सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Sunday, October 17, 2010

The very first lesson of Ayodhya judgement मालिक का दरबार सजेगा तभी सबको इन्साफ़ मिलेगा - Anwer Jamal

परमेश्वर कहता है-
1. मालिकि यौमिद्-दीन
अर्थात मालिक है इन्साफ़ के दिन का।
                                      (अलफ़ातिहा, 3)
2. अलयौमा तुज्ज़ा कुल्लू नफ़्सिम बिमा कसबत
अर्थात आज के दिन हर जान को उसके किए का बदला दिया जाएगा। (मोमिन, 17)
3. यौमा ला युग़नी अन्हुम कैदुहुम शैअंव वला हुम युन्सरून
अर्थात वह दिन ऐसा होगा कि उनकी तदबीर से उनका कुछ काम न बन सकेगा और उनकी मदद भी कहीं से न की जाएगी। (तूर, 46)
4. हाज़ा यौमुल फ़स्ल जमअनाकुम वल अव्वलीन
अर्थात यह फ़ैसले का दिन आ गया है, हमने तुम्हें और तुमसे पहले लोगों को इकठ्ठा कर लिया है।                (मुर्सलात, 38)
5. वैलुयं-यौमैइज़िल्लिल मुकज़-ज़िबीन
अर्थात हमारी बात को झूठ मानने वाले उस दिन बड़ी ख़राबी (दुरावस्था) में होंगे। (मुर्सलात, 34)
6. लियौमिन उज्जिलत, लियौमिल फ़स्ल, वमा अदराका मा यौमुल फ़स्ल, वैलुयं यौमैइज़िल्लिल मुकज़-ज़िबीन
अर्थात किस दिन के लिए सबका मुक़द्दमा मुल्तवी था ?, फ़ैसले के दिन के लिए।
तुम्हें क्या मालूम कि फ़ैसले का दिन क्या होगा ?, झुठलाने वालों के लिए यह दिन सर्वनाश पूरी बर्बादी लाएगा। (मुर्सलात, 12-15)

अयोध्या विवाद पर अदालती फ़ैसला और जन प्रतिक्रियाएं
अयोध्या विवाद अदालत में लम्बित था। उसकी सुनवाई इतने बरसों तक चली कि अपील करने वाले और उसका जवाब देने वाले दोनों ही पक्षों के लोग चल बसे और उनके वारिसों ने उसका फ़ैसला सुना। दोनों ही पक्ष मुतमइन नहीं हैं फ़ैसले पर। रामलला पक्ष मानता है कि ज़मीन पर मस्जिद वालों का क़ब्ज़ा नाजायज़ है उन्हें एक तिहाई भी क्यों दिया जा रहा है ?
दूसरी तरफ़ मस्जिद वालों का कहना है कि मस्जिद पूरी तरह जायज़ तरीक़े से बनी है, उसमें मूर्ति रखे जाने के दिन तक लगातार नमाज़ अदा हो रही थी। उसमें नाजायज़ तरीक़े से मूर्तियां रख दी गईं और फिर इबादतख़ाने को इबादत से महरूम कर दिया गया। अगर मस्जिद नाजायज़ तरीक़े से बनी थी तो फिर मस्जिद के लिए एक तिहाई जगह भी क्यों दी जा रही है ?

फ़ैसला या इन्साफ़ ?
दोनों पक्षों की अपनी-अपनी दलीलें हैं। दोनों पक्षों की ज़ोर आज़माई अदालत में भी चली और अदालत के बाहर भी। माल भी लुटा और इज़्ज़तें भी, जान भी गई और आपस का यक़ीन भी गया। सब कुछ हुआ और फिर लगभग 60 बरस बाद फ़ैसला भी आया। फ़ैसला तो आ गया लेकिन दोनों ही पक्ष कहते हैं कि हमें ‘इन्साफ़‘ नहीं मिला।

इन्साफ़ होगा ‘इन्साफ़ के दिन‘
दुनिया में फ़ैसला ही होता है, इन्साफ़ नहीं। इन्साफ़ तो सिर्फ़ ‘इन्साफ़ के दिन‘ होगा। जब फ़ैसला करने वाला खुद ‘मालिक‘ होगा और वह अगले-पिछले तमाम लोगों को इकठ्ठा करेगा। वहां रामचन्द्र जी भी होंगे और वे लोग भी जो उनके जन्म लेने के समय मौजूद थे, अगर उन्होंने वास्तव में जन्म लिया था तो। वहां बाबर भी होगा और मीर बाक़ी भी और मस्जिद बनाने वाले कारीगर भी। तभी सही फ़ैसला होगा कि रामजन्म भूमि वास्तव में कहां थी ? और क्या मस्जिद बनाने के लिए किसी मन्दिर को तोड़ा गया ? या फिर मन्दिर बनाने के लिए मस्जिद तोड़ी गई ?
किसी ने मन्दिर लूटे तो क्यों लूटे ? किसी ने मस्जिद तोड़ी तो क्यों तोड़ी ?
किसी ने किसी की इज़्ज़त लूटी तो क्यों लूटी ? किसी को मारा तो क्यों मारा ?
उस दिन सिर्फ़ फ़ैसला ही नहीं होगा बल्कि ‘इन्साफ़‘ भी होगा। जो कि यहां हो नहीं सकता। किसी भी बलवे में मारे गए लोगों के वारिसों को आज तक यहां इन्साफ़ नहीं मिला। इन्साफ़ तो छोड़िए मारने वालों की शिनाख्त तक नहीं हो पाई।

दुनिया का दस्तूर है ‘माइट इज़ राइट‘
मुसलमानों को शिकायत है कि उनसे भेदभाव किया गया लेकिन ऐसा नहीं है। सन् 1984 के दंगों में तो उन्होंने उन्हें मारा था जिन्हें वे अपना अंग, अपना खून मानते हैं। वे आज तक न्याय की आस में भटक रहे हैं। वे दलितों को मारते आए, औरतों को जलाते आए उन्हें कब इन्साफ़ मिला ?
दलितों और औरतों को बचाने के स्पेशल क़ानून बनाए गए तो उनकी चपेट में फिर बेक़सूर लोग फंसे और वे जेल गए। सवर्णों को ही कब इन्साफ़ मिलता है यहां ?
क़ाबिलियत के बावजूद एक सवर्ण बाहर कर दिया जाता है और उससे कम क़ाबिल आदमी को ‘पद‘ दे दिया जाता है।

हर तरफ़ ज़ुल्म हर जगह सितम
जुल्म और सितम को सिर्फ़ हिन्दुओं या हिन्दुस्तान से देखकर जोड़ना खुद एक जुल्म है। कितने ही वैज्ञानिकों को ईसाईयों ने जला डाला, लाखों प्रोटैस्टेंट ईसाईयों को क़त्ल कर दिया गया। जुल्म को रोकने के लिए मालिक ने हमेशा अपने पैग़म्बर भेजे। लेकिन लोगों ने खुद उन पर भी जुल्म किया। उन्हें या तो क़त्ल कर डाला या फिर देश से निकाल दिया। जिन लोगों ने उन्हें माना, उन्होंने भी उनकी बात को भुला दिया, उनकी बात को न माना, हां उनके गीत-भजन गाते गाते उन्हें ईश्वर का दर्जा ज़रूर दे दिया। यह भी एक जुल्म है कि उनकी शिक्षाओं को ही बदल दिया। यह जुल्म सिर्फ़ मालिक के दूतों के प्रति ही नहीं है बल्कि खुद मालिक का भी हक़ मारा, उसपर भी जुल्म किया।

दावा इस्लाम का और तरीक़ा ज़ुल्म का ?
दुनिया के अंत में मालिक ने फिर दुनिया वालों पर अपनी दया की और अंतिम पैग़म्बर स. को भेजा कि वे लोगों को याद दिलाएं कि एक दिन ऐसा आनेवाला है जिस दिन कोई किसी की मदद न कर सकेगा, हरेक वही काटेगा जो कि उसने बोया होगा। इसलिए कल जो काटना चाहते हो, आज वही बोओ। लेकिन लोगों ने उन पर भी जुल्म किया और उनकी आल-औलाद पर भी। उनके साथियों पर भी जुल्म किया और उनके नाम लेवाओं पर भी और फिर जुल्म की इन्तेहा तो तब हो गई जब उनके नाम लेवाओं ने भी जुल्म करना शुरू कर दिया और इससे भी बढ़कर जुल्म यह हुआ कि जुल्म को ‘जिहाद‘ का नाम दे दिया गया और कहा गया कि हम कुरआन का हुक्म पूरा कर रहे हैं।
आज पाकिस्तान में मस्जिदों और दरगाहों में बम बरस रहे हैं। कौन बरसा रहा है ये बम ?

इस्लाम के खि़लाफ़ है आतंकवाद
कुरआन तो कहता है कि ‘जिहाद‘ करते हुए हरे-भरे पेड़ भी मत काटिए, सन्यासियों को मत मारिए और दूसरी क़ौमों के पूजागृहों को मत तोड़िए फिर ये कौन लोग हैं जो कहते हैं कि हमारा अमल धर्म है ?
कम मुसलमान हैं जो दहशतगर्दी को इस्लाम से जोड़ते हैं लेकिन फ़िरक़ों में बंटे हुए तो लगभग सभी हैं।
दीन को बांटोगे, खुदा के हुक्म को टालोगे तो फिर उसकी तरफ़ से मदद उतरेगी या अज़ाब ?

हक़ मारने वाले हक़परस्त कैसे ?
हक़ मारने का रिवाज भी आम है।
कितने मुसलमान हैं जो हिसाब लगाकर ज़कात देते हैं ?
ज़कात देने वाले तो फिर भी बहुत हैं लेकिन कितने मुसलमान हैं जो अपनी लड़कियों को जायदाद में वह हिस्सा देते हैं जो मालिक ने कुरआन में निश्चित किया है ?
हक़ मारना जुल्म है। अपनी ही औलाद का हक़ मारकर मर रहे हैं मुसलमान।
ज़ाहिरी तौर पर नमाज़, रोज़ा और हज कर भी रहे हैं तो सिर्फ़ एक रस्म की तरह। खुदा के सामने पूरी तरह झुकने की और बन्दों के हक़ अदा करने की भावना का प्रायः लोप सा है।
इन्सान पर खुद अपना भी हक़ है
इन्सान पर खुद अपनी जान का भी हक़ है कि अपनी जान को जहन्नम की आग से बचाए और इसके लिए खुद को हिदायत पर चलाए। इन्सान पर उसके पड़ौसी का भी हक़ है कि जैसा वह खुद को आग और तबाही से बचाना चाहता है वैसा ही उन्हें भी बचाने की ताकीद करे।
कितने मुसलमान हैं जो अपने पड़ोसियों को जहन्नम की आग से बचाने के लिए तड़पते हों ?
कितने मुसलमान ऐसे हैं जो अपने पड़ोसियों की हिदायत और भलाई के लिए दुआ करते हों ?

‘मुहम्मद‘ स. के तरीक़ा रहमत का तरीक़ा है
हज़रत मुहम्मद स. को रसूल और आदर्श मानने का मतलब यही है कि हम उनके अमल के मुताबिक़ अमल करें। उनकी दुआओं को देखिए। वे उमर के लिए दुआ कर रहे हैं।
कौन उमर ?
वे उमर जो उनकी जान लेने के लिए घूम रहे हैं।
और एक उमर ही क्या वहां तो पूरी क़ौम ही उनकी जान लेने पर तुली हुई थी लेकिन उनकी हिदायत के लिए प्यारे नबी स. रात-रात भर खड़े होकर दुआ किया करते थे।
हज़रत मुहम्मद स. को इस दुनिया में कब इन्साफ़ मिला ?
लेकिन आपने हमेशा इन्साफ़ किया
इन्साफ़ ही नहीं बल्कि ‘अहसान‘ किया।

ज़ालिम दुश्मनों को माफ़ करने का बेमिसाल आदर्श
उनके प्यारे चाचा हम्ज़ा को क़त्ल करने वाले हब्शी और नफ़रत में उनका कलेजा चबाने वाली हिन्दा को क़त्ल करने से उन्हें किस चीज़ ने रोका ?
सिर्फ़ खुदा की उस रहमत ने जो कि खुद उनका मिज़ाज था।
उनके अलावा और कौन है जो अच्छे अमल का इतना ऊंचा और सच्चा नमूना पेश कर सके ?
इतिहास देखिए और मौजूदा दौर भी देख लीजिए। आपको ऐसा अमल कहीं न मिलेगा। इतिहास में न मिले तो शायरी में ही ढूंढ लीजिए। एक मुल्क की शायरी में नहीं सारी दुनिया के काव्यों-महाकाव्यों में देख लीजिए। कवियों की कल्पना भी ऐसे ऊंचे आदर्श की कल्पना से आपको कोरी मिलेगी जैसा कि पैग़म्बर मुहम्मद स. ने अपने अमल से समाज के सामने सचमुच साकार किया।

बेमिसाल माफ़ी, बेमिसाल बख्शिश का बेनज़ीर आदर्श
प्यार-मुहब्बत, रहमत-हमदर्दी, दुआ-माफ़ी, सब्र-शुक्र, इन्साफ़-अहसान, और खुदा की याद ग़र्ज़ यह कि कौन की खूबी ऐसी थी जो उनमें नहीं थी। उन्हें मक्का में क़त्ल करने के लिए हरेक क़बीले का एक नौजवान लिया गया। 360 जवान घर के बाहर क़त्ल के लिए जमा हो गए। उन्होंने मक्का छोड़ दिया लेकिन अपना मक़सद, मिज़ाज और तरीक़ा नहीं छोड़ा। बाद में जब मक्का फ़तह हुआ तब भी उन्होंने अपनी वे जायदादें तक न लीं जिन्हें उनसे सिर्फ़ इसलिए छीन लिया गया था कि वे उनकी मूर्तियों को पूजने के लिए तैयार न थे। सिर्फ़ उन्होंने ही नहीं बल्कि उनक साथियों ने भी नहीं लीं। इस धरती पर पहली बार ऐसा हुआ कि जब किसी विजेता ने अपने दुश्मनों की ज़मीन जायदाद पर क़ब्ज़ा नहीं जमाया बल्कि खुद अपनी जायदादें भी उन्हीं पर छोड़ दीं।

‘मार्ग‘ को ठुकराओगे तो मंज़िल कैसे पाओगे ?
इन्साफ़ का दिन आएगा तो उस दिन सिर्फ़ हिन्दुओं या सिर्फ़ ग़ैर-मुस्लिमों का ही इन्साफ़ न किया जाएगा बल्कि मुसलमानों के आमाल को भी देखा-परखा और जांचा जाएगा। मुसलमानों को चाहिए कि वे आज ही देख लें कि आज वे क्या बो रहे हैं ? क्योंकि उन्हें वही काटना है जो आज बो रहे हैं।
और हिन्दू भाई भी किसी ग़फ़लत में न रहें। मुसलमानों की बदअमली को मालिक के हुक्म से जोड़कर वे अपने हुनर का सुबूत तो दे सकते हैं लेकिन यह मालिक के संदेश के साथ सरासर अन्याय है, बुद्धि का दुरूपयोग है, ‘मार्ग‘ को ही ठुकरा दोगे तो फिर मार्ग कहां से पाओगे ?

मालिक का दरबार सजेगा तभी सबको इन्साफ़ मिलेगा
मुसलमानों से हिसाब ही चुकता करना है तो उसके लिए दूसरे बहुत तरीक़े हैं लेकिन उनकी नफ़रत में ‘सत्य‘ से मुंह मोड़ना तो हिन्दू धर्म में भी जायज़ नहीं है।
अयोध्या का फ़ैसला बता रहा है कि यह दुनिया मुकम्मल नहीं है और न ही यहां का फ़ैसला मुकम्मल है। दोनों पक्ष सुप्रीम कोर्ट जाना चाहते हैं। जहां चाहे चले जाएं लेकिन वे दुनिया की प्रकृति को तो नहीं बदल सकते। मन्दिर-मस्जिद का फ़ैसला जो चाहे हो लेकिन उनके लपेटे आकर मरने वाले मासूमों को इन्साफ़ देना दुनिया की किसी भी अदालत के बस में नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं है कि उन्हें इन्साफ़ मिलेगा ही नहीं। उन्हें इन्साफ़ ज़रूर मिलेगा चाहे इसके लिए दुनिया की प्रकृति को ही क्यों न बदलना पड़े ?
चाहे इस धरती की गोद में सोने वालों को एक साथ ही क्यों न जगाया जाए ?
चाहे मालिक को खुद ही क्यों न आना पड़े ?
और उसे सामने आना ही पड़ेगा क्योंकि इतना बड़ा काम केवल वही कर सकता है।

इन्सान के काम में झलकता है मालिक का नाम
यही वह समय होगा जब आदमी वह पाएगा जिसके लायक़ उसने खुद को बनाया होगा।
जो थोड़े में ईमानदार रहा होगा उसे ज़्यादा दिया जाएगा और जिसने थोड़े को भी बर्बाद करके रख दिया होगा उसे और अवसर न दिया जाएगा।
आज ज़मीन पर उसका नाम लेने वाले, उसके नाम पर झूमने वाले बहुत हैं। बहुत लोग हैं जो खुद को नामधारी कहते हैं लेकिन सिर्फ़ ज़बान से उसका नाम लेना ही उसके नाम को धारण करना नहीं होता बल्कि उसके नाम को इस तरह अपने मिज़ाज में समा लेना कि अमल से छलकें उसके गुण, यह होता है ‘नाम‘ को धारण करना। फिर नाम ही नहीं उसके पैग़ाम को भी धारण करना होता है।

किसके पास है मालिक का पैग़ाम ?
जिसका दावा हो कि उसके पास है। उसकी ज़िम्मेदारी है कि बिना कुछ घटाए-बढ़ाए वह दुनिया को बताए कि यह है तुम्हारे मालिक का हुक्म, तुम्हारे लिए।
मेरे पास है मालिक का हुक्म पवित्र कुरआन की शक्ल में।
जो आज इसे लेने से हिचकेगा, कल वह मालिक को अपने इन्कार की वजह खुद बताएगा।
अगर आपके पास इससे बेहतर कुछ और है तो लाइये उसे और पेश कीजिए मेरे सामने।
दुनिया को बांटिए मत, इसे जोड़िए।

हर समस्या का एक ही समाधान
लोग परेशान हैं। दुनिया जुए, शराब, व्यभिचार और ब्याज से परेशान है। दुनिया भूख और ग़रीबी से परेशान है। छोड़ दी गईं औरतें और विधवाएं परेशान हैं। अमीर-ग़रीब सब परेशान हैं, वे अपनी समस्याओं का हल आज चाहते हैं।
जिसके पास मालिक की वाणी है उसके पास इन सबकी समस्याओं का हल भी है। मालिक की वाणी का यह एक मुख्य लक्षण है, जिस वाणी में यह पूरा हो, जिसमें कुछ घटा न हो, कुछ बढ़ा न हो, उसे मान लीजिए मालिक की वाणी और उसका हुक्म।
मिलकर चलना ही होगा
मिलकर सोचो, मिलकर मानो तो उद्धार होगा।
अदालत के फ़ैसले के बाद भी तो हिन्दू-मुस्लिम आज मिलकर ही सोच रहे हैं।
जनता चाहती है कि मिलकर सोचो।
मालिक भी चाहता है कि मिलकर सोचो।
मिलकर सोचो, मिलाकर सोचो।
अपने अपने ग्रंथ लाकर सोचो।
आज नहीं सोचोगे तो बाद में सोचना पड़ेगा।
दुनिया में नहीं सोचोगे तो परलोक में सोचना पड़ेगा।
बस अन्तर केवल यह है कि आज का सोचा हुआ काम आएगा और उस दिन का सोचना सिर्फ़ अफ़सोस करने के लिए होगा।

ईश्वर साक्षी है आपके कर्मों का
इन्साफ़ का दिन क़रीब है और मालिक तो आज भी क़रीब है।
वह साक्षी है आपके हरेक कर्म का, आपके हरेक विचार का।
उसे साक्षी मान लीजिए और निष्पक्ष होकर विचार करना सीख लीजिए।
जो ज्ञान आपके अन्तःकरण में है वह आप पर प्रकट हो जाएगा और जो ज्ञान दृश्यमान जगत में है वह भी आपको सुलभ हो जाएगा।
आपको वही मिलेगा जो आप ढूंढ रहे हैं।
क्या आपको क्लियर है कि आप क्या ढूंढ रहे हैं ?
क्या आप जानते हैं कि आप क्यों जी रहे हैं ?
क्या आप जानते हैं कि आप अपने हरेक कर्म के लिए उत्तरदायी हैं ?

परलोक में सफलता का लक्ष्य सामने रखते है सच्चे सत्कर्मी
क्या आप जानते हैं कि आपको परलोक में अपने कर्मों का फल भोगना ही होगा ?
यह दुनिया कर्म की दुनिया है और आने वाली दुनिया अंजाम की दुनिया है।
हमारा अंजाम क्या होने वाला है, यह हम जान सकते हैं अपने आज के कर्म देखकर।
लोग शिकायत करते हैं कि ‘आज नेक परेशान हैं और ज़ालिम मगन हैं।‘
इसे देखकर वे भी गुनाह पर दिलेर हो जाते हैं। हालांकि यही चीज़ बता रही है कि ज़रूर ऐसा होना चाहिए कि नेक लोगों को उनका वाजिब हक़ मिले। यहां नहीं मिल रहा है तो कहीं और ज़रूर मिलेगा।
नबियों और उनके नेक साथियों की ज़िन्दगियां देख लीजिए। उन्होंने कभी नेकी यह सोचकर नहीं की कि उनकी नेकियों का बदला उन्हें दुनिया में ही मिल जाए।
कर्मों का फल कब और कैसे मिलता है ?

परलोक के चिंतन मिटा देता है हरेक निराशा, हरेक पाप
इस बात का इन्सान के चरित्र-निर्माण में बहुत बड़ा दख़ल है। जो लोग इसे नज़रअन्दाज़ करके समाज से ईमानदारी और नैतिकता की उम्मीद करते हैं। वे मानवीय स्वभाव को नहीं जानते। ईश्वर ने मानव का स्वभाव ही ऐसा बनाया है कि वह पहले फल का विचार करता है तत्पश्चात उसे पाने के लिए वह मेहनत करता है। परलोक का सिद्धांत इन्सान के बहुत से सवालों को और समाज की सारी समस्याओं को हल करता है। इसीलिए परलोक का विश्वास हमेशा से धर्म का अंग रहा है। अब इसे अपने विचार और कर्म का अंग बनाने की भी ज़रूरत है।

‘सत्यमेव जयते‘ साकार होगा परलोक में
‘जो भी भले काम करके आया उसे उसकी नेकी का बेहतर से बेहतर बदला और अच्छे से अच्छा अज्र (बदला) मिलेगा और उस दिन की दहशत से उनको अमन में रखा जाएगा। और जो कोई भी अपने काले करतूत के साथ आएगा, ऐसों को औंधे मुंह आग में झोंक दिया जाएगा और कहा जाएगा कि तुम्हारे बुरे कामों की क्या ही भारी सज़ा से आज तुमको पाला पड़ गया है।
                                                                                  (कुरआन, 28, 89 व 90)
                                              अनुवाद कुरआन मजीद- मौलाना अब्दुल करीम पारीख साहब रह.

14 comments:

Anwar Ahmad said...

अदालत के फ़ैसले के बाद भी तो हिन्दू-मुस्लिम आज मिलकर ही सोच रहे हैं।
जनता चाहती है कि मिलकर सोचो।
मालिक भी चाहता है कि मिलकर सोचो।
मिलकर सोचो, मिलाकर सोचो।
अपने अपने ग्रंथ लाकर सोचो।
आज नहीं सोचोगे तो बाद में सोचना पड़ेगा।
दुनिया में नहीं सोचोगे तो परलोक में सोचना पड़ेगा।
बस अन्तर केवल यह है कि आज का सोचा हुआ काम आएगा और उस दिन का सोचना सिर्फ़ अफ़सोस करने के लिए होगा।

Anwar Ahmad said...

आपने बिलकुल सही कहा है . मिलकर ही समस्याओं का हल ढूंडा जा सकता है .

HAKEEM SAUD ANWAR KHAN said...

आज का मज़मून बेहतर और वाजः है . अल्लाह आपको बरकत दे . आमीन

HAKEEM SAUD ANWAR KHAN said...

आज का मज़मून बेहतर और waazeh है . अल्लाह आपको बरकत दे . आमीन

वन्दे ईश्वरम vande ishwaram said...

Vande ishwaram .

S.M.Masoom said...

बहुत खूब, लेकिन अनवर भाई इसे किश्तों मैं देते तो बेहतर होता.

DR. ANWER JAMAL said...

भाई साहब ! कई किस्तें तैयार पड़ी हैं , इसलिए इसे एकमुश्त दे दिया है.

बलबीर सिंह (आमिर) said...

ठीक कहते हो दुनिया में फ़ैसला ही होता है, इन्साफ़ नहीं। इन्साफ़ तो सिर्फ़ ‘इन्साफ़ के दिन‘ होगा। जब फ़ैसला करने वाला खुद ‘मालिक‘ होगा

बलबीर सिंह (आमिर) said...

very very very nice post

Anonymous said...

अगर एक इंसान ने दूसरे को थप्पड़ मारा तो पहला इंसान ज़ालिम दूसरा मज़लूम, अल्लाह दूसरे के साथ होगा यानी मजलूम के साथ,

अब दूसरे इंसान ने गुस्से मे पहले इंसान को दो थप्पड़ मार दिए तो दूसरा ज़ालिम हो गया और पहला मज़लूम अब अल्लाह पहले के साथ होगा क्योकि जुल्म का बदला उतना ही लेना था जितना ज़ुल्म हुआ और जिस ने ज़ुल्म किया, एक थप्पड़ का जवाब एक थप्पड़ ही होना चाहिए !

जब ऐसा इन्साफ करने वाला कानून और प्रशासन मौजूद न हो तो मजलूम को उस हालत में सब्र करना चाहिए !

सब्र का बदला जन्नत है !

Ejaz Ul Haq said...

सब्र करने वालों के साथ अल्लाह है, और जिनके साथ अल्लाह है उनको और चाहिए क्या ?
जो लोग ख़ुदा को पाना चाहते हैं वे आज़माइश के वक़्त सब्र करना सीखें और सब्र का मतलब है डटे रहना अपने फ़र्ज़ पर.
अपना फ़र्ज़ अदा कीजिये लोगों को सही ग़लत और न्याय अन्याय का ज्ञान दीजिये. अच्छे बुरा कर्मों का अंजाम बताइए.
जब लोग जागेंगे तब लोग मानेगे. जब समाज सीधे मार्ग पर जायेगा तो वे कल्याण पा जायेगा. और तब आपको भी मिलेगा न्याय बल्कि न्याय से भी ज्यादा जो आप पाना चाहते है समाज से वह पाने के लिए आपको बनाना होगा एक नया समाज सत्य और न्याय के मार्ग पर चलने वाला समाज यही आपका फ़र्ज़ है. इसके लिए सबसे पहले आपको खुद चलना होगा सत्य और न्याय पर, हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के आदर्श पर जिसका इक़रार एक मुस्लिम करता है कलमा, अज़ान और नमाज़ में. अगर आप ऐसा नहीं करते तो आप ज़ुल्म करते हैं ख़ुद पर भी और समाज पर भी, और ज़ालिम को बदले समाज से क्या मिलेगा सिवाय ज़ुल्म के. ज़ुल्म को मिटादो न्याय क़ायम करो, शांति लाओ, कल्याण पाओ, उद्धार पाओ और यह सब मिलेगा इसी दुनिया में बस आप को चलना होगा ख़ुदा के हुक्म पर. आपको सत्य की गवाही देनी होगी अपने कर्म से और वे भी सामूहिक रूप से देनी होगी. इसी से खातमा होगा फिरकेबंदी का और इसी से जायगी मोमिनों की कमज़ोरी, तब मोमिन होगा बलवान और बलवान से बलाएँ रहती हैं सदा दूर. तो बलवान बनिए, सबसे बड़ा बलवान है एक परमेश्वर उसकी की शरण में आइये जो चाहते हैं आपको मिलेगा, लेकिन उसके नियमों पर चलिए तो सही उसके नियमों का नाम है धर्म, धर्म अब केवल इस्लाम है. बल्कि जब कभी धर्म का नाम कुछ और था तब भी इस्लाम ही था और परमेश्वर भी यही एक था. इसी को जानने का नाम 'ज्ञान' है. इसी ज्ञान से पैदा होता है प्रेम और यही मेरा 'प्रेम संदेस'.

Taarkeshwar Giri said...

Accha Laga, Padhne ke bad maja aa bhi aaya.

Aaj kuch khash comment nahi karunga

HAKEEM YUNUS KHAN said...

मैं पढता ज्यादा हूँ और लिखता हूँ बहुत कम . समय भी कम है हरेक के पास , मेरे पास भी मगर आपकी पोस्ट है शानदार , इसलिए बताना ज़रूरी समझा . शुक्रिया बहुत बहुत .

Ejaz Ul Haq said...

ख़ाली-पीली अहंकार क्यों ?
आदरणीय भाई पी.सी.गोदियाल जी ने हकनामा ब्लॉग पर दूसरे ब्लोगर्स के कमेंट्स को उलटी दस्त की उपमा दी है जोकि सरासर अनुचित है और अहंकार का प्रतीक भी । अहंकार से और अशिष्ट व्यवहार से दोनों से ही रोकती है भारतीय संस्कृति जिसका झंडा लेकर चलने का दावा करते है, मुझे लगता है कि दावा सच नहीं है ।