सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Sunday, September 23, 2012

वैदिक साहित्य और क़ुर'आन में प्रलय और स्वर्ग नरक की समानता Swarg Narak


जिस प्रकार इस लोक मे प्रत्येक वस्तु का एक अंत हैं, उसी प्रकार इस वर्तमान जगत् का भी एक अंत हैं। इस संसार के इस अंत और इस महा विनाश को प्रलय कहा गया हैं। अरबी मे इसको कियामत कहा जाता है। कुरआन मे प्रलय अर्थात कियामत की चर्चा संक्षिप्त मे कर्इ स्थान पर आर्इ हैं किन्तु र्इश-दूत (पैगम्बर) हजरत मुहम्मद (स0) के वचनों के संकलन (हदीस) मे वह सविस्तार वर्णित हैं। इसी प्रकार भारतीय धर्मग्रन्थों में भी प्रलय (कियामत) की चर्चा बार-बार और सविस्तार विद्यमान है।यथा: प्रलय का समय निकट आने पर मानव-समाज की स्थिति क्या होगी? प्रलय के निकट समय मे क्या चिहन प्रकट होंगे? इत्यादि। 
  
जब प्रलय का समय नजदीक आ जाएगा तो नरसिघा को फूंका जाएगा। आरंभ मे तो सुरीली आवाज आएगी और लोग गाने-बजाने के रसिया हो जाने के कारण के उस आवाज की ओर लपकेंगे। धीरे-धीरे वह आवाज तेज होती जाएगी। यहां तक कि लोग घबराकर उससे भागने लगेंगे। फिर वह असहय हो जाएगी और लोग घबराहट मे मरने लगेंगे। एक बार फिर नरसिंघा में फूंक मारी जाएगी, तो ब्रहम्माण्ड की यह सारी व्यवस्था बिगड़ जाएगी। धरती-आकाश सब टूट-फूट जाएंगे। फिर एक फूक मारी जाएगी, तो एक दूसरी बहुत धरती तांबे की धातु से बनी खड़ी होगी और संसार मे जन्मे प्रथम मानव के समय से अंतिम समय तक के सारे लोग, धरती मे उनके जहां-जहां भी शरीरांश बिखरे पड़े होंगे, सब एकत्रित होकर शरीर-धारण कर लेंगे। प्रलय के बाद के जीवनकाल को परलोक (आखिरत) कहा जाता हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण (12/4/14-18) के अनुसार जल, वायु, इत्यादि सब अपने उत्पादकों तत्व मे लीन होकर नष्ट हो जाएंगे। सबके नष्ट हो जाने के बाद शुद्ध , निर्लेप, मात्र ब्रह्म रह जाएगा। शेष संसार अव्यक्त रूप में परिवर्तित हो जाएगा। कुरआन का भी यही कहना हैं कि-

‘‘इस पृथ्वी पर जो कुछ या कोई है वह सब मिट जाएगा। एक कृपाशील प्रभु पालनहार का प्रतापवान स्वरूप ही शेष रह जाएगा।’’ 

उत्पादक तत्व मे लीन हो जाने की बात गुरू नानक जी ने भी कही हैं, किन्तु वह यह लय परमात्मा मे हो जाती हैं, मानते हैं। उनकी यह बात पता नहीं कि अपने मौलिक रूप में हैं या बाद मे बदल दी गर्इ है। मुझे यह दूसरी बात प्रतीत होती हैं। तत्वों का तत्वों में लीन होना समझ में आता हैं, परन्तु परमात्मा में लीन होने का अर्थ यह हैं कि मनुष्य और अन्य सम्पूर्ण वस्तुएं परमात्मा के शरीर का अंश हैं और उसी से निकली है। यह धारणा किसी प्रकार से सही नहीं हैं। तथ्य यह हैं कि सब कुछ परमात्मा की सृष्टि हैं, न कि स्वयं परमात्मा या उसका कोई अंश।

श्रीमदभागवत महापुराण के द्वादस स्कन्ध में प्राकृतिक प्रलय होने की बात आर्इ हैं। उल्लिखित है कि उस समय सैकड़ो वर्ष तक वर्षा नहीं होगी, जिससे मनुष्यादि जीव तड़प-तड़प कर कर विनष्ट हो जाएंगे अनन्तर भगवान के मुख से भड़की हुई अग्नि समस्त चराचर को फूंक डालेगी।

इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रलय मे विश्वास इहलोक और परलोक के बीच की एक सीढ़ी है, यह उसी प्रकार कि जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन के बाद मृत्यु के बाद यमलोक(पितरलोक) फिर परलोक है। 

परलोक (अंतिम दिन) 
प्रलय के बाद जो लोक या जगत् अस्तित्व मे आएगा उस लोक या जगत को भारतीय ग्रन्थों मे परलोक और इस्लाम मे आखिरत के नाम से उल्लेख किया गया है । समस्त मनुष्य इहलाके के आरंभ से अंत तक जो मृत्यु पाकर पितरलोक मे प्रवेश करेंगे। उस लोक के तीन चरण है।

1-    पुनर्जीवित होकर ईश्वर के समक्ष एकत्रित होना
2-    कर्मो की जॉच, तौल और फैसला 
3-    कर्मानुसार स्वर्ग या नरक मे प्रवेश पाना जैसा कि वृहदारण्यकोपनिषद की बात आ चुकी है कि मनुष्य के लिए दो ही स्थान हैं। एक इहलाके, दूसरा परलोक। तीसरे बीच वाले का नाम संध्या है। इसी प्रकार आदि शंकराचार्य ने भी अपने भाष्य मे यही बात कही हैं। पारलौकिक जीवन को वेदों मे दिव्य-जन्म कहा गया है। ऋग्वेद (1/44/6) के ये शब्द हम नही भूल सकते ‘‘प्रतिरन्नायुर्जीवसें नमस्या दैव्यं जनमं’’ अर्थात तुम्हें फिर से आयु एवं जीवन प्राप्त होना निश्चित है। स्पष्ट हैं कि मृत्यु के पश्चात केवल एक और जीवन हैं, न कि इसी लोक मे शारीरिक बदलाव बार-बार होते रहना हैं।

ऋग्वेद (1/58/6) मे एक स्थान पर कितनी साफ बात कही गर्इ हैं: होतारमग्ने अतिथि वरेण्यं मित्र न शेवं दिव्याय।।अर्थात हे अग्नि, दिव्य जन्म हवन करनेवाले को नही, प्रत्येक समय संसार के मित्र (परमेश्वर) का वरण करनेवाले को हैं। अत: वर्तमान जन्म के बाद केवल एक और जन्म है और वह दिव्य जन्म हैं। एक स्थान पर द्विजन्माने का शब्द आया हैं, अर्थात दोनो को माननेवाले। इस प्रकार दिव्य जन्म, अंतिम दिन, दिव्याय जन्मने जैसे शब्दों से पुन: जीवित होने एवं परलोक की धारणा की पुष्टि स्पष्टता: होती हैं और साथ ही इसी दुनिया मे बार-बार जन्म लेने की धारणा अवैदिक ठहरती हैं। वेदो के पूर्व में आए महर्षि (दूत) भी केवल दो ही जन्म की बात करते रहे है, कर्इ जन्मों की नही। इस प्रकार यही विश्वास सत्य ठहरता है। अन्य दूसरें बड़े धर्म इस्लाम और ईसाई (Christian) भी दो ही जीवन मानते हैं-इहलौकिक एवं पारलौकिक जीवन। कई विद्वान इस प्रश्न पर दार्शनिकीय धोखा खा चुके है। हम धोखा न खाएं। 

शतपथ ब्राह्मण में कहा गया हैं कि उस लोक मे कर्मो को तराजू पर रखा जाएगा और पलड़े में जो कर्म भारी होगा, मनुष्य उसी को प्राप्त होगा। जो इस रहस्य को समझता है वह इस लोक मे अपने को जांचता रहता हैं कि उसके कौन-से कर्म हलके और कौन-से भारी हो रहे है। सतर्क लोग उपर उठ जाते हैं, महान बन जाते हैं। कारण यह कि वे सदैव अच्छे कर्म करने का प्रयास करते हैं और अच्छे कर्म अर्थात पुण्य कर्म सदैव प्रबल यानी भारी होते है और पाप के कर्म हलके (11/2/7/33)। मनुस्मृति में भी कहा गया हैं कि आत्मा-स्वरूप् पुरूष (देवा) मनुष्य के कर्मो को देखते रहते हैं, हालांकि मनुष्य यह समझता है कि उसे अकेले मे कोई नही देखता। पुराणों मे उन आत्मा-स्परूप् पुरूषों को चित्रगुप्त का नाम दिया गया हैं औ कुरआन में ‘किरामज कातिबीन’ कहा गया हैं। कुरआन में हैं कि जिसके सुकर्मो का पलड़ा भारी होगा, वह सुखदायक जीवन पाएगा और जिसका पलड़ा हलका हो गया तो उसका ठिकाना हावियां हैं। हाविया के विषय मे कुरआन मे ही स्पष्ट किया गया हैं कि वह दहकती हुई आग अर्थात नरकाग्नि है। (कुरआन 101/6-11)


परलोक  मे फैसले से पूर्व कर्मो को तौलने की एक प्रक्रिया होगी।इससे मनुष्य अपने बारे मे स्वंय समझ सकेगा कि हमारी वास्तविक स्थिति क्या है। फिर कुरआन के अनुसार मनुष्य को उसके बड़े-बड़े दुष्कर्मो को सार्वजनिक रूप् से सुनाया जाएगा और उसको अपना जवाब देने का अवसर दिया जाएगा। यदि वह किसी भी बुरे कर्म के चार्ज को झुठलाएगा तो तुरन्त र्इश्वर उसके हाथ, पैर, जिहवा इत्यादि अंगो को शक्ति दे देगा  िकवे बोले। मनुष्य ने जिन अंगो को उस बुरे कर्म में प्रयोग किया होगा, वे अंग तत्काल उसके विरूद्ध गवाही देने लगेंगे। उनकी गवाहियों को सुनकर वह सटपटा जाएगा। कुछ बुरे कर्म व्यक्ति के स्वयं से संबंधित और कुछ अन्य से संबंधित हो सकते हैं। अन्य से संबंधित दुष्कर्म मे जिन व्यक्तियों के खिलाफ उसने गलत काम किया होगा, वे बुलाए और वे अपनी गवाहियां पेश करेंगे। फिर तुरन्त उनके सामने चित्रगुप्त (पवित्र लेखक फरिश्तों) द्वारा क्षण-क्षण का तैयार किया गया रिकार्ड सामने रख दिया जाएगा। जीवन का सम्पूर्ण रिकार्ड देखकर मनुष्य बोल उठेगा कि भला यह कैसा रिकार्ड हैं जो तैयार हो गया और हमे जान भी न सके। इसमें तो छोटी-बड़ी कोर्इ ऐसी चीज नही हैं जो हमने अंजाने मे भी की हो और वह दर्ज होने से छूट गर्इ हो (कुरआन, 18: 49)। इतने विस्तृत रिकार्ड को देखकर व्यक्ति कायल हो जाएगा  िकवह इसका भागी हैं। बुरा व्यक्ति अपने को कोसेगा। वह कहेगा कि काश! मुझे पुन: सांसारिक जीवन देकर भेज दिया जाता, तो अवश्य ही अच्छे कर्म करके आता (कुरआन, 39:58)। किन्तु यह तो मात्र उसकी इच्छा ही होगी। उसी समय नरक या स्वर्ग का फैसला सुना दिया जाएगा।

यही फैसले का वह अंतिम दिन है, जिसकी ओर समस्त ईश-दूत (महर्षिगण अर्थात पैग़म्बर) ध्यान दिलाते रहे। लेकिन मनुष्य ने ध्यान नही दिया और वह इसी सांसारिक जीवन को सब कुछ समझता रहा । वह इस भ्रम मे पड़ा रहा कि मरने के बाद पुन: इसी संसार में जीवन पाना है। ऐसा व्यक्ति कैसी-कैसी यातनाओ से पीड़ित होगा, आज वह उसकी कल्पना भी नही सकता। इसी प्रकार जिसने उस दिन मे विश्वास करके सतर्क जीवन बिताया और दूतों को कहना माना, सुकर्म किया उसके लिए स्वर्गलोक का शाश्वत सुखधाम हैं, जिसमें सुख ही सुख हैं।अथर्ववेद मे कहा गया: स्वर्गा लोका अमृतेन विष्ठा (18/4/4)

अर्थात स्वर्गलोक अमरता से परिपूर्ण हैं। 
वेदों मे स्वर्गलोक का विस्तृत वर्णन मिलता है। ऋग्वेद (9/113/11)मे यह कामना की गई हैं कि आनन्द और स्नेह जिस लोक मे वर्तमान रहते है, और जहां सभी कामनाएं इच्छा होते ही पूर्ण होती हैं। उसी अमरलोक में मुझे जगह दो।

इसी प्रकार की कामना अथर्ववेद (4/34/6) में भी की गई हैं। इसमें कहा गया हैं कि घी के प्रवाहवाली मधुरस के तटवाली, निर्मल जल से युक्त जल, दही और दूध्र से परिपूर्ण धाराएं मुझे प्राप्त हो। ऋग्वेद में यह भी कहा गया हैं कि अच्छा व्यक्ति स्वर्ग मे सुन्दर नारी प्राप्त करता है।

इसी प्रकार नरक का भी चित्र मिलता है। कहा गया हैं कि नरक अत्यन्त यातना का लोक है। वेदों, मनुस्मृति, भागवत महापुराण इत्यादि में नरक की भयानकता और विकरालता पढ़ कर मन अत्यंत भयाकुल हो उठता हैं और उससे बचने की विकलता पैदा हो जाती हैं। यही भावना मूल्यावान भी हैं और इसके बिना हम इहलोक मे भी शान्ति नहीं पा सकते हैं।



श्रीमद्भागवत महापुराण के पंचम स्कन्ध के अनुसार अट्ठाईस प्रकार के नरक है। आत्मा का हनन करनेवाले, दुराचारी, पापी, असत्य-गामी लोग नरक को प्राप्त होते है। (ऋ0 4/5/5 एवं यजु0 40/3) यह नियमगत स्थिति मृत्यु के प्श्चात आत्मा की है।नरक को कौन लोग जाते हैं और स्वर्ग को कौन? इन विषयों पर धर्मग्रन्थों में काफी विस्तृत चर्चा है। कुरआन तो इस विषय मे अनुपम है।कुरआन बार-बार नरक के दृश्य को सामने लाता है और तर्क देकर मनुष्य को सत्यमार्गी बनाना है। काश! सारे मनुष्य इस ग्रन्थ को पढ़ते और समझने का यत्न करते।

लेखक : डा0 मकसूद आलम सिद्दीक
Source : http://www.islamsabkeliye.com/info-details?id=205

Saturday, September 1, 2012

नफ़ाबख्श बनिए और लोगों के दिलों पर राज कीजिए Spiritual Love

मुसीबतें इंसान के जीवन का हिस्सा हैं। मुसीबतें कभी अपनी ग़लती की वजह से आती हैं और कभी दूसरों की वजह से। मुसीबतें जब दूसरों की ग़लतियों की वजह से आती हैं तो लोग बहुत शोर मचाकर बताते हैं कि फ़लां शख्स या फ़लां पार्टी बड़ा ज़ुल्म कर रही है लेकिन मुसीबतें जब ख़ुद उसकी अपनी ग़लती की वजह से आती हैं तो वह इक़रार तक नहीं करता कि यह मुसीबत मेरी ग़लती की वजह से आई है। यह इंसान की आम फ़ितरत है। आज के मुसलमानों का अमल भी यही है। यह एक बड़ी कमी है और इसका बुरा असर यह पड़ता है कि समस्या हमेशा ज्यों की त्यों बनी रहती है और वह समय के साथ बढ़ती भी रहती है।
दूसरे जो कर रहे हैं, उसे हम बदल नहीं सकते लेकिन अपने आप को हम जब चाहे तब बदल सकते हैं। अगर हम ख़ुद को बदल लेते हैं तो हमारे प्रति दूसरों का व्यवहार बदलने लगता है। यह भी एक सच्चाई है।
अपने आप को बदल कर हम दूसरों को बदल देते हैं। अपनी समस्याओं को हल करने का प्रैक्टिकल तरीक़ा यही है।

धरने प्रदर्शन समस्या का हल नहीं हैं
आप समस्या को कभी धरने प्रदर्शन और ग़ुस्से से हल नहीं कर सकते। आप राजनेताओं से मांग कर सकते हैं लेकिन वे जो भी फ़ैसला लेते हैं उसके पीछे जनता का लाभ और न्याय नहीं होता बल्कि उनका अपने राजनीतिक नफ़े-नुक्सान का गणित होता है। जिसे जिसके समर्थन में लाभ नज़र आता है। वह उसी का समर्थन करता है। आप देखेंगे कि एक लीडर हिन्दू है लेकिन वह मुसलमानों के समर्थन में खड़ा है और हिन्दुओं पर गोली चलवा रहा है और आप ऐसा भी पाएंगे कि एक लीडर मुसलमान है लेकिन वह मुसलमानों के खि़लाफ़ और हिन्दुओं के साथ खड़ा है। जब राजनीति का यह रूप बन चुका हो तो फिर न्याय तो किसी के साथ होना ही नहीं है। ऐसे में जिसके पास धन और संगठन की शक्ति होगी। उसी की बात ऊपर रहेगी। यह समाज के लिए कोई शुभ लक्षण नहीं है।

मुसलमानो ! हक़ अदा करो
यह मुसलमानों की ज़िम्मेदारी थी कि वे समाज में न्याय को आम करें।
हमें यह मिलना चाहिए, यह हमारा हक़ है लेकिन फ़लां समाज के लोग हमें हमारा हक़ नहीं मिलने देते। मुसलमानों की यह एक आम शिकायत है।
दूसरा समाज हमें हमारा हक़ नहीं मिलने दे रहा है लेकिन हम अपने आप को और अपनी औलाद को उनका जो हक़ ख़ुद दे सकते हैं। उसे उन्हें देने से कौन रोक रहा है ?
अल्लाह ने मां-बाप की जायदाद में लड़कों के साथ लड़कियों का हिस्सा भी रखा है और यह हिस्सा एक मुसलमान अपनी लड़कियों को जब चाहे तब दे सकता है।
क्या मुसलमान अपनी लड़कियों को अपनी जायदाद में हिस्सा देते हैं ?
अल्लाह ने निकाह के वक्त मुसलमान मर्द पर पत्नी को मेहर देना निश्चित किया है। पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने और उनके साथियों ने हमेशा मेहर नक़द अदा किया है।
क्या हम अपनी पत्नी को मेहर की रक़म निकाह के वक्त देते हैं ?
जो मेहर निकाह के वक्त अदा होना चाहिए, उसे तलाक़ के वक्त अदा किया जाता है और तलाक़ के केस चंद होते हैं और बाक़ी केस में तो पत्नियों का मेहर शौहर पर उधार ही रह जाता है और इसी हाल में वह मर जाता है। मरने के बाद पत्नी उसे माफ़ न करे तो क्या करे ?
अपनी जायदाद में लड़कियों को हिस्सा देने वाले और निकाह के वक्त मेहर नक़द अदा करने वाले मुसलमान भी हमारे समाज में मौजूद हैं लेकिन वे बहुत कम हैं।
इसी तरह मस्जिद का भी हक़ है कि मुसलमान उसमें नमाज़ क़ायम करें।
क़ुरआन का भी हक़ है कि उसे पढ़ा जाए, उसे समझा जाए, उसके बताए रास्ते पर चला जाए।
हमारे माल का भी हम पर हक़ है कि हम उसमें से हर साल ज़कात निकालें और उसके बाद भी कोई रिश्तेदार और पड़ोसी हमें परेशान नज़र आए तो हम उसे सदक़ा (दान) और क़र्जे हसना दें, उसे उपहार दें। पड़ोसी का धर्म चाहे कुछ भी हो।
हमारे बच्चों का भी हम पर हक़ है कि हम उन्हें पढ़ाएं और उन्हें सही समझ दें।
हमारी सेहत का भी हम पर हक़ है कि हम बीमारों की सेवा करें।
हमारे दोस्तों, पड़ोसियों और हमारे रिश्तेदारों और सभी मिलने जुलने वालों का हम पर अल्लाह ने हक़ मुक़र्रर किया है।
हमें यह देखना होगा कि हम ये हक़ कितने और कैसे अदा कर रहे हैं ?

अगर हम नमाज़ पढ़ना चाहें, क़ुरआन पढ़ना चाहें, ज़कात और सदक़ा देना चाहें, अपनी बेटियों और अपनी पत्नियों को उनका हक़ देना चाहें, अपने पड़ोसियों से अच्छा बर्ताव करना चाहें, बीमारों की सेवा करना चाहें, अपने आप को बदलना चाहें तो कौन सा संघ, दल और परिषद आड़े आ रहा है ?
कोई भी नहीं, लेकिन फिर भी हम वे हक़ अदा नहीं करते , जिन्हें हम पर अल्लाह ने वाजिब और लाज़िम ठहराया है।
जब हम अपने अल्लाह की ही नहीं सुन रहे हैं तो फिर उसके बन्दे भला हमारी कैसे सुन सकते हैं ?

दुनिया वालों के दिल अल्लाह की मुठ्ठी में हैं
तुम एक अल्लाह के सामने झुकोगे तो सारी दुनिया के दिल तुम्हारे लिए नर्म हो जाएंगे।
ग़लती मुसलमानों की अपनी है और उसे सुधारना भी हमें ख़ुद ही है।
परेशानी यह नहीं है कि मुसीबतें आ रही हैं बल्कि सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि अपनी तबाही के लिए ज़िम्मेदार हम ख़ुद हैं लेकिन दोष दे रहे हैं दूसरों को।
हमारे मां-बाप हमसे ख़ुश होते, वे हमें दुआएं दे रहे होते। अपनी बहनों को हम अपने मां-बाप से अपने घर, खेत और खलिहान में हिस्सा दिलवा रहे होते, अपनी बीवी और बेटियों को अपनी जायदाद में हिस्सा दे रहे होते, अपने बच्चों को पढ़ा रहे होते, अपने पड़ोसियों के हम कुछ काम आ रहे होते तो ये सब काम हमें और हमारे परिवार को मज़बूत कर चुके होते। ये काम हमारी छवि को भी समाज में बेहतर बनाते।
हम मज़बूत होते तो हम पर ज़ुल्म कौन कर पाता ?
अपनी कमज़ोरी के ज़िम्मेदार हम ख़ुद हैं
हमें मानना होगा कि ख़ुद को कमज़ोर बनाने वाले हम ख़ुद हैं।
हमें मानना होगा कि एक इसलाम में दर्जनों फ़िरक़े खड़े करने वाले हम ख़ुद हैं।
हमें मानना होगा कि सारी फ़िरक़ेबंदी और जहालत को दूर करने वाले ‘क़ुरआन,सीरत और सुन्नत‘ को न समझने वाले और उनके खि़लाफ़ चलने वाले हम ख़ुद हैं।
दीन की सही समझ रखने वाले और हक़ अदा करने वाले मुसलमान भी हमारे दरम्यान हैं लेकिन वे कम हैं। नेकी और भलाई का रिवाज और सही-ग़लत की तमीज़ आज भी उन्हीं की वजह से बाक़ी है। हरेक तबक़ा और हरेक समुदाय उन्हें आदर देता हुआ मिल जाएगा।
ये वे लोग हैं जो मुसलमानों को हमेशा सियासी पार्टियों का मोहरा न बनने के लिए और बुराईयों से तौबा करने के लिए कहते हैं। बुराईयों से तौबा हमने की नहीं और सारी सियासी पार्टियों के झंडे हमने और पकड़ लिए। मज़हबी फ़िरक़ेबंदी के साथ मुसलमानों में सियासी अखाड़ेबाज़ी भी होने लगी। बंटे हुए लोग अब और बंट गए।
इसलाम हमें एकता और भाईचारा सिखाता है और हमारा हरेक क़दम इसी के खि़लाफ़ उठ रहा है।

दोस्त-दुश्मन सबके लिए दुआ करो
किसी संघ, दल और परिषद के लोग हौआ नहीं हैं। ये लोग भी आम इंसान हैं। इनमें से कुछ हमारे टीचर हैं। जो हमें ईमानदारी से पढ़ाते हैं। इनमें से कुछ लोग हमारे साथ कारोबार करते हैं। जो ईमानदारी से हमें हमारा पेमेंट देते हैं। इनमें से कुछ लोग डॉक्टर हैं। जो हमारा इलाज करते हैं। ये लोग हमारी शादियों में आते हैं और हम इनकी ख़ुशी और ग़म में शरीक होते हैं। ये लोग हमारे पड़ोसी हैं। जो बात दूसरे इंसानों को प्रभावित करती है, वह इन्हें भी प्रभावित करती है।
अच्दा बर्ताव हमेशा अच्छा असर छोड़ता है। हमने कब इनके लिए अपनी नमाज़ में दुआ की ?, कब इनके साथ हमने अच्छा बर्ताव किया ?
हमने इनके लिए दुआ की होती और इनसे कहा होता कि हम आपकी अमानत आपकी सेवा में लाए हैं तो इनसे हमारे रिश्तों की कैफ़ियत आज कुछ और होती।

बुराई को भलाई से दूर करो
हम इनसे डर रहे हैं और इनके पास जाकर देखो तो पता चलता है कि ये बेचारे हमसे डरे हुए हैं। नुक्सान का डर नफ़रत और ग़ुस्सा पैदा करता है। ग़ुस्सा अक्ल को खा जाता है। ऐसे में जो भी फ़ैसला लिया जाता है, वह ग़लत होता है और उसका नतीजा भी ग़लत ही निकलता है। उनका फ़ैसला भी ग़लत और हमारा फ़ैसला भी ग़लत और अंजाम देश की तबाही। गेहूं के साथ घुन की तरह दूसरे भी पिस रहे हैं।
क़ुरआन (23:96) कहता है कि ‘बुराई को उस ढंग से दूर करो जो सबसे उत्तम हो।‘
इन्हें ईद पर अपने घर बुलाओ। इन्हें शीर सिवईं खिलाओ। ये पास आएंगे तो इनके दिल का डर निकलेगा। डर जाएगा तो नफ़रत और ग़ुस्सा भी जाएगा और साथ में बहुत सी ग़लतफ़हमियां भी चली जाएंगी लेकिन उनकी कुछ शिकायतें तो जायज़ भी होंगी। उन्हें दूर करना होगा।

कितने ही केस ऐसे हैं कि जब हम संघ, दल और परिषद के लोगों को मुसलमानों के काम आते हुए देखते हैं। ये वे मुसलमान होते हैं जिन्हें वे पर्सनली जानते हैं। वे मुसलमानों के ही नहीं बल्कि इसलाम के काम भी आते हैं। वे मस्जिद की तरफ़ भी आते हैं और वे मस्जिदें भी बनाते हैं। उनका यह हाल तो तब है जबकि अभी हमने उन्हें ढंग बुलाया ही नहीं। अल्लाह की मर्ज़ी, वह अपनी मस्जिदों को जिनसे चाहे आबाद कर दे।

हमें अपना नज़रिया बदलना होगा
कमी संघ, दल और परिषद के लोगों की नहीं है। अगर हम उन्हें अपने व्यवहार से प्रभावित नहीं कर पाए हैं तो कमी हमारी ख़ुद की है।
उनमें से कितने ही लोग हैं जो मुसलमान सूफ़ियों के पास जाते हैं बल्कि वे तो सैकड़ों साल से सूफ़ियों के मज़ार पर फूल और चादरें चढ़ा रहे हैं। उन्हें सूफ़ियों के मज़ारों से श्रद्धा है लेकिन हमसे नहीं है तो वजह सिर्फ़ यही है हमारा चरित्र और हमारा अमल उनसे मैच नहीं करता।
संघ, दल और परिषद के लोगों में श्रद्धा है लेकिन हमारे लिए नहीं है तो इसमें कमी उनकी नहीं है बल्कि हमारी अपनी है।
ये लोग भी नफ़रत के क़ाबिल नहीं हैं, ये लोग भी पराए नहीं हैं।
ये भी आदम की औलाद और उसी एक मालिक के बंदे हैं जिसके कि हम हैं। ये हमारे भाई और बहन हैं। अपने परिवार के किसी सदस्य से शिकायतों के बावजूद भी हम उसे सरे आम रूसवा कभी नहीं करते लेकिन संघ, दल और परिषद के लोगों के लिए हमारे जज़्बात बदल जाते हैं।
इसकी वजह सिर्फ़ यही है कि हम उन्हें अपने भाई और बहन की नज़र से, अपने परिवार की नज़र से नहीं देखते। राजनीतिक स्वार्थ ने हमारी नज़र बदल दी है। हमें अपनी नज़र और अपने नज़रिए को दुरूस्त करने की ज़रूरत है।
हर वक्त हम यही सोचते रहते हैं कि बस हमारा भला हो जाए।
मुसलमान का काम यह नहीं है बल्कि यह सोचना है कि हमसे दूसरों का भला हो जाए।

जो सेवा करता है, वह स्वयं ही महान हो जाता है। जो महान होता है, उसके सामने दूसरों का क़द ख़ुद कम हो जाता है।
अपना क़द ऊंचा दिखाने के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि दूसरों का सिर काट दिया जाए बल्कि इसका तरीक़ा यही है कि अपने आपको ऊंचा उठाया जाए।

अल्लाह से ऊंचा कौन होगा ?
और उसके अलावा कौन है जो इंसान को ऊंचा उठने का रास्ता दिखा सके ?
जो अल्लाह की तरफ़ बढ़ता है, वह ख़ुद ही ऊंचा उठता चला जाता है। हिन्दा ने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के चाचा हमज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु को क़त्ल करवाया और उनका सीना चीरकर उनका कलेजा चबाया। कितना बड़ा ज़ुल्म और कैसी ग़ैर इंसानी हरकत की गई लेकिन जब वे पैग़म्बर मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम विजय के बाद मक्का में दाखि़ल हुए तो उन्होंने उनके साथ क्या किया ?
उन्होंने उसे माफ़ कर दिया। उसकी तरह दूसरे भी थे जिन्होंने उनके सैकड़ों साथियों को बेवजह क़त्ल कर दिया था। पैग़म्बर मुहम्मद साहब स. ने उन तमाम क़ातिलों को माफ़ कर दिया। मक्का में आबाद हज़ारों जानी दुश्मनों को उन्होंने न सिर्फ़ माफ़ कर दिया बल्कि वह सम्पत्ति भी उनसे वापस न ली, जिसे उन्होंने मुसलमानों से जबरन हथिया लिया था। इसका नतीजा यह हुआ कि दुश्मन भी उनके दोस्त हो गए।
पैग़म्बर मुहम्मद साहब स. ने हमें नफ़रत के बजाय प्रेम और प्रतिशोध के बजाय माफ़ी का तरीक़ा सिखाया है। हम ख़ुद भी इसी तरीक़े पर चलें और दूसरों को भी यही तरीक़ा सिखाएं तो क्या हमारा कोई दुश्मन बाक़ी बचेगा ?
देखिए अल्लाह क्या हुक्म दे रहा है-
‘और भलाई और बुराई बराबर नहीं हो सकती, तुम बुराई को उस तरह दूर करो जो सबसे बेहतर हो, उस सूरत में तुम देखोगे कि तुम्हारे और जिस व्यकित के बीच दुश्मनी थी, मानो वह गहरा दोस्त बन गया है; और यह चीज़ केवल उन लोगों को मिलती है जो सब्र करते हैं और जो बड़े भाग्यशाली हैं।‘
-क़ुरआन 41,34-35
अल्लाह हमें भाग्यशाली बनने का रास्ता दिखा रहा है और हम हैं कि उसके दिखाए रास्ते पर क़दम बढ़ाने के लिए तैयार ही नहीं हैं।

कलिमे का अर्थ
कलिमा ‘ला इलाहा इल्-लल्लाह, मुहम्मदुर-रसूलुल्लाह‘ (अर्थात अल्लाह के सिवाय कोई इबादत के लायक़ नहीं है, मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं।)
पढ़ने का मतलब यही है कि हम अल्लाह के हुक्म पर चलें और उसके पैग़म्बर स. के तरीक़े पर चलें।
दुनिया और आखि़रत (परलोक) में कामयाबी का सूत्र यही है और आज से नहीं है बल्कि हमेशा से यही है।
क़ुरआन में ही नहीं बल्कि बाइबिल और वेद-उपनिषद में भी यही लिखा है।
नफ़ाबख्श बनिए और लोगों के दिलों पर राज कीजिए।
आज ज़मीन पर क़ब्ज़े के लिए मारामारी मची हुई है लेकिन दिल वीरान पड़े हैं,
दुश्मन भी दिल रखता है और दिल हमेशा प्यार का प्यासा होता है।
कौन है जो इस प्यास को बुझाए ?
कौन है जो लोगों के दिलों पर हुकूमत करे ?
ज़माने भर के दिलो-नज़र किसी का इन्तेज़ार कर रहे हैं।
दिल जीतने के लिए क़दम बढ़ाईये।

Sunday, August 26, 2012

जन्नत की हक़ीक़त और उसकी ज़रूरत पार्ट 1 Jannat



पैदाइश और मौत के बीच के वक्त का नाम ज़िंदगी है। 
वैज्ञानिक अभी तक समझ नहीं पाए हैं कि इस ज़मीन पर ज़िंदगी वुजूद में कैसे आई और क्यों आई ?
इसके बावजूद ज़िंदगी मौजूद है और अपनी रफ़्तार से रवां-दवां है। हरेक औरत मर्द बचपन में ऐसे सपने देखता है जो जवानी में टूट जाते हैं और वे बुढ़ापे में निराश हो कर मर जाते हैं। किसी को जीवन साथी नहीं मिलता और किसी को औलाद नहीं मिलती। जिन्हें जीवन साथी और औलाद मिल जाती है तो उनमें से बहुतों को उनसे मुहब्बत और वफ़ा नहीं मिलती। दोस्त भी यहां ग़द्दार निकल जाते हैं और आशिक़ और महबूबाएं भी यहां एक दूसरे की जान ले लिया करते हैं। 
मौत का बहाना कभी बीमारी और हादसे बनते हैं तो कभी दंगे और युद्ध। आदमी कभी अपनी ग़लती के सबब मारा जाता है और कभी वह बिना किसी ग़लती के ही महज़ दूसरों की नफ़रत की वजह से मार दिया जाता है। आज दुनिया में नफ़रत फैली हुई है और जंग की आग भड़क रही है और इसी के बीच लोग अपनी ज़िंदगी का वक्त पूरा कर रहे हैं।
दुनिया में न्याय नहीं है और कमज़ोर के लिए तो बिल्कुल भी नहीं है। दुनिया में शांति नहीं है और हरेक के लिए तो बिल्कुल भी नहीं है। दुनिया में हरेक को रोटी, कपड़ा और मकान मिलना चाहिए। सरकार और व्यवस्था इसीलिए बनाई जाती है लेकिन सरकार सबको रोटी, कपड़ा और मकान नहीं दे पाती। सरकार सबको सुरक्षा नहीं दे पाती। किसी किसी मुल्क में तो अपने नागरिकों की जान सरकार ही ले लेती है और उसकी सुनवाई दुनिया की किसी अदालत में नहीं होती। जिसका काम ज़ुल्म को रोकना था, अगर वही ज़ुल्म करे तो फिर उसे कौन रोक सकता है ?
जो सरकार जितनी ज़्यादा ताक़तवर होती है, वह उतनी ज़्यादा दूर तक जाकर मारती है। आज दुनिया में ताक़त का पैमाना यही है कि मारने वाले ने कितनी दूर जाकर कितने ज़्यादा लोगों को मारा है ?
जो सबसे ज़्यादा ताक़तवर सरकार होती है, वह विदेशों में भी जाकर मारती रहती है। इसके बावजूद वह अपना मक़सद शांति की स्थापना बताती है। सरकारें बात शांति की करती हैं लेकिन बनाती हैं तबाही के हथियार। ऐसे हथियार जो पल भर में ही दुनिया के किसी भी देश को मरघट में तब्दील कर दें। शांति तो मरघट में भी होती है।
क्या दुनिया जल्दी ही मरघट में तब्दील होने वाली है ?
सरकारों के बीच मची हुई विनाशकारी हथियारों की होड़ देखकर यह आशंका सिर उठाती है। हथियारों की ख़रीद फ़रोख्त आज मुनाफ़े का धंधा बन चुकी है। इसमें भारी मुनाफ़ा भी है और मोटा कमीशन भी। ख़रीदने और बेचने वालों के अलावा हथियारों के दलाल भी मुनाफ़े में रहते हैं। चंद लोगों के मुनाफ़े के लिए हज़ारों-लाखों लोगों को मरना पड़ता है।
हथियारों की बिक्री बढ़ाने के लिए डर पैदा किया जाता है। हथियारों के सौदागर किसी भी देश को कुछ हथियार गिफ़्ट कर देते हैं। उसका पड़ोसी देश डर जाता है। वह अपना डर दूर करने के लिए उससे बड़ा हथियार ख़रीद लेता है। उसका बड़ा हथियार देखकर पहले वाला देश और ज़्यादा बड़ा हथियार ख़रीद लेता है। जैसे जैसे इनके पास हथियार बढ़ते चले जाते हैं तो इनका डर कम होने के बजाय और ज़्यादा बढ़ता चला जाता है। सुरक्षा के नाम पर ख़रीदे गए ये हथियार नागरिकों को कभी सुरक्षा नहीं दे पाते बल्कि कभी कभी तो सरकारों के प्रमुख तक इन्हीं हथियारों के शिकार हो कर मर जाते हैं। मौत बहरहाल हरेक को आकर रहती है। दौलत, ओहदा और ताक़त, कोई चीज़ इंसान को मरने से नहीं बचा पाती। 
आदमी जीना चाहता है लेकिन उसे इस दुनिया में मरना ही पड़ता है। मौत ज़िंदगी का सबसे बड़ा सच है।
आदमी पैदा होता है, वह सपने देखता है, उसके सपने चकनाचूर हो जाते हैं, वह समझौतों पर समझौते करके ज़िंदगी गुज़ारता है, वह अन्याय झेलता है, वह जब तक जीता है, अशांति में जीता है और फिर एक दिन अचानक वह मर जाता है।
यह इंसान की लाइफ़ सायकिल है। हमारी नज़र के सामने तो बस इतनी ही है।
क्या इंसान की ज़िंदगी का कुल हासिल यही है कि वह उम्मीद और उमंग लेकर पैदा हो और ज़ुल्म सहकर और निराश होकर मर जाए ?
इंसान के सपनों और उसके अरमानों का क्या होगा ?,
अगर इन्हें पूरा नहीं होना था तो इन्हें इंसान के अंदर होना भी नहीं चाहिए था और अगर ये इंसान के अंदर पाए जाते हैं और हरेक इंसान के अंदर पाए जाते हैं तो फिर इन्हें पूरा भी होना चाहिए।
इंसान के अंदर पानी की प्यास जागती है तो कहीं न कहीं पानी भी होता ही है, चाहे वह नज़र के सामने हो या फिर किसी दूसरी जगह।
इंसान के अंदर न्याय और शांति की प्यास है तो फिर इन्हें भी कहीं न कहीं मौजूद ज़रूर होना चाहिए और अगर ये हमारी नज़र के सामने मौजूद न हों तो फिर कहीं और ज़रूर इन्हें मौजूद होना चाहिए।
आदमी ऐसी ज़िंदगी जीना चाहता है जो मौत के साए से आज़ाद हो। उसकी यह चाहत इस लोक में पूरी होती दिखाई न दे तो इस लोक से परे कहीं और पूरी होनी चाहिए।
सारे हादसों और ग़मों के बीच भी इंसान के अंदर आशा का एक दीप सदा जलता रहता है। उसे अपने अंदर से यह तसल्ली बराबर मिलती रहती है कि हौसला रख, एक दिन सब ठीक हो जाएगा।
‘एक दिन सब ठीक हो जाएगा‘ की उम्मीद के सहारे ही इंसान जीता रहता है, यहां तक कि बिना सब कुछ ठीक देखे ही वह मर जाता है। अगर उसके लिए यहां सब कुछ ठीक नहीं हुआ तो फिर उसे मर कर ज़रूर ऐसी दुनिया में जाना चाहिए जहां सब कुछ ठीक हो।
इंसान का मिज़ाज बताता है कि यह दुनिया उसके लिए एक नामुकम्मल दुनिया है।
हक़ीक़त में इंसान को एक मुकम्मल दुनिया की ज़रूरत है। एक ऐसी दुनिया जहां इंसान को शांति और न्याय मिले। उसकी ज़रूरतों के साथ उसकी उसकी ख्वाहिशें और उसके अरमान भी पूरे हों। जहां वह अपने प्यारों के साथ हमेशा जिए और उसे कभी मौत न आए। इस दुनिया को हरेक भाषा में कोई न कोई नाम ज़रूर दिया गया।  आज भी इसे जन्नत, स्वर्ग, बहिश्त और हैवेन के नाम से जाना जाता है।

क्या वास्तव में ऐसी दुनिया कहीं मौजूद है ?
इस का जवाब इस बात में पोशीदा है कि क्या हमारी नज़र हर चीज़ को देख सकती है ?
क्या हर जगह हमारी नज़र पहुंच चुकी है ?
हक़ीक़त यह है कि हमारी नज़र में जितनी चीज़ें आ सकती हैं, उससे बहुत बहुत ज़्यादा वे चीज़ें हैं जिन्हें देखने की ताक़त हमारी आंख में है ही नहीं। हम नज़र आ सकने वाली दुनिया की भी बहुत थोड़ी सी चीज़ों को ही देख पाए हैं। हमने कम देखा है और कम जाना है। जन्नत के इन्कार का कारण हमेशा यही बना है कि इंसान जन्नत को देख नहीं पाया। किसी चीज़ के इंकार की यह कोई ठोस वजह नहीं है कि जिसे देखा न जा सके, उसका इंकार कर दिया जाए। ख़ासकर तब जबकि वह इन्कार मानव जाति की सामूहिक प्राकृतिक इच्छा और ज़रूरत से टकराता हो।
अगर कुछ चीज़ें और कुछ जगहें हमारी नज़र की पकड़ से बाहर हैं तो फिर वहां कुछ भी हो सकता है। वहां वह मुकम्मल दुनिया भी हो सकती है जिसकी ज़रूरत हरेक इंसान को है। जिसे हरेक इंसान की फ़ितरत पहचानती है और जिसकी ख्वाहिश सबके  मन में हमेशा से मौजूद है। जन्नत को पा लेने की ख्वाहिश इंसान के मन में इतनी ज़बर्दस्त है कि जो लोग जन्नत का इन्कार करते हैं, उनकी ज़िंदगी की सारी भागदौड़ का हासिल भी यही होता है कि वे इसी दुनिया अपने लिए जन्नत बना लेना चाहते हैं। वे आलीशान इमारतें और बाग़ बनाते हैं और उनमें अपने लिए ऐश के सब सामान जुटाते हैं। इस कोशिश में वे जायज़-नाजायज़ कुछ भी नहीं देखते। यहां तक कि वे दूसरों का हक़ हिस्सा हड़पने से भी नहीं चूकते। अपनी ज़िंदगी को जन्नत बनाने के लिए वे दूसरों का जीवन नर्क बना कर रख देते हैं। बच्चों और लड़कियों का अपहरण करके उनसे भीख मंगवाना, वेश्यावृत्ति करवाना, नौजवानों को ड्रग्स का आदी बना देना और मानव अंगों का व्यापार करने से लेकर नक़ली दवाएं बनाने और मिलावटी चीज़ें बेचने तक सैकड़ों तरह के जुर्म आज हमारे समाज में मौजूद हैं और इन्हें बड़े संगठित तरीक़े से दुनिया भर में अंजाम दिया जा रहा है। जिनके नतीजे में करोड़ों लोगों की ज़िंदगी नर्क बनकर रह गई है।
यह सब क्या है ?
यह जन्नत के इन्कार का नतीजा है। उन्होंने अपनी ख्वाहिशों को तो जाना लेकिन इन ख्वाहिशों को जन्नत में पूरा होना है, यह नहीं जाना। इसीलिए उन्होंने अपनी ख्वाहिशों की पूर्ति के मामले में जल्दबाज़ी से काम लिया और दूसरों के साथ अपने लिए भी मुसीबतें खड़ी कर लीं।
इससे पता चलता है कि जन्नत की तलब इंसान की फ़ितरत में, उसके स्वभाव में कितनी गहराई तक पैवस्त है और यह भी पता चलता है कि जन्नत की तलब के बावजूद उसका इंकार कर दिया जाए तो यह दुनिया ज़ुल्म से भर जाती है। जन्नत का इन्कार इंसानी सोसायटी को नर्क बनाकर रख देता है। यह कोई मज़हबी विश्वास मात्र नहीं है कि इसके इक़रार या इन्कार से किसी पर कोई फ़र्क़ न पड़ता हो।
अपनी ख्वाहिशों की पूर्ति के लिए ज़ुल्म करने से आदमी तभी बाज़ रह सकता है जबकि वह जन्नत को मान ले और यह भी मान ले कि जन्नत को दुनिया में पाना मुमकिन नहीं है।
जन्नत के इक़रार के साथ ही जहन्नम के वुजूद को भी मानना पड़ता है और अपने ज़ुल्म के नतीजे में आग में जलने की कल्पना कौन ज़ालिम करना चाहेगा ?
जहन्नम या नर्क का विश्वास रखते हुए ज़ुल्म ज़्यादती करना संभव नहीं है। इसीलिए ज़ालिम लोगों ने अपनी आज़ादी बरक़रार रखने के लिए जन्नत और जहन्नम के वुजूद का हमेशा इन्कार किया है। ये लोग समाज में ऊँची हैसियत रखते हैं। उनके ख़याल को कम हैसियत के लोग बिना सोचे-समझे ही अपना लेते हैं। बड़े लोगों के अनुसरण में लोग गर्व का अनुभव करते हैं। यही कल्चराइज़ेशन की प्रॉसेस है। लोग नहीं जानते कि ऐसा करके वे ज़ालिमों की जड़ों को मज़बूत कर रहे हैं।

एक तरफ़ तो समाज ज़ालिमों की जड़ों को मज़बूत करे और दूसरी तरफ़ वह ज़ुल्म के ख़ात्मे की आस भी उन्हीं से रखे, तो यह कैसे संभव है ?
इससे भी आगे बढ़कर समाज के लोग इन्हें अपना नेता चुन लेते हैं। वहां पहुंचकर ये जनता को भूल जाते हैं और अपनी दुनिया को जन्नत बनाने के लिए न सिर्फ़ जनता का माल हड़प कर जाते हैं बल्कि व्यापारियों से मिलकर चीज़ें भी महंगी कर देते हैं और जनता पर नए टैक्स और लगा देते हैं।
जन्नत का इन्कार करने वाले लाखों लोग गुज़रे हैं। ज़िंदगी भर वे अपनी दुनिया को जन्नत बनाने की कोशिश करते रहे लेकिन उनकी दुनिया जन्नत न बन सकी।
आखि़र दुनिया जन्नत क्यों न बन सकी ?
मेडिकल साइंस की तरक्क़ी के बावजूद मौत आज भी इंसान के सिर पर उसी तरह मुसल्लत है जैसे कि वह पहले हुआ करती थी। यह मौत इंसान से उसके प्यारों को जुदा कर देती है। अपने परिवार वालों, रिश्तेदारों और साथियों से जुदा होने का दुख इंसान के सुख को बर्बाद कर देता है।
इस क़ुदरती वजह के अलावा भी कई वजहें हैं जिनकी वजह से दुनिया जन्नत नहीं बन सकती। इनमें एक बड़ी वजह यह है कि दुनिया में ऐसे लोग भी पाए जाते हैं जो दूसरों का हक़ छीन लेते हैं और अगर उनकी मुख़ालिफ़त की जाती है तो वे ज़ालिम अपने मुख़ालिफ़ों को मार डालते हैं। लोगों को ज़ुल्म से रोकने के लिए सरकार बनाई गई तो ये ज़ालिम सरकार में भी पहुंच गए और फिर सरकारें भी ज़ुल्म करने लगीं। यह रिवाज इतना आम हुआ कि यह नियम ही बन गया -‘पॉवर मेक्स करप्ट‘। जिसके पास जितनी शक्ति है, वह उतना ही करप्शन करता है और कर भी रहा है। 
आदमी ज़ुल्म और करप्शन करे तो उसे सरकार रोक सकती है लेकिन सरकार के ज़ुल्म और करप्शन को कौन रोक सकता है ?
ज़ुल्म और करप्शन करने वालों को जब तक रोका नहीं जाएगा तब तक यह दुनिया जन्नत नहीं बन सकती और ऐसा तब मुमकिन है जबकि ज़ालिम भ्रष्टाचारियों को पकड़ कर किसी अलग थलग जगह डाल दिया जाए, जहां वे अपने बुरे कामों की सज़ा भुगतते रहें। इस जगह को भी दुनिया वाले जहन्नम, नर्क, दोज़ख़ और हैल के नाम से जानते हैं।
दुनिया वालों को जन्नत तब नसीब होगी जबकि ज़ालिमों को जहन्नम नसीब हो। ज़ालिमों को छांटकर अच्छे लोगों से अलग करना बहुत ज़रूरी है और यह काम दुनिया में नहीं हो सका और न ही हो सकता है। इसीलिए यह दुनिया जन्नत नहीं बन सकी और न ही कभी बन सकती है।
इंसाफ़पसंद लोगों ने जब कभी ज़ालिमों को रोकना चाहा तो वे ख़ुद इनके ज़ुल्म का निशाना बन गए। ज़ालिमों के डर से या अपने किसी लालच की वजह से दुनिया में उनका साथ कम लोग ही दे पाए। आज ज़ालिम इतना ज़्यादा ताक़तवर है कि उसका ख़ात्मा करना और उसे उसके किए का बदला देना किसी इंसान के बस की बात नहीं है, जो कि इंसाफ़ का तक़ाज़ा है।
ज़ालिमों के वुजूद का ख़ात्मा एक सबसे बड़ी ज़रूरत है और यह ज़रूरत तब पूरी हो सकती है जब कोई एक ऐसी ताक़तवर हस्ती मौजूद हो जो दुनिया की सारी ताक़तों से बड़ी ताक़त हो और वह अपने स्वभाव से ही न्यायकारी हो। 
क्या वाक़ई ऐसी कोई ताक़त यहां मौजूद है ?
इस संबंध में पहली बात तो यही कही जा सकती है कि अगर किसी चीज़ की ज़रूरत साबित है तो फिर उसका वुजूद भी लाज़िमी तौर से होता ही है। विज्ञान की जितनी खोजें हुई हैं, उनका आधार यही है। विज्ञान की ताज़ा बहुचर्चित खोज ‘हिग्स बोसॉन‘ की खोज भी इसी तरह हुई है कि पहले इंसान की अक्ल ने उसके वुजूद की ज़रूरत को माना और फिर जब उसकी खोज की गई तो पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों ने देखा कि ‘हिग्स बोसॉन‘ हक़ीक़त में मौजूद है। हिग्स बोसॉन को ‘गॉड पार्टिकल‘ का नाम भी दिया गया। जो बात गॉड पार्टिकल के बारे में सही है, वही बात ख़ुद गॉड के बारे में भी सही है, जो कि सब ताक़तों से ऊपर एक सबसे बड़ी ताक़त है।
दूसरी अहम बात यह है कि उस सबसे बड़ी ताक़त में आस्था हरेक इंसान के स्वभाव का हिस्सा है, जिसे वह लेकर पैदा होता है। यह आस्था उसके अंदर उसके माहौल की देन नहीं है। यह भी आज एक वैज्ञानिक तथ्य है।
इस संबंध में तीसरी चीज़ वह निरीक्षण है, जो हम अपनी रोज़ाना की ज़िंदगी में करते रहते हैं। अपनी पैदाइश और अपनी मौत दोनों में इंसान मजबूर है। उसने पैदा नहीं होना चाहा लेकिन उसे पैदा होना पड़ा। पैदा होने के बाद वह मरना नहीं चाहता लेकिन उसे न चाहते हुए भी मरना पड़ता है।
पैदा होने और मरने में इंसान की इच्छा को कोई दख़ल नहीं है लेकिन फिर भी इंसान के पैदा होने और उसके मरने की व्यवस्था मौजूद है। उसके पैदा होने से लेकर मरने तक के दरम्यान उसके पालन पोषण की व्यवस्था भी मौजूद है। उसके खाने-पीने और सोने की व्यवस्था मौजूद है। उसके बाक़ी रहने के लिए नस्ल चलाने की व्यवस्था मौजूद है। नस्ल के बाक़ी रहने की व्यवस्था उन जीवों में भी क़ायम है जो कि इंसान के काम आते हैं। ज़मीन पर यह व्यवस्था क़ायम रहे, इसके लिए आसमान की चीज़ों में भी एक व्यवस्था मौजूद मिलती है। चांद, सूरज से लेकर आकाशगंगाओं तक हर जगह व्यवस्था है और यह एक सुव्यवस्था है।
व्यवस्था कभी व्यवस्थापक के बिना नहीं होती और इतनी बड़ी व्यवस्था तो किसी व्यवस्थापक के बिना हरगिज़ नहीं हो सकती।
अगर अपने पैदा होने और मरने की व्यवस्था ख़ुद इंसान ने नहीं की है तो फिर किसने की है ?
किसी ने तो बहरहाल यह व्यवस्था ज़रूर की है। यह महान विस्मयकारी व्यवस्था अपने व्यवस्थापक का पता बख़ूबी दे रही है। दुनिया उसे ईश्वर-अल्लाह-गॉड के नाम से जानती है।
ज़्यादातर वैज्ञानिकों ने भी ईश्वर के अस्तित्व को माना है और अब तो वैज्ञानिकों ने यह भी बता दिया है कि यह धरती अपने अंत की ओर बढ़ रही है। इस तरह क़ियामत या प्रलय अब कोई धार्मिक विश्वास मात्र नहीं रह गया है बल्कि एक ऐसा वैज्ञानिक तथ्य बन चुका है। जिसका इन्कार अब संभव नहीं है।
कैसा अजीब है कि जो इंसान अपनी शुरूआत भी नहीं जान पाया है, उसके सामने उसका अंत आ खड़ा हुआ है।
ऐसा क्यों हुआ ?
इसलिए ताकि धरती के अंत के साथ ही ज़ुल्मो-सितम का भी अंत हो जाए और ज़ालिमों का भी। धर्म यही बताता है और अक्ल भी यही बताती है कि 
‘हरेक अंत के बाद एक नई शुरूआत होती है।‘,
नई शुरूआत ही पुरानी समस्याओं को ख़त्म करती है। दुनिया के जन्नत न बन पाने में जितनी बाधाएं हैं, उन्हें भी नई शुरूआत ही ख़त्म करेगी।
क्या ज़ुल्म का यह सिलसिला हमेशा ऐसे ही चलता रहेगा या कभी ख़त्म होगा ?
यह सवाल जो हरेक इंसान के मन में उठता रहता है। उसका हल यही है। इसके अलावा ज़मीन व आसमान की व्यवस्था पर ध्यान दिया जाए तो भी यह सवाल हल हो जाता है।
क्या यह दुनिया अलल टप्प तरीक़े से ख़ुद ब ख़ुद चल रही है या इसमें कोई योजना और व्यवस्था काम कर रही है ?
ज़ाहिर है कि यह दुनिया अलल टप्प तरीक़े से नहीं चल रही है बल्कि एक व्यवस्थित तरीक़े से यहां सब काम हो रहे हैं। जब यहां हरेक काम एक व्यवस्थित तरीक़े से हो रहा है तो ज़ुल्म के ख़ात्मे की भी कोई न कोई व्यवस्था ज़रूर होगी।

‘जिस चीज़ का शुरू है, उसका आखि़र भी ज़रूर होता है।‘, यह एक नियम है। ज़ुल्म की भी एक शुरूआत है, इसलिए इसका अंत भी निश्चित है।
ज़ुल्म का ख़ात्मा करने के लिए जो सबसे बड़ी ताक़त हमें चाहिए, जिसे ईश्वर-अल्लाह-गॉड कहते हैं, वह भी मौजूद है और ज़ुल्म का ख़ात्मा भी निश्चित है तो फिर देर किस बात की है ?
ईश्वर-अल्लाह-गॉड ज़ालिमों को ख़त्म क्यों नहीं कर देता ?
वह उन्हें उखाड़ क्यों नहीं फेंकता ?
ये कुछ सवाल स्वाभाविक रूप से हमारे सामने आते हैं। ये सवाल जितने पुराने हैं, इनके जवाब भी उतने ही पुराने हैं। ईश्वर के मौजूद होने को जानने और ज़ुल्म के ख़ात्मे की कोशिश करने वालों ने इन सवालों का जवाब हमेशा दिया है। विषय के माहिर से सवाल किया जाए तो जवाब हमेशा सही मिलता है।
ईसा मसीह एक ऐसे ही महापुरूष थे, जो जानते थे कि जगत में ईश्वरीय व्यवस्था किस तरह काम कर रही है ? 
उन्होंने यह ज्ञान सबको दिया है और इसीलिए ज़ालिमों ने उन्हें जो कष्ट दिए हैं, उन्हें सारी दुनिया जानती है। इस कठिन प्रश्न को उन्होंने एक मिसाल के ज़रिये हल किया है-
‘‘उसने उन्हें एक और दृष्टांत दिया कि स्वर्ग का राज्य उस मनुष्य के समान है जिसने अपने खेत में अच्छा बीज बोया। पर जब लोग सो रहे थे तो उसका बैरी आकर गेहूं के बीच जंगली बीज बोकर चला गया। जब अंकुर निकले और बालें लगीं तो जंगली दाने भी दिखाई दिए। इस पर गृहस्थ के दासों ने आकर उससे कहा, हे स्वामी, क्या तूने अपने खेत में अच्छा बीज न बोया था ? फिर जंगली दाने के पौधे उसमें कहां से आए ?
उसने उनसे कहा, यह किसी बैरी का काम है।
दासों ने उससे कहा, क्या तेरी इच्छा है कि हम जाकर उनको बटोर लें ?
उसने कहा, नहीं, ऐसा न हो कि जंगली दाने के पौधे बटोरते हुए उनके साथ गेहूं भी उखाड़ लो। कटनी तक दोनों को एक साथ बढ़ने दो, और कटनी के समय मैं काटनेवालों से कहूंगा; पहिले जंगली दाने के पौधे बटोर कर जलाने के लिए उनके गट्ठे बांध लो, और गेहूं को मेरे खत्ते में इकठ्ठा करो।‘‘ -मत्ती 20, 24-30
किसान खेती करता है तो इससे उसका मक़सद गेहूं की पैदावार होती है न कि खरपतवार की। समझदार किसान बहुत बार जंगली पौधों को पनपने देता है ताकि गेहूं के पौधों को कोई नुक्सान न पहुंचे। कटाई के समय गेहूं को अलग और जंगली पौधों को अलग कर लिया जाता है। ठीक ऐसे ही एक समय आएगा जब अच्छे लोगों को बुरे लोगों से अलग कर लिया जाएगा। अच्छे लोग हर तरह से सुरक्षित रहेंगे जबकि बुरे लोगों को जलना पड़ेगा। 
ईश्वर ने यह दुनिया इसीलिए बनाई है कि दुनिया में अच्छे लोग पैदा हों। अच्छे लोगों की वजह से ही बुरे लोगों को ढील दे दी जाती है। ईश्वर अल्लाह दयालु है। बुरे लोग अच्छे लोगों के संपर्क में आते हैं और इस तरह दोनों को अच्छे कर्म करने का मौक़ा दिया जाता है। अच्छे लोग बुरे लोगों को नेकी की नसीहत करके भलाई की राह दिखाते हैं। ऐसा करने से हमेशा कुछ लोग अपना रास्ता बदल देते हैं। इस तरह ये लोग हमेशा की आग में जलने से बच जाते हैं। लोगों को हमेशा नर्क की आग में जलने से बचा लेना एक बहुत अच्छा कर्म है। कुछ लोग नहीं भी मानते और कुछ लोग नेक नसीहत करने वालों के साथ ज़ुल्म ज़्यादती भी करते हैं। इन हालात में अच्छे लोग उनके बर्ताव पर सब्र करते हैं, उन्हें ख़ुद भी माफ़ कर देते हैं और उनके लिए ख़ुदा से भी यही दुआ करते हैं कि वह उन्हें सद्-बुद्धि दे। बुरे लोग जब भी अच्छे लोगों के संपर्क में आते हैं तो अच्छे लोगों के चरित्र में हमेशा निखार पैदा होता है और उनका दर्जा बुलंद होता है। 
यह भी एक हक़ीक़त है कि बहुत से बुरे लोगों की नस्ल में अच्छे लोग भी पैदा हुए हैं। दुनिया में बुरे लोगों को बाक़ी रखने की एक वजह यह भी होती है और ऐसा भी होता है कि जब एक ज़ालिम को काफ़ी अर्सा हुकूमत करते हुए हो जाता है और लोग उसके ज़ुल्म से परेशान हो जाते हैं और अच्छे लोग कोशिश के बावजूद उसे उखाड़ नहीं पाते तो उसे एक दूसरा बुरा आदमी उखाड़ डालता है। बुरे और ज़ालिम लोग भी बिल्कुल बेकार नहीं हैं। वे न होते तो अच्छे लोगों में दया, क्षमा, धैर्य, त्याग और बलिदान के बहुत से गुणों का ठीक से विकास ही न हो पाता। अच्छे लोगों के साथ अच्छाई करना आसान है लेकिन बुरे लोगों के साथ अच्छा बर्ताव करना हरेक के बस की बात नहीं है।

इतिहास में बहुत से अच्छे लोग हुए हैं, जिन्हें आज हम महापुरूष मानते हैं। उनकी बड़ाई का पैमाना आज हमारे पास यही है कि जिस महापुरूष ने जितने बड़े ज़ालिम का सामना किया है, वह उतना ही बड़ा महापुरूष माना जाता है और बड़ा ज़ालिम कौन है ?, यह जानने का भी हमारे पास यही तरीक़ा है कि जिसने जितने अच्छे आदमी पर ज़ुल्म किया, वह उतना ही बड़ा ज़ालिम माना गया। 
इस प्रॉसेस में अच्छे लोगों को बहुत सा नुक्सान भी उठाना पड़ता है। यह सही है लेकिन ज़िंदगी इसी का नाम है। हम जानते हैं कि हमारी गाड़ी हमारे गैराज में महफ़ूज़ रहेगी। इसके बावजूद भी हम उसे सड़क पर दौड़ाते हैं क्योंकि वह सड़क पर चलने के लिए ही बनाई गई है। एक गाड़ी का परीक्षण और उसकी योग्यता का उपयोग सड़क पर चलाए बिना संभव नहीं है।
बुरा आदमी अच्छे आदमी की आज़माइश का सामान है और अच्छा आदमी बुरे आदमी की। दुनिया में दोनों का परीक्षण किया जा रहा है और इस ज़िंदगी का मक़सद यही है। क़ुरआन (67-1 व 2) यही बताता है- 
‘बड़ा बरकत वाला है वह जिसके हाथ में सारी बादशाही है और वह हर चीज़ की सामर्थ्य रखता है। जिसने पैदा किया मौत और ज़िंदगी को, ताकि तुम्हारी परीक्षा करे कि तुम में कर्म की दृष्टि से कौन सबसे अच्छा है। वह प्रभुत्वशाली, बड़ा क्षमाशील है।‘
‘यह जीवन एक परीक्षा है।‘ 
यह बात हमारी समझ में आ जाए तो हमारे बहुत से सवाल हल हो जाते हैं और तभी हम परीक्षा में सफल होने के लिए जी जान से जुट सकेंगे। जो लोग इस तथ्य पर ध्यान नहीं देते वे कन्फ़्यूज़न और इन्कार में ही ज़िंदगी गुज़ार कर चले जाते हैं। इसका नतीजा परलोक में क्या निकलेगा ?, इसे क़ुरआन सूरा 82 में आज भी देखा जा सकता है-
‘जबकि आसमान फट जाएगा, और जबकि समुद्र बह पड़ेंगे, और जबकि क़ब्रें उखाड़ दी जाएंगी। तब हर व्यक्ति जान लेगा जिसे उसने प्राथमिकता दी और पीछे डाला।
हे मनुष्य ! किस चीज़ ने तुझे अपने उदार प्रभु के विषय में धोखे में डाल रखा है ?
जिसने तेरा प्रारूप बनाया, फिर नख शिख से तुझे दुरूस्त किया और तुझे संतुलन प्रदान किया। जिस रूप में चाहा उसने तुझे जोड़कर तैयार किया।
कुछ नहीं, बल्कि तुम बदला दिए जाने को झुठलाते हो। जबकि तुम पर निगरानी करने वाले नियुक्त हैं, प्रतिष्ठित लिपिक, वे जान रहे होते हैं जो कुछ भी तुम करते हो।
निस्संदेह वफ़ादार लोग नेमतों में होंगे। और निश्चय ही दुराचारी भड़कती हुई आग में, जिसमें वे बदले के दिन प्रवेश करेंगे, और उसमें वे ओझल नहीं होंगे।
और तुम्हें क्या मालूम कि बदले का दिन क्या है ? फिर तुम्हें क्या मालूम कि बदले का दिन क्या है ?
जिस दिन कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के लिए किसी चीज़ का अधिकारी न होगा, मामला उस दिन अल्लाह ही के हाथ में होगा।‘
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‘हालांकि आखि़रत (परलोक) अधिक उत्तम और शेष रहने वाली है। निस्संदेह यही बात पहले की किताबों में भी है, इबराहीम और मूसा की किताबों में।‘ -क़ुरआन 87, 17-19
क़ुरआन का दावा है कि जन्नत और जहन्नम एक हक़ीक़त है और यह हक़ीक़त पहले की किताबों में भी मौजूद है। हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की किताब बाइबिल में आज भी मौजूद है और उसमें  हैवेन और हैल का ज़िक्र मिलता है। हज़रत इबराहीम अ. की किताब लुप्त बताई जाती है। हो सकता है कि किसी समय में उनकी किताब भी हमारे सामने आ जाए। बाइबिल में उनकी जो शिक्षाएं सुरक्षित हैं, उनमें परलोक का बयान मिलता है।
हज़रत इबराहीम अ. आज से लगभग 4 हज़ार साल पहले इराक़ के ‘उर‘ नगर में पैदा हुए थे। जिसका वर्णन वेदों में भी मिलता है। वेदों का ज्ञान ब्रह्मा जी ने दिया है, ऐसा माना जाता है। कुछ स्कॉलर्स के अनुसार वेदों की रचना का काल भी यही है। वेदों में भी जन्नत और जहन्नम का बयान स्वर्ग-नर्क के नाम से मिलता है।

वेद में स्वर्ग
अनस्या पूतं पवनेन शृद्धा शुचयः शुचिमपि यन्ति लोकम्।
नेषां शिश्न प्र दहति जातवेदाः स्वर्ग लोके वहू स्त्रैणमेषाम्।।
जो शरीर हड्डी से युक्त षट्कोण वाला नहीं है, वे सब यज्ञ के कर्त्ता वायु द्वारा पवित्र हुए उज्जवल लोक में जाते हैं। इसके भोग साधन इन्द्रिय को अग्नि भस्म नहीं करते। वहां पुण्य फल के भोग रूप अनेक भोगों का समूह इन्हें प्राप्त होता है।
-अथर्ववेद 4, 34, 2
घृह्रदा मधुकुलाः सुरोदका क्षीरेण पूर्णा उदकेन दध्ना।
ईतास्त्वा धारा उपयन्तु सर्वा स्वर्गलोके मधुमत् पिन्चमाना।
उप त्व तिष्ठन्तु पुष्करिणी समन्ताः।6
हे सर्व यज्ञकर्त्ता ! घृतयुक्त सरोवर वाली, मधु से भरी किनारे वाली दुग्ध, दही और जल से पूर्ण धाराएं मधुमय पदार्थों को पुष्ट करती हुई, तुझे स्वर्ग लोक में प्राप्त हों।
-अथर्ववेद 4, 34, 6
स्वर्गा लोका अमृतेन विष्ठा
स्वर्ग लोक अमरता से व्याप्त है अर्थात् वे मरणरहित हैं।
-अथर्ववेद 18,4,4
वेद में नर्क
पापासः सन्तो अनृता असत्या इदं पदमजनता गभीरम्।
जो पापी और बुरे कर्म करने वाले हैं, उनके लिए यह अथाह गहराई वाला स्थान बना है।
-ऋग्वेद 4,5,5
अथहुर्नारकं लोकं निरून्धानस्य याचिताम्
याचना करने पर न देने वालों का नरक लोक है। - अथर्ववेद 12,4,36
बौद्धिक और शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर जन्नत का वुजूद साबित है। जन्नत हमारी ख्वाहिश है क्योंकि वही हमारी ख्वाहिशों के पूरी होने की जगह है। जन्नत में हम अपने प्रभु परमेश्वर से रू ब रू मुलाक़ात कर पाएंगे। जो कि हमारी सबसे बड़ी ख्वाहिश है।
जन्नत के इन्कार करने का मतलब यह नहीं है कि जन्नत नहीं है बल्कि इसका मतलब केवल यह है कि इन्कार करने वाला या तो अपनी ख्वाहिशों को पहचानने में भी अक्षम है या फिर वह अपने जीवन के विषय में गंभीर नहीं है। बिना तर्क और बिना प्रमाण के जन्नत के बारे में जो ऊल जलूल बातें वे करते हैं, उन्हें देखकर भी इसी धारणा की पुष्टि होती है।
.......जारी

Tuesday, August 21, 2012

जब आरएसएस के पूर्व प्रमुख के. सी. सुदर्शन जी ईद की नमाज़ अदा करने के लिए चल दिए मस्जिद की ओर Tajul Masajid

ताजुल मसाजिद भोपाल
सुबह क़रीब 8 बजे के. सी. सुदर्शन जी ने अरेरा कॉलोनी स्थित संघ के कार्यालय समिधा से अपने सुरक्षा दस्ते को ताजुल मसाजिद चलने को कहा। रवाना होते ही जैसे ही सुदर्शन जी ने कहा कि वे नमाज़ पढ़ेंगे तो सुरक्षाकर्मियों ने इसकी ख़बर ट्रैफ़िक पुलिस को दी और पुलिस के आला अफ़सरों ने सुदर्शन जी को रोकने की क़वायद शुरू कर दी। उनके क़ाफ़िले को बीच रास्ते रूकवा लिया गया लेकिन सुदर्शन जी मानने को तैयार नहीं थे। सुदर्शन जी का तर्क था कि ईश्वर की इबादत से कौन सा मज़हब रोकता है ?
पुलिस अधीक्षक अरविन्द सक्सेना ने नगरीय प्रशासन एवं विकास मंत्री बाबूलाल गौर को पूरे घटनाक्रम की जानकारी दी और आकर उन्हें समझाने को कहा।
बाबूलाल गौर जी ने पहुंच कर सुदर्शन जी से बातचीत की और उन्हें लेकर लौट गए। इसके बाद सुदर्शन जी ने जाकर शहर क़ाज़ी और कुछ अन्य मित्रों के घर जाकर ईद की मुबारकबाद दी।
दैनिक जागरण, मेरठ संस्करण 21 अगस्त 2012 में द्वितीय पृष्ठ पर प्रकाशित समाचार के आधार पर

के. सी. सुदर्शन जी का नमाज़ के लिए आरएसएस कार्यालय से निकलना एक अच्छी ख़बर है। ऐसी ख़बरें राम रहीम के बंदों के एक होने की आशा को बल देती हैं। के. सी. सुदर्शन जी अकेले थे, सो उन्हें जैसे तैसे रोक दिया गया लेकिन आने वाले समय में पालनहार ईश्वर के भक्तों को उसके सामने साष्टांग/सज्दा करने से रोक पाना संभव न रहेगा क्योंकि तब वे बहुत होंगे।

Thursday, August 16, 2012

एक दान-पर्व है ईद-उल-फितर Eid 2012

खुशियां बांटने का त्यौहार 

ईद-उल-फितर इस्लाम धर्म के अनुयायियों का प्रमुख पर्व है। ईद-उल-फितर अरबी भाषा का शब्द है। ईद का तात्पर्य है खुशी। फितर का अभिप्राय है दान। इस प्रकार ईद-उल-फितर ऎसा दान-पर्व है, जिसमें खुशी बांटी जाती है तथा जो आर्थिक दृष्टि से इतने कमजोर हैं कि जिन्हें रोटी-रोजी के भी लाले पड़े रहते हैं और खुशी जिनके लिए ख्वाब की तरह होती है, तो ऎसे वास्तविक जरूरतमंद लोगों को फितरा (दान) देकर उनके ख्वाब को हकीकत में बदला जाता है और वे भी खुशी मनाने के काबिल हो जाते हैं। फितरा अदा करने के शरीअत (इस्लामी धर्म-संहिता) के अनुसार निर्धारित मापदंड है। 

फितरा एक निश्चित वजन में अनाज (मुख्यत: गेहूं) के रूप में होता है अथवा उस अनाज की तत्कालीन कीमत के रूप में धन-राशि में। हर साहिबे-खैर (साधन-सम्पन्न) और साहिबे-जर (धन संपन्न) मुसलमान को फितरा अदा करना जरूरी है। यहां तक कि ईद-उल-फितर की नमाज के लिए जाने से पहले भी किसी औलाद का जन्म हो जाए, तो उस नवजात संतति का भी फितरा (निर्धारित मात्रा में अनाज अथवा उतनी कीमत के रूप में धनराशि) अदा करना होता है। हर सामथ्र्यवान मुसलमान का फर्ज है कि ईद-उल-फितर की नमाज के पहले फितरा अदा कर दे। फितरा अदा करने के पीछे जो आधार है, उसकी जड़ में जज्बा-ए-इंसानियत अर्थात् मानवता की भावना है।

ईद का मतलब चूंकि खुशी होता है और खुशी की सार्थकता तब ही है, जब इसमें भूखे को भोजन, प्यासे को पानी और निर्वस्त्र को वस्त्र मिल जाएं। धन-संपन्न के पास तो इतने साधन होते हैं कि वह सुविधाएं जुटा लेता है और खुशियों का पूरा बाजार ही अपने घर ले आता है, लेकिन निर्धन और निस्सहाय के लिए तो दो वक्त की रोटी नसीब होना ही मुश्किल होता है। नौकरी, आकाश-कुसुम (गुल-ए-फलक) हो गई है और मेहनतकशों के लिए मजदूरी का काम भी रेगिस्तान में पानी की तलाश की तरह हो गया है। ऎसे अभावग्रस्त लोगों के लिए रोटी, कपड़ा मुहैया कराने के लिए फितरा अर्थात दान की मानवीय व्यवस्था है। ताकि ईद की प्रासंगिकता सिद्ध हो सके। 

इस प्रकार ईद-उल-फितर खुशियों में शिरकत का त्योहार है। एक वाक्य में कहें, तो पवित्र रमजान माह की विदाई के बाद आने वाला त्योहार ईद-उल-फितर इंसानियत और बंधुत्व का बैंक है, जिसमें खुशियों के खातेदार और आनंद अंशधारक होते हैं। रूपक अलंकार या उपमा के धरातल पर कहें तो ईद-उल-फितर सदाशयता और सद्भावना की क्रियाशील "कंपनी" है, जिसमें प्रेम की पूंजी तथा शफक्कत (अपनत्व) के "शेयर" होते हैं। सारांश यह है कि ईद-उल-फितर में सौहार्द और सहयोग ही शेयर-होल्डर्स होते हैं, जो खुशियों की खनक के रूप में बंधुत्व का बोनस बांटते रहते हैं। वैसे भी सनातन सत्य तो यही है कि हम सभी परस्पर प्रेम और सद्भाव से रहें और मिलजुलकर तथा नेक कमाई से प्राप्त रोटी को आपस में बांटकर खाएं। ईद-उल-फितर रोटी को बांटकर खाने के साथ खुशियों में शिरकत तथा दु:ख-दर्द में साझेदारी का पैगाम देती है। 

पावन ऋग्वेद के दसवें मण्डल के एक सौ सत्रहवें सूक्त के छठे मंत्र में भी उल्लेख है "केवलाघो भवति केवलादी" अर्थात् जो अपनी रोटी अकेले खाता है, वह पाप करता है, अर्थात् रोटी बांटकर खाओ। इस प्रकार ईद-उल-फितर में निहित पवित्र कुरआन के संदेश और ऋग्वेद के मंत्र में बड़ी समानता है। 
अजहर हाशमी
प्राध्यापक व साहित्यकार
Source : http://www.patrika.com/article.aspx?id=20511

Monday, August 13, 2012

पवित्रता : जीवन का मूल उददेश्य


मनुष्य के आचरण पर उसके विचारों का सीधा प्रभाव पड़ता है। इसलिए मनुष्य को लगातार अपने विचारों का विश्लेषण करते रहना चाहिए कि उसके मन में किस तरह के विचार मौजूद हैं ?
मन में ज़्यादा समय से जमे हुए विचार गहरी जड़े जमा लेते हैं, उनसे मुक्ति पाना आसान नहीं होता।
ईश्वर और महापुरूषों के बारे में हमारे जो विचार होते हैं, वे भी हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव डालते हैं। किसी बात को ईश्वर का आदेश या किसी बात को महापुरूष का कर्म मानते हुए यह ज़रूर चेक कर लें कि कहीं वह ‘पवित्रता‘ के विपरीत तो नहीं है ?


ईश्वर पवित्र है और महापुरूषों का आचरण भी पवित्र होता है। जो बात पवित्रता के विरूद्ध होगी, वह ईश्वर के स्वरूप और महापुरूष के आचरण विपरीत भी होगी, यह स्वाभाविक है। इस बात को जानना निहायत ज़रूरी है।
ऐसा करने के बाद चोरी, जारी और अन्याय की वे सभी बातें ग़लत सिद्ध हो जाती हैं, जिन्हें अपने स्वार्थ पूरा करने के लिए ग़लत तत्वों ने धर्मग्रन्थों में लिख दिया है।
जो ग़लत काम महापुरूषों ने कभी किए ही नहीं हैं, उन्हें उनके लिए दोष देना ठीक नहीं है। उन कामों का अनुसरण करना भी ठीक नहीं है।
सही बात को सही कहना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है ग़लत बात को ग़लत कहना। ऐसा करने के बाद ही हम ग़लत बात के प्रभाव से बच सकते हैं।
हम ईश्वर और महापुरूषों के बारे में पवित्र विचार रखेंगे तो हमारा आचरण भी पवित्र हो जाएगा।
यदि हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में चोरी, झूठ, अन्याय और भ्रष्टाचार मौजूद है तो हम सब को अपने अपने विचारों पर नज़र डाल कर देखनी चाहिए कि ईश्वर और महापुरूषों के बारे में हमारी मान्यताएं क्या हैं ?
यह जीवन तो फिर भी किसी न किसी तरह कट जाएगा लेकिन अगर इसी अपवित्रता की दशा में हमारी मौत हो जाती है तो हम पवित्र लोक के दिव्य जीवन में प्रवेश न कर सकेंगे, जिसके बारे में हरेक महापुरूष ने बताया है और जिसे पाना इस जीवन के कर्म का मूल उददेश्य है।

Saturday, July 7, 2012

समाज सुधार के लिए इंसान को उसका मक़सद याद दिलाना होगा

हरेक चीज़ का एक मक़सद होता है।
इंसान का भी एक मक़सद है।
हरेक मक़सद हासिल करने के लिए एक रास्ता होता है।
इंसान के लिए भी एक रास्ता है, जिस पर चलकर उसे अपना मक़सद हासिल करना है।
जब इंसान अपना मक़सद ही भूल जाता है तो फिर वह रास्ते को भी भूल जाता है। आज इंसान अपने मक़सद को भूल गया है। इसीलिए वह अपने रास्ते से हट गया है। रास्ते से हटने के बाद इंसान भटकता फिर रहा है। इंसान भटक कर जिन राहों पर निकल गया है, उन पर चलने से उसकी मुसीबतें रोज़ ब रोज़ बढ़ती चली जा रही हैं।
आज समाज ने अपने लिए नशा, ब्याज और व्यभिचार भी जायज़ कर लिया है। कोई संसार को त्याग कर जंगल चला गया है। जंगल में कुछ हाथ न लगा तो कुछ लोग वापस आ गए हैं और अब वे माल बेचकर मुनाफ़ा कमा रहे हैं। इनके पास भारी भीड़ है। भीड़ देखकर ख़ुदग़र्ज़ राजनीति ने इन्हें अपना मोहरा बना लिया है। पहले राजनीति और व्यापार धर्म के अधीन हुआ करते थे लेकिन आज धर्म को भी राजनीति और व्यापार के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा है। इसके लिए सबको अपने मतलब के हिसाब से धर्म की व्याख्या करनी पड़ी। एक धर्म की सैकड़ों व्याख्याओं ने सैकड़ों मतों को जन्म दिया। इन मतों ने मानवता को बांटकर रख दिया। हरेक मत का मठ बना और फिर ये मठाधीश भी राजनीति और व्यापार करने लगे। बुद्धिजीवियों ने इन मठाधीशों को चांदी काटते देखा तो उन्होंने समझा कि मठाधीशों ने धर्म की रचना अपना मतलब पूरा करने के लिए की है। वे नास्तिक बन गए। वे कहने लगे-‘ईश्वर का वुजूद ही नहीं है और न ही परलोक है। बस अच्छे इंसान बन जाओ, यही बहुत है।‘
ईश्वर, जिसने पैदा किया है, उसी को भुला दिया। परलोक, जहां जाना है, उसी मंज़िल को भुला दिया लेकिन इसके बावजूद इंसान यह नहीं भुला पाया कि इंसान को अच्छा बनना चाहिए।
...लेकिन इंसान अच्छा कैसे बने ?
अच्छाई क्या है और बुराई क्या है ?, कोई इंसान इसे अपनी बुद्धि से तय नहीं कर सकता। समाज के सबसे ज़्यादा बुरे फ़ैसले सबसे ज़्यादा शिक्षित लोग करते हैं। जो लोग हुकूमत करते हैं। उन्हें जनता अच्छा समझ कर चुनती है। बाद में उनके फ़ैसले जनता के हक़ में बुरे साबित होते हैं।
नशा बेशक एक बुराई है। भांग और शराब की बिक्री आम है। क़ानूनी रूप से इन्हें बेचना जायज़ है। आदमी अपने अंदर महसूस करता है कि नशा करना और नशीली चीज़ें बेचना तो क़ानूनी रूप से नाजायज़ होना चाहिए। क़ानून भी ग़लत चीज़ को सही बताए तो फिर ग़लत को ग़लत कौन बताएगा ?
धर्म स्थलों पर भी नशीली चीज़ें चढ़ावे में चढ़ रही हैं। धर्म ही नशे को बढ़ावा देगा तो फिर नशे का नाश कौन करेगा ?
धार्मिक त्यौहारों पर जुआ खेला जाता है।
धर्म के जयकारे लगाकर अधर्म के काम किए जा रहे हैं। विधवाओं के पुनर्विवाह को पाप बताया जा रहा है। वे मौत से बदतर ज़िंदगी जी रही हैं।
इंसान अपना मक़सद भूल जाए तो यही सब होता है। समाज को सुधारना है तो उसे उसका मक़सद याद दिलाना होगा। उसे मक़सद याद आएगा तो उसे अपना पैदा करने वाला भी याद आएगा और अपनी मंज़िल भी। जब इंसान अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ना चाहेगा तो उसे अच्छा बनना ही पड़ेगा। इंसान को अच्छा बनने के लिए उन सभी धर्म-ग्रन्थों को पढ़ना होगा जिनमें ईश्वर और परलोक की बात पाई जाती है। वे सब हीरे-मोतियों से ज़्यादा क़ीमती बातों से भरे हुए हैं। कोई भी ग्रन्थ सत्य से ख़ाली नहीं है लेकिन हरेक ग्रन्थ में सत्य की मात्रा अलग अलग है। किसी में थोड़ा सत्य है, किसी में ज़्यादा और किसी में पूरा। जिस ग्रन्थ में जितना ज़्यादा सत्य है, वह मानव जाति की उतनी ही ज़्यादा समस्याएं हल करने मे सक्षम है। सत्य के अंश से मनुष्य के जीवन की अंश मात्र समस्याएं हल होती है जबकि पूर्ण सत्य से मनुष्य की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और आध्यात्मिक सभी समस्याएं हल हो जाती हैं।
समस्याओं के हल का स्तर ही यह तय करता है कि किस ग्रन्थ में सत्य अंश मात्र है और किस ग्रन्थ में पूर्ण है ?
कोई भी मनुष्य पूर्ण सत्य नहीं जानता। पूर्ण सत्य को जानने वाला केवल एक ईश्वर है। सत्य का अंश मनुष्य द्वारा लिखे ग्रन्थों में भी मिल सकता है लेकिन पूर्ण सत्य केवल उसी ग्रन्थ में मिलेगा, जिसे ईश्वर ने मनुष्यों के मार्गदर्शन के लिए अवतरित किया होगा।

नशा, ब्याज और व्यभिचार को यही ग्रन्थ बुराई घोषित करता है। विधवा पुनर्विवाह को यही ग्रन्थ पुण्य बताता है। जीने का सही तरीक़ा यही ग्रन्थ सिखाता है।
यही ग्रन्थ इंसान को उसका सच्चा मक़सद याद दिलाता है और उसे पाने का सीधा रास्ता भी बताता है। जब से यह ग्रन्थ धरती पर अवतरित हुआ है, तब से ही यह अक्षय है। इसमें से न कुछ घटा है और न ही कुछ बढ़ा है। अक्षय परमेश्वर के गुण को उसकी वाणी में भी साफ़ तौर से देखा जा सकता है।
क्या ऐसा अद्भुत ग्रन्थ देखकर भी कोई यह कह सकता है कि इसे मनुष्य ने बनाया है ?
इस अक्षय और अजर अमर ग्रन्थ के पूर्ण व्यवहारिक आदर्श भी मौजूद हैं जबकि दूसरे ग्रन्थों का कोई पूर्ण व्यवहारिक आदर्श नहीं है। वे केवल उपदेश मात्र हैं। उनमें ऐसे उपदेश भी हैं। जो दुनिया भर में मशहूर हैं लेकिन उस उपदेश पर न तो उपदेश देने वाला स्वयं चला और न ही सुनने वाला चला। कोई चलना भी चाहे तो उस पर चल ही नहीं सकता।
ईश्वर की वाणी पर चलना संभव होता है क्योंकि ईश्वर जानता है कि मनुष्य की ताक़त कितनी है !
इंसान इस वाणी पर चले तो वह मतों के मकड़जाल से निकल जाएगा। धर्म के नाम पर राजनीति और व्यापार करने वाले यह बात बख़ूबी जानते थे। इसीलिए वे ईश्वर की वाणी के विरूद्ध भ्रामक बातें फैलाते रहे। भ्रम में कोई इंसान देर तक फंसा नहीं रह सकता। सत्य सामने आ ही जाता है।
आज सत्य सबके सामने है। सत्य में ही मुक्ति है।
समाज सुधार के लिए आत्म सुधार ज़रूरी है और आत्म सुधार के लिए सत्य को स्वीकार करना ज़रूरी है।
भ्रष्टाचार आदि के खि़लाफ़ बहुत से आंदोलन चले और उनमें करोड़ों लोग भी जुड़े लेकिन आखि़रकार वे सब फ़ेल हो गए क्योंकि उन आंदोलनों के नेताओं को पता ही नहीं था कि भीतरी बदलाव के बिना बाहरी बदलाव लाना संभव नहीं है। आज भी नेता यही ग़लती बार बार दोहरा रहे हैं। ऐसा वे जानबूझ कर कर रहे हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि लोगों की समस्याएं वास्तव में ही हल हो जाएं। वे लोगों के नेता बने रहना चाहते हैं, बस।
जीवन मात्र खाने-पीने और सांस लेने का ही नाम नहीं है। मौत के बाद भी ज़िंदगी है और वह अनन्त है। जो दुनिया में ख़ुद को अच्छा न बना सका, उसका अंजाम परलोक में भी ख़राब होगा। दुनिया का दुख बर्दाश्त किया जा सकता है लेकिन अनन्त जीवन में आदमी दुख भोगता रहे। यह दुख असहनीय होगा।
हरेक इंसान कल वही काटेगा, जो वह आज बो रहा है। इसलिए हरेक इंसान ख़ूब देख ले कि वह आज क्या बो रहा है ?
सारे सुधार की जड़ यही आत्मविश्लेषण है। अनन्त जीवन पाने के लिए भी यह ज़रूरी है। अनन्त जीवन देने वाले परमेश्वर को पाना ही इंसान का सच्चा मक़सद है।

Wednesday, June 13, 2012

इस्लाम आ चुका है आपके जीवन में

एक हिंदू भाई ने घोषित कर दिया कि इस्लाम हिंदू धर्म की छाया प्रति है।
आज कहना सबके लिए आसान हो गया है। इसीलिए कोई कुछ भी कह सकता है।
अगर कुछ साधारण सी बातों पर भी विचार कर लिया जाए तो उन्हें अपनी ग़लती आसानी से समझ में आ सकती है और अगर वे न समझें तब भी कम से कम दूसरों की समझ में तो आ ही जाएगी।

1. हिंदू धर्म की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा आज तक तय नहीं है जबकि इस्लाम की परिभाषा तय है।
2. हिंदू भाई बहनों के लिए कर्तव्य और अकर्तव्य कुछ भी निश्चित नहीं है। एक आदमी अंडा तक नहीं छूता और अघोरी इंसान की लाश खाते हैं जबकि दोनों ही हिंदू हैं।
जबकि एक मुसलमान के लिए भोजन में हलाल हराम निश्चित है।
3. हिंदू मर्द औरत के लिए यह निश्चित नहीं है कि वे अपने शरीर को कितना ढकें ?, एक अपना शरीर ढकता है और दूसरा पूरा नंगा ही घूमता है।
जबकि मुस्लिम मर्द औरत के लिए यह निश्चित है कि वे अपने शरीर का कितना अंग ढकें ?
4. हिंदू के लिए उपासना करना अनिवार्य नहीं है बल्कि ईश्वर के अस्तित्व को नकारने के बाद भी लोग हिंदू कहलाते हैं।
जबकि मुसलमान के लिए इबादत करना अनिवार्य है और ईश्वर का इन्कार करने के बाद उसे वह मुस्लिम नहीं रह जाता।
5. केरल के हिंदू मंदिरों में आज भी देवदासियां रखी जाती हैं और औरतों द्वारा नाच गाना तो ख़ैर देश भर के हिंदू मंदिरों में होता है। इसे ईश्वर का समीप पहुंचने का माध्यम माना जाता है।
जबकि मस्जिदों में औरतों का तो क्या मर्दों का भी नाचना गाना गुनाह और हराम है और इसे ईश्वर से दूर करने वाला माना जाता है।
6. हिंदू धर्म ब्याज लेने से नहीं रोकता जिसकी वजह से आज ग़रीब किसान मज़दूर लाखों की तादाद में मर रहे हैं।
जबकि इस्लाम में ब्याज लेना हराम है।
7. हिंदू धर्म में दान देना अनिवार्य नहीं है। जो देना चाहे, दे और जो न देना चाहे तो वह न दे और कोई चाहे तो दान में विश्वास ही न रखे।
जबकि इस्लाम में धनवान पर अनिवार्य है कि वह हर साल ज़रूरतमंद ग़रीबों को अपने माल में से 2.5 प्रतिशत ज़कात अनिवार्य रूप से दे। इसके अलावा फ़ितरा आदि देने के लिए भी इस्लाम में व्यवस्था की गई है।
8. हिंदू धर्म में ‘ब्राह्मणों को दान‘ देने की ज़बर्दस्त प्रेरणा दी गई है।
जबकि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह व्यवस्था दी है कि हमारी नस्ल में से किसी को भी सदक़ा-ज़कात मत देना। दूसरे ग़रीबों को देना। हमारे लिए सदक़ा-ज़कात लेना हराम है।
9. सनातनी हिंदू हों या आर्य समाजी, दोनों ही मानते हैं कि वेद के अनुसार पति की मौत के बाद विधवा अपना दूसरा विवाह नहीं कर सकती।
जबकि इस्लाम में विधवा को अपना दूसरा विवाह करने का अधिकार है बल्कि इसे अच्छा समझा गया है कि वह दोबारा विवाह कर ले।
10. सनातनी हिंदू हों या आर्य समाजी, दोनों ही यज्ञ करने को बहुत बड़ा पुण्य मानते हैं।
जबकि इस्लाम में यह पाप माना गया है कि आग में खाने पीने की चीज़ें जला दी जाएं। खाने पीने की चीज़ें या तो ख़ुद खाओ या फिर दूसरे ज़रूरतमंदों को दे दो। ऐसा कहा गया है।
11. सनातनी हिंदू और आर्य समाजी, दोनों ही वर्ण व्यवस्था को मानते हैं और वर्णों की ऊंच नीच और छूत छात को भी मानते हैं।
जबकि इस्लाम में न वर्ण व्यवस्था है और न ही छूत छात। इस्लाम सब इंसानों को बराबर मानता है और आजकल हिंदुस्तानी क़ानून भी यही कहता है और हिंदू भाई भी इसी इस्लामी विचार को अपनाने की कोशिश कर रहे हैं।
12. सनातनी हिंदू और आर्य समाजी, दोनों ही वैदिक धर्म की परंपरा का पालन करते हुए चोटी रखते हैं और जनेऊ पहनते हैं।
जबकि इस्लाम में न तो चोटी है और न ही जनेऊ।
13. सनातनी हिंदू और आर्य समाजी, दोनों ही वेद के अनुसार 16 संस्कार को मानते हैं, जिनमें एक विवाह भी है। इस संस्कार के अनुसार पत्नी अपने पति के मरने के बाद भी उसी की पत्नी रहती है और उससे बंधी रहती है। पति तो पत्नी का परित्याग कर सकता है लेकिन पत्नी उसे त्याग नहीं सकती।
जबकि इस्लाम में निकाह एक क़रार है जो पति की मौत से या तलाक़ से टूट जाता है और इसके बाद औरत उस मर्द की पत्नी नहीं रह जाती। वह अपनी मर्ज़ी से अपना विवाह फिर से कर सकती है। इस्लाम में पति तलाक़ दे सकता है तो पत्नी के लिए भी पति से मुक्ति के लिए ख़ुलअ की व्यवस्था की गई है।
अब हो यह रहा है कि सनातनी और आर्य समाजी, दोनों ही ख़ुद वेद की व्यवस्था से हटकर इस्लामी व्यवस्था को फ़ोलो कर रहे हैं। विधवाओं के पुनर्विवाह वे धड़ल्ले से कर रहे हैं। जब मुसलमानों ने अपने निकाह को विवाह की तरह संस्कार नहीं बनाया तो फिर हिंदू भाई अपने संस्कार को इस्लामी निकाह की तरह क़रार क्यों और किस आधार पर बना रहे हैं ?
जिस व्यवस्था पर विश्वास है, उस पर चलने के बजाय वे इस्लामी व्यवस्था का अनुकरण क्यों कर रहे हैं ?
14. विवाह को संस्कार मानने का नतीजा यह हुआ कि विधवा औरतों को हज़ारों साल तक बड़ी बेरहमी से जलाया जाता रहा। यहां तक कि इस देश में मुसलमान और ईसाई आए और उनके प्रभाव और हस्तक्षेप से हिंदुओं की चेतना जागी कि सती प्रथा के नाम पर विधवा को जलाना धर्म नहीं बल्कि अधर्म है और तब उन्होंने अपने धर्म को उनकी छाया प्रति बना लिया और लगातार बनाते जा रहे हैं।
15. विवाह की तरह ही गर्भाधान भी एक हिंदू संस्कार है। जब किसी पति को गर्भाधान करना होता है या अपनी पत्नि से किसी अन्य पुरूष का नियोग करवाना होता है तो वह 4 पंडितों को बुलवाता है और वे चारों पंडित पूरे दिन बैठकर वेदमंत्र पढ़ते हैं। उसके घर में खाते पीते हैं। उसके घर में यज्ञ करते हैं। उस यज्ञ से बचे हुए घी को मलकर औरत नहाती है और फिर पूरी बस्ती में घूम घूम कर बड़े बूढ़ों को बताती है कि आज उसके साथ क्या होने वाला है ?
बड़े बूढ़े अपनी अनुमति और आशीर्वाद देते हैं, तब जाकर पति महाशय या कोई अन्य पुरूष उस औरत के साथ वेद के अनुसार सहवास करता है।
जबकि इस्लाम में गर्भाधान संस्कार ही नहीं है और पत्नि को किसी ग़ैर मर्द के साथ सोने के लिए बाध्य करना बहुत बड़ा जुर्म और गुनाह है।
मुसलमान पति पत्नी जब चाहे सहवास कर सकते हैं। शोर पुकार मचाकर लोगों को इसकी इत्तिला देना इस्लाम में असभ्यता और पाप है।
आजकल हिंदू भाई भी इसी रीति से अपनी पत्नियों को गर्भवती कर रहे हैं क्योंकि यही रीति नेचुरल और आसान है।
धर्म सदा ही नेचुरल और आसान होता है।
मुश्किल में डालने वाली चीज़ें ख़ुद ही फ़ेल हो जाती हैं। लोग उनका पालन करना चाहें तो भी नहीं कर पाते। शायद ही आजकल कोई गर्भाधान संस्कार करता हो। इस्लामी रीति से पैदा होने के बावजूद इस्लाम पर नुक्ताचीनी करना केवल अहसानफ़रामोशी है। जिसका कारण अज्ञानता है।
16. सनातनी हिंदू और आर्य समाजी, दोनों के नज़्दीक धर्म यह है कि पत्नि से संभोग तब किया जाए जबकि उससे संतान पैदा करने की इच्छा हो। इसके बिना संभोग करने वाला वासनाजीवी और पतित-पापी माना जाता है।
जबकि इस्लाम में इस तरह की कोई पाबंदी नहीं है। इस्लामी व्यवस्था यही है कि पति पत्नी जब चाहें तब आनंद मनाएं। उन्हें आनंदित देखकर ईश्वर प्रसन्न होता है। आजकल हिंदू भाई भी इसी इस्लामी व्यवस्था पर चल रहे हैं।
18. शंकराचार्य जी के अनुसार हरेक वर्ण और लिंग के लिए वेद को पढ़ने और पढ़ाने की आज़ादी नहीं है।
जबकि क़ुरआन सबके लिए है। किसी भी रंगो-नस्ल के नर नारी इसे जब चाहंे तब पढ़ सकते हैं।
19. इसी के साथ हिंदू धर्म अर्थात वैदिक धर्म में चार आश्रम भी पाए जाते हैं।
ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, सन्यास आश्रम
अति संक्षेप में 8वें वर्ष बच्चे का उपनयन संस्कार करके उसे वेद पढ़ने के लिए गुरूकुल भेज दिया जाए और बच्चा 25 वर्ष तक वीर्य की रक्षा करे। इसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहते हैं। लेकिन हमारे शहर का संस्कृत महाविद्यालय ख़ाली पड़ा है। शहर के हिंदू उसमें अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजते ही नहीं जबकि शहर के कॉन्वेंट स्कूल हिंदू बच्चों से भरे हुए हैं। जहां सह शिक्षा होती है और जहां वीर्य रक्षा संभव ही नहीं है, जहां वेद पढ़ाए ही नहीं जाते,
जहां धर्म नष्ट होता है, हिंदू भाई अपने बच्चों को वहां क्यों भेजते हैं ?
ख़ैर हमारा कहना यह है कि आजकल हिंदू भाई ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन नहीं करते और न ही वे 50 वर्ष का होने पर वानप्रस्थ आश्रम का पालन करते हुए जंगल जाते हैं और सन्यास आश्रम भी नष्ट हो चुका है।
आज हिंदू धर्म के चारों आश्रम नष्ट हो चुके हैं और हिंदू भाई अब अपने घरों में आश्रम विहीन वैसे ही रहते हैं जैसे कि मुसलमान रहते हैं क्योंकि इस्लाम में तो ये चारों आश्रम होते ही नहीं।

ज़रा सोचिए कि अगर इस्लाम हिंदू धर्म की छाया प्रति होता तो उसमें भी वही सब होता जो कि हिंदू धर्म में हज़ारों साल से चला आ रहा है और उन बातों से आज तक हिंदू जनमानस पूरी तरह मुक्ति न पा सका।
चार आश्रम, 16 संस्कार, विधवा विवाह निषेध, नियोग, वर्ण-व्यवस्था, छूत छात, ब्याज, शूद्र तिरस्कार, देवदासी प्रथा, ईश्वर के मंदिर में नाच गाना, चोटी, जनेऊ और ब्राह्मण को दान आदि जैसी बातें जो कि हिंदू धर्म अर्थात वैदिक धर्म में पाई जाती हैं, उन सबसे इस्लाम आखि़र कैसे बच गया ?
इन बातों के बिना इस्लाम को हिंदू धर्म की छाया प्रति कैसे कहा जा सकता है ?

हक़ीक़त यह है कि इस्लाम किसी अन्य धर्म की छाया प्रति नहीं है बल्कि ख़ुद ही मूल धर्म है और पहले से मौजूद ग्रंथों में धर्म के नाम पर जो भी अच्छी बातें मिलती हैं वे उसके अवषेश और यादगार हैं, जिन्हें देखकर लोग यह पहचान सकते हैं कि इस्लाम सनातन काल है, हमेशा से यही मानव जाति का धर्म है।
ईश्वर के बहुत से नाम हैं। हरेक ज़बान में उसके नाम बहुत से हैं। उसके बहुत से नामों में से एक नाम ‘अल्लाह‘ है। यह नाम क़ुरआन में भी है और बाइबिल में भी और संस्कृत ग्रंथों में भी।ईश्वर का निज नाम यही है लेकिन उसके निज नाम को ही भुला दिया गया। ईष्वर के नाम को ही नहीं बल्कि यह भी भुला दिया गया कि सब एक ही पिता की संतान हैं। सब बराबर हैं। जन्म से कोई नीच और अछूत है ही नहीं। ऐसा तब हुआ जब आदम और नूह (अ.) को भुला दिया गया जिनका नाम संस्कृत ग्रंथों में जगह जगह आया है। इन्हें यहूदी, ईसाई और मुसलमान सभी पहचानते हैं। हिंदू भाई इन्हें ऋषि कहते हैं और मुसलमान इन्हें नबी कहते हैं। इनके अलावा भी हज़ारों ऋषि-नबी आए और हर ज़माने में आए और हर क़ौम में आए। सबने लोगों को यही बताया कि जिसने तुम्हें पैदा किया है तुम्हारा भला बुरा बस उसी एक के हाथ में है, तुम सब उसी की आज्ञा का पालन करो। ऋषियों और नबियों ने मानव जाति को हरेक काल में एक ही धर्म की शिक्षा दी। । वे सिखाते रहे और लोग भूलते रहे। आखि़रकार पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस दुनिया में आए और फिर उसी भूले हुए धर्म को याद दिलाया और ऐसे याद दिलाया कि अब किसी के लिए भूलना मुमकिन ही न रहा।
जब दबंग लोगों ने कमज़ोरों का शोषण करने के लिए धर्म में बहुत सी अन्यायपूर्ण बातें निकाल लीं, तब ईश्वर ने क़ुरआन के रूप में अपनी वाणी का अवतरण पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अन्तःकरण पर किया और पैग़म्बर साहब ने धर्म को उसके वास्तविक रूप में स्थापित कर दिया। जिसे देखकर लोगों ने ऊंच नीच, छूतछात और सती प्रथा जैसी रूढ़ियों को छोड़ दिया। बहुतों ने इस्लाम कहकर इस्लाम का पालन करना आरंभ कर दिया और उनसे भी ज़्यादा वे लोग हैं जिन्होंने इस्लाम के रीति रिवाज तो अपना लिए लेकिन इस्लाम का नाम लिए बग़ैर। इन्होंने इस्लामी उसूलों को अपनाने का एक और तरीक़ा निकाला। इन्होंने यह किया कि इस्लामी उसूलों को इन्होंने अपने ग्रंथों में ढूंढना शुरू किया जो कि मिलने ही थे। अब इन्होंने उन्हें मानना शुरू कर दिया और दिल को समझाया कि हम तो अपने ही धर्म पर चल रहे हैं।
ये लोग हिंदू धर्म के प्रवक्ता बनकर घूमते हैं। ऐसे लोगों को आप आराम से पहचान सकते हैं। ये वे लोग हैं जिनके सिरों पर आपको न तो चोटी नज़र आएगी और न ही इनके बदन पर जनेऊ और धोती। न तो ये बचपन में ये गुरूकुल गए थे और न ही 50 वर्ष का होने पर ये जंगल जाते हैं। हरेक जाति के आदमी से ये हाथ मिलाते हैं। फिर भी ये ख़ुद को वैदिक धर्म का पालनकर्ता बताते हैं।
ख़ुद मुसलमान की छाया प्रति बनने की कोशिश कर रहे हैं और कोई इनकी चालाकी को न भांप ले, इसके लिए ये एक इल्ज़ाम इस्लाम पर ही लगा देते हैं कि ‘इस्लाम तो हिंदू धर्म की छायाप्रति है‘
ये लोग समय के साथ अपने संस्कार और अपने सिद्धांत बदलने लगातार बदलते जा रहे हैं और वह समय अब क़रीब ही है जब ये लोग इस्लाम को मानेंगे और तब उसे इस्लाम कहकर ही मानेंगे।
तब तक ये लोग यह भी जान चुके होंगे कि ईश्वर का धर्म सदा से एक ही रहा है। ‘
एक ईश्वर की आज्ञा का पालन करना‘ ही मनुष्य का सनातन धर्म है। अरबी में इसी को इस्लाम कहते हैं। इस्लाम का अर्थ है ‘ईश्वर का आज्ञापालन।‘
इसके अलावा मनुष्य का धर्म कुछ और हो भी कैसे सकता है ?
वर्ण व्यवस्था जा चुकी है और इस्लाम आ चुका है।
जिसे जानना हो, वह जान ले !



17 comments:

veerubhai said...
डॉ अनवर ज़माल साहब आपने अच्छा तुलनात्मक अध्ययन किया है .तर्क आपका अपना तीर है .तर्क से परे भी बहुत कुछ है .सवाल एक की श्रेष्ठता और दूसरे के हेय होने का नहीं है .इस्लाम और इस्लामीकरण दो अलहदा चीज़ें हैं जैसे ईसाई और ईसाईकरण हैं .यहाँ एहम है धार्मिक स्वातंत्र्य पूजने की आज़ादी ३३ करोड़ देवता हैं जिसे मर्जी पूजो यहाँ कोई काफिर नहीं हैं चाहे वह इस्लाम को माने या न माने .कुरआन में ऐसे स्वर कहीं नहीं है .वहां काफिरों को मारने का धार्मिक आदेश है .और धर्म कोई रुकका हुआ दरिया नहीं है न किसी एक किताब तक महदूद जिसकी आप हदबंदी करने पर आमादा है .धर्म धारण करने की शह है .शह मात का खेल नहीं .जियो और जीने दो हिंदुत्व का मूल मन्त्र है .जीवन दर्शन है जीवन शैली है .बहरसूरत आपके इस विवेचन के लिए आपका आभार .हम आपके रिनी हैं आपने हमें भी आपके ब्लॉग पे आके अपनी बात कहने का मौक़ा दिया .
DR. ANWER JAMAL said...
@ वीरू भाई ! आप से पूछा जाए कि अगर हिन्दू दर्शन 'जियो और जीनो दो' की बात कहता है तो फिर श्री कृष्ण जी ने अर्जुन से क्यों कहा कि शत्रुओं को मार डाल?
आप कहेंगे कि अर्जुन के शत्रु अन्याय कर रहे थे.
इसी बात को आप इस्लाम के बारे में क्यों नहीं समझ लेते कि जब पैगम्बर साहब और उनके साथियों को मक्का में सताया गया और उनकी हत्या का प्रयास किया गया तो वे मक्का छोड़ कर मदीना चले आये . तब भी उनके शत्रुओं ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और सेना लेकर मदीने पर चढ़ आये.
जब निरपराध लोगों के प्राण बचने का कोई उपाय न रहा तब अल्लाह ने हुक्म दिया कि इन जालिमों का मुकाबला करो और तब भी यह कह दिया कि अगर ये संधि करना चाहें तो संधि कर लेना .


श्री कृष्ण जी का नाम आया तो एक ताज़ा खबर भी देख लीजिये-
कृष्ण कन्हैया की पवित्र भूमि वृन्दावन में संचालित सरकारी आश्रय गृहों की अनाथ विधवाओं के मरने के बाद उनके शरीर के टुकड़े -टुकड़े करके स्वीपरों द्वारा जूट की थैलियों में भर कर यूं ही फेंक दिया जाता है ! यह समाचार कल एक हिन्दी सांध्य दैनिक 'छत्तीसगढ़ ' में प्रकाशित हुआ है, जो अंग्रेजी अखबार 'द हिंदू ' में छपी खबर का अनुवाद है. अगर यह खबर सच है तो यह भयंकर अमानवीय और शर्मनाक करतूत हमारे लिए राष्ट्रीय शर्म की बात है . क्या आज का इंसान इतना गिर चुका है कि किसी मानव के निर्जीव शरीर को सदगति देने के बजाय वह उसके टुकड़े-टुकड़े कर किसी गैर ज़रूरी सामान की तरह कचरे में फेंक दे ?

छपी खबर के अनुसार वहाँ ऐसा इसलिए होता है ,क्योंकि इन असहाय और अनाथ महिलाओं की मौत के बाद उनके सम्मानजनक अंतिम संस्कार के लिए कोई वित्तीय प्रावधान नहीं है.

http://blogkikhabren.blogspot.com/2012/01/blog-post_09.html

बहुत अफ़सोस की बात है कि श्री कृष्ण जी की धरती पर महिलाओं की दुर्दशा हो रही है .
विधवा समस्या का हल केवल पुनर्विवाह है .
इस्लाम यही व्यवस्था देता है.


विधवाओं की समस्या हल करना किसी सरकार या किसी संस्था के बस की बात नहीं है. इसे तो बस ऊपर वाला ही हल कर सकता है और यह तब हल होगी जब आप उसकी व्यवस्था का पालन करेंगे .
इस्लाम जीना सिखाता है . इस्लाम को न मानकर आप केवल अपना जीवन ही नष्ट नहीं कर रहे हैं बल्कि समाज के कमज़ोर वर्गों का जीवन भी नर्क बना रहे हैं .
एक दिन आपको उस मालिक को अपने इन सब कर्मों का जवाब देना है.
यह धर्म और आपका यह जीवन सब कुछ उसी का दिया हुआ है और एक दिन वह आपसे इस नाफ़रमानी का हिसाब ज़रूर लेगा .
कृपया विचार करें कि मुसलामानों से चिढ कर आप खुद को सत्य से महरूम क्यों कर रहे हैं ?
vedvyathit said...
aap bdmjgi bdhane mauke khoob tlashte hain yhi aap ki aur aap ke islam ki vastvikta lgti hai jaise aap udahrn dete hain vaise aslam ke anuyaiyon ke bhre pde hain aur khoob ghinone bhi pr un pr chrcha krna khud ko gnda krna hai aap ki kttr vadi soch hi duniya ke vinash ka karn bnegi kyon ki n to aap ko jiyo aur jine done me vishvash hai aur n hi schchaai ko jnne me bs lkir ke fkir bn kr usi me doosron ko bandhne ki koshish ke alva aur kya kr skte hain aap
एक दम सही आकलन किया है......
-----एनीमल इन्स्टिन्क्ट--निर्जीव वस्तुओं व पशु धर्म -- का एक निश्चित धर्म होता है, मशीन की भान्ति बिना सोचे समझे, उसमें विविधता, स्व सोच नहीं होती..लकीर की फ़कीर व्यवस्था ...इसी व्यवस्था को अवर्ण-व्यबस्था कहते है......जहां विविधता होती है...मानव को मानव से व्य्वहार करने की स्वतन्त्रता होती है ..वह सवर्ण-व्यवस्था है...
--यही अन्तर है हिन्दू धर्म व अन्य धर्मों में..
----लाखों मुसलमान..शराव पीते हैं..चोरी-उठईगीरी, गुन्डागर्दी, आतन्क्वाद, हत्या.. करते हैं ..उनका क्या....जाने कितनी वैश्यायें...कालगर्ल मुस्लिम हैं उसका क्या....
---धर्म की गति अत्यन्त् सूक्ष्म है...आप नही समझेंगे....
--सही कहा क्रष्ण ने ..शत्रुओं को मारडालना ही चाहिये, यह बहादुरी है ..न्याय है....न कि पीठ दिख कर भागते जाना, कुए में उप कर जान बचाना और अन्त पकडे जाकर मौत की सजा पाना, यह जीवन व्यर्थ करना है, कायर की मौत मरना है..
Zafar said...
Thanks for your efforts in bringing the truth before us.
May Allah bless you and all your nears n dears.

Iqbal Zafar
आपका लेख पूरा पढ़ी. आशचर्य हुआ कि दो अलग अलग विचार में से किस एक को आप सर्वोत्तम कहने पर क्यों आमादा हैं. धर्म हर किसी का अपना निजी मामला है, मन हो तो मानो न मन न मानो. धर्म किसी पर बाध्यता नहीं होनी चाहिए. आपके लिए जैसे इस्लाम सर्वश्रेष्ठ है वैसे ही हिन्दुओं के लिए उनका धर्म या फिर ईसाई के लिए उनका अपना. धर्म एक मानसिक चेतना है न कि कुछ ख़ास नियम जिसे बना कर उसे पालन करने के लिए बाध्य किया जाए. किसी कि ह्त्या हलाल कर के करें या फिर झटके से क्रूरता में ज़रा फर्क है. झटके में पीड़ा कम होती है और हलाल में तड़पा कर मारा जाता है. जहाँ तक सर्वश्रेष्ठ कौन की बात है तो सारे धर्म ही बेकार हैं, धर्म के नाम पर कितना अत्याचार होता है ये पूरी दुनिया जानती समझती और देखती है. आपके अपने विचार से ये तर्कसंगत हो सकता है लेकिन हर किसी के लिए नहीं. दुसरे के द्वारा स्थापित नियम से अपना जीवन निर्देशित करना तर्कसंगत नहीं.
मेरे ब्लॉग तक आप आये आभार.
कहीं पढ़ा था, धर्म एक बहता दरिया है। कोई घड़ा भरता है तो उसे जल कहता है, कोई मशक भरता है तो पानी कहता है, कोई फ्लास्क भरता है तो वाटर कहता है।
पर अंत में बात यही है कि सब एक ही चीज़ भर रहे हैं।

इस विषय पर इससे अधिक कहने की न मुझे हैसियत है न ज़रूरत।

हां, जब प्यास लगती है तो तो जो भी पात्र मेरे पास होता है, भर कर प्यास बुझा लेता हूं।
shabd kabhi khatm nahi hote,apke blog ka uddeshy bas ek dharm vishesh ki buraai aur dusre dharm ki tareef karna rah gaya hai,
apke nooh aur bhi darjno pralapo par apka pura adhikar hai jitne chahen karen,kuch log kuch khas chize talash karte rahte hai,aap bhi unhi me se ek hai.
Pahle mujhe apke moorkhta purn lekho par gussa aata tha,lekin ab maza aata hai,asal me mai intzar kar raha hoon ki apki lekhni ki zaher bhari syahi kab khatm hogi.
Agar sanatan dharm ke baare me kuch jankari chahiye to stationo pe bikne wali kitabo se aage nikal kar wastvik duniya me aaiye tab shayad samjh sake ki sanatan dharm kya hai...
Waise aap logo ki ek alag duniya hai lekin isme aapka koi kasoor nahi hai to zakir naaik ki tarah aap bhi apna hindu virodhi mission jaari rakhiye...bhagwan apko puri takat de.
DR. ANWER JAMAL said...
आपके हरेक सद्-विचार को सदैव ग्रहण किया जाएगा।
@ भाई विभावरी रंजन जी ! धर्म एक ही है और उसी का प्रचार हम करते हैं और उसी का प्रचार आपको भी करना चाहिए।
इसे आप ऐसे समझिए कि जैसे आज शुद्ध जल भी मिलता है और बाज़ार में पेप्सी, लिम्का और सोडा भी। जल एक ही है लेकिन अलग अलग लोगों ने अपनी समझ से उसमें ज़ायक़ा पैदा करने के लिए अलग अलग साल्ट मिला दिए हैं। कुछ समय के बाद पता चलता है कि वे साल्ट मज़ा तो दे रहे हैं लेकिन नुक्सान भी दे रहे हैं।
इंसान के लिए ईश्वर ने शुद्ध जल बनाया है। उसे वही पीना चाहिए।
कुछ लोग तो जल में और भी ज़्यादा नुक्सान देने वाली चीज़ें मिला देते हैं और कुछ लोग शुद्ध जल से शराब भी बना देते हैं और लोग उसे पीने से रोकते भी हैं।
एक जल के बहुत से रूप हो जाते हैं।
कोई सर्वथा कल्याणकारी होता है और जिसमें मिलावट कम होती है वह कम नुक्सानदेह होता है और कुछ से जान भी चली जाती है।
यही बात धर्म के बारे में है।

अच्छे गुणों को धारण करना धर्म होता है। 
सबसे अच्छा गुण है एक ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और एकनिष्ठा के साथ उसकी आज्ञा का पालन करना।
इसी से सारे अच्छे गुणों की प्राप्ति स्वतः होती चली जाती है।
प्राचीन ऋषियों ने यही मार्ग दिखाया था।
यह तब की बात है जबकि धर्म यहां अपने शुद्ध रूप में था,
जिसे हम जानते हैं क्योंकि इस्लाम यही है।

सच्चे ऋषियों के जाने के बाद बहुत से लोगों ने बहुत से प्रयोग किए। उन्होंने अपने लौकिक और आध्यात्मिक प्रयोगों से जो पाया, उसके आधार उन्होंने भी व्यवस्था दी। उनकी बातें भी धर्म का अंग बन गईं और फिर ऐसे भी लोग आए जिन्होंने खुद को ऊंचा बनाए रखने के लिए धर्म में ऐसी बातें मिला दीं जो कि खुले तौर पर धर्म के विरूद्ध थीं। लोगों के विरोध से बचने के लिए इन्होंने ये नियम अपने नाम से न देकर ईश्वर और ऋषियों के नाम से दिए।
ईश्वर और ऋषियों का नाम देखकर आम जन मानस तो क्या बड़े बड़े राजे महाराजे इनका विरोध न कर पाए। इस तरह धर्म की बातें भी चलती रहीं और कुछ विकार भी आ गए।
आज भी हिंदू शास्त्र और हिंदू जन मानस धर्म से पूरी तरह कोरा नहीं है।
विकारी परंपराओं और कुरीतियों को त्यागते ही उनके पास केवल शुद्ध धर्म शेष रहेगा।
यही धर्म वास्तव में सनातन धर्म है और इसी धर्म का नाम इस्लाम है।

ऐसा नहीं है कि शुद्ध धर्म में मिलावट केवल हिंदुओं ने ही की है। यह मिलावट यहूदियों ने भी की है और ईसाईयों ने भी की है। दुनिया की हरेक क़ौम ने यह मिलावट की है। यहां तक कि ख़ुद मुसलमानों ने भी अपने धर्म में ऐसी बातें मिला दीं जो कि उन्हें पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने नहीं सिखाई थीं। इन्हीं बातों को बिदअत कहा जाता है।

शुद्ध धर्म की ज़रूरत आज हरेक इंसान को है। जिसने धर्म में अपनी तरफ़ से जो कुछ मिलाया है, उसे हटाए। हिंदू भी हटाए और मुस्लिम भी हटाए। यहूदी भी हटाए और ईसाई भी हटाए।
तब सबका धर्म एक होगा।
धर्म बहुत से हैं ही नहीं।
धर्म तो केवल एक ही है और सदा से बस केवल एक ही धर्म है।

विकृतियां न तो पहले कभी धर्म का अंग थीं और न ही आज हैं।
जैसे जैसे विकृतियां दूर होती चली जाएंगी, वैसे धर्म अपने शुद्ध रूप में प्रकट होता चला जाएगा।
अब इस धर्म को जिस नाम से चाहे पुकार लो,
नाम पर कोई झगड़ा होना ही नहीं चाहिए।
एक ही नदी को एक जगह गंगोत्री कहा जाता है तो उससे आगे उसका नाम बदलकर गंगा हो जाता है और बंगाल में उसे बूढ़ी गंगा कहा जाता है। नामों की अधिकता तो उसकी व्यापकता को प्रदर्शित करते हैं।

आप बताएं कि हमारी बात कहां ग़लत है ताकि हम उसे सुधार लें ?
हम भी आखि़र इंसान ही हैं।
हमारे सोचने और कहने में ग़लती हो सकती है।
टिप्पणी बॉक्स इसीलिए रखा गया है कि आप लोग हमारे विचार की तथ्यपरक समीक्षा करें,
आप विश्वास रखिए कि आपके हरेक सद्-विचार को सदैव ग्रहण किया जाएगा।

धन्यवाद !
sarwar said...
असलामुअलेकुम . जमाल अनवर साहब आपने इस्लाम धर्म व् हिन्दू धर्म का जो तुलनात्मक विश्लेषण किया है वह सचाई पर आधारित है बहुत से लोग इस्लामिक व्य्र्वस्था का अनुकरण करते हैं लेकिन इस बात को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं. दुनिया बहुत तेज़ी से इस्लाम की ओर बढ रही है इस्लाम प्रकीर्ति का धर्म है मानव की मुक्ति इस्लाम मैं है . मैंने आपके ब्लॉग पर लोगों के कमेंट्स का अवलोकन किया तो पाया की उन्होंने आपके लेख का कोई भी जवाब नहीं दिया बल्किं नाराज़गी और गुस्से का इज़हार किया क्योंकि आपकी बात का उनके पास जवाब नहीं है और न ही होगा क्योकि आपने हकीकत का बयां किया है .
1 THING MORE I WOULD LIKE 2 ADD
islam has been derived from the word salam i.e salamati .
and momin has been derived from the word aman so how could muslims be terrorist .........just think over it THIS IS THE BEAUTY OF THIS RELIGION
main iske qabil to nhi phir bhi Dr.Jamal sahab ek request hai.
please aap islam ka prachar beshak kariye but kisi dusre dharm ko neecha mat dikhaye isse nafrat k alawa kuch nhi milega .example k liye aapne dekha hi hoga k doose log bhale aap se na kahe par khi nakhi unko bura lag hi jata hai aur zahir si bat hai kyon na lage ,akhir hum kaon hote hai unhe bura kehne wale .aur phir QURAN ne bhi kha- "lakum dinakum wali yadin" tmhare pas tmhara deen ,hmare pas hmara deen aur ek aur jagah farmaya "la iqraha fiddin" deen katai zabr nhi hai.....islam khud itna khubsurat hai bhai ki usko kisi ko badsurat kehne ki zarurat .nhi .agar islam haq hai to to kyun na uski seerat logon ko dikhai jai na ki dusron ki kamiyan.


akhir me main bas itna hi kehna chahta hun apne non muslim bhaiyon se k please aap bura mat maniye




aur mai Dr. sahab se bas itna hi kehna chahta hun k haq batil k upar fatah hamesha pata hai par sirf haq k raste se.......ye sabak mere aaqa o maula IMAM HUSSAIN (r.a
) ne puri ummat ko karbala me pehle hi de diya
Pravin Dubey said...
अनवर साहब मै मनोज जी की बात से सहमत हु और एक बात को कन्फर्म करना चाहता हु, हिन्दू अपनी मुह बोली बहन से भी शादी की बात नहीं सोचते जबकि इस्लाम अपनी ही बहन से निकाह की इजाजत देता है ऐसा क्यु??
DR. ANWER JAMAL said...
@ प्रवीण दुबे जी ! आपको हिन्दू रीती रिवाज की जानकारी नहीं है . आंध्र प्रदेश का मनोहर रेड्डी हमारा दोस्त था . उसने बताया कि हमारे यहाँ तो मामा अपनी भांजी से भी विवाह कर लेता है . मुंह बोली बहनों की बात जाने दीजिये, रिश्ते की बहनों के साथ विवाह करना भी हिन्दू समाज में प्रचलित है .
यह पोस्ट देखिये -

क्षत्रिय ममेरी फुफेरी बहनों से विवाह करते हैं Bal vivah
ये हैं जय और जिया... उम्र महज दो साल...रिश्ता, भावी पति-पत्नी...यह बात अलग है जय की मां मीना जिया के पिता राम की बहन है...यानी जय और जिया ममेरे-फुफेरे भाई-बहन हैं...रविवार को इन दोनों की सगाई हो गई...ये दोनों गुजरात के लेउवा पटेल समाज के हैं...


इस समाज में प्रति हजार लड़कों पर महज 750 लड़कियां हैं...समाज में भाई-बहन के बीच सगाई की इस पहली घटना को लिंगानुपात के अंतर से जोड़कर देखा जा रहा है...इस कार्यक्रम में पूर्व सांसद वीरजीभाई ठुमर भी मौजूद थे...उन्होंने लेउवा पटेलों को क्षत्रियों का वंशज बताते हुए कहा, जब क्षत्रियों में आज भी ऐसा चलन है तो इनमें ऐसे संबंध क्यों नहीं किए जा सकते...

बाबरा तहसील के चमारडी गांव में रहने वाले लेउवा पटेल समाज के सरपंच जादवभाई वस्तरपरा ने अपनी दो वर्षीय पोती जिया की सगाई अपनी बेटी मीनाबेन के दो वर्षीय पुत्र जय के साथ करवाई... इस बारे में जादवभाई का कहना है कि उन्होंने मामा-बुआ के बच्चों के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित कर एक नई प्रथा की शुरुआत की है...

लेउवा पटेल समाज के अग्रणियों के अनुसार दरअसल लेउवा पटेल मूल क्षत्रियों के वंशज हैं और क्षत्रियों में आज भी यह रिवाज प्रचलन में है...इसलिए लेउवा पटेल समाज में इस परंपरा की शुरुआत कर उन्होंने कुछ गलत नहीं किया...

इधर दो वर्षीय जिया के बड़े पापा और उद्योगपति गोपालभाई का कहना है कि यह परंपरा क्षत्रिय वंश की परंपरा है और दूसरी मुख्य बात यह कि पारिवारिक विवाह संबंध से लड़कियों को भी भविष्य में किसी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ेगा...इस प्रसंग पर लेउवा पटेल समाज की कई दिग्गज हस्तियों के साथ पूर्व सांसद वीरजीभाई ठुमर भी मौजूद थे...

सरपंच जादवभाई के अनुसार उन्हें मामा-बुआ के बच्चों के वैवाहिक रिश्तों को लेकर किसी तरह की आलोचना का भय नहीं है...उनके अनुसार इस रिश्ते के संबंध में उन्हें लेउवा पटेल समाज का समर्थन प्राप्त है और वे पूरे लेउवा समाज से इस प्रथा को आगे बढ़ाने का भी आह्वान करेंगे...

Source : http://www.deshnama.com/2012/01/blog-post_31.html

यह बाल विवाह हिंदू संस्कृति की प्रयोगशाला में होना भी अपने आप में कुछ सोचने लिए मजबूर करता है।
Pravin Dubey said...
पहले तो मै आपको हिन्दू धर्म पर इतना शोध करने के लिए धन्यवाद् देना चाहूँगा अनवर जी,और इसबात का खेद भी प्रकट करना चाहूँगा की अपने इसकी सिर्फ कमियो पर ध्यान दिया|
दूसरी बात ये की मैंने अपवादो की नहीं परंपरा की बात की थी आपही सोचिये अगर ये अपवाद नहीं होता तो खबर नहीं बनता|
मै आपसे एक घटना का जीकर जरुरी समझता हु करना जब मै हॉस्टल में था तब मेरा रूममेट शोहराब अली हुआ करता था बड़ी अच्छी दोस्ती थी हमारी अभी भी है हम मंदिर मस्जिद एक साथ जाते थे वो मुझे कुरान के बारे में बताता था और मै उसे हिन्दू पौराणिक कथाएं सुनाता था पर कभी हमारे बिच मतभेद नहीं हुए|
खैर अपना अपना नजरिया है जिसको जैसी तालीम मिली उसकी वैसी सोच है मेरा तो मानना है की कोई धर्म अच्छा या बुरा नहीं होता अछे बुरे होते है उसके मानाने वाले हम इंसान|
DR. ANWER JAMAL said...
कमी की बात न तो हिंदू धर्म हो सकती है और न ही इस्लाम
@प्रवीण दुबे जी ! हिंदू धर्म पर शोध के लिए आपने मुबारकबाद दी है, इसके लिए शुक्रिया।
आपने कहा है कि हमने सिर्फ़ हिंदू धर्म की कमियों पर ही ध्यान दिया है।
आपका यह कहना ग़लत है। कमी की बात को हमने कभी धर्म माना ही नहीं है। कमी की बात न तो हिंदू धर्म हो सकती है और न ही इस्लाम। कमी की बात को धर्म न माना जाए तो हिंदू धर्म और इस्लाम दो नहीं रहते। इस सिद्धांत को माना जाए तो सैकड़ों धर्म बाक़ी नहीं रहते। सही और सच्ची बात ही धर्म है। उसी को मानने में सबका फ़ायदा है। यही वजह है कि कमी की बात को धर्म मानने का हमने सदा विरोध किया है।

हम मस्जिद भी जाते हैं और जब मंदिर में किसी आयोजन में बुलाया जाता है तो हम वहां भी जाते हैं। इसके अलावा भी मठ-मंदिरों में हम जाते रहते हैं। जहां भी जाते हैं, एक ईश्वर के एक सत्य धर्म की ही बात करते हैं और इस पर आज तक कहीं कोई झगड़ा नहीं हुआ। हम दूसरे पक्ष की बात सुनते हैं और वे हमारी बात सुनते हैं। बहुत से लोग हमारी बात मान भी लेते हैं। दूसरा पक्ष कोई अच्छी बात प्रमाण सहित बताता है तो हम उसे मान लेते हैं।
DR. ANWER JAMAL said...
बिना विवाह किए यौन संबंध स्थापित करना परंपरा है
@ @प्रवीण दुबे जी ! रिश्ते की बहन से विवाह करना लाखों हिन्दुओं का रिवाज है। जिस काम को लाखों लोग करते हों, उसे परंपरा कहा जाता है, अपवाद नहीं। इससे भी आगे बढ़कर बहुत सी परंपराएं हिंदू समाज में हैं। जिनकी जानकारी आपको नहीं है। बिना विवाह किए यौन संबंध स्थापित करना हिंदू धर्म की परंपरा है।

केरल के समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग नायरों (इसमे पिल्लई, मेनोन, पणिक्कर, मारार, नम्बियार, कुरूप आदि लोग भी शामिल हैं) का था. तकनीकी दृष्टि से ये शूद्र थे परन्तु योद्धा हुआ करते थे. सेना में ये कार्यरत होते थे अतः क्षत्रिय सदृश माना जा सकता है. इनके समाज में अधिकार स्त्रियों के हाथों हुआ करता था. उत्तराधिकार के नियम आदि स्त्रियों पर केंद्रित थे. इस व्यवस्था को “मरुमक्कतायम” कहा जाता था. इन लोगों में विवाह नामकी कोई संस्था नहीं थी. घर की लड़कियां अपने अपने घरों (जिन्हें “तरवाड़” कहा जाता है) में ही रहतीं. सभी भाई बहन इकट्ठे अपनी माँ के साथ. घर के मुखिया के रूप में मामा(मुजुर्ग महिला का भाई) नाम के लिए प्रतिनिधित्व करता था. किसी कन्या के रजस्वला होने पर किसी उपयुक्त पुरूष की तलाश होती जिस के साथ “सम्बन्धम” किया जा सके. यहीं नम्बूतिरी ब्राहमणों का काम बन जाता था क्योंकि कई विवाह से वंचित युवक किसी सुंदर कन्या से संसर्ग के लिए लालायित रहते थे . नायर परिवार में “सम्बन्धम” के लिए नम्बूतिरी या अन्य ब्राह्मण पहली पसंद होती थी क्योंकि उन्हें बुद्धिमान समझा जाता था. जैसे नम्बूतिरी घरों के युवकों को चार स्त्रियों से सम्बन्धम की अनुमति थी वैसे ही यहाँ नायर समुदाय की स्त्रियों के लिए भी आवश्यक नहीं था कि वे केवल एक से ही सम्बन्ध बनाये रखें. एक से अधिक (Polyandry) भी हो सकते थे. अंशकालिक!. सम्बन्धम, जैसा पूर्व में ही कहा जा चुका है, साधारणतया अस्थायी पाया गया है. लेकिन स्थायी सम्बन्धम भी होते थे, किसी दूसरे संपन्न तरवाड़ के नायर युवक से. कभी कभी एक स्थाई और कुछ दूसरे अस्थायी/ अंशकालिक. एक से अधिक पुरुषों से सम्बन्ध होने की स्थिति में समय का बटवारा भी होता था. पुरूष रात्रि विश्राम के लिए स्त्री के घर आता और सुबह उठते ही अपने घर चला जाता. संतानोत्पत्ति के बाद बच्चों की परवरिश का कोई उत्तरदायित्व पुरूष का नहीं रहता था. सब “तरवाड़” के जिम्मे. परिवार की कन्याओं का सम्बन्ध धनी नम्पुतिरियों से रहने के कारण धन “मना” से “तरवाड़” की और प्रवाहित होने लगा और “तरवाड़” धनी होकर प्रतिष्ठित हो गए. कुछ तरवाडों की प्रतिष्ठा इतनी रही कि वहां की कन्याओं से सम्बन्ध बनना सामाजिक प्रतिष्ठा का भी द्योतक रहा.
नायरों जैसी ही स्थिति राज परिवारों की भी रही. उनकी कन्याओं का सम्बन्ध किसी दूसरे राज परिवार के पुरूष या किसी ब्राह्मण से हो सकता था और राज परिवार के युवकों का सम्बन्ध नायर परिवार की कन्याओं के साथ.
यहाँ यह बताना उचित होगा कि इस पूरी व्यवस्था को सामाजिक मान्यता प्राप्त थी और किसी भी दृष्टिकोण से इसे हेय नहीं समझा जाता था.