सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Sunday, August 26, 2012
जन्नत की हक़ीक़त और उसकी ज़रूरत पार्ट 1 Jannat
पैदाइश और मौत के बीच के वक्त का नाम ज़िंदगी है।
वैज्ञानिक अभी तक समझ नहीं पाए हैं कि इस ज़मीन पर ज़िंदगी वुजूद में कैसे आई और क्यों आई ?
इसके बावजूद ज़िंदगी मौजूद है और अपनी रफ़्तार से रवां-दवां है। हरेक औरत मर्द बचपन में ऐसे सपने देखता है जो जवानी में टूट जाते हैं और वे बुढ़ापे में निराश हो कर मर जाते हैं। किसी को जीवन साथी नहीं मिलता और किसी को औलाद नहीं मिलती। जिन्हें जीवन साथी और औलाद मिल जाती है तो उनमें से बहुतों को उनसे मुहब्बत और वफ़ा नहीं मिलती। दोस्त भी यहां ग़द्दार निकल जाते हैं और आशिक़ और महबूबाएं भी यहां एक दूसरे की जान ले लिया करते हैं।
मौत का बहाना कभी बीमारी और हादसे बनते हैं तो कभी दंगे और युद्ध। आदमी कभी अपनी ग़लती के सबब मारा जाता है और कभी वह बिना किसी ग़लती के ही महज़ दूसरों की नफ़रत की वजह से मार दिया जाता है। आज दुनिया में नफ़रत फैली हुई है और जंग की आग भड़क रही है और इसी के बीच लोग अपनी ज़िंदगी का वक्त पूरा कर रहे हैं।
दुनिया में न्याय नहीं है और कमज़ोर के लिए तो बिल्कुल भी नहीं है। दुनिया में शांति नहीं है और हरेक के लिए तो बिल्कुल भी नहीं है। दुनिया में हरेक को रोटी, कपड़ा और मकान मिलना चाहिए। सरकार और व्यवस्था इसीलिए बनाई जाती है लेकिन सरकार सबको रोटी, कपड़ा और मकान नहीं दे पाती। सरकार सबको सुरक्षा नहीं दे पाती। किसी किसी मुल्क में तो अपने नागरिकों की जान सरकार ही ले लेती है और उसकी सुनवाई दुनिया की किसी अदालत में नहीं होती। जिसका काम ज़ुल्म को रोकना था, अगर वही ज़ुल्म करे तो फिर उसे कौन रोक सकता है ?
जो सरकार जितनी ज़्यादा ताक़तवर होती है, वह उतनी ज़्यादा दूर तक जाकर मारती है। आज दुनिया में ताक़त का पैमाना यही है कि मारने वाले ने कितनी दूर जाकर कितने ज़्यादा लोगों को मारा है ?
जो सबसे ज़्यादा ताक़तवर सरकार होती है, वह विदेशों में भी जाकर मारती रहती है। इसके बावजूद वह अपना मक़सद शांति की स्थापना बताती है। सरकारें बात शांति की करती हैं लेकिन बनाती हैं तबाही के हथियार। ऐसे हथियार जो पल भर में ही दुनिया के किसी भी देश को मरघट में तब्दील कर दें। शांति तो मरघट में भी होती है।
क्या दुनिया जल्दी ही मरघट में तब्दील होने वाली है ?
सरकारों के बीच मची हुई विनाशकारी हथियारों की होड़ देखकर यह आशंका सिर उठाती है। हथियारों की ख़रीद फ़रोख्त आज मुनाफ़े का धंधा बन चुकी है। इसमें भारी मुनाफ़ा भी है और मोटा कमीशन भी। ख़रीदने और बेचने वालों के अलावा हथियारों के दलाल भी मुनाफ़े में रहते हैं। चंद लोगों के मुनाफ़े के लिए हज़ारों-लाखों लोगों को मरना पड़ता है।
हथियारों की बिक्री बढ़ाने के लिए डर पैदा किया जाता है। हथियारों के सौदागर किसी भी देश को कुछ हथियार गिफ़्ट कर देते हैं। उसका पड़ोसी देश डर जाता है। वह अपना डर दूर करने के लिए उससे बड़ा हथियार ख़रीद लेता है। उसका बड़ा हथियार देखकर पहले वाला देश और ज़्यादा बड़ा हथियार ख़रीद लेता है। जैसे जैसे इनके पास हथियार बढ़ते चले जाते हैं तो इनका डर कम होने के बजाय और ज़्यादा बढ़ता चला जाता है। सुरक्षा के नाम पर ख़रीदे गए ये हथियार नागरिकों को कभी सुरक्षा नहीं दे पाते बल्कि कभी कभी तो सरकारों के प्रमुख तक इन्हीं हथियारों के शिकार हो कर मर जाते हैं। मौत बहरहाल हरेक को आकर रहती है। दौलत, ओहदा और ताक़त, कोई चीज़ इंसान को मरने से नहीं बचा पाती।
आदमी जीना चाहता है लेकिन उसे इस दुनिया में मरना ही पड़ता है। मौत ज़िंदगी का सबसे बड़ा सच है।
आदमी पैदा होता है, वह सपने देखता है, उसके सपने चकनाचूर हो जाते हैं, वह समझौतों पर समझौते करके ज़िंदगी गुज़ारता है, वह अन्याय झेलता है, वह जब तक जीता है, अशांति में जीता है और फिर एक दिन अचानक वह मर जाता है।
यह इंसान की लाइफ़ सायकिल है। हमारी नज़र के सामने तो बस इतनी ही है।
क्या इंसान की ज़िंदगी का कुल हासिल यही है कि वह उम्मीद और उमंग लेकर पैदा हो और ज़ुल्म सहकर और निराश होकर मर जाए ?
इंसान के सपनों और उसके अरमानों का क्या होगा ?,
अगर इन्हें पूरा नहीं होना था तो इन्हें इंसान के अंदर होना भी नहीं चाहिए था और अगर ये इंसान के अंदर पाए जाते हैं और हरेक इंसान के अंदर पाए जाते हैं तो फिर इन्हें पूरा भी होना चाहिए।
इंसान के अंदर पानी की प्यास जागती है तो कहीं न कहीं पानी भी होता ही है, चाहे वह नज़र के सामने हो या फिर किसी दूसरी जगह।
इंसान के अंदर न्याय और शांति की प्यास है तो फिर इन्हें भी कहीं न कहीं मौजूद ज़रूर होना चाहिए और अगर ये हमारी नज़र के सामने मौजूद न हों तो फिर कहीं और ज़रूर इन्हें मौजूद होना चाहिए।
आदमी ऐसी ज़िंदगी जीना चाहता है जो मौत के साए से आज़ाद हो। उसकी यह चाहत इस लोक में पूरी होती दिखाई न दे तो इस लोक से परे कहीं और पूरी होनी चाहिए।
सारे हादसों और ग़मों के बीच भी इंसान के अंदर आशा का एक दीप सदा जलता रहता है। उसे अपने अंदर से यह तसल्ली बराबर मिलती रहती है कि हौसला रख, एक दिन सब ठीक हो जाएगा।
‘एक दिन सब ठीक हो जाएगा‘ की उम्मीद के सहारे ही इंसान जीता रहता है, यहां तक कि बिना सब कुछ ठीक देखे ही वह मर जाता है। अगर उसके लिए यहां सब कुछ ठीक नहीं हुआ तो फिर उसे मर कर ज़रूर ऐसी दुनिया में जाना चाहिए जहां सब कुछ ठीक हो।
इंसान का मिज़ाज बताता है कि यह दुनिया उसके लिए एक नामुकम्मल दुनिया है।
हक़ीक़त में इंसान को एक मुकम्मल दुनिया की ज़रूरत है। एक ऐसी दुनिया जहां इंसान को शांति और न्याय मिले। उसकी ज़रूरतों के साथ उसकी उसकी ख्वाहिशें और उसके अरमान भी पूरे हों। जहां वह अपने प्यारों के साथ हमेशा जिए और उसे कभी मौत न आए। इस दुनिया को हरेक भाषा में कोई न कोई नाम ज़रूर दिया गया। आज भी इसे जन्नत, स्वर्ग, बहिश्त और हैवेन के नाम से जाना जाता है।
क्या वास्तव में ऐसी दुनिया कहीं मौजूद है ?
इस का जवाब इस बात में पोशीदा है कि क्या हमारी नज़र हर चीज़ को देख सकती है ?
क्या हर जगह हमारी नज़र पहुंच चुकी है ?
हक़ीक़त यह है कि हमारी नज़र में जितनी चीज़ें आ सकती हैं, उससे बहुत बहुत ज़्यादा वे चीज़ें हैं जिन्हें देखने की ताक़त हमारी आंख में है ही नहीं। हम नज़र आ सकने वाली दुनिया की भी बहुत थोड़ी सी चीज़ों को ही देख पाए हैं। हमने कम देखा है और कम जाना है। जन्नत के इन्कार का कारण हमेशा यही बना है कि इंसान जन्नत को देख नहीं पाया। किसी चीज़ के इंकार की यह कोई ठोस वजह नहीं है कि जिसे देखा न जा सके, उसका इंकार कर दिया जाए। ख़ासकर तब जबकि वह इन्कार मानव जाति की सामूहिक प्राकृतिक इच्छा और ज़रूरत से टकराता हो।
अगर कुछ चीज़ें और कुछ जगहें हमारी नज़र की पकड़ से बाहर हैं तो फिर वहां कुछ भी हो सकता है। वहां वह मुकम्मल दुनिया भी हो सकती है जिसकी ज़रूरत हरेक इंसान को है। जिसे हरेक इंसान की फ़ितरत पहचानती है और जिसकी ख्वाहिश सबके मन में हमेशा से मौजूद है। जन्नत को पा लेने की ख्वाहिश इंसान के मन में इतनी ज़बर्दस्त है कि जो लोग जन्नत का इन्कार करते हैं, उनकी ज़िंदगी की सारी भागदौड़ का हासिल भी यही होता है कि वे इसी दुनिया अपने लिए जन्नत बना लेना चाहते हैं। वे आलीशान इमारतें और बाग़ बनाते हैं और उनमें अपने लिए ऐश के सब सामान जुटाते हैं। इस कोशिश में वे जायज़-नाजायज़ कुछ भी नहीं देखते। यहां तक कि वे दूसरों का हक़ हिस्सा हड़पने से भी नहीं चूकते। अपनी ज़िंदगी को जन्नत बनाने के लिए वे दूसरों का जीवन नर्क बना कर रख देते हैं। बच्चों और लड़कियों का अपहरण करके उनसे भीख मंगवाना, वेश्यावृत्ति करवाना, नौजवानों को ड्रग्स का आदी बना देना और मानव अंगों का व्यापार करने से लेकर नक़ली दवाएं बनाने और मिलावटी चीज़ें बेचने तक सैकड़ों तरह के जुर्म आज हमारे समाज में मौजूद हैं और इन्हें बड़े संगठित तरीक़े से दुनिया भर में अंजाम दिया जा रहा है। जिनके नतीजे में करोड़ों लोगों की ज़िंदगी नर्क बनकर रह गई है।
यह सब क्या है ?
यह जन्नत के इन्कार का नतीजा है। उन्होंने अपनी ख्वाहिशों को तो जाना लेकिन इन ख्वाहिशों को जन्नत में पूरा होना है, यह नहीं जाना। इसीलिए उन्होंने अपनी ख्वाहिशों की पूर्ति के मामले में जल्दबाज़ी से काम लिया और दूसरों के साथ अपने लिए भी मुसीबतें खड़ी कर लीं।
इससे पता चलता है कि जन्नत की तलब इंसान की फ़ितरत में, उसके स्वभाव में कितनी गहराई तक पैवस्त है और यह भी पता चलता है कि जन्नत की तलब के बावजूद उसका इंकार कर दिया जाए तो यह दुनिया ज़ुल्म से भर जाती है। जन्नत का इन्कार इंसानी सोसायटी को नर्क बनाकर रख देता है। यह कोई मज़हबी विश्वास मात्र नहीं है कि इसके इक़रार या इन्कार से किसी पर कोई फ़र्क़ न पड़ता हो।
अपनी ख्वाहिशों की पूर्ति के लिए ज़ुल्म करने से आदमी तभी बाज़ रह सकता है जबकि वह जन्नत को मान ले और यह भी मान ले कि जन्नत को दुनिया में पाना मुमकिन नहीं है।
जन्नत के इक़रार के साथ ही जहन्नम के वुजूद को भी मानना पड़ता है और अपने ज़ुल्म के नतीजे में आग में जलने की कल्पना कौन ज़ालिम करना चाहेगा ?
जहन्नम या नर्क का विश्वास रखते हुए ज़ुल्म ज़्यादती करना संभव नहीं है। इसीलिए ज़ालिम लोगों ने अपनी आज़ादी बरक़रार रखने के लिए जन्नत और जहन्नम के वुजूद का हमेशा इन्कार किया है। ये लोग समाज में ऊँची हैसियत रखते हैं। उनके ख़याल को कम हैसियत के लोग बिना सोचे-समझे ही अपना लेते हैं। बड़े लोगों के अनुसरण में लोग गर्व का अनुभव करते हैं। यही कल्चराइज़ेशन की प्रॉसेस है। लोग नहीं जानते कि ऐसा करके वे ज़ालिमों की जड़ों को मज़बूत कर रहे हैं।
एक तरफ़ तो समाज ज़ालिमों की जड़ों को मज़बूत करे और दूसरी तरफ़ वह ज़ुल्म के ख़ात्मे की आस भी उन्हीं से रखे, तो यह कैसे संभव है ?
इससे भी आगे बढ़कर समाज के लोग इन्हें अपना नेता चुन लेते हैं। वहां पहुंचकर ये जनता को भूल जाते हैं और अपनी दुनिया को जन्नत बनाने के लिए न सिर्फ़ जनता का माल हड़प कर जाते हैं बल्कि व्यापारियों से मिलकर चीज़ें भी महंगी कर देते हैं और जनता पर नए टैक्स और लगा देते हैं।
जन्नत का इन्कार करने वाले लाखों लोग गुज़रे हैं। ज़िंदगी भर वे अपनी दुनिया को जन्नत बनाने की कोशिश करते रहे लेकिन उनकी दुनिया जन्नत न बन सकी।
आखि़र दुनिया जन्नत क्यों न बन सकी ?
मेडिकल साइंस की तरक्क़ी के बावजूद मौत आज भी इंसान के सिर पर उसी तरह मुसल्लत है जैसे कि वह पहले हुआ करती थी। यह मौत इंसान से उसके प्यारों को जुदा कर देती है। अपने परिवार वालों, रिश्तेदारों और साथियों से जुदा होने का दुख इंसान के सुख को बर्बाद कर देता है।
इस क़ुदरती वजह के अलावा भी कई वजहें हैं जिनकी वजह से दुनिया जन्नत नहीं बन सकती। इनमें एक बड़ी वजह यह है कि दुनिया में ऐसे लोग भी पाए जाते हैं जो दूसरों का हक़ छीन लेते हैं और अगर उनकी मुख़ालिफ़त की जाती है तो वे ज़ालिम अपने मुख़ालिफ़ों को मार डालते हैं। लोगों को ज़ुल्म से रोकने के लिए सरकार बनाई गई तो ये ज़ालिम सरकार में भी पहुंच गए और फिर सरकारें भी ज़ुल्म करने लगीं। यह रिवाज इतना आम हुआ कि यह नियम ही बन गया -‘पॉवर मेक्स करप्ट‘। जिसके पास जितनी शक्ति है, वह उतना ही करप्शन करता है और कर भी रहा है।
आदमी ज़ुल्म और करप्शन करे तो उसे सरकार रोक सकती है लेकिन सरकार के ज़ुल्म और करप्शन को कौन रोक सकता है ?
ज़ुल्म और करप्शन करने वालों को जब तक रोका नहीं जाएगा तब तक यह दुनिया जन्नत नहीं बन सकती और ऐसा तब मुमकिन है जबकि ज़ालिम भ्रष्टाचारियों को पकड़ कर किसी अलग थलग जगह डाल दिया जाए, जहां वे अपने बुरे कामों की सज़ा भुगतते रहें। इस जगह को भी दुनिया वाले जहन्नम, नर्क, दोज़ख़ और हैल के नाम से जानते हैं।
दुनिया वालों को जन्नत तब नसीब होगी जबकि ज़ालिमों को जहन्नम नसीब हो। ज़ालिमों को छांटकर अच्छे लोगों से अलग करना बहुत ज़रूरी है और यह काम दुनिया में नहीं हो सका और न ही हो सकता है। इसीलिए यह दुनिया जन्नत नहीं बन सकी और न ही कभी बन सकती है।
इंसाफ़पसंद लोगों ने जब कभी ज़ालिमों को रोकना चाहा तो वे ख़ुद इनके ज़ुल्म का निशाना बन गए। ज़ालिमों के डर से या अपने किसी लालच की वजह से दुनिया में उनका साथ कम लोग ही दे पाए। आज ज़ालिम इतना ज़्यादा ताक़तवर है कि उसका ख़ात्मा करना और उसे उसके किए का बदला देना किसी इंसान के बस की बात नहीं है, जो कि इंसाफ़ का तक़ाज़ा है।
ज़ालिमों के वुजूद का ख़ात्मा एक सबसे बड़ी ज़रूरत है और यह ज़रूरत तब पूरी हो सकती है जब कोई एक ऐसी ताक़तवर हस्ती मौजूद हो जो दुनिया की सारी ताक़तों से बड़ी ताक़त हो और वह अपने स्वभाव से ही न्यायकारी हो।
क्या वाक़ई ऐसी कोई ताक़त यहां मौजूद है ?
इस संबंध में पहली बात तो यही कही जा सकती है कि अगर किसी चीज़ की ज़रूरत साबित है तो फिर उसका वुजूद भी लाज़िमी तौर से होता ही है। विज्ञान की जितनी खोजें हुई हैं, उनका आधार यही है। विज्ञान की ताज़ा बहुचर्चित खोज ‘हिग्स बोसॉन‘ की खोज भी इसी तरह हुई है कि पहले इंसान की अक्ल ने उसके वुजूद की ज़रूरत को माना और फिर जब उसकी खोज की गई तो पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों ने देखा कि ‘हिग्स बोसॉन‘ हक़ीक़त में मौजूद है। हिग्स बोसॉन को ‘गॉड पार्टिकल‘ का नाम भी दिया गया। जो बात गॉड पार्टिकल के बारे में सही है, वही बात ख़ुद गॉड के बारे में भी सही है, जो कि सब ताक़तों से ऊपर एक सबसे बड़ी ताक़त है।
दूसरी अहम बात यह है कि उस सबसे बड़ी ताक़त में आस्था हरेक इंसान के स्वभाव का हिस्सा है, जिसे वह लेकर पैदा होता है। यह आस्था उसके अंदर उसके माहौल की देन नहीं है। यह भी आज एक वैज्ञानिक तथ्य है।
इस संबंध में तीसरी चीज़ वह निरीक्षण है, जो हम अपनी रोज़ाना की ज़िंदगी में करते रहते हैं। अपनी पैदाइश और अपनी मौत दोनों में इंसान मजबूर है। उसने पैदा नहीं होना चाहा लेकिन उसे पैदा होना पड़ा। पैदा होने के बाद वह मरना नहीं चाहता लेकिन उसे न चाहते हुए भी मरना पड़ता है।
पैदा होने और मरने में इंसान की इच्छा को कोई दख़ल नहीं है लेकिन फिर भी इंसान के पैदा होने और उसके मरने की व्यवस्था मौजूद है। उसके पैदा होने से लेकर मरने तक के दरम्यान उसके पालन पोषण की व्यवस्था भी मौजूद है। उसके खाने-पीने और सोने की व्यवस्था मौजूद है। उसके बाक़ी रहने के लिए नस्ल चलाने की व्यवस्था मौजूद है। नस्ल के बाक़ी रहने की व्यवस्था उन जीवों में भी क़ायम है जो कि इंसान के काम आते हैं। ज़मीन पर यह व्यवस्था क़ायम रहे, इसके लिए आसमान की चीज़ों में भी एक व्यवस्था मौजूद मिलती है। चांद, सूरज से लेकर आकाशगंगाओं तक हर जगह व्यवस्था है और यह एक सुव्यवस्था है।
व्यवस्था कभी व्यवस्थापक के बिना नहीं होती और इतनी बड़ी व्यवस्था तो किसी व्यवस्थापक के बिना हरगिज़ नहीं हो सकती।
अगर अपने पैदा होने और मरने की व्यवस्था ख़ुद इंसान ने नहीं की है तो फिर किसने की है ?
किसी ने तो बहरहाल यह व्यवस्था ज़रूर की है। यह महान विस्मयकारी व्यवस्था अपने व्यवस्थापक का पता बख़ूबी दे रही है। दुनिया उसे ईश्वर-अल्लाह-गॉड के नाम से जानती है।
ज़्यादातर वैज्ञानिकों ने भी ईश्वर के अस्तित्व को माना है और अब तो वैज्ञानिकों ने यह भी बता दिया है कि यह धरती अपने अंत की ओर बढ़ रही है। इस तरह क़ियामत या प्रलय अब कोई धार्मिक विश्वास मात्र नहीं रह गया है बल्कि एक ऐसा वैज्ञानिक तथ्य बन चुका है। जिसका इन्कार अब संभव नहीं है।
कैसा अजीब है कि जो इंसान अपनी शुरूआत भी नहीं जान पाया है, उसके सामने उसका अंत आ खड़ा हुआ है।
ऐसा क्यों हुआ ?
इसलिए ताकि धरती के अंत के साथ ही ज़ुल्मो-सितम का भी अंत हो जाए और ज़ालिमों का भी। धर्म यही बताता है और अक्ल भी यही बताती है कि
‘हरेक अंत के बाद एक नई शुरूआत होती है।‘,
नई शुरूआत ही पुरानी समस्याओं को ख़त्म करती है। दुनिया के जन्नत न बन पाने में जितनी बाधाएं हैं, उन्हें भी नई शुरूआत ही ख़त्म करेगी।
क्या ज़ुल्म का यह सिलसिला हमेशा ऐसे ही चलता रहेगा या कभी ख़त्म होगा ?
यह सवाल जो हरेक इंसान के मन में उठता रहता है। उसका हल यही है। इसके अलावा ज़मीन व आसमान की व्यवस्था पर ध्यान दिया जाए तो भी यह सवाल हल हो जाता है।
क्या यह दुनिया अलल टप्प तरीक़े से ख़ुद ब ख़ुद चल रही है या इसमें कोई योजना और व्यवस्था काम कर रही है ?
ज़ाहिर है कि यह दुनिया अलल टप्प तरीक़े से नहीं चल रही है बल्कि एक व्यवस्थित तरीक़े से यहां सब काम हो रहे हैं। जब यहां हरेक काम एक व्यवस्थित तरीक़े से हो रहा है तो ज़ुल्म के ख़ात्मे की भी कोई न कोई व्यवस्था ज़रूर होगी।
‘जिस चीज़ का शुरू है, उसका आखि़र भी ज़रूर होता है।‘, यह एक नियम है। ज़ुल्म की भी एक शुरूआत है, इसलिए इसका अंत भी निश्चित है।
ज़ुल्म का ख़ात्मा करने के लिए जो सबसे बड़ी ताक़त हमें चाहिए, जिसे ईश्वर-अल्लाह-गॉड कहते हैं, वह भी मौजूद है और ज़ुल्म का ख़ात्मा भी निश्चित है तो फिर देर किस बात की है ?
ईश्वर-अल्लाह-गॉड ज़ालिमों को ख़त्म क्यों नहीं कर देता ?
वह उन्हें उखाड़ क्यों नहीं फेंकता ?
ये कुछ सवाल स्वाभाविक रूप से हमारे सामने आते हैं। ये सवाल जितने पुराने हैं, इनके जवाब भी उतने ही पुराने हैं। ईश्वर के मौजूद होने को जानने और ज़ुल्म के ख़ात्मे की कोशिश करने वालों ने इन सवालों का जवाब हमेशा दिया है। विषय के माहिर से सवाल किया जाए तो जवाब हमेशा सही मिलता है।
ईसा मसीह एक ऐसे ही महापुरूष थे, जो जानते थे कि जगत में ईश्वरीय व्यवस्था किस तरह काम कर रही है ?
उन्होंने यह ज्ञान सबको दिया है और इसीलिए ज़ालिमों ने उन्हें जो कष्ट दिए हैं, उन्हें सारी दुनिया जानती है। इस कठिन प्रश्न को उन्होंने एक मिसाल के ज़रिये हल किया है-
‘‘उसने उन्हें एक और दृष्टांत दिया कि स्वर्ग का राज्य उस मनुष्य के समान है जिसने अपने खेत में अच्छा बीज बोया। पर जब लोग सो रहे थे तो उसका बैरी आकर गेहूं के बीच जंगली बीज बोकर चला गया। जब अंकुर निकले और बालें लगीं तो जंगली दाने भी दिखाई दिए। इस पर गृहस्थ के दासों ने आकर उससे कहा, हे स्वामी, क्या तूने अपने खेत में अच्छा बीज न बोया था ? फिर जंगली दाने के पौधे उसमें कहां से आए ?
उसने उनसे कहा, यह किसी बैरी का काम है।
दासों ने उससे कहा, क्या तेरी इच्छा है कि हम जाकर उनको बटोर लें ?
उसने कहा, नहीं, ऐसा न हो कि जंगली दाने के पौधे बटोरते हुए उनके साथ गेहूं भी उखाड़ लो। कटनी तक दोनों को एक साथ बढ़ने दो, और कटनी के समय मैं काटनेवालों से कहूंगा; पहिले जंगली दाने के पौधे बटोर कर जलाने के लिए उनके गट्ठे बांध लो, और गेहूं को मेरे खत्ते में इकठ्ठा करो।‘‘ -मत्ती 20, 24-30
किसान खेती करता है तो इससे उसका मक़सद गेहूं की पैदावार होती है न कि खरपतवार की। समझदार किसान बहुत बार जंगली पौधों को पनपने देता है ताकि गेहूं के पौधों को कोई नुक्सान न पहुंचे। कटाई के समय गेहूं को अलग और जंगली पौधों को अलग कर लिया जाता है। ठीक ऐसे ही एक समय आएगा जब अच्छे लोगों को बुरे लोगों से अलग कर लिया जाएगा। अच्छे लोग हर तरह से सुरक्षित रहेंगे जबकि बुरे लोगों को जलना पड़ेगा।
ईश्वर ने यह दुनिया इसीलिए बनाई है कि दुनिया में अच्छे लोग पैदा हों। अच्छे लोगों की वजह से ही बुरे लोगों को ढील दे दी जाती है। ईश्वर अल्लाह दयालु है। बुरे लोग अच्छे लोगों के संपर्क में आते हैं और इस तरह दोनों को अच्छे कर्म करने का मौक़ा दिया जाता है। अच्छे लोग बुरे लोगों को नेकी की नसीहत करके भलाई की राह दिखाते हैं। ऐसा करने से हमेशा कुछ लोग अपना रास्ता बदल देते हैं। इस तरह ये लोग हमेशा की आग में जलने से बच जाते हैं। लोगों को हमेशा नर्क की आग में जलने से बचा लेना एक बहुत अच्छा कर्म है। कुछ लोग नहीं भी मानते और कुछ लोग नेक नसीहत करने वालों के साथ ज़ुल्म ज़्यादती भी करते हैं। इन हालात में अच्छे लोग उनके बर्ताव पर सब्र करते हैं, उन्हें ख़ुद भी माफ़ कर देते हैं और उनके लिए ख़ुदा से भी यही दुआ करते हैं कि वह उन्हें सद्-बुद्धि दे। बुरे लोग जब भी अच्छे लोगों के संपर्क में आते हैं तो अच्छे लोगों के चरित्र में हमेशा निखार पैदा होता है और उनका दर्जा बुलंद होता है।
यह भी एक हक़ीक़त है कि बहुत से बुरे लोगों की नस्ल में अच्छे लोग भी पैदा हुए हैं। दुनिया में बुरे लोगों को बाक़ी रखने की एक वजह यह भी होती है और ऐसा भी होता है कि जब एक ज़ालिम को काफ़ी अर्सा हुकूमत करते हुए हो जाता है और लोग उसके ज़ुल्म से परेशान हो जाते हैं और अच्छे लोग कोशिश के बावजूद उसे उखाड़ नहीं पाते तो उसे एक दूसरा बुरा आदमी उखाड़ डालता है। बुरे और ज़ालिम लोग भी बिल्कुल बेकार नहीं हैं। वे न होते तो अच्छे लोगों में दया, क्षमा, धैर्य, त्याग और बलिदान के बहुत से गुणों का ठीक से विकास ही न हो पाता। अच्छे लोगों के साथ अच्छाई करना आसान है लेकिन बुरे लोगों के साथ अच्छा बर्ताव करना हरेक के बस की बात नहीं है।
इतिहास में बहुत से अच्छे लोग हुए हैं, जिन्हें आज हम महापुरूष मानते हैं। उनकी बड़ाई का पैमाना आज हमारे पास यही है कि जिस महापुरूष ने जितने बड़े ज़ालिम का सामना किया है, वह उतना ही बड़ा महापुरूष माना जाता है और बड़ा ज़ालिम कौन है ?, यह जानने का भी हमारे पास यही तरीक़ा है कि जिसने जितने अच्छे आदमी पर ज़ुल्म किया, वह उतना ही बड़ा ज़ालिम माना गया।
इस प्रॉसेस में अच्छे लोगों को बहुत सा नुक्सान भी उठाना पड़ता है। यह सही है लेकिन ज़िंदगी इसी का नाम है। हम जानते हैं कि हमारी गाड़ी हमारे गैराज में महफ़ूज़ रहेगी। इसके बावजूद भी हम उसे सड़क पर दौड़ाते हैं क्योंकि वह सड़क पर चलने के लिए ही बनाई गई है। एक गाड़ी का परीक्षण और उसकी योग्यता का उपयोग सड़क पर चलाए बिना संभव नहीं है।
बुरा आदमी अच्छे आदमी की आज़माइश का सामान है और अच्छा आदमी बुरे आदमी की। दुनिया में दोनों का परीक्षण किया जा रहा है और इस ज़िंदगी का मक़सद यही है। क़ुरआन (67-1 व 2) यही बताता है-
‘बड़ा बरकत वाला है वह जिसके हाथ में सारी बादशाही है और वह हर चीज़ की सामर्थ्य रखता है। जिसने पैदा किया मौत और ज़िंदगी को, ताकि तुम्हारी परीक्षा करे कि तुम में कर्म की दृष्टि से कौन सबसे अच्छा है। वह प्रभुत्वशाली, बड़ा क्षमाशील है।‘
‘यह जीवन एक परीक्षा है।‘
यह बात हमारी समझ में आ जाए तो हमारे बहुत से सवाल हल हो जाते हैं और तभी हम परीक्षा में सफल होने के लिए जी जान से जुट सकेंगे। जो लोग इस तथ्य पर ध्यान नहीं देते वे कन्फ़्यूज़न और इन्कार में ही ज़िंदगी गुज़ार कर चले जाते हैं। इसका नतीजा परलोक में क्या निकलेगा ?, इसे क़ुरआन सूरा 82 में आज भी देखा जा सकता है-
‘जबकि आसमान फट जाएगा, और जबकि समुद्र बह पड़ेंगे, और जबकि क़ब्रें उखाड़ दी जाएंगी। तब हर व्यक्ति जान लेगा जिसे उसने प्राथमिकता दी और पीछे डाला।
हे मनुष्य ! किस चीज़ ने तुझे अपने उदार प्रभु के विषय में धोखे में डाल रखा है ?
जिसने तेरा प्रारूप बनाया, फिर नख शिख से तुझे दुरूस्त किया और तुझे संतुलन प्रदान किया। जिस रूप में चाहा उसने तुझे जोड़कर तैयार किया।
कुछ नहीं, बल्कि तुम बदला दिए जाने को झुठलाते हो। जबकि तुम पर निगरानी करने वाले नियुक्त हैं, प्रतिष्ठित लिपिक, वे जान रहे होते हैं जो कुछ भी तुम करते हो।
निस्संदेह वफ़ादार लोग नेमतों में होंगे। और निश्चय ही दुराचारी भड़कती हुई आग में, जिसमें वे बदले के दिन प्रवेश करेंगे, और उसमें वे ओझल नहीं होंगे।
और तुम्हें क्या मालूम कि बदले का दिन क्या है ? फिर तुम्हें क्या मालूम कि बदले का दिन क्या है ?
जिस दिन कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के लिए किसी चीज़ का अधिकारी न होगा, मामला उस दिन अल्लाह ही के हाथ में होगा।‘
--------
‘हालांकि आखि़रत (परलोक) अधिक उत्तम और शेष रहने वाली है। निस्संदेह यही बात पहले की किताबों में भी है, इबराहीम और मूसा की किताबों में।‘ -क़ुरआन 87, 17-19
क़ुरआन का दावा है कि जन्नत और जहन्नम एक हक़ीक़त है और यह हक़ीक़त पहले की किताबों में भी मौजूद है। हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की किताब बाइबिल में आज भी मौजूद है और उसमें हैवेन और हैल का ज़िक्र मिलता है। हज़रत इबराहीम अ. की किताब लुप्त बताई जाती है। हो सकता है कि किसी समय में उनकी किताब भी हमारे सामने आ जाए। बाइबिल में उनकी जो शिक्षाएं सुरक्षित हैं, उनमें परलोक का बयान मिलता है।
हज़रत इबराहीम अ. आज से लगभग 4 हज़ार साल पहले इराक़ के ‘उर‘ नगर में पैदा हुए थे। जिसका वर्णन वेदों में भी मिलता है। वेदों का ज्ञान ब्रह्मा जी ने दिया है, ऐसा माना जाता है। कुछ स्कॉलर्स के अनुसार वेदों की रचना का काल भी यही है। वेदों में भी जन्नत और जहन्नम का बयान स्वर्ग-नर्क के नाम से मिलता है।
वेद में स्वर्ग
अनस्या पूतं पवनेन शृद्धा शुचयः शुचिमपि यन्ति लोकम्।
नेषां शिश्न प्र दहति जातवेदाः स्वर्ग लोके वहू स्त्रैणमेषाम्।।
जो शरीर हड्डी से युक्त षट्कोण वाला नहीं है, वे सब यज्ञ के कर्त्ता वायु द्वारा पवित्र हुए उज्जवल लोक में जाते हैं। इसके भोग साधन इन्द्रिय को अग्नि भस्म नहीं करते। वहां पुण्य फल के भोग रूप अनेक भोगों का समूह इन्हें प्राप्त होता है।
-अथर्ववेद 4, 34, 2
घृह्रदा मधुकुलाः सुरोदका क्षीरेण पूर्णा उदकेन दध्ना।
ईतास्त्वा धारा उपयन्तु सर्वा स्वर्गलोके मधुमत् पिन्चमाना।
उप त्व तिष्ठन्तु पुष्करिणी समन्ताः।6
हे सर्व यज्ञकर्त्ता ! घृतयुक्त सरोवर वाली, मधु से भरी किनारे वाली दुग्ध, दही और जल से पूर्ण धाराएं मधुमय पदार्थों को पुष्ट करती हुई, तुझे स्वर्ग लोक में प्राप्त हों।
-अथर्ववेद 4, 34, 6
स्वर्गा लोका अमृतेन विष्ठा
स्वर्ग लोक अमरता से व्याप्त है अर्थात् वे मरणरहित हैं।
-अथर्ववेद 18,4,4
वेद में नर्क
पापासः सन्तो अनृता असत्या इदं पदमजनता गभीरम्।
जो पापी और बुरे कर्म करने वाले हैं, उनके लिए यह अथाह गहराई वाला स्थान बना है।
-ऋग्वेद 4,5,5
अथहुर्नारकं लोकं निरून्धानस्य याचिताम्
याचना करने पर न देने वालों का नरक लोक है। - अथर्ववेद 12,4,36
बौद्धिक और शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर जन्नत का वुजूद साबित है। जन्नत हमारी ख्वाहिश है क्योंकि वही हमारी ख्वाहिशों के पूरी होने की जगह है। जन्नत में हम अपने प्रभु परमेश्वर से रू ब रू मुलाक़ात कर पाएंगे। जो कि हमारी सबसे बड़ी ख्वाहिश है।
जन्नत के इन्कार करने का मतलब यह नहीं है कि जन्नत नहीं है बल्कि इसका मतलब केवल यह है कि इन्कार करने वाला या तो अपनी ख्वाहिशों को पहचानने में भी अक्षम है या फिर वह अपने जीवन के विषय में गंभीर नहीं है। बिना तर्क और बिना प्रमाण के जन्नत के बारे में जो ऊल जलूल बातें वे करते हैं, उन्हें देखकर भी इसी धारणा की पुष्टि होती है।
.......जारी
Labels:
'DR. ANWER JAMAL',
'ब्रह्मा',
'वेद में नर्क',
'वेद में स्वर्ग'
Tuesday, August 21, 2012
जब आरएसएस के पूर्व प्रमुख के. सी. सुदर्शन जी ईद की नमाज़ अदा करने के लिए चल दिए मस्जिद की ओर Tajul Masajid
ताजुल मसाजिद भोपाल |
सुबह क़रीब 8 बजे के. सी. सुदर्शन जी ने अरेरा कॉलोनी स्थित संघ के कार्यालय समिधा से अपने सुरक्षा दस्ते को ताजुल मसाजिद चलने को कहा। रवाना होते ही जैसे ही सुदर्शन जी ने कहा कि वे नमाज़ पढ़ेंगे तो सुरक्षाकर्मियों ने इसकी ख़बर ट्रैफ़िक पुलिस को दी और पुलिस के आला अफ़सरों ने सुदर्शन जी को रोकने की क़वायद शुरू कर दी। उनके क़ाफ़िले को बीच रास्ते रूकवा लिया गया लेकिन सुदर्शन जी मानने को तैयार नहीं थे। सुदर्शन जी का तर्क था कि ईश्वर की इबादत से कौन सा मज़हब रोकता है ?
पुलिस अधीक्षक अरविन्द सक्सेना ने नगरीय प्रशासन एवं विकास मंत्री बाबूलाल गौर को पूरे घटनाक्रम की जानकारी दी और आकर उन्हें समझाने को कहा।
बाबूलाल गौर जी ने पहुंच कर सुदर्शन जी से बातचीत की और उन्हें लेकर लौट गए। इसके बाद सुदर्शन जी ने जाकर शहर क़ाज़ी और कुछ अन्य मित्रों के घर जाकर ईद की मुबारकबाद दी।
दैनिक जागरण, मेरठ संस्करण 21 अगस्त 2012 में द्वितीय पृष्ठ पर प्रकाशित समाचार के आधार पर
के. सी. सुदर्शन जी का नमाज़ के लिए आरएसएस कार्यालय से निकलना एक अच्छी ख़बर है। ऐसी ख़बरें राम रहीम के बंदों के एक होने की आशा को बल देती हैं। के. सी. सुदर्शन जी अकेले थे, सो उन्हें जैसे तैसे रोक दिया गया लेकिन आने वाले समय में पालनहार ईश्वर के भक्तों को उसके सामने साष्टांग/सज्दा करने से रोक पाना संभव न रहेगा क्योंकि तब वे बहुत होंगे।
पुलिस अधीक्षक अरविन्द सक्सेना ने नगरीय प्रशासन एवं विकास मंत्री बाबूलाल गौर को पूरे घटनाक्रम की जानकारी दी और आकर उन्हें समझाने को कहा।
बाबूलाल गौर जी ने पहुंच कर सुदर्शन जी से बातचीत की और उन्हें लेकर लौट गए। इसके बाद सुदर्शन जी ने जाकर शहर क़ाज़ी और कुछ अन्य मित्रों के घर जाकर ईद की मुबारकबाद दी।
दैनिक जागरण, मेरठ संस्करण 21 अगस्त 2012 में द्वितीय पृष्ठ पर प्रकाशित समाचार के आधार पर
के. सी. सुदर्शन जी का नमाज़ के लिए आरएसएस कार्यालय से निकलना एक अच्छी ख़बर है। ऐसी ख़बरें राम रहीम के बंदों के एक होने की आशा को बल देती हैं। के. सी. सुदर्शन जी अकेले थे, सो उन्हें जैसे तैसे रोक दिया गया लेकिन आने वाले समय में पालनहार ईश्वर के भक्तों को उसके सामने साष्टांग/सज्दा करने से रोक पाना संभव न रहेगा क्योंकि तब वे बहुत होंगे।
Thursday, August 16, 2012
एक दान-पर्व है ईद-उल-फितर Eid 2012
खुशियां बांटने का त्यौहार
ईद-उल-फितर इस्लाम धर्म के अनुयायियों का प्रमुख पर्व है। ईद-उल-फितर अरबी भाषा का शब्द है। ईद का तात्पर्य है खुशी। फितर का अभिप्राय है दान। इस प्रकार ईद-उल-फितर ऎसा दान-पर्व है, जिसमें खुशी बांटी जाती है तथा जो आर्थिक दृष्टि से इतने कमजोर हैं कि जिन्हें रोटी-रोजी के भी लाले पड़े रहते हैं और खुशी जिनके लिए ख्वाब की तरह होती है, तो ऎसे वास्तविक जरूरतमंद लोगों को फितरा (दान) देकर उनके ख्वाब को हकीकत में बदला जाता है और वे भी खुशी मनाने के काबिल हो जाते हैं। फितरा अदा करने के शरीअत (इस्लामी धर्म-संहिता) के अनुसार निर्धारित मापदंड है।
फितरा एक निश्चित वजन में अनाज (मुख्यत: गेहूं) के रूप में होता है अथवा उस अनाज की तत्कालीन कीमत के रूप में धन-राशि में। हर साहिबे-खैर (साधन-सम्पन्न) और साहिबे-जर (धन संपन्न) मुसलमान को फितरा अदा करना जरूरी है। यहां तक कि ईद-उल-फितर की नमाज के लिए जाने से पहले भी किसी औलाद का जन्म हो जाए, तो उस नवजात संतति का भी फितरा (निर्धारित मात्रा में अनाज अथवा उतनी कीमत के रूप में धनराशि) अदा करना होता है। हर सामथ्र्यवान मुसलमान का फर्ज है कि ईद-उल-फितर की नमाज के पहले फितरा अदा कर दे। फितरा अदा करने के पीछे जो आधार है, उसकी जड़ में जज्बा-ए-इंसानियत अर्थात् मानवता की भावना है।
ईद का मतलब चूंकि खुशी होता है और खुशी की सार्थकता तब ही है, जब इसमें भूखे को भोजन, प्यासे को पानी और निर्वस्त्र को वस्त्र मिल जाएं। धन-संपन्न के पास तो इतने साधन होते हैं कि वह सुविधाएं जुटा लेता है और खुशियों का पूरा बाजार ही अपने घर ले आता है, लेकिन निर्धन और निस्सहाय के लिए तो दो वक्त की रोटी नसीब होना ही मुश्किल होता है। नौकरी, आकाश-कुसुम (गुल-ए-फलक) हो गई है और मेहनतकशों के लिए मजदूरी का काम भी रेगिस्तान में पानी की तलाश की तरह हो गया है। ऎसे अभावग्रस्त लोगों के लिए रोटी, कपड़ा मुहैया कराने के लिए फितरा अर्थात दान की मानवीय व्यवस्था है। ताकि ईद की प्रासंगिकता सिद्ध हो सके।
इस प्रकार ईद-उल-फितर खुशियों में शिरकत का त्योहार है। एक वाक्य में कहें, तो पवित्र रमजान माह की विदाई के बाद आने वाला त्योहार ईद-उल-फितर इंसानियत और बंधुत्व का बैंक है, जिसमें खुशियों के खातेदार और आनंद अंशधारक होते हैं। रूपक अलंकार या उपमा के धरातल पर कहें तो ईद-उल-फितर सदाशयता और सद्भावना की क्रियाशील "कंपनी" है, जिसमें प्रेम की पूंजी तथा शफक्कत (अपनत्व) के "शेयर" होते हैं। सारांश यह है कि ईद-उल-फितर में सौहार्द और सहयोग ही शेयर-होल्डर्स होते हैं, जो खुशियों की खनक के रूप में बंधुत्व का बोनस बांटते रहते हैं। वैसे भी सनातन सत्य तो यही है कि हम सभी परस्पर प्रेम और सद्भाव से रहें और मिलजुलकर तथा नेक कमाई से प्राप्त रोटी को आपस में बांटकर खाएं। ईद-उल-फितर रोटी को बांटकर खाने के साथ खुशियों में शिरकत तथा दु:ख-दर्द में साझेदारी का पैगाम देती है।
पावन ऋग्वेद के दसवें मण्डल के एक सौ सत्रहवें सूक्त के छठे मंत्र में भी उल्लेख है "केवलाघो भवति केवलादी" अर्थात् जो अपनी रोटी अकेले खाता है, वह पाप करता है, अर्थात् रोटी बांटकर खाओ। इस प्रकार ईद-उल-फितर में निहित पवित्र कुरआन के संदेश और ऋग्वेद के मंत्र में बड़ी समानता है।
अजहर हाशमी
प्राध्यापक व साहित्यकार
ईद-उल-फितर इस्लाम धर्म के अनुयायियों का प्रमुख पर्व है। ईद-उल-फितर अरबी भाषा का शब्द है। ईद का तात्पर्य है खुशी। फितर का अभिप्राय है दान। इस प्रकार ईद-उल-फितर ऎसा दान-पर्व है, जिसमें खुशी बांटी जाती है तथा जो आर्थिक दृष्टि से इतने कमजोर हैं कि जिन्हें रोटी-रोजी के भी लाले पड़े रहते हैं और खुशी जिनके लिए ख्वाब की तरह होती है, तो ऎसे वास्तविक जरूरतमंद लोगों को फितरा (दान) देकर उनके ख्वाब को हकीकत में बदला जाता है और वे भी खुशी मनाने के काबिल हो जाते हैं। फितरा अदा करने के शरीअत (इस्लामी धर्म-संहिता) के अनुसार निर्धारित मापदंड है।
फितरा एक निश्चित वजन में अनाज (मुख्यत: गेहूं) के रूप में होता है अथवा उस अनाज की तत्कालीन कीमत के रूप में धन-राशि में। हर साहिबे-खैर (साधन-सम्पन्न) और साहिबे-जर (धन संपन्न) मुसलमान को फितरा अदा करना जरूरी है। यहां तक कि ईद-उल-फितर की नमाज के लिए जाने से पहले भी किसी औलाद का जन्म हो जाए, तो उस नवजात संतति का भी फितरा (निर्धारित मात्रा में अनाज अथवा उतनी कीमत के रूप में धनराशि) अदा करना होता है। हर सामथ्र्यवान मुसलमान का फर्ज है कि ईद-उल-फितर की नमाज के पहले फितरा अदा कर दे। फितरा अदा करने के पीछे जो आधार है, उसकी जड़ में जज्बा-ए-इंसानियत अर्थात् मानवता की भावना है।
ईद का मतलब चूंकि खुशी होता है और खुशी की सार्थकता तब ही है, जब इसमें भूखे को भोजन, प्यासे को पानी और निर्वस्त्र को वस्त्र मिल जाएं। धन-संपन्न के पास तो इतने साधन होते हैं कि वह सुविधाएं जुटा लेता है और खुशियों का पूरा बाजार ही अपने घर ले आता है, लेकिन निर्धन और निस्सहाय के लिए तो दो वक्त की रोटी नसीब होना ही मुश्किल होता है। नौकरी, आकाश-कुसुम (गुल-ए-फलक) हो गई है और मेहनतकशों के लिए मजदूरी का काम भी रेगिस्तान में पानी की तलाश की तरह हो गया है। ऎसे अभावग्रस्त लोगों के लिए रोटी, कपड़ा मुहैया कराने के लिए फितरा अर्थात दान की मानवीय व्यवस्था है। ताकि ईद की प्रासंगिकता सिद्ध हो सके।
इस प्रकार ईद-उल-फितर खुशियों में शिरकत का त्योहार है। एक वाक्य में कहें, तो पवित्र रमजान माह की विदाई के बाद आने वाला त्योहार ईद-उल-फितर इंसानियत और बंधुत्व का बैंक है, जिसमें खुशियों के खातेदार और आनंद अंशधारक होते हैं। रूपक अलंकार या उपमा के धरातल पर कहें तो ईद-उल-फितर सदाशयता और सद्भावना की क्रियाशील "कंपनी" है, जिसमें प्रेम की पूंजी तथा शफक्कत (अपनत्व) के "शेयर" होते हैं। सारांश यह है कि ईद-उल-फितर में सौहार्द और सहयोग ही शेयर-होल्डर्स होते हैं, जो खुशियों की खनक के रूप में बंधुत्व का बोनस बांटते रहते हैं। वैसे भी सनातन सत्य तो यही है कि हम सभी परस्पर प्रेम और सद्भाव से रहें और मिलजुलकर तथा नेक कमाई से प्राप्त रोटी को आपस में बांटकर खाएं। ईद-उल-फितर रोटी को बांटकर खाने के साथ खुशियों में शिरकत तथा दु:ख-दर्द में साझेदारी का पैगाम देती है।
पावन ऋग्वेद के दसवें मण्डल के एक सौ सत्रहवें सूक्त के छठे मंत्र में भी उल्लेख है "केवलाघो भवति केवलादी" अर्थात् जो अपनी रोटी अकेले खाता है, वह पाप करता है, अर्थात् रोटी बांटकर खाओ। इस प्रकार ईद-उल-फितर में निहित पवित्र कुरआन के संदेश और ऋग्वेद के मंत्र में बड़ी समानता है।
अजहर हाशमी
प्राध्यापक व साहित्यकार
Source : http://www.patrika.com/article.aspx?id=20511
Monday, August 13, 2012
पवित्रता : जीवन का मूल उददेश्य
मनुष्य के आचरण पर उसके विचारों का सीधा प्रभाव पड़ता है। इसलिए मनुष्य को लगातार अपने विचारों का विश्लेषण करते रहना चाहिए कि उसके मन में किस तरह के विचार मौजूद हैं ?
मन में ज़्यादा समय से जमे हुए विचार गहरी जड़े जमा लेते हैं, उनसे मुक्ति पाना आसान नहीं होता।
ईश्वर और महापुरूषों के बारे में हमारे जो विचार होते हैं, वे भी हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव डालते हैं। किसी बात को ईश्वर का आदेश या किसी बात को महापुरूष का कर्म मानते हुए यह ज़रूर चेक कर लें कि कहीं वह ‘पवित्रता‘ के विपरीत तो नहीं है ?
ईश्वर पवित्र है और महापुरूषों का आचरण भी पवित्र होता है। जो बात पवित्रता के विरूद्ध होगी, वह ईश्वर के स्वरूप और महापुरूष के आचरण विपरीत भी होगी, यह स्वाभाविक है। इस बात को जानना निहायत ज़रूरी है।
ऐसा करने के बाद चोरी, जारी और अन्याय की वे सभी बातें ग़लत सिद्ध हो जाती हैं, जिन्हें अपने स्वार्थ पूरा करने के लिए ग़लत तत्वों ने धर्मग्रन्थों में लिख दिया है।
जो ग़लत काम महापुरूषों ने कभी किए ही नहीं हैं, उन्हें उनके लिए दोष देना ठीक नहीं है। उन कामों का अनुसरण करना भी ठीक नहीं है।
सही बात को सही कहना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है ग़लत बात को ग़लत कहना। ऐसा करने के बाद ही हम ग़लत बात के प्रभाव से बच सकते हैं।
हम ईश्वर और महापुरूषों के बारे में पवित्र विचार रखेंगे तो हमारा आचरण भी पवित्र हो जाएगा।
यदि हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में चोरी, झूठ, अन्याय और भ्रष्टाचार मौजूद है तो हम सब को अपने अपने विचारों पर नज़र डाल कर देखनी चाहिए कि ईश्वर और महापुरूषों के बारे में हमारी मान्यताएं क्या हैं ?
यह जीवन तो फिर भी किसी न किसी तरह कट जाएगा लेकिन अगर इसी अपवित्रता की दशा में हमारी मौत हो जाती है तो हम पवित्र लोक के दिव्य जीवन में प्रवेश न कर सकेंगे, जिसके बारे में हरेक महापुरूष ने बताया है और जिसे पाना इस जीवन के कर्म का मूल उददेश्य है।
Subscribe to:
Posts (Atom)