सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Sunday, February 12, 2012

सृष्टि वृक्ष का मूल परमात्मा है जो कि जगत का सूर्य है Sun & The Spirit

ध्यान करने वाले योगी और साहित्य रचने वाले लेखक परमात्मा शब्द को परमेश्वर के अर्थ में प्रयोग करते आ रहे हैं। ऐसा विवेकानंद जी ने भी किया और दयानंद जी ने भी किया। दुनिया इन्हें संत और महर्षि कहती है। संत और ऋषि कहलाने वाले दूसरे हिंदू विद्वानों ने भी यही ग़लती की है। हिंदू समाज में यह ग़लती आम तौर पर की जाती है। इस तरह अन्जाने में उन्होंने एक सृष्टि को परम पूज्य सृष्टा समझ लिया है और वे परमेश्वर के बजाय परमात्मा की उपासना करने लगे। इन्हें ईश्वर के वास्तविक स्वरूप की पहचान होती तो ये रचयिता की जगह उसकी रचना की उपासना न करते।

बाइबिल नया नियम में परमात्मा को पवित्रात्मा कह कर पुकारा गया है (लूका 3,22)। ईसाई जानते हैं कि यह परमेश्वर से अलग कुछ है लेकिन वह क्या है और कौन है ?, इसे वे भी न समझ पाए। उसकी महिमा देखकर उन्होंने उसे ईश्वर के तुल्य ही मान लिया और इस तरह वे भी शिर्क करने लगे।


आत्मा के रहस्य को न जानने की वजह से ही एक तरफ़ तो परमात्मा की पूजा-उपासना शुरू हो गई और दूसरी तरफ़ लौकिक सूर्य को पूजा जाने लगा।
‘सूर्य आत्मा जगतस्थुषश्च‘ ऋग्वेद 1,125,1 में ‘जगत की आत्मा‘ को सूर्य बताया गया है लेकिन वहां लोगों ने समझा कि सूर्य को जगत की आत्मा कहा जा रहा है।
हक़ीक़त यह है कि जैसे इस सौर मंडल का आधार सूर्य है। ऐसे ही इस सारी सृष्टि का आधार परमात्मा है। गायत्री मंत्र में इसी सूर्य को वरण करने के लिए कहा गया है।
‘मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः‘ ऋग्वेद 5,81,1 में ‘देवस्य सविता‘ अर्थात ‘परमेश्वर का सूर्य‘ कहकर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यह सूर्य परमेश्वर नहीं है। यहां सूर्य परमात्मा को कहा गया है। यह परमात्मा ही प्रथम आत्मा है। यही परमात्मा आत्मा है। आत्माएं बहुत सारी नहीं हैं। एक ही आत्मा से सबको जीवन की ऊर्जा निरंतर मिल रही है। सबके शरीर अलग अलग हैं, सबके प्राण अलग अलग हैं लेकिन आत्मा सबकी एक ही है। जो यह देखता है वह ‘सोऽहं‘ और ‘तत्वमसि‘ के भाव से भर जाता है।
परमात्मा और आत्मा तो एक चीज़ के दो नाम हैं। इन्हें अरबी में अलरूह और रूह कहते हैं। प्राण को नफ़्स और शरीर को जिस्म कहते हैं।
आपको यह जानकर हैरत होगी कि पवित्र क़ुरआन में कहीं भी रूह का बहुवचन रूहों शब्द नहीं आया है। सभी जगह रूह को एकवचन के तौर पर ही बयान किया गया है। देखें सूरा सं. 97 ‘सूरा ए क़द्र‘।
जबकि क़ुरआन शरीफ़ में नफ़्स का बहुवचन नुफ़ूस शब्द बहुत बार आया है।
सूफ़ियों ने रूह और नफ़्स की बहुत सूक्ष्म विवेचना की है लेकिन वह सब अरबी, फ़ारसी और उर्दू साहित्य में है। इंग्लिश में भी इस विषय में काफ़ी जानकारी दी गई है लेकिन कुछ जगहों पर बात कुछ से कुछ हो गई है। ऐसे में उन सभी बातों को उनके मूल स्रोतों से मिला कर देखा जाना ज़रूरी है।
परमेश्वर ने परमात्मा को ही परमतत्व बनाया और इसी परमतत्व परमात्मा से ही उसने यह सारी सृष्टि उत्पन्न की है। इस सृष्टि वृक्ष का मूल परमात्मा है जो कि आकाश में है। सृष्टि को इसीलिए एक ऐसा वृक्ष बताया जाता है जिसका मूल ऊपर है। ध्यान और मुराक़बे के ज़रिये आप अपने मूल पर पहुंच सकते हैं जो कि परमात्मा है। वही आपका मूलस्वरूप है। यह परमात्मा ईश्वर के गुणों का प्रतिबिंब है न कि अंश। परमात्मा से एकाकार होना वास्तविक है जबकि ईश्वर से एकाकार हो जाना केवल भासता है, वह केवल अलंकारिक है। इस अंतर को न जानने के कारण ही अद्वैतवाद के दर्शन को समझना मुश्किल हुआ और उसकी बहुत सी व्याख्याएं वुजूद में आ गईं।
मनुष्य जब अपने मूल पर पहुंचता है तो वह ख़ुद को परमात्मा का अंश पाता है जो कि परमेश्वर के गुणों का प्रतिबिंब है। बहुत लोगों को यहां भ्रम हो जाता है कि वे ईश्वर के अंश हैं और अब वे ईश्वर के साथ एकरूप हो गए हैं। यहां आकर लोग ‘अनल हक़‘ और ‘अहं ब्रह्मस्मि‘ कहने लगते हैं, जबकि हक़ीक़त यह है कि ईश्वर अनुपमेय और कल्पनातीत है।
उसके इन्हीं गुणों को दर्शाने के लिए उसे परब्रह्म कहा गया है। परब्रह्म के स्वरूप को कोई तब तक जान नहीं सकता जब तक कि वह परमतत्व को न जान ले।
परमात्मा सृष्टि में ईश्वर की सबसे प्रथम रचना है। यही परम पुरूष है। नासदीय सूक्त (ऋग्वेद) में इसे ‘सृष्टि का अध्यक्ष‘ भी कहा गया है।
सृष्टि का अध्यक्ष 'परम पुरूष' कौन है ?
यह जानने के लिए देखें पं. दुर्गाशंकर सत्यार्थी जी का शोधपूर्ण लेख -

वेद में सरवरे कायनात स. का ज़िक्र है Mohammad in Ved Upanishad & Quran Hadees


14 comments:

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

nice post

मनोज कुमार said...

आपके लेख में बहुत कुछ जानने, सीखने को होता है। तर्क और तथ्य दोनों प्रेरित करते हैं।

Rajesh Kumari said...

bahut achchi jankari mili hai aapki is post me.

Manoj Tiwari said...

You are far away from where general intelligentia of our time is staying and I appreciate it. But you are more far below from where Vivekanand, Dayanand or other Hindu sages reached. You need to learn Hinduism from beginging. Try this too. http://bit.ly/zdTobd

Vinashaay sharma said...

अच्छा लगा,मौलिक रचना ।

Hemant Kumar Dubey said...

आपका लेख पढ़ कर अच्छा लगा|

DR. ANWER JAMAL said...

सत्य के निर्धारण का पैमाना
@ भाई मनोज तिवारी जी! बात हमारे व्यक्तित्व की नहीं है कि हम किससे कम हैं और किससे ज़्यादा हैं ?
आप केवल यह बताएं कि जो बात हम बता रहे हैं वह सही है या ग़लत ?
आप केवल तथ्य देखें यह न देखें कि कौन आदमी कितने मुल्क घूम चुका है और उसके मानने वाले लाखों हैं या केवल दो चार ?
नाम, शोहरत और श्रृद्धालुओं की संख्या सत्य के निर्धारण का कोई पैमाना सिरे से ही नहीं होती।
बड़े भी ग़लती कर सकते हैं और बच्चे भी सही बात बता दिया करते हैं।
ऐसा हमारी दुनिया में अक्सर होता है। बड़ों के बड़प्पन पर इससे कोई आंच नहीं आती।

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति
आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 13-02-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ

Manoj Tiwari said...

जनाब डा अनवर जमाल साहब, हमेशा बच्चे ही मन के सच्चे नहीं होते, कभी कभी कुछ बड़े भी ऐसे हो सकते हैं. अतः मुझे लगता है कि बच्चों के साथ साथ अगर हम विवेकानंद और दयानंद जैसे व्यक्तियों को गलत ठहराने से बचें तो खास हानिकारक नहीं रहेगा. वैसे आप विद्वान हैं, बेहतर समझ सकते हैं. मैं आप जितना विद्वान तो नहीं हूँ लेकिन मुझे आश्चर्य है कि ये लोग ऎसी गलती कैसे कर सकते हैं..? क्योंकि श्रीमदभगवदगीता में कृष्ण यूँ कहते है. 'उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः पर्मात्मेत्युदाह्रतः' ( अध्याय १५ - श्लोक १७) अर्थात 'जिसे परमात्मा कहते हैं उत्तम पुरुष इनसे परे है'

दूसरी बात यह है कि क्या परम पुरुष के अतिरिक्त समय, स्थान और पदार्थ भी स्वतंत्र रूप से अस्तित्व रखते हैं? यदि नहीं तो स्रष्टि उसने अपने आप में से ही तो उत्तपन्न की है ..! उसकी रचना और हमारी रचनाओं में यही तो फर्क है कि उसकी रचना उसी में रहती है और हम अपनी रचनाएँ अपने से अलग देखते हैं. मान लो हम अपनी रचना अपने शरीर में रख पाते जैसे कि मेरे दाहिने हाथ की सबसे छोटी उंगली है तो... आप अँधेरे में मेरी उंगली पकड़ते और पूछते, कौन है? और मैं जवाब देता कि भाई साहब, ये मैं हूँ मनोज तिवारी.

DR. ANWER JAMAL said...

सत्य को जानने के लिए तथ्य पर ध्यान देना और विश्लेषण करना ज़रूरी है
भाई मनोज तिवारी जी !
1. हम व्यक्तियों को ग़लत नहीं ठहरा रहे हैं बल्कि बता रहे हैं कि परमतत्व को समझने में उनसे ग़लती हुई है। ऐसा नहीं है कि हम यह काम पहली बार कर रहे हैं। दयानंद जी आजीवन ख़ुद भी यही करते रहे और दूसरों को भी असत्य के खंडन और सत्य के मंडन की प्रेरणा देते रहे।
आप चाहते हैं कि विवेकानंद जी या दयानंद जी के दार्शनिक विचारों को हम ग़लत न कहें लेकिन दयानंद जी ख़ुद जिंदगी भर अद्वैतवाद का खंडन और त्रैतवाद का मंडन करते रहे। अगर हम इन्हें कुछ न भी कहें तब भी आप इन दोनों के विचार को एक ही समय में सही नहीं मान सकते।
स्वामी दयानंद जी की जीवनी में एक घटना का वर्णन मिलता है कि एक बार उन्होंने एक वेदांती से पूछा कि क्या तुम स्वयं को ईश्वर का अंश मानते हो ?
उसने जवाब दिया कि हां,
तब उन्होंने उससे पूछा कि क्या तुम मानते हो कि ईश्वर का गुण जीवन देना है ?
उसने कहा कि हां,
तब उन्होंने वहां पड़ी एक मरी हुई की तरफ़ इशारा करके कहा कि अगर तुम ईश्वर के अंश हो तो तुम्हारे अंदर ईश्वर के गुण भी होने चाहिएं। अगर ऐसा है तो तुम इस मरी हुई मक्खी को ज़िंदा करके दिखाओ।
तब वह वेदांती चुप रह गया और वहां से चला गया।

अगर दयानंद जी वेदांतियों और अन्य लोगों के विचारों की सत्यता की जांच कर सकते हैं तो कोई कारण नहीं है कि ख़ुद उनके विचारों को परखे बिना ही सत्य मान लिया जाए।
आप को ताज्जुब हो रहा है इस स्तर के विद्वान परमात्मा को पहचानने में ग़लती कैसे कर सकते हैं ?

गीता में परमात्मा के विषय में
2. इस संबंध में आपने गीता के 15वें अध्याय के 17वें श्लोक का ज़िक्र किया है। हम गीता अध्याय 15, श्लोक 16 व 17 का अनुवाद दे रहे हैं जो कि स्वामी प्रभुपाद जी का है-

द्वाविमौ पुरूषो लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।। 16।।
उत्तमः पुरूषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।। 17 ।।

अर्थात जीव दो प्रकार के हैं- च्युत और अच्युत। भौतिक जगत् में प्रत्येक जीव च्युत (क्षर) होता है और आध्यात्मिक जगत् में प्रत्येक जीव अच्युत (अक्षर) कहलाता है।
इन दोनों के अतिरिक्त एक परम पुरूष परमात्मा है, जो साक्षात् अविनाशी भगवान् है और जो तीनों लाकों में प्रवेश करके उनका पालन कर रहा है।

इस कथन के अनुसार परम पुरूष को परमात्मा और परमात्मा को ईश्वर कहा गया है। गीता अध्याय 10, श्लोक 20 में श्री कृष्ण जी स्वयं को ही पमात्मा बता रहे हैं-

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।। 20 ।।

अर्थात हे अर्जुन ! मैं समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूं। मैं ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अन्त हूं।

परमात्मा के बारे में गीता जो ज्ञान दे रही है वह सत्य है या असत्य ?
इसका निर्धारण कैसे किया जाए ?
क्योंकि परमात्मा आध्यात्मिक जगत का सूक्ष्म रहस्य है जिसे हरेक व्यक्ति नहीं देख सकता।
ऐसे में हम यह देखेंगे कि गीता उन चीज़ों के बारे में क्या कहती है जिन्हें हरेक आदमी देख सकता है ?
यदि गीता उन चीज़ों के बारे में सत्य बता रही है तो फिर गीता का ज्ञान उन बातों के बारे में भी सत्य है जिन्हें शरीर की आंख से देखा नहीं जा सकता।
इस संबंध में हमें कहीं दूर जाना नहीं पड़ता। अध्याय 10 के 21वें श्लोक में ही गीता नज़र न आने वाली और नज़र आने वाली दोनों चीज़ों के बारे में एक साथ बताती है कि

आदित्यनामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरूतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ।। 21 ।।

अर्थात् मैं आदित्यों में विष्णु, प्रकाशों में तेजस्वी सूर्य, मरूतों में मरीचि तथा नक्षत्रों में चन्द्रमा हूं।

चन्द्रमा को नक्षत्र न तो ज्योतिष मानते हैं और न ही आधुनिक विज्ञान।
ज़रा सोचिए कि जो ज्योतिषी गीता में आस्था रखते हैं वे भी गीता के कहने से चन्द्रमा की गिनती नक्षत्रों में नहीं करते। जब नज़र आने वाली बातों में गीता के ज्ञान का विश्वास ख़ुद उसमें आस्था रखने वाले नहीं करते तो फिर नज़र न आने वाली बातों में उसके कथन को प्रमाण कैसे माना जा सकता है ?
यही बात उन सब ग्रंथों की है जिनमें कि परमात्मा को परमेश्वर बताया गया है।

इतनी बड़ी ग़लती कैसे हुई ?
गीता आदि के आधार पर ही बड़े बड़े विद्वानों ने मान लिया कि परमात्मा ही परमेश्वर है। इस तरह एक बड़ी ग़लती हुई और इसे करने वाले भी इतने बड़े बड़े विद्वान हैं कि आदमी सोचता है कि ‘ये लोग ग़लती कैसे कर सकते हैं ?‘

कृप्या आप यहां यह भी ध्यान रखें कि हम यह नहीं कह रहे हैं कि श्री कृष्ण जी ने कुछ ग़लत कहा है लेकिन हम यह कह रहे हैं कि उनकी ओर से जिसने परमात्मा को परमेश्वर कहा है, उसने ग़लत कहा है।

DR. ANWER JAMAL said...

वर्तमान गीता क्या है ?
गीता श्री कृष्ण जी ने स्वयं नहीं लिखी है बल्कि यह उनका उपदेश है जो कि महाभारत का एक भाग है। महाभारत के भीष्म पर्व के 18 अध्याय को गीता कहा जाता है। कहा जाता है कि महाभारत को वेद व्यास ने लिखा है। श्री कृष्ण जी के मुख से गीता का उपदेश वेद व्यास जी ने स्वयं नहीं सुना था बल्कि अर्जुन ने सुना था और अर्जुन ने इसे कहीं लिखा नहीं है। कहा जाता है कि कहीं दूर बैठे हुए संजय ने भी चमत्कारपूर्ण तरीक़े से यह उपदेश सुना था। संजय से वेद व्यास जी ने भी ख़ुद नहीं सुना था कि श्री कृष्ण जी ने क्या कहा था ?
वेद व्यास जी ने दूसरे लोगों से सुना था कि संजय यह बताया करते थे। महाभारत के युद्ध के बारे में जो कुछ प्रसिद्ध था, उन्होंने उसका संकलन और संपादन किया तो उसमें 8800 श्लोक थे। यही मूल महाभारत थी और तब इसका नाम ‘जय‘ था। इसकें बाद वैशंपायन ने इसमें मूल श्लोकों से लगभग दो गुने श्लोक और जोड़ दिए और इसका नाम भी बदल दिया। अब इसमें 25,000 श्लोक हो गए और इसे ‘भारत संहिता‘ कहा जाने लगा। (आदि पर्व, 1,78)
इसके बहुत काल बाद उग्रश्रवा सौति ने इसमें लगभग तीन गुने श्लोक और जोड़ दिए और इसका नाम बदल कर ‘महाभारत‘ हो गया। पता नहीं उसके बाद भी किसने और कितने श्लोक जोड़े ?
अब इसमें 96244 श्लोक मिलते हैं। इसमें केवल 11 प्रतिशत श्लोक ही मूल श्लोक हैं। इतने फेर बदल जिस महाभारत में हो चुके हैं, गीता उसी का एक भाग है। अब यह कहना किसी के लिए भी संभव नहीं है कि कौन सी बात श्री कृष्ण जी ने कही थी और कौन सी उनके नाम से बाद के किसी कवि ने कह दी है ?
जब बात ग़लत निकल रही है तो उसे ग़लत कहना मजबूरी है क्योंकि उसे सत्य तो कहा नहीं जा सकता। सत्य तो केवल सत्य को ही कहा जाएगा। बड़े बड़े विद्वानों ने भी कहा है ‘असत्य के त्याग और सत्य के ग्रहण में सदा उद्यत रहना चाहिए।‘

यह तब और भी ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है जबकि असत्य ईश्वर के बारे में कहा जा रहा हो। जब हम जान लेते हैं कि यह बात तो असत्य है तब सत्य की खोज शुरू होती है कि फिर सत्य क्या है ?
आदमी जो ढूंढता है वह पा भी लेता है।
गायत्री मंत्र में सविता न तो लौकिक जगत के सूर्य को कहा जा रहा है और न ही जगत के सृष्टा परमेश्वर को बल्कि यहां सविता परमात्मा को कहा जा रहा है जो कि परमेश्वर से भिन्न है। नासदीय सूक्त के अनुसार यही आदि सृष्टि है। गायत्री मंत्र में इसी को वरण करने का संकल्प लिया जा रहा है ताकि हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग की प्रेरणा मिल सके। जो सृष्टि का अध्यक्ष है और वह जिस मार्ग पर चलता है और जिस मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है, वह सन्मार्ग है। गायत्री मंत्र मात्र एक मंत्र ही नहीं है बल्कि सन्मार्ग का पूरा नक्शा भी इसी में निहित है। भारतीय वैदिक जाति के उत्थान का वरदान है गायत्री मंत्र, इसके फलीभूत होने का समय अब आ पहुंचा है।
इसलिए ज़रूरी है कि गायत्री मंत्र के वास्तविक भाव को हम जानें और इसका प्रचार करें।

Manoj Tiwari said...

प्रिय डाक्टर साहब! कृपया क्षमा करें..! मुझे अवगत नहीं था कि आपने कृष्ण की गीता नहीं बल्कि प्रभुपाद जी की गीता पढ़ी है. दरअसल मैंने प्रभुपाद जी की पुस्तक नहीं पढ़ी है, शायद इसीलिये इतने भारी भरकम विश्लेषण को समझने में असमर्थ हूँ. आप विद्वानों के अनेक मत होते हैं. बड़े अच्छे विश्लेषण करते हैं. हम जैसे तो अपना काम आप सब विद्वानों के मतों तो सुन कर उनका संश्लेषण कर के ही चला लेते हैं. समय देने के लिए धन्यवाद्.

DR. ANWER JAMAL said...

सत्य को पाने के लिए गंभीरता ज़रूरी है
@ भाई मनोज तिवारी जी ! सत्य को पाने के लिए गंभीरता ज़रूरी है। आप जानते हैं कि हमने जो श्लोक दिए हैं वे उसी गीता से हैं जिसे आप श्री कृष्ण जी की गीता बता रहे हैं। अनुवाद देते समय हमने यह भी बता दिया है कि यह अनुवाद स्वामी प्रभुपाद जी का है। इतने स्पष्ट कथन के बाद भी आप यह क्यों दर्शा रहे हैं कि मानो आप हमारी बात ही न समझ पाए हों ?

OneGod-OneWe said...

Bahut accha anwar bhai. Rooh aur nafs me farq nahi karne ki wajah se muslaman bhi kai ghalatfahmi ke shaikkar hai. Aatma, parmatama aur eeshwar me farq nahi karne ki wajah se sanatan dharm me bhi bahut ghalatfahmi phail gai. aapne badi saral bhasha me inke farq ko samajhya hai. Sufiya e ekraam bhi is farq ko samajhte the lekin aaj - afsos hai - ki unke chahnewaale ghalat cheezon me pad gae aur ghalat cheezen ijaad kar lii. "Nigahe ishq o masti me - wahi awwal wahi akhir........ Wahi QURAN wahi fuqan wahi yaasin wahi TAHA"