सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Wednesday, November 30, 2011

हिंदू धर्म और इस्लाम में पशु बलि और क़ुरबानी पर एक यादगार संवाद

भारत में सांस्कृतिक बहुलता पाई जाती है और यह ज़बर्दस्त है।
यहां एक ही समाज में ऐसे लोग मिलेंगे जो कि एक बात को सही मानते हैं लेकिन यहां ऐसे लोग भी मिलेंगे जो कि उस बात को सही मानते हैं जो कि पहली बात के ठीक विपरीत है। यहां के लोगों ने इसी माहौल में जीना सीख लिया है।
प्रायः लोग यहां अपनी परंपराओं का पालन करते हैं और दूसरों की परंपराओं पर सरेआम उंगली उठाकर उन्हें ग़लत नहीं कहते।
लेकिन इसमें भी विविधता देखने में आती है कि कुछ लोग अपनी परंपरा को सही ठहराने के साथ ही दूसरों की परंपराओं को ग़लत और नुक्सानदेह भी बताते हैं।
कुछ लोग ऐसा समाज सुधार की नीयत से करते हैं और कुछ लोग ऐसा करके समाज में फ़ित्ना और फ़साद फैलाते हैं।
कुछ लोगों के तर्क मज़बूत होते हैं और कुछ लोग कमज़ोर तर्क का सहारा लेते हैं या फिर कुतर्क करते हैं।
इस्लाम में क़ुरबानी है। आदमी को अपने नफ़्स की ख्वाहिशात की क़ुरबानी भी करनी पड़ती है और कुछ ख़ास मौक़ों पर जानवर की क़ुरबानी भी करनी पड़ती है।
क़ुरआन और हदीस में क़ुरबानी के बारे में जो तफ़्सीलात दर्ज हैं और पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़िंदगी में खुद क़ुरबानी के जो वाक़यात दर्ज हैं, उन्हें देखकर जाना जा सकता है कि क़ुरबानी क्या है और उसका तरीक़ा क्या है ?
लेकिन जिन लोगों को सच नहीं जानना है बल्कि अपनी मान्यताओं का प्रचार करना है, वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। वे एक तरफ़ तो इस्लामी शख्सियतों को बुरा और क़ुरआन शरीफ़ को झूठा कहने वालों की तारीफ़ करते देखे जा सकते हैं और फिर उन्हीं लोगों का एक रंग यह भी होता है कि क़ुरआन की आयतों का इस्तेमाल करते हैं और क़ुरआन के हुक्म के खि़लाफ़ और पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के तरीक़े के खि़लाफ़ इस्तेमाल करते हैं।
जीवन के हरेक पहलू में और ख़ास कर खान-पान और धार्मिक रीति रिवाज के विषय में पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का जीवन एक इंसान के लिए आदर्श जीवन है। क़ुरआन को जानने के लिए भी उसे क़ुरआन के सबसे पहले शिक्षक के जीवन को देखना लाज़िमी है कि उन्होंने क़ुरआन पर कैसे अमल किया और दूसरों को कैसे करना सिखाया ?
नीचे एक पोस्ट दी जा रही है। इस पोस्ट के लेखक ने ख़ुद को छिपा रखा है। उसका पता ठिकाना ही नहीं बल्कि उसका असली नाम तक अज्ञात है लेकिन ब्लॉगिंग की दुनिया में उन्होंने अपना नाम ‘सुज्ञ‘ रखा हुआ है। यह पोशीदगी संदेह को जन्म देती है और इस्लामी परंपराओं को कुरीति कहना इस संदेह को बल देता है।
देखिए उनकी पोस्ट और इस पोस्ट पर हमारे कमेंट।
इस चर्चा के सारे उतार चढ़ाव आपके सामने आ जाएं इसके लिए हमने दूसरे कमेंट भी यहां दे दिए हैं :

बृहस्पतिवार, ३ नवम्बर २०११


पशु-बलि : प्रतीकात्मक कुरीति पर आधारित हिंसक प्रवृति


ईद त्याग का महान पर्व है, जो त्याग के महिमावर्धन हेतु मनाया जाता है। यह पर्व हमें संदेश देता है कि हर क्षण हमें त्याग हेतु तत्पर रहना चाहिए। त्याग’ की प्रेरणा के लिए हम हज़रत इब्राहीम के महान त्याग की याद करते है। किन्तु उस महान् त्याग से प्रेरणा चिंतन मिलने की जगह, गला रेते जा रहे पशुओं की चीत्कार कानों को चीर डालती है। ईद के त्याग-परहेज रूप उल्हासमय प्रसंग के बीच, विशाल स्तर पर सामूहिक पशु-बलि के बारे में सोचकर ही मन व्यथित हो उठता है। अनुकंपा स्वयं कांप उठती है।

कुर्बानी की यह प्रथा हज़रत इब्राहीम से सम्बंधित है। उनसे सपने में अल्लाह ने त्याग - कुर्बानी चाही थी, हज़रत इब्राहीम ने बेटे इसमाईल को क़ुर्बान करने का फ़ैसला किया, घात पश्चात जब मृत कुर्बानी को देखा तो वहां एक भैडा मरा पडा था।

हज़रत इब्राहीम ज्ञानी और विवेकवान महापुरूष थे, क्या हमारी सोच उस उच्चस्तर को छू सकती है कि हम उनके समान सर्वांग श्रेष्ठ निर्णय ले सकें?, क्या हम अपने आपको उनके समकक्ष रखना चाहते है?  क्या हमारा बौद्धिक स्तर उनका अनुसरण करने के लायक है? एक महापुरूष के सम्मान में भी सच की जगह, झूठ-मूठ के प्रतीक का पालन सही है? क्या यह उनका सम्मान है? क्या हमारे मन इतने निर्मल है कि उनके स्तर के समीप भी पहुंचने में सक्षम हो?  क्या वे यह पसंद करते कि कोई मेरा कुरीति से झूठ-मूठ, दिखावे भर का अनुगमन करे? कदापि नहीं।

भेडें, बक़रे ऊंट आदि ईश्वर की ही सन्तानें है, उनकी उत्पत्ति है और उन्ही की सम्पत्ति है। आप क्या कुर्बान करेंगेईश्वर का दान फिर से ईश्वर पर कुर्बान? क्या किसी बालक को खुश करना है? जबकि ईश्वर ने तो जो दान एक बार दे दिया, वापस लेने की उसे कत्तई चाहना नहीं। ईश्वर दाता है, याचक नहीं।
ईश्वर इस तरह की हिंसा से कभी भी खुश होने वाले नहीं। उन्होंने जगह जगह प्राणियों के साथ रहम की उम्मीद रखी है। वास्त्विकता तो यह है कि यह मात्र हमारी स्वार्थ प्रेरित कुर्बानी है। और इस स्वार्थ में लाखों जानवर बलि चढ जाते है। महाहिंसा का तांडव है यह पशु-बलि की कुरीति।

उपर से तर्क दिया जाता है कि……
विज्ञान के युग में कुर्बानी पर ऐतराज़ क्यों?
क्या विज्ञान नें कुर्बानी जैसी हिंसा को जायज़ ठहरा दिया है?

विवशता की अनुमति और उसका दुरपयोग

  • ऐ लोगों! धरती में जो हलाल और अच्छी-साफ सुथरी चीज़ें है, उन्हें खाओ और शैतान के पदचिन्हों पर न चलो। निस्संदेह वह तुम्हारा खुला शत्रु है (कुरआन 2:168)
  • ऐ ईमान लाने वालो तुम्हारे लिए चौपायों की जाति के जानवर हलाल हैं सिवाय उनके जो तुम्हें बताए जा रहें हैं; लेकिन जब तुम इहराम की दशा में हो तो शिकार को  हलाल न समझना। निस्संदेह अल्लाह जो चाहते है, आदेश देता है (कुरआन 5:1)

इस कथन को ‘जानवरों को खाओ की अनुमति की तरह ले लिया गया है।  पर ईश्वर कहते है- साफ-सुथरी चीजें जो हलाल कर रखी है, उसमें भी विवेक से उपयोग करो’ अविवेक के ईशारों पर न चलो, अविवेक निसंदेह तुम्हारा खुला शत्रु है। शायद परिस्थिति, जगह व उपलब्धता के आधार पर ईश्वर नें छूट दे दी। किन्तु इस अनुमति के लिए अहसानमंद होना चाहिए और उसका अनावश्यक दुरपयोग नहीं करना चाहिए। जब भी सात्विक शुद्ध शाकाहार उपलब्ध हो, हिंसाजनित आहार से परहेज करना चाहिए। ईश्वर ने शाकाहार को कहीं भी हराम नहीं ठहराया है, अंगूर खजूरों की तरफ बार बार ईशारा करके शाकाहार को श्रेष्ठ बताने की कृपा की है। पर हमारी स्वाद्लोलूपता निर्दोष जानवरों की हिंसा से ही तुष्ट होती है। अनुमति का ऐसा अहसानफरामोशी भरा प्रयोग? तब तो ईश्वर नें धूल मिट्टी पत्थर को भी हराम नहीं कहा, पर उसमें स्वाद और अहंतुष्टि कहां?

साफ-सुथरे (पवित्र)का आशय भी साफ है, इहराम की पवित्र दशा में तुम्हें शिकार आदि हिंसा हराम है। अर्थात् पवित्र दशा में जिस कर्म को हलाल समझने से ही मना किया गया हो, वह अन्यत्र भी उचित कैसे हो सकता है। इसलिए अनुमति मात्र आहार के उपलब्ध न होने की मजबूरी तक ही सीमित है।

  • रहे पशु, उन्हें भी उसी ने पैदा किया, जिसमें तुम्हारे लिए ऊष्मा प्राप्त करने का सामान भी है और हैं अन्य कितने ही लाभ। उनमें से कुछ को तुम खाते भी हो (कुरआन 16:5)
  • और निश्चय ही तुम्हारे लिए चौपायों में भी एक शिक्षा है। उनके पेटों में जो कुछ है उसमें से हम तुम्हें पिलाते है। औऱ तुम्हारे लिए उनमें बहुत-से फ़ायदे है और उन्हें तुम खाते भी हो (कुरआन 23:21)

यहां ईश्वर जानवरों को, ऊन दूध आदि के लिये  पैदा करनें की तो जिम्मेदारी तो लेते है, पर खाने की क्रिया और कर्म की पूरी जवाबदेही बंदे पर ही छोड़ते है। आशय साफ है, ईश्वर कहते है, उन्हें ऊन दूध के लिए हमने पैदा किया, पर 'कुछ को तुम खाते हो'। यह तो अनुमति भी नहीं है, यह सीधे सीधे आपकी आदतों का निर्देश मात्र है। यह ईश्वर का अर्थपूर्ण बयान है।

निशानी

बिलकुल ऐसा ही निर्देश शराब के लिये भी है, जब इस उपदेश के आशय में समझदार होकर, शराब को हेय माना गया है,  तो उसी आशय के रहते, विवेक अपना कर, मांसाहार को हेय क्यों नहीं माना जाता? देखिए यह दोनो तुलनात्मक आयतें…………
  • और निश्चय ही तुम्हारे लिए चौपायों में भी एक शिक्षा है। उनके पेटों में जो कुछ है उसमें से हम तुम्हें पिलाते है। औऱ तुम्हारे लिए उनमें बहुत-से फ़ायदे है और उन्हें तुम खाते भी हो (कुरआन-23:21)
  • और खजूरों और अंगूरों के फलों से से बनी शराब भी, जिससे तुम नशा भी करते हो और अच्छी रोज़ी भी। निश्चय ही इसमें बुद्धि से काम लेने वाले लोगों के लिए एक बड़ी निशानी है (कुरआन-16:67)

शाराब के लिए तो शिक्षा या निशानी निषेधात्मक ग्रहण की गई है पर मांसाहार के लिए निषेध नहीं ? क्यों नहीं? बुद्धि व विवेक से काम लेने वालों के लिए यह भी  एक बड़ी निशानी है

सुनिश्चित है कि कुर्बानी या पशुबलि सच्चा त्याग नहीं हैखुदा को तो इन्द्रिय इच्छाओं और मोह का त्याग प्रिय है। अपनी ही सन्तति – सम्पत्ति की जानें नहीं। जानवर तुम्हें प्रिय होता तो उसकी जान न लेते। और ईश्वर तुम्हें प्रिय होता तो उसके प्रिय जानवर की जान भी न लेते।एक ही दिन लाखों निरीह प्राणियों की हिंसा? कहीं से भी शान्ति-धर्मके योग्य नहीं है।

शान्ति के संदेश (इस्लाम) को हिंसा का पर्याय बना देना उचित नहीं है। इस्लाम, हिंसा का प्रतीक नहीं हो सकता। यह मज़हब मांसाहार का द्योतक नहीं है। यदि इस्लाम शब्द के मायने ही शान्ति है तो वह शान्ति समस्त जगत के चर-अचर जीवों के लिए भी आरक्षित होनी चाहिए।

हिंसा और मांसाहार इस्लाम की पहचान कत्तई नहीं है। न इस्लाम का अस्तित्व, मात्र मांसाहार पर टिका है। इस्लाम का अस्तित्व उसके ईमान आदि सदाचारों से ही मुक्कमल है। हिंसा से तो कदापि नहीं। सच्चा त्याग या कुर्बानी, विषय वासनाओं, इच्छाओं और मोह के त्याग में है। मनुष्य होने और ‘प्राणी के प्राण हमारे हाथ’ की अहंतुष्टि के त्याग में है। क्योंकि यह तृष्णाएं ही हमें सर्वाधिक प्रिय लगती है। इन्ही प्रिय इच्छाओं का त्याग, कुर्बानी है।

हजरत इब्राहिम में लेश मात्र भी विषय-वासना आदि दुर्गुण नहीं थे।जब दुर्गुण ही नहीं थे तो त्यागते क्या? इसलिए मज़हब प्रचार के हेतु से पुत्र उनका प्रियपात्र था। उन्हें पुत्रमोह था। सो उन्होंने वही त्यागने का निर्णय लिया। पर आज हमारे लिए प्रिय तो हमारे ही दुर्गुण बने हुए है। यही त्यागने योग्य है। बलि दुर्गुणों की दी जानी चाहिए। निर्दोष निरीह प्राणियों की नहीं।

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115 टिप्पणियाँ:

दीपक बाबा ने कहा…
मैंने कभी पवित्र कुरआन नहीं पढ़ी, और न ही किसी इस्लामिक विद्वान से इस विषय में बात की है, पर जब से ब्लॉग जगत में आया हूँ, कहीं नहीं कहीं कुरआन की आयतें पढ़ने को मिल जाति है. मेरे ख्याल ये इस प्रकार लिखी गयी हैं कि कोई भी मन माफिक व्याख्या कर ले ... हम इंसान है, इंसानों की तरह सोचना चाहिए... पर भारतवर्ष के इतिहास को खंगालेंगे तो ९९% लोग मात्र तलवार कि जोर पर मुसलमान हुए हैं, इन डरे हुए दब्बू लोगों से क्या इमान और विवेक की बात की जाए..... तलवार से डरा इंसान हमेशा तलवार का सहारा ही लेता है ... तथ्यपरक लेख के लिए साधुवाद स्वीकार कीजिए.
Arvind Mishra ने कहा…
बातें आपकी बिलकुल जायज हैं -दिक्कत है कि पशु शिकार की स्थितियां परिस्थितियाँ कमतर होते जाने के बाद लोगों ने बिना आखेट श्रम के घर बैठे ही पशु बलि का एक रास्ता बना लिया और उसे मजहब से जोड़ दिया ......मगर यह महा पशु बलि दूर कैसे होगी ? मैं तो असहाय सा हूँ ?
aarya ने कहा…
लोगों को जागरुक करना भी एक तरह से सुधार की पहली प्रक्रिया है ..आपका प्रयास सराहनीय है .....
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण) ने कहा…
पशुबलि तो वेदों में कहीं पर भी नहीं है। से तो कुछ स्वार्थी और हिंसक लोगों ने अपने कुतर्क के लिए ईजाद की है।
विरेन्द्र ने कहा…
ग़ज़ब! क्या ज़बरदस्त लिखा है ! एक संतुलित और बेहद उम्दा लेख! आप इस लेख के लिए अवश्य ही कोटि- कोटि बधाई के पात्र है! भगवान आप पर सदा अपनी कृपादृष्टि बनाए रखें और आप इसी तरह लोगों का मार्गदर्शन करते रहें!
VICHAAR SHOONYA ने कहा…
बहुत ही बढ़िया व तर्कपूर्ण लेख लेकिन साथ ही यह भी कहूँगा कि सभी धर्म आस्था पर आधारित हैं जिनमें तर्क कि कसौटी पर कसी गयी बात मान्य नहीं होती फिर वो चाहे धर्मग्रंथो में लिखे ईश्वर के दिए आदेश ही क्यों ना हों यहाँ तो बस धर्म गुरुओं कि कही बातें ही मान्य होती है. बाकी जो हो सो हो आपका प्रयास सराहनीय है. हाँ लेख कि अंतिम दो पंक्तिया बहुत अच्छी लगीं.
Rajesh Kumari ने कहा…
bahut umda aur sateek lekh likha hai.maansahar ka prachlan aajkal aadhunikta ki pahchaan bhi banne laga hai,keval muslim hi nahi sabhi dharm jaati ke log khaane lage hain janha tahan dhrm ke naam par kurbaani ke liye nireeh,maasoom janvar maare ja rahe hain...ye kaisi insaaniyat hai kya insaan ko apni jeebh par bhi koi kantrol nahi dil me koi moh mamta nahi.soch kar bahut dil dukhta hai.bahut achcha sarahniye lekh likha hai.
vishwajeetsingh ने कहा…
जब एक पशु किसी मनुष्य को मारता है तो सभी लोग उसको दरिंदा कहते है , और जब एक मनुष्य किसी पशु को मारकर या मरवाकर उसकी लाश को खाता है तो बुद्धिजीवी मनुष्य उसको दरिंदा न कहकर मांसाहारी कहते है ? क्या मांस किसी पशु की हत्या किये बिना प्राप्त हो जाता है ? धर्म के नाम पर पशु बली व मांसाहार की दरिंदगी को छोड़कर शाकाहारी जीवन जीने के लिए प्रेरित करती सुन्दर , सार्थक , तथ्यात्मक और महत्वपूर्ण पोस्ट आभार ।
डॉ॰ मोनिका शर्मा ने कहा…
संतुलित विचार रखती सार्थक पोस्ट...... हिंसा करने के लिए कोई तर्क नहीं हो सकता .....
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…
@हजरत इब्राहिम में विषय-वासना आदि दुर्गुण थे ही नहीं तो क्या त्यागते? मज़हब के प्रचार के हेतु से उन्हें पुत्र मोह था तो उन्होंने वही निर्णय लिया। पर हमारे लिए तो दुर्गुण त्यागने योग्य है। सार्थक पोस्ट और सुन्दर करुणामय विचार। जहाँ तक मैं समझता हूँ, पशु-बलि न तो इस्लाम के अनिवार्य स्तम्भों में से एक है और न ही मुसलमानों के लिये अनिवार्य कही गयी है। पशु-हत्या के बिना भी एक पक्का मुसलमान बना जा सकता है और मैं ऐसे मुसलमानों से परिचित भी हूँ। फिर भी हमारे मुस्लिम मित्र इस्लाम में सर्वभूतदया और प्रेम के विषय में और अधिक जानकारी सामने ला सकते हैं। शुभकामनायें!
कीर्ती रानी रस्तोगी ने कहा…
bahut hi badiya muhmamad sahab ne kabhi na to mansh khaya.na khane ki aagya di. Bahuthi badiya prastuti
Kunwar Kusumesh ने कहा…
मैं पशु-बलि के खिलाफ हूँ और आपके तर्क और विचारों से सहमत हूँ.
तरुण भारतीय ने कहा…
आशा है कि आपकी इस महत्वपूर्ण व् पोस्ट पर हिंसा करने वालो को कुछ ज्ञान आएगा ....सुज्ञ जी राजीव दीक्षित जी ने भी मांसाहार से हानियाँ विषय पर बहुत अच्छा व्याख्यान दिया है आप उसको ...rajivdixit.com देख सकते हैं ....
Er. Diwas Dinesh Gaur ने कहा…
आदरणीय भाई सुज्ञ जी, सार्थक पोस्ट...फिर भी यदि इस्लामी मतावलंबियों को समझ न आए तो और वे पशुओं पर उनके द्वारा की जा रही हिंसा को जायज़ ठहरा रहे हैं तो वे चले अपने दीन की राह पर| फिर हम भी अपने धर्म के अनुसार चलने के लिए स्वतंत्र हैं| स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि जो किताब हिंसा व जीव हत्या को बढ़ावा दे उसे फाड़ देना चाहिए, जला देना चाहिए| आपकी सार्थक व्याख्या पसंद आई आभार आदरणीय भाई विश्वजीत सिंह जी, आपकी टिपण्णी बहुत तार्किक लगी| साधुवाद...
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण) ने कहा…
कल के चर्चा मंच पर, लिंको की है धूम। अपने चिट्ठे के लिए, उपवन में लो घूम।।
ZEAL ने कहा…
सहमत हूँ इस सार्थक आलेख से बशर्ते हिंसा के पुजारी भी समझें इस बात को।
Pankaj Singh Rajpoot ने कहा…
सुज्ञ जी आपके सर्वोपरि लेखो में से एक है ये लेख, क्योंकि इश्वर की वाणी का अथार्थ तो यहीं है.. इश्वर (santon) की वाणी का भी अज्ञानी लोग भौतिक पक्ष ही रख पाते हैं, देख पाते है और समझ पाते हैं ..... नीचे आदरणीय स्वर्गीय भाई राजीव दीक्षित जी के विडियो का लिंक हैं .... मांसाहार के विषय में जरूर देखें .... --- http://www.youtube.com/watch?v=fAXiZvfVP-g ----- राजीव भाई का पतंजलि योगपीठ में दिया गया व्याख्यान {{ मांसाहार से ग्लोबल वार्मिंग }} भी जरूर सुने और उसके आधार पर लेख लिखें.... मूर्खों के लिए केवल इतना ही कहूँगा .... बकरी पाती (पत्ते) ख़त है, तो खल काढी जात है .. जो बकरी को खात है ......... ?????/
चन्दन भारत ने कहा…
सही और सबों की आँखे खोलने वाली|
mahendra verma ने कहा…
आपके विचारों का में समर्थन करता हूं। सबके लिए मनन करने योग्य आलेख।
संजय @ मो सम कौन ? ने कहा…
"बलि दुर्गुणों की दी जानी चाहिए। निर्दोष निरीह प्राणियों की नहीं।"
सञ्जय झा ने कहा…
amrit-vachan........ pranam.
Global Agrawal ने कहा…
आपने अंतिम दो पंक्तियों में सब कुछ कह दिया एक बेहतरीन लेख के लिए आभार आपका (विचार शून्य) पाण्डेय जी की बात से सहमत
shilpa mehta ने कहा…
सुज्ञ भैया - बहुत अच्छा लिखा है | पर असर कितना होगा ?? बहुत ही कम | :( मन बहुत उदास है, उन निरीह प्राणियों के चेहरे आँखों के आगे घूम रहे हैं, जिन्हें "कुर्बान" होने जाते देखा, अपने अपने मालिक के साथ - | कितने विश्वास और प्रेम से ये बेचारे पशु अपने मालिक के साथ जा रहे हैं, बिना यह जाने कि यह प्रेम नहीं - धोखा है | मालिक उसे प्यार से नहीं खिला पिला रहा - बल्कि उसे मार कर ज्यादा से ज्यादा मांस खाने को मिल सके - इसलिए उसे "मोटा करने " के लिए खिला रहा है | अपने प्रिय बेटे की कर्तव्यपरायानता के लिए "क़ुरबानी" को निरीह जानवर की "क्रूर हत्या" से कैसे बराबर कर लिया लोगों ने ? कल से न कुछ खाया जा रहा है - न पानी गले उतर रहा है | पानी पीने में भी लग रहा है कि इसमें किसी बेचारे बकरे का खून मिला कर पी रही हूँ - जिसे मरने जाते देखती रही पर बचाने को कुछ भी न कर सकी - कुछ भी तो नहीं :( | कैसी बेबसी है ये ? हे ईश्वर - तुझसे प्रार्थना है - अब तू ही कुछ कर | हम सब को अपने आप के "सामर्थ्य" पर से अंधविश्वास छोड़ कर (कि "मैं" इस स्थिति को सुधार पाने को सशक्त हूँ, "मैं" कुछ करूंगा) ईश्वर की शरण में जाना होगा | अपना कर्म तो करना ही है [ यह लिख कर के जो आप कर रहे हैं ], परन्तु ईश्वर से प्रार्थना भी आवश्यक है कि वे इन भटके हुए दिलों को सद्बुद्धि दें - जिससे ये इन हत्याओं को ह्त्या समझ पाएं, इसे कुर्बानी ना समझते रहें | :(
रंजना ने कहा…
अपने मनोभाव,सम्मान और आभार किन शब्दों में व्यक्त करूँ...बिलकुल बिलकुल नहीं समझ पा रही... आपके इस पुनीत प्रयास को शत शत नमन अनुराग भाई... शाकाहार परिवार में मुझे भी सम्मिलित कर लें...
सुज्ञ ने कहा…
रंजना जी, आभार तो आपका, आपने हमारे मनोबल को आधार प्रदान किया। आपको सादर आमन्त्रण भेज रहा हूं, कृपया स्वीकार कर कृतार्थ करें।
Global Agrawal ने कहा…
वाह ! रंजना जी भी अब निरामिष परिवार में शामिल हैं ! ये एक शुभ समाचार है ! आपका स्वागत हैं रंजना जी ! आपके लेख की बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी ! -- गौरव
अमरनाथ 'मधुर' ने कहा…
जलेस मेरठ पर ऐसी ही पोस्ट देख सकते हैं |
रचना ने कहा…
शाकाहार परिवार में मुझे भी सम्मिलित कर लें
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…
रंजना जी, जीवदया के प्रति आपके विचारों से अवगत रहा हूँ। आप इस ब्लॉग पर योगदान दे सकेंगी यह जानकर बहुत खुशी हुई। आपका हार्दिक स्वागत है|
shilpa mehta ने कहा…
रचना जी - आप भी शाकाहार समर्थक हैं ? बड़ी ख़ुशी हुई जान कर :) | I AM FEELING PROUD . :) दरअसल मैं भी इस ब्लॉग का हिस्सा बनना चाहती थी - पर क्योंकि मैं स्वयं ही शुद्ध शाकाहारी नहीं बन पाई हूँ अब तक - इसलिए कभी पूछने की हिम्मत ही न हुई | :( | यही संकोच रोकता रहा कि जब खुद ही एग लेती हूँ - तो दूसरों को कैसे प्रेरणा दे पाऊँगी ? कोशिश जारी है | शायद कभी इस परिवार में सम्मिलित होने की योग्यता आ जाए :)| BUT CHANCES ARE QUITE LOW :(
प्रेम सरोवर ने कहा…
आपके पोस्ट पर आना सार्थक सिद्ध हुआ । पोस्ट रोचक लगा । मेरे नए पोस्ट पर आपका आमंत्रण है । धन्यवाद ।
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
जीव छोटा हो तो खा लिया जाय और जीव का साइज़ बड़ा हो तो न खाया जाए ? आप में से चंद लोग मांस नहीं खाना चाहते तो न खाएं , यह आपका फ़ैसला है लेकिन मुसलमानों के मांसाहार की निंदा करने के लिए कम से कम क़ुरआन का सहारा तो आपको नहीं लेना चाहिए। क़ुरआन में मांस खाने से कहीं रोका गया हो तो आप बताएं कि कहां रोका गया है ? क़ुरआन के जानकार किसी अधिकृत मुस्लिम विद्वान ने वह कहा हो जो आप बता रहे हैं कि क़ुरआन का अर्थ यह नहीं है बल्कि यह है और निष्कर्षतः मांस न खाया जाए तो आप बताएं वर्ना तो हम आपको बताते हैं कि बनारस में झींगा मछली का पालन शुरू कर दिया गया है शाकाहारी ब्राह्मणों की देख रेख में ही। आदरणीय अरिवन्द मिश्रा जी भी यह जानते हैं बल्कि हमें तो यह बात पता ही उनके ज़रिये चली। फ़ेस बुक पर हमने देखा कि आदरणीय मिश्रा जी अपने दसियों हिंदू भाईयों के साथ अपने हाथों में झींगा मछली लिए खड़े हैं। हमें बड़ा ताज्जुब हुआ लेकिन यह सच था। हमने समझा कि उनकी सोच में वाक़ई कुछ बदलाव आया है लेकिन यहां ‘निरामिष‘ ब्लॉग पर देखा तो फिर ताज्जुब हुआ कि जनाब मांसाहार का विरोध कर रहे हैं। यह क्या बात हुई कि व्यावसायिक हितों के मददेनज़र तो मांसाहार को प्रोत्साहन दिया जाए और फिर उसी का विरोध भी किया जाए ? यह कैसी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता है ? यही हाल दूसरे शाकाहारियों का है। वे भी किसी न किसी रूप में जीव खा रहे हैं, दही और शहद आदि ख़ूब खा रहे हैं लेकिन बकरा खाने वाले का विरोध कर रहे हैं। जीव छोटा हो तो खा लिया जाय और जीव का साइज़ बड़ा हो तो न खाया जाए ? उनके विरोध से तो बस साइज़ का विरोध नज़र आ रहा है न कि जीव को मारने और उसे खाने का ! हमें उम्मीद है कि समय के साथ आप और बदलेंगे और तब यह सैद्धांतिक विरोध भी आप के विचारों में शेष न रहेगा।
shilpa mehta ने कहा…
@ अरविन्द मिश्र जी पर जमाल जी की टिप्पणी : मांसाहार का विरोध और महाबली का विरोध - दो अलग अलग विषय हैं | कृपया उन्हें एक ना समझें | बहुत लोग है जो मांसाहारी हो कर भी देवी को पशुबलि चढ़ाये जाने के विरोधी हैं | बहुत लोग शाकाहारी होकर भी बलि के समर्थक हैं | हमारे यहाँ (कर्नाटक में) दसहरा के एक दिन पूर्व "आयुध पूजा" के लिए (देवी के आगे ) पहले पशु बलि होती थी | कहते हैं कि श्री राम ने नवरात्री के व्रतों के उपरांत इस दिन देवी की पूजा की और शस्त्रों की भी [ आयुध का अर्थ शस्त्र होता है ] और अगले दिन उन शस्त्रों से रावण वध हुआ | अब कानूनन बलि प्रथा बंद हो गयी है | तो प्रतीकात्मक रूप से कद्दू (pumpkin ) को बड़ी क्रूरता से पटक कर फोड़ा जाता है (बलि के रूप में ) | कद्दू तो शाकाहारी भोजन ही है ना ? और यह बलि देने वाले शुद्ध साकाहारी भी हैं | प्याज लहसुन से भी परहेज करने वाले शाकाहारी | परन्तु मैं इस बलि की भी विरोधी हूँ | बात सिर्फ आहार की ही नहीं - हमारे कर्म के पीछे देवी की पूजा के लिए जीव को बलि देने की भावना की है | मैं उस भावना की विरोधी हूँ | चाहे पशु की बलि हो, या वही भावना एक मूक कद्दू पर बरसाई जाए - दोनों ही में उस कार्य के करता के मन में हिंसा ही है | क्या आप जानते हैं - अफ्रीका में एक पेड़ होता है | uskee लकड़ी इतनी कठोर है कि न आरी से कटता है , न कुल्हाड़ी से | उसे काटने के लिए उस पर "शब्द हिंसा" की जाती है | लोग उके आस पास खड़े हो कर उसे गालियाँ और अपशब्द कहते हैं | इतना कड़वा कहते हैं कि वह बेचारा पेड़ (जो मनुष्य की भाषा तक नहीं जानता) दुखी हो कर मर जाता है - स्वयं सूख जाता है - फिर काटा जाता है | यह हिंसा ही है | चाहे पशु पर केन्द्रित हो, या पेड़ पर | कृपया हिंसा की बात को बलि तक रहने दें - कोई भी झींगा खेती शुरू करें - मांसाहार करें - इसका अर्थ यह नहीं कि वे बलि का विरोध न कर सकते हों |
सुज्ञ ने कहा…
डॉ अनवर जमाल साहब, सबसे पहले तो आपके दिए लिंक के प्रत्युत्तर में निरामिष पर यह सामग्री पढ़ने का अनुरोध करूंगा, यह तीन आलेख है जो सब कुछ स्पष्ट कर देते है। शाकाहार : तर्कसंगत, न्यायसंगत आहार का चुनाव : शाकाहार से मानसिक करूणा पोषण हिंसा का अल्पीकरण करनें का संघर्ष भी अपने आप में अहिंसा है
सुज्ञ ने कहा…
डॉ अनवर जमाल साहब, वैसे तो इस सामुहिक ब्लॉग "निरामिष" का मूल आधार मानवीय करूणा में अभिवृद्धि और जीवनमूल्यों को स्थापित करने की भावना से शाकाहार के प्रति जाग्रति और माँसाहार के गैरलाभ प्रकट करने का एक मात्र उद्देश्य है। तथापि इस आलेख का केन्द्र बिन्दु महाहिंसा है, पशुबलि है। क्योंकि बात कुर्बानी के बिंब (प्रतीक) पशुबली की हो रही है तो उस आशय को प्रकट करने के लिए क़ुरआन के सन्दर्भों का सहारा उचित ही है। सभी सन्दर्भों को ज्यों का त्यों रखकर विवेचना की गई है, कहीं भी उन्हें पलटने या मिसकोट करनें का कोई प्रयास नहीं हुआ है। आप भी सत्यता के लिए क़ुरआन पढ़ने समझने की सलाह देते ही है, और यह सार्वजनिक भी है। आप कहते है यह ईश्वर का अन्तिम संदेश है और सम्पूर्ण जगत के लिए है तो कोई क्यों न इसे पढ़े-गुने विवेचन करे और सत्य जानने का प्रयास करे। मांसाहार की निंदा के लिए क़ुरआन का सहारा लेने की जरूरत ही नहीं है, लॉज़िक ही पर्याप्त है। पर हिंसा के उपदेशों पर चिंतन के लिए ईशोपदेश या ईश-आज्ञा देखना जरूरी है। सच्चे मोमिन भी आचरण क्या हो, जानने के लिए क़ुरआन का सहारा लेते ही है।
सुज्ञ ने कहा…
डॉ अनवर जमाल साहब, श्रीमान अरविन्द मिश्र जी पर किए गए आपके कटाक्ष का शिल्पा जी नें युक्तियुक्त जवाब दिया है। फिर भी ध्यान रखें कि आधुनिक पर्यावरणवादियों के अपने आधार होते है। और आहार के प्रति अपनी व्यक्तिगत सौजन्यशीलता। आप तो ब्राह्मण है,इस तरह के उलहानों से कभी अन्तरात्मा जाग भी उठेगी। पर क्या किसी अधिकृत मुस्लिम विद्वान के शुद्ध शाकाहारी रहने पर इसी तरह का कटाक्ष किया जाता है?
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
युग बदलने का समय क़रीब है @ भाई सुज्ञ जी, हमें आपसे यह आशा न थी कि हमारे कमेंट को आदरणीय डा. अरविंद मिश्रा जी पर कटाक्ष कहकर आप उनके क्रोध को भड़काने का काम करेंगे। यह सही है कि हमें आदरणीय मिश्रा जी से इस वर्ष क़ुरबानी के विरोध की आशा हरगिज़ नहीं थी और हमने यही बात अपनी टिप्पणी में कही है कि हमने उन्हें झींगा मछली के पालन को प्रोत्साहन देते हुए देखकर यही समझा कि शायद आदरणीय मिश्रा जी समझ गए हैं कि शाकाहार के संबंध में जो धारणा बना दी गई है वह ठीक नहीं है। भारत की आर्थिक, सामाजिक और भोजन संबंधी समस्याओं को हल करने के लिए उस धारणा के दायरे से बाहर आना होगा। लेकिन यहां उन्हें अपनी आशा के विपरीत कमेंट करते पाकर हमारा ख़याल चकनाचूर हो गया। हमने अपने कमेंट में यही बताया है और साथ ही यह आशा भी जताई है कि जब बनारस झींगा मछली के उत्पादन तक आ पहुंचा है तो आगे वह और भी विकास करेगा और शायद तब हमें आज की तरह निराश न होना पड़ेगा। समय की नब्ज़ को पहचानने की महारत ब्राह्मण समुदाय में सबसे ज़्यादा होती है और उनकी यही ख़ूबी उन्हें आज भी शीर्ष पर क़ायम रखे हुए है। आपने चूंकि बात को दूसरा रूख़ देने की कोशिश की है इसलिए हम आदरणीय डा. अरविन्द मिश्रा जी से अग्रिम रूप से ही क्षमा चाहते हैं। हम उन्हें आदर देते हैं और उनसे हम प्यार भी करते हैं क्योंकि वह वास्तव में एक ज्ञानी आदमी हैं और कुछ चीज़ों को हम से भी ज़्यादा बेहतर जानते हैं और दूसरी बात यह है कि उनके दिल में मुसलमानों के लिए कोई दुर्भावना नहीं है। आपको चाहिए था कि आप तथ्यों पर विचार करते और हक़ीक़त को स्वीकार करते। 2- आप क़ुरआन पढ़ना चाहते हैं तो पढ़ें, यह आपका अधिकार भी है और हमारी ख्वाहिश भी लेकिन आप यह जान लें कि जिस ग्रंथ को समझना चाहें तो उसे उसके अधिकृत विद्वानों से समझने की कोशिश करें और जो अर्थ वह बताएं आप उसे ग्रहण करें इस तरह आप उस ग्रंथ को समझने में सफल होंगे लेकिन अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो आप उस ग्रंथ को नहीं समझ पाएंगे। यह एक अटल हक़ीक़त है। आशा है कि आप इससे असहमत नहीं होंगे। 3- जब आप मांसाहार की निंदा करने के लिए लॉजिक को ही पर्याप्त मानते हैं तो फिर क़ुरआन का उद्धरण क्यों दे रहे हैं ? और अगर दे रहे हैं तो कृप्या बताएं कि क़ुरआन कहां कहता है कि मांस न खाओ ? कृप्या यह भी बताएं कि क़ुरआन की किस आयत में कहा गया है कि हज के अवसर पर क़ुरबानी में पशु को ज़िब्ह न करो ? जब आप क़ुरआन की आयतों से कुछ सिद्ध करना चाहते हैं तो फिर आपको इन सवालों का जवाब देना होगा। शिल्पा जी की बातें आपको युक्तियुक्त लगीं, :) हमारे विरोध में जो भी लिखता है, उसे तो आप हमेशा से सराहते आए हैं जनाब। लेकिन जान लीजिए कि निराश हम आपसे भी नहीं हैं। कोई जल्दी आएगा और कोई देर में लेकिन आएगा हरेक। समय का हथौड़ा हरेक दीवार को तोड़ता हुआ जो आ रहा है। तब तक हम सिर्फ़ कहते रहेंगे और इंतेज़ार करेंगे, युग बदलने का समय बस अब क़रीब ही है। इसे हर वह आदमी जानता है जो तत्व को जानता है। http://vedquran.blogspot.com/2011/11/qurbani.html
Global Agrawal ने कहा…
शिल्पा जी , सुना है मां पूर्णागिरि धाम के मेले में भी अब पशु बलि के बजाय प्रतीकात्मक बलि दी जा रही है। खुद पशु बलि के खिलाफ लोगों को जागरूक कर रही मंदिर कमेटी का मानना है कि इस परंपरा में बदलाव जरूरी है। आपका कमेन्ट पढ़ कर अच्छा लगा |
सुज्ञ ने कहा…
डॉ अनवर जमाल साहब, 1- श्रीमान अरविन्द मिश्र जी के मात्र महाहिंसा के विरोध पर आपका टिप्पणी करना अनुचित ही था। भले आप उसे कुछ भी माने, द्वेष पैदा करना मेरी आदतों का हिस्सा नहीं है। पर अच्छा ही है आपकी चेतना लौट आई। विप्रवर वैसे भी मन्यु धारक है। 2- कुरआन किसी अधिकृत विद्वानों से समझने की कोशिश करें तो उसी पूर्वाग्रह सहित विवेचन आने की सम्भावना है। कुरआन बहुसम्भाव्य अर्थ में लिखी गई है। और अनेकों तरह से विवेचनाएं हो चुकी है। और फिर किसे अधिकृत माना जाय? इसलिए स्वयं श्रम करना अधिक उचित प्रतीत होता है। अनुवाद के लिए मैं आपके वेद-कुरआन पर दिए लिंक और इस http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/1:1 का प्रयोग करता हूँ, दोनो का मेल बैठ जाय तो मान लेता हूं सही अनुवाद है। @ 3- जब आप मांसाहार की निंदा करने के लिए लॉजिक को ही पर्याप्त मानते हैं तो फिर क़ुरआन का उद्धरण क्यों दे रहे हैं ? 3- मैं कह चुका हूं, मांसाहार के लिए नहीं मै अहिंसाचार के लिए क़ुरआन का उद्धरण दे रहा हूं। मैं अधिक नहीं जानता, अभी तो अध्ययन कर रहा हूं। असंख्य आयतो में मात्र ईशारा या निशानी कहा गया है। यहां आपके द्वारा 'रेत के महल' पर प्रस्तुत आयत ही रखता हूं- अल्लाह कहता है- लयं लनालल्लाहा लुहूमुहा वला दिमाऊहा वलाकियं यनालुत्तक्वा मिनकुम। -अलक़ुरआन, 22, 37 अर्थ- न उनके मांस अल्लाह को पहुंचते हैं और न उनके रक्त। किंतु उसे तुम्हारा तक्वा (धर्मपरायणता) पहुंचता है। भले 'उस' पर अल्लाह का नाम ही क्यों न ले लो, मांस और खून कभी अल्लाह को नहीं पहुँचेंगे। हमारे सुकृत्य ही अल्लाह स्वीकार करेगा। ईश्वर नें जानवरों को मनुष्य के समकक्ष दर्जा दिया है। न कि जो हमें बताया जाता है कि 'जानवरों को अल्लाह ने हमारे भोजन के लिए ही भेजा है।' सच्चाई के लिए यह आयत देखिए - धरती में चलने-फिरनेवाला कोई भी प्राणी हो या अपने दो परो से उड़नवाला कोई पक्षी, ये सब तुम्हारी ही तरह के गिरोह है। हमने किताब में कोई भी चीज़ नहीं छोड़ी है। फिर वे अपने रब की ओर इकट्ठे किए जाएँगे (Qur'an 6:38) इस में अल्लाह नें स्पष्ट बयान किया है कि प्राणी (जानवर) और पक्षी मनुष्य के सदृश ही और उसी गिरोह (जाति-वर्ग) के ही है। सभी रब की ओर इकट्ठे किए जाएँगे। अर्थात् निर्णायक दिन, सभी समान रूप से ईश्वर के प्रति जवाबदेह होगें। इतना ही नहीं वे भी मनुष्य की तरह न्याय मांगने के अधिकारी होंगे। और अपने गुनाहों से बच नहीं सकेंगे। परम दयालु-कृपालु ईश्वर अवश्य न्याय करता है। वह निश्चित ही करूणानिधान है। छोटी (मात्र मनु्ष्य तक सीमित)नहीं, बड़ी रहमतो वाला है। (उसकी दया करूणा रहम तभी है जब हम अच्छे कर्म ही करें, गुनाहों से तौबा कर लें। मात्र कान पकड़ कर नहीं, सच में) बाकी तो आप ही बताएं, आप विद्वान है, आलीम है। किस आयत में कहा गया है कि क़ुरबानी में मात्र पशु को ही ज़िब्ह करो?
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
@ भाई सुज्ञ जी ! यह जानकर अच्छा लगा कि आप क़ुरआन पढ़ रहे हैं। समय के साथ साथ आपकी जानकारी बढ़ती चली जाएगी। क़ुरबानी और मांसाहार के संबंध में आप जिस भी अधिकारी विद्वान का अनुवाद पढेंगे और जिससे भी उसकी प्रक्रिया जानना चाहेंगे तो आपको सभी लोग एक ही बात बताएंगे। वाक़ई आप एक अच्छी वेबसाइट पर क़ुरआन का अनुवाद पढ़ रहे हैं। अगर आप चाहें तो आप इसकी प्रिंटिड कॉपी भी इनके प्रकाशन से मंगा सकते हैं। हमें कोशिश करनी चाहिए कि लोगों में आपस में टकराव न हो क्योंकि इंसान की नफ़रतें ही उसके ख़ात्मे का सबब बनेंगी : क़ुर'आन की भविष्यवाणी
Global Agrawal ने कहा…
सुज्ञ जी की अध्ययनशीलता को नमन !!!
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…
ईश्वर सब प्राणियों की रक्षा करे! अभी कई सवाल अनुत्तरित हैं। लगता है कि सुज्ञ जी और जमाल जी की वार्ता से काफ़ी समुद्र मंथन होगा और शुरू में भले ही हालाहल दिखे अंततः कुछ रत्न हम सब के हाथ अवश्य लगेंगे।
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
@ भाई सुज्ञ जी ! देखिए क़ुरआन की आयतों और महान नबियों की परंपराओं की व्याख्या इस्लामी विद्वान निम्न प्रकार करते हैं- ईदुल-अज़्हा का पैग़ाम - Maulana Wahiduddin Khan रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सहाबा ने पूछा कि ‘हे ईशदूत ! ये कुरबानियां क्या हैं ?‘ ‘आपने जवाब दिया कि तुम्हारे बाप इबराहीम की परंपरा है‘ (मुस्नद अहमद, जिल्द 4, पृष्ठ 368; इब्ने माजा, किताबुल-अज़ाही) इस हदीसे-रसूल से मालूम होता है कि ईदुल-अज़्हा की हक़ीक़त क्या है ? हज़रत इबराहीम के तरीक़े को प्रतीक रूप में अंजाम देकर उसको अमली ऐतबार से अपनी ज़िन्दगी में शामिल करने का संकल्प लेना। ईदुल-अज़्हा हर साल माह ज़िल-हिज्जा की नियत तारीख़ों में दोहराई जाती है। वह दरअस्ल हज की विश्व व्यापी इबादत का हिस्सा है। हज पूरे अर्थों में, हज़रत इबराहीम की ज़िन्दगी का प्रतीकात्मक प्रदर्शन (Symbolic performance) है। हज़रत इबराहीम का मिशन विश्व व्यापी दावती मिशन था। आपने इस मिशन के लिए एक जगह से दूसरी जगह का सफ़र किया। आपने अपने ख़ानदान वालों को इसी काम में लगाया। आपने इस दावती मिशन के सेन्टर के तौर पर काबा का निर्माण किया और उसकी परिक्रमा की। उन्होंने दो पहाड़ियों सफ़ा और मरवा के दरम्यान सई करके बताया कि दुनिया में मेरी सारी दौड़धूप परमेश्वर के लिए होगी। आपने क़ुरबानी करके अपने अन्दर उस इरादे को पैदा किया कि आप अपनी ज़िन्दगी को पूरी तरह परमेश्वर की सेवा के लिये अर्पित करेंगे। आपने अहराम की शक्ल में सादा कपड़े पहने जो इस बात का प्रतीक थे कि उनकी ज़िन्दगी पूरी तरह सादा ज़िन्दगी होगी। आपने शैतान को कंकरियां मारकर इस बात का इज़्हार किया कि वे अपने आपको शैतान के बहकावे से आखि़री हद तक बचाएंगे, वग़ैरह। ईदुल-अज़्हा के दिन मुसलमान अपने क़रीब के लोगों से मुलाक़ातें करते हैं। ये मुलाक़ातें मानो उस दावती सरगर्मी का नवीनीकरण हैं जो हज़रत इबराहीम ने अपने दौर की आबाद दुनिया में अंजाम दीं। इसी तरह आज हर मुसलमान को अपने ज़माने के लोगों के दरम्यान दावती ज़िम्मेदारियों को अदा करना है। फिर हर जगह के मुसलमान ‘अल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर , ला इलाहा इल्लल्लाहु वल्लाहु अकबर , अल्लाहु अकबर वलिल्लाहिल्हम्द‘ कहते हुए मस्जिदों में जाते हैं और वहां दो रकअत नमाज़ ईद अदा करते हैं और इमाम का ख़ुत्बा सुनते हैं। यह अपने अन्दर इस भावना को ज़िन्दा करना है कि मैं खुदा की पुकार पर लब्बैक यानि ‘हाज़िर हूं‘ कहने के लिये तैयार हूं और यह कि मेरा पूरा जीवन भक्ति और समर्पण का जीवन होगा। इसी के साथ इमाम के पीछे नमाज़ अदा करना और नमाज़ के बाद खुत्बा सुनना इस बात का संकल्प करना है कि मैं इस दुनिया में सामूहिक जीवन गुज़ारूंगा न कि अलग थलग सा जीवन। ईदुल-अज़्हा के दिन क़ुरबानी की जाती है। इस कुरबानी के वक़्त ये वचन अदा किये जाते हैं- इन्ना सलाती व नुसुकी व महयाया व ममाती लिल्लाहि रब्बिल आलमीन (अलअनआमः 161) अर्थात बेशक मेरी नमाज़ और मेरी कुरबानी और मेरा जीना और मेरा मरना सिर्फ़ सब लोकों के पालनहार परमेश्वर के लिए होगा। कुरबानी के वक़्त अदा किये जाने वाले ये अल्फ़ाज़ बताते हैं कि कुरबानी की मूल भावना या उसकी अस्ल हक़ीक़त क्या है ? कुरबानी दरअस्ल एक प्रतीकात्मक संकल्प (Symbolic covenant ) है। इस प्रतीकात्मक संकल्प का संबंध सारे जीवन से है। इसका मतलब यह है कि ईदुल-अज़्हा के दिन आदमी प्रतीक रूप में यह संकल्प करता है कि उसकी ज़िन्दगी पूरे अर्थों में रबरूख़ी ज़िन्दगी (God-oriented life ) होगी। वह रब की इबादत को उसके तमाम तक़ाज़ों के साथ ‘ाामिल करेगा। वह अपने आपको रब के मिशन में अर्पित करेगा। वह दुनिया में सरगर्म होगा तो रब के मिशन के लिये सरगर्म होगा। उसपर मौत आएगी तो इस हाल में आएगी कि उसने अपने आपको पूरी तरह रब के मिशन में लगा रखा था, वह पूरे अर्थों में सच्चे मालिक का बन्दा बना हुआ था। उसका जीना खुदा के लिए जीना था न कि खुद अपने लिए जीना।
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
हजः एक चेतावनी हज़रत अनस बिन मालिक से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया -‘लोगों पर एक ऐसा ज़माना आएगा जबकि मालदार लोग तफ़रीह के लिए हज करेंगे और उनके दरम्यानी दर्जे के लोग तिजारत के लिए हज करेंगे और उनके आलिम दिखावे और ‘शोहरत के लिए हज करेंगे और उनके ग़रीब लोग मांगने के लिए हज करेंगे। (कन्ज़ुल-उम्माल, रक़मुल-हदीस 12363) यह हदीस बहुत डरा देने वाली है। इसकी रौशनी में मौजूदा ज़माने के मुसलमानों को ख़ास तौर पर अपना जायज़ा लेना चाहिए। उन्हें ग़ौर करना चाहिए कि उनका हज इस हदीस का मिस्दाक़ तो नहीं बन गया है। मालदार लोग सोचें कि उनके हज में तक़वा की भावना है या सैर व तफ़रीह की ? आम लोग यह सोचें कि वे दीनी फ़ायदे के लिए हज करने जाते हैं या तिजारती फ़ायदे के लिए ? आलिम ग़ौर करें कि वे बन्दगी का सबक़ लेने के लिए बैतुल्लाह जाते हैं या अपनी पेशवायाना हैसियत को बुलन्द करने के लिए ? इसी तरह ग़रीब लोग सोचें कि हज को उन्होंने खुदा से मांगने का ज़रिया बनाया या इनसानों से मांगने का ज़रिया ? कुरबानी और इस्लाम कुरआन में बताया गया है कि ‘वमा ख़लक़तुल जिन्ना वलइन्सा इल्ला लियाअ़बुदून‘ (अज़्ज़ारयातः 56) अर्थात इनसान और जिन्न को सिर्फ़ इसलिये पैदा किया गया है कि वे उस रब की इबादत करें। इबादत क्या है ? इसे एक हदीसे रसूल में इस तरह बयान किया गया हैः ‘ताअ़बुदुल्लाह क-अन्नका तराह’ (बुख़ारी व मुस्लिम) इस हदीसे रसूल मालूम होता है कि कुरआन के उसूल ए इबादत के मुताबिक़, इनसान के लिए ज़िन्दगी का सही तरीक़ा क्या है ? वह तरीक़ा यह है कि इनसान ईश्वर के वुजूद को इस तरह पा ले कि उसे हर लम्हा उसकी मौजूदगी का अहसास (Presence) होने लगे। उसका ‘शऊर इस मामले में इतना जाग जाए कि उसे ऐसा महसूस होने लगे कि मानो वह ईश्वर को देख रहा है। यह अहसास उसकी पूरी ज़िन्दगी को ईश्वरीय रंग में रंग दे। उसके हर क़ौल और हर अमल से ऐसा महसूस होने लगे जैसे कि वह ईश्वर को देख रहा है, जैसे कि वह जो कुछ कर रहा है, सीधे ईश्वर की निगरानी के तहत कर रहा है। इसी ज़िन्दा ‘शऊर के साथ ज़िन्दगी गुज़ारने का नाम इबादत है। यह दर्जा किसी आदमी को सिर्फ़ उस वक़्त मिलता है जबकि उसने ईश्वर को अपना एकमात्र मक़सद (Pillars) बना लिया हो।
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
ज़िब्हे अज़ीम कुरआन की 37 वीं सूरा में हज़रत इबराहीम के वाक़ये का ज़िक्र है। आपने अपने सपने के अनुसार अपने बेटे इस्माईल को ज़िब्ह करने के लिए ज़मीन पर लिटा दिया। उस वक़्त अल्लाह तआला की तरफ़ फ़रिश्ते ने बताया कि तुम्हारी कुरबानी कुबूल हो गई। अब तुम बेटे के बदले एक दुम्बा ज़िब्ह कर दो। सो आपने ऐसा ही किया। उस मौक़े पर कुरआन में यह आयत आई है- ‘वफ़दैनाहु बिज़िब्हिन अज़ीम‘ (अस्साफ़्फ़ात 107) यानि हमने इस्माईल को एक महान कुरबानी के ज़रिये बचा लिया। इस आयत में ज़िब्ह अज़ीम (महान कुरबानी) का लफ़्ज़ इस्माईल के लिये आया है, न कि दुम्बे के लिये। दुम्बे को हज़रत इबराहीम ने फ़िदया के तौर पर ज़िब्ह किया और इस्माईल को एक ज़्यादा महान कुरबानी के लिये चुन लिया गया। यह ज़्यादा महान कुरबानी क्या थी ?, वह यह थी कि इसके बाद इस्माईल को अपनी मां हाजरा के साथ मक्का के रेगिस्तान में आबाद कर दिया गया ताकि उनके ज़रिये से एक नई नस्ल तैयार हो। उस वक़्त यह इलाक़ा सिर्फ़ रेगिस्तान की हैसियत रखता था। वहां जीवन के साधनों में से कोई चीज़ मौजूद न थी। इसलिये इसे कुरआन में ‘ज़िब्हे अज़ीम‘ का दर्जा दिया गया। यह अज़ीम कुरबानी अल्लाह तआला का एक मंसूबा था, जिसे इस्माईल के ज़रिये अरब के रेगिस्तान में अमल में लाया गया। कुरआन (इबराहीमः 37) में इस वाक़ये का ज़िक्र सूक्ष्म इशारे के तौर पर आया है और हदीस में इसका ज़ि़क्र विस्तार के साथ मिलता है। हाजरा पैग़म्बर की पत्नी थीं। उनसे एक औलाद पैदा हुई जिसका नाम इस्माईल रखा गया। एक खुदाई मंसूबे के तहत हज़रत इबराहीम ने हाजरा और उनके छोटे बच्चे इस्माईल को अरब में मक्का के एक मक़ाम पर ले जाकर बसा दिया जो उस वक़्त बिल्कुल ग़ैरआबाद था। इस वाक़ये के बारे में कुरआन में यह संक्षिप्त हवाला मिलता है- ‘‘और जब इबराहीम ने कहा, ऐ मेरे रब, इस शहर को अम्न वाला बना और मुझे और मेरी औलाद को इससे दूर रख कि हम मूर्तिपूजा करें। ऐ मेरे रब, इन मूर्तियों ने बहुत लोगों को गुमराह कर दिया। सो जिसने मेरा अनुसरण किया वह मेरा है और जिसने मेरा कहा न माना तो तू बख्शने वाला, मेहरबान है। ऐ हमारे रब, मैंने अपनी औलाद को एक बिना खेती की वादी में तेरे आदरणीय घर के पास बसाया है। ऐ हमारे रब, ताकि वह नमाज़ क़ायम करें। सो तू लोगों के दिल उनकी तरफ़ माइल कर दे और उन्हें फलों की रोज़ी अता फ़रमा ताकि वे शुक्र करें‘‘- (इबराहीम 35-37) हाजरा के बारे में कुरआन में सिर्फ़ सूक्ष्म इशारा आया है लेकिन हदीस की मशहूर किताब सही बुख़ारी में हाजरा के बारे में तफ़्सीली रिवायत मौजूद है। यह रिवायत यहां नक़्ल की जाती है- ‘‘अब्दुल्लाह बिन अब्बास कहते हैं कि औरतों में सबसे पहले हाजरा ने कमरपट्टा बांधा ताकि साराह को उनके बारे में ख़बर न हो सके। फिर इबराहीम हाजरा और उनके बच्चे इस्माईल को मक्का में ले आये। उस वक़्त हाजरा इस्माईल को दूध पिलाती थीं। इबराहीम ने उन दोनों को मस्जिद के ऊपरी हिस्से में एक बड़े पेड़ के नीचे बिठा दिया, जहां ज़मज़म है। उस वक़्त मक्का में एक आदमी भी मौजूद न था और न ही वहां पानी था। इबराहीम ने खजूर का एक थैला और पानी की एक मशक वहां रख दी और खुद वहां से रवाना हुए। हाजरा उनके पीछे निकलीं और कहा कि ऐ इबराहीम, हमें इस वादी में छोड़कर आप कहां जा रहे हैं, जहां न कोई इनसान है और न कोई और चीज़ ? हाजरा ने यह बात इबराहीम अलैहिस्सलाम से कई बार कही और इबराहीम ने हाजरा की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। हाजरा ने इबराहीम से कहा कि क्या अल्लाह ने आपको इसका हुक्म दिया है ? इबराहीम ने कहा-‘हां‘। हाजरा ने कहा- ‘फिर तो अल्लाह हमें नष्ट न करेगा।‘ हाजरा लौट आईं। इबराहीम जाने लगे। यहां तक कि जब वह मक़ाम ए सनिया पर पहुंचे जहां से वह दिखाई नहीं देते थे तो उन्होंने अपना रूख़ उधर किया जहां अब काबा है और अपने दोनों हाथ उठाकर यह दुआ की कि ‘ऐ हमारे रब ! मैंने अपनी औलाद को एक ऐसी वादी में बसाया है जहां कुछ नहीं उगता, यहां तक कि आप दुआ करते हुए लफ़्ज़ ‘यश्कुरून‘ तक पहुंचे।
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
हाजरा इस्माईल को दूध पिलातीं और मशक में से पानी पीतीं। यहां तक कि जब मशक का पानी ख़तम हो गया तो वह प्यासी हुईं और उनके बेटे को भी प्यास लगी। उन्होंने बेटे की तरफ़ देखा वह प्यास से बेचैन था। बेटे की इस हालत को देखकर वह मजबूर होकर निकलीं। उन्होंने सबसे क़रीब पहाड़ ‘सफ़ा‘ को पाया। सो वह पहाड़ पर चढ़ीं और वादी की तरफ़ देखने लगीं कि कोई आदमी नज़र आ जाये। वह किसी को न देख सकीं। वह सफ़ा से उतरीं। यहां तक कि जब वह वादी तक पहुंची तो अपने कुरते का एक हिस्सा उठाया फिर वह थकावट से चूर इनसान की तरह दौड़ीं। वादी को पार करके वह ‘मरवा‘ पहाड़ पर आईं। उसपर खड़े होकर उन्होंने देखा तो कोई इनसान नज़र न आया। इस तरह सफ़ा और मरवा के दरम्यान सात चक्कर लगाये। अब्दुल्लाह बिन अब्बास कहते हैं कि अल्लाह के रसूल स. ने फ़रमाया कि लोग इन दोनों के दरम्यान ‘सई‘ करते हैं। फिर वह मरवा पर चढ़ीं। उन्होंने एक आवाज़ सुनी। वह अपने आपसे कहने लगीं कि चुप रह। फिर सुनना चाहा तो वही आवाज़ सुनी। उन्होंने कहा कि तूने अपनी आवाज़ मुझे सुना दी तू इस वक़्त हमारी मदद कर सकता है। देखा तो मक़ाम ए ज़मज़म के पास एक फ़रिश्ता है। फ़रिश्ते ने अपनी एड़ी या पंख ज़मीन पर मारा, पानी निकल आया। हाजरा उसे हौज़ की तरह बनाने लगीं और हाथ से उसके गिर्द मेंड खींचने लगीं। वह पानी चुल्लू से लेकर अपनी मशक में भरतीं। वह जितना ज़्यादा पानी भरतीं, चश्मा उतना ही ज़्यादा उबलता। इब्ने अब्बास कहते हैं कि अल्लाह के रसूल स. ने फ़रमाया कि अल्लाह हाजरा पर रहम करे, अगर वह ज़मज़म को अपने हाल पर छोड़ देतीं या आपने यह फ़रमाया कि अगर वह चुल्लू भर कर पानी न लेतीं तो ज़मज़म एक बहता चश्मा होता। हाजरा ने पानी पिया और बेटे को पिलाया।
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम हज़रत इबराहीम 1985 पू.ई. में इराक़ के प्राचीन शहर ‘उर‘ में पैदा हुए। उन्होंने 175 साल से ज़्यादा उम्र पाई। ‘उर‘ प्राचीन इराक़ की राजधानी था। यह इलाक़ा प्राचीन आबाद दुनिया, मैसोपोटामिया का केन्द्र था। हज़रत इबराहीम ने अपनी सारी बेहतरीन योग्याताओं और पूरी दर्दमंदी के साथ अपने समकालीन समाज को एकेश्वरवाद की तरफ़ बुलाया। उस वक़्त के इराक़ी बादशाह नमरूद ¼Nemrud½ तक भी अपनी दावत पहुंचाई, लेकिन कोई भी आदमी आपकी दावत को कुबूल करने के लिये तैयार न हुआ, यहां तक कि आप जब हुज्जत तमाम करने के बाद इराक़ से निकले तो आपके साथ सिर्फ़ दो इनसान थे- आपका भतीजा और आपकी पत्नी। हज़रत इबराहीम से पहले अलग-अलग ज़मानों और इलाक़ों में खुदा के पैग़म्बर आते रहे और लोगों को एकेश्वरवाद की दावत देते रहे, लेकिन इन सभी पैग़म्बरों के साथ एक ही सुलूक यह किया गया कि लोग उनका इन्कार करते रहे। उन्होंने पैग़म्बरों का स्वागत उनका मज़ाक़ उड़ाकर किया। (यासीनः 30) हज़रत इबराहीम पर पैग़म्बरों की तारीख़ का एक दौर ख़त्म हो गया। अब ज़रूरत थी कि अल्लाह की तरफ़ बुलाने की नई योजना बनाई जाए। इस योजना के लिए अल्लाह तआला ने हज़रत इबराहीम को चुना। सो हज़रत इबराहीम इराक़ से निकले और मुख्तलिफ़ शहरों से गुज़रते हुए आखि़रकार वहां पहुंचे जहां आज मक्का आबाद है। जैसा कि सही बुख़ारी की एक रिवायत से मालूम होता है, उनका यह सफ़र जिब्रील फ़रिश्ते की रहनुमाई में तय हुआ।
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
हाजरा के शौहर हज़रत इबराहीम बिन आज़र तक़रीबन साढ़े चार हज़ार साल पहले इराक़ में पैदा हुए और 175 साल की उम्र पाकर उनकी वफ़ात हुई। उन्होंने अपने ज़माने के लोगों को एकेश्वरवाद की दावत दी, लेकिन शिर्क और मूर्तिपूजा उनके ज़हन पर इतनी छाई हुई थी कि वे एकेश्वरवाद को स्वीकार न कर सके। हज़रत इबराहीम ने एक से ज़्यादा जेनरेशन्स तक लोगों को एकेश्वरवाद का पैग़ाम दिया, लेकिन उस ज़माने में बहुदेववाद एक संस्कृति के रूप धारण करके लोगों की ज़िन्दगी में इस तरह शामिल हो चुका था कि वह उससे अलग होकर सोच नहीं सकते थे। पैदा होते ही हर आदमी को शिर्क का सबक़ मिलने लगता था। यहां तक कि माहौल के असर से उसका ज़हन पूरी तरह शिर्क में कन्डीशंड हो जाता था। उस वक़्त अल्लाह तआला के हुक्म से हज़रत इबराहीम ने एक नया मंसूबा बनाया। वह मंसूबा यह था कि नगरों की सभ्यता से बाहर ग़ैर आबाद रेगिस्तान में एक नस्ल तैयार की जाए। इसी मक़सद के लिए हज़रत इबराहीम ने हाजरा और इस्माईल को मक्का में आबाद किया।
shilpa mehta ने कहा…
@ "कुरआन की 37 वीं सूरा में हज़रत इबराहीम के वाक़ये का ज़िक्र है। आपने अपने सपने के अनुसार अपने बेटे इस्माईल को ज़िब्ह करने के लिए ज़मीन पर लिटा दिया। उस वक़्त अल्लाह तआला की तरफ़ फ़रिश्ते ने बताया कि तुम्हारी कुरबानी कुबूल हो गई।" मांग दुम्बे की नही थी | पुत्र की भी नहीं थी | मांग थी अपनी सर्वाधिक प्रिय वास्तु कुर्बान करने की | इब्राहीम जी को अपना पुत्र सर्वाधिक प्रिय था - इसलिए उन्होंने उसे कुर्बान करने का फैसला किया था | उनकी कुर्बानी बिना दिए ही मंज़ूर हो गयी - क्योंकि रहमत के बादशाह को हत्या नहीं, क़ुरबानी का मंसूबा चाहिए था | @ रही बात " अब तुम बेटे के बदले एक दुम्बा ज़िब्ह कर दो। " उस वक़्त, उस रेगिस्तानी इलाके में , मांसाहर आमतौर पर लिया जाता था - क्योंकि शाकाहार पर्याप्त मात्र में उपलब्ध न था | तो एक "संकल्प" हो चुका था जिबह का - उसे पूर्ण करने के लिए दुम्बा प्रकट किया गया - जिसे प्रतीकात्मक रूप से बलि दिया जाए | परन्तु बलि उसकी मांगी नहीं गयी थी originally and the reference given here by respected Anwar Jamaal ji is just retelling the story we all already accept. it is NOT a command to kill goats etc as a sacrifice to God ------------- ऐसे दो उदाहरण हिन्दू शास्त्रों से देती हूँ - एक सकारात्मक - एक नकारात्मक :- १. श्री राम ने धनुष यज्ञ के समय परशुराम जी के कहने पर बाण साधा - फिर वे मान गए श्री राम की दैवी शक्ति को | परन्तु राम ने कहा - साधा हुआ बाण अब खाली न जाएगा | सो परशुराम की तप से अर्जित की गयी शक्ति पर वह बाण चला | श्री राम सकारात्माक शक्ति के द्योतक हैं | सो वह बाण किसी जीव पर नहीं , बल्कि उस शक्ति पर चला - जो परशुराम ने स्वयं ही सुझाई - यह कह कर कि इसके जाने से मेरा अहंकार नष्ट हो जाएगा | २. महाभारत युद्ध के अंत में अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र साधा - जिसके उत्तर स्वरुप अर्जुन ने भी | परन्तु वेदव्यास जी की आज्ञा पर अर्जुन ने बाण लौटा कलिया - किन्तु अश्वत्थामा (जो नकारात्मक शक्ति का द्योतक hai ) ने गर्भ स्थित अभिमन्यु पुत्र परीक्षित / प्रतीक्षित (जीव) की हत्या का प्रयास किया | जीव की हत्या के इरादे भर से उसका पाप इतना बड़ा हुआ कि उसे अनंत समय तक दर्द ले कर भटकने की सज़ा मिली | तो समझा जाये कि जीव हत्या पाप है |
सुज्ञ ने कहा…
डॉ अनवर जमाल साहब, इस आलेख का अभिप्रायः है कि कुर्बानी का यह तरीका उचित है या नहीं, आपने बडे विस्तार से हज़रत इबराहीम के बारे जानकारी प्रस्तुत की जो कि हम कईं बार अन्य स्रोतों से भी जानते है। पर इतने विस्तृत इतिहास और प्रत्येक व्यवहार पर चर्चा सम्भव नहीं। जबकि बहुत से प्रश्न उठते है। किन्तु इन प्रश्नोत्तर की श्रंखला में समग्र इस्लाम ही डिस्कस हो जाएगा। जो हमें विषय से भटका देगा। इस लिए इस्लाम की मूल भावना "इन्ना सलाती व नुसुकी व महयाया व ममाती लिल्लाहि रब्बिल आलमीन (अलअनआमः 161) अर्थात बेशक मेरी नमाज़ और मेरी कुरबानी और मेरा जीना और मेरा मरना सिर्फ़ सब लोकों के पालनहार परमेश्वर के लिए होगा।" अर्थात् रब की इबादत में समर्पण। और इबादत क्या है? तो जैस कि आपने बताया कि "‘ताअ़बुदुल्लाह क-अन्नका तराह’ (बुख़ारी व मुस्लिम) इस हदीसे रसूल मालूम होता है कि कुरआन के उसूल ए इबादत के मुताबिक़, इनसान के लिए ज़िन्दगी का सही तरीक़ा क्या है ?वह तरीक़ा यह है कि इनसान ईश्वर के वुजूद को इस तरह पा ले कि उसे हर लम्हा उसकी मौजूदगी का अहसास (Presence) होने लगे।" सार है कि वह जीवन को सद्कर्मों में समर्पित कर दे, यही इबादत है इस्लाम के इसी सिद्धांत को केन्द्र बिन्दु में रखकर सभी क्रियाओं कर्मों को परखेंगे। कोई हर्ज़ नहीं अगरचे व्याख्या की भी व्याख्या हो जाती है। क्योंकि सिद्धांत ही वह मुख्य धुरी है जिसके आधार पर सारे उपदेश रचे-बसे होते है।
सुज्ञ ने कहा…
डॉ अनवर जमाल साहब, हांलाकि विषयान्तर हो जाएगा किन्तु इस सब से कैसे प्रश्न खड़े होते है एक उदाहरण देना उपयुक्त होगा। आपने जो व्याख्या प्रस्तुत की उसके अनुसार, हज़रत इबराहीम नें एकेश्वरवाद और अमूर्तिपूजक समाज की स्थापना के मिशन से और ईश्वर की प्रेरणा से…… @"उस वक़्त अल्लाह तआला के हुक्म से हज़रत इबराहीम ने एक नया मंसूबा बनाया। वह मंसूबा यह था कि नगरों की सभ्यता से बाहर ग़ैर आबाद रेगिस्तान में एक नस्ल तैयार की जाए। इसी मक़सद के लिए हज़रत इबराहीम ने हाजरा और इस्माईल को मक्का में आबाद किया।" फिर क्या रहा होगा कि उन्ही इस्माईल की वही नस्ल आगे चलकर बहुदेववादी और मूर्तिपूजक हो गई? जिसे अन्तिम पैगम्बर मुहम्म्द सल्ल को बडे संघर्ष के बाद हटाना पड़ा। जबकि यह मिशन ईश्वर प्रेरित था। यह प्रश्न इस लिए भी जरूरी है कि जो मैं आगे पूछने जा रहा हूं उसकी कड़ी में जुड़ सके। अमूर्तीपूजा इस्लाम का मुख्य सिद्धान्त है।
सुज्ञ ने कहा…
डॉ अनवर जमाल साहब, @ कुरआन की 37 वीं सूरा में हज़रत इबराहीम के वाक़ये का ज़िक्र है। आपने अपने सपने के अनुसार अपने बेटे इस्माईल को ज़िब्ह करने के लिए ज़मीन पर लिटा दिया। उस वक़्त अल्लाह तआला की तरफ़ फ़रिश्ते ने बताया कि तुम्हारी कुरबानी कुबूल हो गई। अब तुम बेटे के बदले एक दुम्बा ज़िब्ह कर दो। सो आपने ऐसा ही किया। उस मौक़े पर कुरआन में यह आयत आई है- ‘वफ़दैनाहु बिज़िब्हिन अज़ीम‘ (अस्साफ़्फ़ात 107) यानि हमने इस्माईल को एक महान कुरबानी के ज़रिये बचा लिया। ~~कुरआन की 37 वीं सूरा की आयत सं 103 से 111, अन्ततः जब दोनों ने अपने आपको (अल्लाह के आगे) झुका दिया और उसने (इबाराहीम ने) उसे कनपटी के बल लिटा दिया (तो उस समय क्या दृश्य रहा होगा, सोचो!) (103) और हमने उसे पुकारा, "ऐ इबराहीम! (104) तूने स्वप्न को सच कर दिखाया। निस्संदेह हम उत्तमकारों को इसी प्रकार बदला देते है।" (105) निस्संदेह यह तो एक खुली हूई परीक्षा थी (106) और हमने उसे (बेटे को) एक बड़ी क़ुरबानी के बदले में छुड़ा लिया (107) और हमने पीछे आनेवाली नस्लों में उसका ज़िक्र छोड़ा, (108) कि "सलाम है इबराहीम पर।" (109) उत्तमकारों को हम ऐसा ही बदला देते है (110) निश्चय ही वह हमारे ईमानवाले बन्दों में से था (111) डॉ अनवर जमाल साहब, इन आयतों में कहीं भी दुम्बे का जिक्र नहीं आया है। न बदले में किसी जीव-हत्या का। हदीसों में हो सकता है पर यहाँ हम कुरआन को की मुख्य और प्रमाणिक, न बदली गई न बदली जा सकने वाली मानकर चल रहे है। पुत्र बलिदान का संकल्प तो विदित हो रहा है और पूर्ण तैयारी भी। पुत्र को बचा लेने का कृपा ॠण व्यक्त हुआ है पर बदले की प्रतिपूर्ती जरूरी हो ऐसे विधान के कोई चिन्ह नज़र नहीं आते। बदले का विधान नहीं है,दुम्बे का तो उल्लेख ही नहीं है। और पशु-हिंसा की तो आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि कृपा से उॠण होना भी नहीं है।
सुज्ञ ने कहा…
डॉ अनवर जमाल साहब, पहले कारण का जबाब तो यह हुआ कि पवित्र कुरआन में रब की राह में बलिदान हेतु विकल्प प्रस्तुत करने की आज्ञा नहीं है। और न हज़रत इबराहीम नें किसी दुम्बे को जिब्ह किया हो ऐसा उल्लेख है। किसी हदीसकार नें अतिश्योक्ति से इसे प्रक्षिप्त किया हो ऐसा प्रतीत होता है। जब अल्लाह तआला नें स्वयं फ़रिश्ते के माध्यम से बता दिया कि तुम्हारी कुरबानी कुबूल हो गई है तो हज़रत इबराहीम द्वारा कुबूल हो जाने के बाद भी अल्लाह की इच्छा से उपर जाकर दुम्बे को कुर्बान करना समझ से परे है। अब दूसरा कारण और उसका तर्क…………… @रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सहाबा ने पूछा कि ‘हे ईशदूत ! ये कुरबानियां क्या हैं ?‘ ‘आपने जवाब दिया कि तुम्हारे बाप इबराहीम की परंपरा है‘ (मुस्नद अहमद, जिल्द 4, पृष्ठ 368; इब्ने माजा, किताबुल-अज़ाही) यद्दपि यह उल्लेख हदीस से है,तथापि मानकर चलते है कि कथन रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ही है। अब यहां आपकी उपरोक्त व्याख्या से से ही अंश उद्धत करना उपयुक्त होगा @"और जब इबराहीम ने कहा, ऐ मेरे रब, इस शहर को अम्न वाला बना और मुझे और मेरी औलाद को इससे दूर रख कि हम मूर्तिपूजा करें। ऐ मेरे रब, इन मूर्तियों ने बहुत लोगों को गुमराह कर दिया।" @"उन्होंने अपने ज़माने के लोगों को एकेश्वरवाद की दावत दी, लेकिन शिर्क और मूर्तिपूजा उनके ज़हन पर इतनी छाई हुई थी कि वे एकेश्वरवाद को स्वीकार न कर सके। हज़रत इबराहीम ने एक से ज़्यादा जेनरेशन्स तक लोगों को एकेश्वरवाद का पैग़ाम दिया, लेकिन उस ज़माने में बहुदेववाद एक संस्कृति के रूप धारण करके लोगों की ज़िन्दगी में इस तरह शामिल हो चुका था कि वह उससे अलग होकर सोच नहीं सकते थे।" ~~अब प्रश्न होता है कि जब हज़रत इबराहीम ने स्वयं अपने बाप-दादाओं की बहुदेववाद और मूर्तिपूजा जैसी प्रथा परम्परा को उखाड़ कर दूर करनें में अपना व अपने बच्चों का जीवन समर्पित कर दिया,ऐसे महान सुधारवादी महापुरूष के नाम और काम के आधार पर पड़ी इस मात्र प्रतीक परम्परा को निभाना गलत और उनका अनादर माना जाना चाहिए।
सुज्ञ ने कहा…
अब है तीसरा कारण……………… @ प्रतीकात्मक प्रदर्शन (Symbolic performance) @"कुरबानी दरअस्ल एक प्रतीकात्मक संकल्प (Symbolic covenant ) है। इस प्रतीकात्मक संकल्प का संबंध सारे जीवन से है। इसका मतलब यह है कि ईदुल-अज़्हा के दिन आदमी प्रतीक रूप में यह संकल्प करता है कि उसकी ज़िन्दगी पूरे अर्थों में रबरूख़ी ज़िन्दगी (God-oriented life ) होगी।" ~~अब हमें इस्लाम के प्रधान सिद्धांतो का स्मरण रखते हुए, मनन करना होगा। 'अल्लाह की सच्ची इबादत और समर्पण'और एकेश्वरवाद एवं अमूर्तीपूजा। मूर्तीपूजा अर्थात् बुतपरस्ती को इस्लाम में शिर्क माना गया है। क्यों? क्योकि इस्लाम मानता है किसी भी बिंब आकार को साक्षात ईश्वर के समकक्ष मूल्य नहीं दिया जा सकता। ईश्वर में ऐसे विशिष्ठ गुण है जो अन्यत्र प्रतीक रूप में आरोपित नहीं किए जा सकते/ न किए जाने चाहिए। वह वास्तविकता का इबादतगार है, प्रतीकों का नहीं। इससे यह भी स्पष्ठ होता है कि इस्लाम कर्तव्यों का पालन, यथार्थ के धरातल पर उतर कर करने में विश्वास करता है, मात्र कथनी और दिखावे से नहीं। प्रतीकों का सहारा लेकर नहीं। इसलिए इसतरह, कुर्बानी की प्रतीकपूजा इस्लाम के सिद्धांतो के अनुकूल नहीं है। जो इस्लाम जीवों को अनावश्यक कष्ट देना तक उचित न मानता हो वह मात्र प्रतीक के लिए जीवहिंसा को कैसे अपना सकता है? फर्ज़ पर समर्पित, अपने कर्तव्य को प्रतीक बनाकर जानवरों की जान पर कैसे थोप सकता है?
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
एक विनम्र विनती, भारत के हित में: @ मननशाली भाई सुज्ञ जी ! एक ओर तो आप इस्लाम के मान्यताप्राप्त और अधिकृत विद्वानों से पवित्र क़ुरआन समझने से इंकार कर रहे हैं कि कहीं उनके आग्रह भी साथ ही न आ जाएं और दूसरी ओर आप क़ुरआन का अध्ययन अपने आग्रह के साथ कर रहे हैं ? यही वजह है कि ऐसे बहुत से सवाल आपके सामने खड़े हो रहे हैं जो कि सही जानकारी के अभाव में खड़े होने लाज़िमी हैं। सही जानकारी के लिए आपको बता दिया जाए कि इसलाम में प्रतीक मना नहीं है बल्कि केवल प्रभु परमेश्वर के प्रतीक बनाना मना है। क़ुरआन को जब कभी पैग़ंबर साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से काटकर समझने की कोशिश की जाएगी तो यही स्थिति पैदा हो जाएगी। कृप्या अपने पूर्वाग्रह को त्याग कर इस्लाम को जानने की कोशिश करें और जिन लोगों ने इस्लामी ग्रंथों के अध्ययन में अपना जीवन खपाया है और उसे अपने जीवन में उतारा है, उनसे थोड़ा थोड़ा करके क्रमवार समझने की कोशिश करें ताकि आप वास्तव में समझ सकें। जिसे मात्र भटकना हो और दूसरों को भटकाना हो, वह जो चाहे करे, आप क्यों ऐसे लोगों का अनुकरण करते हैं ? http://vedquran.blogspot.com/2010/07/way-for-mankind-anwer-jamal.html ईश्वर एक है और उसने मानवता को सदा एक ही धर्म की शिक्षा दी है। उस धर्म की शिक्षा उसने अपनी वाणी वेद के माध्यम से दी और महर्षि मनु को आदर्श बनाया तो इस धर्म को वैदिक धर्म या मनु के धर्म के नाम से जाना गया और जब बहुत से लोगों ने वेद को छिपा दिया और इसके अर्थों को दुर्बोध बना दिया तो उसी परमेश्वर ने जगत के अंत में पवित्र कुरआन के माध्यम से धर्म को फिर से सुलभ और सुबोध बना दिया है। ईश्वर अपनी वाणी कुरआन में स्वयं कहता है- इन्नहु लफ़ी ज़ुबुरिल्-अव्वलीन । अर्थात बेशक यह कुरआन आदिग्रंथों में है। इस ज़मीन पर ‘वेद‘ सबसे पुराने धार्मिक ग्रंथ हैं। वेद सार ब्रह्म सूत्र है- एकम् ब्रह्म द्वितीयो नास्ति , नेह , ना , नास्ति किंचन । अर्थात ब्रह्म एक है दूसरा नहीं है, नहीं है, नहीं है, किंचित भी नहीं है। ### यह समय है जब कि सनातन धर्म को पहचान कर उसे ग्रहण किया जा सकता है और ऐसा करना भारत के हित में ही होगा। कृप्या इस पर ठंडे दिल से विचार कीजिए भाई साहब, हम आपसे विनम्र विनती करते हैं।
सुज्ञ ने कहा…
डॉ अनवर जमाल साहब, आपको मेरी टिप्पणियों में आग्रह कहां नजर आया। मैने तो उल्टे इस्लाम के मान्यताप्राप्त और अधिकृत विद्वानों की इस व्याख्या को इस्लाम के उच्चतर सिद्धांतो के परिपेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। उसमें भी मेरी अपनी व्याख्या के शब्द कम और उपरोक्त व्याख्या के शब्द अधिक है। जिस कारण से प्रभु परमेश्वर के प्रतीक बनाना मना है। उसी आधार पर मैने अन्य प्रतीको की उपयोगिता की और निर्देश किया है। और पिछले दिनों पैग़ंबर साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के चित्र बनाने पर भी इस्लाम के विद्वानों ने जोरदार विरोध किया था। मूल आदर्शों को समझना होगा। और उन आदर्शों पर कायम रहना होगा। तभी इबादत सफल है। हमने तो क़ुरआन को कभी पैग़ंबर साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से काटकर समझने की कोशिश की ही नहीं फिर यह आरोप क्यों? मैं क्यों भटकाने वाले लोगों का अनुकरण करूं, और इसी कारण ही तो सावधान हूं और स्वपर्यत्न से ही ज्ञानार्जन का प्रयास कर रहा हूं, न जाने किस विद्वान के भेष में कोई भटकाने वाला मिल जाय? एकेश्वरवाद, द्वेत अद्वेत हमारा आज का विषय नहीं है। अतः वेद सुक्त पर अभी कुछ न कहुं तो उचित है। अब आप मूल पोस्ट के सन्दर्भ में कृपया कहें……… किसी गुण को प्रतीकात्मक ही दर्शाना है तो हिंसाजनक प्रतीक को एवोईड नहीं किया जा सकता? उसी तरह कुर्बानी पशुवध से न करके अन्य प्रतीक के सहारे नहीं की जा सकती? विनम्रता से प्रश्न है, हिंसा का समर्थन या अहिंसा का? क्या किसी भी नेक काम को करने से पहले, हमें धर्म-ग्रंथ में आज्ञा देखनी चाहिए? या उसकी सीमा में रहकर ही नेक कार्य करने चाहिए? क्या ईश्वर के मुख्य उद्देश्यरूप सिद्धांतो की सुरक्षा और अनुपालना हमें न करनी चाहिए? जमाल साहब जी, विनम्रता से विनंति आप इस लेख के परिपेक्ष्य में इन प्रश्नों के उत्तर अवश्य दें।
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
पवित्र क़ुरआन में क़ुरबानी का हुक्म फ़सल्लि लिरब्बिका वन्हर. अर्थात पस तू अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ और क़ुरबानी कर। अलक़ुरआन, 108, 2 तफ़्सीर - यानि नमाज़ भी सिर्फ़ एक अल्लाह के लिए और क़ुरबानी भी सिर्फ़ एक अल्लाह के नाम पर। मुश्रिकीन की तरह उनमें दूसरों को शरीक न कर। ‘नह्र‘ के अस्ल अर्थ हैं ऊंट के हलक़ूम में नेज़ा या छुरी मारकर उसे ज़िब्ह करना। दूसरे जानवरों को ज़मीन पर लिटा कर उनके गलों पर छुरी फेरी जाती है उसे ज़िब्ह करना कहते हैं लेकिन यहां ‘नह्र‘ से मुराद मुत्लक़ क़ुरबानी है। इसके अलावा इसमें बतौर सदक़ा व ख़ैरात जानवर क़ुरबान करना, हज के मौक़े पर मिना में और ईदुल अज़्हा के मौक़े पर क़ुरबानी करना सब शामिल हैं। अनुवाद: मौलाना मुहम्मद जूनागढ़ी साहब तफ़्सीर: मौलाना सलाहुद्दीन यूसुफ़ साहब यह अनुवाद और यह तफ़्सीर सऊदी हुकूमत की तरफ़ से प्रकाशित की गई है। उर्दू से हिंदी अनुवाद: डा. अनवर जमाल @ बहन शिल्पा जी ! आपकी ख्वाहिश के मुताबिक़ आपको दिखा दिया गया है कि क़ुरबानी का हुक्म पवित्र क़ुरआन में कहां है ? आशा है कि अब आपको संतोष हो गया होगा। और ज़्यादा जानकारी के लिए आप पैग़ंबर साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की जीवनी और उनकी हदीसों के संग्रह भी देख सकती हैं। साथ ही आपसे यह विनती है कि आपने अपने लिए जो बेहतर समझा है, उसे आप करें और दूसरे लोगों को अपने धर्म का पालन करने दें। उनकी निंदा करना कोई अच्छी बात नहीं है। 2- 'and the reference given here by respected Anwar Jamaal ji is just retelling the story we all already accept. it is NOT a command to kill goats etc as a sacrifice to God .' के विषय में - हम यही कहेंगे कि इस तरह की ऐतराज़ भरी पोस्ट हम भी पहले पढ़ चुके हैं फिर यही ऐतराज़ क्यों बार बार आपकी पोस्ट पर आप और यहां सुज्ञ जी दोहरा रहे हैं ? जितनी बार आप ऐतराज़ दोहराएंगे, हम उतनी ही बार पूरी बात बताएंगे क्योंकि जवाब केवल आप दो ही नहीं पढ़ेंगे बल्कि दूसरे और बहुत से लोग भी यहां पोस्ट और कमेंट पढ़ रहे हैं।
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
या तो आप ऐतराज़ न करें या फिर पहले पैमाना तय कर लीजिए इस्लाम में न तो हिंसा अपने अंदर कुछ हक़ीक़त रखती है और न ही अहिंसा कुछ है। इस्लाम में अस्ल चीज़ है अल्लाह का हुक्म और नबी सल्ल. का तरीक़ा। इस्लाम में हिंसा भी है और इस्लाम में अहिंसा भी है। कब, कहां और कैसे हिंसा करनी है और कहां हिंसा से दूर रहना है ? बंदों के लिए इसका निर्धारण करना अल्लाह का काम है। जब बंदा परमेश्वर के इस अधिकार को मान लेता है तभी उसके जीवन में संतुलन आता है और तभी कोई व्यक्ति मुस्लिम कहलाने का हक़दार होता है। जिन लोगों ने परमेश्वर के इस अधिकार को नहीं माना और अपनी मर्ज़ी से हिंसा की , उन्होंने धरती को तबाह कर डाला और जिन लोगों ने इसकी प्रतिक्रिया में अहिंसा का उपदेश दिया उन्होंने भी लोगों का जीना मुश्किल कर दिया। ऐसे उपदेशकों ने दूध, दही, शहद, अंजीर, अचार और लहसुन-प्याज़ जैसी गुणकारी चीज़ों तक के सेवन से रोक दिया है। क़ुरबानी करने वाला, हलाल मांस खाने वाला भी दीन दुखियों की सेवा में लगा देखा जा सकता है। शाकाहारी की तरह वह भी ख़ुद को नेक मानता है। इसी तरह बहुत से पंथ हैं और कोई एक चीज़ खाता है और दूसरा उस चीज़ को खाना पाप समझता है। स्वयं शाकाहारियों में भी आपस में इस विषय पर सहमति नहीं है। कुछ शाकाहारी दूध, दही और शहद खाते और दूसरे इसे खाना पाप आर अमानवीयता मानते हैं। ऐसे में या तो हरेक आदमी अपने अपने पैमाने पर पूरा उतरने का प्रयास करेगा या फिर सबको मिलकर सबके लिए किसी एक पैमाने को स्टैंडर्ड पैमाना मान लेना चाहिए , जिस पर हरेक आदमी के कर्म को परखा जा सके कि उसने नेक काम किया है या बद ? जब तक किसी एक पैमाने को सबके लिए स्टैंडर्ड पैमाना न मान लिया जाए तब तक अगर दूसरा व्यक्ति अपने पैमाने के मुताबिक़ नेक है तो उसकी आलोचना करना उचित नहीं है।
सुज्ञ ने कहा…
@ पवित्र क़ुरआन में क़ुरबानी का हुक्म फ़सल्लि लिरब्बिका वन्हर. अर्थात पस तू अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ और क़ुरबानी कर। अलक़ुरआन, 108, 2 तफ़्सीर - यानि नमाज़ भी सिर्फ़ एक अल्लाह के लिए और क़ुरबानी भी सिर्फ़ एक अल्लाह के नाम पर। मुश्रिकीन की तरह उनमें दूसरों को शरीक न कर। डॉ अनवर जमाल साहब, Qur'an sura Al-Kawthar 108:2 का आपका अनुवाद सत्य है,बाद में दी गई तफ़्सीर को भी स्वीकार करने में कोइ हर्ज़ नहीं है। कुरबानी शब्द भी रब के लिए त्याग-समर्पण का भाव है। किन्तु इस आयत में कहीं भी ऊंट,छुरी या ज़िब्ह शब्द का प्रयोग नहीं है न इस आयत के आगे की या पिछली आयत में कुरबानी में पशु-वध का सन्दर्भ है। यह Al-Kawthar नामक सम्पूर्ण सुरा, सत्य-मार्ग पर अटल रहने के आशय से प्रकट की गई है। यहां कुरबानी में पशु ज़िब्ह करने या ज़िब्ह करने की विधि का दूर दूर तक कोई सम्बंध नहीं है। न कुरआन में पशु-हत्या साबित करने के लिए इस आयत का कोई सम्बंध है। ‘नह्र‘ का अर्थ कुरबानी ही है। "पस तू अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ और क़ुरबानी कर" इस क़ुरबानी का उल्लेख नमाज़ के साथ आया है- 'अतः तूं अपने रब के लिए ही इबादत और त्याग-समर्पण कर'। पता नहीं आपने इसके भावार्थ में ऊंट,छुरी या ज़िब्ह शब्द को क्यों शरीक किया? कुरआन की बुनियादी वाणी को तो सुरक्षित रखना ही है, उसके अर्थ-भावार्थ को भी बातिल से बचाकर संरक्षित सुरक्षित रखना अनिवार्य है।
सुज्ञ ने कहा…
डॉ अनवर जमाल साहब, सबसे पहले तो चर्चा को सौहार्द युक्त बनाए रखनें, सम्वाद कायम रखने, और संयम बरतने के लिए आपका आभार व्यक्त करता हूँ।
सुज्ञ ने कहा…
@ या तो आप ऐतराज़ न करें या फिर पहले पैमाना तय कर लीजिए डॉ अनवर जमाल साहब, ऐतराज़ को निंदात्मक आलोचना न माना जाय। जब हम इस्लाम की दावत देते है तो सर्वप्रथम हमें लोगों के संशय और भ्रम दूर करने होते है। संशय और भ्रम हमेशा प्रश्न के रूप में ही आएंगे, और भ्रम भी वहीं होता है जहाँ विरोधाभास नज़र आता है। अगर वह विरोधाभास ऐसे प्रश्नों के यथार्थ हल नहीं दे पाता तो निश्चित ही त्रृटिपूर्ण होकर स्थापित हो जाता है। जिज्ञासाओं का समाधान जरूरी है। हर अनुत्तरित प्रश्न को निंदा कहकर या प्रत्यारोप से ये प्रश्न पिछा नहीं छोड़ते। आप भी पवित्र इस्लाम के बारे में भ्रातियां तोड़ने के उद्देश्य से ही ब्लॉगजगत में सक्रिय है। आपको यह उद्देश्यपूर्ण कार्य इमानदारी से अवश्य करना चाहिए। पर ध्यान रखना पड़ेगा कि यह कार्य इस्लाम की रोशनी में ही प्रश्न समाधान को प्राप्त हो। अनुत्तरित न रहने पाए। नए विरोधाभास का सर्जन न करे। आरोप प्रत्यारोप तो बाल-सहज कार्य है। जैसे- तूने मुझे 'यह' कहा तो ले तुझे मैं 'वो' कहता हूँ। आप तो स्वयं विद्वान है, समझ सकते है। जो कोई भी धर्म सिद्धांत अपने उच्चतम सिद्धांतो के आधार से प्रकट है तो उसे प्रश्नों का डर कैसा? उसके पास हर बात का समाधान होता ही है। वैसे मैं इस्लाम का विद्वान नहीं हूं पर मेरे जैसे सामान्य बुद्धि मानवो के लिए भी इस्लाम तो है ही और हूबहू वही है।जैसा विद्वानो के लिए है वैसा ही सब के लिए। और उसी तरह है जैसा अल्लाह नें अपने बुनियादी मंसूबो को आधार बना कर फरमाया। और अल्लाह का बुनियादी मंसूबा है मानव सुख, शान्ति, आपसी सौहार्द, करूणा-दया, संतोष व संयम से जीवन बिताकर उसे सार्थक करे। हमारे प्रश्न व एतराज़ ईश्वर पर नहीं है, यह प्रश्न ईश्वर को कटघरे में खड़ा नहीं करते। बल्कि उसकी करूणामयी कल्याण्कारी वाणी का अनर्थ कर विरोधाभास पैदा करने वालों पर है। @ इस्लाम में हिंसा भी है और इस्लाम में अहिंसा भी है। कब, कहां और कैसे हिंसा करनी है और कहां हिंसा से दूर रहना है ? बंदों के लिए इसका निर्धारण करना अल्लाह का काम है। डॉ अनवर जमाल साहब, इस्लाम की रोशनी में मैं आपके इस क्थन से सहमत नहीं हो सकता। यहां हिंसा को कोई स्थान नहीं हो सकता। अल्लाह हमें बार बार सोचने का कहता है, सोच समझ कर निर्णय लेने का कहता है, नेकी पर पुरूषार्थ करने का कहता है। नेकी और बदी की ओर आंख बंद करने का नहीं कहता। परीक्षाएं भी इसीलिए लेता है कि हमने नेकी और बदी का सही निर्धारण किया या नहीं। हिंसा और अहिंसा में फर्क किया या नहीं।
प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…
आज काफी दिनों बाद इस पोस्ट से पढ़ने की शुरुआत की.. तो पहले अच्छा अनुभव हुआ यह देखकर कि रंजना जी, रचना जी, शिल्पा जी सभी निरामिष परिवार में आने को उतावले... फिर जमाल जी से सहमत(?) होने का मन किया ... दिखायी देने वाले बड़े जीव को देखकर छोटे जीवों को तैयारी कर लेनी चाहिए खाने की ... "जल्द जमाली शरीर में कीड़े पड़ें"... इतनी सारी टिप्पणियों में केवल चुनिन्दा ही पढ़ पाया हूँ ... शिल्पा मेहता जी के विचार पढ़ना अच्छा लगा.. जमाल और सुज्ञ जी के विमर्श में उलझने के लिये भई काफी समय चाहिए... अभी नहीं.. फिर कभी.
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
फ़सल्लि लिरब्बिका वन्हर. अर्थात पस तू अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ और क़ुरबानी कर। अलक़ुरआन, 108, 2 तफ़्सीर - यानि नमाज़ भी सिर्फ़ एक अल्लाह के लिए और क़ुरबानी भी सिर्फ़ एक अल्लाह के नाम पर। मुश्रिकीन की तरह उनमें दूसरों को शरीक न कर। @@ भाई सुज्ञ जी ! हमें आपसे यही आशा थी कि आप ‘क़ुरबानी‘ शब्द पर कुछ कह सकती हैं इसीलिए हमने आपको मात्र अनुवाद ही नहीं दिया बल्कि इस आयत की तफ़्सीर भी दी है और आपको यह भी बताया है कि यह हिंदुस्तानी आलिमों का तर्जुमा-तफ़्सीर सऊदी हुकूमत की तरफ़ से पब्लिश किया गया है अर्थात पूरी तरह प्रामाणिक है और हिंद से लेकर अरब तक इसे मान्यता प्राप्त है। आपने हमारे दिए हुए अनुवाद को तो परख कर कह ही दिया है कि हमारा दिया हुआ अनुवाद सत्य है. कौन सा शब्द किस धातु से बना है और क्या अर्थ रखता है ? यह विषय तफ़सीर का होता है। हमने आपको मात्र अनुवाद ही नहीं दिया है बल्कि आपको इस आयत की तफ़्सीर भी दी है। अनुवाद आपने मिला ही लिया है अब आप इस आयत की तफ़्सीर का भी सत्यापन कर लीजिए ताकि आपको यक़ीन हो जाए कि ‘नह्र‘ शब्द का अर्थ ‘ऊंट के हलक़ूम में नेज़ा या छुरी मारकर उसे ज़िब्ह करना‘ ही होता है। आप पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की जीवनी भी देखिए कि उन्होंने अपने रब के आदेश का पालन ख़ुद कैसे किया और अपने अनुयायियों को कैसे करना सिखाया ? उन्होंने बकरा आदि कौन कौन से जानवर किस किस मौ़क़े पर ज़िब्ह किए ? अरबी भाषा के जानकार अभी ज़िंदा हैं और बहुत बड़ी तादाद में ज़िंदा हैं। आप निश्चिंत रहें। पवित्र क़ुरआन के शब्द का अर्थ आपको वही बताया जा रहा है जो कि वास्तव में है। अरबी भाषा के जिस शब्द को आप जानते ही नहीं है कि वह किस धातु से बना है और क्या अर्थ रखता है, उसमें आप अपनी रायज़नी क्यों कर रहे हैं ? Balanced diet for Indian soldiers. अँडा खाओ देश बचाओ Ayaz Ahmad...
dheerendra ने कहा…
सुंदर जानकारी मयसुंदर पोस्ट बधाई ... नए पोस्ट पर स्वागत है .....
प्रश्नवादी ने कहा…
@जमाल साहब , ज़रा एक बात बताइये , क्या आप या आपकी कुरआन एक इंसान के द्वारा दुसरे इंसान को खाने की इजाजत देते हैं ? अगर जवाब ''हाँ'' है तो क्यूँ और जवाब ''नहीं'' है तो क्यूँ नहीं ......??? बस इस सवाल का उत्तर दे दें तो बड़ी कृपा होगी
Human ने कहा…
जानकारीपरक उपयोगी पोस्ट । सामयिक चिंतन हेतु रचनाकार को बधाई ! अपने महत्त्वपूर्ण विचारों से अवगत कराएँ । औचित्यहीन होती मीडिया और दिशाहीन होती पत्रकारिता
shilpa mehta ने कहा…
@ प्रश्नवादी जी आपकी टिप्पणी मर्यादा को भंग कर रही है | पवित्र कुरआन इबादत सिखाती है, प्रेम सिखाती है | कृपया पवित्र कुरआन के सन्दर्भ में इस तरह की बातें लिखने से पहले सोचिये, कि आप कह क्या रहे हैं |
shilpa mehta ने कहा…
@ अलक़ुरआन, 108, २ .... आदरणीय अनवर जमाल जी , यह इन्टरनेट पर उपलब्ध शब्द-शब्द किये गए अनुवाद है | इन सभी में ********कहीं भी....... न तो ऊँट का ज़िक्र है,...... ना ही जिबह का ********* | गूगल सर्च पेज पर इस सर्च के परिणाम http://www.google.co.in/search?gcx=c&sourceid=chrome&ie=UTF-8&q=translation+of+quran+to+english+word+by+word जो लिनक्स खोल सकी और १०८.२ का पेज खुल पाया , वह दे रही हूँ :- १. http://www.quraninenglish.com/cgi-local/pages.pl?/quran&img=2075 २. http://www.allahsquran.com/learn/#s108d7q1t0p1 ३. http://corpus.quran.com/translation.jsp?chapter=108&verse=2 ४. http://corpus.quran.com/translation.jsp?chapter=108&verse=3 ५.http://www.studyquran.co.uk/Quran_ArabicEnglish_WordforWord_Translation.htm इन सब में "Indeed , We have granted to you, [O Mohammad ], al-Kawthar. So pray to your Lord and sacrifice (to Him alone) . Indeed your enemy is the one cut off" का भावार्थ आता है , कहीं भी "you have to cut the camel's hump" नहीं आता है | कहीं भी अर्थ ऊँट को जिबह करना नहीं लिखा है | सिर्फ "काटना" लिखा है | पवित्र कुरान की भी बहुत सी प्रतियाँ देखें, उनमे भी "Indeed your enemy will be cut " ही मिलता है, ऊँट को जिबह करना नहीं मिलता| पवित्र कुरान के यदि यह सही अनुवाद नहीं हैं, तो यह इन्टरनेट पर टॉप रंकिंग पर उपलब्ध क्यों हैं ? अनुवाद करने में { हम लोगों की अरबी भाषा की अज्ञानता के चलते } कृपया यह ध्यान रखें कि कही अल्लाह के दिए पैगाम के असल अर्थों में बदलाव तो नहीं हो रहे हैं ? मेरे पास पवित्र कुरआन की जो प्रतियाँ उपलब्ध हैं, (जो मेरे इस्लामी जानने वालों की ही सुझाई हुई हैं ) उनमे भी ऊँट का ज़िक्र नहीं देखा मैंने |यदि ये अनुवाद सही हैं, तो इसमें न ऊँट है, ना जिबह | @अनुवाद आपने मिला ही लिया है : ये सत्य नहीं - क्योंकि मैंने अर्थ मिलाने का प्रयास तो किया - किन्तु आपका दिया अर्थ कहीं नहीं मिल रहा है | --------------------- उत्पत्ति की तलाश में निकलें तो शब्दों का बहुत दिलचस्प सफर सामने आता है। लाखों सालों में जैसे इन्सान ने धीरे -धीरे अपनी शक्ल बदली, सभ्यता के विकास के बाद से शब्दों ने धीरे-धीरे अपने व्यवहार बदले। एक भाषा का शब्द दूसरी भाषा में गया और अरसे बाद एक तीसरी ही शक्ल में सामने आया। शब्द की तलाश दरअसल अपनी जड़ों की तलाश जैसी ही है।शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नज़रिया अलग-अलग होता है। ----------------------- @So pray to your Lord and sacrifice (to Him alone) i am quoting some parallels from the shrimad bhaagwad geeta and the holy quraan in the next comment -----------------------
shilpa mehta ने कहा…
------------------ १ ------------------ श्रीमद भगवद गीता २.३ "तयक्त्वुत्तिष्ठ परन्तप " त्याग कर - उठ खड़े हो - ओ शत्रु को काटने वाले पवित्र कुरआन १०८.१-३ pray to your Lord and sacrifice (to Him alone) . Indeed your enemy is the one cut off ------------------ २ ------------------ श्रीमद भगवद गीता १८.६५ "मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु" हमेशा मेरा विचार कर, मेरा भक्त बन, मेरी पूजा कर, मुझे नमस्कार कर | श्रीमद भगवद गीता १८.६६ "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज " सब धर्म त्याग कर मेरी एक शरण में आ | पवित्र कुरआन १०८.१-३ So pray to your Lord and sacrifice (to Him alone) --------------- tyaag = sacrifice = kurbani enemy shall be cut = o shatru ko kaatne vaale maam namaskuru = pray to your Lord alone sarvadharm parityaajya = sacrifice everything else maamekam sharanam vraj = and pray to me alone
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…
शिल्पा जी, आभार!
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
@ आदरणीय शिल्पा जी ! इसे कहते हैं अनाधिकार चेष्टा ! हमने आपको आयत के अरबी शब्दों को हिंदी में लिखकर दिया है। अब आप कोशिश कर लीजिए, आपको इंग्लिश या हिंदी में क़ुरआन की आयतें लिखी हुई नहीं मिलेंगी। आपको न मिलने का मतलब यह नहीं है कि आयतें मौजूद ही नहीं हैं। हम आपसे बार बार कह रहे हैं कि किस शब्द का अर्थ क्या है ? इस पर तफ़्सीर में रौशनी डाली जाती है। अनुवाद में क़ुरबानी और सैक्रिफ़ाइस शब्द तो आपको मिल गया है न ! क़ुरबानी कब और किस तरह दी जानी चाहिए, यह विषय तफ़्सीर का है। जो चीज़ तफ़्सीर में दर्ज है, उसे आप अनुवाद में ढूंढेंगी तो भला कैसे पाएंगी ? लेकिन आपकी तसल्ली भी ज़रूरी है, सो आपको अब हम एक के बजाय कई आयतों का अनुवाद दे रहे हैं। कृप्या इन पर विचार कीजिए- क़ुरबानी और मांसाहार के संबंध में क़ुरआन की कुछ आयतों के अनुवाद ऐ ईमान लानेवालो! प्रतिबन्धों (प्रतिज्ञाओं, समझौतों आदि) का पूर्ण रूप से पालन करो। तुम्हारे लिए चौपायों की जाति के जानवर हलाल हैं सिवाय उनके जो तुम्हें बताए जा रहें हैं; लेकिन जब तुम इहराम की दशा में हो तो शिकार को हलाल न समझना। निस्संदेह अल्लाह जो चाहता है, आदेश देता है . ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह की निशानियों का अनादर न करो; न आदर के महीनों का, न क़ुरबानी के जानवरों का और न जानवरों का जिनका गरदनों में पट्टे पड़े हो और न उन लोगों का जो अपने रब के अनुग्रह और उसकी प्रसन्नता की चाह में प्रतिष्ठित गृह (काबा) को जाते हो।... अलक़ुरआन, 5, 1-2 और प्रत्येक समुदाय के लिए हमने क़ुरबानी का विधान किया, ताकि वे उन जानवरों अर्थात मवेशियों पर अल्लाह का नाम लें, जो उसने उन्हें प्रदान किए हैं। अतः तुम्हारा पूज्य-प्रभु अकेला पूज्य-प्रभु है। तो उसी के आज्ञाकारी बनकर रहो और विनम्रता अपनानेवालों को शुभ सूचना दे दो (34) ये वे लोग है कि जब अल्लाह को याद किया जाता है तो उनके दिल दहल जाते है और जो मुसीबत उनपर आती है उसपर धैर्य से काम लेते है और नमाज़ को क़ायम करते है, और जो कुछ हमने उन्हें दिया है उसमें से ख़र्च करते है (35) (क़ुरबानी के) ऊँटों को हमने तुम्हारे लिए अल्लाह की निशानियों में से बनाया है। तुम्हारे लिए उनमें भलाई है। अतः खड़ा करके उनपर अल्लाह का नाम लो। फिर जब उनके पहलू भूमि से आ लगें तो उनमें से स्वयं भी खाओ औऱ संतोष से बैठनेवालों को भी खिलाओ और माँगनेवालों को भी। ऐसा ही करो। हमने उनको तुम्हारे लिए वशीभूत कर दिया है, ताकि तुम कृतज्ञता दिखाओ (36) अलक़ुरआन, 22, 34-36
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
और प्रत्येक समुदाय के लिए हमने क़ुरबानी का विधान किया शिल्पा जी ने क़ुरआन की आयतों के अनुवाद को गीता के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने की कोशिश की है। हम क़ुरआन के इस दावे को वेदादि में देखने की कोशिश करेंगे कि क़ुरआन का यह दावा कितना ज़्यादा सही है ? इस सिलसिले में हम स्वामी विवेकानंद जी का बयान यहां देखेंगे जो कि गीता के भी अच्छे जानकार थे। स्वामी विवेकानंद जी सनातन परंपराओं के सिर्फ़ अच्छे जानकार ही नहीं थे बल्कि वे उनके रक्षक और पोषक भी थे। उन्होंने प्राचीन धार्मिक परंपराओं का ज्ञान आम करने की भी कोशिश की और उन्हें पुनर्जीवित करने का प्रयास भी किया। इसी प्रयास हेतु वह आजीवन गौमांस खाते रहे हैं। इस तरह यह सच्चाई सामने आ जाती है कि पशुबलि के अर्थों में क़ुरबानी ईश्वरीय धर्म की एक सनातन परंपरा है। जो लोग इसे छोड़ना चाहें , वे इसे छोड़ सकते हैं और जो इसे न छोड़ना चाहें तो उन्हें प्राचीन परंपराओं का रक्षक समझा जाए। देखिए - स्वामी विवेकानंद ने पुराणपंथी ब्राह्मणों को उत्साहपूर्वक बतलाया कि वैदिक युग में मांसाहार प्रचलित था . जब एक दिन उनसे पूछा गया कि भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कौन सा काल था तो उन्होंने कहा कि वैदिक काल स्वर्णयुग था जब "पाँच ब्राह्मण एक गाय चट कर जाते थे ." (देखें स्वामी निखिलानंद रचित 'विवेकानंद ए बायोग्राफ़ी' प॰ स॰ 96) € @ क्या अपने विवेकानंद जी की जानकारी भी ग़लत है ? या वे भी सैकड़ों यज्ञ करने वाले आर्य राजा वसु की तरह असुरोँ के प्रभाव में आ गए थे ? 2- ब्राह्मणो वृषभं हत्वा तन्मासं भिन्न भिन्नदेवताभ्यो जुहोति . ब्राह्मण वृषभ (बैल) को मारकर उसके मांस से भिन्न भिन्न देवताओं के लिए आहुति देता है . -ऋग्वेद 9/4/1 पर सायणभाष्य सायण से ज्यादा वेदों के यज्ञपरक अर्थ की समझ रखने वाला कोई भी नहीं है . आज भी सभी शंकराचार्य उनके भाष्य को मानते हैं । बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में भी यही पढ़ाया जाता है । क्या सायण और विवेकानंद की गिनती असुरों में करने की धृष्टता क्षम्य है ? Haj or Yaj विभिन्न धर्म-परंपराओं का संगम : हज By S. Abdullah Tariq
shilpa mehta ने कहा…
जी अनवर जमाल भाई साहब, हो सकता है हो, ho sakta hai na bhi ho | मुझे जानकारी नहीं | किन्तु - यदि है भी - तो कोई बात नहीं | मैं इसका फिर भी विरोध करती हूँ | इसी सभ्यता में १. सती (माद्री पांडु के साथ सती हुई थीं ) २. पशुबलि ३. दहेज़ . ....... आदि बहुत सी चीज़ें हैं - जिनका मैं विरोध करती हूँ | सिर्फ इसलिए कि वह शास्त्रों में उल्लेखित हो / उसका ज़िक्र विवेकानंद जी ने किया हो (जिसका अर्थ यह नहीं कि वे इससे सहमत रहे ही हों - हो सकता है सहमत हों या असहमत भी हों ? ) / उसे शंकराचार्य जी सहित सारी दुनिया भी मानती हो , मैं उस चीज़ से सहमत नहीं हो सकती जिसकी अनुमति मेरी अंतरात्मा न दे | चाहे वह शास्त्र वेद ही क्यों न हों , मेरी सहमती नहीं ही होगी | क्योंकि आपकी टिप्पणी मुझे संबोधित थी, इसलिए मैंने उत्तर देना आवश्यक समझा | वैसे - मुझे यह चर्चा अब किसी निष्कर्ष तक पहुँचती नहीं लग रही | क्योंकि - हमारी आस्थाएं बड़ी गहरी हैं, न मैं आपसे सहमत हो पाऊँगी, ना आप मुझसे |
Dr. shyam gupta ने कहा…
-----व्यर्थ की बहस है ...मांसाहार कोई इतनी अच्छी चीज़ तो नहीं जिस पर इतनी बहस की जाय....न किसी भी ग्रन्थ में , न किसी भी वैग्यानिक ग्रन्थ में मांसाहार को आवश्यक, अत्यावश्यक बताया गया है.... ----अच्छे के साथ -बुरे लोग हर समय, हर युग में, हर समाज में होते हैं जो मांसाहार को पसंद करते हैं...अनवर जी के अनुसार सभी खाध्य..जीव होते हैं....सही है ...परन्तु अन्तर यह है कि--- ”परम अपावन प्राप्ति-विधि,प्राणी-वध सन्ताप । वध की क्रिया देख कर कभी न खायें मांस ॥ " ---बाकी सब तो सुग्य जी बार बार सम्झा ही रहे हैं...यदि समझ में आये तो...
Dr. shyam gupta ने कहा…
----अनवर जी के सभी सन्स्क्रित श्लोक/मन्त्र जाने् कहां से आते हें..अशुद्ध होते हैं...लगता है जबरदस्ती बनाये हुए....जाने कितने मन्त्रो का सही अर्थ में उन्हें समझा चुका हूं...निम्न मन्त्र मे..." भिन्न-भिन्न.." शब्द सन्स्क्रित में ...वह भी रिग्वेदिक सन्स्क्रित में कब प्रयोग होता है, सिर्फ़ देवताभ्यो से ही अर्थ सम्पूर्ण होजाता है वैयाकरण की त्रुटि भी है ...भिन्न भिन्न कहने की आवश्ययकता ही नहीं "ब्राह्मणो वृषभं हत्वा तन्मासं भिन्न भिन्न देवताभ्यो जुहोति"
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…
@ आदरणीय शिल्पा जी ! इसे कहते हैं अनाधिकार चेष्टा ! डॉ. अनवर जमाल, कुर'आन में जीव-ह्त्या की स्वीकृति के बारे में आप जो चाहे कहें, मैं कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि वहां आपका ज्ञान निश्चित रूप से मुझसे अधिक होगा. ऋग्वेद के मन्त्र के नाम पर जो कुछ आप लिख रहे हैं उसे अनाधिकार चेष्टा कहते हैं. सही मन्त्र और उसका अनुवाद निम्न है सना च सोम जेषि च पवमान महि श्रवः । अथा नो वस्यसस्कृधि ॥१॥ [ऋषि: हिरण्यस्तूप आंगिरस; देवता: पवमान सोम; छंद: गायत्री ] जैसा कि डॉ श्याम गुप्ता ने कहा, वैदिक संस्कृत का थोडा भी ज्ञान रखने वाला व्यक्ति एक नज़र देखते ही डॉ. जमाल के लिखे मंत्र के झूठ को पहचान सकता है ।
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…
सना च सोम जेषि च पवमान महि श्रवः । अथा नो वस्यसस्कृधि ॥१॥ ऋग्वेद 9/4/1 अत्यधिक स्तुत्य पवित्र हे सोमदेव! आप देवशक्ति को उपलब्ध हों तथा बैरियों पर विजयप्राप्ति के बाद हमें कीर्तिवान बनायें! (अनुवाद: वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य)
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
@ आदरणीय भाई अनुराग शर्मा जी ! जब हम दूसरों से कह रहे हैं कि आप अनाधिकार चेष्टा न करें क़ुरआन का अर्थ निर्धारित करने की तो वही काम हम ख़ुद कैसे कर सकते हैं। आपने ग़लत समझा कि हम वेदमंत्र का उद्धरण दे रहे हैं। आपको हमारे दिए उद्धरण को ध्यान से पढ़ना चाहिए था। हमने उद्धरण सायणभाष्य का दिया है और सायण वेद के अधिकारी विद्वान माने जाते हैं। पूरा उद्धरण इस प्रकार है- ब्राह्मणो वृषभं हत्वा तन्मांसं भिन्न-भिन्नदेवताभ्यो जुहोति . तत्र वृषभस्य प्रशंसा तदंगानां च कतमानि कतमदेवेभयः प्रियाणि भवन्ति तद् विवेचनम्. वृषभबलिहवनस्य महत्तवं च वर्ण्यते. तदुत्पन्नं श्रेयश्च स्तूयते. -ऋग्वेद 9,4,1 पर सायणभाष्य अर्थात ब्राह्मण वृषभ (बैल) को मारकर उस के मांस से भिन्न भिन्न देवताओं के लिए आहुति देता है. इस में वृषभ की प्रशंसा और उसके अंगों में से कौन कौन सा अंग किस किस देवता के लिए प्रिय है-इसका विवेचन किया गया है और वृषभ की बलि देकर हवन करने का महत्व का व उस से प्राप्त होने वाले श्रेय का वर्णन किया गया है। ............... आशा है कि आपकी ग़लतफ़हमी दूर हो गई होगी। क़ुरबानी पर ऐतराज़ करते हैं लेकिन मांसाहार पर नहीं, जीवों के प्रति दया दर्शाने वाले Contradictions
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…
भाई अनवर जमाल, वैदिक संस्कृत को समझे बिना वेद की मूल भावना के विरुद्ध उल्टे-पुल्टे रटे-रटाये प्रचार अभियान चलाना सचमुच अनधिकार चेष्टा ही कहलायेगी। आपने कई बार अन्यत्र वेदमंत्र 9/4/1 पर किये गये भाष्य की बात यहाँ दोहरायी तो मैंने वह मंत्र ही आपके सामने रख दिया जिसमें आपके मंतव्य के विपरीत हत्या की नहीं कीर्ति की बात की गयी है। सायण के बताये जा रहे कथन का अर्थ भी आपकी टिप्पणियों से उलट कुछ और ही है यह बात आपको काफ़ी पहले सुज्ञ जी व अमित जी द्वारा स्पष्ट की जा चुकी है। यदि भूल गये हों तो मैं उनकी बात यहाँ सविनय दोहराता हूँ: चाहे विवेकानंदजी हो या फिर दयानन्दजी या फिर आप और हमारे जैसे संसारी जीव यदि विवेक को साथ रखते हुए वेदार्थ पर विचार किया जाएगा तो वेद भगवान् ही ऐसी सामग्री प्रस्तुत कर देतें है, जिससे सत्य अर्थ का भान हो जाता है. जहाँ द्वयर्थक शब्दों के कारण भ्रम होने की संभावना है, वहाँ बहुतेरे स्थलों पर स्वयं वेदभगवान ने ही अर्थ का स्पस्थिकरण कर दिया है---- "धाना धेनुरभवद वत्सोsस्यास्तिल:" ( अथर्ववेद १८/४/३२ ) --- अर्थात धान ही धेनु है और तिल ही उसका बछडा हुआ है . "ऋषभ" एक प्रकार का कंद है; इसकी जद लहसुन से मिलती जुलती है. सुश्रतु और भावप्रकाश आदि में इसके नाम रूप गुण और पर्यायों का विशेष विवरण दिया गया है . ऋषभ के - वृषभ, वीर, विषाणी, वृष, श्रंगी, ककुध्यानआदि जितने भी नाम आये है, सब बैल का अर्थ रखते है. इसी भ्रम से "वृषभमांस" की वीभत्स कल्पना हुयी हुई है, जो "प्रस्थं कुमारिकामांसम" के अनुसार 'एक सेर कुमारी कन्या के मांस' की कल्पना से मेल खाती है. वैध्याक ग्रंथों में बहुत से पशु पक्षियों के नाम वाले औषध देखे जाते है. ------- वृषभ ( ऋषभकंद ), श्वान ( ग्रंथिपर्ण या कुत्ता घास) , मार्जार ( चित्ता), अश्व ( अश्वगंधा ), अज (आजमोदा), सर्प (सर्पगंधा), मयूरक (अपामार्ग), कुक्कुटी ( शाल्मली ), मेष (जिवाशाक), गौ (गौलोमी ), खर (खर्परनी) . यहाँ यह भी जान लेना चहिये की फलों के गुदे को "मांस", छाल को "चर्म", गुठली को "अस्थि" , मेदा को "मेद" और रेशा को "स्नायु" कहते है -------- सुश्रुत में आम के प्रसंग में आया है---- "अपक्वे चूतफले स्न्नायवस्थिमज्जानः सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यन्ते पक्वे त्वाविभुर्ता उपलभ्यन्ते ।।" 'आम के कच्चे फल में सूक्ष्म होने के कारण स्नायु, हड्डी और मज्जा नहीं दिखाई देती; परन्तु पकने पर ये सब प्रकट हो जाती है.' सन्दर्भ: अमित शर्मा - 16 नवम्बर 2010 सन्दर्भ: सुबोध - 15 नवम्बर 2010 जिन ब्राह्मणों पर आप हत्या का आक्षेप लगा रहे हैं, वे आज भी न केवल जीवित हैं बल्कि जीवदया के प्रवर्तकों में अग्रणी हैं - ब्राह्मण का प्रतिनिधि ब्राह्मण को ही रहने दीजिये, वहाँ भी अनधिकृत चेष्टा प्रशंसनीय नहीं है। जिनका धरातल और पृष्ठभूमि हमसे एकदम विपरीत हो, उनकी भावना समझ पाना आसान नहीं होता है। झूठ को सौ बार दोहराने से वह सच नहीं हो जाता। सहमति-असहमति अलग बात है, लेकिन ईमानदारी का मार्ग तो हम सबको अपनाना ही चाहिये।
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…
सन्दर्भ: सुबोध - 15 नवम्बर 2010 **जिससे सत्य अर्थ का भान हो जाता है. जहाँ द्वयर्थक शब्दों के कारण भ्रम होने की संभावना है, वहाँ बहुतेरे स्थलों पर स्वयं वेदभगवान ने ही अर्थ का स्पस्थिकरण कर दिया है---- "धाना धेनुरभवद वत्सोsस्यास्तिल:" ( अथर्ववेद १८/४/३२ ) --- अर्थात धान ही धेनु है और तिल ही उसका बछडा हुआ है . "ऋषभ" एक प्रकार का कंद है; इसकी जद लहसुन से मिलती जुलती है. सुश्रतु और भावप्रकाश आदि में इसके नाम रूप गुण और पर्यायों का विशेष विवरण दिया गया है . ऋषभ के - वृषभ, वीर, विषाणी, वृष, श्रंगी, ककुध्यानआदि जितने भी नाम आये है, सब बैल का अर्थ रखते है. इसी भ्रम से "वृषभमांस" की वीभत्स कल्पना हुयी हुई है, जो "प्रस्थं कुमारिकामांसम" के अनुसार 'एक सेर कुमारी कन्या के मांस' की कल्पना से मेल खाती है. वैध्याक ग्रंथों में बहुत से पशु पक्षियों के नाम वाले औषध देखे जाते है. ------- वृषभ ( ऋषभकंद ), श्वान ( ग्रंथिपर्ण या कुत्ता घास) , मार्जार ( चित्ता), अश्व ( अश्वगंधा ), अज (आजमोदा), सर्प (सर्पगंधा), मयूरक (अपामार्ग), कुक्कुटी ( शाल्मली ), मेष (जिवाशाक), गौ (गौलोमी ), खर (खर्परनी) . यहाँ यह भी जान लेना चहिये की फलों के गुदे को "मांस", छाल को "चर्म", गुठली को "अस्थि" , मेदा को "मेद" और रेशा को "स्नायु" कहते है -------- सुश्रुत में आम के प्रसंग में आया है---- "अपक्वे चूतफले स्न्नायवस्थिमज्जानः सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यन्ते पक्वे त्वाविभुर्ता उपलभ्यन्ते ।।" 'आम के कच्चे फल में सूक्ष्म होने के कारण स्नायु, हड्डी और मज्जा नहीं दिखाई देती; परन्तु पकने पर ये सब प्रकट हो जाती है.' -अमित शर्मा
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
@ भाई अनुराग शर्मा जी ! वेदमंत्र पर हमने सायणभाष्य दिया है। आप इसे मानने के बजाय कह रहे हैं कि वृषभ का अर्थ बैल नहीं है बल्कि औषधि है तो इसमें हम क्या कर सकते हैं ? डा. श्याम गुप्ता जी तो सायणभाष्य को ही अशुद्ध बता रहे हैं। ‘आपको यह जानकर हैरानी होगी कि प्राचीन कर्मकांड के मुताबिक़ वह अच्छा हिंदू नहीं जो गोमांस नहीं खाता. उसे कुछ निश्चित अवसरों पर बैल की बलि दे कर मांस अवश्य खाना चाहिए.‘ (देखें ‘द कंपलीट वकर््स आफ़ स्वामी विवेकानंद, जिल्द तीन, पृ. 536) इसी पुस्तक में पृष्ठ संख्या 174 पर स्वामी विवेकानंद ने कहा है , ‘भारत में एक ऐसा समय भी रहा है जब बिना गोमांस खाए कोई ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं रह सकता था.‘ भाई साहब ब्राह्मणों पर हम कोई आक्षेप नहीं लगा रहे हैं बल्कि जो कुछ स्वामी विवेकानंद जी आदि बता रहे हैं उसी का उद्धरण हम यहां दे रहे हैं और आप ऐसा नहीं कह सकते कि उन्हें वैदिक संस्कृति का सही ज्ञान नहीं था। यज्ञ में पशुओं के साथ व्यवहार उदीचीनां अस्य पदो निधत्तात् सूर्यं चक्षुर्गमयताद् वातं प्राणमन्ववसृजताद्. अंतरिक्षमसुं दिशः श्रोत्रं पृथिवीं शरीरमित्येष्वेवैनं तल्लोकेष्वादधाति. एकषाऽस्य त्वचमाछ्य तात्पुरा नाभ्या अपि शसो वपामुत्खिदता दंतरेवोष्माणं वारयध्वादिति पशुष्वेव तत् प्राणान् दधाति. श्येनमस्य वक्षः कृणुतात् प्रशसा बाहू शला दोषणी कश्यपेवांसाच्छिद्रे श्रोणी कवषोरूस्रेकपर्णाऽष्ठीवन्ता षड्विंशतिरस्य वड्. क्रयस्ता अनुष्ठ्योच्च्यावयताद्. गात्रं गात्रमस्यानूनं कृणुतादित्यंगान्येवास्य तद् गात्राणि प्रीणाति...ऊवध्यगोहं पार्थिवं खनताद् ...अस्ना रक्षः संसृजतादित्याह. -ऐतरेय ब्राह्मण 6,7 अर्थात इस पशु के पैर उत्तर की ओर मोड़ो, इस की आंखें सूर्य को, इस के श्वास वायु को, इस का जीवन (प्राण) अंतरिक्ष को, इस की श्रवणशक्ति दिशाओं को और इस का शरीर पृथ्वी को सौंप दो. इस प्रकार होता (पुरोहित) इसे (पशु को) दूसरे लोकों से जोड़ देता है. सारी चमड़ी बिना काटे उतार लो. नाभि को काटने से पहले आंतों के ऊपर की झिल्ली की तह को चीर डालो. इस प्रकार का वह पुरोहित पशुओं में श्वास डालता है. इस की छाती का एक टुकड़ा बाज की शक्ल का, अगले बाज़ुओं के कुल्हाड़ी की शक्ल के दो टुकड़े, अगले पांव के धान की बालों की शक्ल के दो टुकड़े, कमर के नीचे का अटूट हिस्सा, ढाल की शक्ल के जांघ के दो टुकड़े और 26 पसलियां सब क्रमशः निकाल लिए जाएं. इसके प्रत्येक अंग को सुरक्षित रखा जाए, इस प्रकार वह उस के सारे अंगों को लाभ पहुंचाता है. इस का गोबर छिपाने के लिए जमीन में एक गड्ढा खोदें. प्रेतात्माओं को रक्त दें. अब आप ख़ुद देख सकते हैं कि यह पशु का वर्णन है या किसी औषधि का ? वह कौन सी औषधि है जिसके पैर , आंखें और 26 पसलियां हों ? देखिए- गोमांस परोसने के कारण यशस्वी बना राजा रंतिदेव
सुज्ञ ने कहा…
@ फ़सल्लि लिरब्बिका वन्हर. अर्थात पस तू अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ और क़ुरबानी कर। अलक़ुरआन, 108, 2 तफ़्सीर - यानि नमाज़ भी सिर्फ़ एक अल्लाह के लिए और क़ुरबानी भी सिर्फ़ एक अल्लाह के नाम पर। मुश्रिकीन की तरह उनमें दूसरों को शरीक न कर। लीजिए ताकि आपको यक़ीन हो जाए कि ‘नह्र‘ शब्द का अर्थ ‘ऊंट के हलक़ूम में नेज़ा या छुरी मारकर उसे ज़िब्ह करना‘ ही होता है। अनवर जमाल साहब, फ़सल्लि लिरब्बिका वन्हर. فَصَلِّ لِرَ‌بِّكَ وَانْحَرْ‌ जिसका कुरआन की यह http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/108:2 ऑनलाईन साईट, जो अर्थ प्रकाशित करती है, वह है……… “अतः तुम अपने रब ही के लिए नमाज़ पढ़ो और (उसी के दिन) क़़ुरबानी करो (2)” http://translate.google.com/#ar|hi|%D8%A7%D9%86%D9%92%D8%AD%D9%8E%D8%B1%D9%92%E2%80%8C%20 गूगल ट्रान्सलेटर, इस انْحَرْ‌ ‘नह्र’ शब्द का अर्थ ‘त्याग’ करता है। ऊंट या ‘ऊंट के हलक़ूम में नेज़ा या छुरी मारकर उसे ज़िब्ह करना‘ जैसा कोई अर्थघटन नहीं है। और न ही भावार्थ। انْحَرْ‌ = ‘नह्र’ = ‘त्याग’ या ‘कुरबानी’ शब्द को अनधिकार ‘पशुहिंसा कर्म’ से जोड़नें का यह असफल प्रयास मात्र है। @अरबी भाषा के जानकार अभी ज़िंदा हैं और बहुत बड़ी तादाद में ज़िंदा हैं। आप निश्चिंत रहें। पवित्र क़ुरआन के शब्द का अर्थ आपको वही बताया जा रहा है जो कि वास्तव में है। अरबी भाषा के जिस शब्द को आप जानते ही नहीं है कि वह किस धातु से बना है और क्या अर्थ रखता है, उसमें आप अपनी रायज़नी क्यों कर रहे हैं ? अनवर जमाल साहब, आपका पक्ष स्पष्ट हो जाता यदि, आप इस ‘नह्र‘ शब्द की धातु, उसकी व्युत्पत्ति और शब्द विकास पर विद्वत्ता से अपनी बात रख लेते। और साबित करते कि ‘नह्र‘ ऊंट का ही पर्याय होता है। तब यह निश्चित करने में आसानी हो जाती कि कुरबानी का अर्थ मात्र और मात्र ऊंट ही होता है। जो उपदेश हम नहीं जानते, जो शब्द हमारे पल्ले नहीं पड़ता तो उसे जानना समझना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है। यह रायज़नी उसी प्रक्रिया का परिणाम है। उसके असल ईमान वालों का मक़सद भ्रांतियां खड़ी करना नहीं, उन्हें दूर करना होता है। यदि सन्तोषप्रद समाधान हो सकता है तो जिज्ञासाएं शान्त की जानी चाहिए। जानते हुए भी जो ऐसा नहीं करते वे ईश्वर आज्ञा के लोपक है। वे अल्लाह के मंसूबे को छिपाने वाले और मनघडंत अर्थ करके उनकी वाणी को पलटने वाले है।
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
@ भाई सुज्ञ जी ! आपकी बात सही निकली। गूगल की क्षमता अभी बहुत सीमित है। आपके ध्यान दिलाने पर हमने भी ऋषभ और उक्षा का अर्थ इस टूल की मदद से जानना चाहा तो उसमें संस्कृत भाषा का विकल्प ही नज़र नहीं आया। हिंदी में प्रयास किया तो भी वह कुछ नहीं बता पाया। उसने ज्यों का त्यों ही दिखा दिया और फिर अंग्रेज़ी में देखने की कोशिश की तो उसने Re, Ucsha लिख कर दिखा दिया। अर्थात गूगल विवश है इन शब्दों का अर्थ बताने से। लेकिन हमारे अधिकारी विद्वानों ने हमें गूगल पर आश्रित छोड़ा ही कब है ? ♥ हमारी यह जिज्ञासा ‘वृहदारण्यकोपनिषद्‘ 6,4,18 के विषय में थी. इस स्थल पर विद्वानों में बड़ा विवाद है कि किस शब्द का क्या अर्थ है ? अथ य इच्छेत्पुत्रो मे पंडितो विगीतः समतिंगमः शुश्रूषितां वाचं भषिता जायेत सर्वान्वेदाननुब्रवीत् सर्वमायुरियादिति मांसौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवा औक्षेण वार्षभेण वा. अर्थात जो यह चाहे कि मेरा पुत्र सभाओं में वाग्मी (धाराप्रवाह बोलने वाला), सब वेदों में पारंगत हो तथा शतायु हो, उसे चाहिए कि वह और उसकी पत्नी बैल व सांड़ का मांस पका कर घी और भात मिला कर खाए. गूगल ट्रांसलेटर से निराश होकर हमने इस पर शंकरभाष्य देखा तो हम अभिभूत हो गए। ‘मांसमिश्रमोदनं मांसौदनम्. तन्मांसनियमार्थमाह-औक्षेण वा मांसेन. उक्षा सेचनसमर्थः पुंगवस्तदीय मांसम्. ऋषभस्ततोSप्यधिकवयास्तदीयमार्षभं मांसम्.‘ ‘वृहदारण्यकोपनिषद्‘ 6,4,18 पर शंकरभाष्य अर्थात मांसमिश्रित ओदन (भात) को मांसौदन कहते हैं. वह मांस किस का होना चाहिए, इस बारे में कहा गया है-उक्षा का. उक्षा का अर्थ है-वीर्य सिंचन में समर्थ बैल. उस का मांस होना चाहिए, या ऋषभ का. ऋषभ उक्षा से अधिक आयु के बैल को कहते हैं. इस प्रकार सिद्ध हो गया कि एक अधिकारी विद्वान का भाष्य जिस तरह हमारी मदद कर सकता है, उस तरह मदद करना गूगल टूल के बस का तो हरगिज़ नहीं है। इस उदाहरण से आप समझ सकते हैं कि गूगल ट्रांसलेटर ‘नह्र‘ शब्द का वास्तविक अर्थ किसी अधिकृत भाष्यकार की तरह क्यों नहीं बता पाया । आपको परेशानी से बचाने के लिए ‘नह्र‘ शब्द का अर्थ-व्याख्या और उसका हवाला हम आपको पूर्व में ही दे चुके हैं। आपको चाहिए कि जिस प्रकार हमने शंकरभाष्य को मान कर अपनी समस्या का समाधान कर लिया है। आप भी आयत के दिए गए भाष्य को मानकर निश्चिंत हो जाएं। ♠ आपकी कोशिश और आपकी गुफ़्तगू के हम बहुत ज़्यादा शुक्रगुज़ार हैं। धन्यवाद ! क्या भक्ष्य-अभक्ष्य के निर्धारण हेतु श्वास को आधार मानना उचित है ?
सुज्ञ ने कहा…
@क्या सायण और विवेकानंद की गिनती असुरों में करने की धृष्टता क्षम्य है ? डॉ अनवर जमाल साहब, आप तो विद्वान है पर मैने किसी भी टिप्पणी में यह नहीं पाया कि सायण और विवेकानंद की गिनती असुरों में करने की धृष्टता किसी नें की है। खैर यह प्रश्न आपके मन में बना है। फिर पता नहीं क्षम्य अक्षम्य का यह प्रश्न ही कैसे उपस्थित हुआ। क्या सायण और विवेकानंद के मांसाहार समर्थन के कारण उन्हें आपने असुर मान लिया? क्या आप भी मानते हैं मांसाहार करना असुरों का काम हैं? आप स्वयं मांसाहार समर्थक ही नहीं, मांसाहार को मुसलमानों की आस्था तक कहते है, ईमान कहते है। और उसी मानसिकता से सायण और विवेकानंद जैसे विद्वान आपके पक्ष में दिखाई देते है (जबकि इन दोनो के सन्दर्भ भी आपने प्रस्तुत किए) , उन्हें मांसाहार समर्थक जानकर यदि कोई उन्हें आपके दल में गिन भी ले तो इसमें धृष्टता कैसी? कम से कम आपको तो यह धृष्टता नहीं लगनी चाहिए। पर कोई आश्चर्य नहीं, आपकी तरह ही बहुत से लोग मांसाहार को निकृष्ट दृष्टि से देखते है, और उसे असुर कर्म मानते है। @आपको परेशानी से बचाने के लिए ‘नह्र‘ शब्द का अर्थ-व्याख्या और उसका हवाला हम आपको पूर्व में ही दे चुके हैं। मैं ही नहीं पाठक भी सच जानना चाहते है। भ्रांति तो ज्यों की त्यों ही नहीं बल्कि आपने और भी बढ़ा दी है। क्योंकि आपने जानते हुए भी ‘नह्र‘ शब्द की धातु और व्युत्पत्ति आखिर तक बता न पाए। दो तीन अलग अलग जगह से सन्दर्भ ही दे देते कि ‘नह्र‘ को मात्र ऊंट ही ग्रहण किया जाना चाहिए? चाहे भाष्यकार कितना भी बड़ा विद्वान क्यों न हो, ईशवाणी को विपरित भाषित करता है तो वह जघन्य अपराध है। ऐसा करना भी ईश-निंदा के अपराध में ही माना जाता है। ऐसी विकृत व्याख्या का प्रचार प्रसार भी दंड़नीय अपराध है।
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
♠ क़ुरबानी के संबंध में यही एकमात्र आयत नहीं है। दूसरी आयतों को देखेंगे तो भी आप जान जाएंगे कि क़ुरआन में मवेशी जानवरों की क़ुरबानी का हुक्म है। वे आयतें भी तो हम आपको दे चुके हैं। http://niraamish.blogspot.com/2011/11/mass-animal-sacrifice-on-eid.html?showComment=1321621229072#c543372816398258894 ♠ इन आयतों के अनुवाद को भी तो देखिए भाई साहब ! इसके बाद जब आप पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का अमल देखेंगे कि उन्होंने इन आयतों पर कैसे अमल किया और कैसे करना सिखाया है तो फिर आपकी कोई भी शंका शेष नहीं रह जाएगी।
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
@ भाई सुज्ञ जी ! अगर आप इस विषय में प्रशंसात्मक टिप्पणी देकर भी भूल गए हैं तो हम क्या कर सकते हैं ? आप तो गूगल के टूल्स का इस्तेमाल करना जानते हैं। इन शब्दों को गूगल सर्च में डालकर सर्च कर लीजिए कि मांस खाने वालों के लिए कौन घृणित शब्दों का इस्तेमाल कर रहा है ? 'बतलाने की आवश्यकता नहीं की प्राय ऐसे आसुरी लोग ही मांस-भक्षण और अश्लील सेवन की रूचि रखते है, और ऐसे कुक्करों ने ही अर्थ का अनर्थ करके वेद आदि शास्त्रों में मद्य मांस तथा मैथुन की आज्ञा सिद्ध करने की धृष्टता की है.'
कुमार राधारमण ने कहा…
जब अन्य मामलों में हमारा जीवन धर्मग्रंथों की अपेक्षा के अनुरूप नहीं है,तो फिर खानपान के मामले में धर्मग्रंथों का संदर्भ देना सम्यक् नहीं प्रतीत होता। बाद के धर्मगुरुओं और अपने अनुभवों से सीखना अधिक उचित मालूम पड़ता है। किंतु,यदि आप ऊर्जा के उस तल तक पहुंच पाते हैं जिसके बारे में धर्मग्रंथों में सूत्ररूप में ही बातें रखी गई हैं अथवा जिसके बाद किसी व्यक्ति में किसी श्लोक अथवा आयत का उतरना संभव हो पाता है,तो फिर कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि आप क्या खाते हैं।
सुज्ञ ने कहा…
ड़ॉ अनवर जमाल साहब, सत्य तथ्य के शोध में चर्चा सम्वाद के लिए, कमसे कम इस पोस्ट पर आपकी प्रशंसा उचित ही है। बस मंथन से निकले यथार्थ को स्वीकार करना चाहिए। आईए देखते है आपके कहे अनुसार पशु-बलि वाली कुरबानी के आशय को प्रस्तुत करने वाली इन आयतों में क्या पशु-बलि का विधान है?…… @ ऐ ईमान लानेवालो! प्रतिबन्धों (प्रतिज्ञाओं, समझौतों आदि) का पूर्ण रूप से पालन करो। तुम्हारे लिए चौपायों की जाति के जानवर हलाल हैं सिवाय उनके जो तुम्हें बताए जा रहें हैं; लेकिन जब तुम इहराम की दशा में हो तो शिकार को हलाल न समझना। निस्संदेह अल्लाह जो चाहता है, आदेश देता है . (क़ुरआन, 5: 1) ड़ॉ अनवर जमाल साहब, इस आयत में कुरबानी शब्द का उल्लेख नहीं है। अन्य आहार की अनुपलब्धता के चलते चौपायों की जाति के जानवर हलाल मात्र मजबूरीवश किए गए, यह कार्य पवित्र तो नहीं ही है क्योंकि पवित्र इहराम की दशा में तो किसी भी हालत में इन्हें हलाल समझने की अनुमति नहीं है। ________________________________________________ @ ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह की निशानियों का अनादर न करो; न आदर के महीनों का, न क़ुरबानी के जानवरों का और न जानवरों का जिनका गरदनों में पट्टे पड़े हो और न उन लोगों का जो अपने रब के अनुग्रह और उसकी प्रसन्नता की चाह में प्रतिष्ठित गृह (काबा) को जाते हो।(क़ुरआन, 5:2) ड़ॉ अनवर जमाल साहब, यहां ‘कुरबानी के जानवरों’ शब्द का प्रयोग अवश्य है पर जिब्ह का कोई आदेश नहीं, उल्टा उन जानवरों का अनादर न करने का कहा गया है। कत्ल करके कुरबानी के जानवरों का कैसे ‘आदर’ किया जा सकता है। जबकि आगे ही वही ‘आदर’ उन लोगों का भी करने को कहा गया है जो रब अनुग्रह के लिए काबा जाते है। _____________________________________________________________________ @(क़ुरबानी के) ऊँटों को हमने तुम्हारे लिए अल्लाह की निशानियों में से बनाया है। तुम्हारे लिए उनमें भलाई है। अतः खड़ा करके उनपर अल्लाह का नाम लो। फिर जब उनके पहलू भूमि से आ लगें तो उनमें से स्वयं भी खाओ औऱ संतोष से बैठनेवालों को भी खिलाओ और माँगनेवालों को भी। ऐसी ही करो। हमने उनको तुम्हारे लिए वशीभूत कर दिया है, ताकि तुम कृतज्ञता दिखाओ (कुरआन 22:36) न उनके माँस अल्लाह को पहुँचते है और न उनके रक्त। किन्तु उसे तुम्हारा तक़वा (धर्मपरायणता) पहुँचता है। इस प्रकार उसने उन्हें तुम्हारे लिए वशीभूत किया है, ताकि तुम अल्लाह की बड़ाई बयान करो, इसपर कि उसने तुम्हारा मार्गदर्शन किया और सुकर्मियों को शुभ सूचना दे दो (कुरआन 22:37) ड़ॉ अनवर जमाल साहब, इस आयत के अनुवाद में कुरबानी शब्द ब्रेकेट में रख कर जोडा गया है अन्यथा यहां कुरबानी का कोई आशय न होता। ऊँट को मारने, जिब्ह करने का कोई उल्लेख नहीं है। “उनमें से स्वयं भी खाओ औऱ संतोष से बैठनेवालों को भी खिलाओ” यहां तो मांस का भी जिक्र नहीं है। “खड़ा करके उनपर अल्लाह का नाम लो”। अर्थात् ऊँट को रोक कर अल्लाह का स्मरण करो। “फिर जब उनके पहलू भूमि से आ लगें तो” अर्थात् वह जमीन पर बैठ जाय तो। “उनमें से स्वयं भी खाओ औऱ संतोष से बैठनेवालों को भी खिलाओ और माँगनेवालों को भी”। ऊँट पर लदे खाने को स्वयं भी खाओ औऱ संतोष से बैठनेवालों को भी खिलाओ और माँगनेवालों को भी। सीधा अनुवाद तो यह अर्थ देता है पर कुरबानी शब्द को ब्रेकेट में डालकर आशय बदल दिया गया है। क्योंकि अगली ही आयत में स्पष्ट बयान है कि भले पहले अल्लाह का नाम लिया गया हो, “न उनके माँस अल्लाह को पहुँचते है और न उनके रक्त। किन्तु उसे तुम्हारा तक़वा (धर्मपरायणता) पहुँचता है”। इस साफ साफ उपदेश का तो भावार्थ करने की भी आवश्यकता नहीं। वाकई यह करूणायुक्त सन्देश अल्लाह की बड़ाई बयान करने के योग्य है कि यह उल्लेख कर के उसने मार्गदर्शन कर दिया है। लोग निर्थक ही अपनी जिद्द को सही ठहराने के लिए ईशवाणी का दुरपयोग करते नज़र आते है। _____________________________________________________________________ @ माँसाहार के लिए घृणित शब्दों का इस्तेमाल… ड़ॉ अनवर जमाल साहब, मेरे कथन का अभिप्रायः यह था कि शुद्ध शाकाहारी तो कदाचित मांसाहार की निंदा करे, और मद्य मांस तथा मैथुन सेवन करने वालों को असुर कह दे, पर आपने भी उनकी हां में हां मिलाकर कैसे मान लिया कि मांसाहार का समर्थन करने वालो को असुर मानना चाहिए। या उनके समर्थन को गलत कहना धृष्टता की श्रेणी में आता है?
Dineshrai Dwivedi ने कहा…
सभी लोगों से ... जब मामला कुऱआन का आता है तो मैं उस पर कोई बहस नहीं करता। कम से कम उन लोगों से जो उसे अल्लाह की किताब मानते हैं। सारे प्रश्न इसी के साथ खत्म हो जाते हैं। किसी भी अच्छी या बुरी चीज को मनवाने का यह सब से आसान तरीका है। पहले तो तू अल्लाह को मान फिर ये मान कि ये किताब उसी की है। इतना मान लेने के बाद अक्ल से काम लेने की जरूरत कहाँ है? लोग इन चीजों के पीछे क्यों अक्ल का लट्ठ लिए फिरते हैं?
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
महापुरूषों के भोजन पर कोई उंगली क्यों उठाए ? @ भाई सुज्ञ जी ! हम मांसाहार को प्रशंसनीय मानते हैं। महान वेदभाष्यकार सायण और वैदिक संस्कृति के प्रचारक स्वामी विवेकानंद जी भी मांसाहार के समर्थक हैं। अतः हम उनके लिए असुरादि शब्द सुनना तक पसंद नहीं करते। आप कह रहे हैं कि ‘मेरे कथन का अभिप्राय यह था कि शुद्ध शाकाहारी तो कदाचित मांसाहार की निंदा करे।' क्यों भाई क्यों ? क्यों करे मांसाहार की निंदा ? ऐसा श्रेष्ठ आहार जिसे वैदिक संस्कृति की दुंदुभि बजाने वाले लेते रहे हों, उसकी निंदा कोई क्यों करे ? मांसाहार के कारण इन सर्वस्व त्यागियों को बुरा भला कहा जाना न्यायोचित कैसे है ? हरेक को हक़ है कि वह जो खाना चाहे खाए लेकिन महापुरूषों के भोजन पर कोई उंगली क्यों उठाए ? क्या स्वामी विवेकानंद जी गौमांस खाया करते थे ? Swami Vivekanand's Food
shilpa mehta ने कहा…
सुज्ञ भैया, बहुत सटीक विवेचना | साधूवाद स्वीकारें | जो कहा ही न गया - उसे कहा हुआ दिखाने की चेष्टा अनाधिकार चेष्टा कहलाती है | तिस पर यह सिद्ध करने की कोशिश के वेदों में भी यही आज्ञा दी गयी है !!! या की जिन्हें कोई असुर कह ही नहीं रहा - उन्हें असुर कहने का इलज़ाम लगाना, आदि |यह दिखाता है की अपनी भारत भूमि के संस्कारों को तोड़ मरोड़ कर foreign के संस्कार बिठाने की कोशिश की जा रही है | एक तरफ तो डॉक्टर साहब कहते हैं कि वे वेदों का सम्मान करते हैं, दूसरी और निरंतर वेद वाणी के अर्थों को घुमा फिर कर सिर्फ मांसाहार को ही धर्म का pillar साबित करने की चेष्टा जारी है | इस तरह के प्रयास एक महान धर्म को बदनाम करते हैं | and also the attempt to discourage people from reading and understanding the Holy Quraan !!! अभी तक बताई एक भी आयत में कहीं भी ऊँट को जिबह करने का हुक्म आया नहीं है - परन्तु बार बार यह दोहराने से ही साबित करने का प्रयास जारी है | गूगल ट्रांसलेट ही नहीं, बल्कि आधिकारिक इन्टरनेट पर उपलब्ध ट्रांसलेशंस भी देखे, लिंक भी दिए, कहीं भी नहीं | परन्तु दोहराते रहने से ही अर्थ बदले तो नहीं जाते न? वैसे - महाभारत की जो कथा है - उसमे भीष्म (देवव्रत) ने बहुत अधिक दुःख उठाये | कुछ ब्राह्मणों से सुना है की पिछले किसी जन्म में उन्होंने (शायद अनजाने में ही) गोमांस का भक्षण किया था - जिसकी सजा स्वरुप वे इस जीवन भर दुःख झेलते रहे | फिर एक और कथा है की जब वे बाणों की शैया पर थे - तब उन्होंने कृष्ण से पूछा था की "मैं दर्द की शिकायत नहीं कर रहा हूँ , न ही उलाहना दे रहा हूँ | परन्तु जानना चाहता हूँ की मैंने ऐसा क्या कर्म किया जिसकी वजह से इस शैया की वेदना मिली |" तब उन्हें और भी पुराने जन्मों की याद दिला कर केशव ने बताया की उन्होंने किसी पूर्व जन्म में शिकार के बाद एक हिरन (?) को (जो अभी मरा नहीं था ) टांगों से पकड़ कर शिविर तक घसीटा था (जिससे उस marnaasann hiran ko कांटो की असह्य चुभन की वेदना सहनी पड़ी थी ) उसका कर्म फल यह बाणों की शैया है | तो गोमांस खाना - और पशु को पीड़ा देना - कितने संगीन जुर्म्युक्त कर्म हैं, इससे हम समझ सकते हैं |
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…
शिल्पा जी का आभार। अहिंसा और करुणा भारतीय संस्कृति का आधार है। यदि कोई आउट ऑफ़ कॉंटेक्स्ट कथन इस मूल भावना का उल्लंघन करता है तो वह कथन गलत है न कि मूल भावना। भारतीय संस्कृति में मांस भक्षण सदा निन्दनीय रहा है। ऐसे में मांसाहार के किसी भी उदाहरण से उसकी श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती। डॉ. जमाल को तो मैं एक धर्मनिष्ठ मुसलमान समझता था परंतु उनकी ताज़ा टिप्पणी ने मुझे उनके उद्देश्य के बारे में कंफ़्यूज़ कर दिया है। - उद्धृत पोस्ट पर किसी ने भी विवेकानद जी को कुछ नहीं कहा है - विवेकानन्द ने शाकाहार को मांसाहार से श्रेष्ठ ही माना है और कहा है कि आत्मा के विकास के साथ-साथ व्यक्ति को मांसाहार से अरुचि होती जाती है। उन्होंने यह भी कहा है कि उनके गुरू भी शाकाहारी थे। ज़रा यह आधिकारिक लिंक देखिये: http://www.vivekananda.net/ByTopic/MeatEating.html - विवेकानन्द योग के प्रवर्तक थे। उन्होने ज्ञान, भक्ति, राजयोग आदि पर खूब लिखा है। योग के पहले अंग "यम" का पहला बिन्दु ही अहिंसा है। योग की आठ मंज़िलों की पहली सीढी का पहला कदम ही अहिंसा से आरम्भ होता है। - डॉ जमाल विवेकानन्द का सहारा (जो कि तथ्याधारित नहीं है) इस प्रकार ले रहे हैं, मानो उनकी हर बात मानते हों, क्या वे मूर्तिपूजा में विवेकानन्द का अनुसरण करते हैं? या फिर विवेकानन्द जैसे संतों का नाम बस यूँ ही दिखावे के लिये लिया जा रहा है? - इसलाम में भी शाकाहार बिना कलमा पढे नैसर्गिक रूप से ही हलाल है जबकि जीवहत्या के साथ ऐसा नहीं है। फिर मांसाहार प्रशंसनीय कैसे हो गया? - क्या आप विस्तार से बतायेंगे कि ये तफ़्सीर क्या होती है? क्या ये कुर'आन का अंग है? यदि नहीं, तो ये कब और किस भाषा में लिखी गयी है? किसी आयत की तफ़्सीर आयत से ऊपर कैसे हो सकती है? आयत के विपरीत अर्थ करने वाली तफ़्सीर को मान्यता कैसे मिल सकती है? इसी प्रकार वेदमंत्र को भूलकर भाष्य के बेतुके अनुवाद को बड़ा कौन मानेगा? नश्वर व्यक्ति की लिखी/कही/बरती बात प्रभु के आदेश से ऊपर कैसे हो सकती हैं? क्या इस्लामिक नियमों में ऐसे कृत्य को ब्लासफ़ेमी नहीं कहते?
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…
द्विवेदी जी! आपकी बात से सहमत हूँ। लेकिन विवेकानन्द जी, सायण भाष्य आदि के बारे में तो बात की जा सकती है क्योंकि उन्हें भी आउट ऑफ़ कॉंटेक्सट उद्धृत किया जा रहा है। भारतीय संस्कृति में तो वैचारिक स्वतंत्रता का पूर्ण आदर है।
सुज्ञ ने कहा…
शिल्पा जी का आभार। और माननीय अनुराग जी नें गहनता से सार्थक और तथ्यपूर्ण अभिमत रखा है। भारतीय संस्कृति गुणपूजक ही है विचारों को महानता प्रदान करती है किसी भी व्यक्ति चाहे वह विद्वान महापुरूष ही क्यों न हो, आंख बंद कर अंधानुकरण नहीं करती। उनमें अवगुण पाने पर स्वतंत्रता से उन अवगुणों की आलोचना निंदा गृहा करती है, और सद्गुणों के पुनः स्थापनार्थ तत्पर भी रहती है। विवेकानंद कदाचित मांसाहारी रहे हों, पर उसे व्यक्तिगत विषय तक सीमित रखा। उन्होंने मांसाहार का प्रसार प्रचार नहीं किया, अतः वे माँसाहार समर्थक तो हरगिज़ नहीं थे। उल्टे वे दृढता से मानते थे कि आत्मोत्थान में मांसाहार त्याग ही मात्र उपाय है। इस तथ्य को प्रकाशित करने के लिए अनुराग जी आपका बहुत बहुत आभार॥
सुज्ञ ने कहा…
@ आप कह रहे हैं कि ‘मेरे कथन का अभिप्राय यह था कि शुद्ध शाकाहारी तो कदाचित मांसाहार की निंदा करे।' क्यों भाई क्यों ? क्यों करे मांसाहार की निंदा ? ड़ॉ अनवर जमाल साहब, क्यों न करे शुद्ध शाकाहारी, माँसाहार की निंदा? जमाल साहब,यह पोस्ट ही 'त्याग' पर आधारित है, बात 'त्याग' की हो रही है। शाकाहारियों के पास मांसाहार के सम्पूर्ण त्याग का नैतिक बल है। जबकि मांसाहार में मांसाहार के साथ साथ शाकाहार को भी नहीं छोड़ते (त्यागते)। मांसाहारी सदैव उभय आहारी ही होते है। सर्वाहारी ही। जब त्यागना कुछ भी नहीं तो महत्व कहां से प्राप्त होगा। अनियंत्रित हिंसक भोग प्रशंसनीय होने का तो सवाल ही नहीं उठता। ऐसा भी नहीं है कि मांसाहार समर्थक 'त्याग'का अर्थ या मूल्य नहीं जानते। या आहार त्याग से त्याग का सम्बंध नहीं जोडते…… प्राय: सभी धर्म-दर्शनों में उपवास/रोज़ा/व्रत आदि के द्वारा आहार त्यागने का महत्व है। मांसाहार का प्रयोग करने वाले भी किन्ही पवित्र दिनों/महिनों/अवसरों/धर्मस्थलो/यात्रा/इहराम की दशा में मांसाहार का त्याग रखते है। इसी से विदित होता है कि पवित्र और शुभ दशा में मांसाहार निंदनीय है। ( निंदा का एक-मात्र कारण इसका हिंसा से जुड़ा हुआ हो सकता है) और हिंसा सर्वत्र निंदनीय है।
सुज्ञ ने कहा…
@ मांसाहार के कारण इन सर्वस्व त्यागियों को बुरा भला कहा जाना न्यायोचित कैसे है ? ड़ॉ अनवर जमाल साहब, अपनी यह भारतभूमि है, विश्व के सर्वाधिक महापुरूषों/नबियों का जन्म और कर्म इस भूमि पर हुआ है। विज्ञान की दृष्टि से भी देखें तो सबसे पहल सभ्य और सुसंस्कृत बन जाने का श्रेय भारत को प्राप्त है। यहां ज्ञान, विवेक और बुद्धि अपने सर्वोच्छ शिखर पर रही है। हर कार्य और कर्म को विवेक दृष्टि से देखने की प्रविधि हमने विकसित कर ली थी। जैसे शिल्पा जी नें कहा…… यहां महान पितामह भिष्म को भी मरणासन्न अवस्था में उनके पाप याद दिलाना नहीं भुला जाता। राम को बलिवध में माया करने पर राम की भी आलोचना की जाती है। सीता त्याग के लिए भी राम के न्याय को कटघरे में खड़ा किया जाता है। द्यूत खेलने के लिए महान पांड़वो की निंदा आज भी की जाती है। भगवान कृष्ण वासुदेव को युद्ध भूमि से पलायन के कारण 'रणछोड़' का ठप्पा चस्पा कर दिया जाता है। अर्थात् सर्वगुणसम्पन्न महापुरूषों की भी सामान्य त्रृटि के लिए आलोचना की जाती है। इतना खुल्ला समाज रहा है। फिर आपके द्वारा कथित सर्वस्व त्यागी, अगर वे मांसाहार जैसे गैरजरूरी उपर से हिंसाजनक आहार का त्याग न कर पाए तो कैसे सर्वस्व त्यागी?
सुज्ञ ने कहा…
ड़ॉ अनवर जमाल साहब, एक बात तो अब गांठ बांध लिजिए कि वेदों में मांसाहार का आदेश तो क्या अनुमति भी नहीं है। यदि होता तो वह कभी भी वेदों के अहिंसा उपदेशों से विरोधाभास की तरह खड़ा हो जाता। इसके बाद जो विषय वस्तु उपनिषद,पुराणों,भाष्यों अथवा व्याख्याओं में आती है यदि वे वेद-भगवान के आशय को पुष्ट करती है, ईशवाणी के उन्ही भावों का संरक्षण करती है तो स्वीकार्य है। और यदि विरोधाभास पैदा करती है तो उसे अप्रमाणिक ही माना जाएगा। ऐसा कभी नहीं रहा कि पूरी दूनिया निरामिष हो गई। वेद-काल में भी वनवासी या जंगली प्रजातियां रही है। सभ्य लोगों के बीच भी असभ्य लोग सदा काल से रहे है। सत्पुरूषों के सानिंध्य में भी असत्पुरूष रहे ही है। वेदों के समय भी रहे होंगे, वेद में निष्पक्ष वर्णन है उसमें मांसाहारी लोगों, असभ्य प्रजाति, असत्पुरूषों का वर्णन आना लाजिमि है। वर्णन आने मात्र से उसे आदेश या उपदेश मान लेना मूर्खता भरा अध्ययन है। जैसे आपके द्वारा कहा गया………"गोमांस परोसने के कारण यशस्वी बना राजा रंतिदेव" किसी मांसाहार प्रलोभी राजा नें मांसलोलुप लोगों को प्रलोभन देकर यशगान करवा भी लिया तो वह यश मांसभक्षियों के बीच ही रहा। क्या राजा रंतिदेव की कीर्ती को आज सम्मान दिया जाता है? क्या उसे गोमांस परोसने गायों की हत्या करवाने के कारण आज पूजा जाता है? भारतीय संस्कृति में हिंसा को बढ़ावा देने वाले व्यक्तियों का आज सम्मान तो छोडो, नामलेवा भी नहीं है। वेदों में हिंसा को कोई जगह नहीं थी, और विकृतियां ईशवाणी का हिस्सा कदापि नहीं है।
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
@ भाई सुज्ञ जी ! आदरणीय भाई अनुराग शर्मा जी की टिप्पणी सहित कई टिप्पणियां आ चुकी हैं। इनमें से हरेक पर कुछ जाए, इनमें ऐसी सामग्री है। लेकिन इनमें से सबसे पहले हम आपकी वह टिप्पणी लेते हैं जिसमें आप हमारे प्रिय श्री रामचंद्र जी को बालिवध और सीतात्याग के लिए कटघरे में खड़े किए जाने का ज़िक्र कर रहे हैं। यह इसलिए कि हम श्री रामचंद्र जी और सीता माता के बारे में अतिसंवेदनशील नेचर रखते हैं। अपनी जानकारी की हद तक हमें श्री रामचंद्र जी के जीवन कोई एक भी प्रकरण ऐसा नहीं मिला जिस पर कोई उंगली रख सके। जब हम उनके चरित्र में कोई कमी न पा सके तो फिर कौन है जो उनकी आलोचना करता है और उन्हें कटघरे में खड़ा करता है। महापुरूषों के साथ जो भी ऐसा करता है वह ज्ञानी तो हरगिज़ नहीं हो सकता और अज्ञानी जो कुछ भी करें, सो थोड़ा है। आप कह रहे हैं कि भारत में सबसे ज़्यादा ऋषि और नबी हुए हैं और सबसे पहले यही देश सुसंस्कृत हुआ था। यह बात बिल्कुल सही है। आपको यह भी जानना चाहिए कि सबसे पहले नबी आदम इसी धरती पर आए थे और उनके नाम ‘आदम‘ की धातु भी दुनिया की किसी ज़बान में अगर मिलती है वह ज़बान भी भारत में ही पाई जाती है। इसी के साथ आपको यह भी जानना चाहिए कि जिसे आज भारत के नाम से जाना जाता है, पूर्व के भारत के समक्ष यह केवल भरतखंड है न कि पूर्ण भारत। अखंड भारत के नाम पर ईरान आदि को समेटे हुए वृहत्तर भारत का जो नक्शा दिखाया जाता है, वह भी संपूर्ण भारत नहीं है। संपूर्ण भारत दरअसल संपूर्ण पृथ्वी है। इसीलिए जब बालि मरते हुए श्री रामचंद्र जी से उनके राज्य और अधिकार के बारे में प्रश्न करता है तो वह यही कहते हैं कि यह संपूर्ण पृथ्वी मनु का राज्य है जो कि नस्ल दर नस्ल होते हुए अब मुझ तक पहुंची है और मुझे इस पृथ्वी पर उत्पात रोकने का पूरा अधिकार प्राप्त है। ऐसे महान राजा से नीतिविरूद्ध कोई भी काम होना संभव नहीं है। बात पुरानी है, इसलिए इसके याद रखने वालों से उनका चरित्र बयान करने में कोई ग़लती हुई हो, यह ज़रूर संभव है। महान पूर्वजों को जो आदमी कटघरे में खड़ा करता है, वह नालायक़ है या फिर नादान है। हमारे सामने कभी श्री रामचंद्र जी या श्री कृष्ण जी की बुराई की गई या उनकी आलोचना करने वालों की प्रशंसा की गई तो हमारी प्रतिक्रिया सख्त मिलेगी, यह ध्यान रहे। बिना किसी प्रमाण के महापुरूषों की आलोचना करना सभ्यता नहीं होती और दुःखद यह है कि भारत में आज हर तरफ़ यह आम बात है और आप जैसे लोग इसकी निंदा करने के बजाय सराहना करते हैं। देखिए ‘राम को इल्ज़ाम न दो‘ ♥ ♥ ♥ अंत में हम इतना ही कहेंगे कि दोषपूर्ण बात कभी धर्म नहीं होती। इसीलिए धर्म और मर्यादा की रक्षा करने वाले महापुरूष कभी दोषयुक्त आचरण नहीं करते।
shilpa mehta ने कहा…
श्री रंतिदेव के बारे में जो कहा जा रहा है - वह झूठ और मिथ्या प्रचार है | *** श्रीमद भागवतम - canto ९ - chapter २१ में रंतिदेव की कथा है | *** यह कथा श्री शुकदेव सुना रहे हैं - महाराज परीक्षित को | लिंक http://vedabase.net/sb/9/21/1/en1 http://vedabase.net/sb/9/21/en1 http://www.scribd.com/doc/49209601/Srimad-Bhagavatam-Canto-9-of-12 - इस लिंक में जाकर श्लोक क्रमांक ९.२१.१ से लेकर ९.२१.१८ तक श्लोक सिर्फ रंतिदेव की स्तुति पर हैं | --------------------------------------- १/ ऋषि भरद्वाज (विटठल) के पुत्र हैं - मन्यु - जिनके पुत्र हैं - नर - उनके पुत्र सन्क्रिति - उनके पुत्र हैं रंतिदेव २/ श्लोक ९.२१.३ to १८ महाराज रंतिदेव ने राज्य में अकाल पड़ने पर कई बार लम्बे उपवास किये | जब एक बार भीषण अकाल हुआ तब कई दिन लगातार बिना अन्न जल रहे | फिर जब "सब प्रजाजनों को भोजन मिल गया" की सूचना मिली - तो वे परिवारजनों के साथ उपवास खोलने लगे | ** तब एक ब्राह्मण आए तो उन्हें अपने भोजन से हिस्सा दिया | ** फिर एक शूद्र आये तो उन्हें भी | ** फिर कई कुत्तों के साथ उनका मालिक आया - तो कुत्तों को भोजन दिया | ** फिर एक चांडाल आया - तो सिर्फ पीने को पानी ही बचा था | रंतिदेव स्वयं ही भूख प्यास से मृत्यु के द्वार पर थे - किन्तु सबके मना करने पर भी यह कहते हुए की "ब्राह्मण, शूद्र, चांडाल, और कुत्ते में सामान रूप से परमात्मा मुझे दीखते हैं " उन्होंने पानी भी दे दिया | तब उनके प्रशंसा करते हुए ये चारों ही (असलियत में ब्रह्मा और शिव राजा की परीक्षा के लिए छद्म रूप में आये थे) अपने असल रूप में आये और राजा को आशीर्वाद दिए | उन्हें भूख प्यास और सब दुखों से मुक्ति दी गयी | यह कथा है राजा रंतिदेव की, और उनके यशस्वी होने की वजह भी यही है | जो कोई भी जांचना चाहें - वे श्री भागवत महापुराण के श्लोक ९.२१.१ से १८ तक पढ़ कर confirm कर सकते हैं | यह मिथ्या प्रचार है की वे "गोमांस परोसने से" यशस्वी हुए | ------------------- गीता में भी एक श्लोक आता है - जो रंतिदेव को लक्ष्य करता है - की साधू और ज्ञानी जन - ब्राह्मण, शूद्र, कुत्ते और चांडाल (कुत्ते का मांस खाने vaale ) को इस समानता की दृष्टी से देखते हैं की उन सब ही के भीतर वही परमात्मा है | -------------------- यह बात तो राजा रंतिदेव की थी | परन्तु - यदि शास्त्रों में मांसाहार है भी - तो क्या हुआ ??? पौराणिक कथाएँ यदि राम की हैं, तो रावण की भी हैं ही, यदि कृष्ण की हैं तो कंस की भी | सर्व विदित है मांसाहार किया जाता था (आज भी है, आगे भी होगा ) | किन्तु यह धर्म की आज्ञा पर नहीं, बल्कि ऐसे ही नयी मनगढ़ंत theories (जैसी अब भी बनाने का प्रयास चलता रहता है, और भविष्य में भी होगा ) के अनुरूप किया जाता रहा | कई कथाओं में कई जगह मांसाहार पर श्लोक निश्चित तौर पर होंगे ही, क्योंकि मांसाहार होता रहा - भले ही उसे धर्म की स्वीकृति न रही हो | परन्तु इसका अर्थ यह नहीं की मांसाहार की आज्ञा दी गयी है | यह होता था - यह सत्य बताया गया - हमारी संस्कृति झूठ और छुपाव की नही रही कभी भी !!!
DR. ANWER JAMAL ने कहा…
कुछ निश्चित अवसरों पर बैल की बलि देकर मांस अवश्य खाना चाहिए @ स्मार्ट इंडियन उर्फ़ आदरणीय भाई अनुराग शर्मा जी ! 1. जब किसी गुण या किसी परंपरा की निंदा की जाती है तो उस गुण के धारक और उस परंपरा के वाहक की निंदा स्वयं ही हो जाती है। अतः पशु बलि के संदर्भ में यहां विवेकानंद जी का नाम लिया जाना ज़रूरी था, जबकि इस संदर्भ में इस पोस्ट के लेखक और इस ब्लॉग के कई योगदानकर्ताओं से हमारा संवाद पूर्व में भी हो चुका है। विवेकानंद जी का नाम लेकर यहां धार्मिक ग्रंथों के अनादर की बात भी की जा चुकी है। अतः ज़रूरी था कि मांसाहार के बारे में विवेकानंद जी का नज़रिया स्पष्ट कर दिया गया। स्वामी जी ने प्राचीन वैदिक संस्कृति के पुनरूत्थान के लिए जी तोड़ प्रयास किया, उनके हर सही काम का हम समर्थन करते हैं। मूर्तिपूजा आदि के विषय में बात करने के लिए यह पोस्ट उचित नहीं है। यहां हम केवल पशु बलि और मांसाहार पर ही बात करेंगे। 2. मांसाहार के बारे में स्वामी जी का कथन हम फिर दोहरा रहे हैं। ‘आपको यह जानकर हैरानी होगी कि प्राचीन कर्मकांड के मुताबिक़ वह अच्छा हिंदू नहीं जो गोमांस नहीं खाता। उसे कुछ निश्चित अवसरों पर बैल की बलि देकर मांस अवश्य खाना चाहिए। ( द कंपलीट वर्क्स ऑफ़ स्वामी विवेकानंद , जिल्द 3 , पृ. 536 ) उनका कथन स्वयं बता रहा है कि वह मांसाहार को अच्छा मानते थे या बुरा ? 3. वेदों में ‘योग‘ शब्द उस अर्थ में कहीं भी नहीं आया है जिनमें कि योगदर्शन में आया है। योगदर्शन वेदों के बहुत बाद की चीज़ है। बाद में तो वैदिक यज्ञों में बलि पर ही प्रतिबंध लगा दिया गया। इसी तरह एक एक परंपरा छोड़ते छोड़ते वैदिक संस्कृति का लोप होता ही चला गया। वैसे भी यम में अगर अहिंसा है तो उससे वही हिंसा वर्जित ली जाएगी , जिससे कि वेद और स्मृतियां रोेकती हैं। 4. इस्लाम में जानवर को सब्ज़ी की तरह कहीं से भी नहीं काट सकते बल्कि उसकी एक निश्चित विधि है। यह विधि भी पहले से ही चली आ है जैसे कि उनकी बलि देने की और उन्हें खाने की परंपरा पहले से चली आ रही है। 5. क़ुरआन की तफ़्सीर वह चीज़ है जिसमें उसके पहलुओं की जानकारी दी जाती है। क़ुरआन की सही तफ़्सीर पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब सल्ल. की ज़िंदगी है। उन्होंने आयतों का अर्थ भी समझाया और फिर उन्हें करके भी दिखाया। उनके सत्संगी सहाबा ने भी क़ुरआन की तफ़्सीर की है, अपने अमल से भी और लिखकर भी। उनके बाद भी बहुत से अधिकारी विद्वानों ने क़ुरआन की तफ़्सीर की है। यह काम हरेक बड़ी भाषा में हुआ है और आज तफ़्सीर का एक बड़ा ज़ख़ीरा मौजूद है। इनमें से किसी में भी जानवर की क़ुरबानी और मांसाहार को लेकर मतभेद नहीं है। 6. जो भी आदमी पैग़ंबर साहब सल्ल. की ज़िंदगी से काटकर क़ुरआन की व्याख्या करता है, यक़ीनन वह ग़लत व्याख्या करता है। 7. वेदमंत्रों का साक्षात्कार करने वाले ऋषियों का जीवन भुला दिया गया। इससे वेदों को समझने में बड़ी दिक्क़त आती है। इसके भाष्यकारों ने इसी दिक्क़त को दूर करने की कोशिश की है। सायण का नाम महान भाष्यकारों में आता है और सभी शंकराचार्य उनके वेदभाष्य को स्वीकार करते हैं। अतः उनके वेदभाष्य को बेतुका और ग़लत नहीं कहा जा सकता। यही बात शंकरभाष्य के बारे में भी कही जा सकती है। आदि शंकराचार्य जी ने वैदिक संस्कृति के पुनरूत्थान के लिए जो कुछ किया वह सबके सामने है और उनकी विद्वत्ता भी सुपरिचित ही है। आज के शंकराचार्य इन्हीं की परंपरा के वाहक हैं। हिंदू समाज में अधिसंख्या इन्हीं के श्रृद्धालुओं की है। 8. इसके बावजूद भी जो लोग मांसाहार न करना चाहें तो न करें लेकिन सनातन परंपराओं को कुप्रथा और वेदभाष्यकारों के अध्ययन को मूर्खतापूर्ण तो न कहें जैसा कि भाई सुज्ञ जी कह रहे हैं। हमारा विनम्र निवेदन मात्र यही है और यह हमारा हक़ है क्योंकि इस परंपरा में हम विश्वास करते हैं। ................................. क्या हिंदू गोमांस नहीं खाते थे ?

1 comment:

HARSH said...

आपने बोहत अच्छा लिखा है इस पतंजलि दिव्य पेय हर्बल टी के फायदे और नुकसान को भी पढ़ लीजिए