सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Showing posts with label राजपूत. Show all posts
Showing posts with label राजपूत. Show all posts

Thursday, November 4, 2010

What was before Darshan आप सोचिए कि दर्शन धर्म का आधार होते तो दर्शन की रचना होने से पहले के लोग क्या धर्म से हीन थे ?- Anwer Jamal

पंकज सिंह राजपूत ने कहा…

D@@@@@ R. ANWER JAMAL
साहब बिल्कुल, उम्मीद लायक जबाब दिया आपने - मैं बच्चों की तरह रंगों की कोई पहेलियाँ नहीं बुछा रहा और न तो आपके सामान्य ज्ञान की परीक्षा ले रहा हूँ - मै तो इन निम्न वाक्यों की तरफ आप का ध्यान दिलाना चाहता हूँ -
परमेश्वर के वचन के अर्थ निर्धारण के लिए केवल मनुष्य की बुद्धि काफ़ी नहीं है। इसे आप परमेश्वर की वाणी कुरआन के आलोक में देखिए।
आप का कहना है की दर्शन और धर्म में अंतर है, (आपकी मूल समस्या)
परन्तु वैदिक धर्म का तो आधार ही दर्शन है, इसीलिए ये छोटा सा प्रश्न पूछा -
ईश्वर (परमेश्वर) तत्त्व है या व्यक्तित्व ?
फोन पर तो आप केवल मेरी जिज्ञासा ही शांत कर पायेंगे, परन्तु जिज्ञासु तो यहाँ और भी है, उनका भी ख्याल कीजिये !!!!
बाकी पत्तियों वाली बात और रंगों वाली बात, इस जिज्ञासा की शांति के बाद !!!!
प्रतीक्षा उत्तर की OOOOOOOOOOOOO..............
.....................................................................................................................................
प्यारे भाई पंकज सिंह राजपूत जी ! आपका और आपके सवालों का स्वागत है।
आपने लिखा है कि मेरी मूल समस्या यह है कि मैं धर्म और दर्शन में अंतर करता हूं। जबकि वैदिक धर्म का आधार ही दर्शन हैं।
मेरे भाई , आप ज़रा सा ग़ौर करते तो समझ लेते कि सनातनी और आर्य समाजी दोनों तरफ़ के विद्वान धर्म का आधार ‘वेद‘ को मानते हैं। वेद जितने समय पुराने हैं दर्शन उतने पुराने नहीं हैं। दर्शनों की रचना उनके बहुत बाद हुई । कुछ के अनुसार अरबों साल बाद और कुछ के अनुसार कुछ हज़ार साल बाद। सभी दर्शनों की रचना एक साथ नहीं हुई है बल्कि एक एक करके अलग अलग टाइम में हुई है।
अब आप सोचिए कि दर्शन धर्म का आधार होते तो दर्शन की रचना होने से पहले के लोग क्या धर्म से हीन थे ?
यदि वे धर्म से युक्त थे तो मानना पड़ेगा कि उन्हें धर्म की व्याख्या के लिए दर्शनों की कोई ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। उनके लिए तो धर्म का आधार ईश्वर की वाणी ‘वेद‘ था। बाद में लोगों ने धर्म का आधार केवल वेद न मानकर उनके साथ दर्शनों को भी सम्मिलित कर लिया और फिर पुराणों को भी। उसके बाद भी जो कुछ काव्य और साहित्य रचा जाता रहा उसे धर्म के आधार में सम्मिलित करने की प्रक्रिया अनवरत चलती रही। वास्तविक वेदार्थ के लुप्त होने का यह मूल कारण है।
कृपया ध्यान रखिएगा कि मैं दर्शनों के महत्व का इन्कार नहीं कर रहा हूं और न ही मैं पुराण , इतिहास या काव्य को ही पूरी तरह ख़ारिज कर रहा हूं कि इनमें कुछ भी सत्य नहीं है। नहीं , बल्कि मैं केवल इन्हें धर्म का मूल नहीं मानता क्योंकि इनकी रचना से पहले भी धर्म था और धर्म का पालन करने वाला समाज भी था जो आज के समाज की तरह ‘कन्फ़्यूज़्ड‘ नहीं था।
धर्म का आधार तो वेद हैं लेकिन वेद का वास्तविक अर्थ जानना आज केवल मनुष्य की बुद्धि के बस का काम नहीं है। दयानंद जी का उदाहरण सामने है। उन्होंने ‘वसु‘ की व्याख्या करते हुए लिख डाला कि सूर्य, चन्द्र और समस्त तारों और नक्षत्रों पर मनुष्य आबाद हैं और वे इन्हीं चारों वेदों का पठन पाठन और पालन करते हैं। (देखिए सत्यार्थ प्रकाश, 8 वां समुल्लास)
ज़ाहिर है बुद्धि तो उनमें कुछ कम न थी। इसी तरह परंपरा से प्राप्त महीधर जी का वेदार्थ भी कुछ जगहों पर स्वीकार्य नहीं हो पाता।
ईश्वर और वस्तुओं के लिए प्रयुक्त नामों में एकरूपता भी वास्तविक वेदार्थ तक पहुंच पाने में एक बड़ी बाधा है जैसे कि यह समस्या ऋग्वेद के पहले सूक्त के पहले ही मंत्र से आरंभ हो जाती है कि ‘अग्नि‘ का अर्थ जलाने वाली आग लिया जाए या कि ‘ईश्वर‘। दोनों ही अर्थ वेदविदों ने किए हैं। मेरा इसमें किंचित भी हस्तक्षेप नहीं है।
धर्म का आधार तो वेद को माना जाए और दर्शन व अन्य साहित्य को भी इसी के आधार पर परखा जाए लेकिन वेद के वास्तविक मंतव्य को कैसे समझा जाएगा ?
यह एक समस्या है जिससे आम पब्लिक अन्जान है लेकिन वेदविद इससे परेशान हैं। मुझे कुरआन से मदद मिली और मुझे निश्चय हो गया कि अगर ‘अग्निमीले‘ के दो अर्थ में से एक लेना है तो कौन सा लेना है। मैंने वह ले लिया जो कुरआन की बिल्कुल पहली सूरा की पहली आयत में वर्णित है। वहां ‘विशेष स्तवन-वंदन परमेश्वर के लिए है जो सब लोकों का स्वामी है‘ लिखा मिलता है।
‘अग्निमीले‘ में भी अग्नि के ईलन-स्तवन की बात आई है सो यह तो केवल ईश्वर के लिए ही विशेष है। यही है कुरआन के आलोक में वेद को देखना। परमेश्वर की वाणी को परमेश्वर की ही वाणी में देखा जाए तो वास्तविक वेदार्थ प्रकट हो जाता है।

आपने यह भी पूछा है कि ईश्वर व्यक्तित्व है या तत्व ?
मैं आपसे कहना चाहूंगा कि क्या मेरे लिए लाज़िमी है कि मैं इन दो शब्दों में से ही किसी शब्द को ज़रूर चुनूं। आप यह पूछिए कि ईश्वर कौन है ?
ईश्वर एक चेतन अस्तित्व है जो सभी उत्कृष्ट गुणों से युक्त है। उसका अस्तित्व और उसके गुण हमारे ज्ञान और कल्पना से परे हैं। उसने हमें अपनी मनन शक्ति से उत्पन्न किया और हमें जीवन दिया , जीने का मक़सद दिया, जीने का विधान दिया, सफलता का मार्ग दिखाया। उसके नियमों का नाम धर्म है। धार्मिक कर्मकांड के ज़रिए उसकी वाणी की सुरक्षा की जाती है , उसके नियमों को स्मृति में सुरक्षित रखा जाता है। जीवन में उनका पालन किया जाता है।
जिस ऋषि के अंतःकरण पर वाणी का अवतरण होता है , वह सारे समाज के लिए आदर्श होता है। वैदिक ऋषियों के आचरण को सुरक्षित न रखे जाने से भी बहुत भारी समस्या का सामना करना पड़ता है।
ये सभी समस्याएं आज वास्तव में सामने हैं। मैंने जो उचित समझा उसका हल आपको बता दिया। आपको इससे ज़्यादा बेहतर हल कोई दूसरा लगे तो आप मुझे वह बताएं।