सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Thursday, February 7, 2013
ऋग्वेद के सूक्त एक सुदीर्घ काव्य-परंपरा के परिणाम हैं -Dr. Raju Ranjan Prasad
ऋग्वेद के वर्तमान रूप में जो सूक्त मिलते हैं, वे चाहे जब रचे गये हों, एक सुदीर्घ काव्य-परंपरा के परिणाम हैं।13 ऋग्वेद की रचना का जो भी समय निर्धारित किया जाये, मानना होगा कि ऋग्वैदिक काव्य-परंपरा की शुरुआत उससे बहुत पहले हो चुकी है।14 इसका प्रमाण स्वयं ऋग्वेद के कवि हैं। वे बार-बार अपने पूर्वज कवियों को याद करते हैं, पुरातन सूक्तों की तुलना में उनके स्तोत्र नये हैं, इस बात पर जोर देते हैं। ऋग्वेद के कवियों से पूर्व अथर्वा एवं पिता मनु हैं और इन्होंने पूर्वथा, पहले की तरह इन्द्र को लक्ष्य करके स्तोत्र रचे। उस इन्द्र को प्राचीन लोग (पूर्वथा) हमारे पूर्वज (इमथा विश्वथा) तथा आज के सभी जन स्तुति कर रहे हैं। स्तुति की परंपरा पूर्वजों से चली आ रही है।
ऋग्वेद के कवि अपनी काव्य-परंपरा के प्रति अत्यंत सचेत हैं। ‘हे घोड़ों के स्वामिन् इन्द्र! (ते पूर्व्यं स्तुतिं) तेरी पहले की गई स्तुति को कोई भी दूसरा बल से, न योग्यता से ही आज तक प्राप्त कर सका।’ यम को मधुर हवि अर्पित करते हुए कवि प्रथम मार्गदर्शक पूर्वजों को याद करता हैः ‘(पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पथिकृद्म्यः ऋषिभ्यः इदं नमः) पूर्वज और पूर्व मार्गदर्शक ऋषियों के लिए यह नमस्कार है।’ इसके बाद ही त्रिष्टुप, गायत्री तथा अन्य सब छंद यम देव से संबद्ध होते बताये गये हैं।
ऋग्वेद के कवियों ने त्रिष्टुप आदि छंदों का निर्माण नहीं किया, वे उन्हें भारतीय काव्य-परंपरा से प्राप्त हुए थे।15 पुराने कवियों के बहुत से छंद अवश्य उन्हें याद रहे होंगे। ‘वरुण की मनःपूर्वक की गई स्तुति से, (पितृणां च मन्मभिः) पितरों के स्तोत्रों से तथा नाभाक ऋषि की प्रशंसाओं से स्तुति करता हूँ ।’ यहां पूर्वज कवियों के स्तोत्रों की आवृति का स्पष्ट उल्लेख है। अवश्य ही उन्होंने पुराने स्तोत्रों से सामग्री लेकर उसे नया रूप दिया होगा। ‘(नवीयः कृयमाणं इदं ब्रह्म) नवीन किया जानेवाला यह स्तोत्र है, इसको आदित्य, वसु और रुद्र स्वीकार करें।’ पुराने को नया किया अथवा एक दम नया बनाया, दोनों अर्थ संभव हैं। (अंगिरस्वत्) अंगिरा के समान इन्द्र को नमन करते हुए ‘(नव्यं कृणोमि) नये-नये स्तोत्र बनाता हूं।’ इन्द्र के लिए कवि ‘(नवीयसीं मन्द्रागिरं अजीजनत्) नवीन और आनंददायक स्तुति को उत्पन्न करता है।’ यह ऋग्वेद की परंपरा है, यह भारतीय काव्य-परंपरा है।16
अनेक सूक्तों में सुदूर अतीत की झलक मिलती है।17 काण्वमेध्य ऋषि एक मंत्र में कहते हैं-बहुस्तुत सोम प्राचीनकाल से देवों का पेय है। अग्नि पूर्वकालीन और अधुनातन ऋषियों का पूज्य है।18 देवों का पूर्वकालिक ‘निविद’ के द्वारा आवाहित किया गया है। शुनःशेप प्राचीन पितरों से स्तुत इन्द्र की स्तुति करता है। कक्षीवान् ऋषि भयंकर इन्द्र से उसी नेतृत्व की कामना करता है जो प्राचीनकाल में था। कक्षीवान् के पिता दीर्घतमा प्राचीन ऋषि दधीचि, अंगिरा, प्रियमेध, काण्व, अत्रि तथा मनु का उल्लेख करता है। इन सूक्तों से सिद्ध होता है कि ऋषियों को सतत् अपने अतीत का स्मरण है। मैक्स मूलर ने भी यह स्वीकारा है कि ऋग्वेद में प्राचीन तथा अर्वाचीन सूक्त हैं।19 ऋषियों एवं उनके पुत्रों के सूक्त वेद में एकत्र मिलते हैं। इस प्रकार के निदर्शन विश्वामित्र तथा दीर्घतमा के पुत्रों मधुछन्दा एवं कक्षीवान् या कक्षीवत् में देखा जा सकता है। कई पीढ़ियों ने सूक्तों का निर्माण किया जिन्हें वेद में स्थान मिला है।20
इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि सूक्तों की रचना और उनके संकलन के मध्य एक दीर्घकाल का प्रक्षेप है। अन्तःसाक्ष्यों से यह भी स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन सूक्तों में संस्कृति के अनेक स्तर मिलते हैं। एक सूक्त से ज्ञात होता है कि वैदिक जन पशुपालक थे। अन्यत्र राजा को हम हाथी पर आरूढ़ मंत्रियों से घिरा पाते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि कृषक समाज व्यवस्थित हो चुका था और राज्यसंस्था विकसित हो चुकी थी। विभिन्न सूक्तों में ‘सप्तसिंधु’ के उल्लेख के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की सरयू नदी का भी वर्णन मिलता है। मिट्टी के घरों एवं हजार खंभोंवाले प्रासाद का विवरण भी है।21
Source : http://dastavez.blogspot.in/2010/09/blog-post_23.html
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