सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Friday, January 29, 2010
पवित्र कुरआन ः एक ईश्वरीय चमत्कार
पवित्र कुरआन में गणितीय चमत्कार - quran-math
"और जो 'हमने' अपने बन्दे 'मुहम्मद' पर 'कुरआन' उतारा है, अगर तुमको इसमें शक हो तो इस जैसी तुम एक 'ही' सूरः बनाकर ले आओ और अल्लाह के सिवा जो तुम्हारे सहायक हों' उन सबको बुला लाओ' अगर तुम सच्चे हो। फिर अगर तुम ऐसा न कर सको और तुम हरगिज़ नहीं कर सकते तो डरो उस आग से जिसका ईंधन इनसान और पत्थर हैं जो इनकारियों के लिए तैयार की गई है" -('पवित्र कुरआन' 2 : 23-24)
दुःख दर्द का इतिहास
मनुष्य जाति का इतिहास दुख-दर्द और जुल्म की दास्तान है। उसका वर्तमान भी दुख दर्द और ज़ुल्म से भरा हुआ गुज़र रहा है और भविष्य में आने वाला विनाश भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है।
ऐसा नहीं है कि इनसान इस हालत से नावाक़िफ़ है या उसने दुख का कारण जानने और दुख से मुक्ति पाने की कोशिश ही नहीं की। इनसान का इतिहास दुखों से मुक्ति पाने की कोशिशों का बयान भी है। वर्तमान जगत की सारी तरक्की और तबाही के पीछे यही कोशिशें कारफ़रमा हैं।
सोचने वालों ने सोचा कि दुख का मूल कारण अज्ञान है। अज्ञान से मुक्ति के लिए इनसानों ने ज्ञान की तरफ़ कदम बढ़ाए। कुछ ने नज़र आने वाली चीज़ों पर एक्सपेरिमेन्ट्स शुरू किए तो कुछ लोगों ने अपने मन और सूक्ष्म शरीर को अपने अध्ययन का विषय बना लिया। वैज्ञानिकों ने आग, पानी, हवा, मिट्टी और अतंरिक्ष को जाना समझा, मनुष्य के शरीर को जाना समझा और अपनी ताक़त के मुताबि़क उन पर कंट्रोल करके उनसे काम भी लिया। हठयोगियों ने शरीर को अपने ढंग से वश में किया और राजयोगियों ने मन जैसी चीज़ का पता लगाया और उसे साधने जैसे दुष्कर कार्य को संभव कर दिखाया।
दुख का कारण
कुछ लोगों ने तृष्णा और वासना को दुखों का मूल कारण समझा और उन्हें त्याग दिया और कुछ लोगों ने सोचा कि शायद उनकी तृप्ति से ही शांति मिले। यह सोचकर वे उनकी पूर्ति में ही जुट गए। इनसानों ने योगी भोगी और नैतिक-अनैतिक सब कुछ बनकर देखा और सारे तरीके़ आज़माए बल्कि आज भी इन्हीं सब तरीकों को आज़मा रहे हैं लेकिन फिर भी मानव जाति को दुखों से मुक्ति और सुख-शांति नसीब नहीं हुई बल्कि उसके दुखों की लिस्ट में एड्स, दहेज, कन्या, भ्रूण हत्या, ग्लोबल वॉर्मिग और सुपरनोवा जैसे नये दुखों के नाम और बढ़ गए। आखि़र क्या वजह रही कि सारे वैज्ञानिक और आध्यात्मिक लोग मिलकर मानवजाति को किसी एक दुख से भी मुक्ति न दिला सके?
कहीं कोई कमी तो ज़रूर है कि साधनों और प्रयासों के बावजूद सफलता नहीं मिल रही है। विचार करते हैं तो पाते हैं कि ये सारी कोशिशें सिर्फ़ इसलिए बेनतीजा रहीं क्योंकि ये सारी कोशिशें इनसानों ने अपने मन के अनुमान और बुद्धि की अटकल के बल पर कीं और ईश्वर को और उसके ज्ञान को उसका वाजिब हक़ नहीं दिया।
सच्चा राजा एक है
सारी सृष्टि का सच्चा स्वामी केवल एक प्रभु परमेश्वर है। उसी ने हरेक चीज़ को उत्पन्न किया। उनका मक़सद और काम निश्चित किया। उनमें परस्पर निर्भरता और संतुलन क़ायम किया। उनकी मर्यादा और सीमाएं ठहराईं। परमेश्वर ही स्वाभाविक रूप से मार्गदर्शक है। उसने प्रखर चेतना और उच्च मानवीय मूल्यों से युक्त मनुष्यों के अन्तःकरण में अपनी वाणी का अवतरण किया। उन्हें परमज्ञान और दिव्य अनुभूतियों से युक्त करके व्यक्ति और राष्ट्र के लिए आदर्श बना दिया। उन्होंने हर चीज़ खोलकर बता दी और करने लायक सारे काम करके दिखा दिए। इन्हीं लोगों को ऋषि और पैग़म्बर कहा जाता है।
पैग़म्बर (स.) मानवता का आदर्श
इतिहास के जिस कालखण्ड में इन लोगों की शिक्षाओं का पालन किया गया बुरी परम्पराओं और बुरी आदतों का खात्मा हो गया। इनसान की जिन्दगी संतुलित और सहज स्वाभाविक होकर दुखों से मुक्त हो गयी। पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (स.) के द्वारा अरब की बिखरी हुई युद्धप्रिय और अनपढ़ आबादी में आ चुका बदलाव एक ऐतिहासिक साक्ष्य है। यह युगांतरकारी परिवर्तन केवल तभी सम्भव हो पाया जबकि लोगों ने ईश्वर को उसका स्वाभाविक और वाजिब हक़ देना स्वीकार कर लिया। उसे अपना मार्गदर्शक मान लिया। ईश्वर ही वास्तविक राजा और सच्चा बादशाह है यह हमें मानना होगा। उसके नियम-क़ानून ही पालनीय हैं। ऐसा हमें आचरण से दिखाना होगा। यही वह मार्ग है जिसकी प्रार्थना गायत्री मंत्र और सूरा-ए-फ़ातिहा पढ़कर हिन्दू-मुस्लिम करते हैं। सबका रचयिता एक है तो सबके लिए उसकी नीति और व्यवस्था भी एक होना स्वाभाविक है।
कुरआन का इनकार कौन करता है?
पवित्र कुरआन इसी स्वाभाविक सच्चाई का बयान है। इस सत्य को केवल वे लोग नहीं मानते जो पवित्र कुरआन के तथ्यों पर ग़ौर नहीं करते या ग़ुज़रे हुए दौर की राजनीतिक उथल-पुथल की कुंठाएं पाले हुए हैं। ये लोग रहन-सहन,खान-पान और भौतिक ज्ञान में, हर चीज़ में विदेशी भाषा-संस्कृति के नक्क़ाल बने हुए हैं लेकिन जब बात ईश्वरीय ज्ञान पवित्र कुरआन की आती है तो उसे यह कहकर मानने से इनकार कर देते हैं कि यह तो विदेशियों का धर्मग्रंथ है। जबकि देखना यह चाहिए कि यह ग्रंथ ईश्वरीय है या नहीं?
बदलता हुआ समाज
पवित्र क़ुरआन से पहले भी ईश्वर की ओर से महर्षि मनु और हज़रत इब्राहिम आदि ऋषियों-पैग़म्बरों पर हज़ारों बार वाणी का अवतरण हुआ, लेकिन आज उनमें से कोई भी अपने मूलरूप में सुरक्षित नहीं है और जिस रूप में आज वे हमें मिलती हैं तो न तो उनके अन्दर इस तरह का कोई दावा है कि वे ईश्वर की वाणी हैं औन न ही एक आधुनिक समतावादी समाज की राजनीतिक,सामाजिक, आध्यात्मिक व अन्य ज़रूरतों की पूर्ति उनसे हो पाती है। यही वजह है कि उन ग्रन्थों के जानकारों ने उनके द्वारा प्रतिपादित सामाजिक नियम,दण्ड-व्यवस्था और पूजा विधियाँ तक या तो निरस्त कर दी हैं या फिर उनका रूप बदल दिया है। बदलना तो पड़ेगा। लेकिन यह बदलाव भी ईश्वर के मार्गदर्शन में ही होना चाहिए अन्यथा अपनी मर्जी से बदलेंगे तो ऐसा भी हो सकता है कि हाथ में केवल भाषा-संस्कृति ही शेष बचें और धर्म का मर्म जाता रहे, क्योंकि धर्म की गति बड़ी सूक्षम होती है।
पवित्र कुरआन : कसौटी भी, चुनौती भी
पवित्र कुरआन बदलते हुए युग में आवश्यक बदलाव की ज़रूरतों को पूरा करता है। यह स्वयं दावा करता है कि यह ईश्वर की ओर से है। यह स्वयं अपने ईश्वरीय होने का सुबूत देता है और अपने प्रति सन्देह रखने वालों को अपनी सच्चाई की कसौटी और चुनौती एक साथ पेश करता है कि अगर तुम मुझे मनुष्यकृत मानते हो तो मुझ जैसा ग्रंथ बनाकर दिखाओ या कम से कम एक सूरः जैसी ही बनाकर दिखाओ और अगर न बना सको तो मान लो कि मैं तुम्हारे पालनहार की ओर से हूँ जिसका तुम दिन रात गुणगान करते हो। मैं तुम्हारे लिए वही मार्गदर्शन हूँ जिसकी तुम अपने प्रभु से कामना करते हो। मैं दुखों से मुक्ति का वह एकमात्र साधन हूँ जो तुम ढूँढ रहे हो।
पवित्र कुरआन अपनी बातों में ही नहीं बल्कि उन्हें कहने की शैली तक में इतना अनूठा है कि तत्कालीन समाज में अपनी धार्मिक-आर्थिक चैधराहट की ख़ातिर हज़रत मुहम्मद (स.) का विरोध करने वाले भी अरबी के श्रेष्ठ कवियों की मदद लेकर भी पवित्र कुरआन जैसा नहीं बना पाये। जबकि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (स.) के जीवन की योजना ही ईश्वर ने ऐसी बनायी थी कि वे किसी आदमी से कुछ पढ़ाई-लिखाई नहीं सीख सके थे।
पवित्र कुरआन का चमत्कार
हज़रत मुहम्मद (स.) आज हमारी आँखों के सामने नहीं हैं लेकिन जिस ईश्वरीय ज्ञान पवित्र कुरआन के ज़रिये उन्होंने लोगों को दुख निराशा और पाप से मुक्ति दिलाई वह आज भी हमें विस्मित कर रहा हैै।
एक साल में 12 माह और 365 दिन होते हैं। पूरे कुरआन शरीफ में हज़ारों आयतें हैं लेकिन पूरे कुरआन शरीफ में शब्द शह् र (महीना) 12 बार आया है और शब्द ‘यौम’ (दिन) 365 बार आया है। जबकि अलग-अलग जगहों पर महीने और दिन की बातें अलग-अलग संदर्भ में आयी हैं। क्या एक इनसान के लिए यह संभव है कि वह विषयानुसार वार्तालाप भी करे और गणितीय योजना का भी ध्यान रखे? ‘मुहम्मद’ नाम पूरे कुरआन शरीफ़ में 4 बार आया है तो ‘शरीअत’ भी 4 ही बार आया है। दोनों का ज़िक्र अलग-अलग सूरतों में आया है।‘मलाइका’ (फरिश्ते) 88 बार और ठीक इसी संख्या में ‘शयातीन’ (शैतानों) का बयान है। ‘दुनिया’ का ज़िक्र भी ठीक उतनी ही बार किया गया है जितना कि ‘आखि़रत’ (परलोक) का यानि प्रत्येक का 115 बार। इसी तरह पवित्र कुरआन में ईश्वर ने न केवल स्त्री-पुरूष के मानवधिकारों को बराबर घोषित किया है बल्कि शब्द ‘रजुल’ (मर्द) व शब्द ‘इमरात’ (औरत) को भी बराबर अर्थात् 24-24 बार ही प्रयुक्त किया है।
ज़कात (2.5 प्रतिशत अनिवार्य दान) में बरकत है यह बात मालिक ने जहाँ खोलकर बता दी है। वही उसका गणितीय संकेत उसने ऐसे दिया है कि पवित्र कुरआन में ‘ज़कात’ और ‘बरकात’ दोनों शब्द 32-32 मर्तबा आये हैं। जबकि दोनांे अलग-अलग संदर्भ प्रसंग और स्थानों में प्रयुक्त हुए हैं।
पवित्र कुरआन में जल-थल का अनुपात
एक इनसान और भी ज़्यादा अचम्भित हो जाता है जब वह देखता है कि ‘बर’ (सूखी भूमि) और ‘बह्र’ (समुद्र) दोनांे शब्द क्रमशः 12 और 33 मर्तबा आये हैं और इन शब्दों का आपस में वही अनुपात है जो कि सूखी भूमि और समुद्र का आपसी अनुपात वास्तव में पाया जाता है।
सूखी भूमि का प्रतिशत- 12/45 x 100 = 26.67 %
समुद्र का प्रतिशत- 33/45 x 100 = 73.33 %
सूखी जमीन और समुद्र का आपसी अनुपात क्या है? यह बात आधुनिक खोजों के बाद मनुष्य आज जान पाया है लेकिन आज से 1400 साल पहले कोई भी आदमी यह नहीं जानता था तब यह अनुपात पवित्र कुरआन में कैसे मिलता है? और वह भी एक जटिल गणितीय संरचना के रूप में।
क्या वाकई कोई मनुष्य ऐसा ग्रंथ कभी रच सकता है?
क्या अब भी पवित्र कुरआन को ईश्वरकृत मानने में कोई दुविधा है? (...जारी)
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साभार ''वन्दे ईश्वरम'' मासिक
"और जो 'हमने' अपने बन्दे 'मुहम्मद' पर 'कुरआन' उतारा है, अगर तुमको इसमें शक हो तो इस जैसी तुम एक 'ही' सूरः बनाकर ले आओ और अल्लाह के सिवा जो तुम्हारे सहायक हों' उन सबको बुला लाओ' अगर तुम सच्चे हो। फिर अगर तुम ऐसा न कर सको और तुम हरगिज़ नहीं कर सकते तो डरो उस आग से जिसका ईंधन इनसान और पत्थर हैं जो इनकारियों के लिए तैयार की गई है" -('पवित्र कुरआन' 2 : 23-24)
दुःख दर्द का इतिहास
मनुष्य जाति का इतिहास दुख-दर्द और जुल्म की दास्तान है। उसका वर्तमान भी दुख दर्द और ज़ुल्म से भरा हुआ गुज़र रहा है और भविष्य में आने वाला विनाश भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है।
ऐसा नहीं है कि इनसान इस हालत से नावाक़िफ़ है या उसने दुख का कारण जानने और दुख से मुक्ति पाने की कोशिश ही नहीं की। इनसान का इतिहास दुखों से मुक्ति पाने की कोशिशों का बयान भी है। वर्तमान जगत की सारी तरक्की और तबाही के पीछे यही कोशिशें कारफ़रमा हैं।
सोचने वालों ने सोचा कि दुख का मूल कारण अज्ञान है। अज्ञान से मुक्ति के लिए इनसानों ने ज्ञान की तरफ़ कदम बढ़ाए। कुछ ने नज़र आने वाली चीज़ों पर एक्सपेरिमेन्ट्स शुरू किए तो कुछ लोगों ने अपने मन और सूक्ष्म शरीर को अपने अध्ययन का विषय बना लिया। वैज्ञानिकों ने आग, पानी, हवा, मिट्टी और अतंरिक्ष को जाना समझा, मनुष्य के शरीर को जाना समझा और अपनी ताक़त के मुताबि़क उन पर कंट्रोल करके उनसे काम भी लिया। हठयोगियों ने शरीर को अपने ढंग से वश में किया और राजयोगियों ने मन जैसी चीज़ का पता लगाया और उसे साधने जैसे दुष्कर कार्य को संभव कर दिखाया।
दुख का कारण
कुछ लोगों ने तृष्णा और वासना को दुखों का मूल कारण समझा और उन्हें त्याग दिया और कुछ लोगों ने सोचा कि शायद उनकी तृप्ति से ही शांति मिले। यह सोचकर वे उनकी पूर्ति में ही जुट गए। इनसानों ने योगी भोगी और नैतिक-अनैतिक सब कुछ बनकर देखा और सारे तरीके़ आज़माए बल्कि आज भी इन्हीं सब तरीकों को आज़मा रहे हैं लेकिन फिर भी मानव जाति को दुखों से मुक्ति और सुख-शांति नसीब नहीं हुई बल्कि उसके दुखों की लिस्ट में एड्स, दहेज, कन्या, भ्रूण हत्या, ग्लोबल वॉर्मिग और सुपरनोवा जैसे नये दुखों के नाम और बढ़ गए। आखि़र क्या वजह रही कि सारे वैज्ञानिक और आध्यात्मिक लोग मिलकर मानवजाति को किसी एक दुख से भी मुक्ति न दिला सके?
कहीं कोई कमी तो ज़रूर है कि साधनों और प्रयासों के बावजूद सफलता नहीं मिल रही है। विचार करते हैं तो पाते हैं कि ये सारी कोशिशें सिर्फ़ इसलिए बेनतीजा रहीं क्योंकि ये सारी कोशिशें इनसानों ने अपने मन के अनुमान और बुद्धि की अटकल के बल पर कीं और ईश्वर को और उसके ज्ञान को उसका वाजिब हक़ नहीं दिया।
सच्चा राजा एक है
सारी सृष्टि का सच्चा स्वामी केवल एक प्रभु परमेश्वर है। उसी ने हरेक चीज़ को उत्पन्न किया। उनका मक़सद और काम निश्चित किया। उनमें परस्पर निर्भरता और संतुलन क़ायम किया। उनकी मर्यादा और सीमाएं ठहराईं। परमेश्वर ही स्वाभाविक रूप से मार्गदर्शक है। उसने प्रखर चेतना और उच्च मानवीय मूल्यों से युक्त मनुष्यों के अन्तःकरण में अपनी वाणी का अवतरण किया। उन्हें परमज्ञान और दिव्य अनुभूतियों से युक्त करके व्यक्ति और राष्ट्र के लिए आदर्श बना दिया। उन्होंने हर चीज़ खोलकर बता दी और करने लायक सारे काम करके दिखा दिए। इन्हीं लोगों को ऋषि और पैग़म्बर कहा जाता है।
पैग़म्बर (स.) मानवता का आदर्श
इतिहास के जिस कालखण्ड में इन लोगों की शिक्षाओं का पालन किया गया बुरी परम्पराओं और बुरी आदतों का खात्मा हो गया। इनसान की जिन्दगी संतुलित और सहज स्वाभाविक होकर दुखों से मुक्त हो गयी। पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (स.) के द्वारा अरब की बिखरी हुई युद्धप्रिय और अनपढ़ आबादी में आ चुका बदलाव एक ऐतिहासिक साक्ष्य है। यह युगांतरकारी परिवर्तन केवल तभी सम्भव हो पाया जबकि लोगों ने ईश्वर को उसका स्वाभाविक और वाजिब हक़ देना स्वीकार कर लिया। उसे अपना मार्गदर्शक मान लिया। ईश्वर ही वास्तविक राजा और सच्चा बादशाह है यह हमें मानना होगा। उसके नियम-क़ानून ही पालनीय हैं। ऐसा हमें आचरण से दिखाना होगा। यही वह मार्ग है जिसकी प्रार्थना गायत्री मंत्र और सूरा-ए-फ़ातिहा पढ़कर हिन्दू-मुस्लिम करते हैं। सबका रचयिता एक है तो सबके लिए उसकी नीति और व्यवस्था भी एक होना स्वाभाविक है।
कुरआन का इनकार कौन करता है?
पवित्र कुरआन इसी स्वाभाविक सच्चाई का बयान है। इस सत्य को केवल वे लोग नहीं मानते जो पवित्र कुरआन के तथ्यों पर ग़ौर नहीं करते या ग़ुज़रे हुए दौर की राजनीतिक उथल-पुथल की कुंठाएं पाले हुए हैं। ये लोग रहन-सहन,खान-पान और भौतिक ज्ञान में, हर चीज़ में विदेशी भाषा-संस्कृति के नक्क़ाल बने हुए हैं लेकिन जब बात ईश्वरीय ज्ञान पवित्र कुरआन की आती है तो उसे यह कहकर मानने से इनकार कर देते हैं कि यह तो विदेशियों का धर्मग्रंथ है। जबकि देखना यह चाहिए कि यह ग्रंथ ईश्वरीय है या नहीं?
बदलता हुआ समाज
पवित्र क़ुरआन से पहले भी ईश्वर की ओर से महर्षि मनु और हज़रत इब्राहिम आदि ऋषियों-पैग़म्बरों पर हज़ारों बार वाणी का अवतरण हुआ, लेकिन आज उनमें से कोई भी अपने मूलरूप में सुरक्षित नहीं है और जिस रूप में आज वे हमें मिलती हैं तो न तो उनके अन्दर इस तरह का कोई दावा है कि वे ईश्वर की वाणी हैं औन न ही एक आधुनिक समतावादी समाज की राजनीतिक,सामाजिक, आध्यात्मिक व अन्य ज़रूरतों की पूर्ति उनसे हो पाती है। यही वजह है कि उन ग्रन्थों के जानकारों ने उनके द्वारा प्रतिपादित सामाजिक नियम,दण्ड-व्यवस्था और पूजा विधियाँ तक या तो निरस्त कर दी हैं या फिर उनका रूप बदल दिया है। बदलना तो पड़ेगा। लेकिन यह बदलाव भी ईश्वर के मार्गदर्शन में ही होना चाहिए अन्यथा अपनी मर्जी से बदलेंगे तो ऐसा भी हो सकता है कि हाथ में केवल भाषा-संस्कृति ही शेष बचें और धर्म का मर्म जाता रहे, क्योंकि धर्म की गति बड़ी सूक्षम होती है।
पवित्र कुरआन : कसौटी भी, चुनौती भी
पवित्र कुरआन बदलते हुए युग में आवश्यक बदलाव की ज़रूरतों को पूरा करता है। यह स्वयं दावा करता है कि यह ईश्वर की ओर से है। यह स्वयं अपने ईश्वरीय होने का सुबूत देता है और अपने प्रति सन्देह रखने वालों को अपनी सच्चाई की कसौटी और चुनौती एक साथ पेश करता है कि अगर तुम मुझे मनुष्यकृत मानते हो तो मुझ जैसा ग्रंथ बनाकर दिखाओ या कम से कम एक सूरः जैसी ही बनाकर दिखाओ और अगर न बना सको तो मान लो कि मैं तुम्हारे पालनहार की ओर से हूँ जिसका तुम दिन रात गुणगान करते हो। मैं तुम्हारे लिए वही मार्गदर्शन हूँ जिसकी तुम अपने प्रभु से कामना करते हो। मैं दुखों से मुक्ति का वह एकमात्र साधन हूँ जो तुम ढूँढ रहे हो।
पवित्र कुरआन अपनी बातों में ही नहीं बल्कि उन्हें कहने की शैली तक में इतना अनूठा है कि तत्कालीन समाज में अपनी धार्मिक-आर्थिक चैधराहट की ख़ातिर हज़रत मुहम्मद (स.) का विरोध करने वाले भी अरबी के श्रेष्ठ कवियों की मदद लेकर भी पवित्र कुरआन जैसा नहीं बना पाये। जबकि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (स.) के जीवन की योजना ही ईश्वर ने ऐसी बनायी थी कि वे किसी आदमी से कुछ पढ़ाई-लिखाई नहीं सीख सके थे।
पवित्र कुरआन का चमत्कार
हज़रत मुहम्मद (स.) आज हमारी आँखों के सामने नहीं हैं लेकिन जिस ईश्वरीय ज्ञान पवित्र कुरआन के ज़रिये उन्होंने लोगों को दुख निराशा और पाप से मुक्ति दिलाई वह आज भी हमें विस्मित कर रहा हैै।
एक साल में 12 माह और 365 दिन होते हैं। पूरे कुरआन शरीफ में हज़ारों आयतें हैं लेकिन पूरे कुरआन शरीफ में शब्द शह् र (महीना) 12 बार आया है और शब्द ‘यौम’ (दिन) 365 बार आया है। जबकि अलग-अलग जगहों पर महीने और दिन की बातें अलग-अलग संदर्भ में आयी हैं। क्या एक इनसान के लिए यह संभव है कि वह विषयानुसार वार्तालाप भी करे और गणितीय योजना का भी ध्यान रखे? ‘मुहम्मद’ नाम पूरे कुरआन शरीफ़ में 4 बार आया है तो ‘शरीअत’ भी 4 ही बार आया है। दोनों का ज़िक्र अलग-अलग सूरतों में आया है।‘मलाइका’ (फरिश्ते) 88 बार और ठीक इसी संख्या में ‘शयातीन’ (शैतानों) का बयान है। ‘दुनिया’ का ज़िक्र भी ठीक उतनी ही बार किया गया है जितना कि ‘आखि़रत’ (परलोक) का यानि प्रत्येक का 115 बार। इसी तरह पवित्र कुरआन में ईश्वर ने न केवल स्त्री-पुरूष के मानवधिकारों को बराबर घोषित किया है बल्कि शब्द ‘रजुल’ (मर्द) व शब्द ‘इमरात’ (औरत) को भी बराबर अर्थात् 24-24 बार ही प्रयुक्त किया है।
ज़कात (2.5 प्रतिशत अनिवार्य दान) में बरकत है यह बात मालिक ने जहाँ खोलकर बता दी है। वही उसका गणितीय संकेत उसने ऐसे दिया है कि पवित्र कुरआन में ‘ज़कात’ और ‘बरकात’ दोनों शब्द 32-32 मर्तबा आये हैं। जबकि दोनांे अलग-अलग संदर्भ प्रसंग और स्थानों में प्रयुक्त हुए हैं।
पवित्र कुरआन में जल-थल का अनुपात
एक इनसान और भी ज़्यादा अचम्भित हो जाता है जब वह देखता है कि ‘बर’ (सूखी भूमि) और ‘बह्र’ (समुद्र) दोनांे शब्द क्रमशः 12 और 33 मर्तबा आये हैं और इन शब्दों का आपस में वही अनुपात है जो कि सूखी भूमि और समुद्र का आपसी अनुपात वास्तव में पाया जाता है।
सूखी भूमि का प्रतिशत- 12/45 x 100 = 26.67 %
समुद्र का प्रतिशत- 33/45 x 100 = 73.33 %
सूखी जमीन और समुद्र का आपसी अनुपात क्या है? यह बात आधुनिक खोजों के बाद मनुष्य आज जान पाया है लेकिन आज से 1400 साल पहले कोई भी आदमी यह नहीं जानता था तब यह अनुपात पवित्र कुरआन में कैसे मिलता है? और वह भी एक जटिल गणितीय संरचना के रूप में।
क्या वाकई कोई मनुष्य ऐसा ग्रंथ कभी रच सकता है?
क्या अब भी पवित्र कुरआन को ईश्वरकृत मानने में कोई दुविधा है? (...जारी)
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साभार ''वन्दे ईश्वरम'' मासिक
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