सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Tuesday, January 3, 2012

सूफ़ी साधना से आध्यात्मिक उन्नति आसान है Sufi silsila e naqshbandiya

सूफ़ी दर्शन क्या है और सूफ़ी कौन होता है ?
सूफ़ी दर्शन को ‘तसव्वुफ़‘ कहा जाता है। सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति को लेकर बहुत से मत हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि सूफ़ी शब्द ‘सफ़ा‘ से निकला है, जिसका अर्थ है विशुद्धता, मन-विचार और कर्म की विशुद्धता। जिन लोगों के बारे में यह शब्द बोला जाता है उनका चित्त शुद्ध होता है और ख़ुदा की मुहब्बत के साथ साथ उनके दिल में उसके बंदों के लिए भी मुहब्बत पाई जाती है। अमीर की अमीरी और किसी ग़रीब की ग़ुरबत इनके लिए कोई मायने नहीं रखती। अमीरों से पहले ये लोग ग़रीबों को अपने क़रीब करते हैं।
मदीना में पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मस्जिद के पास भी एक चबूतरा था। जिस पर कुछ ऐसे ही लोग जमा हो जाते थे, जिन्हें ईमान की मुहब्बत की वजह से अपना घर-बार छोड़ देना पड़ा था। चबूतरे को अरबी में ‘सु्फ़्फ़ा‘ कहा जाता है। इसीलिए इन लोगों को ‘अस्हाबे सुफ़्फ़ा‘ कहा जाता था। यही चबूतरा इनका निवास स्थल था। इनके खाने पीने के लिए भी मदीना के लोग ही कुछ ले आते थे। दुनिया के मालो दौलत की मुहब्बत से इनके दिल ख़ाली थे और ख़ुदा की मुहब्बत से भरे हुए थे।
कुछ विद्वानों का मत है कि सूफ़ी शब्द इसी ‘सुफ़्फ़ा‘ से निकला है। इसके अलावा कुछ और मत भी हैं। दरअसल सूफ़ी शब्द के बारे में जितने भी मत हैं, उन सबको एक साथ लिया जा सकता है क्योंकि कोई भी एक मत दूसरे मतों के खि़लाफ़ नहीं है। इस तरह एक शब्द के ये जितने भी अर्थ हैं इन सबको क़ुबूल किया जा सकता है।

सूफ़ियों का तरीक़ा
सूफ़ियों ने दुनिया को प्यार और अमन की तालीम दी है। पैग़म्बर साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने तक लोगों में किसी को सूफ़ी कहने का रिवाज न था। उनके ज़माने के बाद  दुनिया पर हुकूमत करने के लिए ऐसे लोग भी पैदा हो गए जिन्होंने इमामों और आलिमों को क़त्ल तक कर दिया। तब नेक लोगों ने ख़ुद को सियासत से अलग कर लिया ताकि वे बादशाहों के शर से महफ़ूज़ रहकर दुनिया के लोगों को दीन की तालीम दे सकें।
दीन सरासर रहमत है और आसान है। दुनिया की ज़िंदगी को सही उसूलों के मुताबिक़ गुज़ारना ही दीन है। इसी को धर्म कहा जाता है। दीन-धर्म के कुछ ज़ाहिरी उसूल होते हैं जिन्हें बरत कर इंसान एक अच्छे चरित्र का मालिक बनता है और समाज में इज़्ज़त पाता है। इन उसूलों के पीछे वे अक़ीदे और वे गुण होते हैं जो कि दिल में पोशीदा होते हैं। इन्हीं में से एक मुहब्बत है।
दीन-धर्म की बुनियाद ईश्वर अल्लाह की मुहब्बत पर होती है। जो दिल इस मुहब्बत से ख़ाली होता है वह दीन-धर्म पर चल ही नहीं सकता। यही वह प्रेम है जिसके ढाई आखर पढ़े बिना कोई ज्ञानी नहीं हो सकता।
जिससे मुहब्बत होती है उसकी याद दिल में बस जाती है और बार बार उसका चर्चा ज़बान से भी होता है। ज़िक्र और सुमिरन की हक़ीक़त यही है। दुनिया में जितने भी लोग किसी धर्म-मत को मानते हैं, वे ईश्वर अल्लाह का नाम ज़रूर लेते हैं।

सूफ़ियों के सिलसिले
सूफ़ी मतों में प्रसिद्ध चार सिलसिलों के नाम ये हैं।
1. चिश्तिया सिलसिला
2. क़ादरिया सिलसिला
3. नक्शबंदिया सिलसिला
4. सुहरावर्दिया सिलसिला

सूफ़ी सिलसिले और उनकी रूहानी निस्बतें
सभी सूफ़ियों ने ज्ञान का स्त्रोत केवल अल्लाह को माना है। नक्शबंदिया सिलसिला हज़रत अबूबक्र रज़ि. के वास्ते से पैग़म्बर साहब तक पहुंचता है जबकि चिश्तिया, क़ादरिया, सुहरावर्दिया, मदारिया, शतारिया और किबरौविया सिलसिले हज़रत अली रज़ि. के वास्ते से पैग़म्बर साहब तक पहुंचते हैं। इनके अलावा भी कई सिलसिले और थे लेकिन आजकल चार सिलसिले ही ज़्यादा ही मशहूर हैं। इनमें से हरेक सूफ़ी सिलसिले का निसाब अर्थात प्रशिक्षण और साधना का तरीक़ा ठीक वैसे ही निर्धारित है जैसे कि स्कूल कॉलेज का पाठ्यक्रम निर्धारित होता है। एक सिलसिले के निसाब और दूसरे सिलसिले के निसाब में अंतर भी ठीक ऐसे ही पाया जाता है जैसे कि यू. पी. बोर्ड और सीबीएसई के पाठ्यक्रम में अंतर पाया जाता है।
पहले एक सूफ़ी एक ही सिलसिले से ताल्लुक़ और निस्बत रखता था लेकिन बाद में वे एक से ज़्यादा सिलसिलों से भी निस्बत रखने लगे और आज चारों सिलसिलों में प्रशिक्षण देने की महारत रखने वाले शैख़ भी मौजूद हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो कि सातों सिलसिलों की रूहानी निस्बत रखते हैं। ऐसे कामिल शैख़ की नज़र में अजीब तासीर देखी जाती है।

इस्लाम में सन्यास वर्जित है
इन चारों सिलसिलों के इमामों में से कोई भी सन्यासी नहीं था। ये सभी इस्लामी शरीअत का अनुसरण करते थे। सामान्य गृहस्थ की तरह रहते हुए ही ये लोग अपनी साधनाएं करते थे।
‘दस्त बा-कार, दिल बा-यार‘ अर्थात ‘हाथ काम में और दिल याद में‘ इन लोगों का उसूल होता है। आज भी ये लोग मिलते हैं तो इन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है। हर ऐतबार से ये लोग बिल्कुल आम आदमी ही लगते हैं लेकिन जब गहरी नज़र से देखा जाता है तब पता चलता है कि ये लोग कोई एक क़दम भी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के तरीक़े से हटकर नहीं रखते जबकि आम आदमी अपनी मनमर्ज़ी जो चाहता है, वह करता है। यही बुनियादी फ़र्क़ है, जो इन्हें आम आदमियों से अलग करता है और यही इनकी पहचान है।
इन लोगों ने आत्मज्ञान और ब्रह्म से साक्षात्कार को सर्वजन के लिए सुलभ किया और भारी साधनाओं के बजाय बहुत आसान तरीक़े से आत्म विकास का मार्ग दिखाया।

हज़ारों नाम हैं एक मालिक के
हरेक आस्तिक अपने पैदा करने वाले को किसी न किसी नाम से याद करता ही है। जो जिस ज़बान को जानता है, उसी में उसका नाम लेता है। हरेक ज़बान में उसके सैकड़ों-हज़ारों नाम हैं। उसका हरेक नाम सुंदर और रमणीय है। ‘रमणीय‘ को ही संस्कृत में राम कहते हैं। ईश्वर से बढ़कर रमणीय कोई भी नहीं है। कोई उसका नाम ‘राम राम‘ जपता है तो कोई ‘अल्लाह अल्लाह‘ कहता है। अलग अलग ज़बानों में लोग अलग अलग नाम लेते हैं। योगी भी नाम लेता है और सूफ़ी भी नाम लेता है। यहां सृष्टा को राम कहा गया है जो कि दशरथपुत्र रामचंद्र जी से भिन्न और अजन्मा-अविनाशी है।
उसके नाम लेने के बहुत से तरीक़े हैं। कोई बुलंद आवाज़ से कहता है, कोई मन ही मन कहता है और कोई हल्की आवाज़ में।
बुलंद आवाज़ में नाम लेना ‘ज़िक्र ए जहरी‘ कहलाता है। चिश्तिया सिलसिले के सूफ़ियों का यही तरीक़ा है। नक्शबंदी सिलसिले का तरीक़ा ‘दिल में नाम का ध्यान‘ करना है। ‘दिल अल्लाह अल्लाह‘ कह रहा है, वे ऐसा ध्यान रखते हैं। इसे ‘ज़िक्र ए ख़फ़ी‘ कहते हैं। क़ादरिया सिलसिले वाले सूफ़ी ‘अल्लाह अल्लाह‘ हल्की सी आवाज़ में करते हैं। इसे ‘सिर्री ज़िक्र‘ कहते हैं।
भक्त जब अपने प्रभु का नाम लेता है तो कुछ समय बाद यह नाम उसके दिल में बस जाता है।

नक्शबंदी सूफ़ियों का तरीक़ा ए तालीम
हज़रत ख्वाजा बाक़ी बिल्लाह रहमतुल्लाह अलैह (1563-1603) की आमद के साथ ही नक्शबंदी सिलसिला हिंदुस्तान में आया। नक्शबंदी सूफ़ियों की तालीम में हमने देखा है कि उनकी एक तवज्जो (शक्तिपात) से ही मुरीद के दिल से रब का नाम ‘अल्लाह अल्लाह‘  जारी हो जाता है यानि चाहे वह किसी से बात कर रहा हो या कुछ और ही सोच रहा हो या सो रहा हो लेकिन रब का नाम उसके दिल से लगातार जारी रहता है। जिसे अगर शैख़ चाहे तो मुरीद अपने कानों से भी सुन सकता है बल्कि पूरा मजमा उसके दिल से आने वाली आवाज़ को सुन सकता है। इसे ‘लतीफ़ा ए क़ल्ब का जारी होना‘ कहा जाता है। लतीफ़ अर्थात सूक्ष्म होने की वजह से इन्हें लतीफ़ा कहा जाता है। हिंदी में इन्हें चक्र कहा जाता है।
इसके बाद शैख़ की निगरानी में मुरीद एक के बाद एक चार लतीफ़ों से भी ज़िक्र करता है। ये भी अल्लाह के ज़िक्र से जारी हो जाते हैं। ये पांचों लतीफ़े इंसान के सीने में पाए जाते हैं। इस तरह सीने में पांच लतीफ़े अल्लाह के ज़िक्र से जारी हो जाते हैं। इन पांचों लतीफ़ों के नाम यह हैं-
1. लतीफ़ा ए क़ल्ब
2. लतीफ़ा ए रूह
3. लतीफ़ा ए सिर्र
4. लतीफ़ा ए ख़फ़ी
5. लतीफ़ा ए इख़्फ़ा

इसके बाद छठे लतीफ़े से ‘अल्लाह अल्लाह‘ का ज़िक्र किया जाता है। इस लतीफ़े का नाम ‘लतीफ़ा ए नफ़्स‘ है। यह माथे पर दोनों भौंहों के दरम्यान होता है। जल्दी ही इससे भी अल्लाह का ज़िक्र जारी हो जाता है। सातवां लतीफ़ा होता है ‘लतीफ़ा ए उम्मुद्-दिमाग़‘। यह लतीफ़ा सिर के बीचों बीच होता है। इस तरह थोड़े ही दिन बाद बिना किसी भारी साधना के यह नाम शरीर के हरेक रोम से और ख़ून के हरेक क़तरे से जारी हो जाता है। इस ज़िक्र की ख़ासियत यह होती है कि ‘अल्लाह अल्लाह‘ की आवाज़ जब सुनाई देती है तो इस ज़िक्र में कोई गैप नहीं होता। यह ज़िक्र एक नाक़ाबिले बयान मसर्रत और आनंद से भर देता है। इसे ‘सुल्तानुल अज़्कार‘ कहते हैं और मुरीद इस मक़ाम को 3 माह से भी कम अवधि में पा लेता है।

अनल हक़ और अहम् ब्रह्मस्मि की अनुभूति का मक़ाम
इसके बाद ‘नफ़ी अस्बात‘ का ज़िक्र किया जाता है। यह भी बिना ज़बान हिलाए केवल दिल ही दिल में किया जाता है। इसमें ‘ला इलाहा इल्लल्लाह‘ का ज़िक्र एक ख़ास तरीक़े से किया जाता है। जल्दी ही मुरीद की तरक्क़ी होती है और उसे इस ज़िक्र की बरकतें मुशाहिदा होती हैं। इस ज़िक्र में एक नाक़ाबिले बयान लुत्फ़ मयस्सर आता है।
इसके बाद ‘मशारिब के मुराक़बे‘ शुरू हो जाते हैं। मुराक़बे में ज़िक्र नहीं किया जाता बल्कि अलग अलग मुराक़बे में अलग अलग लतीफ़ों के ज़रिये अल्लाह से ख़ास रूहानी फ़ैज़ान हासिल किया जाता है जो कि उसे पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और सिलसिले के पीरों के वास्ते से हासिल होता है।
आगे की मंज़िलें ‘फ़ना और बक़ा‘ से ताल्लुक़ रखती हैं। जहां मुरीद अपने सूक्ष्म अस्तित्व का बोध करता है।
यहां आकर इंसान की रूहानी आंख खुल जाती है और सबसे बड़े राज़ से पर्दा उठ जाता है। वह जान लेता है कि भेद की दीवार हक़ीक़त में कोई वुजूद नहीं रखती है।
हरेक जगह वह एक ही नूर को देखता है और ख़ुद को उस नूर का, उस अखंड ज्योति का हिस्सा महसूस करता है।
यह नूर वह होता है जो कि सबसे पहले पैदा किया गया है और यही ‘नूर ए अव्वल‘ हरेक चीज़ की पैदाइश की वजह है। हमारे सौर मंडल के लिए जो हैसियत हमारे सूर्य की है। सारी कायनात के लिए वही हैसियत इस ‘अव्वल नूर‘ की है। यही वह नूर है जिसके बारे में हज़रत गुरू नानक रहमतुल्लाह अलैहि ने फ़रमाया है कि ‘अव्वल अल्लाह नूर उपाया , क़ुदरत ते सब बंदे‘। गायत्री मंत्र का सविता और क़ुरआन का सिराजम्-मुनीरा यही है। यही प्रथम आत्मा है। हिन्दू भाई इसे ‘परमात्मा‘ कहते हैं और मुसलमान इसे ‘नूर ए मुहम्मदी‘ कहते हैं। वेद में जिसे ‘सृष्टि का अध्यक्ष‘ कहा गया है वह यही सविता है। इसी नूरे मुहम्मदी को मुसलमान ‘सरवरे कायनात‘ कहते हैं।
यह नूर मख़लूक़ अर्थात सृष्टि है। हरेक चीज़ इसी नूर का अंश है। यह ज्योति ईश्वर-अल्लाह नहीं है और न ही यह उसका अंश है बल्कि यह ईश्वर के गुणों का प्रतिबिंब है। बहुत लोग शुरू में असल और अक्स (प्रतिबिंब) में फ़र्क़ नहीं कर पाते। साधना करते करते जब योगी और सूफ़ी इस ‘अव्वल नूर-परमात्मा‘ का दर्शन करते हैं तो वे ख़ुद को उसका अंश पाते हैं।
जो लोग इस नूर को ईश्वर का अंश समझ लेते हैं वे ‘अनल हक़‘ और ‘अहं ब्रह्मस्मि‘ कहने लगते हैं।
ऐसा वह सोचकर नहीं कहते बल्कि वे बेअख्तियार होकर कहते हैं।
मुस्लिम सूफ़ी इस हालत में भी नमाज़ अदा करता है।
शैख़ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत यहीं पड़ती है क्योंकि शैख़ ही अपने मुरीद को गुमराह होने से बचाए रखता है और उसे हक़ीक़त से आगाह करता रहता है।
अनल हक़ से आगे मंज़िलें और भी हैं
अपने शैख़ की रहनुमाई में जो लोग इस मंज़िल से आगे निकल जाते हैं। वे यह जान लेते हैं कि ‘अल्लाह वराउलवरा है।‘ जो भी चीज़ नज़र में आती है या इंसान के ख़याल में समाती है, अल्लाह उस जैसा नहीं है। कोई भी चीज़ अल्लाह जैसी नहीं है। अल्लाह हर चीज़ से परे है। योगियों में भी जो यह जान लेते हैं कि परब्रह्म अचिन्त्य, अविज्ञेय और कल्पनातीत है, वे  ब्रह्म को परब्रह्म कहते हैं।
मुस्लिम सूफ़ी पहली कैफ़ियत को ‘तश्बीह‘ और दूसरी कैफ़ियत को ‘तन्ज़ीह‘ कहते हैं।
ख़ास बात यह है कि ये लोग यह सब अपने दिमाग़ से सोच सोच कर नहीं करते बल्कि ये सब उनकी अपनी निजी अनुभूतियां होती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि ‘क़लंदर हरचै गोयद दीदा गोयद‘ अर्थात क़लंदर जो कुछ कहता है, अपना देखा हुआ कहता है।
ऐसी अद्भुत अनुभूतियों के साक्षी लोग दुनिया को प्यार और अम्न का रास्ता ही दिखाते हैं और बिल्कुल सही दिखाते हैं।

सूफ़ी का मक़ाम
आत्मा इनके लिए मात्र तर्क का ही विषय नहीं रह जाती बल्कि यह इनकी देखी और जानी हुई हक़ीक़त होती है।
जिसे आत्मा, परमात्मा, परमेश्वर और स्वर्ग-नर्क में संदेह हो, वह सू़फ़ी तरीक़े से साधना कर ले। इसके बाद उसका संदेह हमेशा के लिए दूर हो जाएगा।
जीवन और मृत्यु का रहस्य जानने वाले यही लोग होते हैं।
अमरता की सिद्धि यहीं होती है।
आम लोगों की तरह मौत सूफ़ियों को भी आती है लेकिन यह उनकी जागृति के कारण उन्हें एक व्यापक जीवन की ओर ले जाती है जबकि साधारण आत्माएं सुषुप्ति की दशा में पड़ी रहती हैं।
नींद मौत है और जीवन के लिए जागरण अनिवार्य है और जागरण के लिए मालिक का नाम ही एकमात्र साधन है।

कामिल शैख़ की ज़रूरत
जागरण के लिए केवल मालिक का नाम लेना ही काफ़ी नहीं है बल्कि यह भी ज़रूरी है कि जो बात उसकी शान के खि़लाफ़ है वह बात उसके लिए न मानी जाए।
शैख़ यहां रास्ता दिखाता है और बताता है कि कौन सी बात उस मालिक की शान के मुनासिब है और कौन सी बात उसकी शान के खि़लाफ़ है ?
जो लोग बिना किसी कामिल शैख़ के साधना करते हैं, वे सही के साथ ग़लत भी करते रहते हैं और उनकी ग़लतियां उन्हें उनकी मंज़िल से दूर ही रखती हैं। साधना के प्रभाव से उनके अंदर कुछ शक्तियां भी जाग्रत हो जाती हैं। साधारण जनता उनकी साधना और उनकी शक्ति को, उनके प्रेम और उनकी भक्ति को देखकर उन्हें गुरू बना लेती है। ये लोग ख़ुद भी भटके हुए होते हैं और अपने अनुयायियों को भी भटकाते रहते हैं। इनके अनुयायी ईश्वर के बजाय इन्हीं गुरूओं की भक्ति शुरू कर देती है। भीड़ बढ़ती है तो दौलत भी आने लगती है और जब इस रास्ते से दौलत आती है तो फिर इनके चेलों में गद्दी पर क़ब्ज़े के लिए झगड़े खड़े हो जाते हैं।
इन गुरूओं के मरने के बाद संप्रदाय वुजूद में आ जाते हैं। अब भक्ति-शक्ति, प्रेम और साधना कुछ बाक़ी नहीं रहता। लोगों की श्रृद्धा को इनके चेले व्यवसाय मात्र बना लेते हैं। बहुत लोग इनके मुंह से ईश्वर अल्लाह का नाम सुनकर इनके जाल में फंस जाते हैं।
लोग थोड़ा भी अक्ल से काम लें तो इनके जाल से बच सकते हैं।
यह दुनिया है, यहां असल के साथ नक़ल भी हैं और कामिल शैख़ के साथ यहां पाखंडी भी हैं।
मक्कार लोग सूफ़ी और योगी बनकर माल इकठ्ठा कर रहे हैं और उन्हें देखकर अक्लमंद लोगों में धर्म-अध्यात्म के प्रति शक पैदा होने लगता है।
जो सत्य की खोज में है, उसे बहुत होशियार रहना चाहिए।
मालिक का नाम सही तरीक़े से और सही शैख़ की निगरानी में लिया जाए तो आत्मज्ञान सहज ही प्राप्त हो जाता है और जो बातें किताबों में पढ़कर बहुत बड़ी लगती हैं, वे सब कामिल शैख़ की बरकत से बहुत जल्दी हासिल हो जाती हैं।

कामिल शैख़ की पहचान
कामिल शैख़ वह है जो कि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. के आदर्श का पालन करता हो और उनके तरीक़े पर चलता हो।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. का चरित्र आज भी सुरक्षित है। जो उनके आदर्श को जानता है, उसके पास एक पैमाना और एक कसौटी होती है, जिसके ज़रिये वह असली और कामिल शैख़ को पहचान सकता है।
जो लोग शैख़ की खोज में हैं, जो लोग सत्य की खोज में हैं,
उनके लिए भी मालिक का नाम और प्रार्थना ही एकमात्र साधन है।
उन्हें चाहिए कि वे मालिक का नाम ‘या हादी या रहीम‘ लिया करें और दिल से दुआ करें कि मालिक उन्हें एक कामिल शैख़ अर्थात समर्थ गुरू से मिला दे। बहुत जल्दी ही वे एक कामिल शैख़ पा जाएंगे, बड़े अजीबो-ग़रीब ढंग से।
जिस भी जायज़ ज़रूरत के लिए यह नाम लिया जाता है, वह ज़रूरत पूरी होती है।
‘या हादी या रहीम‘ का अर्थ है ऐ हिदायत देने वाले, ऐ रहम करने वाले अर्थात हे मार्गदर्शक, हे दयालु।
यह नाम एक कामिल शैख़ मौलाना कलीम अहमद सिद्दीक़ी साहब का बख्शा हुआ अनमोल रूहानी तोहफ़ा है।

12 comments:

मनोज कुमार said...

गहन शोध कर ज्ञानपरक आलेख जिसमें ग्रहण करने लायक़ बहुत कुछ मिला। हमने तो आपसे बहुत कुछ सीखा है। सीख रहे हैं।

विभावरी रंजन said...

kya baat hai bas 3 mahino me itna kuch mil jata hai!
Mujhe bhi kisi qamil shaikh ka address de dijiye agar nirpeksh vichardhara ke honge to unse kuch gyaan liya jayega...ibaadat jaise bhi ho ki jaani chahiye.
Khair soofi sadhna paddhati ke alawa tantra ke oopar bhi thoda prakash daalne ki kripa karenge....

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

अनवर भाई! सूफ़ी सम्प्रदाय के बारे में आपका यह आलेख शर्तिया ज्ञानवर्द्धक हे। वैसे हम पहले से ही साधना की इस विधा के क़ाइल हें, इस ज़ानिब आपने हमारा ध्यान आकृष्ट कर हमारे लिए एक तोहफ़ा दिया है। शुक्रिया

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...
This comment has been removed by the author.
zeashan haider zaidi said...

Nice informative post!

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

जीवन के विभिन्न सरोकारों से जुड़ा नया ब्लॉग 'बेसुरम' और उसकी प्रथम पोस्ट 'दलितों की बारी कब आएगी राहुल ...' आपके स्वागत के लिए उत्सुक है। कृपा पूर्वक पधार कर उत्साह-वर्द्धन करें

Unknown said...

Allah ke rasool ne ye sab baaten apne followers yani sahaba ko nahi batain thi aap ko kahan se yeh sab maaloom hua Quran se ya Allah ke rasool se ya kahi aur se.... ??????

Unknown said...

शुक्रिया जनाब बहुत बहुत शुक्रिया

Only Fact said...

Jazakallah apne bhut badi pareshani dur kr di janab kab se peer ki talash me tha apne nakashbandiya silsile ke baare me jo bataya he bhut khub bhai shukriya.

Only Fact said...

Jazakallah apne bhut badi pareshani dur kr di janab kab se peer ki talash me tha apne nakashbandiya silsile ke baare me jo bataya he bhut khub bhai shukriya.

ravindra kumar said...

bahoot he gyanvardhak lekh

Shiv Sharma - A Spiritual Journey said...

मै भी सूफी हूं। गुरु जब दीक्षा के वक्त शक्तिपात करता है वही पार लगा देता है। निरंतर नाम ध्यान का अभ्यास जरूरी है।