सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Wednesday, February 27, 2013
Adhyatm सच्चा गुरू कौन है और उसे कैसे पहचानें ? भाग 2
हरेक गुरू ने अलग अलग चीज़ों का त्याग करना बताया और उनका स्तर भी अलग अलग ही बताया।
इनमें से किसने ठीक बताया है ?,
यह भी एक प्रश्न है।
जितने लोगों को आज गुरू माना जाता है। वे ख़ुद जीवन भर दुखी रहे और जिसने भी उनके रास्ते पर चलने की कोशिश की उस पर भी दुख का पहाड़ टूट पड़ा। बुरे लोगों ने गुरू और उनके शिष्यों को ख़ूब सताया। बुरे लोगों ने गुरूओं और उनके शिष्यों के प्राण तक लिए हैं। अच्छे लोगों ने संसार का त्याग किया तो बुरे लोगों ने संसार पर राज्य किया। इस तरह संसार का त्याग करने वाले बुरे लोगों के रास्ते से ख़ुद ही हट गए और बुरे लोगों ने समाज का डटकर शोषण किया। संसार का त्याग करने से न तो अपना दुख नष्ट हुआ और न ही समाज का।
यह और बात है कि किसी ने अपने अहसास को ही ख़त्म कर लिया हो। उसकी बेटी विधवा हुई हो तो वह रोया न हो। उसने अपनी बेटी के दुख को अपने अंदर महसूस ही न किया हो कि उसकी बेटी पर क्या दुख गुज़रा है ?
उसके घर में कोई जन्मा हो तो वह ख़ुश न हुआ हो। उसके घर में कोई मर भी जाए तो वह दुखी न होगा। उसका मन संवेदना जो खो चुका है। वह अपने मन में ख़ुशी और दुख के हरेक अहसास को महसूस करना बंद कर चुका है। उसमें और एक पत्थर में कोई फ़र्क़ नहीं बचा है। अब वह एक चलते फिरते पत्थर में बदल चुका है। ऐसे लोग परिवार छोड़ कर चले जाते हैं या परिवार में रहते भी हैं तो उनकी मनोदशा असामान्य बनी रहती है।
जब तक हमारी खाल तंदरूस्त है, वह ठंडक और गर्मी को महसूस करती है। उसके ऐसा करने से हमें दुख अनुभव होता है। वह ऐसा करना बंद कर दे। हममें से यह कोई भी न चाहेगा क्योंकि इसका मतलब है रोगी हो जाना लेकिन दिल को सुख दुख का अहसास बंद हो जाए, इसके लिए लोगों ने ज़बर्दस्त साधनाएं कीं। जो विफल रहे वे तो नाकाम ही रहे और जिनकी साधना सफल हुई, वे उनसे भी ज़्यादा नाकाम रहे। उनके दिल से सुख दुख का अहसास जाता रहा।
सुख दुख का अहसास है तो आप चंगे हैं। दुख मिटाने की कोशिश में आपका दिल संवेदना खो देगा। तब आप न ख़ुशी में ख़ुश होंगे और न दुख में दुखी होंगे। आप समझेंगे कि मुझे ‘सम‘ अवस्था प्राप्त हो गई है लेकिन हक़ीक़त में मानवीय संवेदना की स्थिति जो आपको प्राप्त थी, आपने उसे खो दिया है।
इच्छा, कामना, तृष्णा और संबंध दुख देते हैं तो दें। इन्हें छोड़कर दुख से मुक्ति मिलती है तो उस मुक्ति का अचार डालना है क्या ?
हम किसी के उपयोग के न बचें, जगत की किसी वस्तु का हम उपयोग न करें और अगर करें तो उसमें लिप्त न हों।
इस सबका लाभ क्या है ?
दुख से मुक्ति ?
वह संभव नहीं है।
कोई बुरा आदमी हमें न भी सताए, तब भी औरत बच्चे को जन्म देगी तो उसे दुख अवश्य होगा। दुख हमेशा हमारे कर्म में लिप्त होने से ही उत्पन्न नहीं होता। दुख हमारे जीवन का अंग है। परमेश्वर ने हमारे जीवन को ऐसा ही डिज़ायन किया है।
परमेश्वर ने हमारे जीवन को ऐसा क्यों बनाया है ?
परमेश्वर हमें न बताए तो हम इस सत्य को जान नहीं सकते। जीवन के सत्य को जानने के लिए हमें परमेश्वर की ज़रूरत है क्योंकि सत्य का ज्ञान केवल उसी सर्वज्ञ को है। मनुष्य का गुरू वास्तव में सदा से वही है।
सच्चा गुरू वह है जो जीने की राह दिखाता है। सच्चा गुरू आपको इसी समाज में जीना सिखाएगा। वह आपको पत्नी और परिवार के प्रति संबंधों का निर्वाह सिखाएगा। परिवार को छोड़कर भागना वह न सिखाएगा। सन्यास को वह वर्जित बताएगा। वह आपको जज़्बात में जीना सिखाएगा। वह आपके दिल की सेहत को और बढ़ाएगा। वह सुख और दुख को महसूस करना और उस पर सही प्रतिक्रिया देना सिखाएगा। वह आपको काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ने के लिए नहीं कहेगा। वह इनका सकारात्मक उपयोग सिखाएगा। ज़हर का इस्तेमाल दवा के रूप में भी होता है। वह हमें अपने दुखों की चिंता छोड़कर दूसरों के दुख में काम आना सिखाएगा। वह अपनी वाणी में यह सब विस्तार से बताएगा। अपनी वाणी के साथ वह उसके अनुसार व्यवहार करने वाले एक मनुष्य को भी लोगों का आदर्श बनाएगा ताकि लोग जान लें कि क्या करना है और कैसे करना है ?
परमेश्वर अपने ज्ञान के कारण स्वयं गुरू है और आदर्श मनुष्य उसके ज्ञान के कारण और उसके द्वारा चुने जाने के कारण गुरू है। लोग ईश्वर की वाणी को भी परख सकते हैं और उसके द्वारा घोषित आदर्श व्यक्ति को भी। परमेश्वर के कर्म भी हमारे सामने हैं और आदर्श मनष्य के कर्म भी। प्रकृति ओर इतिहास दोनों हमारे सामने हैं।
सच्चे गुरू को पाना बहुत आसान है लेकिन उसके लिए पक्षपात और पूर्वाग्रह छोड़ना पड़ेगा। दुनिया में जितने लोगों ने मनुष्य को जीवन का मक़सद और उसे पाने का तरीक़ा बताया है। आप उन सबके कामों पर नज़र डालिए और देखिए कि
1. वे ख़ुद समाज के कमज़ोर और दुखी लोगों के दुख में काम कैसे आए और कितना आए ?
2. और उन्होंने एक इंसान को दूसरे इंसान के काम आने के लिए क्या सिखाया ?
3. और उन्होंने अपने बीवी-बच्चों की देखभाल का हक़ कैसे अदा किया ?
उनमें से जिसने यह काम सबसे बेहतर तरीक़े से किया होगा, उसने अपने अनुयायियों का साथ एक दोस्त की तरह ही दिया होगा और उनके भीतर छिपी समझ को भी उन्होंने जगाया होगा और तब उनके दिल की गहराईयों में जो घटित हुआ होगा, उसे बेशक आत्मबोध कहा जा सकता है। आत्मबोध से आपको अपने कर्तव्यों का बोध होगा और उन्हें करने की भरपूर ऊर्जा मिलेगी। उन कर्तव्यों के पूरा होने से आपके परिवार और समाज का भला होगा। किसी के कर्म देखकर ही उसके मन की गहराईयों के विचारों को जाना जा सकता है कि उसके मन में सचमुच ही ‘आत्मबोध‘ घट चुका है।
इसी के बाद आदमी को ज्ञान होता है कि किस चीज़ को कितना और कैसे त्यागना है और क्यों त्यागना है ?
और किस चीज़ को कितना और कैसे भोगना है और क्यों भोगना है ?
जगत का उपभोग यही कर पाते हैं और यह जगत बना भी इसीलिए है। दुनियावी जीवन को सार्थक करने वाले यही लोग हैं। यही लोग सीधे रास्ते पर हैं और यही लोग सफलता पाने वाले हैं।
Tuesday, February 26, 2013
सच्चा गुरू कौन है और उसे कैसे पहचानें ? Spirituallity
यह एक प्रश्न है जिस पर हमेशा ही विचार किया गया है। आदरणीय चैतन्य नागर जी ने अपने एक लेख ‘धार्मिक सर्कस में गुरूओं का तांडव‘ में भी यही प्रश्न उठाया है। उनके लेख को पढ़कर यह जाना जा सकता है कि आज ख़ास व आम हरेक आदमी धर्म, मत और संप्रदायों के गुरूओं के कारण कितना ज़्यादा चकराया हुआ है। आदरणीय चैतन्य नागर जी कहते हैं कि
अलग-अलग धर्मों, सिद्धान्तों, मतों, विचारों, सम्प्रदायों के कई रंगरूप और मुद्राओं वाले गुरु चैबिसों घंटे अपनी बातें दोहराते आपको दिख जाएंगे। धर्म में रुचि रखने वाला कोई व्यक्ति यदि इन सभी गुरुओं की बातों पर गौर करे तो उसके मन में शंका, भ्रम और प्रश्नों का जो बवंडर उठ खड़ा होगा उसे सम्भाल पाना उसके लिए मुश्किल हो जाएगा। यहां किसी विशेष संप्रदाय, धर्म या मत से जुड़े किसी गुरु, व्यक्ति या अनुयायी के बारे कोई टिप्पणी नहीं की जा रही है। सिर्फ आध्यात्मिकता के वर्तमान स्वरूप, उसके अर्थ और उससे जुड़े लोगों की मानसिकता के बारे में कुछ सवाल किए जा रहे हैं। ऐसे सवाल जो हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक और धार्मिक जीवन से जुड़े हैं।
कई प्रश्न हैं: गुरु और शिष्य के बीच विभाजन और दूरी का आधार क्या है? शास्त्रों का ज्ञान? कोई अतीन्द्रिय ताकत? कोई चमत्कार? क्या शास्त्रों को पढ़कर और उनकी व्याख्या करके कोई व्यक्ति गुरु बन सकता है? आप कैसे पता करेंगे कि कोई व्यक्ति वास्तव में गुरु बनने के योग्य है? उसके अनुयायियों की संख्या के आधार पर या फिर इस उम्मीद से कि शायद उसके पास सत्य की कुंजी होगी? यदि आप यह जानते हैं कि किसी व्यक्ति के पास सत्य है तो फिर इसका अर्थ यह हुआ कि आपको भी पता है कि सत्य क्या है। और जब आप यह जानते ही हैं कि सत्य क्या है तो फिर किसी गुरु शरण में जाने की आपको जरूरत ही क्या है ?
आदरणीय नागर जी केवल प्रश्न ही खड़ा नहीं करते बल्कि उसका जवाब भी सुझाते हैं। वह कहते हैं कि
हमारी इस प्रवृत्ति का शोषण करने वाले कई लोग है जो हमारे और सत्य के बीच एजेंट होने का दावा करते हैं। हम सीधे खुद को समझने की कोशिश करने के बजाए किसी आसान शॉर्टकट में ज्यादा रुचि रखते हैं।
मेरे विचार से सही गुरु वह है जो दोस्त की तरह आपका हाथ थामे आपसे बतचीत करे और आपके भीतर छिपी हुई समझ को जगाने की कोशिश करे। आत्मबोध की यात्रा पूरी तरह से एक ऐसी यात्रा है जो हमारे मन की गहराइयों में घटित होती है। जहां आप अकेले होते हैं अपनी खामोशी के साथ, जिन्दगी से जुड़े अपने सवालों के साथ।
बेशक चैतन्य नागर जी ने एक अच्छा लेख लिखा है लेकिन उनके लेख से मूल प्रश्न हल नहीं होता बल्कि कुछ नए प्रश्न ज़रूर खड़े हो जाते हैं।
1. चैतन्य नागर जी ने दोस्त की तरह हाथ थामने वाले को ‘सही गुरू‘ माना है। किसी गुरू के ‘सही‘ होने का यह कोई आधार नहीं है। ग़लत क़िस्म के गुरू भी दोस्त की तरह हाथ थाम लेते हैं। अगर श्रद्धालु कोई लड़की है तो उसका हाथ तो ग़लत गुरू सदैव ‘फ़्रेंड‘ की तरह ही थामता है।
2. दूसरा प्रश्न यह है कि मन की गहराईयों में बहुत कुछ घटित होता है। वहां ‘आत्मबोध‘ ही घटित हो रहा है, यह कैसे पता चलेगा ?
3. नागर जी ने सही गुरू मिलने और मन की गहराईयों में आत्मबोध घटित होने का प्रभाव ‘दुख से मुक्ति‘ माना है। ?
क्या मानव जाति के पूरे इतिहास में कोई दौर ऐसा गुज़रा है कि मनुष्य समाज दुख से मुक्ति पा सका हो ?
नहीं ! मनुष्य समाज कभी 100 या 10 या 1 वर्ष के लिए भी मुक्ति न पा सका, चाहे उन्होंने बिल्कुल सही गुरू से ही शिक्षा क्यों न पाई हो, तब भी !
अपनी इच्छा को ख़त्म करने की इच्छा भी एक इच्छा है। इच्छा ख़त्म नहीं हो सकती।
निष्काम भाव से कर्म करने की कामना भी एक कामना ही है। कामना का नाश संभव नहीं है.
जितने लोग यह सब सिखा रहे हैं। वे एक ऐसी बात सिखा रहे हैं, जो इस दुनिया में न कभी घटित हुई और न ही कभी घटित होगी। असफलता पहले से निश्चित है। असफलता के मार्ग पर चलने वाले कभी सफलता का मार्ग नहीं दिखा सकते।
सच्चा गुरू इनके दायरे से अलग ही मिलेगा। जीवन का मक़सद वही बताएगा और वह जीवन का मक़सद दुख से मुक्ति या आवागमन के दुखदायक चक्र से मुक्ति के अलावा कुछ और ही बताएगा। यह उसका मूल लक्षण है।
अधिकतर लोग किसी का त्याग देखकर उसे गुरू बना लेते हैं। लोग सोचते हैं कि इसके दिल में लालच नहीं है। यह ज़रूर सही आदमी होगा। देखो, इसने बीवी-बच्चे, घर-बार और संसार का हरेक ऐशो आराम छोड़ दिया है। इसे गुरू बना लो। यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं है कि जिसने संसार त्याग दिया हो, उसे ज्ञान भी हो और यह भी ज़रूरी नहीं है कि जिसे ज्ञान हो, उसने संसार त्याग दिया हो।
(जारी ...)
Thursday, February 21, 2013
मनु और आद्या: जोड़ा जो स्वर्ग में बना Manu : The very first man
प्रथम भाग ‘देखिए मनु की उत्पत्ति और उनके विवाह का वर्णन, वेद में‘, से आगे पढ़ें और आगे बढ़ें-
मनु का अथर्ववेद 11वाँ काँड, 8वें सूक्त में बड़ा सुंदर वर्णन है। इसमें कुछ मुख्य बिन्दु ध्यान देने योग्य हैं कि
1. उन्हें मन्यु कहा गया है और उनकी पत्नी को जाया और आद्या कहा गया है।
2. उनका विवाह संकल्प के घर में होना बताया गया है।
3. वह पहले मनुष्य थे। इसीलिए उनके विवाह में कोई मनुष्य शामिल न हुआ, न वर पक्ष की ओर से और न ही कन्या पक्ष की ओर से।
4. तब केवल तप और कर्म ही दोनों ओर से मौजूद थे अर्थात मनु और आद्या दोनों ही तप और कर्म के गुणों से युक्त थे।
5. इस विवाह को ब्रह्म ने संपन्न किया था।
6. यह उस जगह की बात है जहाँ ऋतुएं नहीं थाीं।
7. यह वर्तमान पृथ्वी से पूर्व विगत पृथ्वी की बात है।
8. तब धाता, इन्द्र, बृहस्पति और अश्विनी कुमार आदि भी पैदा नहीं हुए थे।
9. जो विद्वान विगत पृथ्वी में वर्तमान वस्तुओं के नाम जानने वाला है, वही इस पृथ्वी को जानने में समर्थ है।
10. विगत पृथ्वी को केवल महर्षि ही जानते हैं।
11. बिना माता पिता के विधाता ने मनु का शरीर कैसे बनाया ?, उसका यह कर्म उसकी महान शक्ति का परिचायक है कि उसने मनु के बाल, हड्डियाँ, नसें और माँस मज्जा कैसे बनाईं ?
उसने यह सब अपनी ‘निजी शक्ति‘ से किया।
सिर, मुंह, कंधे, पसलियाँ, पीठ, जंघांएं, घुटने और पाँवों को इतने सुंदर तरीक़े से किसने जोड़ा ?, इन्हें जोड़ने वाला भी वही ब्रह्म है।
सिर, हाथ, मुंह, गला, जीभ और हड्डियों को सुंदर खाल से ढककर कर्म करने योग्य किसने बनाया ?, यह भी उसी ब्रह्म ने किया।
इस शरीर के अलग अलग अंगों को अलग अलग रंग देकर सुंदर किसने बनाया ?, यह काम भी उसी ब्रह्म ने बनाया।
12. मनु का यह शरीर इतना सुंदर था कि सभी देवता उनके समीप रहना चाहते थे।
13. इस संसार के बनाने वाले ने इस संसार को देखने के लिए मनु को नेत्र और कान आदि भी दिए। उसने उन्हें भोगने के लिए प्राण, अपान और इन्द्रियाँ भी दीं। इन सबका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि सपने, नींद, आलस्य, निर्ऋति और पाप भी उसके अंदर उत्पन्न हो गए। आयु को कम करने वाली जरा, चक्षु, मन, खालित्य, पालित्य भी उपस्थित हो गए।
14. मनु की देह में चोरी, दुष्कर्म, पाप, सत्य, यज्ञ, महान, बल, क्षात्रधर्म और ओज आदि सकारात्मक और नकारात्मक, सब तरह की प्रवृत्तियाँ भी रख दी गईं।
मनु का अथर्ववेद 11वाँ काँड, 8वें सूक्त में बड़ा सुंदर वर्णन है। इसमें कुछ मुख्य बिन्दु ध्यान देने योग्य हैं कि
1. उन्हें मन्यु कहा गया है और उनकी पत्नी को जाया और आद्या कहा गया है।
2. उनका विवाह संकल्प के घर में होना बताया गया है।
3. वह पहले मनुष्य थे। इसीलिए उनके विवाह में कोई मनुष्य शामिल न हुआ, न वर पक्ष की ओर से और न ही कन्या पक्ष की ओर से।
4. तब केवल तप और कर्म ही दोनों ओर से मौजूद थे अर्थात मनु और आद्या दोनों ही तप और कर्म के गुणों से युक्त थे।
5. इस विवाह को ब्रह्म ने संपन्न किया था।
6. यह उस जगह की बात है जहाँ ऋतुएं नहीं थाीं।
7. यह वर्तमान पृथ्वी से पूर्व विगत पृथ्वी की बात है।
8. तब धाता, इन्द्र, बृहस्पति और अश्विनी कुमार आदि भी पैदा नहीं हुए थे।
9. जो विद्वान विगत पृथ्वी में वर्तमान वस्तुओं के नाम जानने वाला है, वही इस पृथ्वी को जानने में समर्थ है।
10. विगत पृथ्वी को केवल महर्षि ही जानते हैं।
11. बिना माता पिता के विधाता ने मनु का शरीर कैसे बनाया ?, उसका यह कर्म उसकी महान शक्ति का परिचायक है कि उसने मनु के बाल, हड्डियाँ, नसें और माँस मज्जा कैसे बनाईं ?
उसने यह सब अपनी ‘निजी शक्ति‘ से किया।
सिर, मुंह, कंधे, पसलियाँ, पीठ, जंघांएं, घुटने और पाँवों को इतने सुंदर तरीक़े से किसने जोड़ा ?, इन्हें जोड़ने वाला भी वही ब्रह्म है।
सिर, हाथ, मुंह, गला, जीभ और हड्डियों को सुंदर खाल से ढककर कर्म करने योग्य किसने बनाया ?, यह भी उसी ब्रह्म ने किया।
इस शरीर के अलग अलग अंगों को अलग अलग रंग देकर सुंदर किसने बनाया ?, यह काम भी उसी ब्रह्म ने बनाया।
12. मनु का यह शरीर इतना सुंदर था कि सभी देवता उनके समीप रहना चाहते थे।
13. इस संसार के बनाने वाले ने इस संसार को देखने के लिए मनु को नेत्र और कान आदि भी दिए। उसने उन्हें भोगने के लिए प्राण, अपान और इन्द्रियाँ भी दीं। इन सबका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि सपने, नींद, आलस्य, निर्ऋति और पाप भी उसके अंदर उत्पन्न हो गए। आयु को कम करने वाली जरा, चक्षु, मन, खालित्य, पालित्य भी उपस्थित हो गए।
14. मनु की देह में चोरी, दुष्कर्म, पाप, सत्य, यज्ञ, महान, बल, क्षात्रधर्म और ओज आदि सकारात्मक और नकारात्मक, सब तरह की प्रवृत्तियाँ भी रख दी गईं।
इन बिन्दुओं पर ध्यान देने से पता चलता है कि यह पहले मनुष्य की रचना का वर्णन हो रहा है। जिसे इस पृथ्वी पर नहीं रचा गया बल्कि इसके अलावा किसी और पृथ्वी पर रचा गया। तब न तो कोई मनुष्य था और न ही इन्द्र आदि देवता थे। पहले मनुष्य के शरीर को ब्रह्म ने स्वयं अपनी शक्ति से बनाया। इससे इस शरीर की महत्ता पता चलता है। देवताओं ने भी उसके समीप रहने की इच्छा की क्योंकि वे इस शरीर का महत्व जानते थे। उसी ब्रह्म ने प्राण और इन्द्रियाँ बनाईं। उसी ने मनु को विगत पृथ्वी की चीज़ों के नामों का ज्ञान दिया ताकि वह इस पृथ्वी की चीज़ों को इस्तेमाल कर सकें। नकारात्मक प्रवृत्तियों से रक्षा के लिए उसने मनु को सत्य, यज्ञ, बल और ओज भी दिया। भौतिक संसार के शत्रुओं से लड़ने लिए उसने मनु को क्षात्रधर्म से भी युक्त किया।
पहले मनुष्य की रचना के बाद ब्रह्म ने उनके लिए पहली औरत ‘आद्या‘ को उत्पन्न किया। मनु का आद्या से विवाह ब्रह्म ने स्वयं किया। इससे विवाह के महत्व का पता चलता है। इसीलिए कहा जाता है कि जोड़ा स्वर्ग में बनता है। लोग कहते तो हैं लेकिन जानते नहीं है कि स्वर्ग में सबसे पहला जोड़ा किसका बना था और यह कहावत कैसे चली ?
जो ईश्वरीय ज्ञान रखता है वह अथर्ववेद के इस सूक्त को देखकर यही कहेगा कि निस्संदेह इस सूक्त में ईश्वरीय ज्ञान है। कोई भी मनुष्य अपने अनुमान से यह नहीं बता सकता कि
1. पहले मनुष्य की रचना कहाँ हुई और किसने की ?,
2. उसका विवाह किससे हुआ और किसने किया ?
और यह कि
3. उसे ‘चीज़ों के नामों का ज्ञान‘ भी दिया गया था।
...और यह कहना तो और भी ज़्यादा अचंभित करता है कि
4. ये सब काम ‘संकल्प के घर‘ में हुए थे।
ये बातें केवल एक ईश्वर ही जानता है और वही बता सकता है। इसीलिए हम कहते हैं कि वेद में ईश्वरीय ज्ञान आज भी मौजूद है। यह ज्ञान आज भी अज्ञान को मिटाने में सक्षम है।
अथर्ववेद के इस सूक्त से मनुष्य जान सकता है कि उसके माता- पिता की उत्पत्ति कहाँ और किस उद्देश्य के लिए हुई थी और किसने की थी ?
उस विगत पृथ्वी पर उस रचनाकार ने क्या संकल्प लिया था ?
जो उस संकल्प को नहीं जानता, वह दुनिया में केवल भटकता ही रहता है।
वह ज़्यादा खा, पी और टहल सकता है लेकिन अपने जीवन के उद्देश्य को कभी पूरा नहीं कर सकता। जब वह जीवन का उद्देश्य जानता ही नहीं है तो पूरा क्या करेगा ?
पहले मनुष्य की रचना के बाद ब्रह्म ने उनके लिए पहली औरत ‘आद्या‘ को उत्पन्न किया। मनु का आद्या से विवाह ब्रह्म ने स्वयं किया। इससे विवाह के महत्व का पता चलता है। इसीलिए कहा जाता है कि जोड़ा स्वर्ग में बनता है। लोग कहते तो हैं लेकिन जानते नहीं है कि स्वर्ग में सबसे पहला जोड़ा किसका बना था और यह कहावत कैसे चली ?
जो ईश्वरीय ज्ञान रखता है वह अथर्ववेद के इस सूक्त को देखकर यही कहेगा कि निस्संदेह इस सूक्त में ईश्वरीय ज्ञान है। कोई भी मनुष्य अपने अनुमान से यह नहीं बता सकता कि
1. पहले मनुष्य की रचना कहाँ हुई और किसने की ?,
2. उसका विवाह किससे हुआ और किसने किया ?
और यह कि
3. उसे ‘चीज़ों के नामों का ज्ञान‘ भी दिया गया था।
...और यह कहना तो और भी ज़्यादा अचंभित करता है कि
4. ये सब काम ‘संकल्प के घर‘ में हुए थे।
ये बातें केवल एक ईश्वर ही जानता है और वही बता सकता है। इसीलिए हम कहते हैं कि वेद में ईश्वरीय ज्ञान आज भी मौजूद है। यह ज्ञान आज भी अज्ञान को मिटाने में सक्षम है।
अथर्ववेद के इस सूक्त से मनुष्य जान सकता है कि उसके माता- पिता की उत्पत्ति कहाँ और किस उद्देश्य के लिए हुई थी और किसने की थी ?
उस विगत पृथ्वी पर उस रचनाकार ने क्या संकल्प लिया था ?
जो उस संकल्प को नहीं जानता, वह दुनिया में केवल भटकता ही रहता है।
वह ज़्यादा खा, पी और टहल सकता है लेकिन अपने जीवन के उद्देश्य को कभी पूरा नहीं कर सकता। जब वह जीवन का उद्देश्य जानता ही नहीं है तो पूरा क्या करेगा ?
...और अति विनम्रता के साथ हम यह भी कहना चाहेंगे कि अगर हम न बताएं तो वह अथर्ववेद का यह सूक्त तो क्या चारों वेद पढ़कर भी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं जान सकता।
अगर ईश्वर ने ही स्वयं हमें न बताया होता तो हम भी न बता सकते। हक़ीक़त जानने वाला केवल वही एक परमेश्वर है। इसीलिए उसके लिए दिल की गहराईयों से यह भाव उठता है-
सुब्हान-अल्लाह अर्थात परमेश्वर पवित्र है।
अगर ईश्वर ने ही स्वयं हमें न बताया होता तो हम भी न बता सकते। हक़ीक़त जानने वाला केवल वही एक परमेश्वर है। इसीलिए उसके लिए दिल की गहराईयों से यह भाव उठता है-
सुब्हान-अल्लाह अर्थात परमेश्वर पवित्र है।
Thursday, February 7, 2013
ऋग्वेद के सूक्त एक सुदीर्घ काव्य-परंपरा के परिणाम हैं -Dr. Raju Ranjan Prasad
ऋग्वेद के वर्तमान रूप में जो सूक्त मिलते हैं, वे चाहे जब रचे गये हों, एक सुदीर्घ काव्य-परंपरा के परिणाम हैं।13 ऋग्वेद की रचना का जो भी समय निर्धारित किया जाये, मानना होगा कि ऋग्वैदिक काव्य-परंपरा की शुरुआत उससे बहुत पहले हो चुकी है।14 इसका प्रमाण स्वयं ऋग्वेद के कवि हैं। वे बार-बार अपने पूर्वज कवियों को याद करते हैं, पुरातन सूक्तों की तुलना में उनके स्तोत्र नये हैं, इस बात पर जोर देते हैं। ऋग्वेद के कवियों से पूर्व अथर्वा एवं पिता मनु हैं और इन्होंने पूर्वथा, पहले की तरह इन्द्र को लक्ष्य करके स्तोत्र रचे। उस इन्द्र को प्राचीन लोग (पूर्वथा) हमारे पूर्वज (इमथा विश्वथा) तथा आज के सभी जन स्तुति कर रहे हैं। स्तुति की परंपरा पूर्वजों से चली आ रही है।
ऋग्वेद के कवि अपनी काव्य-परंपरा के प्रति अत्यंत सचेत हैं। ‘हे घोड़ों के स्वामिन् इन्द्र! (ते पूर्व्यं स्तुतिं) तेरी पहले की गई स्तुति को कोई भी दूसरा बल से, न योग्यता से ही आज तक प्राप्त कर सका।’ यम को मधुर हवि अर्पित करते हुए कवि प्रथम मार्गदर्शक पूर्वजों को याद करता हैः ‘(पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पथिकृद्म्यः ऋषिभ्यः इदं नमः) पूर्वज और पूर्व मार्गदर्शक ऋषियों के लिए यह नमस्कार है।’ इसके बाद ही त्रिष्टुप, गायत्री तथा अन्य सब छंद यम देव से संबद्ध होते बताये गये हैं।
ऋग्वेद के कवियों ने त्रिष्टुप आदि छंदों का निर्माण नहीं किया, वे उन्हें भारतीय काव्य-परंपरा से प्राप्त हुए थे।15 पुराने कवियों के बहुत से छंद अवश्य उन्हें याद रहे होंगे। ‘वरुण की मनःपूर्वक की गई स्तुति से, (पितृणां च मन्मभिः) पितरों के स्तोत्रों से तथा नाभाक ऋषि की प्रशंसाओं से स्तुति करता हूँ ।’ यहां पूर्वज कवियों के स्तोत्रों की आवृति का स्पष्ट उल्लेख है। अवश्य ही उन्होंने पुराने स्तोत्रों से सामग्री लेकर उसे नया रूप दिया होगा। ‘(नवीयः कृयमाणं इदं ब्रह्म) नवीन किया जानेवाला यह स्तोत्र है, इसको आदित्य, वसु और रुद्र स्वीकार करें।’ पुराने को नया किया अथवा एक दम नया बनाया, दोनों अर्थ संभव हैं। (अंगिरस्वत्) अंगिरा के समान इन्द्र को नमन करते हुए ‘(नव्यं कृणोमि) नये-नये स्तोत्र बनाता हूं।’ इन्द्र के लिए कवि ‘(नवीयसीं मन्द्रागिरं अजीजनत्) नवीन और आनंददायक स्तुति को उत्पन्न करता है।’ यह ऋग्वेद की परंपरा है, यह भारतीय काव्य-परंपरा है।16
अनेक सूक्तों में सुदूर अतीत की झलक मिलती है।17 काण्वमेध्य ऋषि एक मंत्र में कहते हैं-बहुस्तुत सोम प्राचीनकाल से देवों का पेय है। अग्नि पूर्वकालीन और अधुनातन ऋषियों का पूज्य है।18 देवों का पूर्वकालिक ‘निविद’ के द्वारा आवाहित किया गया है। शुनःशेप प्राचीन पितरों से स्तुत इन्द्र की स्तुति करता है। कक्षीवान् ऋषि भयंकर इन्द्र से उसी नेतृत्व की कामना करता है जो प्राचीनकाल में था। कक्षीवान् के पिता दीर्घतमा प्राचीन ऋषि दधीचि, अंगिरा, प्रियमेध, काण्व, अत्रि तथा मनु का उल्लेख करता है। इन सूक्तों से सिद्ध होता है कि ऋषियों को सतत् अपने अतीत का स्मरण है। मैक्स मूलर ने भी यह स्वीकारा है कि ऋग्वेद में प्राचीन तथा अर्वाचीन सूक्त हैं।19 ऋषियों एवं उनके पुत्रों के सूक्त वेद में एकत्र मिलते हैं। इस प्रकार के निदर्शन विश्वामित्र तथा दीर्घतमा के पुत्रों मधुछन्दा एवं कक्षीवान् या कक्षीवत् में देखा जा सकता है। कई पीढ़ियों ने सूक्तों का निर्माण किया जिन्हें वेद में स्थान मिला है।20
इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि सूक्तों की रचना और उनके संकलन के मध्य एक दीर्घकाल का प्रक्षेप है। अन्तःसाक्ष्यों से यह भी स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन सूक्तों में संस्कृति के अनेक स्तर मिलते हैं। एक सूक्त से ज्ञात होता है कि वैदिक जन पशुपालक थे। अन्यत्र राजा को हम हाथी पर आरूढ़ मंत्रियों से घिरा पाते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि कृषक समाज व्यवस्थित हो चुका था और राज्यसंस्था विकसित हो चुकी थी। विभिन्न सूक्तों में ‘सप्तसिंधु’ के उल्लेख के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की सरयू नदी का भी वर्णन मिलता है। मिट्टी के घरों एवं हजार खंभोंवाले प्रासाद का विवरण भी है।21
Source : http://dastavez.blogspot.in/2010/09/blog-post_23.html
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