सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Monday, January 30, 2012
वेद में सरवरे कायनात स. का ज़िक्र है Mohammad in Ved Upanishad & Quran Hadees
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पैदाइश अरबी माह रबी-उल-अव्वल में हुई थी और रबी उल अव्वल के महीने में ही उनकी वफ़ात हुई। इस माह की 12 तारीख़ को उनकी वफ़ात से जोड़कर ही बारह वफ़ात कहा जाता है।
रबी उल अव्वल का मुबारक महीना चल रहा है। लिहाज़ा उनका ज़िक्र किया जाना ज़रूरी है।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद स. की जीवनी ऐतिहासिक रूप से पूरी तरह महफ़ूज़ है। लोग उसे पढ़कर उनके बारे में जानते हैं और उनकी सच्चाई पर विश्वास करते हैं, उन्हें अपना आदर्श मानकर अपनी ज़िंदगी भी उनके उसूलों के मुताबिक़ ढालते हैं। दुनिया के जो लीडर उन्हें ईश्वर का दूत नहीं मानते, वे भी उन्हें एक महान सुधारक और अपना आदर्श मानते हैं और उनका नाम आदर से लेते हैं,
लेकिन दुनिया का दौर सिर्फ़ इतना ही नहीं है जिसे इतिहास ने महफ़ूज़ कर लिया है, कुछ ऐसी हक़ीक़तें भी हैं जिन्हें इतिहास ने महफ़ूज़ नहीं किया है और कुछ हक़ीक़तें ऐसी भी हैं जो इतिहास के दायरे से ही बाहर हैं। ये हक़ीक़तें इतनी गहरी हैं कि इन्हें गहरी समझ वाले ही याद रख पाए और इन्हें समझने के लिए समझ भी गहरी ही चाहिए।
हक़ीक़त गहरी हो और उसे भारत न जानता हो ?
यह एक असंभव बात है।
भारत का साहित्य गहरी हक़ीक़तों से लबालब भरा हुआ है। गहरी हक़ीक़तों के जानने वाले को ही पंडित कहा जाता है।
पंडित वह सत्य भी जानते हैं जिसे इतिहास ने महफ़ूज़ कर लिया और जिसे सब जानते हैं और पंडित वह परम सत्य भी जानते हैं जिसे सुरक्षित रखने का सौभाग्य केवल उन्हीं को मिला और जिसे कम लोग ही जानते हैं।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को भारत के वैदिक पंडित किस रूप में जानते हैं ?
यह जानने के लिए आज हम वेद भाष्यकार पंडित दुर्गाशंकर सत्यार्थी जी का एक लेख यहां पेश कर रहे हैं।
आज तक लोगों ने यही जाना है कि ‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो ज्ञानी होय‘ लेकिन अगर ‘ज्ञान‘ के दो आखर का बोध ढंग से हो जाए तो दिलों से प्रेम के शीतल झरने ख़ुद ब ख़ुद बहने लगते हैं। यह एक साइक्लिक प्रॉसेस है।
पंडित जी का लेख पढ़कर यही अहसास होता है।
मालिक उन्हें इसका अच्छा पुरस्कार दे, आमीन !
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद स. की जीवनी ऐतिहासिक रूप से पूरी तरह महफ़ूज़ है। लोग उसे पढ़कर उनके बारे में जानते हैं और उनकी सच्चाई पर विश्वास करते हैं, उन्हें अपना आदर्श मानकर अपनी ज़िंदगी भी उनके उसूलों के मुताबिक़ ढालते हैं। दुनिया के जो लीडर उन्हें ईश्वर का दूत नहीं मानते, वे भी उन्हें एक महान सुधारक और अपना आदर्श मानते हैं और उनका नाम आदर से लेते हैं,
लेकिन दुनिया का दौर सिर्फ़ इतना ही नहीं है जिसे इतिहास ने महफ़ूज़ कर लिया है, कुछ ऐसी हक़ीक़तें भी हैं जिन्हें इतिहास ने महफ़ूज़ नहीं किया है और कुछ हक़ीक़तें ऐसी भी हैं जो इतिहास के दायरे से ही बाहर हैं। ये हक़ीक़तें इतनी गहरी हैं कि इन्हें गहरी समझ वाले ही याद रख पाए और इन्हें समझने के लिए समझ भी गहरी ही चाहिए।
हक़ीक़त गहरी हो और उसे भारत न जानता हो ?
यह एक असंभव बात है।
भारत का साहित्य गहरी हक़ीक़तों से लबालब भरा हुआ है। गहरी हक़ीक़तों के जानने वाले को ही पंडित कहा जाता है।
पंडित वह सत्य भी जानते हैं जिसे इतिहास ने महफ़ूज़ कर लिया और जिसे सब जानते हैं और पंडित वह परम सत्य भी जानते हैं जिसे सुरक्षित रखने का सौभाग्य केवल उन्हीं को मिला और जिसे कम लोग ही जानते हैं।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को भारत के वैदिक पंडित किस रूप में जानते हैं ?
यह जानने के लिए आज हम वेद भाष्यकार पंडित दुर्गाशंकर सत्यार्थी जी का एक लेख यहां पेश कर रहे हैं।
आज तक लोगों ने यही जाना है कि ‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो ज्ञानी होय‘ लेकिन अगर ‘ज्ञान‘ के दो आखर का बोध ढंग से हो जाए तो दिलों से प्रेम के शीतल झरने ख़ुद ब ख़ुद बहने लगते हैं। यह एक साइक्लिक प्रॉसेस है।
पंडित जी का लेख पढ़कर यही अहसास होता है।
मालिक उन्हें इसका अच्छा पुरस्कार दे, आमीन !
वेद भाष्य ऋग्वेद 1,1,2 के अन्तर्गत पं. दुर्गाशंकर महिमवत् सत्यार्थी
वेद में सरवरे कायनात स. का ज़िक्र है
वेद भाष्य ऋग्वेद 1,1,2
अग्नि पूर्वोभिर्ऋषिभिरीडयो नूतनैरूत। स देवां एह वक्षति।। 2।।
अग्नि पूर्वकालीन ऋषियों द्वारा ईलन किए जाने योग्य है, और नूतनों द्वारा वह देवों को यहां एकत्रित करता है।
नूतनैरूत का अभिप्राय यह नहीं है कि वेद की दृष्टि में कुछ ऋषि ऐसे हैं जो प्राक्-वेदकालीन थे। ब्राह्मण ग्रंथ वेद का प्रामाणिक भाष्य है, जो वैदिक संस्कृत में है। उनके कुछ विशिष्ट भागों को पृथक करके आरण्यक ग्रंथों का निर्माण हुआ। जिस प्रकार श्रीमद्-भगवदगीता में उसके महत्व के कारण महाभारत से पृथक करके प्रकाशित किया गया। फिर आरण्यक ग्रंथों में से भी ब्रह्म विद्या विषयक प्रकरणों को पृथक्तः उपनिषद संज्ञा देकर प्रकाशित एवं प्रचारित किया।
आधुनिक युग के सर्वोत्तम वेदवेत्ता भगवान् ऋषि दयानंद ने संहिता ग्रंथों को वेद का आदि भाष्य माना। वेद के द्वितीय खंड यजुर्वेद का आदि भाष्य दो प्रकार के संहिता ग्रंथ समूहों पर आधारित है-
1. कृष्ण यजुर्वेद
2. शुक्ल यजुर्वेद
आधुनिक हिंदू समाज में एक हिस्सा ऐसा भी पाया जाता है जो संहिता ग्रंथों को वेद का आदि भाष्य नहीं प्रत्युत वेद माना करता है। फिर आरण्यक ब्राह्मण ग्रंथों का भाग है। ये आरण्यक ग्रंथ भी वेद हैं और उपनिषद आरण्यक ग्रंथों का भाग हैं। इसीलिए उपनिषद भी वेद हैं। उपनिषदों के आगे वेद नहीं है।
यह एक ऐसा विवादग्रस्त विषय है जो वर्तमान हिंदू समाज में भी विवादित बना हुआ है। विद्वानों का एक वर्ग अभी भी यही मानता है कि उपनिषद स्वयं वेद है और दूसरा वर्ग अपने इस निश्चित मत पर दृढ़ है कि उपनिषद वेद नहीं, प्रत्युत वेद भाष्य है।
यहां यह प्रश्न अनावश्यक है कि इन दोनों विद्वानों में से कौन सत्य है ?
सप्रतिस्थिति श्वेताश्वतर उपनिषद का परिगणन कृष्ण यजुर्वेद अंतर्गत किया जाता है। अब, यदि यह वेद है, तो यह स्वयं वेद प्रमाण है कि वेद के पहले का कोई काल वेद की दृष्टि में नहीं है, और यदि यह वेद भाष्य है तो, यह वेद के आदि भाष्य का कथन है कि सृष्टि में आज तक कोई प्राक्-वेदकाल नहीं पाया जाता।
‘यो ब्रह्मण विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्रच प्रहिणोति तस्मै। त ण्ं ह देवमात्मबुद्धि प्रकाशं मुमुक्षुर्वे शरणमंह प्रपद्ये।‘
श्वेताश्वतरोपनिषद 6,18
‘जो सर्वप्रथम परमपुरूष का निर्माण करता है और जो उसके लिए वेद का प्रकाश करता है मोक्ष की इच्छा रखने वाला मैं उसी दिव्य गुणों वाले की शरण में जाता हूं जिसने अपनी बुद्धि का प्रकाश (वेद में) किया है।
यहां सृष्टि के सर्वप्रथम पुरूष का निर्माण करके उसके लिए ईशान द्वारा वेद का प्रकाश किए जाने की बात कही गई है।
क़ुरआन मजीद के अनुसार भी कोई ऐसा काल नहीं था जब ईशान ने अपने ज्ञान से किसी व्यक्ति को वंचित रखा हो। यही कथन इस संदर्भ में बाइबिल का है।
स्वर्गीय आचार्य शम्स नवेद उस्मानी की प्रख्यात रचना ‘अगर अब भी न जागे तो ...‘ (प्रस्तुति: एस. अब्दुल्लाह तारिक़) ने इस संदर्भ में एक पृथकतः स्वतंत्र अध्याय पाया जाता है।
सरवरे कायनात (स.) ही इस सृष्टि का प्रारंभ हैं।
‘सबसे पहले मशिय्यत के अनवार से,
नक्शे रूए मुहम्मद (स.) बनाया गया
फिर उसी नक्श से मांग कर रौशनी
बज़्मे कौनो मकां को सजाया गया
-मौलाना क़ासिम नानौतवी
संस्थापक दारूल उलूम देवबंद
हदीसों (= स्मृति ग्रंथों ?) से केवल इतना ही ज्ञात नहीं होता कि रसूलुल्लाह (स.) की नुबूव्वत भगवान मनु के शरीर में आत्मा डाले जाने से पहले थी, प्रत्युत हदीसों से यह भी प्रमाणित होता है कि हज़रत मुहम्मद मुज्तबा (स.) का निर्माण संपूर्ण सृष्टि, देवों, द्यावापृथिवी और अन्य सृष्टियों और परम व्योम (= मूल में ‘अर्शे इलाही‘) से भी पहले हुई थी और फिर नूरे-अहमद (स.) ही को ईशान परब्रह्म परमेश्वर ने अन्य संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति का माध्यम बनाया।
(‘अगर अब भी न जागे तो ...‘ पृ. सं. 105 उर्दू से अनुवाद, दुर्गाशंकर महिमवत् सत्यार्थी।)
उक्त पुस्तक और कतिपय अन्य पुस्तकों में भी यह प्रमाणित करने के प्रयत्न किए गए हैं कि वेद में हुज़ूर स. का उल्लेख नराशंस के नाम से पाया जाता है। मेरे अपने अध्ययन के अनुसार मैं उन समस्त व्यक्तियों से क्षमा प्रार्थी हूं। जो अपने अध्ययनों द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। मैं यह मानता हूं, और अपने अध्ययन द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि वेद में नराशंस शब्द से कोई व्यक्ति विशेष अभिप्रेत नहीं है। उसका अभिप्राय केवल नरों द्वारा प्रशंसित मात्र है, जिससे कहीं परम पुरूष भी अभिप्रेत है, कहीं ईशान स्वयमेव भी अभिप्रेत है और कहीं अन्य व्यक्ति भी अभिप्रेत हैं। मेरे अपने अध्ययन के अनुसार वेद में हुज़ूर स. का उल्लेख उससे कहीं अधिक उत्कृष्ट ढंग से है, जितने उत्कृष्ट ढंग से संदभिति मनीषियों द्वारा उनका उल्लेख पाया गया है -
‘इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। यो अस्याध्यक्षः परमेव्योमन्तसो अंग वेद यदि वा न वेद।‘
वेद 1,10,129,7
यह विविध प्रकार की सृष्टि जहां से हुई, इसे वह धारण करता है अथवा नहीं धारण करता जो इसका अध्यक्ष है परमव्योम में, वह हे अंग ! जानता है अथवा नहीं जानता।
सामान्यतः वेद भाष्यकारों ने इस मंत्र में ‘सृष्टि के अध्यक्ष‘ से ईशान परब्रह्म परमेश्वर अर्थ ग्रहण किया है, किन्तु इस मंत्र में एक बात ऐसी है जिससे यहां ‘सृष्टि के अध्यक्ष‘ से ईशान अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह बात यह है कि इस मंत्र में सृष्टि के अध्यक्ष के विषय में कहा गया है - ‘सो अंग ! वेद यदि वा न वेद‘ ‘वह, हे अंग ! जानता है अथवा नहीं जानता‘। ईशान के विषय में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वह कोई बात नहीं जानता। फलतः यह सर्वथा स्पष्ट है कि ईशान ने यहां सृष्टि के जिस अध्यक्ष की बात की है, वह सर्वज्ञ नहीं है। मेरे अध्ययन के अनुसार यही वेद में हुज़ूर स. का उल्लेख है। शब्द ‘नराशंस‘ का प्रयोग भी कई स्थानों पर उनके लिए हुआ है किन्तु सर्वत्र नहीं। इसी सृष्टि के अध्यक्ष का अनुवाद उर्दू में सरवरे कायनात स. किया जाता है।
फलतः श्वेताश्वतरोपनिषद के अनुसार वेद का सर्वप्रथम प्रकाश जिस पर हुआ। वह यही सृष्टि का अध्यक्ष है। जिसे इस्लाम में हुज़ूर स. का सृष्टि-पूर्व स्वरूप माना जाता है।
मैं जिन प्रमाणों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं, आइये अब उसका सर्वेक्षण किया जाए।
स्वर्गीय आचार्य शम्स नवेद उस्मानी की तर्जुमानी करते हुए एस. अब्दुल्लाह तारिक़ अपनी प्रख्यात रचना ‘अगर अब भी न जागे तो ...‘ में लिखते हैं -
‘नीचे हम हज़रत मुजददिद अलफ़े-सानी शैख़ अहमद सरहिन्दी रह. के मक्तूबाते-रब्बानी से कतिपय हदीसें उद्धृत हैं।
प्रख्यात हदीसे-क़ुदसी में आया है, ‘मैं एक छिपा हुआ ख़ज़ाना था, मैंने महबूब रखा कि मैं पहचाना जाऊं, फिर मैंने मख़लूक़ को पैदा किया ताकि मैं पहचाना जाऊं।‘
सर्वप्रथम जो चीज़ इस ख़ज़ाने से प्रागट्य के रूप में समक्ष आई, वह मुहब्बत थी, जो कि मख़लूक़ात की पैदाइश का कारण हुई।
(मक्तूबाते रब्बानी, उर्दू अनुवाद, दफ़तर 3, भाग 2, पृष्ठ 160, मक्तूब 122, प्रकाशक: मदीना पब्लिशिंग कंपनी बंदर रोड कराची)
(-‘अगर अब भी न जागे तो ...‘, पृष्ठ 105, उर्दू से अनुवाद: दुर्गाशंकर महिमवत् सत्यार्थी-)
यह दोनों तथ्य, जिनका उल्लेख हदीसों में इस प्रकार हुआ है, हदीसों से भी पहले हिंदू धर्मग्रंथों में इस प्रकार अभिव्यक्त की गई हैं-
‘एको ऽ हं बहु स्याम्।
‘मैं एक हूं अनेक हो जाऊं।‘
‘स वै नैव रेमे तस्मादे काकी न रमते स द्वितीयमैच्छत्।‘
शतपथ ब्राह्मण 14,3,4,3
उसने रमण नहीं किया इसीलिए एकाकी रमण नहीं होता। उसने द्वितीय की इच्छा की...।
‘यदिदं किंच मिथुनं आपिपीलिकाभ्यः तन्सर्वमसृक्षीत्। सो वेद अहं वाव सृष्टिरस्मि। अहं टि इदं सर्व असृक्षीति। ततः सृष्टिरभवत्।‘
-शतपथ ब्राह्मण 14,3,4,3
‘जो कुछ यह चींटी पर्यन्त जोड़ा है उस संपूर्ण की सृष्टि की। उसने जाना मैं ही सृष्टि हूं। मैंने ही यह सब सृष्टि की है। उससे सृष्टि हुई।‘
‘कामस्तदये समवर्तत।‘
-वेद 1,10,129,4
‘सर्वप्रथम काम भलीभांति विद्यमान था।‘
श्वेताश्वरोपनिषद और हदीसों, दोनों के अनुसार फलतः कोई प्राक्-वैदिक काल नहीं था। वेद का प्रकाश सृष्टि के आदि पुरूष पर हुआ। जिसे हिंदू इतिहास में परम पुरूष और इस्लामी साहित्य में नूरे अहमदी स. कहा गया है। ऐसी स्थिति में यह कदापि नहीं माना जा सकता है कि वेद से पहले भी किन्हीं ऋषियों का अस्तित्व था, फिर यहां किन्हें पूर्वकालीन ऋषि कहा गया है ?
वस्तुतः यह सारा भ्रम यह मानने से है कि वेद केवल सृष्टि के आदिकालीन जनों के लिए है- वेद वस्तुतः सार्वकाल्कि ग्रंथ है - वह हर काल के लोगों के लिए है -
‘देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति‘
-वेद 4,10,18,32
देखो दिव्य गुणों वाले के काव्य को, न मरा न पुराना होता।
वस्तुतः वेद और क़ुरआन, दोनों का एक साथ अस्तित्व नास्तिकों के लिए घोर परेशानी का कारण बना हुआ है और अंग्रेज़ इस संभावना से आतंकित थे कि यदि यह रहस्य हिंदुओं और मुसलमानों पर खुल गया कि वेद और क़ुरआन, दोनों की सैद्धांतिक शिक्षाएं सर्वथा एक समान हैं और दोनों एक ही धर्म के आदि और अंतिम ग्रंथ हैं, तो हिंदुओं और मुसलमानों में वह मतैक्य संस्थापित होगा कि उन्हें हिंदुस्तान से पलायताम की स्थिति में आने के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं रहेगा। यही कारण है कि अंग्रेज़ों ने वेद के बहुदेवोपास्यवादी अनुवाद कराना अपना सर्वप्रथम कार्य निश्चित किया।
किंतु वेद दिव्य गुणों वाले का वह काव्य है, जो न मरा न पुराना होता। जब वेद इस दावे के साथ अपने आप को सृष्टि के आदि में प्रस्तुत कर रहा था तो यह प्रगट है कि उसमें केवल सृष्टि के आदिकाल के दृष्टिकोण से बातें नहीं की जा सकती थीं। उसमें सृष्टि के आदिकाल से आगे के काल की दृष्टिकोण से भी बातें की जानी परमावश्यक थीं, और ‘पूर्वऋषि‘ ‘पहले के ऋषि‘ सृष्टि के आदिकाल में नहीं तो उसके उपरांत तो पाए जाने ही थे। फलतः विल्सन और ग्रिफ़िथ ने जो संदेह इस मंत्र में उत्पन्न करने का प्रयास किया है, वह वेद के इस मंत्र का ऐसा भाष्य करने से उत्पन्न होता है जो वेदमंत्र (वेद 4,10,8,32) से टकराता है। पाश्चात्य महानुभावों ने अपने अनुवादों और भाष्यों में इस बात का लेशमात्र भी ध्यान नहीं रखा है कि वे अन्य मंत्रों के अनुवादों और भाष्यों से न टकराएं। ऐसे भाष्य और ऐसे अनुवाद केवल ऐसे ही लोगों के लिए मान्य हो सकते हैं जिन्होंने अपने सामान्य ज्ञान तक का प्रयोग वेद को समझाने के लिए न करने की क़सम खा रखी है। वेद ब्रह्मवाक्य है, कलाम ए इलाही है अथवा कम से कम उसका दावा तो अपने विषय में यही है। जिसका कोई तर्कसंगत तथ्यपरक खंडन आज तक किसी के द्वारा नहीं किया जा सका। ऐसी स्थिति में उसके साथ ऐसा खिलवाड़ केवल वही व्यक्ति कर सकता है अथवा वही व्यक्ति समूह जिसे ईशान का लेशमात्र भी भय न हो-
‘जब उनसे कहा जाता है कि ज़मीन में उत्पात न फैलाओ तो कहते हैं हम तो सुधार करने वाले लोग हैं। जान लो वास्तव में यही लोग उत्पात फैलाने वाले हैं।, परंतु इन्हें इसका ज्ञान नहीं है। जब इनसे कहा जाता है कि इस तरह ईमान लाओ, जिस तरह लोग ईमान लाए हैं, तो कहते हैं क्या हम उस तरह ईमान लाएं जिस तरह मूर्ख लोग ईमान लाए हैं ?
जान लो ! मूर्ख यही लोग हैं, परंतु इन्हें ज्ञात नहीं है।‘
-क़ुरआन मजीद 2,11-13
(‘विश्व एकता संदेश‘ पाक्षिक, पृष्ठ संख्या 7 व 8 पर वेद भाष्य ऋग्वेद 1,1,2 के अन्तर्गत पं. दुर्गाशंकर महिमवत् सत्यार्थी द्वारा लिखित ‘वेद आदि ग्रन्थ और क़ुरआन अन्तिम ग्रन्थ है‘, अंक 19-20, अक्तूबर 1994, रामपुर, उ. प्र.)
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पोस्ट के विषय को समझने के लिए ये दो किताबें भी उपयोगी हैं,
1. अगर अब भी न जागे तो ...
लेखक - आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रह.
2. नराशंस और अंतिम ऋषि
लेखक - डा. वेद प्रकाश उपाध्याय
वेद में सरवरे कायनात स. का ज़िक्र है
वेद भाष्य ऋग्वेद 1,1,2
अग्नि पूर्वोभिर्ऋषिभिरीडयो नूतनैरूत। स देवां एह वक्षति।। 2।।
अग्नि पूर्वकालीन ऋषियों द्वारा ईलन किए जाने योग्य है, और नूतनों द्वारा वह देवों को यहां एकत्रित करता है।
नूतनैरूत का अभिप्राय यह नहीं है कि वेद की दृष्टि में कुछ ऋषि ऐसे हैं जो प्राक्-वेदकालीन थे। ब्राह्मण ग्रंथ वेद का प्रामाणिक भाष्य है, जो वैदिक संस्कृत में है। उनके कुछ विशिष्ट भागों को पृथक करके आरण्यक ग्रंथों का निर्माण हुआ। जिस प्रकार श्रीमद्-भगवदगीता में उसके महत्व के कारण महाभारत से पृथक करके प्रकाशित किया गया। फिर आरण्यक ग्रंथों में से भी ब्रह्म विद्या विषयक प्रकरणों को पृथक्तः उपनिषद संज्ञा देकर प्रकाशित एवं प्रचारित किया।
आधुनिक युग के सर्वोत्तम वेदवेत्ता भगवान् ऋषि दयानंद ने संहिता ग्रंथों को वेद का आदि भाष्य माना। वेद के द्वितीय खंड यजुर्वेद का आदि भाष्य दो प्रकार के संहिता ग्रंथ समूहों पर आधारित है-
1. कृष्ण यजुर्वेद
2. शुक्ल यजुर्वेद
आधुनिक हिंदू समाज में एक हिस्सा ऐसा भी पाया जाता है जो संहिता ग्रंथों को वेद का आदि भाष्य नहीं प्रत्युत वेद माना करता है। फिर आरण्यक ब्राह्मण ग्रंथों का भाग है। ये आरण्यक ग्रंथ भी वेद हैं और उपनिषद आरण्यक ग्रंथों का भाग हैं। इसीलिए उपनिषद भी वेद हैं। उपनिषदों के आगे वेद नहीं है।
यह एक ऐसा विवादग्रस्त विषय है जो वर्तमान हिंदू समाज में भी विवादित बना हुआ है। विद्वानों का एक वर्ग अभी भी यही मानता है कि उपनिषद स्वयं वेद है और दूसरा वर्ग अपने इस निश्चित मत पर दृढ़ है कि उपनिषद वेद नहीं, प्रत्युत वेद भाष्य है।
यहां यह प्रश्न अनावश्यक है कि इन दोनों विद्वानों में से कौन सत्य है ?
सप्रतिस्थिति श्वेताश्वतर उपनिषद का परिगणन कृष्ण यजुर्वेद अंतर्गत किया जाता है। अब, यदि यह वेद है, तो यह स्वयं वेद प्रमाण है कि वेद के पहले का कोई काल वेद की दृष्टि में नहीं है, और यदि यह वेद भाष्य है तो, यह वेद के आदि भाष्य का कथन है कि सृष्टि में आज तक कोई प्राक्-वेदकाल नहीं पाया जाता।
‘यो ब्रह्मण विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्रच प्रहिणोति तस्मै। त ण्ं ह देवमात्मबुद्धि प्रकाशं मुमुक्षुर्वे शरणमंह प्रपद्ये।‘
श्वेताश्वतरोपनिषद 6,18
‘जो सर्वप्रथम परमपुरूष का निर्माण करता है और जो उसके लिए वेद का प्रकाश करता है मोक्ष की इच्छा रखने वाला मैं उसी दिव्य गुणों वाले की शरण में जाता हूं जिसने अपनी बुद्धि का प्रकाश (वेद में) किया है।
यहां सृष्टि के सर्वप्रथम पुरूष का निर्माण करके उसके लिए ईशान द्वारा वेद का प्रकाश किए जाने की बात कही गई है।
क़ुरआन मजीद के अनुसार भी कोई ऐसा काल नहीं था जब ईशान ने अपने ज्ञान से किसी व्यक्ति को वंचित रखा हो। यही कथन इस संदर्भ में बाइबिल का है।
स्वर्गीय आचार्य शम्स नवेद उस्मानी की प्रख्यात रचना ‘अगर अब भी न जागे तो ...‘ (प्रस्तुति: एस. अब्दुल्लाह तारिक़) ने इस संदर्भ में एक पृथकतः स्वतंत्र अध्याय पाया जाता है।
सरवरे कायनात (स.) ही इस सृष्टि का प्रारंभ हैं।
‘सबसे पहले मशिय्यत के अनवार से,
नक्शे रूए मुहम्मद (स.) बनाया गया
फिर उसी नक्श से मांग कर रौशनी
बज़्मे कौनो मकां को सजाया गया
-मौलाना क़ासिम नानौतवी
संस्थापक दारूल उलूम देवबंद
हदीसों (= स्मृति ग्रंथों ?) से केवल इतना ही ज्ञात नहीं होता कि रसूलुल्लाह (स.) की नुबूव्वत भगवान मनु के शरीर में आत्मा डाले जाने से पहले थी, प्रत्युत हदीसों से यह भी प्रमाणित होता है कि हज़रत मुहम्मद मुज्तबा (स.) का निर्माण संपूर्ण सृष्टि, देवों, द्यावापृथिवी और अन्य सृष्टियों और परम व्योम (= मूल में ‘अर्शे इलाही‘) से भी पहले हुई थी और फिर नूरे-अहमद (स.) ही को ईशान परब्रह्म परमेश्वर ने अन्य संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति का माध्यम बनाया।
(‘अगर अब भी न जागे तो ...‘ पृ. सं. 105 उर्दू से अनुवाद, दुर्गाशंकर महिमवत् सत्यार्थी।)
उक्त पुस्तक और कतिपय अन्य पुस्तकों में भी यह प्रमाणित करने के प्रयत्न किए गए हैं कि वेद में हुज़ूर स. का उल्लेख नराशंस के नाम से पाया जाता है। मेरे अपने अध्ययन के अनुसार मैं उन समस्त व्यक्तियों से क्षमा प्रार्थी हूं। जो अपने अध्ययनों द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। मैं यह मानता हूं, और अपने अध्ययन द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि वेद में नराशंस शब्द से कोई व्यक्ति विशेष अभिप्रेत नहीं है। उसका अभिप्राय केवल नरों द्वारा प्रशंसित मात्र है, जिससे कहीं परम पुरूष भी अभिप्रेत है, कहीं ईशान स्वयमेव भी अभिप्रेत है और कहीं अन्य व्यक्ति भी अभिप्रेत हैं। मेरे अपने अध्ययन के अनुसार वेद में हुज़ूर स. का उल्लेख उससे कहीं अधिक उत्कृष्ट ढंग से है, जितने उत्कृष्ट ढंग से संदभिति मनीषियों द्वारा उनका उल्लेख पाया गया है -
‘इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। यो अस्याध्यक्षः परमेव्योमन्तसो अंग वेद यदि वा न वेद।‘
वेद 1,10,129,7
यह विविध प्रकार की सृष्टि जहां से हुई, इसे वह धारण करता है अथवा नहीं धारण करता जो इसका अध्यक्ष है परमव्योम में, वह हे अंग ! जानता है अथवा नहीं जानता।
सामान्यतः वेद भाष्यकारों ने इस मंत्र में ‘सृष्टि के अध्यक्ष‘ से ईशान परब्रह्म परमेश्वर अर्थ ग्रहण किया है, किन्तु इस मंत्र में एक बात ऐसी है जिससे यहां ‘सृष्टि के अध्यक्ष‘ से ईशान अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह बात यह है कि इस मंत्र में सृष्टि के अध्यक्ष के विषय में कहा गया है - ‘सो अंग ! वेद यदि वा न वेद‘ ‘वह, हे अंग ! जानता है अथवा नहीं जानता‘। ईशान के विषय में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वह कोई बात नहीं जानता। फलतः यह सर्वथा स्पष्ट है कि ईशान ने यहां सृष्टि के जिस अध्यक्ष की बात की है, वह सर्वज्ञ नहीं है। मेरे अध्ययन के अनुसार यही वेद में हुज़ूर स. का उल्लेख है। शब्द ‘नराशंस‘ का प्रयोग भी कई स्थानों पर उनके लिए हुआ है किन्तु सर्वत्र नहीं। इसी सृष्टि के अध्यक्ष का अनुवाद उर्दू में सरवरे कायनात स. किया जाता है।
फलतः श्वेताश्वतरोपनिषद के अनुसार वेद का सर्वप्रथम प्रकाश जिस पर हुआ। वह यही सृष्टि का अध्यक्ष है। जिसे इस्लाम में हुज़ूर स. का सृष्टि-पूर्व स्वरूप माना जाता है।
मैं जिन प्रमाणों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं, आइये अब उसका सर्वेक्षण किया जाए।
स्वर्गीय आचार्य शम्स नवेद उस्मानी की तर्जुमानी करते हुए एस. अब्दुल्लाह तारिक़ अपनी प्रख्यात रचना ‘अगर अब भी न जागे तो ...‘ में लिखते हैं -
‘नीचे हम हज़रत मुजददिद अलफ़े-सानी शैख़ अहमद सरहिन्दी रह. के मक्तूबाते-रब्बानी से कतिपय हदीसें उद्धृत हैं।
प्रख्यात हदीसे-क़ुदसी में आया है, ‘मैं एक छिपा हुआ ख़ज़ाना था, मैंने महबूब रखा कि मैं पहचाना जाऊं, फिर मैंने मख़लूक़ को पैदा किया ताकि मैं पहचाना जाऊं।‘
सर्वप्रथम जो चीज़ इस ख़ज़ाने से प्रागट्य के रूप में समक्ष आई, वह मुहब्बत थी, जो कि मख़लूक़ात की पैदाइश का कारण हुई।
(मक्तूबाते रब्बानी, उर्दू अनुवाद, दफ़तर 3, भाग 2, पृष्ठ 160, मक्तूब 122, प्रकाशक: मदीना पब्लिशिंग कंपनी बंदर रोड कराची)
(-‘अगर अब भी न जागे तो ...‘, पृष्ठ 105, उर्दू से अनुवाद: दुर्गाशंकर महिमवत् सत्यार्थी-)
यह दोनों तथ्य, जिनका उल्लेख हदीसों में इस प्रकार हुआ है, हदीसों से भी पहले हिंदू धर्मग्रंथों में इस प्रकार अभिव्यक्त की गई हैं-
‘एको ऽ हं बहु स्याम्।
‘मैं एक हूं अनेक हो जाऊं।‘
‘स वै नैव रेमे तस्मादे काकी न रमते स द्वितीयमैच्छत्।‘
शतपथ ब्राह्मण 14,3,4,3
उसने रमण नहीं किया इसीलिए एकाकी रमण नहीं होता। उसने द्वितीय की इच्छा की...।
‘यदिदं किंच मिथुनं आपिपीलिकाभ्यः तन्सर्वमसृक्षीत्। सो वेद अहं वाव सृष्टिरस्मि। अहं टि इदं सर्व असृक्षीति। ततः सृष्टिरभवत्।‘
-शतपथ ब्राह्मण 14,3,4,3
‘जो कुछ यह चींटी पर्यन्त जोड़ा है उस संपूर्ण की सृष्टि की। उसने जाना मैं ही सृष्टि हूं। मैंने ही यह सब सृष्टि की है। उससे सृष्टि हुई।‘
‘कामस्तदये समवर्तत।‘
-वेद 1,10,129,4
‘सर्वप्रथम काम भलीभांति विद्यमान था।‘
श्वेताश्वरोपनिषद और हदीसों, दोनों के अनुसार फलतः कोई प्राक्-वैदिक काल नहीं था। वेद का प्रकाश सृष्टि के आदि पुरूष पर हुआ। जिसे हिंदू इतिहास में परम पुरूष और इस्लामी साहित्य में नूरे अहमदी स. कहा गया है। ऐसी स्थिति में यह कदापि नहीं माना जा सकता है कि वेद से पहले भी किन्हीं ऋषियों का अस्तित्व था, फिर यहां किन्हें पूर्वकालीन ऋषि कहा गया है ?
वस्तुतः यह सारा भ्रम यह मानने से है कि वेद केवल सृष्टि के आदिकालीन जनों के लिए है- वेद वस्तुतः सार्वकाल्कि ग्रंथ है - वह हर काल के लोगों के लिए है -
‘देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति‘
-वेद 4,10,18,32
देखो दिव्य गुणों वाले के काव्य को, न मरा न पुराना होता।
वस्तुतः वेद और क़ुरआन, दोनों का एक साथ अस्तित्व नास्तिकों के लिए घोर परेशानी का कारण बना हुआ है और अंग्रेज़ इस संभावना से आतंकित थे कि यदि यह रहस्य हिंदुओं और मुसलमानों पर खुल गया कि वेद और क़ुरआन, दोनों की सैद्धांतिक शिक्षाएं सर्वथा एक समान हैं और दोनों एक ही धर्म के आदि और अंतिम ग्रंथ हैं, तो हिंदुओं और मुसलमानों में वह मतैक्य संस्थापित होगा कि उन्हें हिंदुस्तान से पलायताम की स्थिति में आने के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं रहेगा। यही कारण है कि अंग्रेज़ों ने वेद के बहुदेवोपास्यवादी अनुवाद कराना अपना सर्वप्रथम कार्य निश्चित किया।
किंतु वेद दिव्य गुणों वाले का वह काव्य है, जो न मरा न पुराना होता। जब वेद इस दावे के साथ अपने आप को सृष्टि के आदि में प्रस्तुत कर रहा था तो यह प्रगट है कि उसमें केवल सृष्टि के आदिकाल के दृष्टिकोण से बातें नहीं की जा सकती थीं। उसमें सृष्टि के आदिकाल से आगे के काल की दृष्टिकोण से भी बातें की जानी परमावश्यक थीं, और ‘पूर्वऋषि‘ ‘पहले के ऋषि‘ सृष्टि के आदिकाल में नहीं तो उसके उपरांत तो पाए जाने ही थे। फलतः विल्सन और ग्रिफ़िथ ने जो संदेह इस मंत्र में उत्पन्न करने का प्रयास किया है, वह वेद के इस मंत्र का ऐसा भाष्य करने से उत्पन्न होता है जो वेदमंत्र (वेद 4,10,8,32) से टकराता है। पाश्चात्य महानुभावों ने अपने अनुवादों और भाष्यों में इस बात का लेशमात्र भी ध्यान नहीं रखा है कि वे अन्य मंत्रों के अनुवादों और भाष्यों से न टकराएं। ऐसे भाष्य और ऐसे अनुवाद केवल ऐसे ही लोगों के लिए मान्य हो सकते हैं जिन्होंने अपने सामान्य ज्ञान तक का प्रयोग वेद को समझाने के लिए न करने की क़सम खा रखी है। वेद ब्रह्मवाक्य है, कलाम ए इलाही है अथवा कम से कम उसका दावा तो अपने विषय में यही है। जिसका कोई तर्कसंगत तथ्यपरक खंडन आज तक किसी के द्वारा नहीं किया जा सका। ऐसी स्थिति में उसके साथ ऐसा खिलवाड़ केवल वही व्यक्ति कर सकता है अथवा वही व्यक्ति समूह जिसे ईशान का लेशमात्र भी भय न हो-
‘जब उनसे कहा जाता है कि ज़मीन में उत्पात न फैलाओ तो कहते हैं हम तो सुधार करने वाले लोग हैं। जान लो वास्तव में यही लोग उत्पात फैलाने वाले हैं।, परंतु इन्हें इसका ज्ञान नहीं है। जब इनसे कहा जाता है कि इस तरह ईमान लाओ, जिस तरह लोग ईमान लाए हैं, तो कहते हैं क्या हम उस तरह ईमान लाएं जिस तरह मूर्ख लोग ईमान लाए हैं ?
जान लो ! मूर्ख यही लोग हैं, परंतु इन्हें ज्ञात नहीं है।‘
-क़ुरआन मजीद 2,11-13
(‘विश्व एकता संदेश‘ पाक्षिक, पृष्ठ संख्या 7 व 8 पर वेद भाष्य ऋग्वेद 1,1,2 के अन्तर्गत पं. दुर्गाशंकर महिमवत् सत्यार्थी द्वारा लिखित ‘वेद आदि ग्रन्थ और क़ुरआन अन्तिम ग्रन्थ है‘, अंक 19-20, अक्तूबर 1994, रामपुर, उ. प्र.)
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पोस्ट के विषय को समझने के लिए ये दो किताबें भी उपयोगी हैं,
1. अगर अब भी न जागे तो ...
लेखक - आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रह.
2. नराशंस और अंतिम ऋषि
लेखक - डा. वेद प्रकाश उपाध्याय
Saturday, January 28, 2012
वेद क़ुरआन में ईश्वर का स्वरूप God in Ved & Quran
शारदा देवी को एक वर्ग ज्ञान की देवी मानता है। आज उसकी पूजा की जा रही है। बहुत से ब्लॉगर्स ने इस पूजन-अर्चन को आज अपने लेख का विषय बनाया है और उसकी पूजा और प्रशंसा में गीत भी लिखे हैं।
देवी देवताओं की पूजा उन लोगों का मौलिक अधिकार है जो कि उनकी पूजा में विश्वास रखते हैं। लेकिन जब इस पूजा और विश्वास को इस महान देश की ज्ञान परंपरा में देखा जाता है तो पता चलता है कि वैदिक परंपरा में मूर्ति पूजा बाद के काल में शामिल हुई।
जो लोग ज्ञानी हैं वे जानते हैं कि अनंत ज्ञान का स्वामी ईश्वर नर और नारी नहीं है। जब इस धरती पर ज्ञान का आलोक था तब यहां मूर्ति पूजा भी नहीं थी। तत्व की बात तो यह है कि इस सृष्टि का संचालन कोई देवी देवता नहीं कर रहा है बल्कि एक सर्वशक्तिमान ईश्वर ही कर रहा है। जो लोग उसके बनाये नियमों का पालन करते हैं उन्हें वह ज्ञान देता है और जो लोग उसके नियमों की अवहेलना करते हैं, वे ज्ञान से वंचित रह जाते हैं।
आज भारत के युवा विदेशों में जाते हैं ज्ञान पाने के लिए, शिक्षा पाने के लिए जबकि विदेशों में शारदा और सरस्वती की वंदना-पूजा-उपासना सिरे से ही नहीं होती। वे लक्ष्मी और कुबेर की पूजा भी नहीं करते लेकिन वर्ल्ड बैंक पर क़ब्ज़ा उनका ही है और भारत के लोग उनसे आर्थिक सहायता पाने की गुहार लगाते रहते हैं।
ज्ञान, शिक्षा और धन विदेशियों को क्यों मिला और देवियों के पुजारियों से भी ज़्यादा क्यों मिला ?
‘तत्व ज्ञानी‘ आज भी यही बताते हैं कि सारी चीज़ों का स्वामी केवल एक परमेश्वर है और उसके गुणों को देवी और देवता बताने वाली बातें केवल कवियों की कल्पनाएं हैं. जब ईश्वर के सत्य स्वरूप को भुला दिया गया तो ईश्वर ने अरब के लोगों को अपने सत्य स्वरूप का बोध कराया. हमारी सफलता इसमें है कि हम परमेश्वर के मार्गदर्शन में चलें जो कि वास्तव में ही ज्ञान का देने वाला है। उसका परिचय वेद और क़ुरआन में इस तरह आया है-
1. हुवल अव्वलु वल आखि़रु वज़्-ज़ाहिरु वल्-बातिनु, व हु-व बिकुल्लि शैइन अलीम.
वही आदि है और अन्त है, और वही भीतर है और वही बाहर है, और वह हर चीज़ का ज्ञान रखता है.
(पवित्र क़ुरआन, 57,3)
त्वमग्ने प्रथमो अंगिरस्तमः ...
अर्थात हे परमेश्वर ! तू सबसे पहला है और सबसे अधिक जानने वाला है.
(ऋग्वेद, 1,31,2)
2. ...लै-इ-स कमिस्लिहि शैउन ...
अर्थात उसके जैसी कोई चीज़ नहीं है.
(पवित्र क़ुरआन, 42,11)
न तस्य प्रतिमा अस्ति ...
उस परमेश्वर की कोई मूर्ति नहीं बन सकती.
(यजुर्वेद, 32,3)
क़ुरआन में ईश्वर के स्वरूप का वर्णन देखकर जाना जा सकता है कि वह उसी ईश्वर की उपासना की शिक्षा देता है जिसकी उपासना सनातन काल से होती आ रही है। सनातन धर्म यही है। सनातन सत्य को सब मिलकर थामें तो बहुत सी दूरियां ख़ुद ब ख़ुद ही ख़त्म हो जाएंगी।
जो चीज़ लोगों को बांटती है वह धर्म नहीं होती।
जो चीज़ लोगों को ज्ञान के मार्ग से हटा दे, वह भी धर्म नहीं होती।
सत्य को जानेंगे तो हम सब एक बनेंगे।
एकता में शक्ति होती है।
3. क़द तबय्यनर्रूश्दु मिनल ग़य्यि, फ़मयं-यकफ़ुर बित्ताग़ूति व-युअमिम्-बिल्लाहि फ़-क़दिस्-तम-सका बिल् उर्वतिल वुस्क़ा...
सही बात नासमझी की बात से अलग होकर बिल्कुल सामने आ गई है, अब जो ताग़ूत (दानव) को ठुकरा दे और अल्लाह पर ईमान ले आए उस ने एक बड़ा सहारा थाम लिया.
(पवित्र क़ुरआन, 2,256)
दृष्ट्वारूपेव्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः अश्रद्धांमनृते दधाच् छृद्धां सत्ये प्रजापतिः
अर्थात परमेश्वर ने सत्य और असत्य के तथ्य को समझकर सत्य को असत्य से अलग कर दिया. उसकी आज्ञा है कि (हे लोगो) सत्य में श्रद्धा करो, असत्य में अश्रद्धा करो.
(यजुर्वेद, 19,77)
ईश्वर के कल्याणकारी सत्य स्वरूप का ज्ञान केवल ईश्वर की वाणी के माध्यम से ही पाया जा सकता है।
ईश्वर का सत्य स्वरूप और उसका आदेश आप सबके सामने है, अब जो मानना चाहे वह मान ले।
परमेश्वर अपनी वाणी क़ुरआन में कहता है कि
निश्चय ही यह (क़ुरआन) सारे संसार के रब की अवतरित की हुई चीज़ है. इसको स्पष्ट अरबी भाषा में लेकर तुम्हारे ह्रदय पर एक विश्वसनीय आत्मा उतरी है ताकि तुम सावधान करने वाले बनो. और निस्संदेह यह पिछले लोगों की किताब में भी मौजूद है.
(पवित्र क़ुरआन, 26,192-196)
देवी देवताओं की पूजा उन लोगों का मौलिक अधिकार है जो कि उनकी पूजा में विश्वास रखते हैं। लेकिन जब इस पूजा और विश्वास को इस महान देश की ज्ञान परंपरा में देखा जाता है तो पता चलता है कि वैदिक परंपरा में मूर्ति पूजा बाद के काल में शामिल हुई।
जो लोग ज्ञानी हैं वे जानते हैं कि अनंत ज्ञान का स्वामी ईश्वर नर और नारी नहीं है। जब इस धरती पर ज्ञान का आलोक था तब यहां मूर्ति पूजा भी नहीं थी। तत्व की बात तो यह है कि इस सृष्टि का संचालन कोई देवी देवता नहीं कर रहा है बल्कि एक सर्वशक्तिमान ईश्वर ही कर रहा है। जो लोग उसके बनाये नियमों का पालन करते हैं उन्हें वह ज्ञान देता है और जो लोग उसके नियमों की अवहेलना करते हैं, वे ज्ञान से वंचित रह जाते हैं।
आज भारत के युवा विदेशों में जाते हैं ज्ञान पाने के लिए, शिक्षा पाने के लिए जबकि विदेशों में शारदा और सरस्वती की वंदना-पूजा-उपासना सिरे से ही नहीं होती। वे लक्ष्मी और कुबेर की पूजा भी नहीं करते लेकिन वर्ल्ड बैंक पर क़ब्ज़ा उनका ही है और भारत के लोग उनसे आर्थिक सहायता पाने की गुहार लगाते रहते हैं।
ज्ञान, शिक्षा और धन विदेशियों को क्यों मिला और देवियों के पुजारियों से भी ज़्यादा क्यों मिला ?
‘तत्व ज्ञानी‘ आज भी यही बताते हैं कि सारी चीज़ों का स्वामी केवल एक परमेश्वर है और उसके गुणों को देवी और देवता बताने वाली बातें केवल कवियों की कल्पनाएं हैं. जब ईश्वर के सत्य स्वरूप को भुला दिया गया तो ईश्वर ने अरब के लोगों को अपने सत्य स्वरूप का बोध कराया. हमारी सफलता इसमें है कि हम परमेश्वर के मार्गदर्शन में चलें जो कि वास्तव में ही ज्ञान का देने वाला है। उसका परिचय वेद और क़ुरआन में इस तरह आया है-
1. हुवल अव्वलु वल आखि़रु वज़्-ज़ाहिरु वल्-बातिनु, व हु-व बिकुल्लि शैइन अलीम.
वही आदि है और अन्त है, और वही भीतर है और वही बाहर है, और वह हर चीज़ का ज्ञान रखता है.
(पवित्र क़ुरआन, 57,3)
त्वमग्ने प्रथमो अंगिरस्तमः ...
अर्थात हे परमेश्वर ! तू सबसे पहला है और सबसे अधिक जानने वाला है.
(ऋग्वेद, 1,31,2)
2. ...लै-इ-स कमिस्लिहि शैउन ...
अर्थात उसके जैसी कोई चीज़ नहीं है.
(पवित्र क़ुरआन, 42,11)
न तस्य प्रतिमा अस्ति ...
उस परमेश्वर की कोई मूर्ति नहीं बन सकती.
(यजुर्वेद, 32,3)
क़ुरआन में ईश्वर के स्वरूप का वर्णन देखकर जाना जा सकता है कि वह उसी ईश्वर की उपासना की शिक्षा देता है जिसकी उपासना सनातन काल से होती आ रही है। सनातन धर्म यही है। सनातन सत्य को सब मिलकर थामें तो बहुत सी दूरियां ख़ुद ब ख़ुद ही ख़त्म हो जाएंगी।
जो चीज़ लोगों को बांटती है वह धर्म नहीं होती।
जो चीज़ लोगों को ज्ञान के मार्ग से हटा दे, वह भी धर्म नहीं होती।
सत्य को जानेंगे तो हम सब एक बनेंगे।
एकता में शक्ति होती है।
3. क़द तबय्यनर्रूश्दु मिनल ग़य्यि, फ़मयं-यकफ़ुर बित्ताग़ूति व-युअमिम्-बिल्लाहि फ़-क़दिस्-तम-सका बिल् उर्वतिल वुस्क़ा...
सही बात नासमझी की बात से अलग होकर बिल्कुल सामने आ गई है, अब जो ताग़ूत (दानव) को ठुकरा दे और अल्लाह पर ईमान ले आए उस ने एक बड़ा सहारा थाम लिया.
(पवित्र क़ुरआन, 2,256)
दृष्ट्वारूपेव्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः अश्रद्धांमनृते दधाच् छृद्धां सत्ये प्रजापतिः
अर्थात परमेश्वर ने सत्य और असत्य के तथ्य को समझकर सत्य को असत्य से अलग कर दिया. उसकी आज्ञा है कि (हे लोगो) सत्य में श्रद्धा करो, असत्य में अश्रद्धा करो.
(यजुर्वेद, 19,77)
ईश्वर के कल्याणकारी सत्य स्वरूप का ज्ञान केवल ईश्वर की वाणी के माध्यम से ही पाया जा सकता है।
ईश्वर का सत्य स्वरूप और उसका आदेश आप सबके सामने है, अब जो मानना चाहे वह मान ले।
परमेश्वर अपनी वाणी क़ुरआन में कहता है कि
निश्चय ही यह (क़ुरआन) सारे संसार के रब की अवतरित की हुई चीज़ है. इसको स्पष्ट अरबी भाषा में लेकर तुम्हारे ह्रदय पर एक विश्वसनीय आत्मा उतरी है ताकि तुम सावधान करने वाले बनो. और निस्संदेह यह पिछले लोगों की किताब में भी मौजूद है.
(पवित्र क़ुरआन, 26,192-196)
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Wednesday, January 11, 2012
हज़रत सलीम चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह की दरगाह पर फ़्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोज़ी अपनी बेगम कार्ला ब्रूनी के साथ
आज पुरानी फ़ाइल पलटते हुए हिंदुस्तान अख़बार की एक कटिंग हाथ में आ गई। यह दिनांक 6 दिसंबर 2010 के अख़बार के पहले पेज पर छपी थी। इसमें फ़्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोज़ी अपनी बेगम कार्ला ब्रूनी के साथ नज़र आ रहे हैं और ये दोनों हज़रत सलीम चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह की दरगाह पर औलाद की मन्नत मांगने के लिए आए हैं।
यह है अल्लाह के नाम की बरकत कि जो बंदा अल्लाह का हो गया। उसके जाने के बाद भी लोग उसके पास आते हैं और जिस उम्मीद से आते हैं, अल्लाह उनकी उम्मीदें पूरी भी करता है।
यह है अल्लाह के नाम की बरकत कि जो बंदा अल्लाह का हो गया। उसके जाने के बाद भी लोग उसके पास आते हैं और जिस उम्मीद से आते हैं, अल्लाह उनकी उम्मीदें पूरी भी करता है।
इस ख़बर को पढ़ने के बाद हमने देखना चाहा कि क्या कार्ला ब्रूनी को औलाद की ख़ुशी मिली ?
तो यह जानकर वाक़ई ख़ुशी मिली कि दरगाह पर हाज़िरी के चंद माह बाद ही वह गर्भवती हो गईं और उन्होंने एक लड़की को जन्म दिया।
तो यह जानकर वाक़ई ख़ुशी मिली कि दरगाह पर हाज़िरी के चंद माह बाद ही वह गर्भवती हो गईं और उन्होंने एक लड़की को जन्म दिया।
When Carla Bruni gave birth to daughter Giulia last week at the age of 43 she joined a growing band of mothers giving birth later in life.
Excellent genes: Carla Bruni Sarkozy gave birth aged 43. But while she is blessed with a model figure, a growing number of post-40 mothers are seeking surgery to counteract the physical impact of pregnancy.
Excellent genes: Carla Bruni Sarkozy gave birth aged 43. But while she is blessed with a model figure, a growing number of post-40 mothers are seeking surgery to counteract the physical impact of pregnancy.
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Tuesday, January 3, 2012
सूफ़ी साधना से आध्यात्मिक उन्नति आसान है Sufi silsila e naqshbandiya
सूफ़ी दर्शन क्या है और सूफ़ी कौन होता है ?
सूफ़ी दर्शन को ‘तसव्वुफ़‘ कहा जाता है। सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति को लेकर बहुत से मत हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि सूफ़ी शब्द ‘सफ़ा‘ से निकला है, जिसका अर्थ है विशुद्धता, मन-विचार और कर्म की विशुद्धता। जिन लोगों के बारे में यह शब्द बोला जाता है उनका चित्त शुद्ध होता है और ख़ुदा की मुहब्बत के साथ साथ उनके दिल में उसके बंदों के लिए भी मुहब्बत पाई जाती है। अमीर की अमीरी और किसी ग़रीब की ग़ुरबत इनके लिए कोई मायने नहीं रखती। अमीरों से पहले ये लोग ग़रीबों को अपने क़रीब करते हैं।
मदीना में पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मस्जिद के पास भी एक चबूतरा था। जिस पर कुछ ऐसे ही लोग जमा हो जाते थे, जिन्हें ईमान की मुहब्बत की वजह से अपना घर-बार छोड़ देना पड़ा था। चबूतरे को अरबी में ‘सु्फ़्फ़ा‘ कहा जाता है। इसीलिए इन लोगों को ‘अस्हाबे सुफ़्फ़ा‘ कहा जाता था। यही चबूतरा इनका निवास स्थल था। इनके खाने पीने के लिए भी मदीना के लोग ही कुछ ले आते थे। दुनिया के मालो दौलत की मुहब्बत से इनके दिल ख़ाली थे और ख़ुदा की मुहब्बत से भरे हुए थे।
कुछ विद्वानों का मत है कि सूफ़ी शब्द इसी ‘सुफ़्फ़ा‘ से निकला है। इसके अलावा कुछ और मत भी हैं। दरअसल सूफ़ी शब्द के बारे में जितने भी मत हैं, उन सबको एक साथ लिया जा सकता है क्योंकि कोई भी एक मत दूसरे मतों के खि़लाफ़ नहीं है। इस तरह एक शब्द के ये जितने भी अर्थ हैं इन सबको क़ुबूल किया जा सकता है।
सूफ़ियों का तरीक़ा
सूफ़ियों ने दुनिया को प्यार और अमन की तालीम दी है। पैग़म्बर साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने तक लोगों में किसी को सूफ़ी कहने का रिवाज न था। उनके ज़माने के बाद दुनिया पर हुकूमत करने के लिए ऐसे लोग भी पैदा हो गए जिन्होंने इमामों और आलिमों को क़त्ल तक कर दिया। तब नेक लोगों ने ख़ुद को सियासत से अलग कर लिया ताकि वे बादशाहों के शर से महफ़ूज़ रहकर दुनिया के लोगों को दीन की तालीम दे सकें।
दीन सरासर रहमत है और आसान है। दुनिया की ज़िंदगी को सही उसूलों के मुताबिक़ गुज़ारना ही दीन है। इसी को धर्म कहा जाता है। दीन-धर्म के कुछ ज़ाहिरी उसूल होते हैं जिन्हें बरत कर इंसान एक अच्छे चरित्र का मालिक बनता है और समाज में इज़्ज़त पाता है। इन उसूलों के पीछे वे अक़ीदे और वे गुण होते हैं जो कि दिल में पोशीदा होते हैं। इन्हीं में से एक मुहब्बत है।
दीन-धर्म की बुनियाद ईश्वर अल्लाह की मुहब्बत पर होती है। जो दिल इस मुहब्बत से ख़ाली होता है वह दीन-धर्म पर चल ही नहीं सकता। यही वह प्रेम है जिसके ढाई आखर पढ़े बिना कोई ज्ञानी नहीं हो सकता।
जिससे मुहब्बत होती है उसकी याद दिल में बस जाती है और बार बार उसका चर्चा ज़बान से भी होता है। ज़िक्र और सुमिरन की हक़ीक़त यही है। दुनिया में जितने भी लोग किसी धर्म-मत को मानते हैं, वे ईश्वर अल्लाह का नाम ज़रूर लेते हैं।
सूफ़ियों के सिलसिले
सूफ़ी मतों में प्रसिद्ध चार सिलसिलों के नाम ये हैं।
1. चिश्तिया सिलसिला
2. क़ादरिया सिलसिला
3. नक्शबंदिया सिलसिला
4. सुहरावर्दिया सिलसिला
सूफ़ी सिलसिले और उनकी रूहानी निस्बतें
सभी सूफ़ियों ने ज्ञान का स्त्रोत केवल अल्लाह को माना है। नक्शबंदिया सिलसिला हज़रत अबूबक्र रज़ि. के वास्ते से पैग़म्बर साहब तक पहुंचता है जबकि चिश्तिया, क़ादरिया, सुहरावर्दिया, मदारिया, शतारिया और किबरौविया सिलसिले हज़रत अली रज़ि. के वास्ते से पैग़म्बर साहब तक पहुंचते हैं। इनके अलावा भी कई सिलसिले और थे लेकिन आजकल चार सिलसिले ही ज़्यादा ही मशहूर हैं। इनमें से हरेक सूफ़ी सिलसिले का निसाब अर्थात प्रशिक्षण और साधना का तरीक़ा ठीक वैसे ही निर्धारित है जैसे कि स्कूल कॉलेज का पाठ्यक्रम निर्धारित होता है। एक सिलसिले के निसाब और दूसरे सिलसिले के निसाब में अंतर भी ठीक ऐसे ही पाया जाता है जैसे कि यू. पी. बोर्ड और सीबीएसई के पाठ्यक्रम में अंतर पाया जाता है।
पहले एक सूफ़ी एक ही सिलसिले से ताल्लुक़ और निस्बत रखता था लेकिन बाद में वे एक से ज़्यादा सिलसिलों से भी निस्बत रखने लगे और आज चारों सिलसिलों में प्रशिक्षण देने की महारत रखने वाले शैख़ भी मौजूद हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो कि सातों सिलसिलों की रूहानी निस्बत रखते हैं। ऐसे कामिल शैख़ की नज़र में अजीब तासीर देखी जाती है।
इस्लाम में सन्यास वर्जित है
इन चारों सिलसिलों के इमामों में से कोई भी सन्यासी नहीं था। ये सभी इस्लामी शरीअत का अनुसरण करते थे। सामान्य गृहस्थ की तरह रहते हुए ही ये लोग अपनी साधनाएं करते थे।
‘दस्त बा-कार, दिल बा-यार‘ अर्थात ‘हाथ काम में और दिल याद में‘ इन लोगों का उसूल होता है। आज भी ये लोग मिलते हैं तो इन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है। हर ऐतबार से ये लोग बिल्कुल आम आदमी ही लगते हैं लेकिन जब गहरी नज़र से देखा जाता है तब पता चलता है कि ये लोग कोई एक क़दम भी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के तरीक़े से हटकर नहीं रखते जबकि आम आदमी अपनी मनमर्ज़ी जो चाहता है, वह करता है। यही बुनियादी फ़र्क़ है, जो इन्हें आम आदमियों से अलग करता है और यही इनकी पहचान है।
इन लोगों ने आत्मज्ञान और ब्रह्म से साक्षात्कार को सर्वजन के लिए सुलभ किया और भारी साधनाओं के बजाय बहुत आसान तरीक़े से आत्म विकास का मार्ग दिखाया।
हज़ारों नाम हैं एक मालिक के
हरेक आस्तिक अपने पैदा करने वाले को किसी न किसी नाम से याद करता ही है। जो जिस ज़बान को जानता है, उसी में उसका नाम लेता है। हरेक ज़बान में उसके सैकड़ों-हज़ारों नाम हैं। उसका हरेक नाम सुंदर और रमणीय है। ‘रमणीय‘ को ही संस्कृत में राम कहते हैं। ईश्वर से बढ़कर रमणीय कोई भी नहीं है। कोई उसका नाम ‘राम राम‘ जपता है तो कोई ‘अल्लाह अल्लाह‘ कहता है। अलग अलग ज़बानों में लोग अलग अलग नाम लेते हैं। योगी भी नाम लेता है और सूफ़ी भी नाम लेता है। यहां सृष्टा को राम कहा गया है जो कि दशरथपुत्र रामचंद्र जी से भिन्न और अजन्मा-अविनाशी है।
उसके नाम लेने के बहुत से तरीक़े हैं। कोई बुलंद आवाज़ से कहता है, कोई मन ही मन कहता है और कोई हल्की आवाज़ में।
बुलंद आवाज़ में नाम लेना ‘ज़िक्र ए जहरी‘ कहलाता है। चिश्तिया सिलसिले के सूफ़ियों का यही तरीक़ा है। नक्शबंदी सिलसिले का तरीक़ा ‘दिल में नाम का ध्यान‘ करना है। ‘दिल अल्लाह अल्लाह‘ कह रहा है, वे ऐसा ध्यान रखते हैं। इसे ‘ज़िक्र ए ख़फ़ी‘ कहते हैं। क़ादरिया सिलसिले वाले सूफ़ी ‘अल्लाह अल्लाह‘ हल्की सी आवाज़ में करते हैं। इसे ‘सिर्री ज़िक्र‘ कहते हैं।
भक्त जब अपने प्रभु का नाम लेता है तो कुछ समय बाद यह नाम उसके दिल में बस जाता है।
नक्शबंदी सूफ़ियों का तरीक़ा ए तालीम
हज़रत ख्वाजा बाक़ी बिल्लाह रहमतुल्लाह अलैह (1563-1603) की आमद के साथ ही नक्शबंदी सिलसिला हिंदुस्तान में आया। नक्शबंदी सूफ़ियों की तालीम में हमने देखा है कि उनकी एक तवज्जो (शक्तिपात) से ही मुरीद के दिल से रब का नाम ‘अल्लाह अल्लाह‘ जारी हो जाता है यानि चाहे वह किसी से बात कर रहा हो या कुछ और ही सोच रहा हो या सो रहा हो लेकिन रब का नाम उसके दिल से लगातार जारी रहता है। जिसे अगर शैख़ चाहे तो मुरीद अपने कानों से भी सुन सकता है बल्कि पूरा मजमा उसके दिल से आने वाली आवाज़ को सुन सकता है। इसे ‘लतीफ़ा ए क़ल्ब का जारी होना‘ कहा जाता है। लतीफ़ अर्थात सूक्ष्म होने की वजह से इन्हें लतीफ़ा कहा जाता है। हिंदी में इन्हें चक्र कहा जाता है।
इसके बाद शैख़ की निगरानी में मुरीद एक के बाद एक चार लतीफ़ों से भी ज़िक्र करता है। ये भी अल्लाह के ज़िक्र से जारी हो जाते हैं। ये पांचों लतीफ़े इंसान के सीने में पाए जाते हैं। इस तरह सीने में पांच लतीफ़े अल्लाह के ज़िक्र से जारी हो जाते हैं। इन पांचों लतीफ़ों के नाम यह हैं-
1. लतीफ़ा ए क़ल्ब
2. लतीफ़ा ए रूह
3. लतीफ़ा ए सिर्र
4. लतीफ़ा ए ख़फ़ी
5. लतीफ़ा ए इख़्फ़ा
इसके बाद छठे लतीफ़े से ‘अल्लाह अल्लाह‘ का ज़िक्र किया जाता है। इस लतीफ़े का नाम ‘लतीफ़ा ए नफ़्स‘ है। यह माथे पर दोनों भौंहों के दरम्यान होता है। जल्दी ही इससे भी अल्लाह का ज़िक्र जारी हो जाता है। सातवां लतीफ़ा होता है ‘लतीफ़ा ए उम्मुद्-दिमाग़‘। यह लतीफ़ा सिर के बीचों बीच होता है। इस तरह थोड़े ही दिन बाद बिना किसी भारी साधना के यह नाम शरीर के हरेक रोम से और ख़ून के हरेक क़तरे से जारी हो जाता है। इस ज़िक्र की ख़ासियत यह होती है कि ‘अल्लाह अल्लाह‘ की आवाज़ जब सुनाई देती है तो इस ज़िक्र में कोई गैप नहीं होता। यह ज़िक्र एक नाक़ाबिले बयान मसर्रत और आनंद से भर देता है। इसे ‘सुल्तानुल अज़्कार‘ कहते हैं और मुरीद इस मक़ाम को 3 माह से भी कम अवधि में पा लेता है।
सूफ़ी दर्शन को ‘तसव्वुफ़‘ कहा जाता है। सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति को लेकर बहुत से मत हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि सूफ़ी शब्द ‘सफ़ा‘ से निकला है, जिसका अर्थ है विशुद्धता, मन-विचार और कर्म की विशुद्धता। जिन लोगों के बारे में यह शब्द बोला जाता है उनका चित्त शुद्ध होता है और ख़ुदा की मुहब्बत के साथ साथ उनके दिल में उसके बंदों के लिए भी मुहब्बत पाई जाती है। अमीर की अमीरी और किसी ग़रीब की ग़ुरबत इनके लिए कोई मायने नहीं रखती। अमीरों से पहले ये लोग ग़रीबों को अपने क़रीब करते हैं।
मदीना में पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मस्जिद के पास भी एक चबूतरा था। जिस पर कुछ ऐसे ही लोग जमा हो जाते थे, जिन्हें ईमान की मुहब्बत की वजह से अपना घर-बार छोड़ देना पड़ा था। चबूतरे को अरबी में ‘सु्फ़्फ़ा‘ कहा जाता है। इसीलिए इन लोगों को ‘अस्हाबे सुफ़्फ़ा‘ कहा जाता था। यही चबूतरा इनका निवास स्थल था। इनके खाने पीने के लिए भी मदीना के लोग ही कुछ ले आते थे। दुनिया के मालो दौलत की मुहब्बत से इनके दिल ख़ाली थे और ख़ुदा की मुहब्बत से भरे हुए थे।
कुछ विद्वानों का मत है कि सूफ़ी शब्द इसी ‘सुफ़्फ़ा‘ से निकला है। इसके अलावा कुछ और मत भी हैं। दरअसल सूफ़ी शब्द के बारे में जितने भी मत हैं, उन सबको एक साथ लिया जा सकता है क्योंकि कोई भी एक मत दूसरे मतों के खि़लाफ़ नहीं है। इस तरह एक शब्द के ये जितने भी अर्थ हैं इन सबको क़ुबूल किया जा सकता है।
सूफ़ियों का तरीक़ा
सूफ़ियों ने दुनिया को प्यार और अमन की तालीम दी है। पैग़म्बर साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने तक लोगों में किसी को सूफ़ी कहने का रिवाज न था। उनके ज़माने के बाद दुनिया पर हुकूमत करने के लिए ऐसे लोग भी पैदा हो गए जिन्होंने इमामों और आलिमों को क़त्ल तक कर दिया। तब नेक लोगों ने ख़ुद को सियासत से अलग कर लिया ताकि वे बादशाहों के शर से महफ़ूज़ रहकर दुनिया के लोगों को दीन की तालीम दे सकें।
दीन सरासर रहमत है और आसान है। दुनिया की ज़िंदगी को सही उसूलों के मुताबिक़ गुज़ारना ही दीन है। इसी को धर्म कहा जाता है। दीन-धर्म के कुछ ज़ाहिरी उसूल होते हैं जिन्हें बरत कर इंसान एक अच्छे चरित्र का मालिक बनता है और समाज में इज़्ज़त पाता है। इन उसूलों के पीछे वे अक़ीदे और वे गुण होते हैं जो कि दिल में पोशीदा होते हैं। इन्हीं में से एक मुहब्बत है।
दीन-धर्म की बुनियाद ईश्वर अल्लाह की मुहब्बत पर होती है। जो दिल इस मुहब्बत से ख़ाली होता है वह दीन-धर्म पर चल ही नहीं सकता। यही वह प्रेम है जिसके ढाई आखर पढ़े बिना कोई ज्ञानी नहीं हो सकता।
जिससे मुहब्बत होती है उसकी याद दिल में बस जाती है और बार बार उसका चर्चा ज़बान से भी होता है। ज़िक्र और सुमिरन की हक़ीक़त यही है। दुनिया में जितने भी लोग किसी धर्म-मत को मानते हैं, वे ईश्वर अल्लाह का नाम ज़रूर लेते हैं।
सूफ़ियों के सिलसिले
सूफ़ी मतों में प्रसिद्ध चार सिलसिलों के नाम ये हैं।
1. चिश्तिया सिलसिला
2. क़ादरिया सिलसिला
3. नक्शबंदिया सिलसिला
4. सुहरावर्दिया सिलसिला
सूफ़ी सिलसिले और उनकी रूहानी निस्बतें
सभी सूफ़ियों ने ज्ञान का स्त्रोत केवल अल्लाह को माना है। नक्शबंदिया सिलसिला हज़रत अबूबक्र रज़ि. के वास्ते से पैग़म्बर साहब तक पहुंचता है जबकि चिश्तिया, क़ादरिया, सुहरावर्दिया, मदारिया, शतारिया और किबरौविया सिलसिले हज़रत अली रज़ि. के वास्ते से पैग़म्बर साहब तक पहुंचते हैं। इनके अलावा भी कई सिलसिले और थे लेकिन आजकल चार सिलसिले ही ज़्यादा ही मशहूर हैं। इनमें से हरेक सूफ़ी सिलसिले का निसाब अर्थात प्रशिक्षण और साधना का तरीक़ा ठीक वैसे ही निर्धारित है जैसे कि स्कूल कॉलेज का पाठ्यक्रम निर्धारित होता है। एक सिलसिले के निसाब और दूसरे सिलसिले के निसाब में अंतर भी ठीक ऐसे ही पाया जाता है जैसे कि यू. पी. बोर्ड और सीबीएसई के पाठ्यक्रम में अंतर पाया जाता है।
पहले एक सूफ़ी एक ही सिलसिले से ताल्लुक़ और निस्बत रखता था लेकिन बाद में वे एक से ज़्यादा सिलसिलों से भी निस्बत रखने लगे और आज चारों सिलसिलों में प्रशिक्षण देने की महारत रखने वाले शैख़ भी मौजूद हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो कि सातों सिलसिलों की रूहानी निस्बत रखते हैं। ऐसे कामिल शैख़ की नज़र में अजीब तासीर देखी जाती है।
इस्लाम में सन्यास वर्जित है
इन चारों सिलसिलों के इमामों में से कोई भी सन्यासी नहीं था। ये सभी इस्लामी शरीअत का अनुसरण करते थे। सामान्य गृहस्थ की तरह रहते हुए ही ये लोग अपनी साधनाएं करते थे।
‘दस्त बा-कार, दिल बा-यार‘ अर्थात ‘हाथ काम में और दिल याद में‘ इन लोगों का उसूल होता है। आज भी ये लोग मिलते हैं तो इन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है। हर ऐतबार से ये लोग बिल्कुल आम आदमी ही लगते हैं लेकिन जब गहरी नज़र से देखा जाता है तब पता चलता है कि ये लोग कोई एक क़दम भी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के तरीक़े से हटकर नहीं रखते जबकि आम आदमी अपनी मनमर्ज़ी जो चाहता है, वह करता है। यही बुनियादी फ़र्क़ है, जो इन्हें आम आदमियों से अलग करता है और यही इनकी पहचान है।
इन लोगों ने आत्मज्ञान और ब्रह्म से साक्षात्कार को सर्वजन के लिए सुलभ किया और भारी साधनाओं के बजाय बहुत आसान तरीक़े से आत्म विकास का मार्ग दिखाया।
हज़ारों नाम हैं एक मालिक के
हरेक आस्तिक अपने पैदा करने वाले को किसी न किसी नाम से याद करता ही है। जो जिस ज़बान को जानता है, उसी में उसका नाम लेता है। हरेक ज़बान में उसके सैकड़ों-हज़ारों नाम हैं। उसका हरेक नाम सुंदर और रमणीय है। ‘रमणीय‘ को ही संस्कृत में राम कहते हैं। ईश्वर से बढ़कर रमणीय कोई भी नहीं है। कोई उसका नाम ‘राम राम‘ जपता है तो कोई ‘अल्लाह अल्लाह‘ कहता है। अलग अलग ज़बानों में लोग अलग अलग नाम लेते हैं। योगी भी नाम लेता है और सूफ़ी भी नाम लेता है। यहां सृष्टा को राम कहा गया है जो कि दशरथपुत्र रामचंद्र जी से भिन्न और अजन्मा-अविनाशी है।
उसके नाम लेने के बहुत से तरीक़े हैं। कोई बुलंद आवाज़ से कहता है, कोई मन ही मन कहता है और कोई हल्की आवाज़ में।
बुलंद आवाज़ में नाम लेना ‘ज़िक्र ए जहरी‘ कहलाता है। चिश्तिया सिलसिले के सूफ़ियों का यही तरीक़ा है। नक्शबंदी सिलसिले का तरीक़ा ‘दिल में नाम का ध्यान‘ करना है। ‘दिल अल्लाह अल्लाह‘ कह रहा है, वे ऐसा ध्यान रखते हैं। इसे ‘ज़िक्र ए ख़फ़ी‘ कहते हैं। क़ादरिया सिलसिले वाले सूफ़ी ‘अल्लाह अल्लाह‘ हल्की सी आवाज़ में करते हैं। इसे ‘सिर्री ज़िक्र‘ कहते हैं।
भक्त जब अपने प्रभु का नाम लेता है तो कुछ समय बाद यह नाम उसके दिल में बस जाता है।
नक्शबंदी सूफ़ियों का तरीक़ा ए तालीम
हज़रत ख्वाजा बाक़ी बिल्लाह रहमतुल्लाह अलैह (1563-1603) की आमद के साथ ही नक्शबंदी सिलसिला हिंदुस्तान में आया। नक्शबंदी सूफ़ियों की तालीम में हमने देखा है कि उनकी एक तवज्जो (शक्तिपात) से ही मुरीद के दिल से रब का नाम ‘अल्लाह अल्लाह‘ जारी हो जाता है यानि चाहे वह किसी से बात कर रहा हो या कुछ और ही सोच रहा हो या सो रहा हो लेकिन रब का नाम उसके दिल से लगातार जारी रहता है। जिसे अगर शैख़ चाहे तो मुरीद अपने कानों से भी सुन सकता है बल्कि पूरा मजमा उसके दिल से आने वाली आवाज़ को सुन सकता है। इसे ‘लतीफ़ा ए क़ल्ब का जारी होना‘ कहा जाता है। लतीफ़ अर्थात सूक्ष्म होने की वजह से इन्हें लतीफ़ा कहा जाता है। हिंदी में इन्हें चक्र कहा जाता है।
इसके बाद शैख़ की निगरानी में मुरीद एक के बाद एक चार लतीफ़ों से भी ज़िक्र करता है। ये भी अल्लाह के ज़िक्र से जारी हो जाते हैं। ये पांचों लतीफ़े इंसान के सीने में पाए जाते हैं। इस तरह सीने में पांच लतीफ़े अल्लाह के ज़िक्र से जारी हो जाते हैं। इन पांचों लतीफ़ों के नाम यह हैं-
1. लतीफ़ा ए क़ल्ब
2. लतीफ़ा ए रूह
3. लतीफ़ा ए सिर्र
4. लतीफ़ा ए ख़फ़ी
5. लतीफ़ा ए इख़्फ़ा
इसके बाद छठे लतीफ़े से ‘अल्लाह अल्लाह‘ का ज़िक्र किया जाता है। इस लतीफ़े का नाम ‘लतीफ़ा ए नफ़्स‘ है। यह माथे पर दोनों भौंहों के दरम्यान होता है। जल्दी ही इससे भी अल्लाह का ज़िक्र जारी हो जाता है। सातवां लतीफ़ा होता है ‘लतीफ़ा ए उम्मुद्-दिमाग़‘। यह लतीफ़ा सिर के बीचों बीच होता है। इस तरह थोड़े ही दिन बाद बिना किसी भारी साधना के यह नाम शरीर के हरेक रोम से और ख़ून के हरेक क़तरे से जारी हो जाता है। इस ज़िक्र की ख़ासियत यह होती है कि ‘अल्लाह अल्लाह‘ की आवाज़ जब सुनाई देती है तो इस ज़िक्र में कोई गैप नहीं होता। यह ज़िक्र एक नाक़ाबिले बयान मसर्रत और आनंद से भर देता है। इसे ‘सुल्तानुल अज़्कार‘ कहते हैं और मुरीद इस मक़ाम को 3 माह से भी कम अवधि में पा लेता है।
अनल हक़ और अहम् ब्रह्मस्मि की अनुभूति का मक़ाम
इसके बाद ‘नफ़ी अस्बात‘ का ज़िक्र किया जाता है। यह भी बिना ज़बान हिलाए केवल दिल ही दिल में किया जाता है। इसमें ‘ला इलाहा इल्लल्लाह‘ का ज़िक्र एक ख़ास तरीक़े से किया जाता है। जल्दी ही मुरीद की तरक्क़ी होती है और उसे इस ज़िक्र की बरकतें मुशाहिदा होती हैं। इस ज़िक्र में एक नाक़ाबिले बयान लुत्फ़ मयस्सर आता है।
इसके बाद ‘मशारिब के मुराक़बे‘ शुरू हो जाते हैं। मुराक़बे में ज़िक्र नहीं किया जाता बल्कि अलग अलग मुराक़बे में अलग अलग लतीफ़ों के ज़रिये अल्लाह से ख़ास रूहानी फ़ैज़ान हासिल किया जाता है जो कि उसे पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और सिलसिले के पीरों के वास्ते से हासिल होता है।
आगे की मंज़िलें ‘फ़ना और बक़ा‘ से ताल्लुक़ रखती हैं। जहां मुरीद अपने सूक्ष्म अस्तित्व का बोध करता है।
यहां आकर इंसान की रूहानी आंख खुल जाती है और सबसे बड़े राज़ से पर्दा उठ जाता है। वह जान लेता है कि भेद की दीवार हक़ीक़त में कोई वुजूद नहीं रखती है।
हरेक जगह वह एक ही नूर को देखता है और ख़ुद को उस नूर का, उस अखंड ज्योति का हिस्सा महसूस करता है।
यह नूर वह होता है जो कि सबसे पहले पैदा किया गया है और यही ‘नूर ए अव्वल‘ हरेक चीज़ की पैदाइश की वजह है। हमारे सौर मंडल के लिए जो हैसियत हमारे सूर्य की है। सारी कायनात के लिए वही हैसियत इस ‘अव्वल नूर‘ की है। यही वह नूर है जिसके बारे में हज़रत गुरू नानक रहमतुल्लाह अलैहि ने फ़रमाया है कि ‘अव्वल अल्लाह नूर उपाया , क़ुदरत ते सब बंदे‘। गायत्री मंत्र का सविता और क़ुरआन का सिराजम्-मुनीरा यही है। यही प्रथम आत्मा है। हिन्दू भाई इसे ‘परमात्मा‘ कहते हैं और मुसलमान इसे ‘नूर ए मुहम्मदी‘ कहते हैं। वेद में जिसे ‘सृष्टि का अध्यक्ष‘ कहा गया है वह यही सविता है। इसी नूरे मुहम्मदी को मुसलमान ‘सरवरे कायनात‘ कहते हैं।
यह नूर मख़लूक़ अर्थात सृष्टि है। हरेक चीज़ इसी नूर का अंश है। यह ज्योति ईश्वर-अल्लाह नहीं है और न ही यह उसका अंश है बल्कि यह ईश्वर के गुणों का प्रतिबिंब है। बहुत लोग शुरू में असल और अक्स (प्रतिबिंब) में फ़र्क़ नहीं कर पाते। साधना करते करते जब योगी और सूफ़ी इस ‘अव्वल नूर-परमात्मा‘ का दर्शन करते हैं तो वे ख़ुद को उसका अंश पाते हैं।
जो लोग इस नूर को ईश्वर का अंश समझ लेते हैं वे ‘अनल हक़‘ और ‘अहं ब्रह्मस्मि‘ कहने लगते हैं।
ऐसा वह सोचकर नहीं कहते बल्कि वे बेअख्तियार होकर कहते हैं।
मुस्लिम सूफ़ी इस हालत में भी नमाज़ अदा करता है।
शैख़ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत यहीं पड़ती है क्योंकि शैख़ ही अपने मुरीद को गुमराह होने से बचाए रखता है और उसे हक़ीक़त से आगाह करता रहता है।
अनल हक़ से आगे मंज़िलें और भी हैं
अपने शैख़ की रहनुमाई में जो लोग इस मंज़िल से आगे निकल जाते हैं। वे यह जान लेते हैं कि ‘अल्लाह वराउलवरा है।‘ जो भी चीज़ नज़र में आती है या इंसान के ख़याल में समाती है, अल्लाह उस जैसा नहीं है। कोई भी चीज़ अल्लाह जैसी नहीं है। अल्लाह हर चीज़ से परे है। योगियों में भी जो यह जान लेते हैं कि परब्रह्म अचिन्त्य, अविज्ञेय और कल्पनातीत है, वे ब्रह्म को परब्रह्म कहते हैं।
मुस्लिम सूफ़ी पहली कैफ़ियत को ‘तश्बीह‘ और दूसरी कैफ़ियत को ‘तन्ज़ीह‘ कहते हैं।
ख़ास बात यह है कि ये लोग यह सब अपने दिमाग़ से सोच सोच कर नहीं करते बल्कि ये सब उनकी अपनी निजी अनुभूतियां होती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि ‘क़लंदर हरचै गोयद दीदा गोयद‘ अर्थात क़लंदर जो कुछ कहता है, अपना देखा हुआ कहता है।
ऐसी अद्भुत अनुभूतियों के साक्षी लोग दुनिया को प्यार और अम्न का रास्ता ही दिखाते हैं और बिल्कुल सही दिखाते हैं।
सूफ़ी का मक़ाम
आत्मा इनके लिए मात्र तर्क का ही विषय नहीं रह जाती बल्कि यह इनकी देखी और जानी हुई हक़ीक़त होती है।
जिसे आत्मा, परमात्मा, परमेश्वर और स्वर्ग-नर्क में संदेह हो, वह सू़फ़ी तरीक़े से साधना कर ले। इसके बाद उसका संदेह हमेशा के लिए दूर हो जाएगा।
जीवन और मृत्यु का रहस्य जानने वाले यही लोग होते हैं।
अमरता की सिद्धि यहीं होती है।
आम लोगों की तरह मौत सूफ़ियों को भी आती है लेकिन यह उनकी जागृति के कारण उन्हें एक व्यापक जीवन की ओर ले जाती है जबकि साधारण आत्माएं सुषुप्ति की दशा में पड़ी रहती हैं।
नींद मौत है और जीवन के लिए जागरण अनिवार्य है और जागरण के लिए मालिक का नाम ही एकमात्र साधन है।
कामिल शैख़ की ज़रूरत
जागरण के लिए केवल मालिक का नाम लेना ही काफ़ी नहीं है बल्कि यह भी ज़रूरी है कि जो बात उसकी शान के खि़लाफ़ है वह बात उसके लिए न मानी जाए।
शैख़ यहां रास्ता दिखाता है और बताता है कि कौन सी बात उस मालिक की शान के मुनासिब है और कौन सी बात उसकी शान के खि़लाफ़ है ?
जो लोग बिना किसी कामिल शैख़ के साधना करते हैं, वे सही के साथ ग़लत भी करते रहते हैं और उनकी ग़लतियां उन्हें उनकी मंज़िल से दूर ही रखती हैं। साधना के प्रभाव से उनके अंदर कुछ शक्तियां भी जाग्रत हो जाती हैं। साधारण जनता उनकी साधना और उनकी शक्ति को, उनके प्रेम और उनकी भक्ति को देखकर उन्हें गुरू बना लेती है। ये लोग ख़ुद भी भटके हुए होते हैं और अपने अनुयायियों को भी भटकाते रहते हैं। इनके अनुयायी ईश्वर के बजाय इन्हीं गुरूओं की भक्ति शुरू कर देती है। भीड़ बढ़ती है तो दौलत भी आने लगती है और जब इस रास्ते से दौलत आती है तो फिर इनके चेलों में गद्दी पर क़ब्ज़े के लिए झगड़े खड़े हो जाते हैं।
इन गुरूओं के मरने के बाद संप्रदाय वुजूद में आ जाते हैं। अब भक्ति-शक्ति, प्रेम और साधना कुछ बाक़ी नहीं रहता। लोगों की श्रृद्धा को इनके चेले व्यवसाय मात्र बना लेते हैं। बहुत लोग इनके मुंह से ईश्वर अल्लाह का नाम सुनकर इनके जाल में फंस जाते हैं।
लोग थोड़ा भी अक्ल से काम लें तो इनके जाल से बच सकते हैं।
यह दुनिया है, यहां असल के साथ नक़ल भी हैं और कामिल शैख़ के साथ यहां पाखंडी भी हैं।
मक्कार लोग सूफ़ी और योगी बनकर माल इकठ्ठा कर रहे हैं और उन्हें देखकर अक्लमंद लोगों में धर्म-अध्यात्म के प्रति शक पैदा होने लगता है।
जो सत्य की खोज में है, उसे बहुत होशियार रहना चाहिए।
मालिक का नाम सही तरीक़े से और सही शैख़ की निगरानी में लिया जाए तो आत्मज्ञान सहज ही प्राप्त हो जाता है और जो बातें किताबों में पढ़कर बहुत बड़ी लगती हैं, वे सब कामिल शैख़ की बरकत से बहुत जल्दी हासिल हो जाती हैं।
कामिल शैख़ की पहचान
कामिल शैख़ वह है जो कि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. के आदर्श का पालन करता हो और उनके तरीक़े पर चलता हो।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. का चरित्र आज भी सुरक्षित है। जो उनके आदर्श को जानता है, उसके पास एक पैमाना और एक कसौटी होती है, जिसके ज़रिये वह असली और कामिल शैख़ को पहचान सकता है।
जो लोग शैख़ की खोज में हैं, जो लोग सत्य की खोज में हैं,
उनके लिए भी मालिक का नाम और प्रार्थना ही एकमात्र साधन है।
उन्हें चाहिए कि वे मालिक का नाम ‘या हादी या रहीम‘ लिया करें और दिल से दुआ करें कि मालिक उन्हें एक कामिल शैख़ अर्थात समर्थ गुरू से मिला दे। बहुत जल्दी ही वे एक कामिल शैख़ पा जाएंगे, बड़े अजीबो-ग़रीब ढंग से।
जिस भी जायज़ ज़रूरत के लिए यह नाम लिया जाता है, वह ज़रूरत पूरी होती है।
‘या हादी या रहीम‘ का अर्थ है ऐ हिदायत देने वाले, ऐ रहम करने वाले अर्थात हे मार्गदर्शक, हे दयालु।
यह नाम एक कामिल शैख़ मौलाना कलीम अहमद सिद्दीक़ी साहब का बख्शा हुआ अनमोल रूहानी तोहफ़ा है।
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