सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Tuesday, March 27, 2012

गायत्री मंत्र रहस्य भाग 3 The mystery of Gayatri Mantra 3

 इस लेख का पिछला भाग यहां पढ़ें-

गायत्री मंत्र रहस्य भाग 1 The mystery of Gayatri Mantra 1

गायत्री मंत्र की छंद रचना में दोष बताने वाले हमें कई लोग मिले लेकिन इस विषय पर हमारा ध्यान प्रसिद्ध विद्वान डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात की लेखमाला ने प्रबल रूप से आकृष्ट किया। गायत्री मंत्र पर यह लेखमाला उनकी पुस्तक ‘क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?‘ में प्रकाशित हुई और इसे निम्न पते से प्राप्त किया जा सकता है- प्रकाशकः विश्व विजय प्रा. लि., 12 कनॉट सरकस, नई दिल्ली, फ़ोन 011-23416313 व 011-41517890, ईमेलः mybook@vishvbook.com

गायत्री मंत्र शुद्ध गायत्री छंद में नहीं हैः डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात
डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात ने गायत्री मंत्र की आलोचना में जो कुछ कहा है और उनकी आलोचना पर आपत्ति करते हुए जो कुछ कहा गया है और फिर उन आपत्तियों के निराकरण में डा. अज्ञात ने जो कुछ कहा है, उससे गायत्री मंत्र के पक्ष-विपक्ष में सभी तर्क इस लेखमाला में एक जगह एकत्र हो गए हैं। इससे असल समस्या सबके सामने पूरी तरह आ जाएगी। इसके बाद हम अपना नज़रिया रखेंगे और बताएंगे कि इस समस्या का हल हक़ीक़त में क्या है ?
डा. अज्ञात लिखते हैं कि
जिस मंत्र को पकड़ कर रखा गया है, वह वास्तव में शुद्ध गायत्री छंद में नहीं है। गायत्री छंद का लक्षण हैः तीन पादों वाला वह छंद जिसके प्रत्येक पाद में आठ आठ अक्षर हों और इस प्रकार कुल 24 अक्षर हों। उदाहरणार्थ ऋग्वेद (8,67,20) का निम्नलिखित मंत्र देखिए-
‘‘मा नो हेतिर्विवस्वत आदित्याः कृत्रिमा शरूः पुरा नु जरसो वधीत्.‘‘
इसके हर पाद में आठ आठ वर्ण हैं, और कुल 24. छंदशास्त्र में विधान है कि हलंत और आधे वर्ण गणना में अंतर्भुक्त नहीं किए जाते, अतः स्, त्, त् आदि छोड़ दिए जाते हैं।
हमारा आलोच्य मंत्र ऋग्वेद (3,62,10) में इस प्रकार आता है,
तत्सवितुर्वरेण्यं (7), भर्गो देवस्य धीमहि (8), धियो यो नः प्रचोदयात (8)
इसके अंतिम दो पादों में तो आठ आठ वर्ण हैं, परंतु प्रथम पाद में एक वर्ण कम है। अतः इसे शुद्ध गायत्री छंद नहीं कह सकते। यह लंगड़ा छंद है। ... -पृष्ठ 530
वैदिक प्रेस अजमेर में छपी यजुर्वेद संहिता (सन 1927) के पृ. 151 पर इस मंत्र के विषय में जो सांकेतिक रूप में लिखा गया है, वही उसी प्रेस से छपे स्वामी दयानंद सरस्वती कृत ‘यजुर्वेदभाषाभाष्य‘ (सन 1929) के पृष्ठ 1120 पर स्पष्ट कर के लिखा गया है। स्वामी दयानंद ने लिखा है, ‘‘भूर्भुवः स्वः- इसमें ‘देवी बृहती‘ छंद है और ‘तत्सवितु‘ इत्यादि में ‘निचृद् गायत्री‘.
इस से जहां हमारी इस का नामकरण करने की मुश्किल हल हुई है, वहां हमें यह भी पता चलता है कि मंत्रकार में वह चाहे ईश्वर (?) हो या वैदिक काल का कोई कवि इतना समर्थ नहीं था कि वह तीन पाद का एक शुद्ध छंद रच सके। यदि वेद ईश्वर की रचना है, तब तो यह आक्षेप और भी गंभीर हो जाता है, क्योंकि इतनी बड़ी शक्ति वाले कल्पित परमात्मा का वर्णसंकर (दोग़ला) छंद बनाना बुरी तरह अखरता है।
ऋग्वेद के मंत्र में भी कथित परमात्मा के छंदज्ञान और छंदनिर्माण सामर्थ्य का दिवाला निकल गया प्रतीत होता है। यदि छंदनिर्माण सामर्थ्य के लिहाज़ से देखा जाए तो तथाकथित परमात्मा से ‘पृथ्वीराज रासो‘ का कवि चंदरबरदाई और ‘रामचंद्रिका‘ का कवि केशवदास कहीं ज़्यादा समर्थ सिद्ध होते हैं। -पृष्ठ 53

डा. अज्ञात को अपने इस लेख पर पाठकों की जो प्रतिक्रियाएं मिली हैं, उनका जवाब देते हुए उन्होंने अपने लेख ‘गायत्री मंत्र, आलोचनाओं और आपत्तियों का उत्तर‘ में लिखा है कि
मेरे लेख ‘गायत्री मंत्र‘ पर विभिन्न शिविरों से तरह तरह की प्रतिक्रियाएं हुई हैं लेकिन खेद है कि किसी तथ्य तक पहुंचने के लिए जिस स्वस्थ प्रतिक्रिया की अपेक्षा की जाती है, उस का सर्वत्र अभाव रहा। -पृष्ठ 532
कुछ लोगों ने आरोप लगाया है, ‘आप का लेखन हमारी भावनओं को पीड़ित करता है। ‘हमारा उन लोगों से नम्र निवेदन है कि उनकी भावनओं को ठेस पहुंचाना हमारा कदापि अभीष्ट नहीं रहा। हमने केवल धर्मग्रंथों के वाक्यों को बुद्धि की कसौटी पर परखने की कोशिश की है ताकि सही और ग़लत का अंतर स्पष्ट किया जा सके। जो सत्य हो, जो बुद्धि संगत हो, उसका आदर होना चाहिए और जो असत्य हो, बुद्धिविरूद्ध हो, अज्ञान की उपज हो, उसे निदर्यतापूर्वक छोड़ देना चाहिए क्योंकि ‘सत्यमेव जयते‘ (सदा सत्य की विजय होती है) एक सार्वभौमिक सिद्धांत है। सत्य तक पहुंचने के प्रयास में बहुत कुछ छोड़ना होता है, बहुत कुछ रौंदना पड़ता है। इस स्वाभाविक और अनिवार्य प्रक्रिया को ‘व्यक्तिगत भावना पर आघात‘ नहीं समझना चाहिए, अपितु ऊंचे उठ कर सत्य के अन्वेषण में दत्तचित्त होना चाहिए।
लेख का दूसरा प्रमुखांश है, छंदगत अशुद्धता।... इस पर हमारे एक स्वयंभू आचार्य लिखते हैं कि ‘तत्सवितुर्वरेण्यम्‘ में जो ण् आया है, उसे पूरा मान लेना चाहिए, इस तरह 24 वर्ण हो जाएंगे।
हम पूछते हैं कि यह कौन सा छंदशास्त्रीय ग्रंथ है जो मध्य के आये वर्ण को पूरा मानने का परामर्श देता है। छंदों का ज़रा सा ज्ञान रखने वाला प्रवेशिका का विद्यार्थी भी यह जानता है कि यदि आवश्यकता पड़े तो अंतिम हलंत को पूर्ण माना जा सकता है, न कि मध्य के वर्ण को उन्होंने यह नहीं बताया कि ‘त्‘ और ‘र्‘ को भी ‘त‘ और ‘र‘ क्यों न मान लिया जाए ?
एक दूसरे आचार्य ने लिखा है, ‘‘तत्सवितुर्वरेण्यम्‘ में ण्य में इ और अ का योग है, अतः यहां दो वर्ण हैं, एक नहीं। इस तरह 23 के स्थान पर 24 वर्ण हैं और छंद शुद्ध है।‘‘
लगता है आचार्य जी साथियों का ख़ूब अभ्यास करते हैं और इसी झोंक में यह भी विस्मृत कर जाते हैं कि स्थल यण् संधि का है भी या नहीं। लगता है, वे बहुत वृद्ध हैं और वार्धक्य दोष से गायत्री जपने पर भी उनकी बुद्धि ठीक नहीं रही है।
कितना अच्छा होता यदि वे अपने किसी संतुलित बुद्धि वाले छात्र से ही इस विषय पर कुछ सलाह मशवरा कर लेते। यदि उसने ‘सिद्धांत कौमुदी‘ पढ़ी होती तो वह एकदम अपने पूज्य गुरूजी को बता देता कि यहां यण् संधि नहीं है। यहां उणादि एण्य प्रत्यय है- वृ´ एण्यः (3,98). इस सूत्र के अनुसार वृ धातु से एण्य प्रत्यय लगाने पर ‘वरेण्य‘ शब्द निष्पन्न होता है। अतः यहां न ‘इ‘ है और न तथाकथित ‘अ‘. वस्तुतः इस तरह के हथकंडों से आचार्य जी ने अपने अज्ञान को थोथे पांडित्य से ढकना चाहा है। बुरा हो वैयाकरणों का जिन्होंने हज़ारों वर्ष पूर्व ही सूत्र बनाकर ‘वरेण्य‘ की निष्पत्ति को निर्विवाद रूप में अंकित कर दिया है। ऐसे में बेचारे पोंगा पंडितों के अज्ञान की सब के समक्ष प्रदर्शनी लगा जाया करती है।
वैदिक परंपरा इस छंद को किस रूप में लेती है, इसका ज्ञान प्राप्त कर लेना भी आवश्यक है। जिन लोगों ने विधिवत वेद पढ़े हैं, वे जानते हैं कि मूल वेदों में मंत्र के ऊपर उस छंद का नाम अंकित होता है, जिस में वह रचा गया होता है।
वेदों का प्रकाशन बहुत सावधानीपूर्वक और अनेक पांडुलिपियों के प्रकाश में किया जाता है।
वैदिक प्रेस, अजमेर से मूल रूप में छापे गए वेदों की प्रत्येक संहिता के ऊपर मोटे अक्षरों में लिखा गया था कि अनेक विद्वानों ने अनेक पांडुलिपियों के मिलान के बाद बहुत सावधानीपूर्वक प्रूफ़ पढ़ कर इन्हें प्रकाशित किया है। यहां से छपे ऋग्वेद (संवत 1983 वि.) के पृष्ठ 197 पर स्पष्ट रूप से ‘तत्सवितु‘ इत्यादि मंत्र का छंद ‘निचृद् गायत्री‘ लिखा हुआ है।
वेद जब ख़ुद अपने बारे में ख़ुद बोलते हैं कि अमुक छंद निचृद् है-लंगड़ा है, तब स्वयंभू आचार्यों का उसे, शब्दों में मनमाना फेर कर के पूर्ण सिद्ध करना वैसे ही हास्यास्पद है जैसे कोई व्यक्ति स्वयं कह रहा हो कि ‘मैं जीवित हूं‘, लेकिन एक दूसरा, उसका ‘हितैषी‘ कह रहा हो कि ‘नहीं, तुम जीवित नहीं हो, तुम मृत हो.‘ पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि इन में प्रामाणिक कौन है ?
लेख के दूसरे उत्तरार्द्ध में हम ने यजुर्वेदीय मंत्र के दोग़लेपन का ज़िक्र किया था, जिसे प्रत्येक आलोचक बिना छुए ही छोड़ गया है। इस विषय में हम ने स्वामी दयानंद सरस्वती को अपने लेख में उद्धृत करना चाहते हैं। वहां लिखा है, ‘‘भूर्भुवः स्वः‘‘ (देवी बृहती छंद). तत्सवितु. (निचृद् गायत्री छंद)‘‘ अर्थात यजुर्वेदीय छंद में देवीबृहती छंद और निचृद् गायत्री छंद का मिश्रण है। इस तरह स्पष्ट रूप से यह छंद वर्णसंकर अर्थात दोग़ला है। -पृष्ठ 533-535

एक आर्यसमाजी पाठक ने अपनी आपत्ति जताई तो उसका उत्तर देते हुए डा. सुरेंद्र कुमार शर्मा अज्ञात लिखते हैं कि
पाठक महोदय ने स्वीकार किया है कि गायत्री मंत्र की स्कंदपुराण, देवीभागवत व पद्मपुराण आदि में पाई गई महिमा ‘बहुत कुछ अर्थवाद, कल्पनाप्रसूत, रूढ़िजात और मिथ्या अंश है‘ हां, उन्हें मुख्य आपत्ति छंददोष, व्याकरणदोष और अर्थ की महत्वहीनता प्रतिपादित करने पर है।

लंगड़ा छंद
उन्हें इस 23 अक्षरों के अधूरे गायत्री छंद को अधूरा व लंगड़ा कहने पर आपत्ति है।
इस पर हमारा निवेदन है कि इसे स्वयं वेद, पिंगल छंदःशास्त्र और वैदिक छंदों के विशेषज्ञों ने निचृद् अर्थात न्यून, लंगड़ा व अधूरा कहा है।
छंदःशास्त्र का प्राचीनतम ग्रंथ हैः पिंगलच्छंदःसूत्र। उसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा हैः
ऊनाधिकेनैकेन निचृद्भुरिजौ
-पिंगलच्छंदःसूत्र 3,59
अर्थात यदि किसी छंद में उसकी निश्चित संख्या से एक अक्षर ऊन (न्यून, कम) हो तो उस छंद के नाम के आगे ‘निचृत्‘ शब्द लगेगा। यदि एक अक्षर अधिक हो तो ‘भुरिक्‘ लगेगा।
ग्यारहवीं शताब्दी के पिंगलच्छंदःसूत्र के संस्कृत व्याख्याकार भट्ट हलायुध ने इस सूत्र की व्याख्या करते हुए ‘निचृत् गायत्री‘ का स्पष्ट उल्लेख किया है और लिखा हैः
चतुर्विंशत्यक्षरा गायत्री एकेनाक्षरेण न्यूनेन सा ‘निचृत्‘ इति विशेषसंज्ञां लभते. एकेनाधिकेन ‘भुरिक‘ इति एवमुष्णिगादिष्वपि द्रष्टव्यम्.
-पिंगलच्छंदःसूत्र, वेणीराम शर्मा गौड़ का संस्करण, 1943 ई., बनारस, पृ. 54
अर्थात 24 अक्षरों वाले गायत्री छंद में यदि एक अक्षर कम हो तो उसे ‘निचृत् गायत्री‘ का नाम दिया जाता है। एक अक्षर ज़्यादा हो तो उसे ‘भुरिक गायत्री‘ कहते हैं। ऐसे ही अन्य छंदों के विषय में जानना चाहिए।
वैदिक छंदों पर अधिकारी विद्वानों ने पर्याप्त गवेषणा की है। हमारे पाठक महोदय आर्यसमाजी हैं, अतः हम यहां उक्त विद्वानों में से एक आर्यसमाजी विद्वान को ही उद्धृत करना चाहेंगे। श्री युधिष्ठिर मीमांसक एक ऐसे ही विद्वान हैं। उन्होंने ‘वैदिक छंदोमीमांसा‘ नामक अपने तीन सौ पृष्ठों के ग्रंथ में वैदिक छंदों पर विचार किया है। उक्त पुस्तक में उन्होंने लिखा हैः एकाक्षरन्यून निचृत् - जब किसी मंत्र में छंद के नियत अक्षरों से एक अक्षर न्यून होता है, तब उस एकाक्षर की न्यूनता को प्रदर्शित करने के लिए छंद के नाम के साथ ‘निचृत‘ विशेषण लगाया जाता है। यथा -
तत्सवितुवरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्.
-ऋ. 3,62,10
इस ऋचा (वेदमंत्र) के प्रथम पाद में 8 अक्षरों के स्थान पर 7 अक्षर हैं, अतः इस में 23 अक्षर होने से यह ‘निचृत् गायत्री‘ है‘‘ (वैदिक छंदोमीमांसा, पू., 101-102)
‘निचृत्‘ शब्द का अर्थ भी न्यून अथवा अपूर्ण, अधूरा आदि है। वेदों के समकालीन या कुछ समय बाद रचे गए ‘दैवतब्राह्मण‘ नामक ग्रंथ में इस का अर्थ करते हुए लिखा हैः निचृत् निपूर्वस्य चृतेः (दैवत ब्राह्मण 3,20) अर्थात निचृत् शब्द नि उपसर्ग के साथ चृत् धातु (नि$चृत्) के संयोग से बना है। नि उपसर्ग न्यून व अभाव का बोधक है और चृत् धातु के अर्थ हैं- बांधना, प्रकाश रहित अर्थात् अंधा या अंधेरा, चमकरहित। मोनियर विलियम्स के अनुसार निचृत् का अर्थ है - एक ख़राब/दोषपूर्ण छंद।
यह तो हुई शास्त्रीय बात। अब ज़रा सामान्य बुद्धि से इस पर विचार करें। दो तिपाइयां पड़ी हुई हैं। एक की तीनों टांगें 8-8 इंच की हैं, एक की एक टांग 7 इंच और शेष दो 8-8 इंच। अब इस दूसरी तिपाई को क्या कहेंगे ? लंगड़ी या कुछ और ? वह ‘निचृत् तिपाई‘ है, ऐसे ही जिस तिपाए छंद के एक पाए में 7 अक्षर हों और शेष दो पायों में 8-8, उसे लंगड़ा छंद ही कहेंगे। इसी लंगड़ेपन को छंदःशास्त्रीय शब्दावली में ‘निचृत्‘ कहते हैं।
श्री युधिश्ठिर मीमांसक ने ‘ओरियंटल रिसर्च कान्फ्रेंस‘ के सन 1978 में पूना में हुए अधिवेषन में पड़े अपने षोध निबंध में, जो कि संस्कृत में है, यह बात साफ़ तौर पर कही है कि 23 अक्षरों का ‘निचृत गायत्री‘ छंद 24 अक्षरों के षुद्ध गायत्री छंद की अपेक्षा नीचा और घटिया है।
इयमृग वैदिकेशु गायत्रीति वा सावित्रीत वा गुरूमंत्र इति वा रूपेण प्रसिद्धा वर्तते. तस्या अयं पाठः ‘तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्‘ अस्या ऋचः पादे सप्ताक्षराणि, द्वितीयतृतीय पदयोष्चाश्टावश्टौ. एवमियमकाक्षरहीना त्रयोविंषत्यक्षरा गायत्रीछंदस्का ऋक्...एकाक्षरहीनाया गायत्र्याः स्थानं चतुर्विंषत्यक्षरगायत्र्याः अधस्तात् वर्तते.
-वैदिक छंदमीमांसा, द्वितीय परिषिश्ट, पृ. 286
अर्थात यह वेदमंत्र गायत्री, सावित्री अथवा गुरूमंत्र के रूप में प्रसिद्ध है. मंत्र इस प्रकार हैः
तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्.
इस मंत्र के प्रथम पाद में 7 अक्षर हैं और दूसरे व तीसरे में 8-8. इस प्रकार इस गायत्री छंद में एक अक्षर कम होने से यह 23 अक्षरों वाला छंद है. जिस गायत्री में एक अक्षर कम हो, वह 24 अक्षरी षुद्ध गायत्री से नीचे की चीज़ है.
वेद में जहां जहां यह छंद मिलता है, वहां सर्वत्र इस का छंदनिर्देष करते हुए ‘निचृत गायत्री‘ लिखा मिलता है-यजुर्वेद 3:35, 22:9, 30:2 और ऋग्वेद 3:62:10 में सर्वत्र इसे ‘निचृत गायत्री‘ लिखा है (देखें, मूल यजुर्वेद संहिता, वैदिक यंत्रालय, अजमेर, पंचम संस्करण 1927 ई.)
अतः स्पष्ट है कि ‘गायत्री मंत्र‘ में गायत्री छंद अपूर्ण व दोषपूर्ण  है। यह शुद्ध गायत्री न होकर ‘निचृत गायत्री‘ है।

व्याकरणिक अशुद्धियां
हम ने अपने लेख में कहा था कि ‘तत्‘ षब्द की बराबरी का ‘यत्‘ षब्द मंत्र में होना चाहिए, जैसे हिंदी में हम ‘जो‘ के साथ ‘वह‘ लगाते हैं: जो परिश्रम करता है, वह सफल होता है। इसे न मानते हुए पाठक महोदय ने कहा हैः यहां ‘यत‘ के समकक्ष ‘यत्‘ की आवष्यकता नहीं, क्योंकि ‘तत्‘ का अन्वय ‘वरेण्य भर्गः‘ से करने पर बात बिल्कुल ठीक हो जाती है और ‘भर्गः‘ षब्द पुल्लिंग भी है और नपुंसक लिंग भी। अपनी बात को सही बताने के उद्देष्य से वे स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा संस्कृत में किया हुआ गायत्री मंत्र का अर्थ उद्धृत करते हैं।
इस पर हमारा निवेदन है कि यहां ‘तत्‘ का समकक्ष ‘यत्‘ षब्द अत्यावष्यक है। ‘तत्‘ नपुंसक लिंग में है और भर्गः भी। इतना तो ठीक है, लेकिन ‘तत्‘ के समकक्ष ‘यो‘ के स्थान पर ‘यत्‘ (नपुं.) भी तो चाहिए। ‘यत्‘ के स्थान पर ‘यो‘ (पुं.) कैसे चल सकता है ? यह कहना ठीक है कि भर्गः नपुंसक लिंग और पुलिंग दोनों है। परंतु वह चाहे किसी लिंग में हो, इस से अंतर नहीं पड़ता। अंतर पड़ता है ‘तत्‘ के लिंग से। वह यदि नपुंसक होगा तो समकक्ष षब्द भी उसी लिंग में होगा और अगर वह पुलिंग हो तो समकक्ष षब्द भी पुलिंग में होगा।
यही कारण है कि पाठक महोदय द्वारा उद्धृत स्वामी दयानंद कृत अर्थ में भी ‘तत्‘ और ‘यत्‘ षब्द प्रयुक्त हुए हैं, जो ‘स्वार्थी दोशं न पष्यति‘ (स्वार्थी को अपनी कमियां दिखाई नहीं देतीं) के अनुसार पाठक महोदय को दिखाई नहीं दिए, स्वामी दयानंद ने लिखा हैः
सवितुर्देवस्य तव यत् ओम्भूर्भुवः स्वर्वरेण्यं भर्गोऽस्ति
तत् वयं धीमहि दधीमहि, धरेमहि ध्यायेम वा
-सत्यार्थप्रकाष, तृतीय समुल्लास, पृष्ठ 69
अर्थात सविता देवता का जो ओम् भूः भुवः स्वः रूपी वरेण्य भर्ग है, उसे हम धारण करें या ध्याएं.
इतना ही नहीं, स्वामी दयानंद को ‘यो‘ भी खटका था। यही कारण है कि उन्होंने इस मंत्र के अवषिश्ट का अर्थ करते हुए लिखा हैः
(यो) यः सविता देवः परमेष्वरो भवान्. अस्माकं धियः प्रचोदयात्. स एवास्माकं पूज्य उपासनीय इश्टदेवो भवतु.
-वही, पृष्ठ 69
अर्थात जो सविता देव आप आप परमेष्वर हैं, हमारी बुद्धियों को प्रेरित करें, वह आप ही हमारे पूज्य, उपासनीय इश्टदेव बनें।
स्वामी जी ने यः (यो) को सविता देवता से जोड़कर, उसे भर्गः (भर्गो) से पृथक् कर दिया, क्योंकि अन्यथा वाक्य अषुद्ध बनता था। ‘जो‘ न नपुंसक तत् से जुड़ता था और न नपुंसक भर्गः से। स्वामी जी का यो (यः) को स्थानान्तरित करना हमारे पक्ष का ही प्रकारान्तर से समर्थन है।
ऐसे में पाठक महोदय का कथन बिल्कुल ग़लत है। वह जिसे अधिकारी विद्वान के तौर पर अपने पक्ष के समर्थन के लिए उद्धृत करते हैं, वही उन के पक्ष को झुठलाने रहा है, अतः स्पश्ट है कि मंत्र व्याकरण की दृश्टि से अषुद्ध है।
हमने तीन संभावित संषोधन अपने मूल लेख में उद्धृत किए थे, जो विभिन्न विद्वानों ने सुझाए थे। यदि स्वामी दयानंद के अर्थ को ध्यान में रख कर पाठ को संषोधित करने की कोषिष करें तो मंत्र ऐसे बनेगाः यद् तत्सवितुर्वरेण्यं 8, भर्गो देवस्य धीमहि 8, धियो यो नः स प्रचोदयात् 9.

लेकिन यह कीचड़ को कीचड़ से धोने के समान होगा, क्योंकि इस से न केवल तीसरे पाद में 8 के स्थान पर 9 अक्षर हो जाएंगे, बल्कि यो के साथ सः की की गई भरती निरर्थक होगी, क्योंकि इन का न आपस में अन्वय होगा, न अर्थ जुड़ेगा और न छंद ही षुद्ध गायत्री बनेगा। तब केवल इतना होगा कि यह ‘निचृत् गायत्री‘ के स्थान पर ‘भुरिक् गायत्री‘ बन जाएगा। लंगड़े की जगह छांगुर (अधिकांगी).
-पृष्ठ 542,545

डा. सुरेन्द्र कुमार अज्ञात की यह लेखमाला देखने से पता चलता है कि आर्य-सनातनी विद्वान, दोनों ही गायत्री मंत्र को ‘निचृत् गायत्री‘ मानते हैं।
जो गायत्री मंत्र वेदमाता माना जाता है, क्या वह लंगड़ा और अषुद्ध हो सकता है ?
दिल कहता था कि ऐसा तो नहीं होना चाहिए लेकिन जब तक दिल की बात के समर्थन में पर्याप्त प्रमाण न हों तो भला दुनिया उसे मानती कब है ?
गायत्री मंत्र के विशय में जितनी भी किताबें हमें मार्कीट में, लायब्रेरियों में और इंटरनेट पर नज़र आतीं, उनमें हमने ऐसे प्रमाण तलाष करने की कोषिष की, जिनके आधार पर यह कहा जा सके कि गायत्री मंत्र ‘निचृत‘ नहीं है बल्कि पूरी तरह शुद्ध है।
दिन पर दिन गुज़रते गए और फिर साल भी गुज़रते चले गए। हमें ऐसी कोई किताब न मिली जो गायत्री मंत्र पर उठने वाली आपत्तियों का पूरी तरह निराकरण कर सके। ज़्यादातर किताबों में तो इस तरह की बातों पर कोई ज़िक्र तक नहीं मिलता।

जो ढूंढता है वह पाता है
सन 2011 में जब गायत्री के अध्ययन को 24 साल से ज़्यादा हो गए तो अचानक हमें एक लायब्रेरी में एक विद्वान प्रा. ह. रा. दिवेकर की किताब ‘ऋग्वेद सूक्त विकास‘ मिली और हमें लगा कि जितने प्रमाण विद्वान लेखक ने दिए हैं वे यह सिद्ध करने के लिए काफ़ी हैं कि गायत्री मंत्र वास्तव में एक षुद्ध मंत्र है।
गायत्री मंत्र की रचना कैसे हुई ?
वेद मर्मज्ञ विद्वान प्रा. ह. रा. दिवेकर के अनुसार
गाथाओं के कारण जिसे प्रसिद्धि मिली थी, वह कुशिक पुत्र गाथिन् विश्वामित्र का पिता था। यही विश्वामित्र अपना कान्यकुब्ज राज्य छोड़कर तपस्या करने चला गया। हेतु यह था कि ब्रह्म तेज प्राप्त कर ले। इसी अवसर पर द्वादशवार्षिक अकाल पड़ा। तपस्या पूरी कर विश्वामित्र के वापिस आने पर उसे ज्ञात हुआ कि जिस अयोध्या के राजपुत्र सत्यव्रत त्रिशंकु को वसिष्ठ की सलाह से राज्य से बाहर कर दिया था, उसी ने अकाल के दिनों में विश्वामित्र की स्त्री की तथा पुत्र की रक्षा की थी। इस ऋण को चुकाने के लिए विश्वामित्र ने त्रिशंकु के विषय में वसिष्ठ से बातचीत की और त्रिशंकु को राजपद दिलाया। त्रिशंकु ने भी राजा होते ही विश्वामित्र को राजा बनाना निश्चित किया। इस पर वसिष्ठ के अनुयायी चिढ़ गए और उन्होंने एक महासभा बुलाकर विश्वामित्र को पुरोहित बनने की अपनी योग्यता सिद्ध करने का आह्वान दिया। विश्वामित्र अपनी योग्यता प्रमाणित न कर सका और लज्जित हो अपने स्त्री पुत्र को लेकर अजयमेरू पर्वत पर पुष्कर सरोवर के पास जा बसा। दिनरात यही विचार मन में चलता कि योग्यता बढ़ाने के लिए अपनी बुद्धि को कौन सी प्रेरणा दे ?
इसी मनःस्थिति में एक दिन सूर्योदय के समय अंतःस्फूर्ति से उसके मुख से ये शब्द निकले।
‘‘तत्सवितुर्वरेणियं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।।‘‘
प्रायः गद्य वाक्य के शब्द जिस क्रम से बोले जाते हैं, वह क्रम इस वाक्य में न पाकर विश्वामित्र को प्रथम तो आश्चर्य लगा, पर विचार करने पर उसे समझा कि इस वाक्य में आठ आठ अक्षरों के तीन विभाग समान होते हैं। इस प्रकार इष्टार्थ को पदक्रम बदलकर अक्षरसंख्याबद्ध क्रम से व्यक्त करने को भी बदलकर देखा और इस अक्षरसंख्याबद्ध रचना को विकसित किया। अपने छंद से वाक्य रचना बदलने की नई छंदोविद्या निकाली। इस नूतनाविष्कृत विद्या को लेकर वह वसिष्ठ के पास गया और अपनी यह नई छंदोरचना उसे दिखलाई। सारे ही विद्वानों ने इस विद्या को तथा विश्वामित्र को माना। यह सन्मान दिखलाने के लिए सारे ही ब्राह्मणों ने यह निश्चय किया कि इस मंत्र की दीक्षा देकर छंदोरचना की शिक्षा दी जावे। तब से प्रत्येक ब्राह्मण को सर्वप्रथम यही मंत्र पढ़ाया जाने की परिपाटी पड़ी जो हज़ारों वर्षों से आज तक चालू है। 
-ऋग्वेद सूक्त विकास पृष्ठ 39

गायत्री मंत्र का पाठ प्राचीन पद्धति से किया जाए तो उसकी शुद्धता प्रकट हो जाती है
अब हमें गायत्री मंत्र के विषय में लगभग सारी ज़रूरी जानकारी हासिल हो चुकी है। हम देख सकते हैं कि जिस गायत्री मंत्र की स्फुरणा विश्वामित्र के अंतःकरण में हुई और जिसे देखकर उनके विरोधियों ने भी उसकी महानता को स्वीकार किया। अगर वास्तव में ही इस मंत्र में किसी प्रकार का मात्रा दोष होता तो सबसे पहले तो उनके विरोधी ही इस दोष को चिन्हित करते ?
उनके किसी भी विरोधी ने, यहां तक कि उनकी योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले वसिष्ठों ने भी गायत्री मंत्र के ‘निचृत‘ होने जैसा कोई दोष न पाया। जो दोष गायत्री मंत्र के रचनाकाल में किसी को नज़र न आया। वह दोष आज आर्य-सनातनी विद्वानों को क्यों नज़र आ रहा है ?
इस विशय में वेद मर्मज्ञ विद्वान प्रा. ह. रा. दिवेकर ने अपने 50 साल के षोध के बाद लिखा है कि

विचार करने पर यह जान पड़ता है कि उस समय का मंत्र पाठ आज हम जिस प्रकार मंत्र पाठ कर रते हैं, वैसा न था क्योंकि इन मंत्रों की विशेषता थी पादबद्ध रचना में तथा प्रतिपाद आने वाले अक्षरों की संख्या में। अतएव प्रथम तो इन मंत्रों के श्रोता लोग इस बात पर अधिक ध्यान देते होंगे कि अक्षरों की संख्या में कहीं अनाधिक्य तो नहीं हो रहा है। ऐसे समय गायत्री छंद के एक चरण में आठ अक्षरों के स्थान पर यदि कोई होता सात ही अक्षरों का चरण कहता होता तो उस पर छंदोभंग करने का दोष अवश्य ही आया होता। अब आज का हमारा गायत्री मंत्र ही देखा जाए तो उसके पहले ही चरण में आज हम उसे ‘‘तत्सवितुर्वरेण्यम्‘‘ ऐसा सात ही अक्षरों से युक्त कहते हैं। कल्पना कीजिए कि ‘‘आठ आठ अक्षर के तीन चरण वाला गायत्री छंद मैंने निर्माण किया है‘‘, यह कहने वाला विश्वामित्र गायत्री छंद कहने लगा और उसके प्रथम ही पाद में सात अक्षर कहें , तो यह ‘‘प्रथमग्रासे मक्षिकापातः‘‘ के समान होगा या नहीं ? अतएव यही मानना पड़ता है कि उस समय आज हम इस प्रथम पाद को जैसा सप्ताक्षरी कहते हैं वैसा न कहते हुए ‘‘तत्सवितुर्वरेणियम्‘‘ ऐसा आठ अक्षरों का ही कहते होंगे। ‘‘वरेण्य‘‘ शब्द ऋग्वेद में अनेकों स्थानों पर आया है। परंतु प्रत्येक स्थान में उसे चतुरक्षरी न माना जाए तो छंदो-भंग हुए बिना नहीं रहता। गायत्री का उदाहरण ऊपर दिया ही है। जब अनुष्टुप् छंद का उदाहरण लीजिए। इस छंद में चार चरण होते हैं, परंतु प्रत्येक चरण में आठ आठ ही अक्षर रहते हैं। वसूयव आत्रेय कहते कहते हैं- ‘‘अग्ने रायो दिवीह नः सुवृक्तिभिर्वरेण्य‘‘। यहां भी ‘‘वरेण्य‘‘ शब्द व्यक्षरी ही कहा जाय तो छंदो-भंग हुए बिना नहीं रहता। वही ‘‘वरेणिय‘‘ कहने से नहीं होता। त्रिष्टुप छंद के प्रत्येक चरण में ग्यारह अक्षर होते हैं। अब इसी छंद का ‘‘सत्रासाहं वरेण्यं सहोदाम्‘‘ यह पाद देखिए। इसके अक्षर होते हैं दस। यहां भी ‘‘वरेणिय‘‘ कहने से छंदोभंग नहीं होता। अतएव यही मानना उचित जान पड़ता है कि जब इन मंत्रों की रचना हुई तब ‘‘वरेण्य‘‘ शब्द ‘‘वरेणिय‘‘ ही कहा जाता था।
यह भेद केवल वरेण्य शब्द तक ही सीमित नहीं है। अन्यत्र भी कई जगह ऐसा पाठ भेद मानना ही पड़ता है। ‘‘अभ्यर्ष स्वायुध सोम द्विवर्हसं रयिंम्‘‘ इस पवमान मंत्र में तो सात भी नहीं छह ही अक्षर प्रथम चरण में हैं। इस प्रकार का गायत्री मंत्र उन दिनों कभी माना न जाता। अतएव यहां ‘‘अभि अर्ष सुआयुध‘‘ यही कहना उचित जान पड़ता है। संयुक्ताक्षर में य और व हों, तो कई जगह इस प्रकार इकार या उकार का विश्लेष अनुक्रमतः करके ही छंदोभंग टाला जा सकता है। किंतु यह भी केवल यहीं तक मर्यादित नहीं है। पवमान मंत्रों में से ही और एक उदाहरण प्रस्तुत करता हूं। ‘‘अभ्यर्ष महानां देवानां वीतिमंधसा‘‘ इस अर्थ के प्रथम चरण में भी छह ही अक्षर हैं। ‘‘अभ्यर्ष‘‘ को पूर्वकथनानुसार ‘‘अभि अर्ष‘‘ कहने पर भी सात ही अक्षर होते हैं। ‘‘य‘‘ या ‘‘व‘‘ से युक्त कोई दूसरा भी अक्षर नहीं है। अतएव इस छंदोभंग को टालने के लिए ‘‘महानां‘‘ को ‘‘महा अनाम्‘‘ कहने के बिना काई मार्ग नहीं। एक और उदाहरण। अगस्त्य के अन्नसूक्त का पाठ प्रायः श्राद्धकर्म में वैदिक ब्राह्मण करते हैं। इसका, सिवाय इसके कि इस सूक्त में अन्नवाचक पितु शब्द को कई बार प्रयुक्त किया गया है और इस पितु का पितृ शब्द से संबंध लगाया गया है, अन्य कारण नहीं दीखता। इसका छठा अनुष्टुप् छन्द का मंत्र है- ‘‘त्वे पितो महानां देवानां मनोहितम्‘‘। इसके प्रथम चरण में हैं छह अक्षर और दूसरे चरण में हैं सात। यहां भी छंदःशुद्धि की दृष्टि से ‘‘तुवे पितो महाअनां देवाअनां मनोहितम्‘‘ ऐसा ही कहा जाता होगा। किंतु ‘‘देवानाम्‘‘ शब्द सदा ही ‘‘देवाअनाम्‘‘ नहीं होता। यह अभी हम ‘‘अभ्यर्ष‘‘ मंत्र में देख ही चुके हैं। तात्पर्य यह कि छंदों का महत्व जिन दिनों माना जाता था-और प्रारंभ काल में तो उसे मानना ही पड़ेगा-उन दिनों में छंदोभंग न करने की चिन्ता ऋचा रचने वाले अवश्य ही लेते होंगे और उस समय जो शब्दों के वैकल्पिक रूप थे, उनका प्रयोग ही उन्होंने किया होगा। अन्यथा छंद का कुछ महत्व ही न रहता। अतएव छंदोभंग न करने का दंडक वे अवश्य ही पालते होंगे। इसी नियम का प्रतीक आधुनिक साहित्य शास्त्र में ‘‘अपि माषं मषं कुर्यात् छन्दोभंग न कारयेत्‘ नियम में दीखता है।
प्राचीन मंत्र पाठ वर्तमान पाठ से भिन्न होने का और भी एक प्रमाण दिया जा सकता है। आज के पाठ प्रघात में यदि छंद तीन चरणों का हो तो पहले दो चरण तथा यदि चार चरणों का हो तो पहला अर्ध और दूसरा अर्ध चरण मिलाकर कहे जाते हैं। इस रीति से जब प्रथम तथा तृतीय चरण आगे के चरण से मिलाकर-अर्थात अंत का स्वर अगले स्वर से संधियुक्त होकर कहा जाता है, तब छंदोभंग अनिवार्य रूप से हो ही जाता है। उदाहरण के लिए आज हम कहते हैं-‘‘एष स्य मद्यो रसोऽ वचष्टे दिवः शिशुः‘‘। पर थोड़े ही विचार से समझ पड़ेगा कि छंद के अनुरोध से ‘‘एष स्य मदियो रसः अवचष्टे दिवः शिशुः‘‘ कहना ही ठीक है। आज कहा जाता है ‘‘चरूर्न यस्तमींखयेन्दो न दानमींखय। वधैर्वधस्नवीं खय‘‘। किंतु यहां भी ऐसा ही कहना ठीक होगा कि-चरूर्न यस्त मींखय, इन्दो न दानमींखय। वधेर्वधस्नवींखय।‘‘ ईंखय और इन्दो का संधि कर कहने से न केवल छंदोभंग होता है, अपितु अंत्य यमक भी भग्न होता है। एक और उदाहरण लें। यह प्रसिद्ध शांति सूक्त से लिया है। इसके तेरहवें मंत्र का प्रथम चरण है-शं नो अज एकपाद्देवो अस्तु। यहां नो$अजः और देवो अस्तु यहां पूर्वरूप छंद की दृष्टि से नहीं किया गया। यह ठीक ही है। परंतु वही वसिष्ठ सूक्तकार आगे के ही चरण में ‘‘शन्नोऽहिर्बुध्न्यः शं समुद्रः‘‘ चरण संधि कर बिगाड़ देगा, यह तर्कसंगत नहीं है। जिसने पहले चरण में संधि न कर छंद नियम पाला, वही दूसरे चरण में संधि कर छंदनियम भंग करे, यह बात जंचती नहीं है। उसी प्रकार अगली ही ऋचा में ‘‘आदित्या रूद्रा वसवो जुषन्तेदं ब्रह्म क्रियमाणं नवीयः‘‘ कहकर अपना नया सूक्त दिखलाने वाला ‘‘इदं‘‘ शब्द ‘‘जुषन्त‘‘ के साथ संहित कर देगा, ऐसी कल्पना करना भी ठीक नहीं लगता। अतएव यही कहना युक्तियुक्त जान पड़ता है कि शांति सूक्त का रचयिता ‘‘आदित्या रूद्रा वसवो जुषन्त इदं ब्रह्म क्रियमाणं नवीयः‘‘ ही कहता होगा।
एक और भी प्रमाण इस बात का दिया जा सकता है कि सूक्त रचना काल में ऋचाएं आज की सी न कही जाती थीं। विश्वामित्र ने गद्यभिन्न नई अक्षरबद्ध रचना का निर्माण किया। उसके शिष्यों ने तथा दीक्षित सूक्तकारों ने अक्षरसंख्या में प्रतिचरण वृद्धि कर नए नए छंद निर्माण किए। पर इन सभी का मूल अक्षरसंख्या नियमन पर ही न था। अर्थात् केवल अक्षर गिनकर भाग करने से कोई गद्य वाक्य छंद नहीं बनता था। जिस धातु से छंद शब्द बना है उसका अर्थ ढांकना, आच्छादित करना है। इसलिए यह देखना पड़ेगा कि यह आच्छादन कौन सा है, जिससे ढकते ही गद्य का पद्य तत्काल बन जाता है। यह काम केवल शब्दपरिवर्तन से या अक्षरनियमन से नहीं होता। देखना पड़ेगा कि वह किससे होता है।
इसका स्पष्टीकरण करने के हेतु मैं आगे लिखा हुआ गद्य वाक्य लेता हूं।
वाक्य-‘‘मैं श्री सीताराम का स्मरण नित्य दिनरात करता हूं। फिर हृदय मे ? सुख की ही बरसात।‘‘
यहां जिस प्रकार वाक्य के विभाग किए हैं, उस प्रकार से वाक्य का उच्चारण किया जाए तो इसके गद्य न होने की किसी के मन में शंका भी न आवेगी। पर अब इसी वाक्य के
मैं श्री सीताराम का। स्मरण नित्य दिन-रात।।
करता हूं फिर हृदय में। सुख की ही बरसात।।
इस प्रकार विभाग कर पढ़ूं तो तत्काल ही श्रोता इसे दोहा कह उठेंगे।
विचार कीजिए कि यह भेद किस बात से पहचाना गया ?
केवल विराम स्थान के बदलने से। गद्य में अर्थ के अनुरोध से विराम किया जाता है, पर पद्य में वही विराम उच्चारण काल के अनुरोध से होता है। इस कालबद्धता के कारण से पद्य में एक नई गति, चाल पैदा होती है। इसी चाल का आस्वादन पड़ते ही गद्य को पद्य का रूप मिल जाता है। यह कालबद्धता निश्चित करने के लिए ही छंदःशास्त्र ने लघु गुरू ठहराए और लघु स्वर की एक मात्रा तथा गुरू स्वर की दो मात्राएं निश्चित कर हर एक चरण की मात्रा-संख्या निश्चित की। इसीलिए पूर्वोक्त वाक्य की 48 मात्राओं को यदि 2,14,8,6,7,21 इन मात्राओं के पश्चात् विराम कर पढ़ा जाए तो यह कानों को गद्य सा लगेगा। पर यदि यही 13,11,13,11 इन मात्राओं के पश्चात विराम-जिसे छंदःशास्त्र में यति कहा जाता है-देकर पढ़ा जाए तो यह छंद बन जाएगा। मात्रा वृत्तों में मात्राएं गिनी ही जाती हैं। गणवृत्तों में यद्यपि गणों का बंधन दिया जाता है तथापि प्रत्येक गण की मात्राएं नियत होने से वहां भी हर एक चरण मात्राबद्ध अर्थात् कालबद्ध होता ही है।
अब एक ऐसा वैदिक वाक्य लें जो यजुर्वेद में भी है तथा ऋग्वेद में भी है। यज्ञ के लिए कुश काटने के पश्चात् अध्वर्यु कुश की प्रार्थना करता है-‘‘देवबर्हिः शतवल्शं विरोह, सहस्रवल्शा वि वयं रूहेम।‘‘-हे देवताओं के लिए काटे हुए कुश, तुम सैकड़ों शाखाओं से बढ़ो, हज़ारों शाखाओं से हम भी बढ़ें।
आगे सोमयाग की विधि निश्चित होने पर जिस पेड़ को काटकर यूपस्तंभ बनाया जाता, उस पेड़ के लिए भी यही प्रार्थना की जाती। केवल ‘‘देवबर्हिः‘‘ के स्थान में ‘‘वनस्पते‘‘ कहा जाता और वनस्पति शब्द पुल्लिंगी होने से ‘‘शतवल्शं‘‘ की जगह ‘‘शतवल्शो‘‘ कहा जाता। यज्ञ में वही या वैसी ही अनेक क्रियाएं करनी होती हैं और इसलिए ऐसे शब्द बदल कर मंत्र कहे जाते हैं। पर जब यही ‘‘वनस्पते शतवल्शो विरोह, सहस्रवल्शा वि वयं रूहेम‘‘ वाक्य ऋग्वेद के तृतीय मंडल के अष्टम सूक्त की अंतिम ऋचा में मिला, तब यह प्रश्न मन में उठा कि ‘‘अध्वर्यु जिस प्रकार इस मंत्र का उच्चारण करता है, उसी प्रकार से यदि ‘‘होता‘‘ भी करता है तो दोनों में भेद क्या होता था जिसके कारण इसका यजुष्ट्व या ऋक्त्व जान पड़ता था ?
क्या होता की मंत्र की चाल वही रहती थी या दूसरी ?
और अगर दूसरी थी तो कौन सी ?
वह चाल सारे ही त्रिष्टुप छंद को एक सी ही लगनी चाहिए, जिस कारण से उसका त्रिष्टुप छंद में होना श्रोताओं को स्पष्टतया प्रतीत हो।‘‘ आज के वैदिक ऋग्वेद पाठक जिस प्रकार से वेदपाठ करते हैं, उनके पाठ पर से छंद प्रतीत नहीं होता। इन सारी बातों पर सालों विचार करने के पश्चात् मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि पुरानी पाठपद्धति अलग थी। आज मराठी और अन्य कुछ भाषाओं में जिस प्रकार कुछ वार्णिक छंद प्रत्येक वर्ण को, चाहे वह लघु हो या गुरू, द्विमात्रक कह कर ही बोले जाते हैं, उसी प्रकार कहे जाते होंगे और किसी भी दूसरी रीति से उनका गद्य से भेद नहीं दिखाया जा सकता। यदि वैदिक छंद का प्रत्येक अक्षर द्विमात्रक कहा जाए, तो जितने अक्षरों का छंद हो उसकी दूनी मात्राओं का नियत काल उसके उच्चार में लगेगा और इस कालबद्धता के कारण उसका छंदस्त्व प्रतीत होता रहेगा। बिना इस कल्पना के किए, ऋक् मंत्र, यजुर्मंत्रों से अलग पहचाने नहीं जा सकते।
मैं भली भांति समझता हूं कि यह मेरी कल्पना एकदम से किसी को भी मान्य न होगी। सालों तक मुझे ही वह ठीक न लगती थी। कारण यह था कि वेदपाठपद्धति की विशिष्टता केवल स्वरों में मानी जाती थी। उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित इन तीन प्रकार के स्वरों से युक्त शब्दों का उच्चार वेदपाठ में किया जाता है। और स्वर बदल गया तो अर्थ भी बदलता है। इन स्वरों का ठीक उच्चारण करने के लिए ही वेदग्रंथों में स्वर भी अक्षरों के साथ लिखे रहते हैं। ‘‘मा‘‘ केवल लिखा होगा तो उसका अर्थ ‘‘नहीं‘‘ होगा, पर यदि ‘‘मा‘‘ लिखा होगा तो उसका अर्थ होगा ‘‘मुझे‘‘। ‘इन्द्रशत्रुः‘ लिखा होगा तो उसका अर्थ होगा-इन्द्र के द्वारा मारा गया शत्रु। पर यदि ‘‘इन्द्रशत्रुः‘‘ कहा जाए तो अर्थ होगा-इन्द्र के द्वारा मारा गया शत्रु। पहला है आद्योदात्त और दूसरा है अन्त्योदात्त। स्वरों से अर्थ बदलने वाली वेदवाणी में, प्रत्येक अक्षर लघु-गुरू का विचार न करते यदि द्विमात्रक कहा जाए तो क्या उसके कारण से उदात्तादि त्रैस्वर्य में बाधा न आवेगी ?
यह शंका मेरे मन में बराबर उठती रही और इसी कारण से मेरी द्विमात्रक उच्चारण करने की कल्पना मुझे ठीक न लगती। पर एक दिन विचार करते- करते मेरे ध्यान में यह बात आई कि उदात्तादि त्रैस्वर्य तीव्रतामापक है, कालमापक नहीं। हृस्व उदात्त स्वर के उच्चारण को जो काल लगता है, उतना ही हृस्व अनुदात्त और हृस्व स्वरित के उच्चारण में लगता है। हृस्व स्वर उदात्त कहने में द्विमात्रक नहीं होता या अनुदात्त कहने में उसका काल एकमात्रा से कम नहीं होता। अतए यदि ‘‘वन‘पस्ते शतव‘ल्शो विरो‘ सहस्र‘वल्शा वि वयं रू‘हेम‘‘ यह वाक्य गद्य पद्धति से कहा जाए तो उसका त्रिस्वरात्मक रूप न बिगाड़ते उसका उच्चारण काल बत्तीस मात्रा का होगा। किंतु यदि इसी वाक्य में प्रत्येक अक्षर द्विमात्रक कहा जाए तो स्वर यथास्थित देकर भी उसका उच्चारण काल चवालीस मात्रा का होगा। इस प्रकार यदि यह वाक्य गद्यरूप में कहना हो तो उसकी मात्राओं का विचार भी आवश्यक नहीं। किंतु यदि उसे पद्यरूप में कहना हो तो हृस्व दीर्घ का विचार न कर प्रत्येक अक्षर द्विमात्रक कह कर चवालीस मात्राएं करनी होंगी। ऐसा करने से ही उसका उच्चारण कालबद्ध होगा और उसका जो छंदस्त्व है वह ध्यान में आवेगा। सार यह कि ऐसा अनुमान करना अनुचित नहीं है कि ऋक्काल में प्रत्येक अक्षर द्विमात्रक रूप से ही कहा जाता होगा।
परंतु क्या ऋग्वेद में और कहीं इस प्रकार हृस्व स्वर का उच्चारण एकमात्रक न होकर द्विमात्रक होता है ?
प्रश्न का उत्तर यही देना पड़ेगा कि होता है। उदाहरण देता हूं। पुरूषसूक्त में एक ऋचा है ‘‘यत्पुरूषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत‘‘। अंत में जो ‘‘त‘‘ है, वह लघु और एक-मात्रक ही है। परंतु वैदिक परंपरा में उसे कहा जाता है द्विमात्रक। वह क्यों ? इसका मूल यह है कि प्राचीन काल में वेदपाठी सारे ही अक्षरों का गुरू अर्थात् दीर्घ नहीं पर द्विमात्रक उच्चारण करते थे। आगे वैयाकरणों के प्रभाव से तथा कृष्ण यजुर्वेद के स्वाभाविक उच्चारण के उदाहरण से हम हृस्व स्वर का एकमात्रक तथा दीर्घ स्वर का द्विमात्रक उच्चार करने लगे, किंतु पादांत में स्वाभाविक ही जो द्विमात्रक उच्चारण होता है, उसे हमने नहीं बदला। उसे वैसा ही रहने दिया। उच्चार की तथा व्याकरण की दृष्टि से कालबद्धता न रहने के कारण हानि हुई। अंत्य स्वर यदि हृस्व हो तो केवल वही द्विमात्रक बना रहा: कृष्ण यजुर्वेद का यह परिणाम जैसे ऋचाओं पर हुआ उसी प्रकार ऋग्वेद पाठ में जो अंत्य स्वर द्विमात्रक कहा गया उसका परिणाम यजुर्वेद पर होकर यजुर्मंत्रों में भी अंत्यस्वर हृस्व होते भी वह द्विमात्रक कहा जाने लगा। शुक्ल यजुर्वेद में तो आज भी हृस्व वर्णों का उच्चारण दिमात्रक ही किया जाता है।
पर यह सारा हुआ कैसे ? इसका कारण है हमारी वर्णमाला की अपूर्णता। इस वर्णमाला में हम हृस्व दीर्घ भेद दिखला सकते हैं, पर न स्वर भेद दिखला सकते हैं जैसे उदात्तादि, या न मात्राभेद दिखा सकते हैं यथा द्विमात्रक लघु या एकमात्रक गुरू। स्वर भेद से अर्थ भेद होता था इसलिए वैदिक लेखन में नीचे तथा ऊपर, आड़ी और खड़ी लकीर देकर स्वर के लिए तो हमने व्यवस्था की, परंतु उच्चारण काल से अर्थ में अंतर न पड़ने के कारण हमने तब भी कुछ अलग चिन्ह करना आवश्यक न समझा, न आज भी।
यह कल्पना मुझे एक गांव सावन के महीने में झूला झूलती एक लड़की के गाने से सूझी। वह कह रही थी।
‘‘झूला झूले झूले, हाथ, पांव थके।
ऊंचे न जा सके ज़रा सा भी।‘‘
उसके शब्द मैंने लिख लिए। पर मेरी लड़की जब उसे पढ़ने लगी तो उसे चाल मालूम न होने से जैसा लिखा था वैसा ही पढ़ने लगी तो कानों को बुरा लगा क्योंकि झूलने वाली बच्ची हाथ, का ‘‘थ‘‘, पांव का ‘‘व‘‘, थके का ‘‘थ‘‘, ‘‘न‘‘ और ज़रा सा का ‘‘ज़‘‘ द्विमात्रक कहती थी। यहां अगर इन अक्षरों को द्विमात्रक न कहा जाए, तो चाल नहीं लगती और गाना गद्यप्राय जान पड़ता है। पर हमारी वर्णलिपि में ऐसा द्विमात्रक चिन्ह लिखा नहीं जाता। ‘‘कण्ह‘‘ तथा ‘‘कन्हाई‘‘ दोनों शब्द संस्कृत ‘‘कृष्ण‘‘ पर से बने हैं। दोनों में ‘‘क‘‘ का उच्चार एकसा नहीं होता। ‘‘कण्ह‘‘ में द्विमात्रक किंतु ‘‘कन्हाई‘‘ में एकमात्रक होता है। यह भेद दिखलाने के लिए आज भी हमारे पास कुछ साधन नहीं है। तुलसीदास जी कहते हैं ‘‘मोहि उपदेश दीन्ह गुरू नीका।‘‘ यहां पर आद्याक्षर ‘‘मो‘‘ गुरू होते हुए भी एकमात्रक कहा जाता है। व्याकरण की दृष्टि से यदि मैं मोहि के ‘‘मो‘‘ को द्विमात्रक पढ़ूं तो छंदोभंग होकर चौपाई का चौपाईपन ही नष्ट हो जाएगा। अतएव केवल लेखबद्ध होने से कविता कही नहीं जा सकती। पुरानी चालें भूल जाने के कारण आज के हमारे प्राध्यापक कविता कहते नहीं हैं। वे कविता पढ़ते हैं। मानों गद्य और पद्य में कुछ भेद नहीं। वेदपाठी जब स्वरयुक्त पाठ करते हैं तो उनकी सुस्वरता के कारण वैदिक छंदों का भग्न ध्यान में नहीं आता। पर इनकी संख्या भी दिन प्रतिदिन कम हो रही है और डर है कि स्वरयुक्त वेद कहने की प्रथा उठती जा रही है। पुरानी छंदस्था वाणी इसी प्रकार से विस्मृति पंक में फंस कर अदृश्य हुई-सी जान पड़ती है।
-ऋग्वेद सूक्त विकास पृष्ठ 44-51

इस तरह दिवेकर महोदय ने न केवल गायत्री मंत्र के छंद की शुद्धता को प्रमाणित कर दिया है बल्कि वेद पाठ की लुप्त हो चुकी प्राचीन पद्धति को भी खोज निकाला है जिससे अन्य कई मंत्रों के विशय में भी, जहां कि छंद दोश समझा जा रहा है, समस्या का समाधान कर दिया है।
गायत्री मंत्र की रचना शुद्ध गायत्री छंद में हुई है, अब यह बात पूरी तरह प्रमाणित हो चुकी है।
                                                                                       ...जारी

5 comments:

रविकर said...

टंगड़ी मारे दुष्ट जन, सज्जन गिर गिर जाय ।

विद्वानों की बात को, दो दद्दा विसराय ।



दो दद्दा विसराय, राय आस्था पर देना ।

रविकर नहीं सुहाय, नाव बालू में खेना ।



मिले सुफल मन दुग्ध, गाय हो चाहे लंगड़ी ।

वन्दनीय अति शुद्ध, मार ना "सर-मा" टंगड़ी |

मनोज कुमार said...

कमाल का आलेख है। कितनी सारी जानकारी अपने संग्रहित कर रखी है, और उसे बड़े ही सरल और रोचक भाषा में समझाया है। आभार आपका इस बेहतरीन आलेख को ब्लॉग जगत में प्रस्तुत करने के लिए।

रविकर said...

आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति भी है,
आज चर्चा मंच पर ||

शुक्रवारीय चर्चा मंच ||

charchamanch.blogspot.com

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

एकदम सटीक

Anita said...

गहन गम्भीर पोस्ट !