सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Saturday, October 30, 2010
A divine call to sister Divya हिन्दू समाज मेरे अपने लोगों का समाज है, मेरे पूर्वजों का समाज है, मेरा अपना समाज है। उन्हें संकट में घिरा देखकर मेरा दुखी होना स्वाभाविक है - Anwer Jamal
आपकी इस पोस्ट पर मेरा आपसे दूसरा प्रश्न है। जो इस प्रकार है --
आप एक विद्वान् व्यक्ति हैं, जिसने हिन्दू और इस्लाम के बहुत से ग्रन्थ पढ़े हैं। क्या इतना पढने लिखने के बाद भी एक इंसान सदियों तक दुसरे धर्म की कमियाँ ही गिनता रहता है ? क्या आप अपने धर्म से खुश नहीं हैं ? किसी दुसरे की आस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाना आपका प्रिय शगल है क्या ?
यदि हिन्दू जनता आपकी आस्था पर चोट करे तो कैसा लगेगा ?
क्या तलाक तलाक कहकर अपनी पत्नी को छोड़ देना उचित है ?
क्या बुर्के में बंद करके आप स्त्री के साथ कुछ ज्यादती नहीं कर रहे ?। क्या मान मर्यादा की रक्षा बुर्के में ढके रहने से होती है , या फिर परिवेश से मिले संस्कारों से ?
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हिन्दू धर्म मेरे लिए पराया नहीं है
1. सभ्य और विचारशील बहन दिव्या जी ! आपसे मुझे अच्छे संवाद की आशा है लेकिन आप मुझे अपनाने के बजाय कह रही हैं कि मैं भी आपको और हिन्दुओं को ‘दूसरा‘ समझूं और उनके धर्म को अपना नहीं बल्कि ‘दूसरों का धर्म‘ समझूं , ऐसा क्यों ?
क्या आप मेरी अपनी बहन नहीं हैं ?
क्या जनाब अमित साहब मेरे अनुज नहीं हैं ?
अगर आप मेरे अपने हैं तो आपका धर्म भी मेरा अपना है। आपके ज़रिए भी हिन्दू धर्म मेरा अपना धर्म है और बिना आपके मैं खुद भी हिन्दू हूं।
हिन्दू किसे कहते हैं ?
‘हिन्दू‘ शब्द की जो भी परिभाषा आप तय करेंगे, वह आपसे पहले मुझमें घटित होगी, इन्शा अल्लाह। पहले इसे भौगोलिक सीमाओं से जोड़कर बयान किया जाता था लेकिन आजकल ‘हिन्दू‘ शब्द को भू-सांस्कृतिक अवधारणा के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। आर. एस. एस. के विचारकों ने भी मुसलमानों को ‘हिन्दूपने‘ से ख़ारिज नहीं किया है। उन्होंने मुसलमानों को ‘मुहम्मदी हिन्दू‘ कहा है। इस सर्टिफ़िकेट के बाद भी आप क्यों चाहती हैं कि मैं हिन्दू धर्म को अपना नहीं बल्कि दूसरों का धर्म समझूं और उसके बारे में सोचना और बोलना छोड़ दूं ?
आप में से कौन है जो खुद को ‘मनुवादी हिन्दू‘ कहने को तैयार हो ?
आप में से कौन है जो मनु के मौलिक धर्म को आज भी प्रासंगिक मानता हो और उसका पालन करता हो ?
आप में से कौन है जो कहता हो कि हिन्दू धर्म में एक भी कमी नहीं है ?
मैं अपने आप में ‘यूनिक हिन्दू‘ हूं
ऐसा आप में से एक भी नहीं है लेकिन मैं एक ऐसा ही हिन्दू हूं। आपको चाहिए था कि मेरा अनुसरण करते लेकिन आप मुझ पर आरोप लगाने लगीं कि मैं ‘दूसरों के धर्म में कमियां‘ गिनता रहता हूं।
‘कमियां‘ बहुवचन है ‘कमी‘ शब्द का। जब मैं हिन्दू धर्म में एक भी कमी नहीं मानता तो बहुत सारी कमियां कैसे मान लूंगा ? और उन्हें गिनूंगा कैसे ?
हिन्दू समाज मेरे अपने लोगों का समाज है, मेरे पूर्वजों का समाज है, मेरा अपना समाज है। उन्हें संकट में घिरा देखकर मेरा दुखी होना स्वाभाविक है। इनसान के संकटों से उसके कर्मों का सीधा संबंध है। अगर आज नक्सलवादी रोटी और रोज़गार के लिए आतंक मचा रहे हैं, अगर 2 लाख से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं, अगर अकेले उत्तर प्रदेश में मलेरिया से हज़ारों मर चुके हैं और ग़रीबों को रोटी और इलाज मयस्सर नहीं है तो पत्थर की मूर्तियों पर अरबों-खरबों रूपये बर्बाद करना राष्ट्रद्रोह भी है और संवेदनहीनता भी। ईश्वर की बनाई जीवित मूर्तियां तड़प-तड़प कर मर रही हों और लोग अपनी बनाई बेजान मूर्ति के आगे खुशी से नाचते हुए बाजे बजा रहे हों ?
यह धर्म नहीं है बल्कि अपने मन से निकाली गईं परंपराएं हैं जिन्हें धर्म के नाम पर किया जाता है। इस तरह की परंपराओं को वैदिक ऋषियों ने कभी न तो खुद किया और न ही कभी समाज से करने के लिए कहा, जिन्हें हिन्दू धर्म का आदर्श समझा जाता है। तब ‘धन उड़ाऊ और जग डुबाऊ‘ परंपराओं को क्यों किया जाए ?
कोई रीज़न तो दीजिए।
ऋषि मार्ग से हटने के बाद हिन्दू समाज भटक गया है। इस भटकाव में ही वह यह सब कर रहा है जिससे मैं उसे रोक रहा हूं और आप मुझे रोकने से रोक रही हैं। सही बात बताना मेरा फ़र्ज़ है और उसे मानना आपका। मैं अपना फ़र्ज़ अदा कर रहा हूं, आप भी अपना फ़र्ज़ अदा कीजिए।
आपने पूछा है कि क्या मैं अपने धर्म से, इस्लाम से खुश नहीं हूं ?
‘इस्लाम‘ का अर्थ है एकनिष्ठ भाव से केवल एक परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण करना। मैं इस्लाम से बहुत ज़्यादा खुश हूं, इतना ज़्यादा खुश हूं कि आपको भी अपनी खुशी में शरीक करना चाहता हूं। मेरे लिए हिन्दू धर्म इस्लाम का विरोधी नहीं है बल्कि उसी का एक पर्यायवाची है, अरबी शब्द इस्लाम का ही वह एक हिन्दी नाम है। आपको भी इस गहरी हक़ीक़त को जान लेना चाहिए, मैं बस यही चाहता हूं।
2. आपने पूछा है कि यदि हिन्दू जनता मेरी आस्था पर चोट करे तो मुझे कैसा लगेगा ?
इसमें यदि शब्द की गुंजाइश ही कहां है ? वह आए दिन मेरी आस्था पर चोट करती ही रहती है और यक़ीनन मुझे बहुत बुरा लगता है। अब यह भी जान लीजिए कि वह क्यों चोट करती है मेरी आस्था पर ?
और मुझे बुरा क्यों लगता है ?
वे समझते हैं कि मैं हिन्दू धर्म में कमियां निकाल रहा हूं, मैं हिन्दुओं को नीचा दिखा रहा हूं। इसलिए वे बेचारे मेरी आस्था पर चोट करते हैं। जहां वे आश्वस्त होते हैं, जिन्हें वे अपने जैसा मानते हैं, उनकी पोस्ट पर वे ऊटपटांग नहीं लिखते। जब वे मेरी तरफ़ से आश्वस्त हो जाएंगे तब वे मेरे साथ भी ठीक हो जाएंगे। जो भाई आश्वस्त हो चुके हैं, उनका व्यवहार काफ़ी हद तक बदल चुका है। उनमें से एक ‘मान जी‘ हैं। पहले कभी वे मेरे ब्लाग पर गालियां लिखकर जाया करते थे लेकिन बाद में उन्होंने माफ़ी भी मांगी और उसके बाद फिर उनकी प्रतिक्रियाएं भी ठीक आने लगीं और अब तो वह कुछ लिखते भी नहीं, हालांकि पढ़ते वह आज भी हैं। मुझे बुरा इसलिए लगता है कि वे जिस बात की मज़ाक़ उड़ा रहे हैं, वह सनातन सत्य है। वह केवल मुहम्मद साहब स. के समय से ही नहीं है बल्कि उनके पहले से है वह सत्य। इस्लाम का कोई भी मूल सिद्धांत वैदिक धर्म से भिन्न नहीं है। जब वे इस्लाम का मज़ाक़ उड़ाते हैं तो अपनी अज्ञानता के कारण वे वैदिक धर्म का ही मज़ाक़ उड़ा रहे होते हैं, इसीलिए मुझे दुख होता है।
3. आपने जानना चाहा है कि क्या तलाक़-तलाक़ कहकर अपनी पत्नी को छोड़ देना उचित है ?
बिल्कुल अनुचित है, सरासर जुल्म और गुनाह है एकमुश्त तीन तलाक़ देना। जो आदमी ऐसा करता है वह एक औरत की कोमल भावनाओं और उसके त्याग की क़द्र करने वाला नहीं हो सकता। आम तौर पर वह एक जाहिल और फूहड़ आदमी ही हो सकता है। ऐसे नाक़दरे से उसकी बीवी को तुरंत अलग हो जाना चाहिए और हुकूमत को उसकी कमर पर बेंत लगानी चाहिएं। इस्लामी हुकूमत में ऐसा ही होता है और अगर आप सहयोग दें तो यहां भी उसे दोहराया जा सकता है।
एक मुश्त तीन तलाक़ देना ‘बिदअत‘ है, गुनाह है, तलाक़ का मिसयूज़ है। यह कमी मुस्लिम समाज की है न कि इस्लाम की। अल्लाह की नज़र में जायज़ चीज़ों में सबसे ज़्यादा नापसंद तलाक़ है। जीवन में बहुत से उतार-चढ़ाव आते हैं, बहुत से अलग-अलग मिज़ाजों के लोगों के सामने बहुत तरह की समस्याएं आती हैं। जब दोनों का साथ रहना मुमकिन हो और दोनों तरफ़ के लोगों के समझाने के बाद भी वे साथ रहने के लिए तैयार न हों तो फिर समाज के लिए एक सेफ़्टी वाल्व की तरह है तलाक़। तलाक़ का आदर्श तरीक़ा कुरआन में है। कुरआन की 65 वीं सूरह का नाम ही ‘सूरा ए तलाक़‘ है। तलाक़ का उससे अच्छा तरीक़ा दुनिया में किसी समाज के पास नहीं है। हिन्दू समाज में तलाक़ का कॉन्सेप्ट ही नहीं था। उसने इस्लाम से लिया है तलाक़ और पुनर्विवाह का सिद्धांत। इस्लाम को अंश रूप में स्वीकारने वाले समाज से हम यही कहते हैं कि इसे आप पूर्णरूपेण ग्रहण कीजिए। आपका मूल धर्म भी यही है।
4. आपने पूछा है कि क्या बुरक़े में बंद करके आप स्त्री के साथ कुछ ज़्यादती नहीं कर रहे हैं ?
अच्छा तो यह रहता कि आप एक ट्रिप मेरे करतीं मेरे घर के लिए और यह सवाल आप मेरी बहनों और मेरी वाइफ़ से पूछतीं। इसका बिल्कुल सटीक जवाब तो वही दे सकती हैं जो बुरक़ा पहनने का अनुभव रखती हैं। इस्लाम में हिजाब और पर्दा है बुरक़ा नहीं है। बुरक़ा पर्दा करने वाली औरतों ने खुद बनाया है अपनी सहूलियत की ख़ातिर।
कुरआन में कहा गया है कि नेक औरतें जब घर से बाहर निकलें तो वे अपने अंगों की और अपनी सजावट की नुमाइश न करें। वे अपने बदन और सिर पर चादर ढक लें ताकि वे सताई न जाएं। ‘हिजाब‘ औरत की सुरक्षा करता है। इससे नेक औरत का तो दम नहीं घुटता लेकिन शैतान मर्द ज़रूर घुटन महसूस करते हैं क्योंकि हिजाब की वजह से वे औरत के अंगों की ऊंचाई और गहराई नापने का लुत्फ़ नहीं उठा पाते जैसा कि दूसरी औरतों के साथ करने में वे आसानी से करते रहते हैं, यह नज़र का व्यभिचार कहलाता है।
हिजाब इस्लाम का एक ऐसा विशेष गुण है जिसे आज ग़ैर-मुस्लिम लड़कियां भी शौक़ से अपना रही हैं। इस्लाम में आने से पहले वे इस्लामी रिवाज इख्तियार कर रही हैं। इससे इस्लाम के प्रति उनके आकर्षण का पता चलता है।
5. मान-मर्यादा की रक्षा ‘हिजाब‘ से ही संभव है। इस्लाम के उसूल से हटकर चलने वाली लड़कियां अक्सर भारी नुक्सान उठा बैठती हैं। परिवेश से मिलने वाले संस्कार औरत की सुरक्षा नहीं कर सकते। मेरे एक पुराने लेख से आप यह बख़ूबी समझ सकती हैं।
जो चीज़ें मामूली समझी जाती हैं, उन्हें सबके सामने यूं ही डाल दिया जाता है और उन्हें छिपाया नहीं जाता जैसे कि घर का कूड़ेदान दरवाज़े पर ही डाल दिया जाता है लेकिन हीरे-मोती सबकी नज़रों से छिपाकर रखे जाते हैं। हीरे-मोती से भी ज़्यादा क़ीमती दुनिया में नेक औरत है, उसकी आबरू है। जो आबरू की क़ीमत जानते हैं, केवल वही उसकी हिफ़ाज़त के लिए औरत को बुरी नज़रों से बचाने की कोशिश करते हैं।
आप मुझे दूसरों के धर्म में कमियां ढूंढने से मना कर रही हैं और खुद तलाक़ और बुरक़े पर ऐतराज़ जता रही हैं ?
क्या खूब अदा है नसीहत की और नादानी की ?
आपके अलावा भी एक भाई ने मज़ार पर ऐतराज़ जताया है।
इस्लाम में क़ब्र पक्की बनाना और उस पर बाजे बजाना हराम है। यह कमी मुस्लिम समाज की है, इस्लाम की नहीं है। उन्हें नहीं करना चाहिए यह सब।
एक साहब ने हज को फ़िज़ूलख़र्ची कह दिया। जिस ख़र्च से आदमी का विचार बदले, उसके चरित्र का विकास हो, वह ख़र्च फ़िजूलख़र्ची की श्रेणी में नहीं आता। संक्षेप में यही कहा जा सकता है। हज के ज़रिए मानव जाति को बांटने वाली दीवारें गिरती हैं और वे एक सच्चे रब के बन्दे बनकर एक समुदाय बनते हैं। समर्पणवादी शांतिकारियों का अन्तर्राष्ट्रीय रूहानी सम्मेलन है हज। इसके बारे में विस्तार से बताऊंगा एक पूरी किताब का अनुवाद करके। अनुवाद पूरा हो चुका है। बस पेश करना बाक़ी है।
मूर्तियां और आडम्बर हिन्दू-मुसलमानों को बांटकर भारत को कमज़ोर बना रहे हैं। इन्हें त्यागते ही दोनों एक हो जाएंगे और भारत सशक्त होते ही विश्व नेतृत्व पद पर विराजमान हो जाएगा जो कि मेरा सपना है। इसी सपने को साकार करने के लिए मैं आपको सहयोग के लिए आमंत्रित करता हूं।
आप एक विद्वान् व्यक्ति हैं, जिसने हिन्दू और इस्लाम के बहुत से ग्रन्थ पढ़े हैं। क्या इतना पढने लिखने के बाद भी एक इंसान सदियों तक दुसरे धर्म की कमियाँ ही गिनता रहता है ? क्या आप अपने धर्म से खुश नहीं हैं ? किसी दुसरे की आस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाना आपका प्रिय शगल है क्या ?
यदि हिन्दू जनता आपकी आस्था पर चोट करे तो कैसा लगेगा ?
क्या तलाक तलाक कहकर अपनी पत्नी को छोड़ देना उचित है ?
क्या बुर्के में बंद करके आप स्त्री के साथ कुछ ज्यादती नहीं कर रहे ?। क्या मान मर्यादा की रक्षा बुर्के में ढके रहने से होती है , या फिर परिवेश से मिले संस्कारों से ?
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हिन्दू धर्म मेरे लिए पराया नहीं है
1. सभ्य और विचारशील बहन दिव्या जी ! आपसे मुझे अच्छे संवाद की आशा है लेकिन आप मुझे अपनाने के बजाय कह रही हैं कि मैं भी आपको और हिन्दुओं को ‘दूसरा‘ समझूं और उनके धर्म को अपना नहीं बल्कि ‘दूसरों का धर्म‘ समझूं , ऐसा क्यों ?
क्या आप मेरी अपनी बहन नहीं हैं ?
क्या जनाब अमित साहब मेरे अनुज नहीं हैं ?
अगर आप मेरे अपने हैं तो आपका धर्म भी मेरा अपना है। आपके ज़रिए भी हिन्दू धर्म मेरा अपना धर्म है और बिना आपके मैं खुद भी हिन्दू हूं।
हिन्दू किसे कहते हैं ?
‘हिन्दू‘ शब्द की जो भी परिभाषा आप तय करेंगे, वह आपसे पहले मुझमें घटित होगी, इन्शा अल्लाह। पहले इसे भौगोलिक सीमाओं से जोड़कर बयान किया जाता था लेकिन आजकल ‘हिन्दू‘ शब्द को भू-सांस्कृतिक अवधारणा के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। आर. एस. एस. के विचारकों ने भी मुसलमानों को ‘हिन्दूपने‘ से ख़ारिज नहीं किया है। उन्होंने मुसलमानों को ‘मुहम्मदी हिन्दू‘ कहा है। इस सर्टिफ़िकेट के बाद भी आप क्यों चाहती हैं कि मैं हिन्दू धर्म को अपना नहीं बल्कि दूसरों का धर्म समझूं और उसके बारे में सोचना और बोलना छोड़ दूं ?
आप में से कौन है जो खुद को ‘मनुवादी हिन्दू‘ कहने को तैयार हो ?
आप में से कौन है जो मनु के मौलिक धर्म को आज भी प्रासंगिक मानता हो और उसका पालन करता हो ?
आप में से कौन है जो कहता हो कि हिन्दू धर्म में एक भी कमी नहीं है ?
मैं अपने आप में ‘यूनिक हिन्दू‘ हूं
ऐसा आप में से एक भी नहीं है लेकिन मैं एक ऐसा ही हिन्दू हूं। आपको चाहिए था कि मेरा अनुसरण करते लेकिन आप मुझ पर आरोप लगाने लगीं कि मैं ‘दूसरों के धर्म में कमियां‘ गिनता रहता हूं।
‘कमियां‘ बहुवचन है ‘कमी‘ शब्द का। जब मैं हिन्दू धर्म में एक भी कमी नहीं मानता तो बहुत सारी कमियां कैसे मान लूंगा ? और उन्हें गिनूंगा कैसे ?
हिन्दू समाज मेरे अपने लोगों का समाज है, मेरे पूर्वजों का समाज है, मेरा अपना समाज है। उन्हें संकट में घिरा देखकर मेरा दुखी होना स्वाभाविक है। इनसान के संकटों से उसके कर्मों का सीधा संबंध है। अगर आज नक्सलवादी रोटी और रोज़गार के लिए आतंक मचा रहे हैं, अगर 2 लाख से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं, अगर अकेले उत्तर प्रदेश में मलेरिया से हज़ारों मर चुके हैं और ग़रीबों को रोटी और इलाज मयस्सर नहीं है तो पत्थर की मूर्तियों पर अरबों-खरबों रूपये बर्बाद करना राष्ट्रद्रोह भी है और संवेदनहीनता भी। ईश्वर की बनाई जीवित मूर्तियां तड़प-तड़प कर मर रही हों और लोग अपनी बनाई बेजान मूर्ति के आगे खुशी से नाचते हुए बाजे बजा रहे हों ?
यह धर्म नहीं है बल्कि अपने मन से निकाली गईं परंपराएं हैं जिन्हें धर्म के नाम पर किया जाता है। इस तरह की परंपराओं को वैदिक ऋषियों ने कभी न तो खुद किया और न ही कभी समाज से करने के लिए कहा, जिन्हें हिन्दू धर्म का आदर्श समझा जाता है। तब ‘धन उड़ाऊ और जग डुबाऊ‘ परंपराओं को क्यों किया जाए ?
कोई रीज़न तो दीजिए।
ऋषि मार्ग से हटने के बाद हिन्दू समाज भटक गया है। इस भटकाव में ही वह यह सब कर रहा है जिससे मैं उसे रोक रहा हूं और आप मुझे रोकने से रोक रही हैं। सही बात बताना मेरा फ़र्ज़ है और उसे मानना आपका। मैं अपना फ़र्ज़ अदा कर रहा हूं, आप भी अपना फ़र्ज़ अदा कीजिए।
आपने पूछा है कि क्या मैं अपने धर्म से, इस्लाम से खुश नहीं हूं ?
‘इस्लाम‘ का अर्थ है एकनिष्ठ भाव से केवल एक परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण करना। मैं इस्लाम से बहुत ज़्यादा खुश हूं, इतना ज़्यादा खुश हूं कि आपको भी अपनी खुशी में शरीक करना चाहता हूं। मेरे लिए हिन्दू धर्म इस्लाम का विरोधी नहीं है बल्कि उसी का एक पर्यायवाची है, अरबी शब्द इस्लाम का ही वह एक हिन्दी नाम है। आपको भी इस गहरी हक़ीक़त को जान लेना चाहिए, मैं बस यही चाहता हूं।
2. आपने पूछा है कि यदि हिन्दू जनता मेरी आस्था पर चोट करे तो मुझे कैसा लगेगा ?
इसमें यदि शब्द की गुंजाइश ही कहां है ? वह आए दिन मेरी आस्था पर चोट करती ही रहती है और यक़ीनन मुझे बहुत बुरा लगता है। अब यह भी जान लीजिए कि वह क्यों चोट करती है मेरी आस्था पर ?
और मुझे बुरा क्यों लगता है ?
वे समझते हैं कि मैं हिन्दू धर्म में कमियां निकाल रहा हूं, मैं हिन्दुओं को नीचा दिखा रहा हूं। इसलिए वे बेचारे मेरी आस्था पर चोट करते हैं। जहां वे आश्वस्त होते हैं, जिन्हें वे अपने जैसा मानते हैं, उनकी पोस्ट पर वे ऊटपटांग नहीं लिखते। जब वे मेरी तरफ़ से आश्वस्त हो जाएंगे तब वे मेरे साथ भी ठीक हो जाएंगे। जो भाई आश्वस्त हो चुके हैं, उनका व्यवहार काफ़ी हद तक बदल चुका है। उनमें से एक ‘मान जी‘ हैं। पहले कभी वे मेरे ब्लाग पर गालियां लिखकर जाया करते थे लेकिन बाद में उन्होंने माफ़ी भी मांगी और उसके बाद फिर उनकी प्रतिक्रियाएं भी ठीक आने लगीं और अब तो वह कुछ लिखते भी नहीं, हालांकि पढ़ते वह आज भी हैं। मुझे बुरा इसलिए लगता है कि वे जिस बात की मज़ाक़ उड़ा रहे हैं, वह सनातन सत्य है। वह केवल मुहम्मद साहब स. के समय से ही नहीं है बल्कि उनके पहले से है वह सत्य। इस्लाम का कोई भी मूल सिद्धांत वैदिक धर्म से भिन्न नहीं है। जब वे इस्लाम का मज़ाक़ उड़ाते हैं तो अपनी अज्ञानता के कारण वे वैदिक धर्म का ही मज़ाक़ उड़ा रहे होते हैं, इसीलिए मुझे दुख होता है।
3. आपने जानना चाहा है कि क्या तलाक़-तलाक़ कहकर अपनी पत्नी को छोड़ देना उचित है ?
बिल्कुल अनुचित है, सरासर जुल्म और गुनाह है एकमुश्त तीन तलाक़ देना। जो आदमी ऐसा करता है वह एक औरत की कोमल भावनाओं और उसके त्याग की क़द्र करने वाला नहीं हो सकता। आम तौर पर वह एक जाहिल और फूहड़ आदमी ही हो सकता है। ऐसे नाक़दरे से उसकी बीवी को तुरंत अलग हो जाना चाहिए और हुकूमत को उसकी कमर पर बेंत लगानी चाहिएं। इस्लामी हुकूमत में ऐसा ही होता है और अगर आप सहयोग दें तो यहां भी उसे दोहराया जा सकता है।
एक मुश्त तीन तलाक़ देना ‘बिदअत‘ है, गुनाह है, तलाक़ का मिसयूज़ है। यह कमी मुस्लिम समाज की है न कि इस्लाम की। अल्लाह की नज़र में जायज़ चीज़ों में सबसे ज़्यादा नापसंद तलाक़ है। जीवन में बहुत से उतार-चढ़ाव आते हैं, बहुत से अलग-अलग मिज़ाजों के लोगों के सामने बहुत तरह की समस्याएं आती हैं। जब दोनों का साथ रहना मुमकिन हो और दोनों तरफ़ के लोगों के समझाने के बाद भी वे साथ रहने के लिए तैयार न हों तो फिर समाज के लिए एक सेफ़्टी वाल्व की तरह है तलाक़। तलाक़ का आदर्श तरीक़ा कुरआन में है। कुरआन की 65 वीं सूरह का नाम ही ‘सूरा ए तलाक़‘ है। तलाक़ का उससे अच्छा तरीक़ा दुनिया में किसी समाज के पास नहीं है। हिन्दू समाज में तलाक़ का कॉन्सेप्ट ही नहीं था। उसने इस्लाम से लिया है तलाक़ और पुनर्विवाह का सिद्धांत। इस्लाम को अंश रूप में स्वीकारने वाले समाज से हम यही कहते हैं कि इसे आप पूर्णरूपेण ग्रहण कीजिए। आपका मूल धर्म भी यही है।
4. आपने पूछा है कि क्या बुरक़े में बंद करके आप स्त्री के साथ कुछ ज़्यादती नहीं कर रहे हैं ?
अच्छा तो यह रहता कि आप एक ट्रिप मेरे करतीं मेरे घर के लिए और यह सवाल आप मेरी बहनों और मेरी वाइफ़ से पूछतीं। इसका बिल्कुल सटीक जवाब तो वही दे सकती हैं जो बुरक़ा पहनने का अनुभव रखती हैं। इस्लाम में हिजाब और पर्दा है बुरक़ा नहीं है। बुरक़ा पर्दा करने वाली औरतों ने खुद बनाया है अपनी सहूलियत की ख़ातिर।
कुरआन में कहा गया है कि नेक औरतें जब घर से बाहर निकलें तो वे अपने अंगों की और अपनी सजावट की नुमाइश न करें। वे अपने बदन और सिर पर चादर ढक लें ताकि वे सताई न जाएं। ‘हिजाब‘ औरत की सुरक्षा करता है। इससे नेक औरत का तो दम नहीं घुटता लेकिन शैतान मर्द ज़रूर घुटन महसूस करते हैं क्योंकि हिजाब की वजह से वे औरत के अंगों की ऊंचाई और गहराई नापने का लुत्फ़ नहीं उठा पाते जैसा कि दूसरी औरतों के साथ करने में वे आसानी से करते रहते हैं, यह नज़र का व्यभिचार कहलाता है।
हिजाब इस्लाम का एक ऐसा विशेष गुण है जिसे आज ग़ैर-मुस्लिम लड़कियां भी शौक़ से अपना रही हैं। इस्लाम में आने से पहले वे इस्लामी रिवाज इख्तियार कर रही हैं। इससे इस्लाम के प्रति उनके आकर्षण का पता चलता है।
5. मान-मर्यादा की रक्षा ‘हिजाब‘ से ही संभव है। इस्लाम के उसूल से हटकर चलने वाली लड़कियां अक्सर भारी नुक्सान उठा बैठती हैं। परिवेश से मिलने वाले संस्कार औरत की सुरक्षा नहीं कर सकते। मेरे एक पुराने लेख से आप यह बख़ूबी समझ सकती हैं।
जो चीज़ें मामूली समझी जाती हैं, उन्हें सबके सामने यूं ही डाल दिया जाता है और उन्हें छिपाया नहीं जाता जैसे कि घर का कूड़ेदान दरवाज़े पर ही डाल दिया जाता है लेकिन हीरे-मोती सबकी नज़रों से छिपाकर रखे जाते हैं। हीरे-मोती से भी ज़्यादा क़ीमती दुनिया में नेक औरत है, उसकी आबरू है। जो आबरू की क़ीमत जानते हैं, केवल वही उसकी हिफ़ाज़त के लिए औरत को बुरी नज़रों से बचाने की कोशिश करते हैं।
आप मुझे दूसरों के धर्म में कमियां ढूंढने से मना कर रही हैं और खुद तलाक़ और बुरक़े पर ऐतराज़ जता रही हैं ?
क्या खूब अदा है नसीहत की और नादानी की ?
आपके अलावा भी एक भाई ने मज़ार पर ऐतराज़ जताया है।
इस्लाम में क़ब्र पक्की बनाना और उस पर बाजे बजाना हराम है। यह कमी मुस्लिम समाज की है, इस्लाम की नहीं है। उन्हें नहीं करना चाहिए यह सब।
एक साहब ने हज को फ़िज़ूलख़र्ची कह दिया। जिस ख़र्च से आदमी का विचार बदले, उसके चरित्र का विकास हो, वह ख़र्च फ़िजूलख़र्ची की श्रेणी में नहीं आता। संक्षेप में यही कहा जा सकता है। हज के ज़रिए मानव जाति को बांटने वाली दीवारें गिरती हैं और वे एक सच्चे रब के बन्दे बनकर एक समुदाय बनते हैं। समर्पणवादी शांतिकारियों का अन्तर्राष्ट्रीय रूहानी सम्मेलन है हज। इसके बारे में विस्तार से बताऊंगा एक पूरी किताब का अनुवाद करके। अनुवाद पूरा हो चुका है। बस पेश करना बाक़ी है।
मूर्तियां और आडम्बर हिन्दू-मुसलमानों को बांटकर भारत को कमज़ोर बना रहे हैं। इन्हें त्यागते ही दोनों एक हो जाएंगे और भारत सशक्त होते ही विश्व नेतृत्व पद पर विराजमान हो जाएगा जो कि मेरा सपना है। इसी सपने को साकार करने के लिए मैं आपको सहयोग के लिए आमंत्रित करता हूं।
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12 comments:
समाज न हिन्दू होता है और न मुस्लिम वह तो मानव समाज होता है। संस्कृति भी धर्म से भिन्न होती है। वह भारतीय हो सकती है हिन्दू औऱ मुस्लिम नहीं।
मुस्लिमानो का क्या होगा इसकी चिंता करो देखो तुमारे बच्चे आतंकवादी न बन जाये
कही आप की बेटी अनपद न रह जाये
कही कोई मुसलमान पाकिस्तानी आतंकवाद से न मिल जाये
पहले इसकी चिंता कर लो
करोडो वेर्सो से महँ संतो से पूजा हिन्दू समाज में कोई खतरा नही है
दिव्या बहन आप को उत्तर मिल गया की नही
ये सब मुस्लिम है ये न दुसरे धर्म की बुराई नही करेगे तो कौन करगा
आज पूरी दुनिया इसने तबाह है हजारो लाखो घर उजड़ गए
और ये हिन्दू समाज का दुःख देखने आये है
कुरान में ज्ञान
हा हा हा हा हा हा हा हहहहः
हो हो हो हो
बढ़िया जोक मारा है
इन फ़र्जी नामो से हिन्दुओ को जलील करना बंद करो
एसे फूहड़ कमेन्ट से श्रीफ हिन्दुओ से हिन्दू को लड़ने की ट्रिक बहुत पुरानी है
आये दिन मुस्लिम इमाम कोई न कोई फालतू बेवकूफी भरा फतवा जारी करते रहेते है उसकी चिंता करो
जरा ध्यान दीजिये कैसे कैसे फतवे
प्रसिद्ध इस्लामिक शिक्षण संस्था दारूल उलूम देववंद ने फतवा जारी कर कहा है कि मुसलमानों के लिए जयभीम बोलना शरीयत कानून में नाजायज है।
ईजीरिया में 86 बीवियों के शौहर मोहम्मद बेलो अबूबकर के खिलाफ इस्लामिक कानून के तहत फतवा जारी कर तीन दिन के भीतर सिर्फ चार बीवियां रखने और बाकी सबको तलाक देने या फिर खुद मौत की सजा भुगतने को तैयार रहने का फरमान सुनाया है।
देवबंद में जमीयत उलेमा-ए-हिंद के वार्षिक सम्मेलन के पहले दिन राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम के खिलाफ फतवा जारी
नया फतवा- बाबा रामदेव के शिविर में न जा�
शाही इमाम ने फतवा जारी किया है कि शोएब आयशा को अपनाएं या फतवा कबूल करें
इस्लामिक धर्मगुरूओं की अपील पर ईरान की सरकार ने महिलाओं के खिलाफ एक नया फरमान जारी किया है। जिसमें कहा गया है कि ईरान में कम कपड़े पहनकर घूमने वाली महिलाओं को अब गिरफ्तार किया जाएगा।
यदि कोई मुस्लिम लड़की या लड़का सगाई के बाद अपने मंगेतर से फोन पर भी बात करता है, तो वो इस्लाम की नज़र में पाप है। मुस्लिम संगठन दारूल उलूम देवबंद ने यह नया फतवा गुरुवार को जारी किया।
मुस्लिम समाज मेरे अपने लोगों का समाज है, मेरे भाइयो का समाज है, मेरा अपना समाज है। उन्हें संकट में घिरा देखकर मेरा दुखी होना स्वाभाविक है
bu bu bu
kya kru
ताज़ा पोस्ट का लुत्फ़ उठाते हुए जब मैंने कमेन्ट्स पर नज़र डाली तो मेरा मन ख़राब हो गया। किसी ने ‘सुनील‘ के नाम से दिव्या बहन जी के लिए बहुत फहश कर रखी थी। मैं उस की इस हरकत से इतना दुखी हुआ कि मैं उसके ब्लाग पर भी नहीं गया। लेकिन यह देखने के लिए दिव्या बहन के ब्लाग पर गया कि आखि़र यह बहन कौन हैं ? और कोई बदबख्त आखि़र उनसे खफ़ा क्यों है ?
मैं दिव्या जी से इल्तमास करूंगा कि इस तरह के तंज़ सिर्फ़ हौसला शिकनी के लिए किए जाते हैं। अपना हौसला टूटने मत देना। मैं आपके साथ हूं , हम आपके साथ हैं और ऐसे ही साथ नहीं हैं बल्कि अपने पूरे ‘साधनों‘ के साथ आपके मददगार हैं। आप खुश रहें। आप खुश रहेंगी तो आपके दुश्मन ज़रूर दुखी रहेंगे। खुदा आपको अपनी अमान में रखे , आमीन या रब्बल आलमीन ! http://sunehribaten.blogspot.com/2010/10/blog-post.html
aapne bhoot achha likha,,maza aa gaya
तुमने या तुमारे चमचो ने की है ये हरकत
ताकि आपस में ही नफरत बड़े
एक हिन्दू तो नही करगा
अच्छी पोस्ट
काफ़ी अच्छा लेख...
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"दहशतगर्द कौन और गिरफ्तारियां किन की, अब तो सोचो......! "
"कुरआन का हिन्दी अनुवाद (तर्जुमा) एम.पी.थ्री. में "
Simply Codes
Attitude | A Way To Success
तलाक़ का सही तरीक़ा क़ुरआन की सूरा ए तलाक़ में बता दिया गया है। एक साथ तीन तलाक़ देना क़ुरआन का तरीक़ा नहीं है। इस तरीक़े को पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद स. ने सख्त नापसंद फ़रमाया है और जो आदमी एक साथ तीन तलाक़ दिया करता था, इस्लामी ख़लीफ़ा इसे इस्लामी शरीअत के साथ खिलवाड़ मानते थे और इसे औरत का हक़ मारना समझते थे। ऐसे आदमी की पीठ पर कोड़े बरसाए जाते थे। लिहाज़ा इस्लामी ख़लीफ़ाओं के काल में तीन तलाक़ एक साथ देने की हिम्मत कोई न करता था। आज भी ऐसे लोगों की पीठ पर कोड़े बरसाए जाएं तो औरत के जज़्बात के साथ खिलवाड़ तुरंत रूक जाएगा।
औरत के जज़्बात का सबसे बड़ा रक्षक है क़ुरआन।
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