सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Tuesday, February 28, 2012
गायत्री मंत्र रहस्य भाग 2 The mystery of Gayatri Mantra 2
इस लेख का पिछला भाग यहां पढ़ें-
गायत्री मंत्र के आलोचकों का नज़रिया
गायत्री मंत्र के आलोचकों ने जब इसके अनुवादों पर नज़र डाली तो उन्होंने कहा कि -
‘गायत्री मंत्र के स्तवन में जितना समय और श्रम लगाया जाता है, उस का सहस्रांश भी यदि मंत्र की ग़लतियों की ओर ध्यान देने में लगाया जाता तो इस पर बड़ा उपकार होता।
यह मंत्र न केवल छंदगत अशुद्धियों से युक्त है, अपितु संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से भी पूरी तरह अशुद्ध है। गायत्री मंत्र का प्रचलित रूप व्याकरण की दृष्टि से इसलिए अशुद्ध है। मंत्र के शुरू का ‘तत्‘ शब्द नपुंसक लिंग में है और तीसरे पाद का समवर्ती ‘यो‘ पुल्लिंग में है। ‘तत्‘ और ‘यो‘ परस्पर संबद्ध हैं, लेकिन लिंगगत असंगति के कारण इन का परस्पर अन्वय नहीं हो सकता। वाक्यारंभ में नपुंसक लिंग है। अतः या तो उसी के अनुसार ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद् हो या प्रारंभ में नपुंसक ‘तत्‘ को ‘सवितः‘ का विशेषण बनाया जाए अन्यथा गायत्री मंत्र व्याकरणिक अशुद्धियों की गुत्थी मात्र बना रहेगा।‘
इन विद्वानों ने इस समस्या का हल सुझाते हुए कहा है कि -
‘‘व्याकरण के नियमानुसार आदि के ‘तत्‘ को ‘सवितुः‘ का विशेषण बना कर इसे ‘तस्य‘ के रूप में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में ‘यो‘ को ‘भर्ग‘ के साथ अन्वित करना होगा। तब सही मंत्र ऐसे बनेगा- ‘तस्य सवितुः वरेण्यम्, भर्ग देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‘
मंत्रार्थदीपिका ग्रंथ के लेखक शत्रुघ्न ने ऐसा ही पाठ सही माना है (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 13), यह पाठ व्याकरण और छंदशास्त्र की दृष्टि से पूर्णतः शुद्ध है। इस में ‘वरेण्यं‘ को तोड़ मरोड़ कर शुद्ध गायत्री छंद बनाने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि ‘तत्‘ का ‘तस्य‘ हो जाने से प्रथम पाद में सात के स्थान पर आठ वर्ण हो जाते हैं। इस तरह स्वतः ही शुद्ध गायत्री छंद के अनुरूप 24 वर्ण बन जाते हैं।
एक अन्य प्राचीन ग्रंथकार हलायुध ने अपनी कृति ‘ब्राह्मण सर्वस्व‘ में याज्ञवल्क्य को उद्धृत करते हुए लिखा है कि गायत्री मंत्र के शुरू में स्थित शब्द ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ होना चाहिए, क्योंकि ‘तत्‘ का मंत्र के किसी भी शब्द के साथ अन्वय नहीं होता। यदि ‘तत्‘ का ‘तम्‘ कर दिया जाए तो उस का अन्वय भर्ग के साथ हो जाएगा। हलायुद्ध के अनुसार यह पाठ ठीक है- ‘तं सवितुर्वरेण्यम भर्गं देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्.‘ (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 12)‘‘
लेकिन इस समाधान पर भी यह आपत्ति आती है कि-
‘‘इस शुद्ध रूप में भी पूर्वोद्धृत शत्रुघ्नसम्मत पाठ के समान ही दो शब्दों को शुद्ध करना पड़ता है। ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ और ‘भर्गो‘ के स्थान पर ‘भर्ग‘, लेकिन इसके बावजूद छंद निचृद् गायत्री (अपूर्ण) ही रह जाता है।
डा. विश्वबंधु ने उपरलिखित दोनों वैकल्पिक शुद्ध रूपों के अतिरिक्त एक अन्य रूप उपस्थित किया है। उन्होंने ‘तत्‘ को यथावत् रहने दे कर ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद्‘ रखा है। इस संशोधन से शुद्धमंत्र यह रूप धारण करता है ‘तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो यन्नः (यद् नः) प्रचोदयात्. (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 14-15). डा. विश्वबंधु सम्मत पाठ स्वीकारने पर मूल मंत्र में एक ही शब्द शुद्ध करना पड़ता है लेकिन छंद फिर भी निचृद गायत्री ही रह जाता है।‘‘
गायत्री मंत्र की यह समीक्षा करने के बाद आलोचक महोदय कहते हैं कि -
‘इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रचलित गायत्री मंत्र न केवल छंद शास्त्र की दृष्टि से लंगड़ा और दोग़ला है, अपितु व्याकरण की दृष्टि से भी अशुद्ध है। यदि वेद ईश्वर की रचना है, यदि गायत्री मंत्र को ईश्वर ने बनाया है तो यह निरक्षर भट्टाचार्य और वज्रमूर्ख साबित होता है। साधारण संस्कृत जानने वाला भी ऐसी ग़लतियां नहीं कर सकता जैसी ईश्वर कही जाने वाली काल्पनिक सत्ता ने की हैं।
इतना सब होने पर भी इस गायत्री मंत्र में किसी अतिमानवीय शक्ति के होने में विश्वास करना, इस से रोग, शोक, पाप दूर होने और मनोकामनाएं पूरी होने का विश्वास रखना, मूर्खों की दुनिया में रहना है।
(डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात, पुस्तकः क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?, पृष्ठ 539-540, प्रकाशकः विश्व विजय प्रा. लि., 12 कनॉट सरकस, नई दिल्ली, फ़ोन 011-23416313 व 011-41517890, ईमेलः mybook.vishvbook.com)
गायत्री मंत्र की आलोचना की समीक्षा
इसमें शक नहीं है कि ‘मंत्रार्थदीपिका‘ ग्रंथ के लेखक शत्रुघ्न उच्चकोटि के विद्वान माने जाते हैं और ‘द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम‘ के लेखक डा. विश्वबंधु जी भी वैदिक अध्ययन में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त विद्वान हैं। पंजाब विश्वविद्यालय के एम. ए. संस्कृत पाठ्यक्रम में उनकी पुस्तक ‘वेदसार‘ अनिवार्य पत्र के रूप में पढ़ायी जाती रही है। ख़ुद डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात‘ जी भी एक प्रकांड पंडित हैं। सनातन धर्म की सेवा करने के लिए उनके परिवार का एक लंबा इतिहास है।
इनके पांडित्य और इनकी ख्याति के बावजूद हम इनसे यह विनम्र निवेदन करेंगे कि गायत्री मंत्र में अगर कोई दोष नज़र आ रहा है और हम उसके निर्दोष रूप तक नहीं पहुंच पा रहे हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें दोष है बल्कि हक़ीक़त यह है कि जितना ज्ञानाभ्यास और पवित्रता इसकी हक़ीक़त जानने के लिए चाहिए, वह इसके साधकों और आलोचकों दोनों में ही मौजूद नहीं है वर्ना तो इसकी साधना करने वाले इसका जवाब दे देते और तब आलोचना करने वालों के मुंह से इस तरह के अल्फ़ाज़ ही न निकलते।
गायत्री जैसे महान मंत्र के बारे में कुछ कह सकें, हम ख़ुद को इस योग्य बिल्कुल भी नहीं पाते। अगर गायत्री मंत्र का अर्थ हम पर ख़ुद ब ख़ुद प्रकट न होता तो हम शायद यह सब न लिखते और आज तक हमने इसके अर्थ पर कभी कुछ लिखा भी नहीं है। हालांकि हम इसे 30 साल से ज़्यादा अर्से से पढ़ते भी आ रहे हैं और पढ़ने से भी आगे बढ़कर हम इसे जीते भी आ रहे हैं। गायत्री मंत्र हमारे लिए सदैव आकर्षण और अध्ययन का एक महत्वपूर्ण बिंदु रहा है। हमने पाया है कि इसके द्वारा रोग, शोक और पाप दूर होना और मनोकामनाएं पूरी होना एक सच्ची हक़ीक़त है। इससे भी आगे बढ़कर हम यह कहेंगे कि पूरे विश्व की विजय भी इसके द्वारा संभव है और संभव क्या है बल्कि यह तो इसका स्वाभाविक परिणाम है ही। यह कोई अंधश्रृद्धा मात्र नहीं है बल्कि इसे तर्क से समझा जा सकता है और इसे विज्ञान से सिद्ध किया जा सकता है और इतिहास में इसके साधकों को जो कुछ प्राप्त हुआ, उसे देखा जा सकता है। विज्ञान के अनुसार ‘एक निश्चित परिस्थिति में एक काम करने पर जो परिणाम एक बार सामने आता है तो उसी परिस्थिति में वही काम अगर दोबारा किया जाए तो परिणाम भी वही आएगा।‘
गायत्री मंत्र का वैज्ञानिक स्तर पर सत्यापन
आज तर्क और विज्ञान का दौर है। आप गायत्री मंत्र के सत्य को ख़ुद अपने अनुभव द्वारा जान सकते हैं कि वास्तव में ही इसके ज़रिये से ईश्वर वह सब कुछ देता है जिसकी ज़रूरत मनुष्य को होती है और यह अनुभव एक मनुष्य के बारे में जितना सत्य है, उतना ही यह मनुष्यों के एक बड़े समूह के लिए भी सही है और सारी मानव जाति भी इसके ज़रिये से वह सब कुछ पा सकती है जिसकी तलाश में वह सदियों से भटक रही है। ऐसा हो सकता है और ऐसा होगा लेकिन ऐसा केवल तब होगा जबकि यह जान लिया जाए कि गायत्री मंत्र की रचना किस परिस्थिति में हुई और कहां हुई ?
गायत्री मंत्र की साधना का सही स्वरूप वास्तव में क्या है ?
तभी यह बात समझ में आएगी कि अब तक क्या कमी चली आ रही है गायत्री मंत्र को समझने में और इसकी साधना में ?
फ़िलहाल तो आप यह देखें कि गायत्री मंत्र के जिस अर्थ का हमें दर्शन हुआ है, उसके द्वारा व्याकरण के विद्वानों की आपत्तियां न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाती हैं।
गायत्री मंत्र के व्याकरण पर आपत्ति उचित नहीं है
व्याकरण की दृष्टि से जो न्यूनतम आपत्तियां इस पर आ सकती हैं वे भी निर्मूल हो जाती हैं अगर यह बात सामने रखी जाए कि भाषा की उत्पत्ति और विकास पहले होता है और जब उसका विकास हो चुका होता है तब उसके व्याकरण के नियम निश्चित किए जाते हैं जो कि बाद वालों के एक सुविधा होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि जिन लोगों ने भाषा का विकास किया है वे अशुद्ध भाषा बोला करते थे। हम जिस भाषा को बचपन से बोलते हैं, उसे हम बहुत प्रकार से बोलते हैं। अगर कोई व्यक्ति दूसरी भाषा बोलने वाला आदमी व्याकरण पढ़कर हमारी भाषा में कमियां निकालने लगे तो यही माना जाएगा कि जितना ज्ञान उसे है, वह उसका काम चलाने के लिए पर्याप्त है लेकिन उतने ज्ञान के बल पर वह इसका अधिकारी हरगिज़ नहीं है कि भाषा के विविध रूपों को जानने वालों और उसे अपने दैनिक व्यवहार में लाने वालों की भाषा को वह अशुद्ध घोषित कर दे।
उदाहरण के तौर पर अल्लामा इक़बाल ने हिंदुस्तान की तारीफ़ करते हुए कहा है कि-
अल्लामा इक़बाल को उर्दू पर कितनी ज़्यादा पकड़ थी, यह हम सभी जानते हैं लेकिन कोई कह सकता है कि इस शेर में ‘गुलसितां‘ शब्द ग़लत है जबकि सही शब्द ‘गुलिस्तां‘ है। अगर यह बात मानकर यहां ‘गुलिस्तां‘ शब्द लिख दिया जाए तो यह शेर तुरंत बहर से ख़ारिज हो जाएगा और यह अपना वज़्न खो देगा। उर्दू के शब्दकोष में ‘गुलसितां‘ शब्द लिखा हुआ न मिलेगा लेकिन यह अपना वुजूद रखता है और जहां इसका इस्तेमाल हुआ है, वहां इसका बिल्कुल सही इस्तेमाल हुआ है और शब्दों का ऐसा इस्तेमाल सिर्फ़ वही लोग कर सकते हैं जिन्हें भाषा पर पूरी पकड़ होती है। यही लोग भाषा में नये प्रयोग करते हैं और इस तरह ये उसका विकास करते हैं। गायत्री मंत्र में भी जो शब्द जिस तरह प्रयुक्त हुआ है, वह उसी तरह सही है और अगर उसके साथ छेड़छाड़ की गई तो वह अपनी सुंदरता ही नहीं बल्कि अपना वास्तविक अर्थ ही खो देगा।
यह अन्वय और अर्थ की दृष्टि से बात हुई।
अब हम देखेंगे कि क्या गायत्री छंद में कोई छंदगत अशुद्धि वास्तव में ही मौजूद है या वहां भी कोई ऐसी ही बात है जिसे हम अपने पैमाने पर समझने की कोशिश रहे हैं जबकि हमें कोशिश यह करनी चाहिए कि उसे वेद मंत्रों की रचना करने वालों की दृष्टि से समझा जाए।
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गायत्री मंत्र रहस्य भाग 1 The mystery of Gayatri Mantra 1
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गायत्री मंत्र के आलोचकों ने जब इसके अनुवादों पर नज़र डाली तो उन्होंने कहा कि -
‘गायत्री मंत्र के स्तवन में जितना समय और श्रम लगाया जाता है, उस का सहस्रांश भी यदि मंत्र की ग़लतियों की ओर ध्यान देने में लगाया जाता तो इस पर बड़ा उपकार होता।
यह मंत्र न केवल छंदगत अशुद्धियों से युक्त है, अपितु संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से भी पूरी तरह अशुद्ध है। गायत्री मंत्र का प्रचलित रूप व्याकरण की दृष्टि से इसलिए अशुद्ध है। मंत्र के शुरू का ‘तत्‘ शब्द नपुंसक लिंग में है और तीसरे पाद का समवर्ती ‘यो‘ पुल्लिंग में है। ‘तत्‘ और ‘यो‘ परस्पर संबद्ध हैं, लेकिन लिंगगत असंगति के कारण इन का परस्पर अन्वय नहीं हो सकता। वाक्यारंभ में नपुंसक लिंग है। अतः या तो उसी के अनुसार ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद् हो या प्रारंभ में नपुंसक ‘तत्‘ को ‘सवितः‘ का विशेषण बनाया जाए अन्यथा गायत्री मंत्र व्याकरणिक अशुद्धियों की गुत्थी मात्र बना रहेगा।‘
इन विद्वानों ने इस समस्या का हल सुझाते हुए कहा है कि -
‘‘व्याकरण के नियमानुसार आदि के ‘तत्‘ को ‘सवितुः‘ का विशेषण बना कर इसे ‘तस्य‘ के रूप में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में ‘यो‘ को ‘भर्ग‘ के साथ अन्वित करना होगा। तब सही मंत्र ऐसे बनेगा- ‘तस्य सवितुः वरेण्यम्, भर्ग देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‘
मंत्रार्थदीपिका ग्रंथ के लेखक शत्रुघ्न ने ऐसा ही पाठ सही माना है (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 13), यह पाठ व्याकरण और छंदशास्त्र की दृष्टि से पूर्णतः शुद्ध है। इस में ‘वरेण्यं‘ को तोड़ मरोड़ कर शुद्ध गायत्री छंद बनाने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि ‘तत्‘ का ‘तस्य‘ हो जाने से प्रथम पाद में सात के स्थान पर आठ वर्ण हो जाते हैं। इस तरह स्वतः ही शुद्ध गायत्री छंद के अनुरूप 24 वर्ण बन जाते हैं।
एक अन्य प्राचीन ग्रंथकार हलायुध ने अपनी कृति ‘ब्राह्मण सर्वस्व‘ में याज्ञवल्क्य को उद्धृत करते हुए लिखा है कि गायत्री मंत्र के शुरू में स्थित शब्द ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ होना चाहिए, क्योंकि ‘तत्‘ का मंत्र के किसी भी शब्द के साथ अन्वय नहीं होता। यदि ‘तत्‘ का ‘तम्‘ कर दिया जाए तो उस का अन्वय भर्ग के साथ हो जाएगा। हलायुद्ध के अनुसार यह पाठ ठीक है- ‘तं सवितुर्वरेण्यम भर्गं देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्.‘ (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 12)‘‘
लेकिन इस समाधान पर भी यह आपत्ति आती है कि-
‘‘इस शुद्ध रूप में भी पूर्वोद्धृत शत्रुघ्नसम्मत पाठ के समान ही दो शब्दों को शुद्ध करना पड़ता है। ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ और ‘भर्गो‘ के स्थान पर ‘भर्ग‘, लेकिन इसके बावजूद छंद निचृद् गायत्री (अपूर्ण) ही रह जाता है।
डा. विश्वबंधु ने उपरलिखित दोनों वैकल्पिक शुद्ध रूपों के अतिरिक्त एक अन्य रूप उपस्थित किया है। उन्होंने ‘तत्‘ को यथावत् रहने दे कर ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद्‘ रखा है। इस संशोधन से शुद्धमंत्र यह रूप धारण करता है ‘तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो यन्नः (यद् नः) प्रचोदयात्. (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 14-15). डा. विश्वबंधु सम्मत पाठ स्वीकारने पर मूल मंत्र में एक ही शब्द शुद्ध करना पड़ता है लेकिन छंद फिर भी निचृद गायत्री ही रह जाता है।‘‘
गायत्री मंत्र की यह समीक्षा करने के बाद आलोचक महोदय कहते हैं कि -
‘इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रचलित गायत्री मंत्र न केवल छंद शास्त्र की दृष्टि से लंगड़ा और दोग़ला है, अपितु व्याकरण की दृष्टि से भी अशुद्ध है। यदि वेद ईश्वर की रचना है, यदि गायत्री मंत्र को ईश्वर ने बनाया है तो यह निरक्षर भट्टाचार्य और वज्रमूर्ख साबित होता है। साधारण संस्कृत जानने वाला भी ऐसी ग़लतियां नहीं कर सकता जैसी ईश्वर कही जाने वाली काल्पनिक सत्ता ने की हैं।
इतना सब होने पर भी इस गायत्री मंत्र में किसी अतिमानवीय शक्ति के होने में विश्वास करना, इस से रोग, शोक, पाप दूर होने और मनोकामनाएं पूरी होने का विश्वास रखना, मूर्खों की दुनिया में रहना है।
(डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात, पुस्तकः क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?, पृष्ठ 539-540, प्रकाशकः विश्व विजय प्रा. लि., 12 कनॉट सरकस, नई दिल्ली, फ़ोन 011-23416313 व 011-41517890, ईमेलः mybook.vishvbook.com)
गायत्री मंत्र की आलोचना की समीक्षा
इसमें शक नहीं है कि ‘मंत्रार्थदीपिका‘ ग्रंथ के लेखक शत्रुघ्न उच्चकोटि के विद्वान माने जाते हैं और ‘द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम‘ के लेखक डा. विश्वबंधु जी भी वैदिक अध्ययन में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त विद्वान हैं। पंजाब विश्वविद्यालय के एम. ए. संस्कृत पाठ्यक्रम में उनकी पुस्तक ‘वेदसार‘ अनिवार्य पत्र के रूप में पढ़ायी जाती रही है। ख़ुद डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात‘ जी भी एक प्रकांड पंडित हैं। सनातन धर्म की सेवा करने के लिए उनके परिवार का एक लंबा इतिहास है।
इनके पांडित्य और इनकी ख्याति के बावजूद हम इनसे यह विनम्र निवेदन करेंगे कि गायत्री मंत्र में अगर कोई दोष नज़र आ रहा है और हम उसके निर्दोष रूप तक नहीं पहुंच पा रहे हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें दोष है बल्कि हक़ीक़त यह है कि जितना ज्ञानाभ्यास और पवित्रता इसकी हक़ीक़त जानने के लिए चाहिए, वह इसके साधकों और आलोचकों दोनों में ही मौजूद नहीं है वर्ना तो इसकी साधना करने वाले इसका जवाब दे देते और तब आलोचना करने वालों के मुंह से इस तरह के अल्फ़ाज़ ही न निकलते।
गायत्री जैसे महान मंत्र के बारे में कुछ कह सकें, हम ख़ुद को इस योग्य बिल्कुल भी नहीं पाते। अगर गायत्री मंत्र का अर्थ हम पर ख़ुद ब ख़ुद प्रकट न होता तो हम शायद यह सब न लिखते और आज तक हमने इसके अर्थ पर कभी कुछ लिखा भी नहीं है। हालांकि हम इसे 30 साल से ज़्यादा अर्से से पढ़ते भी आ रहे हैं और पढ़ने से भी आगे बढ़कर हम इसे जीते भी आ रहे हैं। गायत्री मंत्र हमारे लिए सदैव आकर्षण और अध्ययन का एक महत्वपूर्ण बिंदु रहा है। हमने पाया है कि इसके द्वारा रोग, शोक और पाप दूर होना और मनोकामनाएं पूरी होना एक सच्ची हक़ीक़त है। इससे भी आगे बढ़कर हम यह कहेंगे कि पूरे विश्व की विजय भी इसके द्वारा संभव है और संभव क्या है बल्कि यह तो इसका स्वाभाविक परिणाम है ही। यह कोई अंधश्रृद्धा मात्र नहीं है बल्कि इसे तर्क से समझा जा सकता है और इसे विज्ञान से सिद्ध किया जा सकता है और इतिहास में इसके साधकों को जो कुछ प्राप्त हुआ, उसे देखा जा सकता है। विज्ञान के अनुसार ‘एक निश्चित परिस्थिति में एक काम करने पर जो परिणाम एक बार सामने आता है तो उसी परिस्थिति में वही काम अगर दोबारा किया जाए तो परिणाम भी वही आएगा।‘
गायत्री मंत्र का वैज्ञानिक स्तर पर सत्यापन
आज तर्क और विज्ञान का दौर है। आप गायत्री मंत्र के सत्य को ख़ुद अपने अनुभव द्वारा जान सकते हैं कि वास्तव में ही इसके ज़रिये से ईश्वर वह सब कुछ देता है जिसकी ज़रूरत मनुष्य को होती है और यह अनुभव एक मनुष्य के बारे में जितना सत्य है, उतना ही यह मनुष्यों के एक बड़े समूह के लिए भी सही है और सारी मानव जाति भी इसके ज़रिये से वह सब कुछ पा सकती है जिसकी तलाश में वह सदियों से भटक रही है। ऐसा हो सकता है और ऐसा होगा लेकिन ऐसा केवल तब होगा जबकि यह जान लिया जाए कि गायत्री मंत्र की रचना किस परिस्थिति में हुई और कहां हुई ?
गायत्री मंत्र की साधना का सही स्वरूप वास्तव में क्या है ?
तभी यह बात समझ में आएगी कि अब तक क्या कमी चली आ रही है गायत्री मंत्र को समझने में और इसकी साधना में ?
फ़िलहाल तो आप यह देखें कि गायत्री मंत्र के जिस अर्थ का हमें दर्शन हुआ है, उसके द्वारा व्याकरण के विद्वानों की आपत्तियां न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाती हैं।
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्.
अर्थात हम परमेश्वर के सूर्य के उस वरणीय तेज का ध्यान करें जो हमारी बुद्धियों को प्रेरित करे।गायत्री मंत्र के व्याकरण पर आपत्ति उचित नहीं है
व्याकरण की दृष्टि से जो न्यूनतम आपत्तियां इस पर आ सकती हैं वे भी निर्मूल हो जाती हैं अगर यह बात सामने रखी जाए कि भाषा की उत्पत्ति और विकास पहले होता है और जब उसका विकास हो चुका होता है तब उसके व्याकरण के नियम निश्चित किए जाते हैं जो कि बाद वालों के एक सुविधा होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि जिन लोगों ने भाषा का विकास किया है वे अशुद्ध भाषा बोला करते थे। हम जिस भाषा को बचपन से बोलते हैं, उसे हम बहुत प्रकार से बोलते हैं। अगर कोई व्यक्ति दूसरी भाषा बोलने वाला आदमी व्याकरण पढ़कर हमारी भाषा में कमियां निकालने लगे तो यही माना जाएगा कि जितना ज्ञान उसे है, वह उसका काम चलाने के लिए पर्याप्त है लेकिन उतने ज्ञान के बल पर वह इसका अधिकारी हरगिज़ नहीं है कि भाषा के विविध रूपों को जानने वालों और उसे अपने दैनिक व्यवहार में लाने वालों की भाषा को वह अशुद्ध घोषित कर दे।
उदाहरण के तौर पर अल्लामा इक़बाल ने हिंदुस्तान की तारीफ़ करते हुए कहा है कि-
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसितां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसितां हमारा
अल्लामा इक़बाल को उर्दू पर कितनी ज़्यादा पकड़ थी, यह हम सभी जानते हैं लेकिन कोई कह सकता है कि इस शेर में ‘गुलसितां‘ शब्द ग़लत है जबकि सही शब्द ‘गुलिस्तां‘ है। अगर यह बात मानकर यहां ‘गुलिस्तां‘ शब्द लिख दिया जाए तो यह शेर तुरंत बहर से ख़ारिज हो जाएगा और यह अपना वज़्न खो देगा। उर्दू के शब्दकोष में ‘गुलसितां‘ शब्द लिखा हुआ न मिलेगा लेकिन यह अपना वुजूद रखता है और जहां इसका इस्तेमाल हुआ है, वहां इसका बिल्कुल सही इस्तेमाल हुआ है और शब्दों का ऐसा इस्तेमाल सिर्फ़ वही लोग कर सकते हैं जिन्हें भाषा पर पूरी पकड़ होती है। यही लोग भाषा में नये प्रयोग करते हैं और इस तरह ये उसका विकास करते हैं। गायत्री मंत्र में भी जो शब्द जिस तरह प्रयुक्त हुआ है, वह उसी तरह सही है और अगर उसके साथ छेड़छाड़ की गई तो वह अपनी सुंदरता ही नहीं बल्कि अपना वास्तविक अर्थ ही खो देगा।
यह अन्वय और अर्थ की दृष्टि से बात हुई।
अब हम देखेंगे कि क्या गायत्री छंद में कोई छंदगत अशुद्धि वास्तव में ही मौजूद है या वहां भी कोई ऐसी ही बात है जिसे हम अपने पैमाने पर समझने की कोशिश रहे हैं जबकि हमें कोशिश यह करनी चाहिए कि उसे वेद मंत्रों की रचना करने वालों की दृष्टि से समझा जाए।
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Sunday, February 19, 2012
गायत्री मंत्र रहस्य भाग 1 The mystery of Gayatri Mantra 1
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्.
देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्.
गायत्री मंत्र को वेदमाता कहा जाता है। जैसे बच्चे का आधार उसकी माता होती है वैसे सारे वेद का आधार गायत्री मंत्र है। जिसने गायत्री के रहस्य को समझ लिया। वास्तव में वही वेद के रहस्य को भी समझ सकता है और अगर गायत्री मंत्र को समझने में ही कमी रह जाएगी तो फिर वेद को समझने में भी कमी ही रहेगी।
वेदों में मुख्य रूप से 7 छंद प्रयुक्त हुए हैं जिनके नाम गायत्री, उष्णिह्, अनुष्टुभ, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुभ और जगती हैं। गायत्री छंद ऋग्वेद में बहुत प्रयुक्त हुआ है। अकेल ऋग्वेद के ही 2450 मंत्र इसी छंद में आए हैं। अकेले ऋग्वेद में ही 2450 मंत्र गायत्री छंद में होने के बावजूद गायत्री मंत्र के नाम से केवल एक ही मंत्र प्रसिद्ध है जिससे इसकी महत्ता का पता चलता है।
भरद्वाज स्मृति (6,146) में गायत्री शब्द का अर्थ ‘गायंतं त्रायते यस्माद् गायत्रीति स्मृता बुधैः‘ किया गया है अर्थात यह अपना गायन करने वाले की रक्षा करती है।
इसके विषय में मनु स्मृति 2,76-69 में कहा गया है कि
अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापति।
वेदत्रयान्निरदुहद्भूर्भूवः स्वरितीति च।। 76 ।।
त्रिभ्य एव तु वेदेभ्यः पादं पादमददुहत्।
तदित्पृचो या सावित्र्याः परमेष्ठी प्रजापति।। 77 ।।
एतदक्षरमेतां च जपन्व्याहृतिपूर्विकान्।
सन्ध्ययोर्वेदविद्विप्रो वेदपुण्येन युज्यते।। 78 ।।
सहस्रकृत्वस्त्वभ्यस्य हिरेतत्रिक द्विजः।
महतोऽप्येनसो मासात्वचेवाहिर्विमुच्यते।। 79 ।।
अर्थात ब्रह्मा जी ने अकार, उकार, मकार इन तीनों प्रणवअवयवों और भूः भुवः स्वः इन तीन व्याहृतियों को तीन वेदों से ग्रहण किया। उन परमेष्ठी प्रजापति ने वेदत्रय से ‘तत्‘ पद से आरंभ होने वाली सावित्री का एक एक पद ग्रहण किया। वेदविज्ञ विप्र प्रणव और व्याहृति युक्त इस सावित्री मन्त्र का जाप दोनों संध्याओं में करे तो सम्पूर्ण वेदपाठ का पुण्य पावे। द्विज इन प्रणव, व्याहृति और सावित्री मन्त्र इन तीनों को एकान्त स्थान में एकाग्र चित्त से नित्य एक सहस्र जपे तो एक मास में ही घोर पाप से मुक्त हो जाए जैसे कि सर्प केंचुली से मुक्त होता है।
गायत्री मंत्र 3 वेदों में 5 जगह थोड़े थोड़े अंतर के साथ आया है। यह मंत्र ऋग्वेद (3,62,10) , यजुर्वेद (22,9 व 30,2 व 36,3) और सामवेद (1462) में इन शब्दों में आया है-
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्.
जबकि यजुर्वेद (36,3) में इस प्रकार आया है-
भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्.
इस मंत्र का देवता सूर्य को माना गया है। वर्तमान में पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा गायत्री मंत्र का बहुत प्रचार किया गया है।
यजुर्वेद में जहां जहां यह मंत्र आया है। तीनों जगह मंत्र तो देखा गया तो एक ही वेद में एक ही मंत्र का अनुवाद थोड़ा थोड़ा भिन्न मिलता है।
1. उन सर्वप्रेरक सविता देव के सबसे वरणीय सभी पापों के दूर करने में समर्थ उस सत्य, ज्ञान, आनन्द आदि तेज का हम ध्यान करते हैं। वे सविता देव हमारी बुद्धियों को श्रेष्ठ कर्मों के करने की प्रेरणा दें।
-यजुर्वेद 22,9
2. उन सर्व प्रेरक सविता देव के तेज का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धियों को सत्य कर्मों के निमित्त प्रेरित करते हैं।
-यजुर्वेद 30,2
3. उन सविता देव के वरणीय तेज का हम ध्यान करते हैं। वे सविता देवता हमारी बुद्धियों को सत्कर्मों में प्रेरित करते हैं।
-यजुर्वेद 36,3
इसके अलावा भी पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी ने गायत्री मंत्र का एक और भावार्थ बताया है जिसका प्रचार गायत्री परिवार करता है-
4. उस प्राणस्वरूप, दुखनाशक, सुखस्वरूप श्रेष्ठ तेजस्वी, पापनाशक देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।
कुछ दूसरे विद्वानों के भावानुवाद भी हमारी नज़र से गुज़रे। एक विद्वान का भावानुवाद दूसरे विद्वान के भावानुवाद से बहुत अंतर रखता है। यहां तक कि किसी में लौकिक सूर्य से प्रार्थना की जा रही है और किसी में परमात्मा से और किसी में परमेश्वर से। दिल चाहता था कि किसी तरह यह अंतर ख़त्म होना चाहिए और इसका एकमात्र तरीक़ा यह था कि इसका शाब्दिक अनुवाद सामने आ जाए।
गायत्री परिवार के संस्थापक पं. श्री राम शर्मा आचार्य जी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। वैदिक साहित्य की जो सेवा उन्होंने की है, उसने उन्हें विश्व भर में यश दिलाया है। हम भी उनका दिल से आदर करते हैं और आज से नहीं बल्कि बचपन से ही करते हैं। हम बचपन से ही उनका साहित्य पढ़ते आ रहे हैं। उनके लेख पढ़कर हमने बहुत कुछ सीखा है। उनके ज्ञान के कारण उनका जो आदर हमारे दिल में था उसने हमारे बीच एक ऐसा रूहानी रिश्ता क़ायम कर दिया था कि जब उनका देहान्त हुआ तो उसी रात वह हमारे सपने में हमें दिखाई दिए।
हमने पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी को देखा तो हमें लगा जैसे कि हम एक मुस्लिम दरवेश को देख रहे हैं। वह एक काला कंबल पहने हुए थे। उन्होंने हमें देखा तो उन्होंने अपने दोनों हाथ इस तरह ऊपर उठा दिए जैसे कि कोई प्यार करने वाला अपनी तरफ़ बुलाने के लिए हाथ उठाता है। हम रोते हुए उनकी तरफ़ ऐसे दौड़े जैसे बच्चे दौड़ते हैं किसी ऐसे की आदमी की तरफ़ जो कि उनसे बहुत प्यार करता है। हम जब पास पहुंचे तो हमने उनके पेट में अथाह प्रकाश देखा। वह प्रकाश कितना प्यारा, कितना आकर्षित करने वाला और कितना आनंद देने वाला था, इसे शब्दों में बताना मुमकिन नहीं है। हमने अपने हाथों से उन्हें कसकर पकड़ लिया। हमारी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। हमारा मुंह उनके पेट के सामने था और हम उस पावन प्रकाश का दर्शन कर रहे थे। हमने उस प्रकाश को चूम लिया और जाने कब तक हम उसे चूमते रहे कि हमारी आंख खुल गई। हमारी आंखों से आंसू अब भी जारी थे।
सुबह हो चुकी थी। नमाज़ का वक्त भी हो चुका था। हम नमाज़ के बाद मस्जिद से लौटे तो देखा कि अख़बार में पंडित जी के देहान्त की ख़बर छपी थी। ख़बर देखकर हम सन्न रह गए।
यह सब यहां बताने का मक़सद यह है कि सब पर यह ज़ाहिर हो जाए कि हमारे लिए पंडित जी एक गुरू की हैसियत रखते हैं और वेद वचन की जो थोड़ी बहुत सेवा करना हमारे लिए संभव हो पाया है, उसमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूप में पंडित जी का इल्मी और रूहानी फ़ैज़ हमारे शामिल ए हाल है और यह सब केवल उस मालिक की दया है। शिष्यों की उपलब्धि का श्रेय भी गुरू को ही जाता है।
परमात्मा कौन है ?
इस रहस्य का ज्ञान भी हमें पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी के मित्र ने ही दिया। आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब रहमतुल्लाह अलैह पंडित जी के पक्के मित्र थे। दोनों साहिबान के बीच पत्र व्यवहार भी था और पंडित जी के निमंत्रण पर मौलाना उनसे मिलने के लिए हरिद्वार भी गए थे। हम पंडित जी से बचपन में ही जुड़ चुके थे और मौलाना से उसके काफ़ी बाद परिचय हुआ। पंडित जी के जीवन काल में हम हरिद्वार तो न जा पाए लेकिन मौलाना अक्सर हमारे शहर में आते रहते थे क्योंकि उनका जन्म स्थान यही था और यहां उनके बहुत से रिश्तेदार भी थे। अपने पास आने वालों से मौलाना बहुत प्यार से मिलते थे और अपने इल्म के मोती वह हरेक आने वाले पर बिना थके और बिना हिचके लुटाते रहते थे।
इस सपने का ज़िक्र हमने आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब रह. से किया। मौलाना पंडित जी के मित्र थे मौलाना ने बताया कि वास्तव में इस ख्वाब की ताबीर क्या है ?
मौलाना की ताबीर से हमें पंडित जी के आला मर्तबे का इल्म हुआ और एक ऐसी हक़ीक़त का इल्म भी उनके बताने से ही हुआ, जिसे हम जानते न थे।
मौलाना उस्मानी साहब रह. के मुंह से भी हमने कई बार गायत्री मंत्र का भावार्थ सुना है। वह इस मंत्र का भावार्थ इस तरह करते थे-
5- ‘हम उस ख़ुदा की रौशनी को पूजते हैं (ध्यान में लाते हैं) जो धरती, आकाश तथा स्वर्ग (अन्तरिक्ष) को बनाने वाला, पालनकर्ता और मारने वाला एक ख़ुदा है और जिसकी रौशनी हे सूर्य, तेरी रौशनी से बढ़कर है ताकि वह हमारे मन-मस्तिष्क की शक्तियों का उचित मार्गदर्शन करे।‘
यही भावानुवाद मौलाना उस्मानी साहब रह. की किताब ‘नमाज़, एक सर्वधर्म उपासना‘ के पृष्ठ संख्या 7 पर भी मौजूद है।
मौलाना ने अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्सा वेद क़ुरआन के तुलनात्मक अध्ययन में लगाया था जो कुछ उन्होंने पाया था, उसे उन्होंने हमें भी सौंपा है। इस तरह पंडित जी और मौलाना साहब, दोनों के ज्ञान की गंगा जमना का संगम हमारे दिल में एक ही जगह हो गया और जहां गंगा जमना मिलती हैं, वहां सरस्वती भी प्रकट हो ही जाती है।
हमारे साथ यही हुआ।
इसी साल की बात है। हमारा रामपुर जाना हुआ तो एक रोज़ हम मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब की किताब ‘अगर अब भी न जागे तो...‘ पढ़ रहे थे। उनकी किताब में हमारी नज़र एक मन्त्र 'मही देवस्य सवितुः परिष्टुति‘ ऋग्वेद 5,81,1 पर पड़ी ‘।
मन्त्र में ‘देवस्य सवितुः‘ में हम षष्ठी विभक्ति देखकर देखकर चौंक पड़े। इसका अर्थ होता है ‘देव का सूर्य‘। बरसों से हम गायत्री मंत्र का एक ऐसा अनुवाद करना चाहते थे जो भावानुवाद न हो बल्कि शाब्दिक अनुवाद हो और शाब्दिक अनुवाद भी ऐसा हो कि उसमें कोष्ठक लगाकर कोई शब्द लिखने की ज़रूरत न पड़े और इसके बावजूद भी वह स्पष्ट अर्थ देता हो।
गायत्री मंत्र का शाब्दिक अनुवाद करने का ख़याल हमारे दिल में मौलाना उस्मानी साहब रह. के एक वरिष्ठ और विद्वान शिष्य अल्लामा एस. अब्दुल्लाह तारिक़ साहब का लेक्चर सुनते हुए आया। जनाब अक्तूबर 1994 में 10 दिन के लिए देवबंद तशरीफ़ लाए थे। हमने भी उनके लेक्चर में शिरकत की। एक दिन उन्होंने पंडित जी और मौलाना उस्मानी साहब रह. की दोस्ती और उनकी मुलाक़ात के बारे में बताया तो उन्होंने गायत्री परिवार की स्थापना और पंडित जी द्वारा किए जा रहे गायत्री मंत्र के प्रचार के बारे में भी बताया। किसी के पूछने पर उन्होंने गायत्री मंत्र का अर्थ भी न सिर्फ़ बताया बल्कि एक एक शब्द का अर्थ बोल बोल कर अच्छी तरह लिखवा भी दिया। वह लिखा हुआ हमारे पास आज भी सुरक्षित है। यह कोशिश हम सन् 1994 से कर रहे थे लेकिन हम गायत्री मंत्र के ‘देवस्य‘ शब्द पर आकर रूक जाते थे।
‘देवस्य‘ को हम किस शब्द से जोड़ें ?
यही विचार किया करते थे। ‘मही देवस्य सवितुः परिष्टुति‘ ऋग्वेद 5,81,1 पर नज़र पड़ते ही आज अनायास हमें अपने सवाल का जवाब मिल गया था। इस जवाब ने गायत्री मंत्र का शाब्दिक अनुवाद भी स्पष्ट कर दिया बल्कि इसने गायत्री मंत्र के आध्यात्मिक अर्थ को भी हम पर ज़ाहिर कर दिया। इस तरह गायत्री मंत्र हमारे सामने अचानक ख़ुद ही एक नए रूप में प्रकट हो गया। सब कुछ पलक झपकने की देर में ख़ुद ब ख़ुद हो गया। तब हमें अनुभव हुआ कि ऋषि मंत्र के दृष्टा क्योंकर हुआ करते थे ?
गायत्री मंत्र का यह रूप देखकर हम एक रूहानी आनंद से भर गए। गायत्री मंत्र के इस अर्थ के प्रकाश में पंडित जी की भविष्यवाणी साकार होती दिख रही थी कि ‘हम बदलेंगे, युग बदलेगा‘ और ठीक यही भविष्यवाणी मौलाना उस्मानी साहब रह. किया करते थे। वे सच ही कहा करते थे। जैसे जैसे हम बदलते जा रहे हैं वैसे वैसे हमारे मंत्रों के अर्थ भी बदलते जा रहे हैं। पुराने वेदमंत्र आज नवीन अर्थ दे रहे हैं।
पहले माना जाता था कि गायत्री मंत्र में उस सूर्य से प्रार्थना की जाती है जिसके चारों ओर हमारी धरती चक्कर लगाती है। सैकड़ों हज़ारों साल तक यही माना जाता रहा। आज भी बहुत लोग यही मानते हैं लेकिन फिर इसी गायत्री मंत्र का यह अर्थ भी सामने आया जिसमें परमात्मा से प्रार्थना की जाती है।
इसी क्रम में अब गायत्री मंत्र का एक शाब्दिक अनुवाद भी पहली बार प्रकट हुआ है। यह अनुवाद आप भी देखिए -
हम परमेश्वर के सूर्य के उस वरणीय तेज का ध्यान करें जो हमारी बुद्धियों को प्रेरित करे।
तत्-उस, सवितुः-सूर्य, वरेण्यं-वरणीय, भर्गो-तेज, देवस्य-देव के, धीमहि-हम ध्यान करें, धियो-बुद्धियों को, यो-जो, नः-हमारी, प्रचोदयात्-प्रेरित करे
इस तरह जिसे आज तक एक प्रार्थना समझा जाता रहा है, वह एक आदेश के रूप में सामने आता है जिसके अनुसार हमें कुछ करना भी होगा।
हमारी रक्षा के लिए गायत्री का गायन मात्र ही काफ़ी नहीं है बल्कि जो हम गा रहे हैं उसके अनुरूप हमें ध्यान और चिंतन भी करना है ताकि हमारी बुद्धियों को प्रेरणा मिले और तब हमारी रक्षा होगी, तब हमारे समाज से पापों का नाश होगा और तब समाज पुरानी मान्यताओं को ऐसे छोड़ देगा जैसे कि सांप अपनी पुरानी केंचुली को छोड़ देता है। जैसा कि मनु स्मृति में गायत्री मंत्र का प्रभाव बताया गया है।
जारी ...
Sunday, February 12, 2012
सृष्टि वृक्ष का मूल परमात्मा है जो कि जगत का सूर्य है Sun & The Spirit
ध्यान करने वाले योगी और साहित्य रचने वाले लेखक परमात्मा शब्द को परमेश्वर के अर्थ में प्रयोग करते आ रहे हैं। ऐसा विवेकानंद जी ने भी किया और दयानंद जी ने भी किया। दुनिया इन्हें संत और महर्षि कहती है। संत और ऋषि कहलाने वाले दूसरे हिंदू विद्वानों ने भी यही ग़लती की है। हिंदू समाज में यह ग़लती आम तौर पर की जाती है। इस तरह अन्जाने में उन्होंने एक सृष्टि को परम पूज्य सृष्टा समझ लिया है और वे परमेश्वर के बजाय परमात्मा की उपासना करने लगे। इन्हें ईश्वर के वास्तविक स्वरूप की पहचान होती तो ये रचयिता की जगह उसकी रचना की उपासना न करते।
बाइबिल नया नियम में परमात्मा को पवित्रात्मा कह कर पुकारा गया है (लूका 3,22)। ईसाई जानते हैं कि यह परमेश्वर से अलग कुछ है लेकिन वह क्या है और कौन है ?, इसे वे भी न समझ पाए। उसकी महिमा देखकर उन्होंने उसे ईश्वर के तुल्य ही मान लिया और इस तरह वे भी शिर्क करने लगे।
आत्मा के रहस्य को न जानने की वजह से ही एक तरफ़ तो परमात्मा की पूजा-उपासना शुरू हो गई और दूसरी तरफ़ लौकिक सूर्य को पूजा जाने लगा।
‘सूर्य आत्मा जगतस्थुषश्च‘ ऋग्वेद 1,125,1 में ‘जगत की आत्मा‘ को सूर्य बताया गया है लेकिन वहां लोगों ने समझा कि सूर्य को जगत की आत्मा कहा जा रहा है।
हक़ीक़त यह है कि जैसे इस सौर मंडल का आधार सूर्य है। ऐसे ही इस सारी सृष्टि का आधार परमात्मा है। गायत्री मंत्र में इसी सूर्य को वरण करने के लिए कहा गया है।
‘मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः‘ ऋग्वेद 5,81,1 में ‘देवस्य सविता‘ अर्थात ‘परमेश्वर का सूर्य‘ कहकर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यह सूर्य परमेश्वर नहीं है। यहां सूर्य परमात्मा को कहा गया है। यह परमात्मा ही प्रथम आत्मा है। यही परमात्मा आत्मा है। आत्माएं बहुत सारी नहीं हैं। एक ही आत्मा से सबको जीवन की ऊर्जा निरंतर मिल रही है। सबके शरीर अलग अलग हैं, सबके प्राण अलग अलग हैं लेकिन आत्मा सबकी एक ही है। जो यह देखता है वह ‘सोऽहं‘ और ‘तत्वमसि‘ के भाव से भर जाता है।
परमात्मा और आत्मा तो एक चीज़ के दो नाम हैं। इन्हें अरबी में अलरूह और रूह कहते हैं। प्राण को नफ़्स और शरीर को जिस्म कहते हैं।
आपको यह जानकर हैरत होगी कि पवित्र क़ुरआन में कहीं भी रूह का बहुवचन रूहों शब्द नहीं आया है। सभी जगह रूह को एकवचन के तौर पर ही बयान किया गया है। देखें सूरा सं. 97 ‘सूरा ए क़द्र‘।
जबकि क़ुरआन शरीफ़ में नफ़्स का बहुवचन नुफ़ूस शब्द बहुत बार आया है।
सूफ़ियों ने रूह और नफ़्स की बहुत सूक्ष्म विवेचना की है लेकिन वह सब अरबी, फ़ारसी और उर्दू साहित्य में है। इंग्लिश में भी इस विषय में काफ़ी जानकारी दी गई है लेकिन कुछ जगहों पर बात कुछ से कुछ हो गई है। ऐसे में उन सभी बातों को उनके मूल स्रोतों से मिला कर देखा जाना ज़रूरी है।
परमेश्वर ने परमात्मा को ही परमतत्व बनाया और इसी परमतत्व परमात्मा से ही उसने यह सारी सृष्टि उत्पन्न की है। इस सृष्टि वृक्ष का मूल परमात्मा है जो कि आकाश में है। सृष्टि को इसीलिए एक ऐसा वृक्ष बताया जाता है जिसका मूल ऊपर है। ध्यान और मुराक़बे के ज़रिये आप अपने मूल पर पहुंच सकते हैं जो कि परमात्मा है। वही आपका मूलस्वरूप है। यह परमात्मा ईश्वर के गुणों का प्रतिबिंब है न कि अंश। परमात्मा से एकाकार होना वास्तविक है जबकि ईश्वर से एकाकार हो जाना केवल भासता है, वह केवल अलंकारिक है। इस अंतर को न जानने के कारण ही अद्वैतवाद के दर्शन को समझना मुश्किल हुआ और उसकी बहुत सी व्याख्याएं वुजूद में आ गईं।
मनुष्य जब अपने मूल पर पहुंचता है तो वह ख़ुद को परमात्मा का अंश पाता है जो कि परमेश्वर के गुणों का प्रतिबिंब है। बहुत लोगों को यहां भ्रम हो जाता है कि वे ईश्वर के अंश हैं और अब वे ईश्वर के साथ एकरूप हो गए हैं। यहां आकर लोग ‘अनल हक़‘ और ‘अहं ब्रह्मस्मि‘ कहने लगते हैं, जबकि हक़ीक़त यह है कि ईश्वर अनुपमेय और कल्पनातीत है।
उसके इन्हीं गुणों को दर्शाने के लिए उसे परब्रह्म कहा गया है। परब्रह्म के स्वरूप को कोई तब तक जान नहीं सकता जब तक कि वह परमतत्व को न जान ले।
परमात्मा सृष्टि में ईश्वर की सबसे प्रथम रचना है। यही परम पुरूष है। नासदीय सूक्त (ऋग्वेद) में इसे ‘सृष्टि का अध्यक्ष‘ भी कहा गया है।
सृष्टि का अध्यक्ष 'परम पुरूष' कौन है ?
यह जानने के लिए देखें पं. दुर्गाशंकर सत्यार्थी जी का शोधपूर्ण लेख -
बाइबिल नया नियम में परमात्मा को पवित्रात्मा कह कर पुकारा गया है (लूका 3,22)। ईसाई जानते हैं कि यह परमेश्वर से अलग कुछ है लेकिन वह क्या है और कौन है ?, इसे वे भी न समझ पाए। उसकी महिमा देखकर उन्होंने उसे ईश्वर के तुल्य ही मान लिया और इस तरह वे भी शिर्क करने लगे।
आत्मा के रहस्य को न जानने की वजह से ही एक तरफ़ तो परमात्मा की पूजा-उपासना शुरू हो गई और दूसरी तरफ़ लौकिक सूर्य को पूजा जाने लगा।
‘सूर्य आत्मा जगतस्थुषश्च‘ ऋग्वेद 1,125,1 में ‘जगत की आत्मा‘ को सूर्य बताया गया है लेकिन वहां लोगों ने समझा कि सूर्य को जगत की आत्मा कहा जा रहा है।
हक़ीक़त यह है कि जैसे इस सौर मंडल का आधार सूर्य है। ऐसे ही इस सारी सृष्टि का आधार परमात्मा है। गायत्री मंत्र में इसी सूर्य को वरण करने के लिए कहा गया है।
‘मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः‘ ऋग्वेद 5,81,1 में ‘देवस्य सविता‘ अर्थात ‘परमेश्वर का सूर्य‘ कहकर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यह सूर्य परमेश्वर नहीं है। यहां सूर्य परमात्मा को कहा गया है। यह परमात्मा ही प्रथम आत्मा है। यही परमात्मा आत्मा है। आत्माएं बहुत सारी नहीं हैं। एक ही आत्मा से सबको जीवन की ऊर्जा निरंतर मिल रही है। सबके शरीर अलग अलग हैं, सबके प्राण अलग अलग हैं लेकिन आत्मा सबकी एक ही है। जो यह देखता है वह ‘सोऽहं‘ और ‘तत्वमसि‘ के भाव से भर जाता है।
परमात्मा और आत्मा तो एक चीज़ के दो नाम हैं। इन्हें अरबी में अलरूह और रूह कहते हैं। प्राण को नफ़्स और शरीर को जिस्म कहते हैं।
आपको यह जानकर हैरत होगी कि पवित्र क़ुरआन में कहीं भी रूह का बहुवचन रूहों शब्द नहीं आया है। सभी जगह रूह को एकवचन के तौर पर ही बयान किया गया है। देखें सूरा सं. 97 ‘सूरा ए क़द्र‘।
जबकि क़ुरआन शरीफ़ में नफ़्स का बहुवचन नुफ़ूस शब्द बहुत बार आया है।
सूफ़ियों ने रूह और नफ़्स की बहुत सूक्ष्म विवेचना की है लेकिन वह सब अरबी, फ़ारसी और उर्दू साहित्य में है। इंग्लिश में भी इस विषय में काफ़ी जानकारी दी गई है लेकिन कुछ जगहों पर बात कुछ से कुछ हो गई है। ऐसे में उन सभी बातों को उनके मूल स्रोतों से मिला कर देखा जाना ज़रूरी है।
परमेश्वर ने परमात्मा को ही परमतत्व बनाया और इसी परमतत्व परमात्मा से ही उसने यह सारी सृष्टि उत्पन्न की है। इस सृष्टि वृक्ष का मूल परमात्मा है जो कि आकाश में है। सृष्टि को इसीलिए एक ऐसा वृक्ष बताया जाता है जिसका मूल ऊपर है। ध्यान और मुराक़बे के ज़रिये आप अपने मूल पर पहुंच सकते हैं जो कि परमात्मा है। वही आपका मूलस्वरूप है। यह परमात्मा ईश्वर के गुणों का प्रतिबिंब है न कि अंश। परमात्मा से एकाकार होना वास्तविक है जबकि ईश्वर से एकाकार हो जाना केवल भासता है, वह केवल अलंकारिक है। इस अंतर को न जानने के कारण ही अद्वैतवाद के दर्शन को समझना मुश्किल हुआ और उसकी बहुत सी व्याख्याएं वुजूद में आ गईं।
मनुष्य जब अपने मूल पर पहुंचता है तो वह ख़ुद को परमात्मा का अंश पाता है जो कि परमेश्वर के गुणों का प्रतिबिंब है। बहुत लोगों को यहां भ्रम हो जाता है कि वे ईश्वर के अंश हैं और अब वे ईश्वर के साथ एकरूप हो गए हैं। यहां आकर लोग ‘अनल हक़‘ और ‘अहं ब्रह्मस्मि‘ कहने लगते हैं, जबकि हक़ीक़त यह है कि ईश्वर अनुपमेय और कल्पनातीत है।
उसके इन्हीं गुणों को दर्शाने के लिए उसे परब्रह्म कहा गया है। परब्रह्म के स्वरूप को कोई तब तक जान नहीं सकता जब तक कि वह परमतत्व को न जान ले।
परमात्मा सृष्टि में ईश्वर की सबसे प्रथम रचना है। यही परम पुरूष है। नासदीय सूक्त (ऋग्वेद) में इसे ‘सृष्टि का अध्यक्ष‘ भी कहा गया है।
सृष्टि का अध्यक्ष 'परम पुरूष' कौन है ?
यह जानने के लिए देखें पं. दुर्गाशंकर सत्यार्थी जी का शोधपूर्ण लेख -
वेद में सरवरे कायनात स. का ज़िक्र है Mohammad in Ved Upanishad & Quran Hadees
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