
10. यजुर्वेद 25/7 का अनुवाद आपके सामने है। अगर आप इससे सहमत नहीं हैं तो आप बताईये कि इस मंत्र का सही अनुवाद आपकी नज़र में क्या है? बिना प्रमाण दिए दावा मत कीजिए कि इस मंत्र में पशुबलि नहीं है।
11. दुनिया की समस्या कुपोषण भी है और खाद्यान्न की कमी भी। रोटी के साथ मांस के कॉम्बिनेशन से ये दोनों समस्याएं हल करके हमारे ऋषि पहले ही दिखा चुके हैं।
12. अच्छी नीति के अभाव में मांस महंगा हो गया है और लोगों के पास धन का अभाव।
13. ग़रीबों को संतुलित आहार की और प्रोटीन की ज़रूरत नहीं है। इसे जानने के लिए किसी सर्वे की ज़रूरत नहीं है। संतुलित आहार की ज़रूरत सबको है।
आपका शुक्रिया!
1. धर्म की परम्परा आज भी अक्षुण्ण बनी हुई है। यह हर्ष का विषय है। इस बात की बधाई।
2. यह ज़रूरी नहीं है कि जिस काम को मस्जिद में न किया जा सके। वह धर्म का काम नहीं होता। मिसाल के तौर पर पति पत्नी आपस में रिश्ता क़ायम करते हैं। वे यह रिश्ता मस्जिद में क़ायम नहीं कर सकते लेकिन फिर भी उनका कर्म धर्म और पुण्य है।
3. मुस्लिम औरतें भी जानवर हलाल कर सकती हैं लेकिन उनकी ज़िम्मेदारी पकाने पर है। वे अपने काम में ज़्यादा बिज़ी रहती हैं।
4. मुसलमानों को बक़रीद अपने जैन भाईयों और शाकाहारी भाईयों की भावना का ध्यान रखत हुए ही मनाना चाहिए लेकिन दूसरे की भावना का ध्यान रखने का मतलब यह नहीं होता कि अपने रीति रिवाज को त्याग दिया जाए। दूसरों की भावना का ध्यान रखने का ऐसा मतलब तो जैन आचार्य भी नहीं मानते। जैन आचार्यों को पता है कि मुसलमानों में नंगे बदन घूमना अधर्म और पाप माना जाता है लेकिन इसके बावुजूद वे मुसलमानों मुहल्लों से नंगे बदन ही गुज़रते हैं। उन्होंने कभी यह नहीं किया कि वे मुसलमानों की भावना का ध्यान रखते हुए कपड़े पहनकर निकल जाया करते। देवबन्द के आलिमों ने गाय के बजाय दूसरे जानवर की क़ुरबानी करने के लिए कहा है न कि क़ुरबानी को पूरी तरह बन्द करने के लिए।
5. आप सूरा ए कौसर पढ़ लीजिए।
6. शंकराचार्य जी का वेदभाष्य पढ़ लीजिए। आपको पता चल जाएगा कि वह जैन मंदिरों को क़ब्ज़ाने के बाद क्या शिक्षा दिया करते थे।
7. शंकराचार्य जी वैदिक यज्ञों में पशुबलि का समर्थन करते थे। यह बात उनके वेद भाष्य से सिद्ध है। आप उसे पढ़ लीजिए।
8. आप मनुस्मृति के एक श्लोक पर ही क्यों अटक कर रह गए। मनुस्मृति के पांचवे अध्याय में पशुबलिक का विधान देखिए। आपको पूरा ब्यौरा मिल जाएगा।
9. योगशास्त्र की वही बात मानी जाएगी जो कि वेदानुकूल होगी। वैसे भी वेदानुसार की गई हिंसा वास्तव में अहिंसा ही होती है। ऐसा वेद विद्वानों ने कहा है कि वैदिकी हिंसा हिंसा न भवतिः
10. यजुर्वेद 25/7 का अनुवाद आपके सामने है। अगर आप इससे सहमत नहीं हैं तो आप बताईये कि इस मंत्र का सही अनुवाद आपकी नज़र में क्या है? बिना प्रमाण दिए दावा मत कीजिए कि इस मंत्र में पशुबलि नहीं है।
11. दुनिया की समस्या कुपोषण भी है और खाद्यान्न की कमी भी। रोटी के साथ मांस के कॉम्बिनेशन से ये दोनों समस्याएं हल करके हमारे ऋषि पहले ही दिखा चुके हैं।
12. अच्छी नीति के अभाव में मांस महंगा हो गया है और लोगों के पास धन का अभाव।
13. ग़रीबों को संतुलित आहार की और प्रोटीन की ज़रूरत नहीं है। इसे जानने के लिए किसी सर्वे की ज़रूरत नहीं है। संतुलित आहार की ज़रूरत सबको है।
आपका शुक्रिया!
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Friday, October 4, 2013
क्या वेद 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हज़ार साल से ज़्यादा पुराने हैं? Vedas
धरती पर मानव का आगमन कब हुआ?
स्वामी दयानंद जी ने सृष्टि का आदि 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 52 हज़ार 9 सौ 76 वर्ष पुराना बताया है और मनुस्मृति को सृष्टि के आदि में होना माना है।
ये दोनों ही बातें ग़लत हैं।
हमारी आकाशगंगा की आयु वैज्ञानिकों के अनुसार 13.2 अरब वर्ष से ज़्यादा है और इससे भी ज़्यादा आयु वाली आकाशगंगाएं सृष्टि में मौजूद हैं। धरती की उम्र भी लगभग 4.54 अरब वर्ष है। वैज्ञानिकों धरती पर 1 अरब वर्ष पहले तक भी किसी मानव सभ्यता का चिन्ह नहीं मिला।
देखिए वैज्ञानिक तथ्यों को प्रदर्षित करता एक चित्र, जिसमें वैज्ञानिकों ने दर्शाया गया है कि एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पहले धरती पर मनुष्य नहीं पाया जाता था।
ये दोनों ही बातें ग़लत हैं।
हमारी आकाशगंगा की आयु वैज्ञानिकों के अनुसार 13.2 अरब वर्ष से ज़्यादा है और इससे भी ज़्यादा आयु वाली आकाशगंगाएं सृष्टि में मौजूद हैं। धरती की उम्र भी लगभग 4.54 अरब वर्ष है। वैज्ञानिकों धरती पर 1 अरब वर्ष पहले तक भी किसी मानव सभ्यता का चिन्ह नहीं मिला।
देखिए वैज्ञानिक तथ्यों को प्रदर्षित करता एक चित्र, जिसमें वैज्ञानिकों ने दर्शाया गया है कि एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पहले धरती पर मनुष्य नहीं पाया जाता था।
स्वामी जी सृष्टि की उत्पत्ति का काल जानने में भी असफल रहे
‘चारों वेद सृष्टि के आदि में मिले।’ स्वामी जी ने बिना किसी प्रमाण के केवल यह कल्पना ही नहीं की बल्कि उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, अथ वेदोत्पत्तिविषयः, पृष्ठ 16 पर यह भी निश्चित कर दिया कि वेदों और जगत की उत्पत्ति को एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ष हो चुके हैं।
स्वामी जी इस काल गणना को बिल्कुल ठीक बताते हुए कहते हैं-
‘चारों वेद सृष्टि के आदि में मिले।’ स्वामी जी ने बिना किसी प्रमाण के केवल यह कल्पना ही नहीं की बल्कि उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, अथ वेदोत्पत्तिविषयः, पृष्ठ 16 पर यह भी निश्चित कर दिया कि वेदों और जगत की उत्पत्ति को एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ष हो चुके हैं।
स्वामी जी इस काल गणना को बिल्कुल ठीक बताते हुए कहते हैं-
‘...आर्यों ने एक क्षण और निमेष से लेके एक वर्ष पर्यन्त भी काल की सूक्ष्म और स्थूल संज्ञा बांधी है।’ (ऋग्वेदादिभाष्य., पृष्ठ 17)यह बात सृष्टि विज्ञान के बिल्कुल विरूद्ध है।
‘जो वार्षिक पंचांग बनते जाते हैं इनमें भी मिती से मिती बराबर लिखी चली आती है, इसको अन्यथा कोई नहीं कर सकता।’ (ऋग्वेदादिभाष्य., पृष्ठ 19)
स्वामी जी ज्योतिष के फलित को ग़लत और उसके गणित को सही माना है। वह ज्योतिष की काल गणना पर विश्वास करके धोखा गए। बाद के वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला कि जगत और मनुष्य की उत्पत्ति के विषय में आर्य ज्योतिषियों की काल गणना बिल्कुल ग़लत है। स्वामी जी कह रहे हैं कि आर्यों ने एक एक क्षण का हिसाब ठीक से सुरक्षित रखा है लेकिन हक़ीक़त यह है कि आर्यों ने सृष्टि की जो काल गणना की है, उसमें 11 अरब वर्ष से ज़्यादा की गड़बड़ है।
वेदों का काल जानने में भी असफल रहे स्वामी जी
सही जानकारी के अभाव में उन्होंने यह कल्पना कर ली कि चारों वेद परमेश्वर की वाणी हैं। परमेश्वर ने सृष्टि के आरंभ में एक एक ऋषि के अंतःकरण में एक एक वेद का प्रकाश किया। अपनी इस कल्पना की पुष्टि में उन्हें कोई प्रमाण न मिला। तब उन्होंने शतपथ ब्राह्मण से एक उद्धरण दिया और उसका अर्थ अपनी कल्पना से यह बनाया-
‘अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः।।शत.।।
प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक एक वेद का प्रकाश किया।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तमसमुल्लास, पृष्ठ 135)
इस श्लोक में ‘प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा द्वारा’ वेद देने की बात नहीं आई है। स्वामी जी ने अपनी कल्पना को इस श्लोक में आरोपित करके यह अर्थ निकाला है। इस श्लोक में चौथे ऋषि अंगिरा को एक वेद मिलने की बात नहीं आई है। यह भी स्वामी जी की कल्पना है।
जो बात इस श्लोक में कही गई है। वह स्वामी जी ने बताई नहीं। इस श्लोक में अग्नि का संबंध ऋग्वेद से, यजुर्वेद का संबंध वायु से और सामवेद का संबंध सूर्य से दर्शाया गया है। यह संबंध स्वामी जी ने अपने अनुवाद या भावार्थ में दर्शाया ही नहीं।
वेदों का सही अर्थ न जानने के कारण स्वामी दयानंद जी यह भी नहीं जान पाए कि वेदों की रचना कब और कैसे हुई ?
हमारा मक़सद स्वामी जी के कामों में कमियां निकालना नहीं है लेकिन हमें वास्तव में पता होना चाहिए कि वेदों की रचना किसने की, कब की और उनकी रचना करने वाले ऋषियों का इतिहास क्या था?
सही जानकारी के अभाव में उन्होंने यह कल्पना कर ली कि चारों वेद परमेश्वर की वाणी हैं। परमेश्वर ने सृष्टि के आरंभ में एक एक ऋषि के अंतःकरण में एक एक वेद का प्रकाश किया। अपनी इस कल्पना की पुष्टि में उन्हें कोई प्रमाण न मिला। तब उन्होंने शतपथ ब्राह्मण से एक उद्धरण दिया और उसका अर्थ अपनी कल्पना से यह बनाया-
‘अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः।।शत.।।
प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक एक वेद का प्रकाश किया।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तमसमुल्लास, पृष्ठ 135)
इस श्लोक में ‘प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा द्वारा’ वेद देने की बात नहीं आई है। स्वामी जी ने अपनी कल्पना को इस श्लोक में आरोपित करके यह अर्थ निकाला है। इस श्लोक में चौथे ऋषि अंगिरा को एक वेद मिलने की बात नहीं आई है। यह भी स्वामी जी की कल्पना है।
जो बात इस श्लोक में कही गई है। वह स्वामी जी ने बताई नहीं। इस श्लोक में अग्नि का संबंध ऋग्वेद से, यजुर्वेद का संबंध वायु से और सामवेद का संबंध सूर्य से दर्शाया गया है। यह संबंध स्वामी जी ने अपने अनुवाद या भावार्थ में दर्शाया ही नहीं।
वेदों का सही अर्थ न जानने के कारण स्वामी दयानंद जी यह भी नहीं जान पाए कि वेदों की रचना कब और कैसे हुई ?
हमारा मक़सद स्वामी जी के कामों में कमियां निकालना नहीं है लेकिन हमें वास्तव में पता होना चाहिए कि वेदों की रचना किसने की, कब की और उनकी रचना करने वाले ऋषियों का इतिहास क्या था?
हमारी कोशिश का मक़सद
वेद किसी की बपौती नहीं हैं। वेद सबके हैं। हम वेदों का आदर करते हैं। हम महान सत्कर्मी ऋषियों का भी आदर करते हैं। हम स्वामी दयानन्द जी का भी अनादर नहीं करते। उनके प्रयास से वेद भारत में सबको सुलभ हुए। उनके इस काम की तारीफ़ होनी चाहिए लेकिन उन्होंने वेदों के बारे में जो कुछ समझ लिया है। वह सब सही नहीं है।
उन्हें वेदों के बारे में शोध करने का बहुत ज़्यादा समय भी नहीं मिल पाया। जो जानकारियां आज हमें उपलब्ध हैं। वह उन्हें अपने ज़माने में सुलभ नहीं थीं। उनकी मेहनत को सामने रखते हुए हमें भी अपने हिस्से की कोशिश ज़रूर करनी चाहिए। हमारी कोशिश का मक़सद यही है।
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इस विषय पर हुई चर्चा को देखने के लिये क्लिक करें-
क्या वेद 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हज़ार साल से ज़्यादा पुराने हैं?
Tuesday, October 1, 2013
क्या मनुस्मृति 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 52 हज़ार 9 सौ 76 वर्ष पुरानी है?
स्वयंभू मनु पहले मनुष्य हैं। सारी धरती पर बसने वाले मनुष्य उसी एक पिता की सन्तान हैं। उस पिता को मनु कहा जाता है। मनुष्य शब्द में मनु जी का नाम समाहित है। उनका नाम न आए तो मनुष्य अपनी पहचान भी न जान पाए। अंग्रज़ी में मनुष्य को मैन कहा जाता है। इसमें भी मनु के नाम के 3 अक्षर मौजूद हैं। हिब्रू और अरबी में उन्हें आदम कहा जाता है और उनकी औलाद को बनी आदम कहा जाता है। आदम नाम की धातु ‘आद्य’ संस्कृत में आज भी पाई जाती है। वास्तव में स्वयंभू मनु और आदम एक ही शख्सियत के दो नाम हैं।
संस्कृत में मनुस्मृति के नाम से उनकी शिक्षाओं का एक संकलन भी मिलता है लेकिन वास्तव में यह उनकी शिक्षाओं का संकलन नहीं है। यह जानने के लिए हमें इसके रचनाकाल पर विचार करना होगा।
स्वामी दयानन्द जी ने वेद की भांति मनुस्मृति को भी सृष्टि के आदि में हुआ माना है। सृष्टि के आदि विषय में स्वामी जी ने बताया है। जो कि ग़लत है।
स्वामी दयानन्द जी ने वेद की भांति मनुस्मृति को भी सृष्टि के आदि में हुआ माना है। सृष्टि के आदि विषय में स्वामी जी ने बताया है। जो कि ग़लत है।
¤ मनुस्मृति को एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ड्ढ पुराना मानना ग़लत है
‘यह मनुस्मृति जो सृष्टि के आदि में हुई है’ (सत्यार्थप्रकाश,एकादशसमुल्लास,पृ.187)
‘यह जो वर्त्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें (7) वैवस्त मनु का वर्त्तमान है, इससे पूर्व छः मन्वन्तर हो चुके हैं। स्वायम्भव 1, स्वारोचिष 2, औत्तमि 3, तामस 4, रैवत 5, चाक्षुष 6, ये छः तो बीत गए हैं और सातवां वैवस्वत वर्त्त रहा है.’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, अथ वेदोत्पत्ति., पृ.17)
स्वामी जी ने बताया है कि एक मन्वन्तर में 71 चतुर्युगियां होती हैं। एक चतुर्युग में सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होते हैं। सतयुग में 1728000 वर्ष, त्रेता में 1296000 वर्ष, द्वापर में 864000 वर्ष और कलियुग में 432000 वर्ष होते हैं। इन चारों युगों में कुल 4320000 वर्ष होते हैं। 71 चतुर्युगियों में कुल 306720000 वर्ष होते हैं। छः मन्वन्तर अर्थात 1840320000 वर्ष पूरे बीत चुके हैं और अब सातवें मन्वन्तर की 28वीं चतुर्युगी चल रही है। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका लिखे जाते समय तक सातवें मन्वन्तर के भी 120532976 वर्ष बीत चुके थे। इस तरह स्वामी जी के अनुसार उस समय तक स्वयंभू मनु को हुए कुल 1960852976 वर्ष, एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ष बीत चुके थे।
स्वामी जी ने जो काल स्वयंभू मनु का बताया है, उस समय धरती पर मानव सभ्यता नहीं पाई जाती थी। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। इसलिए मनु स्मृति को स्वयंभू मनु से जोड़ना ग़लत है। उसमें जो श्लोक मनु के नाम से कहे गए हैं, वास्तव में उन्हें किसी और ने उनके नाम से लिखा है। मनु स्मृति का स्वयंभू मनु से कोई संबंध ही नहीं है। यही कारण है कि मनु स्मृति से स्वयंभू मनु के धर्म का पता लगाना संभव नहीं है। पाठक उससे जिस वर्ण व्यवस्था का पता लगाएंगे, उसका पालन करना संभव नहीं है।
हालाँकि स्वामी दयानंद जी ने मनु स्मृति को प्रक्षिप्त मानकर उसके कुछ श्लोकों को नहीं माना है लेकिन उन्होंने उसके जिन श्लोकों को मनु का समझ लिया। वे भी प्रक्षिप्त हैं और बाक़ी का भी कुछ पता नहीं है कि उन्हें कब और किसने लिखा है?
इस सत्य को न जानने के कारण ही स्वामी जी ने मनु स्मृति की वर्ण व्यवस्था को धर्म समझ लिया और वह उसमें बताई गई ऊँचनीच और छूतछात के नियमों का कड़ाई से पालन करते रहे। इसी प्रक्षिप्त मनु स्मृति के आधार पर वह मानते हैं कि धर्म के अनुसार दासीपुत्र को मंत्री नहीं बनाया जा सकता। इन बातों को वह ऋषियों का धर्म बताते हैं। अन्याय की बात को धर्म बताकर वह लोगों को ऋषियों की और उनके धर्म की निंदा करने का अवसर देते हैं। यह बात वह क्यों न समझ पाए कि ये बातें मनु स्मृति में क्षेपक हैं?
इन बातों को हटा दिया जाए तो वैदिक धर्म और इसलाम में कोई मूलभूत अन्तर शेष नहीं रह जाता।
हमारा मक़सद स्वामी दयानन्द जी की ग़लती पकड़ना नहीं है बल्कि यह बताना है कि हम सबके आदि पिता के नाम से जो ग्रन्थ मशहूर है। उसमें उनके द्वारा कहे गए श्लोक नहीं हैं। उसमें कही गई बातों की ज़िम्मेदारी स्वयंभू मनु पर आयद नहीं होती।
दलित-वंचित बन्धु इस तथ्य पर दूसरों से ज़्यादा ध्यान देने की कृपा करें। अज्ञान के कारण अपने आदि पिता को अपमानजनक शब्द कहने से बचें और तलाश करें कि उनके नाम से मनुस्मृति किन लोगों ने किस काल में लिखी है?
सवर्ण भाईयों से विनती है कि वे हमारे इस प्रयास में हमारी मदद करें ताकि मनु का शुद्ध धर्म मानव जाति के सामने आ सके। उसी के पालन में हम सबका कल्याण और उद्धार है।
धर्म और अध्यात्म के नाम पर दुकानदारी और पाखण्ड अब ख़त्म होना ही चाहिए।
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इस पोस्ट पर विचार विमर्श देखने के लिए आप हमारा ब्लॉग ‘बुनियाद’ पर तशरीफ़ लाने की मेहरबानी करें।
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