सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Thursday, July 8, 2010
Charity परमेश्वर की नज़र में सच्चा दानी कौन होता है ? -Anwer Jamal
परमेश्वर की नज़र में सच्चा दानी कौन होता है ? वह अपनी वाणी में स्वयं उनकी पहचान बताते हुए कहता है -
और (नेक लोग) ईश्वर के प्रेम में खाना खिलाते हैं मिस्कीन, यतीम और क़ैदियों को। (वे कहते हैं कि) हम तो तुम्हें केवल परमेश्वर के लिए खिलाते हैं न तुमसे बदला चाहते हैं न शुक्रगुज़ारी। बेशक हम अपने रब से उस दिन का ख़ौफ़ करते हैं जो उदासी और सख्ती वाला होगा। -अद्-दहर,8-10
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आदमी किसी को कुछ देता है तो वह बदले में अपने लिए कुछ ज़रूर चाहता है। कभी तो वह समाज में अपनी ‘छवि निर्माण‘ के लिए लोगों की मदद करता है और कभी अपने मन की संतुष्टि के लिए ऐसा करता है। लोग उसकी वाहवाही करते हैं और ज़रूरतमंद उनके शुक्रगुज़ार होते हैं तो वे भी अपनी मदद में आगे और आगे बढ़ते चले जाते हैं और अगर उन्हें अपनी मदद के बदले में लोगों से ये चीज़ें नहीं मिलतीं तो उनका दिल मुरझा जाता है। उन्हें लगता है कि शायद उन्होंने मदद के लिए ‘सही आदमी‘ चुनने में ग़लती की है। जिस ऐलान के साथ वे पहले किसी की मदद करते हैं, फिर वैसा ही ऐलान करके वे बताते हैं कि अमुक आदमी ‘ग़लत‘ निकला। ऐसा करते हुए वे यह भी नहीं सोचते कि उनके लेख से किसी खुददार के मान को ठेस लग सकती है और जो आदमी पहले ही ‘आत्महत्या के विरूद्ध‘ जंग लड़ रहा हो, वह अपना हौसला हार भी सकता है।
ये लोग अपनी बड़ाई में जीते हैं। शायद इन्हें बुरा लगता है कि ‘मदद‘ के लिए गुहार लगाने वाला उनके साथ खुददारी और बराबरी के साथ बात करने की जुर्रत कैसे कर सकता है ?
दान देने वाला दयालु होता है और जहां दया होती है वहां क्षमा भी ज़रूर होती है। मदद पाने वाले से अगर कोई नामुनासिब बात सरज़द भी हो जाए तब भी उसे क्षमा किया जाना चाहिए। कड़वे हालात में उसके वचन भी कड़वे हो जाएं तो क्या ताज्जुब ?
इसके विपरीत जो लोग अपने रब के सच्चे बन्दे हैं वे अपना बदला भी अपने मालिक से ही चाहते हैं। बदले के दिन पर उनका यक़ीन उन्हें लोगों की तरफ़ से बेनियाज़ कर देता है। वे लोगों की मदद सिर्फ़ इसलिए करते हैं कि मालिक का हुक्म कि ज़रूरतमंदों की मदद की जाए। मालिक ने उनके माल में ज़रूरतमंदों का हक़ मुक़र्रर किया है और वे लोगों को उनका हक़ पहुंचाते हैं। इसके बदले में लोगों से शुक्रगुज़ारी तक नहीं चाहते। वास्तव में अपने रब के नज़्दीक यही लोग नेक और मददगार हैं। यही लोग सच्चे दानी हैं।
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39 comments:
बेहतरीन लेख अनवर साहब! बहुत ही ज़बरदस्त!!!!!!!! एक-एक लफ्ज़ मायनेखेज़ है..... बहुत खूब!
कुछ पाने की नियत से की गई मदद इंसान के अन्दर अपनी बड़ाई और मैं पैदा करती है. और बड़ाई या मैं, इंसान की शैतान से भी बड़ी दुश्मन है.
बेहतरीन लेख अनवर साहब! बहुत ही ज़बरदस्त!!!!!!!! एक-एक लफ्ज़ मायनेखेज़ है..... बहुत खूब!
कुछ पाने की नियत से की गई मदद इंसान के अन्दर अपनी बड़ाई और मैं पैदा करती है. और बड़ाई या मैं, इंसान की शैतान से भी बड़ी दुश्मन है.
Hi Anwer, you have a very good blog that the main thing a lot of interesting and beautiful posts! hope u go for this website to increase visitor.
आपने बिल्कुल ठीक लिखा अनवर भाई । मदद तो ऐसे होना चाहिए कि एक हाथ दे तो दूसरे को खबर न हो पर ये तभी संभव है जब आदमी इस नेक काम का फल परलोक के लिए छोड़ दे पर जिस आदमी का परलोक में विश्वास ही नही है वह तो फल की तमन्ना भी यहीं मिलने की करता है
वैसे हमारा मानना है कि किसी की मदद निस्वार्थ भावना से करनी चाहिए
कमज़र्फ से मदद नहीं लेनी चहिये, क्यूंकि वोह जितनी मदद करेगा नहीं उतनी खुद की बड़ाई करेगा. मौला अली(अ) का कौल है. मदद एक हाथ से करो ओर ऐसे की दुसरे हाथ को खबर ना हो. मदद हम करते हैं, मदद लेने वाला भी जानता है और अल्लाह भी जानता है. अब किसी और का जान ना क्या ज़रूरी है? अगर हाँ तो यह मदद नहीं फरेब है.
सतीश जी की नजरः
दान देने वाला दयालु होता है और जहां दया होती है वहां क्षमा भी ज़रूर होती है। मदद पाने वाले से अगर कोई नामुनासिब बात सरज़द भी हो जाए तब भी उसे क्षमा किया जाना चाहिए। कड़वे हालात में उसके वचन भी कड़वे हो जाएं तो क्या ताज्जुब ?
nice post
धीरेन्द्र कपाडिया जी मदद के बदले ग़ुलामी का ख्याल , मुनासिब नहीं.
मदद तो ऐसे होना चाहिए कि एक हाथ दे तो दूसरे को खबर न हो
कुछ पाने की नियत से की गई मदद इंसान के अन्दर अपनी बड़ाई और मैं पैदा करती है
किसी की मदद निस्वार्थ भावना से करनी चाहिए
आदमी किसी को कुछ देता है तो वह बदले में अपने लिए कुछ ज़रूर चाहता है। कभी तो वह समाज में अपनी ‘छवि निर्माण‘ के लिए लोगों की मदद करता है
लोग अपनी बड़ाई में जीते हैं। शायद इन्हें बुरा लगता है कि ‘मदद‘ के लिए गुहार लगाने वाला उनके साथ खुददारी और बराबरी के साथ बात करने की जुर्रत कैसे कर सकता है ?
आदमी किसी को कुछ देता है तो वह बदले में अपने लिए कुछ ज़रूर चाहता है। कभी तो वह समाज में अपनी ‘छवि निर्माण‘ के लिए लोगों की मदद करता है और कभी अपने मन की संतुष्टि के लिए ऐसा करता है। लोग उसकी वाहवाही करते हैं और ज़रूरतमंद उनके शुक्रगुज़ार होते हैं तो वे भी अपनी मदद में आगे और आगे बढ़ते चले जाते हैं और अगर उन्हें अपनी मदद के बदले में लोगों से ये चीज़ें नहीं मिलतीं तो उनका दिल मुरझा जाता है। उन्हें लगता है कि शायद उन्होंने मदद के लिए ‘सही आदमी‘ चुनने में ग़लती की है।
जो लोग अपने रब के सच्चे बन्दे हैं वे अपना बदला भी अपने मालिक से ही चाहते हैं। बदले के दिन पर उनका यक़ीन उन्हें लोगों की तरफ़ से बेनियाज़ कर देता है। वे लोगों की मदद सिर्फ़ इसलिए करते हैं कि मालिक का हुक्म कि ज़रूरतमंदों की मदद की जाए। मालिक ने उनके माल में ज़रूरतमंदों का हक़ मुक़र्रर किया है और वे लोगों को उनका हक़ पहुंचाते हैं। इसके बदले में लोगों से शुक्रगुज़ारी तक नहीं चाहते। वास्तव में अपने रब के नज़्दीक यही लोग नेक और मददगार हैं। यही लोग सच्चे दानी हैं।
आदमी किसी को कुछ देता है तो वह बदले में अपने लिए कुछ ज़रूर चाहता है। कभी तो वह समाज में अपनी ‘छवि निर्माण‘ के लिए लोगों की मदद करता है और कभी अपने मन की संतुष्टि के लिए ऐसा करता है। लोग उसकी वाहवाही करते हैं और ज़रूरतमंद उनके शुक्रगुज़ार होते हैं तो वे भी अपनी मदद में आगे और आगे बढ़ते चले जाते हैं और अगर उन्हें अपनी मदद के बदले में लोगों से ये चीज़ें नहीं मिलतीं तो उनका दिल मुरझा जाता है। उन्हें लगता है कि शायद उन्होंने मदद के लिए ‘सही आदमी‘ चुनने में ग़लती की है। जिस ऐलान के साथ वे पहले किसी की मदद करते हैं, फिर वैसा ही ऐलान करके वे बताते हैं कि अमुक आदमी ‘ग़लत‘ निकला। ऐसा करते हुए वे यह भी नहीं सोचते कि उनके लेख से किसी खुददार के मान को ठेस लग सकती है
कुछ पाने की नियत से की गई मदद इंसान के अन्दर अपनी बड़ाई और मैं पैदा करती है. और बड़ाई या मैं, इंसान की शैतान से भी बड़ी दुश्मन है.
किसी की मदद निस्वार्थ भावना से करनी चाहिए
बेहतरीन लेख
दान की महिमा महत्वपूर्ण है, इस्लाम में जक़ात फ़र्ज़ है तो हिन्दुत्व में पुण्यकर्म्। बुद्धिजीवी इसे कहते हैं जरूरतमंद की मदद!!
इस बात को सभी मानते है कि दान देकर जताना नहिं चाहिए,दाएं हाथ से दो तो बाएं हाथ को खबर भी न हो। दान देकर शुक्रगुजारी की अपेक्षा भी निर्थक है। लेकिन दाता भले न चाहे, लेने वाले को अहसान फ़रामोश तो न होना चाहिए, जब वह अहसानफ़रामोश बनता है तो, न केवल दाता का दान देने का हौसला पस्त होता है, बल्कि दान का महत्व भी घट जाता है।
जैसे नमाज जक़ात आदि हम पर फ़र्ज़ है,और जब हम इन्हें अदा कर रहे हो, तब उसे महिमामय बनाकर पेश करते है,क्यो? क्योकि उसे देखकर अन्य लोग भी प्रोत्साहित हो। और ऐसे फ़र्ज़वान की प्रशंसा भी करते है,ताकि उसका व अन्य का हौसला बुलंद रहे। भले उसका फ़र्ज़ था, पर मालिक ने उसे मुक़रर तो किया है, अपनी रहमतों के लिये। साथ ही इन अच्छे कार्यो में कोई बाधक बनता है, दान के महत्व को खण्डित करने का प्रयास करता है वह भी दोष का भागी बनता है। ईष्या व द्वेष ग्रसित होकर जो पुण्य कर्म को छोटा व निरुत्साहित करता है,वह भी गुनाह है।मालिक की आज्ञानुसार नेकीओं के प्रसार को अवरूद्ध करना नफ़र्मानी है।
पानी बढे जो नाव में, घर में बढे जो दाम।
दोनों हाथ उडेलिये, यही अक़्ल का काम॥
मदद करके बदले मैं कुछ चाहना , या मदद का इस्तेमाल छवि निर्माण के लिए करना ,मदद नहीं सौदा है. मदद किसी इंसान की अल्लाह की ख़ुशी के लिए करो. मदद लेने वाला कुछ दे या ना दे इस से क्या फर्क पड़ता है? देखने वाला भी अल्लाह है और सिला देने वाला भी अल्लाह. मैंने अपने ब्लॉग पे उसी समय लिखा था "
यकीन जानिए इन झूटी शान के शौक़ीन लोगों की मदद जिस ने भी आज तक ली है, उसकी इज्ज़त इन्ही के हाथों नीलाम भी हुई है... http://aqyouth.blogspot.com/2010/07/blog-post.html
@ धीरेन्द्र कपाडिया,
@ भाई अनवर जमाल,
आपके ब्लाग पर आज कुछ नए प्रश्न करने वाले नज़र आ रहे हैं , कही यह सब एक ही आदमी तो नहीं ?
अच्छा लगा कि आपकी भी ऑंखें जल्दी खुल गयीं..
मेरा यह दावा है अनवर भाई कि कोई आदमी अगर बेईमानी से सिर्फ पापुलर बनाने का नाटक कर रहा है तो उसे लिखने दीजिये, हज़ारों विद्वान पढ़ रहे हैं अगर ध्यान से किसी का लिखा पढ़ लें तो उसके बारे में जानते देर नहीं लगेगी, चाहे सतीश सक्सेना हों आया अनवर जमाल !
बेईमान थोड़ी देर छिप पायेगा है देर सबेर लोगों को उसका पता चल ही जाएगा ....
हाँ पिछली तकलीफ से कहीं ज्यादा इस बार तकलीफ हुई, आपकी समझ ... और भरोसा जानकर..... !
आखिरी लाइन ....
ईश्वर से प्रार्थना है कि आगे ऐसे लोग न मिलें .....
खैर यह हमारे आपके बीच की व्यक्तिगत शिकवे शिकायत हैं, आपको एक शेर अर्ज़ है
"दुआएं दीजिये बीमार के तवस्सुम को
मजाज़ पूछने वाले की आबरू रख ली
मेरे कलाम से बेहतर है, मेरी खामोशी
न जाने कितने सवालों की आबरू रख ली"
अनम कैसी है ?
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सही बात,
हालांकि मैं नहीं मानता कि इंसान का किसी दूसरी ताकत के प्रति कोई कर्ज या फर्ज है... फिर भी आपके इस आलेख की मूल भावना से सहमत हूँ।
असली नेक, मददगार और दरियादिल इंसान वही है जो बदले में बिना कुछ ( प्रशंसा, शुक्रगुजारी, मदद लेने वाले का कृतज्ञताज्ञाप या झुका सर-स्वर) चाहे मदद करता है किसी की... पर ऐसे लोग न तो आपको मिलेंगे और न ही दिखेंगे...उनके बांये हाथ को तक खबर नहीं रहती कि दांये हाथ ने किस की मदद कर दी है!
दुर्भाग्य वश हमारे मुल्क में तो ऐसे 'छोटों' की भरमार है जो किसी धर्मस्थल, सार्वजनिक स्थल, व्यक्ति या प्रयोजन को मानें XX रूपयों की यदि मदद करते हैं तो तो उसके तीन गुने रूपये व समय अपनी दी गई मदद का ढिंढोरा पीटने, शिलालेख लगाने व तस्वीरें छपवाने में लगा देते हैं।
एक जगह और लिखा है फिर दोहरा देता हूँ...
हम सब अपना एक मूल स्वभाव लेकर पैदा होते हैं...एक छोटे दिल व संकुचित दिमाग का आदमी कभी दरियादिल नहीं हो सकता...और लाख धोखे खा ले या नसीहतें ले ले... बड़े दिल वाला दरियादिल मानवश्रेष्ठ भी अपना स्वभाव कभी नहीं बदलता...यह मूल स्वभाव कुदरत देती है हमको...कोई इसे बदल या सिखा नहीं सकता!
आभार!
...
अहंकार, शक और पकडे जाने पे चापलूसी ,यह झूठे की पहचान हुआ करती है.
एक सीधी-सादी पोस्ट थी. बहुत ईमानदारी से लिखी गई. कुछ टिप्पणियों से बातें सामने आ गई हैं. मदद करनेवाला अपनी ख़ुशी के लिए मदद करता है. सवाल एक ही है. वह अपनी ख़ुशी को कैसे देखता है? कहाँ देखता है? उसकी ख़ुशी क्या इस बात में है कि वह जगह-जगह लोगों को बताता फिरे कि मैंने फलाने की मदद कर दी? या फिर इस बात में कि जिसे मदद मिले वह रोज उसे धन्यवाद दे? या फिर इस बात में कि मदद करने वाले की ईमेज में बढ़ोतरी हुई है?
शर्म की बात होती है तब जब मदद करने वाले मदद को एहसान का दर्जा दे देते हैं. जब उनके मन में यह बात आ जाती है कि उन्होंने मदद कर के सामने वाले के ऊपर एहसान कर दिया है. छवि निर्माण का ऐसा कार्यक्रम क्यों? मदद करने वाला क्या चुनाव लड़ना चाहता है जो उन नेताओं की तरह बातें कर रहा है जो एक सर्दी में कम्बल बाँटते हैं तो उसका जिक्र चार सर्दियों तक करते हैं?
बहुत शर्म की बात है. एक बात कहता हूँ, ईमेज बनाना कभी भी व्यसन नहीं होना चाहिए लेकिन कुछ लोगों के लिए अब यह व्यसन हो गया है.
कहते हो ग़म से परेशान हुए जाते हैं
ये नहीं कहते कि इंसान हुए जाते हैं
अनवर जमाल साहब, मैं पहली बार आपके ब्लॉग पर टिपण्णी कर रहा हूँ. हो सकता है इसे भी उसी इंसान की टिप्पणी करार दे दी जाए जो शायद अभी तक इस पोस्ट पर टिप्पणी करने नहीं आया.
jo aek haath se de or dusre haath ko bhi praa naa chle yhi achchaa daan he or jisko daan dena he uski tlaash bhi khud hi kre . akhtar khan akela kota rajsthan
अहंकार, शक और पकडे जाने पे चापलूसी ,यह झूठे की पहचान हुआ करती है
शर्म की बात होती है तब जब मदद करने वाले मदद को एहसान का दर्जा दे देते हैं. जब उनके मन में यह बात आ जाती है कि उन्होंने मदद कर के सामने वाले के ऊपर एहसान कर दिया है. छवि निर्माण का ऐसा कार्यक्रम क्यों? मदद करने वाला क्या चुनाव लड़ना चाहता है जो उन नेताओं की तरह बातें कर रहा है जो एक सर्दी में कम्बल बाँटते हैं तो उसका जिक्र चार सर्दियों तक करते हैं?
अहंकार, शक और पकडे जाने पे चापलूसी ,यह झूठे की पहचान हुआ करती है
मदद करनेवाला अपनी ख़ुशी के लिए मदद करता है. सवाल एक ही है. वह अपनी ख़ुशी को कैसे देखता है? कहाँ देखता है? उसकी ख़ुशी क्या इस बात में है कि वह जगह-जगह लोगों को बताता फिरे कि मैंने फलाने की मदद कर दी? या फिर इस बात में कि जिसे मदद मिले वह रोज उसे धन्यवाद दे? या फिर इस बात में कि मदद करने वाले की ईमेज में बढ़ोतरी हुई है?
शर्म की बात होती है तब जब मदद करने वाले मदद को एहसान का दर्जा दे देते हैं. जब उनके मन में यह बात आ जाती है कि उन्होंने मदद कर के सामने वाले के ऊपर एहसान कर दिया है. छवि निर्माण का ऐसा कार्यक्रम क्यों? मदद करने वाला क्या चुनाव लड़ना चाहता है जो उन नेताओं की तरह बातें कर रहा है जो एक सर्दी में कम्बल बाँटते हैं तो उसका जिक्र चार सर्दियों तक करते हैं?
बहुत शर्म की बात है. एक बात कहता हूँ, ईमेज बनाना कभी भी व्यसन नहीं होना चाहिए लेकिन कुछ लोगों के लिए अब यह व्यसन हो गया है.
anwar sahab mumkin hai kuch masalki matbhed ham aap me hon lekin aapne jis hausle aur imaan taqwe k saath is blog ko chala rahe hain main yahi kahunga JAZAK ALLAH KHAIR1
aaj imaandaar logon ka jeena aise hi makkar aur jhoothe madadgaaron ne haram kar rakha hai.pahli bat to ye hai ki aise jhoothi shan walon k paas jana hi na jaya jaye aur gar we aayen to muskurakar ehtaram kijiye ekhlaq dekhao lekin madad na lo.
@ आदरणीय सतीश सक्सेना जी ! गलतियाँ केवल फ़रिश्तों से नहीं होतीं । गलती न हो , यह संभव नहीं है । गलतियों का अहसास कर लिया जाए , उन्हें सुधार लिया जाए यह संभव है । मेरे लेख से अगर किसी 'आत्महत्या के विरुद्ध' लड़ने वाले की गरिमा की रक्षा होती है तो यकीनन उसका संबल बढ़ेगा । वह हालात से बेहतर तौर पर लड़ सकेगा । जीवन की डगर पर किसी के लड़खड़ाते हुए कदमों को सहारा देना मेरी प्राथमिकता है , इसके लिए मैं अपने किसी ख़ासतरीन और शफ़ीक़ बुज़ुर्ग को भी नाराज़ कर सकता हूँ । अव्वल तो 'प्यार लुटाने वाले नाराज़ ही कब होते हैं ? ब्लागिँग मेरे लिए एक पाक मिशन है । अनम बदस्तूर बीमार है । 102 बुख़ार रहता है जो किसी पैथी की किसी दवा से नहीं जाता । नेचुरोपैथी से थोड़ी देर के लिए आराम आ जाता है । ज़ख़्म लगातार ठीक हो रहा है । अल्लाह का शुक्र है । रात दिन उसी की तीमारदारी में गुज़र रहे हैं ।
@ T.M.ZEYAUL HAQ ! आमद के लिए शुक्रिया ! मसलक जरूरी हैं और मतभेद भी फ़ितरी हैं । तक़वा और इख़लास हों तो कोई हरज है , न ज़रर ।
@ आदरणीय सतीश सक्सेना जी ! आपने धीरेन्द्र कपाडिया का नाम मेरे नाम के साथ क्यों लिया ?
इसके विपरीत जो लोग अपने रब के सच्चे बन्दे हैं वे अपना बदला भी अपने मालिक से ही चाहते हैं। बदले के दिन पर उनका यक़ीन उन्हें लोगों की तरफ़ से बेनियाज़ कर देता है। वे लोगों की मदद सिर्फ़ इसलिए करते हैं कि मालिक का हुक्म कि ज़रूरतमंदों की मदद की जाए। मालिक ने उनके माल में ज़रूरतमंदों का हक़ मुक़र्रर किया है और वे लोगों को उनका हक़ पहुंचाते हैं। इसके बदले में लोगों से शुक्रगुज़ारी तक नहीं चाहते। वास्तव में अपने रब के नज़्दीक यही लोग नेक और मददगार हैं। यही लोग सच्चे दानी हैं।
बहुत ही मार्मिक और ऊपर लिखा हुआ लेख का सार तत्व। लेकिन एक बात है यदि कोई परमार्थ मे भी अपना स्वार्थ ढूंढ ले तो क्या बुराई है। वास्तव मे मानव स्वार्थ मे परमार्थ ढूंढता है।
अपनी ‘छवि निर्माण‘ के लिए लोगों की मदद करता है.....
अपने कंटेंट में यह पोस्ट निसंदेह अच्छी है.लेकिन एक जगह पर आये मेरी तरफ संकेत और किन्हीं कपाडिया के कमेन्ट के कारण पोस्ट का मूल स्वर लुप्त हो गया है.जिस से न चाह कर भी पोस्ट को लोग सतीश जी के विरुद्ध समझ बैठे हैं, जबकि मुझे नहीं लगता कि आपकी ऐसी मंशा रही होगी.
सतीश जी से मेरे सम्बन्ध सिर्फ ब्लागर के नहीं हैं, एक अग्रज का स्नेह उनसे मिलता रहा है.
हाँ ! इधर किन्ही गलत फहमियों के कारण वह कुछ खफा खफा से ज़रूर हैं. यह खफगी वैसी है जैसे किसी परिवार के आपसी सदस्यों में रहती है लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं कि स्नेह और सम्मान की पारस्परिकता में कमी आए !
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