सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Sunday, July 17, 2011
जानिए श्री कृष्ण जी के धर्म को अपने बुद्धि-विवेक से Krishna consciousness
कल हमें शिल्पा मेहता जी का ईमेल मिला। उन्होंने हमसे पूछा था कि क्या आप मेरे लेख पढ़ते हैं ?
हमने कहा कि लिंक मिल जाता है तो पढ़ लेते हैं।
उन्होंने तुरंत ही अपने नए लेख का लिंक भेज दिया। हम उसे पढ़ने पहुंचे तो प्राचीन धार्मिक साहित्य के प्रति उनका लगाव देखकर बहुत ख़ुशी हुई। वह भी कृष्ण जी से प्रेम करती हैं। उनकी पोस्ट पर हमारा उनसे अच्छा संवाद हुआ। आप उनकी पोस्ट और हमारा संवाद, दोनों यहां पढ़ सकते हैं।
पहले पेश है उनकी पोस्ट :
श्री भगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम ॥
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्ति करमर्जुन ॥२॥
श्री भगवानुवाच (श्री भगवान ने कहा )
कुतस्त्वा (कहाँ से) कश्मलम् (कल्मष, गन्दगी, कचरा) इदम् (यह)विषमे (इस विषम समय पर) समुपस्थितम् (आ गया है(तुम्हारे मन में)) अनार्य(उन लोगों द्वारा नहीं जो उच्च विचारों वाले (आर्य) हों) जुष्टम् (किया जाने वाला ) अस्वर्ग्यम् (स्वर्ग को ना देने वाला) अकीर्तिकरम् (कीर्ति ख़राब करने वाला है) अर्जुन (हे अर्जुन)
श्री भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा - हे अर्जुन - इस विषम अवसर पर तुम्हारे मन में यह कल्मष कहाँ से आ गया? यह आर्य जन द्वारा किया जाने योग्य आचरण नहीं ( या - यह अनार्य जन द्वारा किया जाने वाला आचरण है) , यह स्वर्ग को नहीं दिलाएगा,और तुम्हारी बदनामी भी कराएगा हे अर्जुन |
अब यह बडी ही सोचने योग्य बात है | अर्जुन तो बात कर रह है कि खून खराबा रोकने के लिये राज्य, धन सब त्याग दे - और करोड़ों जिंदगियां बचा लें | अधिकाधिक जन तो इसे महात्याग कहेंगे, और अर्जुन के त्याग की तारीफ़करेंगे, कि देखो राज्य, धन, सब कुछ छोड़ कर यह आदमी रक्तपात रोकना चाह रहा है | लेकिन श्री कृष्ण - जो ज्ञान की परिसीमा हैं - इस विचार को मन की गन्दगी कह रहे हैं?? यह बात ज्यादातर लोगों के गले नहीं उतरती |
साधारण तौर पर हम सोचते हैं कि हर कीमत पर खूनखराबे से बचना चाहिए | ऐसा सोचें कि - एक आतंकवादी कई लोगों को एक बम से उड़ा देना चाह रहा है - और वहां जो सैनिक कमांडो खड़ा हैं - वह उस आतंकवादी का चचेरा भाई है | तो क्या आप उस सिपाही का पीछे हट जाने को त्याग कहेंगे , या कल्मष ? आज की क़ानून प्रणाली भी असाधारण मामलों में मौत की सजा का प्रावधान स्वीकार करती है | खैर - आगे बढ़ते हैं |
एक बात मुझे बताइये - कुछ गिने चुने अराजक तत्वों , आतंकवादियों आदि के कुकर्मों से हमारे आधुनिक समाज में भी , पढ़े लिखे लोगों में भी , गुस्से के क्षणों में - क्या युद्ध की इच्छा नहीं जागती ? लाख कोई कहे कि (- उदाहरण मात्र के लिए -) भारत और पाकिस्तान के साधारण नागरिक तो एक जैसे इंसान ही हैं ना? लेकिन - जैसा कि कल (१३/७/११) हुआ - मुंबई में तीन सीरिअल ब्लास्ट हुए | नेता सीधा सीधा ना भी कहे तो भी अप्रत्यक्ष संकेत तो देते ही हैं कि यह "पाकिस्तान स्पोंसर्ड टेररिस्टों का किया हुआ हमला है - तो एक घटना को आप नज़रंदाज़ कर दे शायद - लेकिन जब लगातार ऐसे घटनाक्रम बार बार होने लगें - तो क्या नागरिक जन अपनी सरकार पर दबाव नहीं बनाने लगते कि युद्ध छेड़ दिया जाए ? क्या युद्ध में खूनखराबा नहीं होगा - अनेकानेक सैनिक नहीं मारे जायेंगे ? उनके (दोनों ही ओर से लड़ने वाले सैनिको के ) परिवार नहीं बिखर जायेंगे ? लोग कहते हैं कि महाभारत युद्ध में जो लाखों लाख लोग मारे गए - उनकी क्या गलती थी ? तो मैं पूछती हूँ आपसे - उन भारतीय और पाकिस्तानी सैनिकों (दोनों ही ओर के सैनिकों की बात कर रही हूँ मैं - सिर्फ भारत के सैनिकों की नहीं | जैसे भारत का सैनिक अपने देश के लिए शहीद हो रहा है - वैसे ही उधर का सीनिक भी अपने मुल्क के लिए )और उनके परिवारों की क्या गलती है जिनसे हम एक्स्पेक्ट करते हैं कि वे युद्ध में जान दे दें - और हम बाद में उनको "शहीद" का लेबल दे देंगे - और अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्ति पा लेंगे ? क्यों ? युद्ध की मांग तो हम कर रहे हैं ना ? फिर युद्ध के बाद हम उन परिवारों के भरण पोषण और देख रेख की ज़िम्मेदारी सरकार के भरोसे क्यों छोड़ देते हैं?
और - आज का जो नागरिक कह रहा है कि महाभारत का युद्ध रुकना चाहिए था - तो क्या हक है उसे आज यह मांग करने का कि आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध हो? आज के नागरिक को अपनी समस्या तो दिखती है - कि मेरा सड़क पर चलना भी खतरनाक हो गया है कि कब ब्लास्ट में मैं मर जाऊं - किन्तु उन्हें यह लगता है कि अर्जुन यदि युद्ध छोड़ देता - और कृष्ण उसे छोड़ने देते - तो ठीक होता !! क्या यह दोहरे मापदंड नहीं हैं?
आप पूछेंगे - उन सैनिकों की क्या गलती थी ? कुछ नहीं - कोई गलती नहीं - सिर्फ उनका सैनिक धर्मं था (उस समय की भाषा में - क्षत्रिय धर्मं ) | जब एक इंसान सेना में ज्वाइन करता है - तो वह जानता है कि यदि युद्ध हुआ - तो मुझे लड़ना होगा - और शायद अपना जीवन भी देना पड़े | यह जानते हुए ही वह वहां जाता है | और जब युद्ध छिड़ गया हो - तो युद्ध स्थल से वह यह कह कर जाने लगे कि मैं तो खून खराबा नहीं चाहता, इसीलिए युद्ध छोड़ रहा हूँ , - तो आप उसे त्यागी कहेंगे , या कायर, धोखेबाज , भगोड़ा, आदि आदि?
इसी तरह से - कृष्ण अर्जुन के इन विचारो को "कल्मष / गन्दगी" कह रहे हैं | युद्ध शुरू हो चुका था - भेरियां बज चुकी थीं | दोनों सेनायें आमने सामने थीं | पिछले अध्याय के सारे श्लोक मैंने डिस्कस नहीं किये हैं इस सीरीज में -किन्तु अर्जुन शंख ध्वनि के बाद ही कृष्ण से कहता है कि रथ दोनों सेनाओं के मध्य में ले चलें कि मैं देख सकूं इस युद्ध में कौन किस ओर हैं | ऐसा नहीं कि वह जानता नहीं था पहले से | चाहता तो भेरियां बजने से पहले भी देख सकता था - किन्तु उसने तब तक इंतज़ार किया जब तक युद्ध शुरू हो ना गया (शंख बजना ही शुरुआत थी युद्ध के - अभी अस्त्र शस्त्र नहीं चले थे)वह जानता था कि उसे युद्ध करना है , वह सिर्फ कुछ समय के लिए भ्रमित हो गया है यहाँ - लेकिन वह यहाँ आया ही युद्ध करने के लिए है |
{....हम सब जानते हैं कि रामायण में राम रावण के युद्ध में विभीषण अपने भाई रावण की ओर से नहीं लड़े जब कि कुम्भकर्ण लड़े | वे (कुम्भकर्ण) भी अपने भाई की इस बात के विरुद्ध थे कि उसने सीता का अपहरण किया - उसे कहा भी कि तुम गलत रास्ते पर हो - यह भी कहा कि श्री राम परम ब्रह्म हैं - उनसे इस युद्ध में मैं मर जाऊंगा - लेकिन फिर भी अपने सैनिक कर्त्तव्य के अनुसार राम से युद्ध किया कुम्भकर्ण ने | उन्होंने विभीषण को भी कहा कि तुमने अपने भाई को धोखा देकर गलत किया - जबकि वे (कुम्भकर्ण) जानते थे कि राम कौन हैं - फिर भी विभीषण के कदम को उन्होंने सही नहीं कहा | क्योंकि सैनिक का कर्त्तव्य है युद्ध में अपने राष्ट्र / राजा के लिए लड़ना - इसी को कृष्ण बार बार गीता में "क्षत्रिय धर्मं" कहते हैं | लेकिन हममे से अधिकतर यह नहीं जानते कि जब विभीषण लंका छोड़ कर राम से जुड़ने आये तो लक्ष्मण ने राम से कहा था कि - हे भाई - जो भाई मुसीबत के समय अपने भाई से धोखा कर के आपसे मिलने आ गया है - वह कतई भरोसे के लायक नहीं है - इस पर भरोसा न करे | इसे तो तुरंत मृत्युदंड दे दिया जाना चाहिए |... }
तो कृष्ण कह रहे हैं - अब - इस समय - यह बातें तुम्हारे मन की मोहरूपी गन्दगी के सिवाय कुछ नहीं | यदि तुम इस धर्मं (कर्त्तव्य ) से पीठ दिखा कर भागते हो - तो तुम अपना नाम , यश, स्वर्ग में स्थान, सब खो दोगे | और यह भी ध्यान रखने की बात है कि वे चोट भी अर्जुन के अहम् पर कर रहे हैं इस विचारधारा को गन्दगी कह के - क्योंकि जब इंसान अपने आप को महात्यागी का लेबल देना चाहता है - तो उसका अहम् बहुत तना होता है | यह जानते हुए कि मैं जो कर रहा हूँ वह मेरे कर्त्तव्य के विरुद्ध है - और वह अपने स्वार्थी कारणों से यह करना चाह रहा है | (इस परिस्थिति में अर्जुन का स्वार्थ था अपने भाइयों, रिश्तेदारों, गुरुओं , भीष्म और द्रोण को मारने से बचना) | वह मरने से नहीं डरता - वीर है - वह प्रियजनों को खोने / मारने से डर रहा है | तो कृष्ण उसे याद दिला रहे हैं कि तुम त्याग नहीं कर रहे - महानता नहीं कर रहे - तुम अपने धर्मं से भाग कर एक नीच कर्म कर रहे हो |
अगले श्लोक के साथ फिर मिलते हैं| ....
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शिल्पा जी , आपकी चर्चा का लिँक मिला और यहाँ आकर अच्छा लगा ।
श्री कृष्ण जी सदा से ही मेरे लिए आदरणीय हैं और गीता जी मेरी प्रिय पुस्तकों में से एक है । इसमें उच्च कोटि का दर्शन है ।
आज लोग श्री कृष्ण जी के उपदेश पर तरह तरह के ऐतराज़ करते हैं तो उसका कारण यह नहीं है कि श्री कृष्ण जी का फैसला ग़लत था बल्कि इसकी असल वजह यह है कि लोगों की समझ का स्तर कम है और एक वजह यह भी है महाभारत को तीन बार लिखा गया और उसके असल श्लोकों में 90 हज़ार से ज़्यादा श्लोक अपनी तरफ़ से बढ़ा दिए । इस तरह उसकी मूल शिक्षा क्षेपक तले दब गई ।
श्री कृष्ण जी के बारे में और भी ऐसी बातें लिख दी गईं जो कि उचित प्रतीत नहीं होतीं ।
जैसे कि लिख दिया गया कि दुर्योधन के माँगने पर उन्होंने अपने करोड़ों सैनिकों उस दुष्ट को दे दिए थे । उन्हें भी दुर्योधन की ओर से लड़ने का आदेश स्वयं श्री कृष्ण जी ने ही दिया था । उन सैनिकों ने सत्य की ओर से लड़ने वाले करोड़ों अर्जुनी सैनिकों को मार गिराया। इस युद्ध में 1 अरब 88 करोड़ आर्यों के अलावा अरबों की संख्या में हाथी , घोड़े और गाय बैल भी मारे गए ।
जो आदमी एक हाथी की जान बचाने के लिए भागा भागा आ जाए , वह करोड़ों हाथियों को नहीं मरवा सकता ।
आज के संदर्भ में देखें तो असल बात समझना और भी आसान हो जाता है ।
अगर पाकिस्तान का राष्ट्रपति भारत के प्रधानमंत्री को बहुत आदर दे और उसके बदले में वह अपनी सेना पाकिस्तान को दे दे कि तुम उधर जाओ और उनके साथ मिलकर हम पर हमला कर दो तो क्या हम उनके इस फैसले को मर्यादा की रक्षा कहेंगे या कुछ और ?
इसके अलावा यह भी देखने की ज़रूरत है कि युद्ध तो कर लिया जाए लेकिन आज का अर्जुन कौन है ?
मौजूदा सरकार भी ठीक वैसी ही निकम्मी है जैसी कि इससे पूर्ववर्ती सरकारें थीं । भारत में गंगा और सन्यासी को बहुत आदर दिया जाता है । पवित्र गंगा की रक्षा के लिए सन्यासी निगमानंद जी ने आवाज़ उठाई तो राष्ट्रवादियों की सरकार ने उनकी भी नहीं सुनी और पता नहीं 'किसके' इशारे पर ऋषियों की तप: स्थली में ही उनकी हत्या कर दी गई ?
अब आप ही बताएँ कि जब राष्ट्रवादीयों की सरकार में गंगा के लिए एक सन्यासी की नहीं सुनी गई और उसे मार दिया गया तो फिर आम जनता की रक्षा के लिए उम्मीद किससे रखी जाए ?
इस या उस पार्टी को कोसने के बजाय हमें सच्चे समाधान की तलाश करनी चाहिए !
सादर !!
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अनवर जी - कृष्ण ने क्या किया और क्यों किया - और उन्होंने जो किया वह गलत था - यह कहने के लिए आप और मैं ऐसे हैं जैसे कि एक दो साल का बालक अपनी माँ के खिचड़ी खिलाने पर कहे कि माँ बड़ी आलसी है जो मुझे खिचड़ी खिला रही है - उसे तो मुझे छप्पन पकवान देने चाहिए | वह नहीं जानता कि माँ खिचड़ी इसलिए दे रही है कि वह अभी इतना बड़ा नहीं है कि छप्पन भोग पचा सके | माँ उस पर ना नाराज़ होती है, ना दुखी होती है - सिर्फ बालक के बचपने पर मुस्कुराती है - और करती वही है जो बालक के लिए अच्छा है | लेकिन वही बालक जब अपने भाई / बहन को मारता है - तो माँ नाराज़ होती है - सज़ा भी देती है | नफरत नहीं करती - हमेशा के लिए जहन्नुम में नहीं डाल देती - उसे सज़ा के बाद फिर से सुधरने का मौका देती है माँ | और अल्लाह की रहमत तो माँ की ममता और प्यार से बहुत बहुत बहुत बहुत ही अधिक है |
करोड़ों सैनिको के जीवन और हाथी घोड़ों आदि के प्राणों की जो आप बात कह रहे हैं - तो सभी के प्राण ईश्वर की देन के अलावा कुछ नहीं - उनकी मर्जी है - जब और जैसे दें और कब और कैसे वापस ले लें |पैगम्बर मुहम्मद (पीस बी अपोन हिम) कहते हैं कि - जो तुम्हे लगता है कि अधर्म के मार्ग पर हैं - उन्हें धर्मं के मार्ग पर चलाने की कोशिश करो - जितना हो | तुम युद्ध शुरू न करो - जब तक हो | किन्तु यदि तुम्हे कोई ईश्वर भक्ति से हटाना चाहे - जब तक हो - शान्ति की कोशिश करो - किन्तु यदि ईश्वर भक्ति के लिए और कोई रास्ता ना बचे - तो जिहाद करो, जद्दो जहद करो - फिर चाहे रक्तपात ही क्यों न करना पड़े | जान भी देनी या लेनी पड़े तो भी अपने धर्म से ना हटो - यही कृष्ण कह रहे हैं | मैं आपसे प्रार्थना करूंगी कि कृष्ण के बारे में कहने से पहले आप उन पर अध्ययन करें | इस शृंखला के भी इस से पहले मैंने ४ भाग पोस्ट किये हैं - उन्हें भी पढ़ें | धर्मं युद्ध यही है - दूसरे पर जबरदस्ती करना नहीं - बल्कि अपने को जो राह ठीक सूझ रही है उस पर से ना डिगना | खुद पर नियंत्रण धर्मं है - दूसरे पर नियंत्रण की कोशिश अधर्म और पाप है |
मैं आपको आप ही की श्रद्धेय पुस्तकों से कहना चाहती हूँ - पैगम्बर मुहम्मद (पीस बी अपोन हिम) कहते हैं कि अल्लाह ने सब प्राणियों को आदम जात के लिए बनाया - इंसान को मांस खाना कोई पाप नहीं है - क्योंक वह बकरा जो कट रहा है - उसका जीवन इसी लिए था कि उस मनुष्य का भोजन बन सके | तो फिर यदि हाथी घोड़े मर भी गए तो क्या हुआ ?
दूसरी बात - यदि वे हज़ारों सीनिक लड़ते हुए मर भी गए - तो क्या हुआ - वे चाहे जिस भी ओर से लड़ रहे थे [ - अर्जुन की ओर से यह दुर्योधन की - ] वे अपने अपने कर्त्तव्य मार्ग पर थे | उनका धर्मं था- अपने ध्वज तले अपने सेनापति के बताये अनुसार लड़ना - उन्हें निजी रूप से इस युद्ध से ना राज्य मिलने वाला था - न पारितोषिक | वे जानते थे कि या तो मैं इस युद्ध में मर जाऊंगा, या गुलाम बन जाऊंगा, या फिर वापस उसी जीवन को उसी रूप में लौट जाऊंगा , मेरे जीवन में कोई पोजिटिव फर्क नहीं आने वाला | लेकिन वह जो कर रहा है -निष्काम कर्म कर रहा है - अपने लिए नहीं - तो यह कर्म उसे अपने कर्म बंधन से छुडवाता है [[[यह पोस्ट पढियेगा - फकीर जुन्नैद की है - http://ret-ke-mahal-hindi. blogspot.com/2011/06/blog- post_7744.html ]]] |
जैसे आप लोग मानते हैं कि "फैसले का दिन " होगा - वैसे ही हम मानते हैं कि कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म मिलेगा - जिस का प्रारब्ध पिछले जन्मो के कर्मो के अनुरूप होगा और कर्म करना फिर मानव के हाथ में होगा - जो उसके अगले जन्म का प्रारब्ध बनेगा | हर बार जब मानव जीवन मिलेगा - तो मानव के हाथ में मौका होगा कि वह इस जन्म मरण के चक्र से निकाल सके किसी भी एक मार्ग पर चल कर (१)निष्काम कर्म (अर्जुन की तरह) / (२) निष्काम प्रेम (मीरा की तरह) (३)या निष्काम ज्ञान और उसके बताये मार्ग पर भटकाव रहित जीवन [{( एक सच्चे मुसलमान की तरह जो पाँचों नमाज पढ़े, हज करे, मानव मात्र (चाहे वह किसी धर्म या जाती से आये) को दुःख ना दे, पवित्र कुरान के सन्देश फैलाये)}] (४) निष्काम भक्ति (सूरदास की तरह ... आदि आदि |
हर राह पर ज़रूरी है विश्वास, समर्पण, प्रेम और "मैं" और "मेरे" के अभिमान से मुक्ति --- यह मेरा यदि "मेरा रिलिजीयन" के प्रति अंध लगाव भी है - तो वह भी मानव को प्रभु मार्ग से डिगा देगा |
मार्ग तो बहुतेरे हैं अनवर जी - मुसीबत यह है कि हम अपने मार्ग को दूसरे के मार्ग से श्रेष्ठ सिद्ध करने की अंधी होड़ में इस तरह पागल हो जाते हैं - कि खुद अपने मार्ग पर आगे नहीं बढ़ते - दूसरे को उसके मार्ग से हटा कर अपने मार्ग पर लाने की खींच तान में उलझ कर अपना बहुमूल्य जीवन बेकार कर देते हैं |
सादर सधन्यवाद
शिल्पा मेहता
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आदरणीय शिल्पा मेहता जी !
1. मैंने कहा है कि श्री कृष्ण जी के फ़ैसले ग़लत नहीं थे और न ही अर्जुन का युद्ध करना ग़लत था।
इस बात को आप अच्छी तरह समझ लीजिए कि मैं श्री कृष्ण जी को एक सदाचारी महापुरूष मानता हूं।
अगर आपने मेरी टिप्पणी को ठीक से समझ लिया होता तो आप मुझे इल्ज़ाम न देतीं कि मैं उन्हें ग़लत बता रहा हूं।
2. इसके बाद मैंने आपकी पोस्ट के इस बिन्दु की समीक्षा की है जिसमें आप लोगों द्वारा श्री कृष्ण जी की नीति पर आपत्ति किये जाने का निराकरण कर रही हैं।
इसमें मैंने बताया है कि श्री कृष्ण जी तो ठीक थे और उनके फ़ैसले भी ठीक थे लेकिन फिर भी अगर लोग उनकी जीवनी पर आपत्ति करते हैं तो या तो लोगों की अक्ल कम होती है और वे गूढ़ तत्व को पकड़ नहीं पाते या फिर ऐसा भी होता है कि कुछ बातें उन्होंने की ही नहीं हैं और उन्हें उनके बहुत बाद में मूल ग्रंथ में मिला दिया है। शोध करने वाले अनेक विद्वानों ने उन श्लोकों की पहचान की है।
3. महापुरूष का जीवन अनुकरणीय आदर्श हुआ करता है लेकिन उनका अनुकरण करने वालों को यह भी देखना होता है कि जिस शिक्षा पर वह चल रहे हैं वह उसी महापुरूष की शिक्षा है या बाद के काल का क्षेपक ?
हरेक महापुरूष और पैग़ंबर तथा सूफ़ी-संत की जीवनी में क्षेपक मिलता है। कोई भी इससे अछूता नहीं है। शोध करने वाले विद्वान लगातार इनकी छानबीन करते रहते हैं।
4. आपने कहा कि मैं आपकी ही श्रद्धेय पुस्तकों कहना चाहती हूं।
गीता पढ़ने के बाद तो तेरा-मेरा का भेद तिरोहित हो जाना चाहिए था। सारे ग्रंथ मेरे ही हैं। सारे महापुरूष मेरे ही हैं। अन्तर केवल इतना है कि हदीसें भी बहुत सी फ़र्ज़ी लिखी गईं हैं। फ़र्ज़ी बात अर्थात क्षेपक, न तो मैं हदीस का स्वीकार करता हूं और न ही गीता-रामायण और स्मृतियों का। जो भी शुद्ध ज्ञान है वह मेरे लिए हमेशा ही माननीय रहा है।
जब लोग शुद्ध ज्ञान और क्षेपक का भेद किए बिना हरेक प्राचीन बात को सत्य मानने लगते हैं तो दरअसल यही होता है अपने मत से ‘अंध लगाव‘। इसी को अंध विश्वास की संज्ञा भी दे दी जाती है। यह घातक है।
5. आपने कहा है कि महाभारत का युद्ध सभी लोग निष्काम भाव से लड़ रहे थे। ऐसा नहीं था।
कृप्या ध्यान दें कि निष्काम योग का उपदेश बहुत गूढ़ उपदेश है जिसे श्री कृष्ण जी ने सारे सैनिकों को नहीं बल्कि केवल अर्जुन को दिया था। जब सारे सैनिकों ने वह उपदेश सुना ही नहीं तो वे उसके निष्काम भाव से युक्त कैसे हो गए थे ?
6. आपने कहा कि वे सभी जानते थे कि मेरे जीवन में कोई ‘पॉज़िटिव फ़र्क़‘ नहीं आने वाला है तब भी वे लड़े।
क्या आप चाहती हैं कि आज भी भारत चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और अमेरिका से लड़ पड़े और उसे यह नहीं देखना चाहिए कि लड़ने के बाद हमारा अंजाम क्या होगा ?
क्या आज की दुनिया में यह बात लोगों को समझाई जा सकती है कि चाहे कुछ भी फ़र्क़ न आए तब भी लड़ना चाहिए ?
7. आप आवागमन को मानती हैं और मैं बिना आवागमन के परलोक में पुनर्जन्म को। कोई कुछ भी मान सकता है। मैं प्रारब्ध को नहीं मानता लेकिन संचित कर्म और क्रियमाण कर्म को बहरहाल मानता हूं। हमारा अधिकार क्रियमाण कर्म पर है और हमें सदैव सत्कर्म ही करना चाहिए। सत्य के पक्ष में खड़े होना मनुष्य का मौलिक अधिकार और मौलिक कर्तव्य है। ईश्वर और महापुरूषों ने सदैव दुष्टों को उपदेश देकर सत्य की ओर ही बुलाया है। कभी उन्होंने ऐसा नहीं किया है कि सत्य के पक्ष में खड़े हुए लोगों किसी दुष्ट के घृणित उद्देश्य की पूर्ति के लिए आदेश दिया हो क्योंकि यह बात ‘परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम्‘ के नियम के विपरीत है। श्री कृष्ण जी का मक़सद सज्जनों की रक्षा करना था और उन्होंने की। इसीलिए मैं मानता हूं कि उन्होंने अपना कोई सैनिक दुर्योधन को नहीं दिया।
8. इस्लाम में ‘इख़लास‘ की शिक्षा है ‘निष्काम कर्म‘ की नहीं है।
‘इख़लास‘ का अर्थ है ख़ालिस अल्लाह की रज़ा पाने के लिए कर्म करना। ‘निष्काम योग‘ में किसी भी तरह की कोई चीज़ पाने की बात मन में रखना मना है। इख़लास के साथ कर्म करने वाला मिलने वाले फल की चिंता के साथ कर्म करता है जबकि ‘निष्काम योगी‘ फल की कोई चिंता नहीं करता।
9. आपने कहा कि मार्ग तो बहुतेरे हैं।
बिल्कुल हैं, इन बहुत से मार्गों में कोई एक मार्ग है जो बिल्कुल सीधा है और उस पर सारा समाज चल सकता है। उस पर चलने के बाद आदमी में अनिवार्य रूप से ‘पाज़िटिव फ़र्क़‘ आता है।
आज मनुष्य जाति को इसी ‘पाज़िटिव फ़र्क़‘ उपलब्ध कराने वाले मार्ग की ज़रूरत है। श्री कृष्ण जी की शिक्षा को अगर क्षेपक हटाकर समझा जाए तो आज भी उनकी शिक्षा उस मार्ग तक पहुंचाने की ताक़त रखती है, जिस पर चलकर आदमी को दुनिया में ऐश्वर्य और मरने के बाद स्वर्ग मिलता है।
10. ऐसा नहीं है कि मैं श्री कृष्ण जी को नहीं मानता लेकिन आपके मानने और और मेरे मानने के तरीक़े में अंतर है। आप उनकी तरफ़ जोड़ दी गई हरेक बात को उनकी बात मानती हैं जबकि मैं इसमें ‘नीर-क्षीर विवेक‘ का प्रयोग ज़रूर करता हूं और केवल उसी बात को मानता हूं जो कि व्यक्ति और समाज में बेहतर तब्दीली लाती है। पहले फल अर्थात लक्ष्य तय करता हूं फिर उसे पाने के लिए कर्म करता हूं।
11. असहमत व्यक्ति की समीक्षा के बदले में उसे कम बुद्धि वाले बालक के समान कहना या अहंकार का मारा हुआ कहना समस्या का सही समाधान नहीं है। आप निजी तौर से अपने मन में कुछ भी मान सकती हैं लेकिन जब भी सार्वजनिक रूप से ऐसी कोई बात कहेंगी जो कि व्यापक रूप से जन जीवन को प्रभावित करती हो तो आपसे सवाल ज़रूर किए जाएंगे और आपको तर्क और प्रमाण से अपने पक्ष को पुष्ट करना होगा।
ये मेरी ओर से कुछ विनम्र विनतियां हैं। आपके बेहतर विचार को देखकर मैं अपने विचार बदल सकता हूं। सत्य का कल्याणकारी पक्ष सबके सामने आ जाए, मेरा संवाद मात्र इस हेतु है।
प्राचीन धार्मिक साहित्य में आपकी रूचि देखकर अच्छा लगा।
धन्यवाद !
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(१) मैंने बिल्कुल पढ़ा कि आप श्री कृष्ण के बारे में कह रहे थे कि आप उन्हेंसदाचारी महापुरुष समझते हैं | मैं इससे बहुत अधिक मानती हूँ उन्हें - पर मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं यदि आप ना मानें - क्योंकि आपका रास्ता भी सही रास्ता है, मेरा भी | ---------- मैं आपको इल्जाम बिल्कुल नहीं दे रही कि आपने उन्हें गलत कहा - मेरा शब्द चयन गलत था ----------- माफ़ी चाहती हूँ | मैं शुरू से ही यह कह रही हूँ कि अधिकतर लोग ऐसा मानते हैं - और उसी पॉइंट को क्लएरिफाय करने की रौ में ऐसे लिख गयी -- कि आपको ऐसा लगना स्वाभाविक ही था | मुझे खेद है |
(२) बाद में जोड़े श्लोक - यह बात महाभारत के लिए कही थी शायद आपने - मैं यहाँ गीता पर ही बात कर रही हूँ - और मेरी जानकारी में गीता के बारे में ऐसा नहीं | हो भी - तो वह मेरा क्षेत्र नहीं - ना मैं इसमें पड़ना चाहूंगी -| मेरे पास जो एक जीवन काल है - उसे मैं इस खोज में व्यर्थ ना करना चाहूंगी कि किसने कब क्या जोड़ा क्या घटाया - मुझे तो उसका नाम जपने को ही समय कम पड़ता लगता है - क्यों इस बेकार के झंझट में पडूँ ? ***********जो कोई आपत्ति कर भी रहे हैं - वे नाम तो ले ही रहे हैं मेरे कृष्ण का - और इस नाममे इतनी ताकत है कि कंस "विष्णु मैं तुझे मार डालूँगा" कह कह कर भी भव पार कर गया | ************* यह शृंखला उनके लिए है जो नाम ही नहीं ले रहे - गीता से भाग रहे हैं - यदि मैं एक भी व्यक्ति की रूचि इसमें जगा सकी तो अपना प्रयास सफल मानूंगी | कहते हैं राम नाम की ताकत राम बाण से अधिक है - तो कम अक्ल होना भी एक फायदा है - कि नाराजगी से ही सही, उस परवरदिगार का नाम तो ले पा रहा है वह खुशकिस्मत कम अक्ल इंसान :)
(३) अनुकरणीय आदर्श - फिर से वही कहूँगी | श्री कृष्ण के जीवनलीला के बारे में यदि कोई भी पढना चाहे, तो श्री भागवतम महाकाव्य है - गीता में वह नहीं है | उसमे उनकी दी हुई सीख है | और श्री कृष्ण के जीवन चरित्र में जो अधिकतर ओब्जेक्षंस उठाए जाते हैं वे हैं - झूठ , चोरी, स्नान करती गोपिकाओं के कपडे ले छुपना, रासलीला,कई कन्याओं से प्रेम, शादियाँ, महाभारत के बैक्ग्रौंड पोलिटिक्स, और खुद यह गीता - जिसमे उन्होंने तथाकथित रूप से रक्तपात को बढ़ावा दिया | इन सब के जवाब मेरे पास हैं - किन्तु मैं यह जगह सही नहीं समझती उन पर चर्चा के लिए | ना ही कोई इन चीज़ों के बारे में पूछ रहा है मुझे यहाँ| और आप भी यही कह रहे हैं कि आप भी इस भ्रम में नहीं हैं - तो फिर इस बात अपर बात करने की आवश्यकता ही क्यों यहाँ? कई स्त्रोत हैं इंटरनेट पर - जहाँ यह उपलब्ध है | जिसे भी उस विषय में इंटरेस्ट हो - पार्यप्त से अधिक ही मटिरिअल उपलब्ध है नेट पर |
(४) @ आपका ग्रन्थ - सभी ग्रन्थ आपके हैं - बहुत अच्छा लगा यह सुन कर | मैंने आपके ग्रन्थ की बात इसलिए की थी कि अपनी पुस्तक की बात जल्दी और आसानी से समझ आती है | एक हिंदी मीडियम के छात्र को इंग्लिश में समझाई बात समझने में थोडा सा अधिक समय लग सकता है - और एक इंग्लिश मीडियम के छात्र को कन्नडा में समझाई बात समझने में | बात जो समझाई जा रही है वह एक ही हो तो भी समझना आसान होता है - जैसे मैंने विभीषण और कुम्भकर्ण का उदहारण लिया - कुछ पाठकों के लिए फिट है - पर सब तो रामकथा को नहीं जानते ना? आप हो सकता है इतना अध्ययन कर चुके हों - पर मैं यही सोच कर समझा रही थी कि आप मेरी बात को समझ सकें | मैं पवित्र कुरान को बहुत पूजनीय मानती हूँ - लेकिन उसकी हर बात मेरी समझ में आये यह ज़रूरी नहीं - मुझे बहुत सी चीज़ें हज़म नहीं होंगी - ठीक उसी तरह जिस तरह एक वेजेटेरियन को यदि मैं मांस खिलाऊँ तो वह नहीं पचा सकेगा | तो अपने हिसाब से मैंने सही जाना आपको पवित्र कुरान के उदहारण से बतलाना - | ************* रही बात "मेरा तेरा" अब तक तिरोहित हो जाना चाहिए की बात - तो फिर यही कहूँगी मैं उस लेवल की महात्मा नहीं हूँ*********** | और जितना ही इस बगिया में घुसती जाती हूँ - मेरा लगाव मेरे कृष्ण के लिए बढ़ता ही जा रहा है - यह तो उन्माद की ओर बढ़ता प्रेम है - मुझे लगता तो नहीं कि उसके प्रति "मेरा" का भाव तिरोहित होने वाला है कभी - आगे की तो वही जाने :) अभी तो ऐसा ही लगता है ... :)
(५) जी अनवर जी - निष्काम प्रेम की बात - जी - कई लोग होते हैं - जैसे संत जुन्नैद की कथा का नाइ (http://ret-ke-mahal-hindi. blogspot.com/2011/06/blog- post_7744.html) - जो निष्काम कर्म करते हैं - बिना गीता को पढ़े या सुने | यह ज़रूरी नहीं कि गीता सुनी ही हो - जैसे जब एक गृहिणी गर्मी की दुपहरी में अपने बच्चों के लिए तपते चूल्हे के बाजू में बैठ रोटियां सेंकती है - तो वह भी निष्काम कर्म है - उसे बदले में बच्चे से कुछ भी नहीं चाहिए | भले गीता सुनी हो या नहीं - इससे कोई फर्क नहीं पड़ता | उन्हें क्या मिलना था इस युद्ध से - आप ही बताइये - सिवाय इसके कि इस युद्ध को करना उनका कर्त्तव्य था ? गीता प्रवचन ज़रूरी नहीं निष्काम कर्म करने के लिए | कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि युद्ध तू जीत हार के लिए नहीं - अपना धर्मं मान कर कर - और उन सैनिकों से नहीं कहा - तो क्या उनका कर्म निष्काम नहीं रहा ? एक बच्चे को टीचर ने सिखाया - दूसरा स्वयं जानता था कि दो और दो चार होते हैं | और कृष्ण अर्जुन को नहीं - हमें समझा रहे हैं - अर्जुन सब जानता है - उनका सखा है - यह सिर्फ लीला है हमें बताने के लिए | दुर्योधन - जिसे आप पापी कह रहे हैं - उसने कितने वर्ष बिताये लगातार कृष्ण को देखते - वह तो कितने तपस्वियों से अधिक पुण्यवान हुआ ना? जिस कृष्ण के दर्शन की झलक भी पाने के लिए महान सन्यासी करोड़ों वर्षों - जन्मो - तप करते हैं - जो सैनिक उनकी सेना में थे - उनको रोज़ देखते होंगे - क्या वे साधारण मानव होंगे ? क्या ऐसे पुण्यवान लोगों को व्याख्या की ज़रुरत थी - कि निष्काम कर्म क्या है? अब यह बात आप शायद ना माने क्योंकि आपके और मेरे लिए कृष्ण की परिभाषा अलग है - आपके लिए वे महापुरुष हैं - मेरे लिए मेरे परमेश्वर - तो उनके दर्शन के लिए जन्मो के तप की बात - पता नहीं आप मानते हैं या नहीं ?
(६) मैं समझ ही नहीं पायी यह बात - क्यों लड़े हम अमेरिका से ? ऐसे ही - खेल के लिए ? महाभारत का युद्ध यूँ ही नहीं था - उसके पहले बहुत लम्बा बैक ग्राउंड है |
(७) आप ना माने [आवागमन को या सैनिक देने की बात को ] - मैं और अधिकतर लोग मानते हैं - आप पर जबरदस्ती नहीं है कि आप मानें ... :) :) | किन्तु यह बात यहाँ क्यों - यहाँ हम कृष्ण पर नहीं - गीता पर बात कर रहे हैं |
(८) जी - आप बेहतर जानते हैं - मैं इस्लाम पर एक्सपर्ट नहीं हूँ - वह एक सही मार्ग है - कुछ लोगों के लिए | मेरा मार्ग मेरे लिए सही है - और मेरे जैसे और भी कई लोगों के लिए | तो मेरा प्रयास है कि उन्हें गीता से परिचित कराऊँ - आगे उन्हें परमगुरु कृष्ण स्वयं ही ले जायेंगे |
(९) यदि आप ऐसा मार्ग जानते हैं - तो आपको पूरा अधिकार है , और आपका कर्त्तव्य भी है कि आप वह मार्ग दिखाए, प्रचारित करें उसे | आप शायद कहेंगे कि वह इस्लाम का मार्ग है - मैं इनकार नहीं करती - आपके लिए वह मार्ग सही है - मेरे लिए यह | आप अपना कर्म कीजिये, मैं अपना कर्म कर रही हूँ | सिर्फ इतनी गुज़ारिश करूंगी कि औरों के मार्ग बदलने की होड़ में अपना मार्ग ना छूट जाए इसका ध्यान रखिये | हम सब के पास यह एक जीवन ही है - जिसमे समय बहुत कम है | इसका सदुपयोग बहुत आवश्यक है|
(१०)जहाँ कृष्ण की बात हो - मेरे पास कोई विवेक नहीं | मैं उसे विवेक से समझ सकूं - इतनी काबिलियत मेरे तो क्या किसी के भी विवेक में होगी मैं नहीं समझती - शास्त्र भी नेति नेति कहते हैं | आप लक्ष्य साधन कीजिये - मैं अँधा प्रेम और अंध विश्वास करूंगी | निष्काम कर्म का अर्थ वह नहीं जो आप शायद समझ रहे हैं - उसका अर्थ है - लक्ष्य तो हो पर "मैं" के लिए नहीं हो - कर्त्तव्य मात्र के लिए हो | पर खैर कोई बात नहीं - आपका रास्ता भी सही ही है |
(११) मैंने आपको कम बुद्धि वाला या बालक नहीं कहा - पर मेरा यह भी मानना है कि प्रभु राह पर तो हम सब ही बालक ही हैं - अहंकार लगा आपको ? मुझे खेद है |
धन्यवाद |
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आदरणीया शिल्पा मेहता जी !
1. मेरा मक़सद यह था कि मेरी मान्यता आप पर क्लियर हो जाए, बस इतना काफ़ी है। माफ़ी की ज़रूरत नहीं है क्योंकि आपकी किसी बात से मैं आहत नहीं हुआ हूं।
2. शुरू में महाभारत में केवल 8800 श्लोक थे। वह पुस्तक आज प्राप्त नहीं है। उसका नाम ‘जय‘ था। फिर भारत हुआ और उसमें 24,00 श्लोक थे। फिर उसमें लगभग 1 लाख श्लोक हो गए और नाम भी महाभारत हो गया। गीता उसी महाभारत का एक भाग कही जाती है।
गीता में 18 अध्याय और कुल 702 श्लोक हैं। जिनमें श्री कृष्ण जी द्वारा 620 श्लोक कहे बताए जाते हैं। युद्ध के मैदान में इतना लंबा संवाद संभव ही नहीं है। जो लोग किसी युद्ध में शरीक हो चुके हों, उनसे इस बात की पुष्टि की जा सकती है। इसके अलावा भी बहुत से प्रमाण हैं जिनसे सिद्ध होता है कि गीता में बड़ी मात्रा में क्षेपक हुआ है।
3. गीता का उपदेश अर्जुन के लिए था और वह जनसामान्य के लिए उपयोगी नहीं है। स्वामी विवेकानन्द ने भी यही कहा था जब एक कमज़ोर से आदमी ने उनसे गीता का ज्ञान मांगा था।
4. श्री कृष्ण जी से प्रेम होना अच्छी बात है लेकिन इसे उन्माद में बदलेंगी तो आप धर्म से हट जाएंगी। धर्म के पालन के लिए उन्माद नहीं बल्कि होशो हवास की ज़रूरत है। अंधविश्वास घातक है। इससे स्वयं श्री कृष्ण जी ने मना किया है और न ही अर्जुन ने कभी उन पर अंध विश्वास किया। अर्जुन ने भी उनकी बात तभी मानी जबकि उन्होंने ख़ूब ठोक बजा कर समझ ली। अगर अर्जुन अंधविश्वास के आदी होते तो श्री कृष्ण और अर्जुन का यह संवाद ‘गीता‘ ही वुजूद में न आती।
5. दरवेश जुन्नैद के वाक़ये में भी ‘इख़लास‘ की बात है न कि ‘निष्काम कर्म‘ की। इस पोस्ट पर भी मेरा कमेंट मौजूद है। तब मैंने नोट कर लिया था कि आज पहला कमेंट है। फिर किसी रोज़ यह बात समझा दी जाएगी। ‘अल्लाह के लिए‘ कोई काम करने का मतलब यह है कि काम करने वाला अपने काम का बदला किसी आदमी से नहीं चाहता बल्कि केवल अल्लाह से चाहता है। वह बदला दुनिया की नेमत, जन्नत या ख़ुदा का दीदार या कुछ और , कुछ भी हो सकता है। इस तरह का भाव ‘निष्काम योगी‘ के लिए उचित नहीं बताया जाता।
मां-बाप अपने बच्चों से प्यार करते हैं और उनकी परवरिश भी करते हैं लेकिन यह उनका ‘निश्चल प्रेम‘ कहलाएगा न कि ‘निष्काम‘। मां-बाप अपने बच्चों से अपनी सेवा चाहते हैं और जब उनके विवाह करते हैं तो उनकी परवरिश की मुंहमांगी क़ीमत भी बेशर्मी से वसूलते हुए देखे जा सकते हैं। बुढ़ापे में अक्सर मां-बाप को अपनी औलाद की शिकायत करते हुए देखा जा सकता है। ‘निष्काम कर्म‘ की श्रेणी में यह आप ख़ुद रख रही हैं। गीता के ज्ञानी ऐसा नहीं करते। आप देख सकती हैं।
6. पाकिस्तान के पीछे अमेरिका है। पाकिस्तान के पीछे चीन भी है। पाकिस्तान हमारे देश में आतंकवादी हमलों का समर्थन करता है और उसे अरबों डालर और तकनीकी मदद ये दोनों देश देते हैं। दुश्मन का दोस्त भी दुश्मन ही हुआ करता है। यह नीति है। इसलिए अगर युद्व पाकिस्तान से किया जाएगा तो लड़ना इनसे भी पड़ेगा बल्कि पाकिस्तान तो कठपुतली मात्र हैं। उसे रेडीमेड विदेश नीति ये दोनों देश ही देते हैं।
7. आप कह रही हैं कि अधिकतर लोग आवागमन को मानते हैं।
नहीं, दुनिया में भारतीय दर्शन के अलावा कहीं भी कोई बड़ा धार्मिक समुदाय आवागमन को नहीं मानता और सभी हिन्दू-मत भी आवागमन को नहीं मानते। गीता में भी अर्जुन से मरकर स्वर्ग जाने की बात कही गई है। अतः हम कह सकते हैं कि अधिकतर लोग आवागमन को नहीं मानते।
8. आपने कहा है कि ‘इस्लाम एक सही मार्ग है‘। साथ ही आपने कहा है कि आपको इस्लाम के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है। बिना जानकारी के आपने कह दिया कि इस्लाम एक सही मार्ग है। यह ठीक बात नहीं है। फिर आपने कह दिया कि मेरा मार्ग भी ठीक है। मेरा मार्ग भी ठीक है और तुम्हारा भी ठीक है और इसका भी ठीक है और उसका भी ठीक है यानि कुल मिलाकर सबका मार्ग ठीक है। सबका मार्ग ठीक होता तो श्री कृष्ण जी अर्जुन को उपदेश करके एक निश्चित मर्यादा का पालन करने के लिए मजबूर न करते। सब मार्ग ठीक नहीं हैं बल्कि केवल वही मार्ग ठीक है, जिसका ज्ञान श्री कृष्ण जी दे रहे हैं। हमें चाहिए कि हम उस परम ज्ञान को उसके शुद्ध रूप में समझने का प्रयास करें।
9. मैं कृष्ण के मार्ग पर ही हूं। नमाज़ अदा करने की विधि का सूक्ष्म रूप से वर्णन गीता के छठे अध्याय में है। इसे आप गूगल के ज़रिये भी ढूंढ सकती हैं।
10. आपने कहा है कि जहां कृष्ण की बात हो वहां मेरे पास कोई विवेक नहीं है।
जबकि होना यह चाहिए कि जहां जितनी बड़ी हस्ती की बात हो, वहां उतने ही ज़्यादा विवेक से काम लेना चाहिए। हमें श्री कृष्ण जी के संदेश-उपदेश को समझने के लिए विवेक की सख्त ज़रूरत है। हो सकता है कि श्री कृष्ण जी को समझना हमारे बस की बात न हो लेकिन उनका अनुकरण करने के लिए और उन पर लगने वाले आरोपों का निराकरण करने के लिए हमें बुद्धि-विवेक का उपयोग करना ही पड़ेगा।
आपकी टिप्पणी में उठाई गई बातों का बिन्दुवार उत्तर यह है। इसका मक़सद केवल अपना नज़रिया सामने रखना है। इसमें वाद-विवाद या शास्त्रार्थ जैसी कोई बात नहीं है। श्री कृष्ण जी के बारे में आपने अपना नज़रिया रखा है तो मैंने अपना रख दिया है। मेरा मक़सद भी यही है कि हम अपने पूर्वजों के प्रति फैलाई गई अफ़वाहों के शिकार न हों और उनके धर्मानुकूल आचरण को देखकर ख़ुद भी प्रेरणा ग्रहण करें। पूर्वजों की महान विरासत पास में होने के बावजूद अज्ञान के अंधेरे में और वासना के जंगल में ठोकरें खाकर पतन के गर्त में गिरते चले जाना ठीक नहीं है।
पुनः विनम्र विनतियों सहित,
सादर !
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3 comments:
बहुत अच्छा, कभी समय मिले तो पढिए
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धन्यवाद अनवर जमाल जी - इस चर्चा को यहाँ प्रस्तुत करने के लिए :)
मुझे क्षमा करे की मैं आपके ब्लॉग पे नहीं आ सका क्यों की मैं कुछ आपने कामों मैं इतना वयस्थ था की आपको मैं आपना वक्त नहीं दे पाया
आज फिर मैंने आपके लेख और आपके कलम की स्याही को देखा और पढ़ा अति उत्तम और अति सुन्दर जिसे बया करना मेरे शब्दों के सागर में शब्द ही नहीं है
पर लगता है आप भी मेरी तरह मेरे ब्लॉग पे नहीं आये जिस की मुझे अति निराशा हुई है
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