सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Sunday, February 19, 2012
गायत्री मंत्र रहस्य भाग 1 The mystery of Gayatri Mantra 1
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्.
देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्.
गायत्री मंत्र को वेदमाता कहा जाता है। जैसे बच्चे का आधार उसकी माता होती है वैसे सारे वेद का आधार गायत्री मंत्र है। जिसने गायत्री के रहस्य को समझ लिया। वास्तव में वही वेद के रहस्य को भी समझ सकता है और अगर गायत्री मंत्र को समझने में ही कमी रह जाएगी तो फिर वेद को समझने में भी कमी ही रहेगी।
वेदों में मुख्य रूप से 7 छंद प्रयुक्त हुए हैं जिनके नाम गायत्री, उष्णिह्, अनुष्टुभ, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुभ और जगती हैं। गायत्री छंद ऋग्वेद में बहुत प्रयुक्त हुआ है। अकेल ऋग्वेद के ही 2450 मंत्र इसी छंद में आए हैं। अकेले ऋग्वेद में ही 2450 मंत्र गायत्री छंद में होने के बावजूद गायत्री मंत्र के नाम से केवल एक ही मंत्र प्रसिद्ध है जिससे इसकी महत्ता का पता चलता है।
भरद्वाज स्मृति (6,146) में गायत्री शब्द का अर्थ ‘गायंतं त्रायते यस्माद् गायत्रीति स्मृता बुधैः‘ किया गया है अर्थात यह अपना गायन करने वाले की रक्षा करती है।
इसके विषय में मनु स्मृति 2,76-69 में कहा गया है कि
अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापति।
वेदत्रयान्निरदुहद्भूर्भूवः स्वरितीति च।। 76 ।।
त्रिभ्य एव तु वेदेभ्यः पादं पादमददुहत्।
तदित्पृचो या सावित्र्याः परमेष्ठी प्रजापति।। 77 ।।
एतदक्षरमेतां च जपन्व्याहृतिपूर्विकान्।
सन्ध्ययोर्वेदविद्विप्रो वेदपुण्येन युज्यते।। 78 ।।
सहस्रकृत्वस्त्वभ्यस्य हिरेतत्रिक द्विजः।
महतोऽप्येनसो मासात्वचेवाहिर्विमुच्यते।। 79 ।।
अर्थात ब्रह्मा जी ने अकार, उकार, मकार इन तीनों प्रणवअवयवों और भूः भुवः स्वः इन तीन व्याहृतियों को तीन वेदों से ग्रहण किया। उन परमेष्ठी प्रजापति ने वेदत्रय से ‘तत्‘ पद से आरंभ होने वाली सावित्री का एक एक पद ग्रहण किया। वेदविज्ञ विप्र प्रणव और व्याहृति युक्त इस सावित्री मन्त्र का जाप दोनों संध्याओं में करे तो सम्पूर्ण वेदपाठ का पुण्य पावे। द्विज इन प्रणव, व्याहृति और सावित्री मन्त्र इन तीनों को एकान्त स्थान में एकाग्र चित्त से नित्य एक सहस्र जपे तो एक मास में ही घोर पाप से मुक्त हो जाए जैसे कि सर्प केंचुली से मुक्त होता है।
गायत्री मंत्र 3 वेदों में 5 जगह थोड़े थोड़े अंतर के साथ आया है। यह मंत्र ऋग्वेद (3,62,10) , यजुर्वेद (22,9 व 30,2 व 36,3) और सामवेद (1462) में इन शब्दों में आया है-
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्.
जबकि यजुर्वेद (36,3) में इस प्रकार आया है-
भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्.
इस मंत्र का देवता सूर्य को माना गया है। वर्तमान में पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा गायत्री मंत्र का बहुत प्रचार किया गया है।
यजुर्वेद में जहां जहां यह मंत्र आया है। तीनों जगह मंत्र तो देखा गया तो एक ही वेद में एक ही मंत्र का अनुवाद थोड़ा थोड़ा भिन्न मिलता है।
1. उन सर्वप्रेरक सविता देव के सबसे वरणीय सभी पापों के दूर करने में समर्थ उस सत्य, ज्ञान, आनन्द आदि तेज का हम ध्यान करते हैं। वे सविता देव हमारी बुद्धियों को श्रेष्ठ कर्मों के करने की प्रेरणा दें।
-यजुर्वेद 22,9
2. उन सर्व प्रेरक सविता देव के तेज का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धियों को सत्य कर्मों के निमित्त प्रेरित करते हैं।
-यजुर्वेद 30,2
3. उन सविता देव के वरणीय तेज का हम ध्यान करते हैं। वे सविता देवता हमारी बुद्धियों को सत्कर्मों में प्रेरित करते हैं।
-यजुर्वेद 36,3
इसके अलावा भी पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी ने गायत्री मंत्र का एक और भावार्थ बताया है जिसका प्रचार गायत्री परिवार करता है-
4. उस प्राणस्वरूप, दुखनाशक, सुखस्वरूप श्रेष्ठ तेजस्वी, पापनाशक देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।
कुछ दूसरे विद्वानों के भावानुवाद भी हमारी नज़र से गुज़रे। एक विद्वान का भावानुवाद दूसरे विद्वान के भावानुवाद से बहुत अंतर रखता है। यहां तक कि किसी में लौकिक सूर्य से प्रार्थना की जा रही है और किसी में परमात्मा से और किसी में परमेश्वर से। दिल चाहता था कि किसी तरह यह अंतर ख़त्म होना चाहिए और इसका एकमात्र तरीक़ा यह था कि इसका शाब्दिक अनुवाद सामने आ जाए।
गायत्री परिवार के संस्थापक पं. श्री राम शर्मा आचार्य जी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। वैदिक साहित्य की जो सेवा उन्होंने की है, उसने उन्हें विश्व भर में यश दिलाया है। हम भी उनका दिल से आदर करते हैं और आज से नहीं बल्कि बचपन से ही करते हैं। हम बचपन से ही उनका साहित्य पढ़ते आ रहे हैं। उनके लेख पढ़कर हमने बहुत कुछ सीखा है। उनके ज्ञान के कारण उनका जो आदर हमारे दिल में था उसने हमारे बीच एक ऐसा रूहानी रिश्ता क़ायम कर दिया था कि जब उनका देहान्त हुआ तो उसी रात वह हमारे सपने में हमें दिखाई दिए।
हमने पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी को देखा तो हमें लगा जैसे कि हम एक मुस्लिम दरवेश को देख रहे हैं। वह एक काला कंबल पहने हुए थे। उन्होंने हमें देखा तो उन्होंने अपने दोनों हाथ इस तरह ऊपर उठा दिए जैसे कि कोई प्यार करने वाला अपनी तरफ़ बुलाने के लिए हाथ उठाता है। हम रोते हुए उनकी तरफ़ ऐसे दौड़े जैसे बच्चे दौड़ते हैं किसी ऐसे की आदमी की तरफ़ जो कि उनसे बहुत प्यार करता है। हम जब पास पहुंचे तो हमने उनके पेट में अथाह प्रकाश देखा। वह प्रकाश कितना प्यारा, कितना आकर्षित करने वाला और कितना आनंद देने वाला था, इसे शब्दों में बताना मुमकिन नहीं है। हमने अपने हाथों से उन्हें कसकर पकड़ लिया। हमारी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। हमारा मुंह उनके पेट के सामने था और हम उस पावन प्रकाश का दर्शन कर रहे थे। हमने उस प्रकाश को चूम लिया और जाने कब तक हम उसे चूमते रहे कि हमारी आंख खुल गई। हमारी आंखों से आंसू अब भी जारी थे।
सुबह हो चुकी थी। नमाज़ का वक्त भी हो चुका था। हम नमाज़ के बाद मस्जिद से लौटे तो देखा कि अख़बार में पंडित जी के देहान्त की ख़बर छपी थी। ख़बर देखकर हम सन्न रह गए।
यह सब यहां बताने का मक़सद यह है कि सब पर यह ज़ाहिर हो जाए कि हमारे लिए पंडित जी एक गुरू की हैसियत रखते हैं और वेद वचन की जो थोड़ी बहुत सेवा करना हमारे लिए संभव हो पाया है, उसमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूप में पंडित जी का इल्मी और रूहानी फ़ैज़ हमारे शामिल ए हाल है और यह सब केवल उस मालिक की दया है। शिष्यों की उपलब्धि का श्रेय भी गुरू को ही जाता है।
परमात्मा कौन है ?
इस रहस्य का ज्ञान भी हमें पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी के मित्र ने ही दिया। आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब रहमतुल्लाह अलैह पंडित जी के पक्के मित्र थे। दोनों साहिबान के बीच पत्र व्यवहार भी था और पंडित जी के निमंत्रण पर मौलाना उनसे मिलने के लिए हरिद्वार भी गए थे। हम पंडित जी से बचपन में ही जुड़ चुके थे और मौलाना से उसके काफ़ी बाद परिचय हुआ। पंडित जी के जीवन काल में हम हरिद्वार तो न जा पाए लेकिन मौलाना अक्सर हमारे शहर में आते रहते थे क्योंकि उनका जन्म स्थान यही था और यहां उनके बहुत से रिश्तेदार भी थे। अपने पास आने वालों से मौलाना बहुत प्यार से मिलते थे और अपने इल्म के मोती वह हरेक आने वाले पर बिना थके और बिना हिचके लुटाते रहते थे।
इस सपने का ज़िक्र हमने आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब रह. से किया। मौलाना पंडित जी के मित्र थे मौलाना ने बताया कि वास्तव में इस ख्वाब की ताबीर क्या है ?
मौलाना की ताबीर से हमें पंडित जी के आला मर्तबे का इल्म हुआ और एक ऐसी हक़ीक़त का इल्म भी उनके बताने से ही हुआ, जिसे हम जानते न थे।
मौलाना उस्मानी साहब रह. के मुंह से भी हमने कई बार गायत्री मंत्र का भावार्थ सुना है। वह इस मंत्र का भावार्थ इस तरह करते थे-
5- ‘हम उस ख़ुदा की रौशनी को पूजते हैं (ध्यान में लाते हैं) जो धरती, आकाश तथा स्वर्ग (अन्तरिक्ष) को बनाने वाला, पालनकर्ता और मारने वाला एक ख़ुदा है और जिसकी रौशनी हे सूर्य, तेरी रौशनी से बढ़कर है ताकि वह हमारे मन-मस्तिष्क की शक्तियों का उचित मार्गदर्शन करे।‘
यही भावानुवाद मौलाना उस्मानी साहब रह. की किताब ‘नमाज़, एक सर्वधर्म उपासना‘ के पृष्ठ संख्या 7 पर भी मौजूद है।
मौलाना ने अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्सा वेद क़ुरआन के तुलनात्मक अध्ययन में लगाया था जो कुछ उन्होंने पाया था, उसे उन्होंने हमें भी सौंपा है। इस तरह पंडित जी और मौलाना साहब, दोनों के ज्ञान की गंगा जमना का संगम हमारे दिल में एक ही जगह हो गया और जहां गंगा जमना मिलती हैं, वहां सरस्वती भी प्रकट हो ही जाती है।
हमारे साथ यही हुआ।
इसी साल की बात है। हमारा रामपुर जाना हुआ तो एक रोज़ हम मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब की किताब ‘अगर अब भी न जागे तो...‘ पढ़ रहे थे। उनकी किताब में हमारी नज़र एक मन्त्र 'मही देवस्य सवितुः परिष्टुति‘ ऋग्वेद 5,81,1 पर पड़ी ‘।
मन्त्र में ‘देवस्य सवितुः‘ में हम षष्ठी विभक्ति देखकर देखकर चौंक पड़े। इसका अर्थ होता है ‘देव का सूर्य‘। बरसों से हम गायत्री मंत्र का एक ऐसा अनुवाद करना चाहते थे जो भावानुवाद न हो बल्कि शाब्दिक अनुवाद हो और शाब्दिक अनुवाद भी ऐसा हो कि उसमें कोष्ठक लगाकर कोई शब्द लिखने की ज़रूरत न पड़े और इसके बावजूद भी वह स्पष्ट अर्थ देता हो।
गायत्री मंत्र का शाब्दिक अनुवाद करने का ख़याल हमारे दिल में मौलाना उस्मानी साहब रह. के एक वरिष्ठ और विद्वान शिष्य अल्लामा एस. अब्दुल्लाह तारिक़ साहब का लेक्चर सुनते हुए आया। जनाब अक्तूबर 1994 में 10 दिन के लिए देवबंद तशरीफ़ लाए थे। हमने भी उनके लेक्चर में शिरकत की। एक दिन उन्होंने पंडित जी और मौलाना उस्मानी साहब रह. की दोस्ती और उनकी मुलाक़ात के बारे में बताया तो उन्होंने गायत्री परिवार की स्थापना और पंडित जी द्वारा किए जा रहे गायत्री मंत्र के प्रचार के बारे में भी बताया। किसी के पूछने पर उन्होंने गायत्री मंत्र का अर्थ भी न सिर्फ़ बताया बल्कि एक एक शब्द का अर्थ बोल बोल कर अच्छी तरह लिखवा भी दिया। वह लिखा हुआ हमारे पास आज भी सुरक्षित है। यह कोशिश हम सन् 1994 से कर रहे थे लेकिन हम गायत्री मंत्र के ‘देवस्य‘ शब्द पर आकर रूक जाते थे।
‘देवस्य‘ को हम किस शब्द से जोड़ें ?
यही विचार किया करते थे। ‘मही देवस्य सवितुः परिष्टुति‘ ऋग्वेद 5,81,1 पर नज़र पड़ते ही आज अनायास हमें अपने सवाल का जवाब मिल गया था। इस जवाब ने गायत्री मंत्र का शाब्दिक अनुवाद भी स्पष्ट कर दिया बल्कि इसने गायत्री मंत्र के आध्यात्मिक अर्थ को भी हम पर ज़ाहिर कर दिया। इस तरह गायत्री मंत्र हमारे सामने अचानक ख़ुद ही एक नए रूप में प्रकट हो गया। सब कुछ पलक झपकने की देर में ख़ुद ब ख़ुद हो गया। तब हमें अनुभव हुआ कि ऋषि मंत्र के दृष्टा क्योंकर हुआ करते थे ?
गायत्री मंत्र का यह रूप देखकर हम एक रूहानी आनंद से भर गए। गायत्री मंत्र के इस अर्थ के प्रकाश में पंडित जी की भविष्यवाणी साकार होती दिख रही थी कि ‘हम बदलेंगे, युग बदलेगा‘ और ठीक यही भविष्यवाणी मौलाना उस्मानी साहब रह. किया करते थे। वे सच ही कहा करते थे। जैसे जैसे हम बदलते जा रहे हैं वैसे वैसे हमारे मंत्रों के अर्थ भी बदलते जा रहे हैं। पुराने वेदमंत्र आज नवीन अर्थ दे रहे हैं।
पहले माना जाता था कि गायत्री मंत्र में उस सूर्य से प्रार्थना की जाती है जिसके चारों ओर हमारी धरती चक्कर लगाती है। सैकड़ों हज़ारों साल तक यही माना जाता रहा। आज भी बहुत लोग यही मानते हैं लेकिन फिर इसी गायत्री मंत्र का यह अर्थ भी सामने आया जिसमें परमात्मा से प्रार्थना की जाती है।
इसी क्रम में अब गायत्री मंत्र का एक शाब्दिक अनुवाद भी पहली बार प्रकट हुआ है। यह अनुवाद आप भी देखिए -
हम परमेश्वर के सूर्य के उस वरणीय तेज का ध्यान करें जो हमारी बुद्धियों को प्रेरित करे।
तत्-उस, सवितुः-सूर्य, वरेण्यं-वरणीय, भर्गो-तेज, देवस्य-देव के, धीमहि-हम ध्यान करें, धियो-बुद्धियों को, यो-जो, नः-हमारी, प्रचोदयात्-प्रेरित करे
इस तरह जिसे आज तक एक प्रार्थना समझा जाता रहा है, वह एक आदेश के रूप में सामने आता है जिसके अनुसार हमें कुछ करना भी होगा।
हमारी रक्षा के लिए गायत्री का गायन मात्र ही काफ़ी नहीं है बल्कि जो हम गा रहे हैं उसके अनुरूप हमें ध्यान और चिंतन भी करना है ताकि हमारी बुद्धियों को प्रेरणा मिले और तब हमारी रक्षा होगी, तब हमारे समाज से पापों का नाश होगा और तब समाज पुरानी मान्यताओं को ऐसे छोड़ देगा जैसे कि सांप अपनी पुरानी केंचुली को छोड़ देता है। जैसा कि मनु स्मृति में गायत्री मंत्र का प्रभाव बताया गया है।
जारी ...
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11 comments:
डॉ. साहब!
आपकी विद्वता का लाभ हमें भी मिल रहा है। एक मंत्र जिसे बचपन से, मोर प्रेसाइजली जब से उपनयन संस्कार हुआ जपते आए हैं, इतना गूढ़ अर्थ आज तक किसी ने नहीं बताया।
आपके उस सपने का वृत्तांत पढ़कर रोंगटे खड़े होने वाला अनुभव हुआ।
हम तो इसके दूसरे अंक की प्रतीक्षा में अभी से लग गए हैं।
बहुत अच्छी जानकारी के लिए शुक्रिया... :))
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
Anwar bhai - AApka jawaab nahi. itni zabardast jaankari aapne saral shabdon me dia. waqai agar hum sab log imaandaari se cheezon pe ghaur karen to hume saty zaroor milega. Aap ki mehnat qabil-e-ehteraam hai bhai.
" हम परमेश्वर के सूर्य के उस वरणीय प्रकाश का ध्यान करें जो हमारी बुद्धियों को प्रेरित करे।"
---अनवर जी वास्तव में ही आपके द्वारा यह अर्थ ..अनर्थ है..सदा की भांति...
---ये परमेश्वर के सूर्य.. क्या होता है???...सूर्य को ही परमेश्वर रूप कहा गया है...परब्रह्म का सविता रूप है सूर्य....
---अर्थात हम उस विश्वरूप परब्रह्म के वरणीय तेज का ध्यान करें ( = जीवन में उतारें)..
---जो बुद्धियों को प्रेरित करे नहीं....जो हमारी बुद्धि को प्रेरित करता है ।
--- एक तरफ़ तो आप इसे प्रार्थना की बज़ाय आदेश कहते हैं दूसरी ओर ...प्रार्थना रूप वक्य ..प्रेरित करे...अर्थ करते हैं....यह भम वश है ..शब्द-अर्थ-भाव व रहस्य की पूर्ण जानकारी के अभाव में....
ये सब बहुत जगह पर मिल जायेगा
पर जो तुम कर रहे हो वो करना
बहुत कम लोगों से हो पायेगा !
A very true and accurate analysis indeed. You are doing a great service to mankind by spreading the true message of religion and distinguishing between right and wrong.
My Best Regards to you.
Zafar.
इस तरह जिसे आज तक एक प्रार्थना समझा जाता रहा है, वह एक आदेश के रूप में सामने आता है जिसके अनुसार हमें कुछ करना भी होगा।
हमारी रक्षा के लिए गायत्री का गायन मात्र ही काफ़ी नहीं है बल्कि जो हम गा रहे हैं उसके अनुरूप हमें ध्यान और चिंतन भी करना है ताकि हमारी बुद्धियों को प्रेरणा मिले और तब हमारी रक्षा होगी, तब हमारे समाज से पापों का नाश होगा और तब समाज पुरानी मान्यताओं को ऐसे छोड़ देगा जैसे कि सांप अपनी पुरानी केंचुली को छोड़ देता है। जैसा कि मनु स्मृति में गायत्री मंत्र का प्रभाव बताया गया है।
Very nice.
जब मैं नया-नया संन्यस्त हुआ,एक रात अपने गुरू का स्मरण करते-करते ही ध्यानस्थ हो गया। अगली सुबह,मुझे गुरूजी की किसी बहुत पुरानी शिष्या का मुंबई से फोन आया। बोलीं,"गुरूजी आपको याद कर रहे हैं। कहा है,समाधि के अगले चरण में ज़रूर आना।" मैं स्तब्ध रह गया। निश्चय ही,रिश्ते रूहानी होते हैं। बात सिर्फ भाव-तल के एक होने की है।
मंत्रों की रचना यदि श्रम अथवा विद्वता का विषय होती,तो अनेक वेद,अनेक कुरान रचे गए होते अब तक। वे रचे नहीं जाते,उतरते हैं। कुरान भी मोहम्मद में उतरी थी,उन्होंने रची नहीं थी क्योंकि वे तो पढ़े-लिखे नहीं थे। वेदों को भी इन्हीं अर्थों में "अपौरूषेय" कहा गया है जिसका अर्थ है कि किसी पुरुष ने इसकी रचना नहीं की है। किसी के वश का है ही नहीं।
जय जय वेदो की जननी जय गायत्री माता
ऊं शुभम् भूयात्
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