सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Tuesday, February 28, 2012
गायत्री मंत्र रहस्य भाग 2 The mystery of Gayatri Mantra 2
इस लेख का पिछला भाग यहां पढ़ें-
गायत्री मंत्र के आलोचकों का नज़रिया
गायत्री मंत्र के आलोचकों ने जब इसके अनुवादों पर नज़र डाली तो उन्होंने कहा कि -
‘गायत्री मंत्र के स्तवन में जितना समय और श्रम लगाया जाता है, उस का सहस्रांश भी यदि मंत्र की ग़लतियों की ओर ध्यान देने में लगाया जाता तो इस पर बड़ा उपकार होता।
यह मंत्र न केवल छंदगत अशुद्धियों से युक्त है, अपितु संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से भी पूरी तरह अशुद्ध है। गायत्री मंत्र का प्रचलित रूप व्याकरण की दृष्टि से इसलिए अशुद्ध है। मंत्र के शुरू का ‘तत्‘ शब्द नपुंसक लिंग में है और तीसरे पाद का समवर्ती ‘यो‘ पुल्लिंग में है। ‘तत्‘ और ‘यो‘ परस्पर संबद्ध हैं, लेकिन लिंगगत असंगति के कारण इन का परस्पर अन्वय नहीं हो सकता। वाक्यारंभ में नपुंसक लिंग है। अतः या तो उसी के अनुसार ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद् हो या प्रारंभ में नपुंसक ‘तत्‘ को ‘सवितः‘ का विशेषण बनाया जाए अन्यथा गायत्री मंत्र व्याकरणिक अशुद्धियों की गुत्थी मात्र बना रहेगा।‘
इन विद्वानों ने इस समस्या का हल सुझाते हुए कहा है कि -
‘‘व्याकरण के नियमानुसार आदि के ‘तत्‘ को ‘सवितुः‘ का विशेषण बना कर इसे ‘तस्य‘ के रूप में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में ‘यो‘ को ‘भर्ग‘ के साथ अन्वित करना होगा। तब सही मंत्र ऐसे बनेगा- ‘तस्य सवितुः वरेण्यम्, भर्ग देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‘
मंत्रार्थदीपिका ग्रंथ के लेखक शत्रुघ्न ने ऐसा ही पाठ सही माना है (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 13), यह पाठ व्याकरण और छंदशास्त्र की दृष्टि से पूर्णतः शुद्ध है। इस में ‘वरेण्यं‘ को तोड़ मरोड़ कर शुद्ध गायत्री छंद बनाने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि ‘तत्‘ का ‘तस्य‘ हो जाने से प्रथम पाद में सात के स्थान पर आठ वर्ण हो जाते हैं। इस तरह स्वतः ही शुद्ध गायत्री छंद के अनुरूप 24 वर्ण बन जाते हैं।
एक अन्य प्राचीन ग्रंथकार हलायुध ने अपनी कृति ‘ब्राह्मण सर्वस्व‘ में याज्ञवल्क्य को उद्धृत करते हुए लिखा है कि गायत्री मंत्र के शुरू में स्थित शब्द ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ होना चाहिए, क्योंकि ‘तत्‘ का मंत्र के किसी भी शब्द के साथ अन्वय नहीं होता। यदि ‘तत्‘ का ‘तम्‘ कर दिया जाए तो उस का अन्वय भर्ग के साथ हो जाएगा। हलायुद्ध के अनुसार यह पाठ ठीक है- ‘तं सवितुर्वरेण्यम भर्गं देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्.‘ (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 12)‘‘
लेकिन इस समाधान पर भी यह आपत्ति आती है कि-
‘‘इस शुद्ध रूप में भी पूर्वोद्धृत शत्रुघ्नसम्मत पाठ के समान ही दो शब्दों को शुद्ध करना पड़ता है। ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ और ‘भर्गो‘ के स्थान पर ‘भर्ग‘, लेकिन इसके बावजूद छंद निचृद् गायत्री (अपूर्ण) ही रह जाता है।
डा. विश्वबंधु ने उपरलिखित दोनों वैकल्पिक शुद्ध रूपों के अतिरिक्त एक अन्य रूप उपस्थित किया है। उन्होंने ‘तत्‘ को यथावत् रहने दे कर ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद्‘ रखा है। इस संशोधन से शुद्धमंत्र यह रूप धारण करता है ‘तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो यन्नः (यद् नः) प्रचोदयात्. (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 14-15). डा. विश्वबंधु सम्मत पाठ स्वीकारने पर मूल मंत्र में एक ही शब्द शुद्ध करना पड़ता है लेकिन छंद फिर भी निचृद गायत्री ही रह जाता है।‘‘
गायत्री मंत्र की यह समीक्षा करने के बाद आलोचक महोदय कहते हैं कि -
‘इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रचलित गायत्री मंत्र न केवल छंद शास्त्र की दृष्टि से लंगड़ा और दोग़ला है, अपितु व्याकरण की दृष्टि से भी अशुद्ध है। यदि वेद ईश्वर की रचना है, यदि गायत्री मंत्र को ईश्वर ने बनाया है तो यह निरक्षर भट्टाचार्य और वज्रमूर्ख साबित होता है। साधारण संस्कृत जानने वाला भी ऐसी ग़लतियां नहीं कर सकता जैसी ईश्वर कही जाने वाली काल्पनिक सत्ता ने की हैं।
इतना सब होने पर भी इस गायत्री मंत्र में किसी अतिमानवीय शक्ति के होने में विश्वास करना, इस से रोग, शोक, पाप दूर होने और मनोकामनाएं पूरी होने का विश्वास रखना, मूर्खों की दुनिया में रहना है।
(डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात, पुस्तकः क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?, पृष्ठ 539-540, प्रकाशकः विश्व विजय प्रा. लि., 12 कनॉट सरकस, नई दिल्ली, फ़ोन 011-23416313 व 011-41517890, ईमेलः mybook.vishvbook.com)
गायत्री मंत्र की आलोचना की समीक्षा
इसमें शक नहीं है कि ‘मंत्रार्थदीपिका‘ ग्रंथ के लेखक शत्रुघ्न उच्चकोटि के विद्वान माने जाते हैं और ‘द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम‘ के लेखक डा. विश्वबंधु जी भी वैदिक अध्ययन में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त विद्वान हैं। पंजाब विश्वविद्यालय के एम. ए. संस्कृत पाठ्यक्रम में उनकी पुस्तक ‘वेदसार‘ अनिवार्य पत्र के रूप में पढ़ायी जाती रही है। ख़ुद डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात‘ जी भी एक प्रकांड पंडित हैं। सनातन धर्म की सेवा करने के लिए उनके परिवार का एक लंबा इतिहास है।
इनके पांडित्य और इनकी ख्याति के बावजूद हम इनसे यह विनम्र निवेदन करेंगे कि गायत्री मंत्र में अगर कोई दोष नज़र आ रहा है और हम उसके निर्दोष रूप तक नहीं पहुंच पा रहे हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें दोष है बल्कि हक़ीक़त यह है कि जितना ज्ञानाभ्यास और पवित्रता इसकी हक़ीक़त जानने के लिए चाहिए, वह इसके साधकों और आलोचकों दोनों में ही मौजूद नहीं है वर्ना तो इसकी साधना करने वाले इसका जवाब दे देते और तब आलोचना करने वालों के मुंह से इस तरह के अल्फ़ाज़ ही न निकलते।
गायत्री जैसे महान मंत्र के बारे में कुछ कह सकें, हम ख़ुद को इस योग्य बिल्कुल भी नहीं पाते। अगर गायत्री मंत्र का अर्थ हम पर ख़ुद ब ख़ुद प्रकट न होता तो हम शायद यह सब न लिखते और आज तक हमने इसके अर्थ पर कभी कुछ लिखा भी नहीं है। हालांकि हम इसे 30 साल से ज़्यादा अर्से से पढ़ते भी आ रहे हैं और पढ़ने से भी आगे बढ़कर हम इसे जीते भी आ रहे हैं। गायत्री मंत्र हमारे लिए सदैव आकर्षण और अध्ययन का एक महत्वपूर्ण बिंदु रहा है। हमने पाया है कि इसके द्वारा रोग, शोक और पाप दूर होना और मनोकामनाएं पूरी होना एक सच्ची हक़ीक़त है। इससे भी आगे बढ़कर हम यह कहेंगे कि पूरे विश्व की विजय भी इसके द्वारा संभव है और संभव क्या है बल्कि यह तो इसका स्वाभाविक परिणाम है ही। यह कोई अंधश्रृद्धा मात्र नहीं है बल्कि इसे तर्क से समझा जा सकता है और इसे विज्ञान से सिद्ध किया जा सकता है और इतिहास में इसके साधकों को जो कुछ प्राप्त हुआ, उसे देखा जा सकता है। विज्ञान के अनुसार ‘एक निश्चित परिस्थिति में एक काम करने पर जो परिणाम एक बार सामने आता है तो उसी परिस्थिति में वही काम अगर दोबारा किया जाए तो परिणाम भी वही आएगा।‘
गायत्री मंत्र का वैज्ञानिक स्तर पर सत्यापन
आज तर्क और विज्ञान का दौर है। आप गायत्री मंत्र के सत्य को ख़ुद अपने अनुभव द्वारा जान सकते हैं कि वास्तव में ही इसके ज़रिये से ईश्वर वह सब कुछ देता है जिसकी ज़रूरत मनुष्य को होती है और यह अनुभव एक मनुष्य के बारे में जितना सत्य है, उतना ही यह मनुष्यों के एक बड़े समूह के लिए भी सही है और सारी मानव जाति भी इसके ज़रिये से वह सब कुछ पा सकती है जिसकी तलाश में वह सदियों से भटक रही है। ऐसा हो सकता है और ऐसा होगा लेकिन ऐसा केवल तब होगा जबकि यह जान लिया जाए कि गायत्री मंत्र की रचना किस परिस्थिति में हुई और कहां हुई ?
गायत्री मंत्र की साधना का सही स्वरूप वास्तव में क्या है ?
तभी यह बात समझ में आएगी कि अब तक क्या कमी चली आ रही है गायत्री मंत्र को समझने में और इसकी साधना में ?
फ़िलहाल तो आप यह देखें कि गायत्री मंत्र के जिस अर्थ का हमें दर्शन हुआ है, उसके द्वारा व्याकरण के विद्वानों की आपत्तियां न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाती हैं।
गायत्री मंत्र के व्याकरण पर आपत्ति उचित नहीं है
व्याकरण की दृष्टि से जो न्यूनतम आपत्तियां इस पर आ सकती हैं वे भी निर्मूल हो जाती हैं अगर यह बात सामने रखी जाए कि भाषा की उत्पत्ति और विकास पहले होता है और जब उसका विकास हो चुका होता है तब उसके व्याकरण के नियम निश्चित किए जाते हैं जो कि बाद वालों के एक सुविधा होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि जिन लोगों ने भाषा का विकास किया है वे अशुद्ध भाषा बोला करते थे। हम जिस भाषा को बचपन से बोलते हैं, उसे हम बहुत प्रकार से बोलते हैं। अगर कोई व्यक्ति दूसरी भाषा बोलने वाला आदमी व्याकरण पढ़कर हमारी भाषा में कमियां निकालने लगे तो यही माना जाएगा कि जितना ज्ञान उसे है, वह उसका काम चलाने के लिए पर्याप्त है लेकिन उतने ज्ञान के बल पर वह इसका अधिकारी हरगिज़ नहीं है कि भाषा के विविध रूपों को जानने वालों और उसे अपने दैनिक व्यवहार में लाने वालों की भाषा को वह अशुद्ध घोषित कर दे।
उदाहरण के तौर पर अल्लामा इक़बाल ने हिंदुस्तान की तारीफ़ करते हुए कहा है कि-
अल्लामा इक़बाल को उर्दू पर कितनी ज़्यादा पकड़ थी, यह हम सभी जानते हैं लेकिन कोई कह सकता है कि इस शेर में ‘गुलसितां‘ शब्द ग़लत है जबकि सही शब्द ‘गुलिस्तां‘ है। अगर यह बात मानकर यहां ‘गुलिस्तां‘ शब्द लिख दिया जाए तो यह शेर तुरंत बहर से ख़ारिज हो जाएगा और यह अपना वज़्न खो देगा। उर्दू के शब्दकोष में ‘गुलसितां‘ शब्द लिखा हुआ न मिलेगा लेकिन यह अपना वुजूद रखता है और जहां इसका इस्तेमाल हुआ है, वहां इसका बिल्कुल सही इस्तेमाल हुआ है और शब्दों का ऐसा इस्तेमाल सिर्फ़ वही लोग कर सकते हैं जिन्हें भाषा पर पूरी पकड़ होती है। यही लोग भाषा में नये प्रयोग करते हैं और इस तरह ये उसका विकास करते हैं। गायत्री मंत्र में भी जो शब्द जिस तरह प्रयुक्त हुआ है, वह उसी तरह सही है और अगर उसके साथ छेड़छाड़ की गई तो वह अपनी सुंदरता ही नहीं बल्कि अपना वास्तविक अर्थ ही खो देगा।
यह अन्वय और अर्थ की दृष्टि से बात हुई।
अब हम देखेंगे कि क्या गायत्री छंद में कोई छंदगत अशुद्धि वास्तव में ही मौजूद है या वहां भी कोई ऐसी ही बात है जिसे हम अपने पैमाने पर समझने की कोशिश रहे हैं जबकि हमें कोशिश यह करनी चाहिए कि उसे वेद मंत्रों की रचना करने वालों की दृष्टि से समझा जाए।
...जारी
गायत्री मंत्र रहस्य भाग 1 The mystery of Gayatri Mantra 1
-----------------------------------गायत्री मंत्र के आलोचकों का नज़रिया
गायत्री मंत्र के आलोचकों ने जब इसके अनुवादों पर नज़र डाली तो उन्होंने कहा कि -
‘गायत्री मंत्र के स्तवन में जितना समय और श्रम लगाया जाता है, उस का सहस्रांश भी यदि मंत्र की ग़लतियों की ओर ध्यान देने में लगाया जाता तो इस पर बड़ा उपकार होता।
यह मंत्र न केवल छंदगत अशुद्धियों से युक्त है, अपितु संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से भी पूरी तरह अशुद्ध है। गायत्री मंत्र का प्रचलित रूप व्याकरण की दृष्टि से इसलिए अशुद्ध है। मंत्र के शुरू का ‘तत्‘ शब्द नपुंसक लिंग में है और तीसरे पाद का समवर्ती ‘यो‘ पुल्लिंग में है। ‘तत्‘ और ‘यो‘ परस्पर संबद्ध हैं, लेकिन लिंगगत असंगति के कारण इन का परस्पर अन्वय नहीं हो सकता। वाक्यारंभ में नपुंसक लिंग है। अतः या तो उसी के अनुसार ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद् हो या प्रारंभ में नपुंसक ‘तत्‘ को ‘सवितः‘ का विशेषण बनाया जाए अन्यथा गायत्री मंत्र व्याकरणिक अशुद्धियों की गुत्थी मात्र बना रहेगा।‘
इन विद्वानों ने इस समस्या का हल सुझाते हुए कहा है कि -
‘‘व्याकरण के नियमानुसार आदि के ‘तत्‘ को ‘सवितुः‘ का विशेषण बना कर इसे ‘तस्य‘ के रूप में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में ‘यो‘ को ‘भर्ग‘ के साथ अन्वित करना होगा। तब सही मंत्र ऐसे बनेगा- ‘तस्य सवितुः वरेण्यम्, भर्ग देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‘
मंत्रार्थदीपिका ग्रंथ के लेखक शत्रुघ्न ने ऐसा ही पाठ सही माना है (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 13), यह पाठ व्याकरण और छंदशास्त्र की दृष्टि से पूर्णतः शुद्ध है। इस में ‘वरेण्यं‘ को तोड़ मरोड़ कर शुद्ध गायत्री छंद बनाने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि ‘तत्‘ का ‘तस्य‘ हो जाने से प्रथम पाद में सात के स्थान पर आठ वर्ण हो जाते हैं। इस तरह स्वतः ही शुद्ध गायत्री छंद के अनुरूप 24 वर्ण बन जाते हैं।
एक अन्य प्राचीन ग्रंथकार हलायुध ने अपनी कृति ‘ब्राह्मण सर्वस्व‘ में याज्ञवल्क्य को उद्धृत करते हुए लिखा है कि गायत्री मंत्र के शुरू में स्थित शब्द ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ होना चाहिए, क्योंकि ‘तत्‘ का मंत्र के किसी भी शब्द के साथ अन्वय नहीं होता। यदि ‘तत्‘ का ‘तम्‘ कर दिया जाए तो उस का अन्वय भर्ग के साथ हो जाएगा। हलायुद्ध के अनुसार यह पाठ ठीक है- ‘तं सवितुर्वरेण्यम भर्गं देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्.‘ (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 12)‘‘
लेकिन इस समाधान पर भी यह आपत्ति आती है कि-
‘‘इस शुद्ध रूप में भी पूर्वोद्धृत शत्रुघ्नसम्मत पाठ के समान ही दो शब्दों को शुद्ध करना पड़ता है। ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ और ‘भर्गो‘ के स्थान पर ‘भर्ग‘, लेकिन इसके बावजूद छंद निचृद् गायत्री (अपूर्ण) ही रह जाता है।
डा. विश्वबंधु ने उपरलिखित दोनों वैकल्पिक शुद्ध रूपों के अतिरिक्त एक अन्य रूप उपस्थित किया है। उन्होंने ‘तत्‘ को यथावत् रहने दे कर ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद्‘ रखा है। इस संशोधन से शुद्धमंत्र यह रूप धारण करता है ‘तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो यन्नः (यद् नः) प्रचोदयात्. (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 14-15). डा. विश्वबंधु सम्मत पाठ स्वीकारने पर मूल मंत्र में एक ही शब्द शुद्ध करना पड़ता है लेकिन छंद फिर भी निचृद गायत्री ही रह जाता है।‘‘
गायत्री मंत्र की यह समीक्षा करने के बाद आलोचक महोदय कहते हैं कि -
‘इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रचलित गायत्री मंत्र न केवल छंद शास्त्र की दृष्टि से लंगड़ा और दोग़ला है, अपितु व्याकरण की दृष्टि से भी अशुद्ध है। यदि वेद ईश्वर की रचना है, यदि गायत्री मंत्र को ईश्वर ने बनाया है तो यह निरक्षर भट्टाचार्य और वज्रमूर्ख साबित होता है। साधारण संस्कृत जानने वाला भी ऐसी ग़लतियां नहीं कर सकता जैसी ईश्वर कही जाने वाली काल्पनिक सत्ता ने की हैं।
इतना सब होने पर भी इस गायत्री मंत्र में किसी अतिमानवीय शक्ति के होने में विश्वास करना, इस से रोग, शोक, पाप दूर होने और मनोकामनाएं पूरी होने का विश्वास रखना, मूर्खों की दुनिया में रहना है।
(डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात, पुस्तकः क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?, पृष्ठ 539-540, प्रकाशकः विश्व विजय प्रा. लि., 12 कनॉट सरकस, नई दिल्ली, फ़ोन 011-23416313 व 011-41517890, ईमेलः mybook.vishvbook.com)
गायत्री मंत्र की आलोचना की समीक्षा
इसमें शक नहीं है कि ‘मंत्रार्थदीपिका‘ ग्रंथ के लेखक शत्रुघ्न उच्चकोटि के विद्वान माने जाते हैं और ‘द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम‘ के लेखक डा. विश्वबंधु जी भी वैदिक अध्ययन में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त विद्वान हैं। पंजाब विश्वविद्यालय के एम. ए. संस्कृत पाठ्यक्रम में उनकी पुस्तक ‘वेदसार‘ अनिवार्य पत्र के रूप में पढ़ायी जाती रही है। ख़ुद डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात‘ जी भी एक प्रकांड पंडित हैं। सनातन धर्म की सेवा करने के लिए उनके परिवार का एक लंबा इतिहास है।
इनके पांडित्य और इनकी ख्याति के बावजूद हम इनसे यह विनम्र निवेदन करेंगे कि गायत्री मंत्र में अगर कोई दोष नज़र आ रहा है और हम उसके निर्दोष रूप तक नहीं पहुंच पा रहे हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें दोष है बल्कि हक़ीक़त यह है कि जितना ज्ञानाभ्यास और पवित्रता इसकी हक़ीक़त जानने के लिए चाहिए, वह इसके साधकों और आलोचकों दोनों में ही मौजूद नहीं है वर्ना तो इसकी साधना करने वाले इसका जवाब दे देते और तब आलोचना करने वालों के मुंह से इस तरह के अल्फ़ाज़ ही न निकलते।
गायत्री जैसे महान मंत्र के बारे में कुछ कह सकें, हम ख़ुद को इस योग्य बिल्कुल भी नहीं पाते। अगर गायत्री मंत्र का अर्थ हम पर ख़ुद ब ख़ुद प्रकट न होता तो हम शायद यह सब न लिखते और आज तक हमने इसके अर्थ पर कभी कुछ लिखा भी नहीं है। हालांकि हम इसे 30 साल से ज़्यादा अर्से से पढ़ते भी आ रहे हैं और पढ़ने से भी आगे बढ़कर हम इसे जीते भी आ रहे हैं। गायत्री मंत्र हमारे लिए सदैव आकर्षण और अध्ययन का एक महत्वपूर्ण बिंदु रहा है। हमने पाया है कि इसके द्वारा रोग, शोक और पाप दूर होना और मनोकामनाएं पूरी होना एक सच्ची हक़ीक़त है। इससे भी आगे बढ़कर हम यह कहेंगे कि पूरे विश्व की विजय भी इसके द्वारा संभव है और संभव क्या है बल्कि यह तो इसका स्वाभाविक परिणाम है ही। यह कोई अंधश्रृद्धा मात्र नहीं है बल्कि इसे तर्क से समझा जा सकता है और इसे विज्ञान से सिद्ध किया जा सकता है और इतिहास में इसके साधकों को जो कुछ प्राप्त हुआ, उसे देखा जा सकता है। विज्ञान के अनुसार ‘एक निश्चित परिस्थिति में एक काम करने पर जो परिणाम एक बार सामने आता है तो उसी परिस्थिति में वही काम अगर दोबारा किया जाए तो परिणाम भी वही आएगा।‘
गायत्री मंत्र का वैज्ञानिक स्तर पर सत्यापन
आज तर्क और विज्ञान का दौर है। आप गायत्री मंत्र के सत्य को ख़ुद अपने अनुभव द्वारा जान सकते हैं कि वास्तव में ही इसके ज़रिये से ईश्वर वह सब कुछ देता है जिसकी ज़रूरत मनुष्य को होती है और यह अनुभव एक मनुष्य के बारे में जितना सत्य है, उतना ही यह मनुष्यों के एक बड़े समूह के लिए भी सही है और सारी मानव जाति भी इसके ज़रिये से वह सब कुछ पा सकती है जिसकी तलाश में वह सदियों से भटक रही है। ऐसा हो सकता है और ऐसा होगा लेकिन ऐसा केवल तब होगा जबकि यह जान लिया जाए कि गायत्री मंत्र की रचना किस परिस्थिति में हुई और कहां हुई ?
गायत्री मंत्र की साधना का सही स्वरूप वास्तव में क्या है ?
तभी यह बात समझ में आएगी कि अब तक क्या कमी चली आ रही है गायत्री मंत्र को समझने में और इसकी साधना में ?
फ़िलहाल तो आप यह देखें कि गायत्री मंत्र के जिस अर्थ का हमें दर्शन हुआ है, उसके द्वारा व्याकरण के विद्वानों की आपत्तियां न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाती हैं।
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्.
अर्थात हम परमेश्वर के सूर्य के उस वरणीय तेज का ध्यान करें जो हमारी बुद्धियों को प्रेरित करे।गायत्री मंत्र के व्याकरण पर आपत्ति उचित नहीं है
व्याकरण की दृष्टि से जो न्यूनतम आपत्तियां इस पर आ सकती हैं वे भी निर्मूल हो जाती हैं अगर यह बात सामने रखी जाए कि भाषा की उत्पत्ति और विकास पहले होता है और जब उसका विकास हो चुका होता है तब उसके व्याकरण के नियम निश्चित किए जाते हैं जो कि बाद वालों के एक सुविधा होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि जिन लोगों ने भाषा का विकास किया है वे अशुद्ध भाषा बोला करते थे। हम जिस भाषा को बचपन से बोलते हैं, उसे हम बहुत प्रकार से बोलते हैं। अगर कोई व्यक्ति दूसरी भाषा बोलने वाला आदमी व्याकरण पढ़कर हमारी भाषा में कमियां निकालने लगे तो यही माना जाएगा कि जितना ज्ञान उसे है, वह उसका काम चलाने के लिए पर्याप्त है लेकिन उतने ज्ञान के बल पर वह इसका अधिकारी हरगिज़ नहीं है कि भाषा के विविध रूपों को जानने वालों और उसे अपने दैनिक व्यवहार में लाने वालों की भाषा को वह अशुद्ध घोषित कर दे।
उदाहरण के तौर पर अल्लामा इक़बाल ने हिंदुस्तान की तारीफ़ करते हुए कहा है कि-
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसितां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसितां हमारा
अल्लामा इक़बाल को उर्दू पर कितनी ज़्यादा पकड़ थी, यह हम सभी जानते हैं लेकिन कोई कह सकता है कि इस शेर में ‘गुलसितां‘ शब्द ग़लत है जबकि सही शब्द ‘गुलिस्तां‘ है। अगर यह बात मानकर यहां ‘गुलिस्तां‘ शब्द लिख दिया जाए तो यह शेर तुरंत बहर से ख़ारिज हो जाएगा और यह अपना वज़्न खो देगा। उर्दू के शब्दकोष में ‘गुलसितां‘ शब्द लिखा हुआ न मिलेगा लेकिन यह अपना वुजूद रखता है और जहां इसका इस्तेमाल हुआ है, वहां इसका बिल्कुल सही इस्तेमाल हुआ है और शब्दों का ऐसा इस्तेमाल सिर्फ़ वही लोग कर सकते हैं जिन्हें भाषा पर पूरी पकड़ होती है। यही लोग भाषा में नये प्रयोग करते हैं और इस तरह ये उसका विकास करते हैं। गायत्री मंत्र में भी जो शब्द जिस तरह प्रयुक्त हुआ है, वह उसी तरह सही है और अगर उसके साथ छेड़छाड़ की गई तो वह अपनी सुंदरता ही नहीं बल्कि अपना वास्तविक अर्थ ही खो देगा।
यह अन्वय और अर्थ की दृष्टि से बात हुई।
अब हम देखेंगे कि क्या गायत्री छंद में कोई छंदगत अशुद्धि वास्तव में ही मौजूद है या वहां भी कोई ऐसी ही बात है जिसे हम अपने पैमाने पर समझने की कोशिश रहे हैं जबकि हमें कोशिश यह करनी चाहिए कि उसे वेद मंत्रों की रचना करने वालों की दृष्टि से समझा जाए।
...जारी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
19 comments:
ओह!
अ ग्रेट आर्टिकल!!
न सिर्फ़ बहुत सी नई जानकारियों से रू-ब-रू हुए, बल्कि एक अनमोल खजाना मिल गया, ऐसा महसूस हो रहा है।
आपके तर्क सरल, सटीक और वैज्ञानिक हैं।
A nice article with so many valuable informations and truths, which are enough to open the eyes and burst the myths and blind faiths.
May God bless you for your great efforts.
Regards
Iqbal Zafar.
सार्थक पोस्ट !
Great work keep it up!
Zubir Khan
गायत्री मन्त्र पर किये गए आक्षेपों का उत्तर और आक्षेप्ताओं को चेलैन्ज
ब्रह्मगायत्री की अपार महिमा किसी से तिरोहित नहीं है । इसके जप से सब कुछ सरलतया
सम्भव है । ऋषियों से लेकर साधारण बटु भी इस महामन्त्र से आज तक लाभ उठा रहा है ।
पर जिनका इस मन्त्र पर विश्वास नही, केवल हिन्दी और संस्कृत का सामान्य ज्ञान रखने वाले
,संस्कृत व्याकरण और शास्त्रों से कोशों दूर कुछ मूर्खचक्रचूडामणियों ने इस मन्त्र को छन्द और
व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध कहकर इसे सुधारने का अर्थात् विकृत करने का दुस्साहस किया है ।
यहां हम उनके सम्पर्ण आक्षेपों का निराकरण करते हुए उनकी बुद्धि का दिवालियापन दिखा रहे हैं
|पहले आप लोग इन्हें पढ़ लें फिर इनकी धज्जियां कसे उड़ाई जाती हैं –इसे पढियेगा
—जय श्रीराम
गायत्री मंत्र के आलोचकों का नज़रिया
गायत्री मंत्र के आलोचकों ने जब इसके अनुवादों पर नज़र डाली तो उन्होंने कहा कि -
‘गायत्री मंत्र के स्तवन में जितना समय और श्रम लगाया जाता है, उस का सहस्रांश भी यदि
मंत्र की ग़लतियों की ओर ध्यान देने में लगाया जाता तो इस पर बड़ा उपकार होता।
“ यह मंत्र न केवल छंदगत अशुद्धियों से युक्त है, अपितु संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से भी पूरी
तरह अशुद्ध है। मंत्र के शुरू का ‘तत्‘ शब्द नपुंसक लिंग में है और तीसरे पाद का समवर्ती ‘यो‘
पुल्लिंग में है। ‘तत्‘ और ‘यो‘ परस्पर संबद्ध हैं, लेकिन लिंगगत असंगति के कारण इन का
परस्पर अन्वय नहीं हो सकता। वाक्यारंभ में नपुंसक लिंग है। अतः या तो उसी के अनुसार ‘यो‘ के
स्थान पर ‘यद् हो या प्रारंभ में नपुंसक ‘तत्‘ को ‘सवितः‘ का विशेषण बनाया जाए अन्यथा गायत्री
मंत्र व्याकरणिक अशुद्धियों की गुत्थी मात्र बना रहेगा।‘
इन विद्वानों ने इस समस्या का हल सुझाते हुए कहा है कि -
‘‘व्याकरण के नियमानुसार आदि के ‘तत्‘ को ‘सवितुः‘ का विशेषण बना कर इसे ‘तस्य‘ के रूप में
परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में ‘यो‘ को ‘भर्ग‘ के साथ अन्वित करना होगा।
तब सही मंत्र ऐसे बनेगा- ‘तस्य सवितुः वरेण्यम्, भर्ग देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‘
मंत्रार्थदीपिका ग्रंथ के लेखक शत्रुघ्न ने ऐसा ही पाठ सही माना है (देखिए- द गायत्रीः इट्स
ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 13),
यह पाठ व्याकरण और छंदशास्त्र की दृष्टि से पूर्णतः शुद्ध है। इस में ‘वरेण्यं‘ को तोड़ मरोड़ कर
शुद्ध गायत्री छंद बनाने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि ‘तत्‘ का ‘तस्य‘ हो जाने से प्रथम
पाद में सात के स्थान पर आठ वर्ण हो जाते हैं। इस तरह स्वतः ही शुद्ध गायत्री छंद के अनुरूप
24 वर्ण बन जाते हैं।
“एक अन्य प्राचीन ग्रंथकार हलायुध ने अपनी कृति ‘ब्राह्मण सर्वस्व‘ में याज्ञवल्क्य को उद्धृत करते
हुए लिखा है कि गायत्री मंत्र के शुरू में स्थित शब्द ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ होना चाहिए, क्योंकि
‘तत्‘ का मंत्र के किसी भी शब्द के साथ अन्वय नहीं होता। यदि ‘तत्‘ का ‘तम्‘ कर दिया जाए तो
उस का अन्वय भर्ग के साथ हो जाएगा। हलायुद्ध के अनुसार यह पाठ ठीक है- ‘तं सवितुर्वरेण्यम
भर्गं देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्.‘ (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 12)''
लेकिन इस समाधान पर भी यह आपत्ति आती है कि-
‘‘इस शुद्ध रूप में भी पूर्वोद्धृत शत्रुघ्नसम्मत पाठ के समान ही दो शब्दों को शुद्ध करना पड़ता है।
‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ और ‘भर्गो‘ के स्थान पर ‘भर्ग‘, लेकिन इसके बावजूद छंद निचृद् गायत्री
(अपूर्ण) ही रह जाता है।
डा. विश्वबंधु ने उपरलिखित दोनों वैकल्पिक शुद्ध रूपों के अतिरिक्त एक अन्य रूप उपस्थित किया
है। उन्होंने ‘तत्‘ को यथावत् रहने दे कर ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद्‘ रखा है। इस संशोधन से शुद्धमंत्र
यह रूप धारण करता है ‘तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो यन्नः (यद् नः) प्रचोदयात्.
(देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 14-15).
डा. विश्वबंधु सम्मत पाठ स्वीकारने पर मूल मंत्र में एक ही शब्द शुद्ध करना पड़ता है लेकिन
छंद फिर भी निचृद गायत्री ही रह जाता है।‘‘
गायत्री मंत्र की यह समीक्षा करने के बाद आलोचक महोदय कहते हैं कि -
‘इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रचलित गायत्री मंत्र न केवल छंद शास्त्र की दृष्टि से लंगड़ा और दोग़ला
है, अपितु व्याकरण की दृष्टि से भी अशुद्ध है। यदि वेद ईश्वर की रचना है, यदि गायत्री मंत्र को
ईश्वर ने बनाया है तो यह निरक्षर भट्टाचार्य और वज्रमूर्ख साबित होता है। साधारण संस्कृत
जानने वाला भी ऐसी ग़लतियां नहीं कर सकता जैसी ईश्वर कही जाने वाली काल्पनिक
सत्ता ने की हैं।
इतना सब होने पर भी इस गायत्री मंत्र में किसी अतिमानवीय शक्ति के होने में विश्वास करना,
इस से रोग, शोक,पाप दूर होने और मनोकामनाएं पूरी होने का विश्वास रखना,
मूर्खों की दुनिया में रहना है।
(डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात, पुस्तकः क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?, पृष्ठ 539-540, प्रकाशकः विश्व विजय प्रा. लि., 12 कनॉट सरकस, नई दिल्ली, फ़ोन 011-23416313 व 011-41517890, ईमेलः mybook.vishvbook.com)
समाधानकर्ता
आचार्य सियारामदास नैयायिक —-
हम पहले “मंत्रार्थ दीपिका “ पुस्तक के लेखक शत्रुघ्न जी का समाधान करेंगे |
समाधान –शत्रुघ्न जी ! आपके लेख से लगता है की आपको न तो छंदों के विषय में कोई ज्ञान है
और न ही संस्कृत व्याकरण का, क्योंकि आप गायत्री मन्त्र के प्रथम पाद के “ तत् ” शब्द और
तृतीय पाद के “ यो ” शब्द को देखकर कह रहे हैं कि —-
“ मंत्र के शुरू का ‘तत्‘ शब्द नपुंसक लिंग में है और तीसरे पाद का समवर्ती ‘यो‘ पुल्लिंग में है। ‘तत्‘
और ‘यो‘ परस्पर संबद्ध हैं, लेकिन लिंगगत असंगति के कारण इन का परस्पर अन्वय नहीं हो
सकता। वाक्यारंभ में नपुंसक लिंग है। अतः या तो उसी के अनुसार ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद् हो या
प्रारंभ में नपुंसक ‘तत्‘ को ‘सवितः‘ का विशेषण बनाया जाए अन्यथा गायत्री मंत्र व्याकरणिक
अशुद्धियों की गुत्थी मात्र बना रहेगा। “
महाशय शत्रुघ्न जी सुनें –आपकी यह शंका व्याकरण में चंचुप्रवेश न होने के कारण हुई है |आपने
गायत्री मन्त्र का सामान्य अर्थ भी नहीं समझा है –इस तथ्य को हम आगे स्पष्ट करेंगे |
पहले आपकी शंका का उत्तर दे रहे हैं ——
श्रीमान जी ! – ऐसे स्थलों में लिंगगत अशुद्धियों का भान उन सबको होता है जो व्याकरण का ज्ञान
नहीं रखते |उदाहरण के लिए एक अतिप्रसिद्ध संस्कृत का वाक्य हम सबके समक्ष रखते हैं —“ शैत्यं
हि यत् सा प्रकृतिर्जलस्य “ अर्थ –जो शीतलता है वह जल का स्वभाव है |
यहाँ नपुंसक लिंग में विद्यमान प्रथामांत शैत्य शब्द का विशेषण “ यत् “ शब्द नपुंसक लिंग में है
और उसी का निर्देश आगे “ सा “ इस स्त्रीलिंग के शब्द से किया गया है |
अब इस वाक्य में आपको नपुंसक यत् शब्द और उससे सम्बद्ध सा शब्द में लिंगगत अशुद्धि जरुर
दिख रही होगी , क्योंकि आप जैसे बड़े बड़े विद्वान लिंग को ही पहले पकड़ कर उसमें
दोष दिखाते हैं |
महाशय –“ वैयाकरणभूषणसार ” में महावैयाकरण श्रीकौण्डभट्ट ने भी ऐसा ही प्रयोग
किया है | देखें –
“ व्यापारो भावना सैवोत्पादना सैव च क्रिया “—४
यहाँ प्रथमा विभक्त्यंत व्यापार शब्द तो पुल्लिंग में है और पुनः उसी को भावना और क्रिया
बतलाने के लिए भट्ट जी जैसे महावैयाकरण उस व्यापार शब्द का उल्लेख स्त्रीलिंग के
“ सा “ शब्द से किये |
अब ऐसे और भी वाक्य उपनिषदों में मिलते है |कुछ दिखा रहे हैं –
नृसिंहपूर्वतापिन्युपनिषद् आदि में ऐसे अनेक प्रयोग मिलते है जहां आपको लिंगगत दोष दिखेगा –
“ॐ यो वै नृसिंहो देवो भगवान् यश्च ब्रह्मा –तस्मै वै नमो नमः |४ /१,|ॐ यो वै नृसिंहो देवो
भगवान् या सरस्वती —६ , ये वेदाः साङ्गाः सशाखाः — १३ , याः सप्त महाव्याहृतयः—तस्मै वै
नमो नमः |–१५ ,
महाशय—- ऐसे ओर भी प्रयोग वेदों में हैं किन्तु उनको दिखाकर किसी को भीत करना हमारा
कर्तव्य नहीं है |यहाँ तो यही बतलाना है कि जिनका वेदों में कोई प्रवेश नहीं ,जिन्हें गायत्री मन्त्र के
जप से कुछ लेना देना नहीं,जो केवल आक्षेप करना जानते हैं उनकी प्रज्ञा कितनी है –इसका
अहसास लोगों को हो जाय |
महाशय —-ऐसे प्रयोग बहुत अधिक किये गए हैं जिनमे कौण्ड भट्ट जैसे वैयाकरण भी है जिनके
एक श्लोक का अर्थ आप जैसे आलोचक कभी भी नही समझ सकते |
समाधान—-–ये जो प्रयोग मैंने दिखलाये ये सब सही हैं क्योंकि व्याकरण का एक नियम है कि
“ उद्देश्य और विधेय में एकता का प्रतिपादन करने वाला सर्वनाम उन दोनों में किसी के भी लिंग
में प्रयुक्त हो सकता है | देखें —
व्यापारो भावना सैवोत्पादना सैव च क्रिया |– वैयाकरण भूषणसार, ४ ,
इसकी प्रभा टीका देखें —--
“ उद्देश्यविधेययोरैक्यमापादयत् सर्वनाम पर्यायेण तत्तल्लिङ्गभाग् भवति “इति
वृद्धोक्तेरुभयविधप्रयोगदर्शनाच्च भावनारूपविधेयानुरोधेन “ सा ” इति स्त्रीलिङ्गनिर्देशः “|
अब इसकी दर्पण टीका भी देख लें —
“ उद्देश्यविधेययोरैक्यमापादयतः सर्वनाम्नः पर्यायेणान्यतरलिङ्गकत्वास्य ‘ शैत्यं हि यत् सा
प्रकृतिर्जलस्य ‘इत्यादि बहुषु स्थलेषु दर्शनान्न “ सा “ इति स्त्रीलिङ्गानुपपत्तिः ”|
गायत्री का प्रयोग व्याकरण की दृष्टि से परम शुद्ध
जब उद्देश्य और विधेय स्थलों में सर्वनाम दोनों में किसी के भी लिंग में प्रयुक्त हो सकता है —
यह सर्वसम्मत व्याकरण का नियम है |तो व्याकरण के इस नियम के अनुसार नपुंसक लिंग के
तत् शब्द से जिसे पहले कहा गया उसे पुनः पुल्लिंग यो शब्द से कहने पर तो कोई दोष है ही नहीं |
हाँ ,आप जैसे व्याकरणानभिज्ञों को वह दोष दिखता है तो इससे यही कहा जा सकता है कि—
“ निज भ्रम नहि समझहिं अज्ञानी |
प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी “||
शत्रुघ्न जी —आपने कहा था कि “वाक्यारंभ में नपुंसक लिंग है। अतः या तो उसी के अनुसार
‘यो‘ के स्थान पर ‘यद् हो “—इसका समाधान कर दिया गया |
आपने आगे लिखा है कि “ या प्रारंभ में नपुंसक ‘तत्‘ को ‘सवितः‘ का विशेषण बनाया जाए
अन्यथा गायत्री मंत्र व्याकरणिक अशुद्धियों की गुत्थी मात्र बना रहेगा। “
समाधान –नही श्रीमान जी ! इतना कष्ट मत कीजिये |
व्याकरण की अनभिज्ञता के कारण “अशुद्धियों की गुत्थी “ आपका मष्तिष्क बन चुका है क्योंकि
आप लिखते हैं कि—–
‘‘ व्याकरण के नियमानुसार आदि के ‘तत्‘ को ‘सवितुः‘ का विशेषण बना कर इसे ‘तस्य‘ के रूप में
परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में ‘यो‘ को ‘भर्ग‘ के साथ अन्वित करना होगा। तब
सही मंत्र ऐसे बनेगा- ‘तस्य सवितुः वरेण्यम्, भर्ग देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‘”
समाधान———- वाह शत्रुघ्न जी ! वाह — लगता है कि आपको व्याकरण के आरंभिक ग्रन्थ
“ लघुसिद्धांतकौमुदी “ से भी भेंट नहीं हुई है |
“ तत्सवितुः “ में तत् शब्द सवितुः का विशेषण नहीं है | यह एक समस्त ( समासयुक्त ) पद है |
जिसे षष्ठी तत्पुरुष समास आप समझ लें —तस्य सवितुः –तत्सवितुः —जिसका अर्थ है –-
“ उन सूर्यदेव का “
जैसे किसी ने पूंछा –तस्य बालकस्य पितुः किं नाम ? ( उस बालक के पिता का क्या नाम है ?)
बताने वाले ने उत्तर दिया “ तत्पितुः नाम राघव इति ( उसके पिता का नाम राघव है )
अब आप जैसा प्रबुद्ध “ तत्पितुः “ में समास न समझ कर यही कहेगा कि यहाँ तस्य पितुः
बोलना चाहिये “ तत्पितुः “ तो अशुद्ध है | जैसा कि आपने कहा है कि
“ तत्सवितुः “ की जगह “ तस्य सवितुः “ होना चाहिये | और आपने अपनी मन्द बुद्धि के अनुसार
“ तस्य सवितुः वरेण्यं भर्ग देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् “ –ऐसे आकार से इस
महामन्त्र को अशुद्ध करने का कुत्सित प्रयास किया |
जिसे ध्वस्त कर दिया गया |
शत्रुघ्न जी ने लिखा है कि
“ इसमें ‘वरेण्यं‘ को तोड़ मरोड़ कर शुद्ध गायत्री छंद बनाने की आवश्यकता नहीं रह जाती,
क्योंकि ‘तत्‘ का ‘तस्य‘ हो जाने से प्रथम पाद में सात के स्थान पर आठ वर्ण हो जाते हैं।
इस तरह स्वतः ही शुद्ध गायत्री छंद के अनुरूप 24 वर्ण बन जाते हैं। “
शत्रुघ्न जी ! आपने जो गायत्री मन्त्र का विकृत रूप प्रस्तुत करके दिखाया था उसे तो ध्वस्त
किया जा चुका है और आपके संस्कृत ग्रामर के ज्ञान की पोलपट्टी भी खोली जा चुकी है |
अब २४ वर्ण कैसे बनेंगे गायत्री मन्त्र के —इसके लिए आपको किसी गायत्री जापक का
चरणचुम्बन करना पड़ेगा |यह ऋषियों की विद्या है म्लेच्छों की नहीं | इसे आगे बताउंगा |
शत्रुघ्न जी का एक कमाल और देखें –
“एक अन्य प्राचीन ग्रंथकार हलायुध ने अपनी कृति ‘ब्राह्मण सर्वस्व‘ में याज्ञवल्क्य को उद्धृत
करते हुए लिखा है कि गायत्री मंत्र के शुरू में स्थित शब्द ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ होना चाहिए,
क्योंकि ‘तत्‘ का मंत्र के किसी भी शब्द के साथ अन्वय नहीं होता। यदि ‘तत्‘ का ‘तम्‘ कर दिया
जाए तो उस का अन्वय भर्ग के साथ हो जाएगा। हलायुद्ध के अनुसार यह पाठ ठीक है-
‘तं सवितुर्वरेण्यम भर्गं देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्.‘ (देखिए- द गायत्रीः इट्स
ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 12)''
समाधान –शत्रुघ्न जी ! जब वैदुष्य से कम नहीं चला तब धूर्तता पर उतर आये |
लालबुझक्कड़ की गप्पे देर तक नहीं टिकती |
ब्राह्मण सर्वस्व के रचयिता ने याज्ञवल्क्य को उद्धृत किया और आप जो कह रहे है वही
लिखा है —यह कथन सफ़ेद झूठ है |
क्योंकि याज्ञवल्क्य स्मृति मिताक्षरा टीका के साथ प्रकाशित है उसमें —
“गायत्रीं शिरसा सार्धं जपेद्व्याहृतिपूर्वकम्|— याज्ञवल्क्य स्मृति , आचाराध्याय ,श्लोक २३ ,
में व्याहृतियुक्त गायत्री का जप महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा है |और इसकी टीका मिताक्षरा में—
“ तत्सवितुर्वरेण्यम् “ –ऐसी व्याख्या कि गयी है |–
प्रकाशक-नाग पब्लिशर्स,जवाहर नगर ,दिल्ली -7 ,सान -1985 ,
अब याज्ञवल्क्य के नाम से तत् के स्थान पर तम् कहना कोरी गप्प है ,| वेद की अनुगामिनी
स्मृतियाँ होती हैं ,न कि उनके अनुगामी वेद |इसके ज्ञान के लिए आपको पूर्वमीमांसा किसी
गुरु के चरणों में बैठकर पढ़नी पड़ेगी |यह भारतीय विद्या है किसी होटल की चाय नहीं |
शत्रुघ्न जी ! अभी भी आप भर्गं पर संस्कृत व्याकरण से अनभिज्ञ होने के कारण लटके हुए हैं |
भर्गो पर विशवास नहीं क्योंकि आपके अनुसार यह प्रथमा विभक्ति का रूप होगा ?
“ भर्गो शब्द ही गायत्री मन्त्र में है भर्गं नहीं “
“ भर्गो देवस्य “ में भर्गस् शब्द है ,यह भर्जनार्थक भृज धातु से “ अन्च्यञ्जियुजिभृजिभ्यःकुश्च “
– “ सिद्धान्तकौमुदी “ इस औणादिक सूत्र से भर्जते कामादीन् दोषान् अथवा भृज्यन्ते कामादयो
दोषाः यस्मात् ( जो कामादि दोषो को नष्ट कर दे या जिससे कामादि दोष नष्ट हो जाये उसे
भर्गस् कहते है )इस प्रकार की व्युत्पत्ति मेंअसुन् प्रत्यय तथा ज को कवर्गादेश ग होकर
“ भर्गस् “ ऐसा शब्द बना है | इसके बाद द्वितीया विभक्ति आने पर भर्गः रूप बनता है |
किन्तु देवस्य का द बाद में होने के कारण स् को रेफ होने के बाद रेफ को “ हशि च “ ६/१/११४ ,
सूत्र से उ तत्पश्चात गुण होकर “ भर्गो “ शब्द बनता है | जिसका अर्थ है — “ दिव्य तेज “ |
इन आलोचकों की बात से संतुष्ट कुछ मन्दमति कहते हैं कि—-
‘‘इस शुद्ध रूप में भी पूर्वोद्धृत शत्रुघ्नसम्मत पाठ के समान ही दो शब्दों को शुद्ध करना
पड़ता है। ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ और ‘भर्गो‘ के स्थान पर ‘भर्ग‘, लेकिन इसके बावजूद
छंद निचृद् गायत्री (अपूर्ण) ही रह जाता है।“
आचार्य सियारामदास नैयायिक ——–समाधान —–
शत्रुघ्न जी की सम्पूर्ण बातों की धज्जियां उड़ा दी गयीं हैं –इसलिए “ इस शुद्ध से लेकर अपूर्ण ही
रह जाता है “ तक का कथन भी मान्य नहीं हो सकता | रही बात गायत्री के २४ अक्षरों के पूर्णता
की –इसका उत्तर हम इन धर्मद्रोहियों का मानमर्दन करने के बाद देंगे |
डा. विश्व बंधु की कल्पना –
"डा. विश्वबंधु ने उपरलिखित दोनों वैकल्पिक शुद्ध रूपों के अतिरिक्त एक अन्य रूप उपस्थित किया
है। उन्होंने ‘तत्‘ को यथावत् रहने दे कर ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद्‘ रखा है। इस संशोधन से शुद्धमंत्र
यह रूप धारण करता है ‘तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो यन्नः (यद् नः) प्रचोदयात्.
(देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 14-15).
डा. विश्वबंधु सम्मत पाठ स्वीकारने पर मूल मंत्र में एक ही शब्द शुद्ध करना पड़ता है लेकिन
छंद फिर भी निचृद गायत्री ही रह जाता है।‘‘
आचार्य सियारामदास नैयायिक ——-
डा. विश्वबंधु जी ! आप शत्रुघ्न जी से कुछ बुद्धिजीवी लग रहे है | पर व्याकरण में उन्हीके समकक्ष
हैं , क्योंकि आप भी “ तत्सवितुः “ में तत् के अनुसार यो शब्द में परिवर्तन यद्—ऐसा किये हैं|
हे आधुनिक जगत और पाश्चात्य सभ्यता के पशुओं ! हमने जो व्याकरण का नियम पहले
बतलाया है —-
“ उद्देश्य और विधेय में एकता का प्रतिपादन करने वाला सर्वनाम उन दोनों में किसी के भी लिंग में
प्रयुक्त हो सकता है | देखें —
व्यापारो भावना सैवोत्पादना सैव च क्रिया |– वैयाकरण भूषणसार, ४ ,
इसकी प्रभा टीका देखें —--
“ उद्देश्यविधेययोरैक्यमापादयत् सर्वनाम पर्यायेण तत्तल्लिङ्गभाग् भवति “इति
वृद्धोक्तेरुभयविधप्रयोगदर्शनाच्च भावनारूपविधेयानुरोधेन “ सा ” इति स्त्रीलिङ्गनिर्देशः “|
अब इसकी दर्पण टीका भी देख लें —
“ उद्देश्यविधेययोरैक्यमापादयतः सर्वनाम्नः पर्यायेणान्यतरलिङ्गकत्वास्य ‘ शैत्यं हि यत् सा
प्रकृतिर्जलस्य ‘इत्यादि बहुषु स्थलेषु दर्शनान्न “ सा “ इति स्त्रीलिङ्गानुपपत्तिः ”|
इसका स्मरण करो तो आप सही मायने में वेदों के साथ अनर्थ न करके वैदिक सनातन धर्म के द्रोही
राक्षस नहीं बनोगे | गायत्री जैसे महामंत्र के ऊपर आक्षेप करके अपनी महामूर्खता तुम लोगों ने
दिखाई ,उसका मुहतोड़ उत्तर दिया गया |
अब एक महाशय विश्बंधू जी की बात से संतुष्ट होकर कहते हैं —
"डा. विश्वबंधु सम्मत पाठ स्वीकारने पर मूल मंत्र में एक ही शब्द शुद्ध करना पड़ता है लेकिन
छंद फिर भी निचृद गायत्री ही रह जाता है।‘‘-
वाह भाई ! जैसे वे वैसे आप “ न नागनाथ कम न सांपनाथ “ |
गायत्री मन्त्र तो अनन्त प्राणियों को शुद्ध कर चुका है उसे तुम जैसे मूर्ख अब शुद्ध करेंगे ? तुम्हे
तो अपनी अज्ञानता का ज्ञान यदि इस लेख से हो गया होगा तो स्वयं शुद्ध हो जाओगे और
फिर किसी धार्मिक ग्रन्थ या मन्त्र के विषय में ऐसा कहने या लिखने का दुस्साहस नहीं करोगे |
गायत्री महामंत्र के २४ अक्षरों की पूर्णता
डा. शत्रुघ्न और विश्वबंधु ने जो आशंका या आक्षेप किया है उसका उत्तर उनकी अज्ञानता
प्रदर्शित करते हुए कर दिया गया |
ये बेचारे अपने जैसे हीनमति गायत्री जापकों को भी समझते हैं | जापकों के सेवक ही ऐसे दुर्जनों
की सेवा अच्छी तरह कर देते हैं |
इन्हे गायत्री छन्द कितने प्रकार के हैं –इसके ज्ञान हेतु “ हलायुध कि टीका के साथ
पिन्गलाचार्य प्रणीत “ छन्दः शास्त्रम् ” देखना पडेगा |
"गायत्री के 24 अक्षरों के विषय में पिंगलाचार्य और हलायुध का प्रमाण"
तृतीय अध्याय में “ पिगालाचार्य जी गायत्री के अक्षरों की २४ संख्या कैसे पूर्ण होगी ?—
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखते हैं –
“ इयादि पूर्णार्थः –३/२ ,
जहा गायत्री आदि छन्दों के अक्षरों की संख्या पूर्ण न हो रही हो वहां इय ,उव आदि जोड़ लेना
चाहिए —-“ यत्र गायत्र्यादिच्छन्दसि पादस्याक्षर संख्या न पूर्यते , तत्रेयादिभिः पूरयितव्याः “ —
ऐसा कहकर श्रीहलायुध गायत्री मन्त्र के अक्षरो कि पूर्ति में प्रमाण प्रस्तुत करते है —-
तथा –“ तत्सवितुर्वरेणिययम् “ (ऋ.सं .३/४/१०/५,
अर्थात् “ वरेण्यं “ की जगह “वरेणियं “ जपना चाहिए |
और इसमें पुराण वाक्य भी प्रमाण है ——-
“ पाठ काले वरेण्यं स्यात् जपकाले वरेणियम् “ |
ओर परम्परा से गायत्री मन्त्र से दीक्षित व्यक्ति जो साधकों के संपर्क मे रह चुके है वह
गायत्री मन्त्र भिन्न पाद करके ऐसे ही जपते भी है |
अब “ ण् ” को आधा अक्षर समझकर जो चिल्ल पों मचा रखे थे कि २४ अक्षर कैसे पूर्ण होंगे ?
यदि बुद्धि में विदेशी गोबर न भरा हो तो इसे समझने की कोशिश करो –शत्रुघ्न और
विश्वबंधु महाशय !
अब इन महानीचों का गायत्री मन्त्र के विषय में क्या निर्णय है “ हमारे सनातन धर्मी बन्धु
ध्यान देकर सुनें —-
“‘इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रचलित गायत्री मंत्र न केवल छंद शास्त्र की दृष्टि से लंगड़ा और दोग़ला
है, अपितु व्याकरण की दृष्टि से भी अशुद्ध है। यदि वेद ईश्वर की रचना है, यदि गायत्री मंत्र को
ईश्वर ने बनाया है तो यह निरक्षर भट्टाचार्य और वज्रमूर्ख साबित होता है। साधारण संस्कृत जानने
वाला भी ऐसी ग़लतियां नहीं कर सकता जैसी ईश्वर कही जाने वाली काल्पनिक सत्ता ने की हैं।“
आचार्य सियारामदास नैयायिक —-
अरे महामूर्खों ! तुम सबकी संस्कृत व्याकरण के विषय की अल्पज्ञता मै पहले अच्छी तरह दिखला
चुका हूँ और “छन्दः शास्त्र “ के रचयिता श्रीपिंगलाचार्य तथा तुम्हारे चाचा श्रीहलायुध का प्रमाण
भी दे चुका हूँ |
अतः महामंत्र गायत्री छन्दः शास्त्र त्तथा व्याकरण की दृष्टि से परिपूर्ण और शुद्धों को भी
परमशुद्ध करने वाला है |
“ तुम सब महामूर्ख खुद ही लंगड़े ,दोगले ,अशुद्ध और हिजड़े तथा कायर हो |"
इन नीच कुत्तों ने जो यह भौंका है कि—–
“यदि वेद ईश्वर की रचना है, यदि गायत्री मंत्र को ईश्वर ने बनाया है तो यह निरक्षर भट्टाचार्य और
वज्रमूर्ख साबित होता है। साधारण संस्कृत जानने वाला भी ऐसी ग़लतियां नहीं कर सकता जैसी
ईश्वर कही जाने वाली काल्पनिक सत्ता ने की हैं।“
आचार्य सियारामदास नैयायिक —-समाधान ----
भगवान वेद स्वयं परमात्मा के निःश्वास हैं — “ यस्य निःश्वसितम वेदाः “
—जाकी सहज श्वास श्रुति चारी ||
और तुम लोगों का दोगलापन महामूर्खता –ये सब मैंने सप्रमाण साबित कर दी है | इसलिए तुम
सबके सब स्वयं निरक्षर भट्टाचार्य और वज्रमूर्ख सिद्ध हो चुके हो |
तुम जैसे नीच कमीनों को संस्कृत का सामान्य ज्ञान नहीं और चले हो वेदमंत्र गायत्री पर
कलम चलाने |
नीचों कमीनों महामूर्खो स्वयं अपने को विद्वान समझने वालों यदि इस लेख से तुम्हारी खुजली
दूर न हुई हो और कुछ हिम्मत रखते हो तो अपने अपने हाथों से चूड़ियाँ निकालकर सामने आओ
| पिल्लों ! हो सके तो विद्द्वत्संगोष्ठी में आकर मिमियाओ | तुम्हे सनातन धर्म की ऐसी विकट
गर्जना सुनने को मिलेगी कि तुम्हारे पैंट पीले हो जायेंगे | ह्रदय फटकर बाहर आ जायेगा |
तुम सब मूर्ख कल्पना की दुनिया से बाहर निकलो ,हिन्दू धर्म वह वज्र है जिससे
टकरा कर बड़े बड़े पर्वत विदीर्ण हो गए तुम जैसे चूहों की क्या बात ?
>>>>>>जय महाकाल ,जय श्रीराम <<<<<<
>>>>>>आचार्य सियारामदास नैयायिक <<
Mmantron ke liye Vyakaran ki baat karane wale oon Vidwano se poochha Bataya jaye ki Mantron ke liye ye jaroori nahi hai ki oos per Grammer lagoo ho . Prtyaksh Example SHABER MANTRA hai oosmain kisi bhi mantra ka koi arth hi nahi nikal sakta parantu Effective aur Aasan sabse jyada hai.Issliye VAIDIK MANTRON to baat hi alag hai oonhe to SAMAADISHT AVASTHA main hi oochit SAMAJHA ja sakta hai.Khali kitabi gyan aur kisi University ki Upadhi/Certificate dhari hone se nahi samjha ja sakta hai.
Mmantron ke liye Vyakaran ki baat karane wale oon Vidwano se poochha Bataya jaye ki Mantron ke liye ye jaroori nahi hai ki oos per Grammer lagoo ho . Prtyaksh Example SHABER MANTRA hai oosmain kisi bhi mantra ka koi arth hi nahi nikal sakta parantu Effective aur Aasan sabse jyada hai.Issliye VAIDIK MANTRON to baat hi alag hai oonhe to SAMAADISHT AVASTHA main hi oochit SAMAJHA ja sakta hai.Khali kitabi gyan aur kisi University ki Upadhi/Certificate dhari hone se nahi samjha ja sakta hai.
आशा है आप लोगों ने नीचे शशांक पाण्डेय जी की कमेण्ट पढ़ लिया होगा ।
भिन्नपादा और अभिन्नपादा गायत्री में क्या अंतर है ?
और कैसे गायत्री जप करना चाहिये?
वाह क्या बात है अंग अंग से खुजली मिटादी आपने तो आचार्य श्री जय हो जय हो जय हो👌👍🙏
Post a Comment