सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Friday, December 30, 2011

मोक्ष के लिए आपको पुनर्जन्म और आवागमन में अंतर जानना होगा Salvation

साधना वैद जी की रचना देखिये 
कब तक तुझसे सवाल करेंगे
और कब तक तुझे
कटघरे में खड़ा करेंगे !
नहीं जानते तुझसे
क्या सुनने की
लालसा मन में
करवटें लेती रहती है !
ज़िंदगी ने जिस दहलीज तक
पहुँचा दिया है
वहाँ हर सवाल
गैर ज़रूरी हो जाता है
और हर जवाब बेमानी !
अब तो बस एक
कभी ना खत्म होने वाला
इंतज़ार है
यह भी नहीं पता
किसका और क्यों
और हैं मन के सन्नाटे में
यहाँ वहाँ
हर जगह फ़ैली
सैकड़ों अभिलाषाओं की
चिर निंद्रा में लीन
अनगिनत निष्प्राण लाशें
जिनके बीच मेरी
प्रेतात्मा अहर्निश
भटकती रहती है
उस मोक्ष की
कामना में
जिसे विधाता ने
ना जाने किसके लिये
आरक्षित कर
सात तालों में
छिपा लिया है !
-साधना वैद 


यह पीड़ा केवल एक साधना जी की ही नहीं है बल्कि बहुत से मन इस पीड़ा से कराह रहे हैं .
हमें हकीक़त का ज्ञान हो जाए तो यह पीड़ा निर्मूल जाती है .
हक़ीक़त  यह है कि ईश्वर ने हमें निष्पाप पैदा किया है।
ईश्वर का प्रेम हमारी आत्मा में रचा बसा हुआ है। यही वजह है कि ईश्वर, आत्मा और प्रेम यह तीनों शब्द दुनिया की हरेक भाषा में मिलते हैं।
हमारी आत्मा में जो प्रेम है वह ईश्वर के प्रेम का रिफ़्लेक्शन मात्र है।
वास्तव में ईश्वर हमसे प्रेम करता है इसीलिए हम उससे प्रेम करने पर मजबूर होते हैं।
वह ईश्वर हमसे प्रेम करता है। इसीलिए उसने हमें निष्पाप पैदा किया है। बच्चा हरेक मासूम है ,  पिछले पापों का कोई इतिहास किसी का भी नहीं है .
उसने हमें किन्हीं पिछले जन्मों का दंड भुगतने के लिए पैदा नहीं किया है और न ही वह हमें 84 लाख योनियों में गाय, बंदर और सुअर आदि बनाकर पैदा करता है।
आवागमन की कल्पना सबसे पहले छांदोग्य उपनिषद में पेश की गई थी। उससे पहले यह कल्पना भारतीय साहित्य में मौजूद नहीं थी।
वेदों में पुनर्जन्म का वर्णन है लेकिन आवागमन का नहीं है। आवागमन का शब्द तक वेदों में नहीं है। जो शब्द वेदों में मौजूद ही नहीं है, वह एक पूरी अवधारणा बनकर भारतीय जनमानस में समा चुकी है केवल प्रचार के कारण।
पुनर्जन्म और आवागमन में अंतर यह है कि
पुनर्जन्म परलोक में प्रलय के बाद होता है, इसी दुनिया में नहीं।
पुनर्जन्म दो शब्दों का योग है
पुनः और जन्म
जिसका अर्थ है दोबारा जन्म
दोबारा जन्म की बात हरेक धर्म-मत में मौजूद है।
स्वर्ग-नरक की बात भी हरेक धर्म-मत में मौजूद है।
इसी संसार में बार बार जन्म लेना आवागमन कहलाता है.
पुनर्जन्म एक हक़ीक़त है जिसकी पुष्टि सारी दुनिया करती है और आवागमन एक कल्पना है जिसके बारे में उसे मानने वाले तक एकमत नहीं हैं। कोई कहता है कि मनुष्य की आत्मा पशु और वनस्पति दोनों में जाती है और कोई कहता है कि नहीं केवल मुनष्य योनि में ही जाती है औ कोई कहता है कि मनुष्य की आत्मा मानव योनिऔर पशु योनि दोनों में जाती है . आवागमन में विश्वास रखने वाले कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि आत्मा का वुजूद ही नहीं होता . गर्ज़ यह कि हरेक अपनी अटकल से बोल रहा है .
84 लाख योनियों में जन्म-मरण के चक्र से छुटकारे को मोक्ष कहा जाता है।
ईश्वर ने यह चक्र बनाया ही नहीं है, सो मोक्ष तो वह दे चुका है,
बस आपको इसका बोध हो जाए।
बोध करना आपका काम है।
अपना काम आपको करना है।
आप अपना काम करके तो देखिए आपको कितनी शांति मिलेगी ?

वह सबको बुलाता है ताकि वह हक़ीक़त का ज्ञान दे लेकिन केवल उसे शीश नवाने वाले और उसकी वाणी सुनने वाले कम ही हैं।
जीवन की सफलता और जीवन में शांति हक़ीक़त जान लेने पर ही निर्भर है।
शांति हमारी आत्मा का स्वभाव और हमारा धर्म है।
शांति ईश्वर-अल्लाह के आज्ञापालन से आती है।
नमाज़ इंसान को ईश्वर-अल्लाह का आज्ञाकारी बनाती है।
नमाज़ इंसान को शांति देती है, जिसे इंसान तुरंत महसूस कर सकता है।
जो चाहे इसे आज़मा सकता है और जब चाहे तब आज़मा सकता है।
उस रब का दर सबके लिए सदा खुला हुआ है। जिसे शांति की तलाश है, वह चला आए अपने मालिक की तरफ़ और झुका दे ख़ुद को नमाज़ में।
जो मस्जिद तक नहीं आ सकता, वह अपने घर में ही नमाज़ क़ायम करके आज़मा ले।
पहले आज़मा लो और फिर विश्वास कर लो।
पहले आज़मा लो और फिर विश्वास कर लो।

Friday, December 23, 2011

एकता में शक्ति है -Maulana Kaleem Siddiqui 's spiritual message


एकता में शक्ति है
मौलाना कलीम सिद्दीक़ी साहब ने आधुनिक शिक्षा पाने के बाद दीनी तालीम नदवातुल उलमा लखनऊ से पाई है। वह मौलाना अली मियां के प्रिय शिष्य हैं और प्यार-मुहब्बत का संदेश पूरी दुनिया को दे रहे हैं। उन्हें जितना प्यार मुस्लिम करते हैं उतना ही वे हिंदू भाईयों के भी प्यारे हैं। अम्न-शांति और एकता का संदेश फैलाने वाले उनके प्रवचन उनका मुरीद बना देते हैं। इस वीडियो में भी वह बताते हैं कि इंसान की कामयाबी किस रास्ते पर चलने में है।
देखिये और अपने विचारों से अवगत कराइये और उनके वीडियोज़ को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाइये।
धन्यवाद !

Tuesday, December 13, 2011

हिंदू धर्म और इस्लाम में पशु बलि और क़ुरबानी पर एक यादगार संवाद Part 2

पिछली पोस्ट की कुछ शेष टिप्पणियां ये हैं जो कि इस्लाम में कुर्बानी के सम्बन्ध में चर्चा के दौरान की गयी हैं .
देखिये :
सुज्ञ ने कहा…
आदरणीय शिल्पा जी, आपका आभार व्यक्त करता हूं राजा रंतिदेव के बारे में फैलाए जा रहे झूठ और मिथ्या प्रचार को बेनकाब किया। इसी तरह ही वेदों में मांसाहार आज्ञा और ब्राहमणों को मांसाहारी सिद्ध करने का यह दुष्प्रचार झूठ और मिथ्या प्रचार पर आधारित है। पाठक विवेक बुद्धि से अनुशीलन कर सत्य तथ्य पर पहुंचे और दिए गए सन्दर्भों का स्वविवेक से सिद्धांतो के अनुकूल व्याख्या करते हुए यथार्थ पर स्थिर हों यह निवेदन है।
सुज्ञ ने कहा…
सभी से………… यह पोस्ट इस अटल विश्वास पर आधारित है कि "रहमदिल पालनहार करूणानिधान ईश्वर अपनी ही सृष्टि के, अपने ही आश्रय के जीवों को बेरहमी से हिंसा कर, आहर बनाने का आदेश, कदापि नहीं दे सकते" परम् पिता की यह मजबूरी भी नहीं हो सकती कि मेरे बच्चे अभाव में भूखे मर जाएंगे, उस सर्वशक्तिमान के पास निर्दोष शाकाहार उपलब्ध करने की असीम शक्ति थी। जगत को सुख और शान्ति प्रदान करने के एक मात्र उद्देशय वाले कृपानिधान, सर्वज्ञ होते है, वे इस तथ्य को भलिभांति जानते है कि माँसाहार हिंसा को जन्म देगा, हिंसा सम्वेदनशीलता को समाप्त करेगी, सम्वेदनहीनता अशान्ति को जन्म देगी, अशान्ति उसी की सृष्टि में अराजकता पैदा करेगी। और जगत सुख और शान्ति के लक्ष्य से भटक जाएगा। इसलिए, परम्परा से क्या करते है या क्या नहीं, किन्तु यह निर्विवाद है कि कोई भी धर्म, या हितोपदेश या परम् कृपालू ईश्वर किसी भी तरह की छोटी या बड़ी, हिंसा का उपदेश नहीं दे सकते।
सुज्ञ ने कहा…
डॉ अनवर जमाल साहब, सबसे पहले तो मैं खुले दिल से आपकी प्रशंसा करता हूँ, मुझे नहीं पता था कि आप भी भगवान श्री राम के अनन्य श्रद्धावंत भक्त है। यह आपकी अटल आस्था है कि आप अपने पूज्य श्री राम पर कोई भी आलोचना सहन नहीं करते। आपकी इस श्री राम कृष्ण बन्दगी को सलाम!! मैं तो उन भाष्यकारों, व्याख्याकारो, विश्लेषको की रो में बह गया था भले आप बड़े दिल से इन भाष्यकारों को प्रमाणीक स्थापित कर चुके है। हालांकि मैने अपनी तरफ से प्रभु श्री राम और श्री कृष्ण की आलोचना नहीं की, पर किन्ही व्यख्याकारों का लेखन ध्यान में आया होगा तो खुले विश्लेषण करने की स्वतंत्रता के सन्दर्भ में कहा था। क्षमा करें और यकिन मानें भगवान श्री राम के चरित्र के कोई आलोचनात्मक 'सन्दर्भ' मेरे पास नहीं है। मैं भी अन्तर से प्रभु श्री राम का चरित्र, निर्मल और दोष रहित मानता हूँ। मर्यादापुरूषोत्तम प्रभु श्री राम के चिर-प्रशंसित और उपलव्ध जीवन चरित्र, जिसे हम विभिन्न तरीके से सुनते आए है, सम्पूर्ण निष्कलंक है। और आपकी तरह ही मेरे लिए भी वंदनीय पूजनीय है। आपने सही ही कहा……… “महान पूर्वजों को जो आदमी कटघरे में खड़ा करता है, वह नालायक़ है या फिर नादान है। हमारे सामने कभी श्री रामचंद्र जी या श्री कृष्ण जी की बुराई की गई या उनकी आलोचना करने वालों की प्रशंसा की गई तो हमारी प्रतिक्रिया सख्त मिलेगी,” प्रभु क्रे प्रति आपके इस अनन्य समर्पण और भक्ति भाव को तुलसी और सूरदास के समकक्ष रखुं तो अतिश्योक्ति न होगी। महाकवि द्वय क्षमा करे। हालांकि ‘ब्राह्मण मांस खाते थे’ ‘वेदों में मांसाहार’ आदि आपके कुप्रचार ‘वेदों की निंदा’ की श्रेणी में आते है, पर प्रभु श्रीराम की शरण में आए भक्त से क्या गिला शिकवा?
सुज्ञ ने कहा…
डॉ अनवर जमाल साहब बात भाष्यकारों/व्याख्याकारो/तफ़सीरकारों की प्रमाणिक व्याख्या की चल रही थी, आपने वेदभाष्यकारों को प्रमाणिक सिद्ध किया है, बड़े आनन्द की बात है, इसी से वेद आदि ईशवाणी और शाश्वत प्रमाणित सिद्ध होते है। अब बात करते है दुर्बोध होने की तो जैसा कि आपने कहा……… @ “ईश्वर एक है और उसने मानवता को सदा एक ही धर्म की शिक्षा दी है। उस धर्म की शिक्षा उसने अपनी वाणी वेद के माध्यम से दी और महर्षि मनु को आदर्श बनाया तो इस धर्म को वैदिक धर्म या मनु के धर्म के नाम से जाना गया और जब बहुत से लोगों ने वेद को छिपा दिया और इसके अर्थों को दुर्बोध बना दिया तो उसी परमेश्वर ने जगत के अंत में पवित्र कुरआन के माध्यम से धर्म को फिर से सुलभ और सुबोध बना दिया है।“ --आपके हिसाब से वेद को दुबोध बनानेवाले कौन है? वेदभाष्यकार तो न होंगे न? --वे व्याख्याकार कौन है? --सायण और शंकर ने जिसे सुबोध बना दिया हो, उस दिव्य ईशवाणी के आदि ग्रंथ वेदों को अक्षरश: अपनाने में अब दुविधा क्या है? --उसी परमेश्वर नें कुरआन को सुलभ और सुबोध बनाया तो, जो उतारी ही सुबोध होने के लिए, सहज समझ आने के लिए। वह इतनी दुर्बोध क्यों कि किन्ही ‘इस्लाम के मान्यताप्राप्त और अधिकृत विद्वानों’ से ही समझने का आग्रह करना पडे? @ “क़ुरआन की सही तफ़्सीर पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब सल्ल. की ज़िंदगी है।“ --लेकिन सहाबाओं द्वारा पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब सल्ल. का अमल सारा का सारा हदीसों में संकलित था। अधिसंख्य हदीसें विलुप्त है, आधी से अधिक नष्ट कर दी गई, कई हदीसों को अमान्य घोषित किया गया। और कई हदीसों में क्षेपण बताया जाता है। इस प्रकार उनकी जीवनी और अमल के बारे में जानकारी बहुत ही न्यून है। उसमें भी तुर्रा यह कि बाकी बचे अंश की तफ़्सीर सामान्य विद्वान करते है। कैसे कह सकते है कि उनके पूर्वाग्रह नहीं होंगे? इसीलिए पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब सल्ल. का जीवन और अमल आज भी शोध का विषय बना हुआ है। अतः तफ़्सीर के लिए यह आधार पर्याप्त नहीं है।
प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…
गजब का विचार-मंथन... सुज्ञ जी का तार्किक विनम्र विश्लेषण मन को भा गया... अब तो देर तक बैठने से और अधिक प्रसाद मिलने का लोभ बढ़ चला है...
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
@ भाई सुज्ञ जी ! आपकी तारीफ़ का हम इस्तक़बाल करते हैं। ताज्जुब है कि श्री रामचंद्र जी के बारे में आपको हमारे विचार अब मालूम हुए ? जबकि हम तो बहुत पहले कह चुके हैं कि Ram in muslim poetry, second beam चराग़ ए हिदायत और इमाम ए हिन्द हैं राम - Anwer Jamal बेशक हम रामभक्त हैं। कृप्या ध्यान दें कि अजन्मे अविनाशी सृष्टिकर्ता राम को हम पूजनीय-वंदनीय-उपासनीय मानते हैं और अपने पूर्वज दशरथपुत्र श्री रामचंद्र जी को मर्यादा पुरूषोत्तम और आदरणीय मानते हैं। दोनों ही राम हमें प्रिय हैं। हमारे यह विचार हज़रत मौलाना क़ासिम नानौतवी साहब रहमतुल्लाह अलैहि (संस्थापक दारूल उलूम देवबंद), अल्लामा इक़बाल और आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब रहमतुल्लाह अलैहि की शिक्षाओं के कारण बने।
सुज्ञ ने कहा…
डॉ अनवर जमाल साहब, मैं एक मानता था, चलो कोई बात नहीं,दो राम आपके पूजनीय-वंदनीय-उपासनीय है। बधाई!! दो खोज लिए, पर सनद रहे हम कण कण में राम मानते है।
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…
डॉ. जमाल साहब, सबसे पहले तो अपनी रामभक्ति के लिये मेरा प्रणाम स्वीकारें! अब, आपके द्वारा उठाई शंकाओं के पहले ही ज्ञात और यहाँ रखे हुए स्पष्टीकरण, एवम तथ्यों के प्रकाश में अब तक की वार्ता का निष्कर्ष - * आदिमानव शाकाहारी थे। * बाद में निहित स्वार्थों, सत्ता संघर्षों, कबीलाई झगड़ों और दानवी प्रवृत्तियों के कारण कई जगह आदमखोरी जैसी जघन्य परम्पराये जन्मीं। आदमखोरी तो सब ही जगह समाप्त हो गयी परंतु निर्बल पशुओं की हत्या की कुरीति कई जगह बच गयी। * जहाँ जीवहत्या बची भी, अपराधबोध अवश्य रहा, इसलिये अलग-अलग जगह अलग-अलग प्राणियों के मांस से बचा गया। बहुत जगह हत्या को धार्मिक कर्मकांडों से जोडकर उसके पाप से बचने का प्रयास भी हुआ। * हाँ, शाकाहार हर जगह इस पापबोध से मुक्त और सर्व-स्वीकृत ही रहा। * सभ्यता के विकास के साथ ही अहिंसा, प्रेम, करुणा का विकास भी होता रहा, कहीं कम कहीं अधिक। * भारत में सभ्यता और संस्कृति सद्गुणों पर आधारित थी और उसके मूल में सत्य, अहिंसा, प्रेम, क्षमा आदि सद्गुण मौजूद थे। * वेद के किसी भाष्य का हिन्दी/अंग्रेज़ी अनुवाद यदि वेद की मूल भावना के विरुद्ध प्रचार करेगा तो वह प्रचार त्याज्य है न कि वे महापुरुष जो वेद की यज्ञ भावना (अहिंसा, दान, तेज, मैत्री आदि) को सर्वोपरि रखते हैं। * अन्य भारतीय संतों की तरह ही स्वामी विवेकानन्द ने स्पष्ट ही जीवहत्या को निकृष्ट बताया है और कहा है कि आत्मा की उन्नति के साथ मांस आदि में अरुचि होती जाती है। * उन्होंने यह भी कहा है कि उनके गुरु शाकाहारी थे। यह दोनों ही तथ्य सर्वसुलभ हैं। * करुणा, प्रेम, भक्ति, अहिंसा आदि के बारे में लगभग यही बातें, आदि शंकर, सभी शंकराचार्य, स्वामी दयानन्द सरस्वती, तुलसी, कबीर, सूर, नरसी आदि संतों ने देशभर में कही हैं * पतंजलि का योगसूत्र भले ही वेदों के बहुत बाद में लिखा गया हो वह भारतीय संस्कृति के उसी उपवन का पुष्प है जिसमें वेदों की सुगन्ध भरी है। * ग्रंथ बाद में लिखे जाने भर से उनकी बात हल्की नहीं हो जाती है। योगसूत्र वेदों के बहुत बाद परंतु कुर'आन से काफ़ी पहले लिपिबद्ध हुआ है। - सत्य यह है कि सत्य, अहिंसा, अस्तेय, संतोष, तप, त्याग, भक्ति, ज्ञान और व्यक्तिगत स्वतंत्रता आदि भी भारतीय संस्कृति के आधार में उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितना तेज, वीरता, मन्यु, साहस, सहनशीलता, श्रम, कर्म, समनन्वय आदि। भारतीय संस्कृति की यही विशेषतायें उसे शेष संसार से कहीं ऊपर खड़ा रखती हैं।
सुज्ञ ने कहा…
आभार अनुरागजी, आपने इस वार्ता की सार्थक उपलब्धिओं का सार ही प्रस्तुत कर दिया। सभी सहभागियों से……… अहिंसा जागृति के उद्देश्य से लिखी गई इस पोस्ट पर चर्चाकारों ने बडी सद्भावना से सहयोग दिया। मै आभार व्यक्त करता हूँ सभी टिप्पणीकारों का, आपने इस पुनित कार्य में सहयोग और प्रोत्साहन दिया। आप सभी से इसी प्रकार प्रोत्साहन की अपेक्षा रहेगी। आप सभी का प्रेम ही हमारा आधार तंतु है। सत्यांवेषण में आगे भी आपका सहयोग मिले, इस सद्भावना के साथ ...
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
@ आदरणीय भाई अनुराग शर्मा जी ! तथ्य यहां रख दिए गए हैं, निष्कर्ष निकालने के लिए हरेक आदमी आज़ाद है। क्या आप नहीं जानते कि ‘सभ्यता के विकास के साथ बढ़ता जा रहा है मांसाहार‘ चर्चा में शिरकत के लिए आपने समय निकाला, इसके लिए आपका शुक्रिया ! @@ भाई सुज्ञ जी ! हम अपनी टिप्पणी में कह रहे हैं कि एक सृष्टा ही हमारा पूजनीय-वंदनीय और उपासनीय है, फिर आप इसके विपरीत क्यों समझ और समझा रहे हैं ? मिलते जुलते नाम से किसी को भ्रम न होने पाए इसलिए हमने अपने एक विस्तृत लेख का लिंक भी आपको दिया था। हमारा एक और लेख देख लीजिए- ‘हमारे पूर्वज और हमारा परमेश्वर' ‘कण कण में ईश्वर है‘ यह आपकी मान्यता है लेकिन हमारी मान्यता इससे अलग है। हम मानते हैं कि ‘कण कण ईश्वर का है और सारी सृष्टि मिलकर भी प्रभु परमेश्वर के तुल्य या उसका अंश नहीं हो सकती। उसका केवल नाम भी सारी सृष्टि से ज़्यादा क़ीमती है।‘
shilpa mehta ने कहा…
सुज्ञ भैया - सबसे पहले तो आप निश्चिन्त हो जाइए की राम एक ही हैं - दो नहीं | डोक्टर साहब के न मानने से आप अपनी आस्था पर संदेह न करिए | कोई दो राम नहीं हैं | :) | इस सिलसिले में श्री तुलसी रचित रामचरितमानस से ही कथा कहती हूँ | यह कथा शिवपुराण में भी है | शिव जी राम जी के भक्त थे - तब श्री सती माँ उनकी संगिनी थीं | उनके मन में भी यही सवाल उठा की "क्या यह सीता सीता कह कर जंगलों में बिलखता भटकता हुआ साधारण मानव वे राम हो सकते हैं जो मेरे शंकर जी के पूज्य हैं ?" उनकी यह शंका शिव जी को अच्छी न लगी - और उन्होंने सती माँ को समझाया भी | किन्तु सती माई का मन न माना | उन्होंने परीक्षा लेने के लिए सीता का रूप धरा और वन में "हे सीते" कहते रोते भटकते राम के सामने गयीं, की यदि यह मानव भ्रमित हुआ तो जान जाऊंगी की ये "सृष्टिकर्ता राम" नहीं हैं | उन्हें देखते ही श्री राम बोले "आप यहाँ अकेली क्या कर रही हैं माते ? शिव शम्भू कहाँ हैं ?" वे अपनी भूल जान कर सहम गयीं, की पति के कहने के बावजूद मैंने सत्य की परीक्षा ली | चली गयीं - पर शिव जी को बताया नहीं कि कहाँ गयी थीं | परन्तु शिव जी उनकी व्याकुलता देख कर समझ गए कि कुछ हुआ है - और मन की आँखों से देख लिया | अब शिव जी कशमकश में पड़े - सती पत्नी को त्याग भी नहीं सकते, और जब यव मेरे प्रभु की पत्नी का रूप ले कर उनके सामने गयीं - तो मेरी माता हो गयीं - तो पत्नी रूप में स्वीकार भी नहीं सकते | क्या करें ? तो शिवभोले करोडो वर्षों की तपस्या में ध्यानरत हुए | सती भी जान गयीं कि पति क्यों ताप में बैठ गए हैं - कि मेरा त्याग हुआ है | तो उन्हें अपना शरीर त्यागना ही था - जो दक्ष के यज्ञ में उन्होंने अग्निसमाधि लेकर किया | फिर पार्वती बन जन्मीं - तपस्या कर शिव को पाया - और उनसे कहा कि "परभो - पिछली बार हमने दशरथ नंदन राम जी को सृष्टिकर्ता राम न मानने की जो भूल की -उससे इतना कुछ हुआ | तो फिर से हम माया से भ्रमित न हों - इसके लिए हमें रामकथा सुनाइए |" तब शिव जी ने उन्हें रामकथा सुने - जो रामायण नाम से हम सुनते पढ़ते हैं | तो सुज्ञ भैया - आप दशरथ नंदन को सिर्फ महापुरुष करने की वाही भूल न करें - जो देवी सती कर चुकी हैं :)
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
♠ उपरोक्त कथा में कहा गया है कि सती माता पार्वती जी को उनके पति ने रोका लेकिन वह उनके रोकने के बावजूद भी नहीं रूकीं और उन्होंने श्री रामचंद्र जी की परीक्षा ली। इसके बाद शिव जी ने करोड़ों वर्ष की तपस्या की। पहली बात तो यह है कि बाल्मीकि रामायण में यह घटना दर्ज नहीं है। दूसरी बात यह है कि सती कभी अपने पति की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करती। किसी सती के बारे में ऐसी बात कहना उस पर झूठा आरोप लगाना है। तीसरी बात यह है कि जब सती ने अपने शरीर से कोई पाप किया ही नहीं था तो शरीर को जलाने से लाभ क्या ? चौथी बात यह है कि शिवजी करोड़ों वर्ष की तपस्या करके निवृत्त कैसे हो सकते हैं जबकि श्री रामचंद्र जी को गुज़रे अभी 12 लाख 96 हज़ार वर्ष ही हुए हैं ? बात चूंकि यहां जीव हत्या की चल रही है तो एक प्रश्न यह भी उचित होगा कि शिव जी को शेर की खाल पर बैठा हुआ दिखाया जाता है। शेर की यह खाल वह कैसे प्राप्त करते थे ?
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
परमेश्वर को भ्रम नहीं होता जो मानव होता है वह भ्रमित हो जाता है जबकि परमेश्वर भ्रमित नहीं होता। इस सिद्धांत पर श्री रामचंद्र जी को देखा जाए तो बाल्मीकि रामायण में यह प्रसंग मिलता है कि श्री रामचंद्र जी के कहने पर सुग्रीव अपने भाई को ललकारता है और उससे युद्ध करता है और पराजित होकर वापस आता है। श्री रामचंद्र जी बालि को मारने के लिए बाण चलाना चाहते हैं लेकिन उन्हें दोनों भाईयों में यह निश्चय नहीं हो पाता कि बालि कौन सा है और बाण किस पर चलाया जाए ? इस तरह का भ्रम हो जाना मानव के विषय में तो संभव है लेकिन परमेश्वर के बारे में नहीं। अतः रामायण की कथा में मिलने वाले प्रसंग के आधार पर श्री रामचंद्र जी मर्यादा की रक्षा करने वाले मानव ही सिद्ध होते हैं।
सुज्ञ ने कहा…
सभी से निवेदन……………… आलेख कुरआन की रोशनी में प्रतीक मात्र के लिए पशुबलि रूप हिंसक प्रवृति पर थी। तथ्यों की रोशनी में वार्ता पर उपसंहार देकर चर्चा का समापन कर दिया गया था। क्योंकि विषय से सम्बंधित सारे तथ्य व सन्दर्भ रखे जा चुके थे। विषयेतर बात के लिए अब इस पोस्ट पर कोई अवकाश नहीं है। आगे चर्चा, विषय केन्दित न रहकर विषयान्तर की ओर बढ़ रही है। अनावश्यक बहस से बचते हुए, इस पोस्ट पर अब चर्चा को यहां विराम देने की घोषणा करते है।
shilpa mehta ने कहा…
बहुत अच्छा निर्णय है - इस निर्णय का स्वागत है |