सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Monday, October 4, 2010
About cow and women's honour विदेशियों के आगे गऊ-बेटी परोसने वाले क्या कहलाएंगे, श्रेष्ठ या पतित ? - Anwer Jamal
‘शान्ति का मूल' है नियम-संयम
जीवन हो लेकिन कोई नियम न हो तो फ़साद फैलता है। शक्ति हो लेकिन संयम न हो तो शान्ति नहीं मिलती। समाज हो लेकिन संगठन न हो तो विकास नहीं होता। संगठन होता है तो कोई उसका ‘प्रमुख‘ भी होता है, जो उसे दिशा देता है, नियम से चलाता है, सीमा और संयम सिखाता है।
आज ज़मीन में फ़साद फैला हुआ है। जीवन में न कोई नियम है और न ही संयम। समाज दिशाहीन है। समाज को दिशा देने के लिए जो लोग खड़े भी हुए वे झूठे और निकम्मे निकले। उन्होंने जनता से वादा किया उनके कल्याण का और अपने लिए दौलत का अंबार लगाने में जुट गए। ज़मीन की उपज को स्टॉक में सड़ा डाला, पर बांटा नहीं। लोग भूख से तड़प रहे हैं, मर रहे हैं लेकिन वे ‘खेल‘ कराने में व्यस्त हैं।
खेलों का खेल, दौलत की रेलम-पेल
खेल में भी खेल खेला जा रहा है। मोटा माल समेटा जा रहा है। तवायफ़ों के कोठे सजाए जा रहे हैं। उन्हें दिलजोई की अंग्रेज़ी अदाएं सिखाई जा रही हैं। देश की बेटियों को नोचने विदेशी जो आ रहे हैं। बेटियों को ही क्या, वे तो माँ की भी बोटियाँ नोचेंगे। गाय, जिसे गोभक्त माता कहते हैं, वे उसे खाएंगे और उसकी हड्डियां भी हिन्दुओं से ही उठवाएंगे।
गोरक्षा पर आन्दोलन चलाने वाले चुप हैं और जो गुरू बने बैठे हैं, वे भी चुप हैं क्योंकि शिष्य कुछ कमाएंगे तो चढ़ावा भी लाएंगे, जब वे गुरू पूर्णिमा पर आएंगे। इन्हीं के आशीर्वाद से सरकारें बनती हैं। जनप्रतिनिधि इन्हीं के पैरों पर गिरे हुए दिखाई देते हैं। गिरा हुआ तो फ़ोटो में गिरा सबको दिखाई देता है लेकिन खड़ा हुआ तो उससे भी ज़्यादा गिरा हुआ होता है लेकिन मुद्रा ऋषियों की बनाए मुस्कुरा रहा होता है। वे मुस्कुराते क्यों हैं ?
जो झूठा है वह शैतान है
जो ऋषि नहीं है, ऋषिमार्ग पर नहीं है वह शैतान है। उसके वादे झूठे होंगे जो न अब तक पूरे हुए हैं और न ही कभी पूरे होंगे। यही लोग हैं जो सदा से समाज को अपनी गुलामी में जकड़े हुए हैं। ऋषियों के जाने के बाद इन्होंने धर्मग्रंथ छिपाए, नये रचे , नये देवता बनाए, फिर उन्हें भी बदलते रहे, समाज से बराबरी का ख़ात्मा इन्होंने किया, खुद को और शासक वर्ग को ऊँचा घोषित किया और पूरे समाज पर हमेशा के लिए चढ़ बैठे। जो लोग जान गए उन्हें लगने लगा कि धर्म कहलाते हैं ऐसे नियम जो समाज के ताक़तवर लोगों ने बनाए थे कमज़ोरों के शोषण के लिए। उनका विश्वास धर्म से हिला तो फिर ईश्वर में भी नहीं बचा।
जीवन का स्रोत ईश्वर है
अपने आधार से कटकर कोई पेड़ कैसे फलवन्त हो सकता है ? ईश्वर आधार है मनुष्य का। ईश्वर से कटकर आज का इन्सान मुरझा जा रहा है, सूख रहा है, मर रहा है।
गढ़मुक्तेश्वर के पास वीरपाल भूख से मर गया क्योंकि वह ग़रीब था तो बोस्टन में मिशेल हीसमैन ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के पास हफ़्ते भर पहले खुद को गोली मार ली। वह संपन्न था। मरने से पहले उसने 1905 पन्नों का एक सुसाइड नोट लिखा और अपने 400 दोस्तों को ईमेल भी किया। उसने लिखा ‘मेरा जीवन वास्तव में अर्थहीन है और मूलभूत विकल्पों के बीच चयन करने का कोई तार्किक आधार नहीं है। ऐसे में सभी प्रकार का चुनाव एक समान है और मौत के मुक़ाबले ज़िंदगी को चुनने का कोई मूलभूत आधार नहीं है।‘
क्या दर्शन मौत परोस रहा है ?
35 वर्षीय हीसमैन को यह सब लिखने में 5 साल लग गए। उसने यह भी लिखा कि वह अपनी ज़िंदगी ख़त्म करने का क़दम दार्शनिक अनुभव की खोज के लिए कर रहा है, जिसे शून्यवाद का अनुभव‘ कहते हैं।‘
कहीं ग़रीबी की मार है तो कहीं अमीरी ले रही है जान
ऐसा नहीं है कि हीसमैन ईश्वर को नहीं मानता था। उसने 1700 बार से अधिक ईश्वर का ज़िक्र किया है। ‘दर्शन‘ भी मौत परोस रहा है। ग़रीब वीरपाल भी ईश्वर को मानता था लेकिन न तो वह हीसमैन जितना शिक्षित था और न ही अपनी बात को शानदार तरीक़े से पेश करने लायक़ दौलत ही उसके पास थी। वह ग़रीब था सो चुपके से मर गया। उसके घरवाले दहाड़ें मारकर रो रहे हैं। मीडिया कवरेज कर रही है और राजनीति के धंधेबाज़ सत्ता की कुर्सियों पर चढ़े हुओं को कोस रहे हैं ताकि वे उतरें और हम उन पर बैठें। कोई ख़बर बेच रहा है और कोई अपना ज़मीर। चीज़ों की तरह आज आबरू बिक रही है। आकर्षक तरीक़े से बेचने के ‘हुनर‘ सरकारें खुद सिखा रही हैं।
दौलत है जिनका ईमान सदा से
दूसरी जाति में प्यार करने वालों को मौत की सज़ा सुनाने वाला दम्भी समाज विदेशियों को अपने देश की बहू-बेटियों की आबरू से खेलते हुए चुपचाप देखेगा। उनकी दलाली करने वाले युवकों के लिए उसका कोई फ़रमान सिरे से ही नहीं है। ‘लव जिहाद‘ का फ़र्ज़ी हौवा खड़ा करने वाले राष्ट्रवादियों का खून भी अब पानी की तरह ठंडा पड़ा रहेगा। जब चाहते हैं ये अपना देवता, धर्म और संस्कार सब कुछ बदल लेते हैं। अस्ल में दौलत इनका ईमान है और लालच ही इनका धर्म है। यही एक चीज़ है जो ऋषियों के जाने के बाद से समाज में अब तक स्थिर देखी जा सकती है। जाति-व्यवस्था इसी लालच को पूरा करने के लिए बनाई गई थी और उसे आज भी बनाये रखने की कोशिशें सिर्फ़ इसी लिए की जा रही हैं कि इसी में ‘उनके‘ हित सुरक्षित हैं।
सत्य स्वीकारने में अहंकार एक बाधा कैसे बनता है ?
जीवन हो लेकिन कोई नियम न हो तो फ़साद फैलता है। शक्ति हो लेकिन संयम न हो तो शान्ति नहीं मिलती। समाज हो लेकिन संगठन न हो तो विकास नहीं होता। संगठन होता है तो कोई उसका ‘प्रमुख‘ भी होता है, जो उसे दिशा देता है, नियम से चलाता है, सीमा और संयम सिखाता है।
आज ज़मीन में फ़साद फैला हुआ है। जीवन में न कोई नियम है और न ही संयम। समाज दिशाहीन है। समाज को दिशा देने के लिए जो लोग खड़े भी हुए वे झूठे और निकम्मे निकले। उन्होंने जनता से वादा किया उनके कल्याण का और अपने लिए दौलत का अंबार लगाने में जुट गए। ज़मीन की उपज को स्टॉक में सड़ा डाला, पर बांटा नहीं। लोग भूख से तड़प रहे हैं, मर रहे हैं लेकिन वे ‘खेल‘ कराने में व्यस्त हैं।
खेलों का खेल, दौलत की रेलम-पेल
खेल में भी खेल खेला जा रहा है। मोटा माल समेटा जा रहा है। तवायफ़ों के कोठे सजाए जा रहे हैं। उन्हें दिलजोई की अंग्रेज़ी अदाएं सिखाई जा रही हैं। देश की बेटियों को नोचने विदेशी जो आ रहे हैं। बेटियों को ही क्या, वे तो माँ की भी बोटियाँ नोचेंगे। गाय, जिसे गोभक्त माता कहते हैं, वे उसे खाएंगे और उसकी हड्डियां भी हिन्दुओं से ही उठवाएंगे।
गोरक्षा पर आन्दोलन चलाने वाले चुप हैं और जो गुरू बने बैठे हैं, वे भी चुप हैं क्योंकि शिष्य कुछ कमाएंगे तो चढ़ावा भी लाएंगे, जब वे गुरू पूर्णिमा पर आएंगे। इन्हीं के आशीर्वाद से सरकारें बनती हैं। जनप्रतिनिधि इन्हीं के पैरों पर गिरे हुए दिखाई देते हैं। गिरा हुआ तो फ़ोटो में गिरा सबको दिखाई देता है लेकिन खड़ा हुआ तो उससे भी ज़्यादा गिरा हुआ होता है लेकिन मुद्रा ऋषियों की बनाए मुस्कुरा रहा होता है। वे मुस्कुराते क्यों हैं ?
जो झूठा है वह शैतान है
जो ऋषि नहीं है, ऋषिमार्ग पर नहीं है वह शैतान है। उसके वादे झूठे होंगे जो न अब तक पूरे हुए हैं और न ही कभी पूरे होंगे। यही लोग हैं जो सदा से समाज को अपनी गुलामी में जकड़े हुए हैं। ऋषियों के जाने के बाद इन्होंने धर्मग्रंथ छिपाए, नये रचे , नये देवता बनाए, फिर उन्हें भी बदलते रहे, समाज से बराबरी का ख़ात्मा इन्होंने किया, खुद को और शासक वर्ग को ऊँचा घोषित किया और पूरे समाज पर हमेशा के लिए चढ़ बैठे। जो लोग जान गए उन्हें लगने लगा कि धर्म कहलाते हैं ऐसे नियम जो समाज के ताक़तवर लोगों ने बनाए थे कमज़ोरों के शोषण के लिए। उनका विश्वास धर्म से हिला तो फिर ईश्वर में भी नहीं बचा।
जीवन का स्रोत ईश्वर है
अपने आधार से कटकर कोई पेड़ कैसे फलवन्त हो सकता है ? ईश्वर आधार है मनुष्य का। ईश्वर से कटकर आज का इन्सान मुरझा जा रहा है, सूख रहा है, मर रहा है।
गढ़मुक्तेश्वर के पास वीरपाल भूख से मर गया क्योंकि वह ग़रीब था तो बोस्टन में मिशेल हीसमैन ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के पास हफ़्ते भर पहले खुद को गोली मार ली। वह संपन्न था। मरने से पहले उसने 1905 पन्नों का एक सुसाइड नोट लिखा और अपने 400 दोस्तों को ईमेल भी किया। उसने लिखा ‘मेरा जीवन वास्तव में अर्थहीन है और मूलभूत विकल्पों के बीच चयन करने का कोई तार्किक आधार नहीं है। ऐसे में सभी प्रकार का चुनाव एक समान है और मौत के मुक़ाबले ज़िंदगी को चुनने का कोई मूलभूत आधार नहीं है।‘
क्या दर्शन मौत परोस रहा है ?
35 वर्षीय हीसमैन को यह सब लिखने में 5 साल लग गए। उसने यह भी लिखा कि वह अपनी ज़िंदगी ख़त्म करने का क़दम दार्शनिक अनुभव की खोज के लिए कर रहा है, जिसे शून्यवाद का अनुभव‘ कहते हैं।‘
कहीं ग़रीबी की मार है तो कहीं अमीरी ले रही है जान
ऐसा नहीं है कि हीसमैन ईश्वर को नहीं मानता था। उसने 1700 बार से अधिक ईश्वर का ज़िक्र किया है। ‘दर्शन‘ भी मौत परोस रहा है। ग़रीब वीरपाल भी ईश्वर को मानता था लेकिन न तो वह हीसमैन जितना शिक्षित था और न ही अपनी बात को शानदार तरीक़े से पेश करने लायक़ दौलत ही उसके पास थी। वह ग़रीब था सो चुपके से मर गया। उसके घरवाले दहाड़ें मारकर रो रहे हैं। मीडिया कवरेज कर रही है और राजनीति के धंधेबाज़ सत्ता की कुर्सियों पर चढ़े हुओं को कोस रहे हैं ताकि वे उतरें और हम उन पर बैठें। कोई ख़बर बेच रहा है और कोई अपना ज़मीर। चीज़ों की तरह आज आबरू बिक रही है। आकर्षक तरीक़े से बेचने के ‘हुनर‘ सरकारें खुद सिखा रही हैं।
दौलत है जिनका ईमान सदा से
दूसरी जाति में प्यार करने वालों को मौत की सज़ा सुनाने वाला दम्भी समाज विदेशियों को अपने देश की बहू-बेटियों की आबरू से खेलते हुए चुपचाप देखेगा। उनकी दलाली करने वाले युवकों के लिए उसका कोई फ़रमान सिरे से ही नहीं है। ‘लव जिहाद‘ का फ़र्ज़ी हौवा खड़ा करने वाले राष्ट्रवादियों का खून भी अब पानी की तरह ठंडा पड़ा रहेगा। जब चाहते हैं ये अपना देवता, धर्म और संस्कार सब कुछ बदल लेते हैं। अस्ल में दौलत इनका ईमान है और लालच ही इनका धर्म है। यही एक चीज़ है जो ऋषियों के जाने के बाद से समाज में अब तक स्थिर देखी जा सकती है। जाति-व्यवस्था इसी लालच को पूरा करने के लिए बनाई गई थी और उसे आज भी बनाये रखने की कोशिशें सिर्फ़ इसी लिए की जा रही हैं कि इसी में ‘उनके‘ हित सुरक्षित हैं।
सत्य स्वीकारने में अहंकार एक बाधा कैसे बनता है ?
मूल धर्म लुप्त हो चुका है और जो कुछ समाज में है वह ‘दर्शन‘ है धर्म नहीं। धर्म को पाने में आदमी का लालच आड़े आ रहा है जो जातिवाद से पुष्ट होता है, उसका अहंकार आड़े आ रहा है जो फ़िज़ूल है। जिस देश की बहू-बेटियों की अस्मत से विदेशी खेल रहे हों और
देशी लोग उनके लिए ऑर्केस्ट्रा में बाजे बजा रहे हों, उन्हें अहंकार किस बात का है ?
क्या श्रेष्ठ कहलाने के लिए किसी आदर्श का पालन ज़रूरी नहीं है ?
अहंकार से तो दर्शन भी रोकता है, थोड़ा बहुत आत्म-गौरव के गीत गाने की इजाज़त वह दे दिया करता है लेकिन उसे गाने का भी अब कोई अधिकार शेष नहीं बचा। इसके बावजूद भी जो सांस्कृतिक श्रेष्ठता के गीत गाता हुआ मिले उसे या तो बेग़ैरत समझा जाए या फिर ताज़ा हालात से अंजान एक अतीतजीवी मदहोश।
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15 comments:
कड़वा सच सामने रख दिया आपने .
हर शाख पे उल्लू बैठा है , अंजामे गुलिस्तां क्या होगा ?
1- क्या श्रेष्ठ कहलाने के लिए किसी आदर्श का पालन ज़रूरी नहीं है ?
2- जो धर्म था उसे खो दिया और जो गाय को धर्म खुद ठहराया, उसकी रक्षा कर नहीं पाए तो अहंकार किस बात का है ?
मानवता सो गयी है , मरी तो नहीं है अभी तक , अयोध्या फैसले से साबित हो गया है कि सौहार्द्र जिंदा है . मानवता को जगाने की ज़रुरत है .
Nipost .
मिलकर काम करने कि ज़रुरत है आज पहले कहीं ज्यादा .
such kaha bhai !
@ बेटे , गाय का जज्बाती मुद्दा उछाल कर सहानुभूति मेरे रहते तो बटोर नहीं पायेगा , तेरे ५० कमेन्ट तो मैं पिछली पोस्ट पर कम कर ही चूका हूँ . अब तेरा ब्लॉग ख़तम ही समझ . वह तो फसल डूब गयी वर्षा में वरना तो ....
अच्छी पोस्ट । तारकेश्वर जी आप भी आओ और गऊ रक्षकों भी बुलाओ देखोँ क्या हो रहा है इस देश में !
नेकी आसान है बस उस पर चलने के लिए हौसला होना चाहिए
चिटठाजगत.in की बत्ती गुल
बडे दुख की बात है
हिन्दु धर्म में सबसे बडी कमी तो यही है कि जो उनके यहां पुज्नीय है उसकी हालत बहुत खराब है....ये लोग सिर्फ़ अफ़सोस ज़ाहिर करते है या फ़िर किसी खास दिन उनकी सेवा करते है....
गाय, नदी, सापं, बन्दर, चुहा, लिस्ट बहुत लम्बी है....
================
"हमारा हिन्दुस्तान"
"इस्लाम और कुरआन"
Simply Codes
Attitude | A Way To Success
Dharm se jyada samaj main sudhar ki jarurat hai, Is par sabko sath milkar ke chalne ki jarurat hai.
Very nice blog Anwer Bhai.
@ Tarkeshwar Giri ji !
समाज को सुधारने के लिए कुछ उसूलों की ज़रुरत होती है, उन उसूलों को ही धर्म कहा जाता है धर्म को छोड़ दिया जाये तो फिर समाज को सुधारना मुमकिन नहीं होता, धर्म आपके पास तब था जब ऋषि हुआ करते थे, धर्म अब हमारे पास है आपके पास 'दर्शन' है। और दर्शन ले जाता है शून्यवाद की ओर और शून्यवाद आदमी को वहां पंहुचा देता है जहाँ पंहुच गया 'हीसमैन' कल्याण है धर्म में, धर्म अपनाओ सफ़लता पाओ ।
गाय पर किसी के विचार अभी तक नहीं आये गाय को तो बचा नहीं पाए, लेकिन क्या गौ हत्या पर विरोध जताने की ज़रुरत भी अब नहीं समझते गौ को माता कहने वाले ?
राम जन्म भूमि की तरह मंदिर क्यों न बनाया राम मरण भूमि पर ?
(३)
महापुरुष जहाँ आपने प्राण त्यागते हैं उस जगह स्मारक बनाने की परम्परा
दुनिया के हर देश में पाई जाती है , भारत में भी है लेकिन राम जन्म भूमि पर
मंदिर बनाने के लिए खून बहाने वालों ने राम मरण भूमि पर मंदिर बनाना ज़रूरी नहीं समझा जोकि बिलकुल आसान है, यदि वे ऐसा करते तो दुनिया को पता
चल जाता की राम राज्य का अंत करने वाले और भारत की तबाही के असली
ज़िम्मेदार सदा से कौन हैं ?
पाक टेंशन का जन्म और उससे मुक्ति का उपाय
(४)
नेहरु जिन्नाह टेंशन हिन्दू मुस्लिम टेंशन में बदल गयी. नेहरु भी आर्य था
और जिन्नाह भी आर्य था , नेहरु का साथ देने वाले भी आर्य थे जो जिन्नाह के
साथ खड़े थे वे भी आर्य थे, बटवारे के लिए आर्य पहले भी महाभारत लड़े थे और
उनके वारिस, अब फिर आमने सामने खड़े थे, अब न नेहरु है न जिन्नाह है, लेकिन
हिंद पाक टेंशन फिर भी ज़िन्दा है जब तक नफ़रत रहेगी पाक टेंशन भी रहेगी
नफ़रत मिटाओ हाथ मिलाओ बिखरे टुकड़े साथ मिलाओ युक्ति कोई एसी बताओ, आपके
पास न हो तो हम से ले जाओ, सारांश यह कि बात को घटाओ कोई ग़लती हो तो हमें
समझाओ
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