सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Tuesday, December 17, 2013
होमोसेक्सुअलिटी, एक मनोवैज्ञानिक विकृति Homosexuality and Indian Culture
एक लेख के अनुसार भारत में लगभग 1 करोड़ समलैंगिक हैं। इनमें से कुछ लोग अपने अधिकार के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। ऊँची तालीम पाए हुए कुछ लोग इनकी वकालत कर रहे हैं। इनमें स्वामी अग्निवेश से लेकर आमिर ख़ान जैसी हस्तियों के नाम हैं। जबकि समलैंगिक संबंध आर्य समाज की नज़र में भी अपराध हैं और इसलाम में भी। सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मणिशंकर अय्यर और जेडीयू सांसद शिवानंद तिवारी जैसी सियासी हस्तियां समलैंगिकों को उनका हक़ दिलाने के लिए यानि उन्हें अपनी पसंद के मुताबिक़ होमोसेक्सुअल रिलेशन बनाने का हक़ दिलाने के लिए भारत के क़ानून में बदलाव करने की मंशा जता चुकी हैं। जबकि होमोसेक्सुअलिटी ईसाई धर्म में भी पाप और जुर्म है। उनकी राय से सहमति जताने वाले बहुत से नेताओं में हिन्दू और सिख आदि धर्म के मानने वाले भी है। इन धर्मों में इस कर्म को कुकर्म ही माना गया है।
इन सभी लोगों के धर्म जिस काम को पाप और जुर्म घोषित कर रहे हैं। उस काम को ये लोग क़ानूनी मान्यता दिलाने के लिए कोशिश क्यों कर रहे हैं?
वजह मानवाधिकार बताई जाती है। वजह चाहे मानवाधिकार हों या फिर कोई और लेकिन इतना तो तय है कि ये सब लोग अपने धर्म की अवमानना कर रहे हैं। इंसान के लिए जायज़ और नाजायज़ निर्धारित करने का हक़ केवल उसके क्रिएटर को है क्योंकि वही उसकी सच्ची ज़रूरतों को जानने वाला है और यह भी कि कौन का काम उसके लिए फ़ायदेमन्द है और कौन काम उसके लिए नुक्सानदेह है!
हर ज़माने में उस मालिक ने हर भाषा में इंसान को यह बात खोल खोल कर बताई है और समाज के दबंग लोगों ने बार बार उस मालिक के बताए गए अवैध कामों को वैध किया है। इसी की एक मिसाल आज समलैंगिक संबंधों को क़ानूनी मान्यता दिलाने की कोशिश में देखी जा सकती है। जो लोग इंसान के लिए या ख़ुद अपने लिए जायज़ और नाजायज़ कामों की सूची बदलते हैं वे एक ऐसा काम करते जिसे करने का अधिकार ईश्वर-अल्लाह-गॉड ने अपनी वाणी में, किसी भी भाषा में कभी किसी इंसान को नहीं दिया। इसलाम की जायज़-नाजायज़ की सूची बदलने वाला अपनी मुजरिमाना हरकत की वजह से इसलाम से बाहर निकल जाता है। आज यह बात सब जानते हैं। इसलाम में ऐसा करने वाले की हैसियत और उसकी शोहरत नहीं देखी जाती। किसी व्यक्ति की ख़ुशी के लिए एक विकृत विचार को मान्यता देने का मतलब धर्म के वास्तविक स्वरूप को विकृत करना है। यह नहीं होना चाहिए।
जिस बात पर सभी धर्म एकमत हैं, उसे तो हम सभी को एकमत होकर मानना चाहिए।
एक दूसरी बात यह भी अहम है कि संसद आदि में जो नेता आते हैं वे अपनी मर्ज़ी से अपनी पसंद के काम करने के लिए नहीं आते बल्कि उन्हें जनता चुनती है और उनका काम जनता का प्रतिनिधित्व करना होता है।
समलैंगिकता के हिमायती चंद लोगों के सिवा 1 अरब 26 करोड़ भारतीय जनता इस घिनौने संबंध को बदस्तूर अपराध की सूची में ही देखना चाहती है। ऐसे में जनता के चुने हुए नेता भारतीय जनता के बहुमत का प्रतिनिधित्व करने के बजाय उसके खि़लाफ़ क्यों जा रहे हैं?
अमेरिका की पसंद के कारण देश की जनता के मत और संस्कृति को ठुकराया जा रहा है। हक़ीक़त यह है कि जिस (कु)कर्म को अमेरिका आदि देश मान्यता दे चुके हैं। उसे अपराध की श्रेणी में रखने का साहस कौन करे ?
देश की संस्कृति की रक्षा के लिए हुंकारने वाले दल और नेता भी अमेरिका की पसंद जानते हैं और वे उसकी कृपा पाने के लिए एक लंबे से उसकी चिरौरी कर रहे हैं। उन्हें मालूम है कि जो दल और नेता ही नहीं बल्कि देश तक उसकी पसंद के (कु)कर्म को मान्यता नहीं देता। वह उस देश का इतिहास और भूगोल ही नहीं अर्थशास्त्र तक बदल देता है और सबके सामने वह लगातार बदल ही रहा है।
यहां एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि भारतीय संस्कृति की पवित्रता और महानता के गुण गाए जाते हैं और उसे वेस्टर्न कल्चर से ऊँचा माना जाता है। यहाँ तक दावे किए जाते हैं कि आज सारा विश्व भारत की ओर देख रहा है अर्थात विश्व भारत की महान संस्कृति का अनुकरण करने के लिए तत्पर है। अगर वाक़ई ऐसा है तो फिर हमें भारतीय संस्कृति की रक्षा करनी चाहिए न कि उसे बदल देना चाहिए। भारतीय संस्कृति को वेस्टर्न कल्चर में बदल देने के बाद विश्व भारत की ओर भला क्यों देखेगा ?
अपनी विशिष्टता को अपने ही हाथों खो देने का उचित कारण कौन बता सकता है ?
कोई भी नहीं!
हाँ, कोई कह सकता है कि ज़ुल्म किसी के साथ भी नहीं होना चाहिए। समलैंगिकता प्रकृति की देन है। कुछ लोग जन्मजात समलैंगिक प्रकृति वाले होते हैं यानि वे पैदाईशी तौर पर समलैंगिक संबंधों का रूझान लेकर पैदा होते हैं। इसलिए उन्हें उनकी पसंद का काम करने से रोकना उनके साथ नाइंसाफ़ी है।
पहली बात तो यह है कि वैज्ञानिक अभी इंसान के दिमाग़, मन और डीएनए को पूरी तरह नहीं जान पाए हैं। मनोविज्ञान के क्षेत्र में उसकी जानकारी अभी बहुत कम है। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि कुछ लोग पैदाईशी तौर पर समलैंगिक होते हैं और समलैंगिकता प्रकृति की देन है। ...लेकिन अगर इस दावे को सही मान लिया जाए तो कुछ लोग, सब नहीं बल्कि केवल कुछ लोग जन्मजात समलैंगिक रूझान वाले होते हैं तो फिर यह सच भी वैज्ञानिक ही बताते हैं कि कुछ लोग अपराध का रूझान लेकर भी पैदा होते हैं, तो क्या उन्हें अपराध करने से रोकना उनके साथ नाइंसाफ़ी मानी जाएगी।
कुछ लोग पैदाईशी तौर पर अंधे पैदा होते हैं और इसी तरह दूसरी बहुत सी जिस्मानी विकृतियां लेकर भी लोग पैदा होते हैं। जिन्हें दूर करने की कोशिश में ही विज्ञान ने वह उन्नति की है जिसे हम आज देख रहे हैं। शारीरिक रूप् से अपंग व्यक्ति को आज फ़िज़िकली चैलेन्ज का सामना करने वाले व्यक्ति के रूप में देखा जाता है। ये चैलेन्ज सिर्फ़ शारीरिक ही नहीं होते बल्कि मनोवैज्ञानिक भी होते हैं। पैदाईशी तौर पर समलैंगिकता का रूझान रखने वाले व्यक्तियों को सायकोलॉजिकल चैलेन्ज का सामना करने वाले व्यक्तियों के रूप में देखा जाना चाहिए। इससे हमें उनकी मनोवैज्ञानिक विकृतियों का समाधान तलाश करने का मौक़ा मिलेगा। मनोवैज्ञानिक विकृतियों को क़ानूनी मान्यता देना विज्ञान की चेतना के भी खि़लाफ़ है।आज अंधे को आंख दी जा सकती है और लंगड़े को टांग दी जा सकती है तो बीमार मन को सेहतमंद विचारधारा क्यों नहीं दी जा सकती ?
इन बिन्दुओं पर विचार किया जाए तो समलैंगिक व्यक्ति भी हम सब की तरह नॉर्मल ज़िन्दगी जी सकते हैं और प्राकृतिक परिवार का लुत्फ़ उठा सकते हैं। इस तरह वे भी एक सेहतमंद समाज के निर्माण में अपनी भूमिका अदा कर पाएंगे।
इसी मक़ाम पर आकर हमें ईश्वर-अल्लाह-गॉड की ज़रूरत महसूस होती है। वही मालिक हमें प्रकृति और विकृति में अंतर बता सकता है क्योंकि मनुष्य की संरचना को सही रूप में जानने वाला बस वही एक है। जो आदमी उसे नहीं मानता वह ख़ुद को कभी नहीं जान सकता।
क्रिएटर के स्वाभाविक अधिकार को न मानकर आधुनिक पश्चिमी सभ्यता ने लोगों को आत्म-विस्मृति का शाप भोगने पर मजबूर कर दिया है। हमें उन्हें शाप से मुक्ति का उपाय बताना है न कि उनकी ही तरह शापित हो जाना है।
उठो, जागो और वरदान के पात्र बनो!
इन सभी लोगों के धर्म जिस काम को पाप और जुर्म घोषित कर रहे हैं। उस काम को ये लोग क़ानूनी मान्यता दिलाने के लिए कोशिश क्यों कर रहे हैं?
वजह मानवाधिकार बताई जाती है। वजह चाहे मानवाधिकार हों या फिर कोई और लेकिन इतना तो तय है कि ये सब लोग अपने धर्म की अवमानना कर रहे हैं। इंसान के लिए जायज़ और नाजायज़ निर्धारित करने का हक़ केवल उसके क्रिएटर को है क्योंकि वही उसकी सच्ची ज़रूरतों को जानने वाला है और यह भी कि कौन का काम उसके लिए फ़ायदेमन्द है और कौन काम उसके लिए नुक्सानदेह है!
हर ज़माने में उस मालिक ने हर भाषा में इंसान को यह बात खोल खोल कर बताई है और समाज के दबंग लोगों ने बार बार उस मालिक के बताए गए अवैध कामों को वैध किया है। इसी की एक मिसाल आज समलैंगिक संबंधों को क़ानूनी मान्यता दिलाने की कोशिश में देखी जा सकती है। जो लोग इंसान के लिए या ख़ुद अपने लिए जायज़ और नाजायज़ कामों की सूची बदलते हैं वे एक ऐसा काम करते जिसे करने का अधिकार ईश्वर-अल्लाह-गॉड ने अपनी वाणी में, किसी भी भाषा में कभी किसी इंसान को नहीं दिया। इसलाम की जायज़-नाजायज़ की सूची बदलने वाला अपनी मुजरिमाना हरकत की वजह से इसलाम से बाहर निकल जाता है। आज यह बात सब जानते हैं। इसलाम में ऐसा करने वाले की हैसियत और उसकी शोहरत नहीं देखी जाती। किसी व्यक्ति की ख़ुशी के लिए एक विकृत विचार को मान्यता देने का मतलब धर्म के वास्तविक स्वरूप को विकृत करना है। यह नहीं होना चाहिए।
जिस बात पर सभी धर्म एकमत हैं, उसे तो हम सभी को एकमत होकर मानना चाहिए।
एक दूसरी बात यह भी अहम है कि संसद आदि में जो नेता आते हैं वे अपनी मर्ज़ी से अपनी पसंद के काम करने के लिए नहीं आते बल्कि उन्हें जनता चुनती है और उनका काम जनता का प्रतिनिधित्व करना होता है।
समलैंगिकता के हिमायती चंद लोगों के सिवा 1 अरब 26 करोड़ भारतीय जनता इस घिनौने संबंध को बदस्तूर अपराध की सूची में ही देखना चाहती है। ऐसे में जनता के चुने हुए नेता भारतीय जनता के बहुमत का प्रतिनिधित्व करने के बजाय उसके खि़लाफ़ क्यों जा रहे हैं?
अमेरिका की पसंद के कारण देश की जनता के मत और संस्कृति को ठुकराया जा रहा है। हक़ीक़त यह है कि जिस (कु)कर्म को अमेरिका आदि देश मान्यता दे चुके हैं। उसे अपराध की श्रेणी में रखने का साहस कौन करे ?
देश की संस्कृति की रक्षा के लिए हुंकारने वाले दल और नेता भी अमेरिका की पसंद जानते हैं और वे उसकी कृपा पाने के लिए एक लंबे से उसकी चिरौरी कर रहे हैं। उन्हें मालूम है कि जो दल और नेता ही नहीं बल्कि देश तक उसकी पसंद के (कु)कर्म को मान्यता नहीं देता। वह उस देश का इतिहास और भूगोल ही नहीं अर्थशास्त्र तक बदल देता है और सबके सामने वह लगातार बदल ही रहा है।
यहां एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि भारतीय संस्कृति की पवित्रता और महानता के गुण गाए जाते हैं और उसे वेस्टर्न कल्चर से ऊँचा माना जाता है। यहाँ तक दावे किए जाते हैं कि आज सारा विश्व भारत की ओर देख रहा है अर्थात विश्व भारत की महान संस्कृति का अनुकरण करने के लिए तत्पर है। अगर वाक़ई ऐसा है तो फिर हमें भारतीय संस्कृति की रक्षा करनी चाहिए न कि उसे बदल देना चाहिए। भारतीय संस्कृति को वेस्टर्न कल्चर में बदल देने के बाद विश्व भारत की ओर भला क्यों देखेगा ?
अपनी विशिष्टता को अपने ही हाथों खो देने का उचित कारण कौन बता सकता है ?
कोई भी नहीं!
हाँ, कोई कह सकता है कि ज़ुल्म किसी के साथ भी नहीं होना चाहिए। समलैंगिकता प्रकृति की देन है। कुछ लोग जन्मजात समलैंगिक प्रकृति वाले होते हैं यानि वे पैदाईशी तौर पर समलैंगिक संबंधों का रूझान लेकर पैदा होते हैं। इसलिए उन्हें उनकी पसंद का काम करने से रोकना उनके साथ नाइंसाफ़ी है।
पहली बात तो यह है कि वैज्ञानिक अभी इंसान के दिमाग़, मन और डीएनए को पूरी तरह नहीं जान पाए हैं। मनोविज्ञान के क्षेत्र में उसकी जानकारी अभी बहुत कम है। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि कुछ लोग पैदाईशी तौर पर समलैंगिक होते हैं और समलैंगिकता प्रकृति की देन है। ...लेकिन अगर इस दावे को सही मान लिया जाए तो कुछ लोग, सब नहीं बल्कि केवल कुछ लोग जन्मजात समलैंगिक रूझान वाले होते हैं तो फिर यह सच भी वैज्ञानिक ही बताते हैं कि कुछ लोग अपराध का रूझान लेकर भी पैदा होते हैं, तो क्या उन्हें अपराध करने से रोकना उनके साथ नाइंसाफ़ी मानी जाएगी।
कुछ लोग पैदाईशी तौर पर अंधे पैदा होते हैं और इसी तरह दूसरी बहुत सी जिस्मानी विकृतियां लेकर भी लोग पैदा होते हैं। जिन्हें दूर करने की कोशिश में ही विज्ञान ने वह उन्नति की है जिसे हम आज देख रहे हैं। शारीरिक रूप् से अपंग व्यक्ति को आज फ़िज़िकली चैलेन्ज का सामना करने वाले व्यक्ति के रूप में देखा जाता है। ये चैलेन्ज सिर्फ़ शारीरिक ही नहीं होते बल्कि मनोवैज्ञानिक भी होते हैं। पैदाईशी तौर पर समलैंगिकता का रूझान रखने वाले व्यक्तियों को सायकोलॉजिकल चैलेन्ज का सामना करने वाले व्यक्तियों के रूप में देखा जाना चाहिए। इससे हमें उनकी मनोवैज्ञानिक विकृतियों का समाधान तलाश करने का मौक़ा मिलेगा। मनोवैज्ञानिक विकृतियों को क़ानूनी मान्यता देना विज्ञान की चेतना के भी खि़लाफ़ है।आज अंधे को आंख दी जा सकती है और लंगड़े को टांग दी जा सकती है तो बीमार मन को सेहतमंद विचारधारा क्यों नहीं दी जा सकती ?
इन बिन्दुओं पर विचार किया जाए तो समलैंगिक व्यक्ति भी हम सब की तरह नॉर्मल ज़िन्दगी जी सकते हैं और प्राकृतिक परिवार का लुत्फ़ उठा सकते हैं। इस तरह वे भी एक सेहतमंद समाज के निर्माण में अपनी भूमिका अदा कर पाएंगे।
इसी मक़ाम पर आकर हमें ईश्वर-अल्लाह-गॉड की ज़रूरत महसूस होती है। वही मालिक हमें प्रकृति और विकृति में अंतर बता सकता है क्योंकि मनुष्य की संरचना को सही रूप में जानने वाला बस वही एक है। जो आदमी उसे नहीं मानता वह ख़ुद को कभी नहीं जान सकता।
क्रिएटर के स्वाभाविक अधिकार को न मानकर आधुनिक पश्चिमी सभ्यता ने लोगों को आत्म-विस्मृति का शाप भोगने पर मजबूर कर दिया है। हमें उन्हें शाप से मुक्ति का उपाय बताना है न कि उनकी ही तरह शापित हो जाना है।
उठो, जागो और वरदान के पात्र बनो!
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