सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Showing posts with label भक्ति. Show all posts
Showing posts with label भक्ति. Show all posts

Sunday, September 5, 2010

The real sense of worship सर्वशक्तिमान ईश्वर को लोगों की पूजा-इबादत की क्या ज़रूरत है ? - Anwer Jamal

मालिक बेनियाज़ है, बन्दे उसके मोहताज हैं
कुछ लोग पूछते हैं कि सर्वशक्तिमान ईश्वर को लोगों की पूजा-इबादत की क्या ज़रूरत है ? वह क्यों हमारे मुंह से अपनी तारीफ़ सुनना चाहता है ?, उस मालिक को हमारे रोज़ों की क्या ज़रूरत है ?, वह क्यों हमें भूखा रखना चाहता है ?
हक़ीक़त यह है कि लोगों का ऐसे सवाल करना यह बताता है कि वे इबादत के मूल भाव को नहीं समझ पाए हैं इसलिए ऐसे सवाल कर रहे हैं। नमाज़-रोज़ा दीन का हिस्सा हैं, उसका रूक्न हैं। दीन की ज़रूरत बन्दों को है जबकि उस मालिक को न दीन की ज़रूरत है और न ही बन्दों की, वह तो निरपेक्ष और बेनियाज़ है।

अलफ़ातिहा  : दुआ भी और हिदायत भी
नमाज़ में बन्दा खुदा से ‘सीधा मार्ग‘ दिखाने की दुआ करता है। यह दुआ कुरआन की पहली सूरा ‘अलफ़ातिहा‘ में है। नमाज़ में यह दुआ कम्पलसरी है। यह दुआ मालिक ने बन्दों को खुद अपने पैग़म्बर के ज़रिये सिखाई है। यह दुआ हिदायत की दुआ है और खुद भी हिदायत है। पूरा कुरआन इसी दुआ का जवाब है, ‘अलफ़ातिहा‘ की तफ़्सील है। जो कुछ पूरे कुरआन में विस्तार से आया है वह सार-संक्षेप और खुलासे की शक्ल में ‘अलफ़ातिहा‘ में मौजूद है।
‘सीधे रास्ते‘ की दुआ करने के बाद एक नमाज़ी पवित्र कुरआन का कुछ हिस्सा पढ़ता-सुनता है, जिसमें उसे मालिक बताता है कि उसका मक़सद क्या है ? और उसे पूरा करने का ‘मार्ग‘ क्या है ? उसके लिए क्या करना सही है ? और क्या करना ग़लत है ? उसके कामों का नतीजा इस दुनिया में और मरने के बाद परलोक में किस रूप में उसके सामने आएगा ?

तमाम खूबियों का असली मालिक खुदा है
 कुरआन के ज़रिये नमाज़ी को जो ज्ञान और हुक्म मिलता है, उसके सामने मालिक की जो बड़ाई और खूबियां ज़ाहिर होती हैं, उसके बाद नमाज़ी शुक्र और समर्पण के जज़्बे से अपने रब के सामने झुक जाता है। उसकी बड़ाई और खूबियों को मान लेता है और अपनी ज़बान से भी इक़रार करता है। खुदा सभी खूबियों का असली मालिक है और जो खूबियों का मालिक होता है, वह तारीफ़ का हक़दार भी होता है, यह हक़ीक़त है। नमाज़ के ज़रिये इनसान इसी हक़ीक़त से रू-ब-रू होता है।

नमाज़ के ज़रिये होती है अहंकार से मुक्ति
कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। सच पाने के लिए झूठ को और ज्ञान पाने के लिए अज्ञान को खोना ही पड़ेगा। ‘मैं बड़ा हूं‘ यह एक झूठ है, अज्ञान है, इसी का नाम अहंकार है। एक बन्दा जब नमाज़ में झुकता है और अपनी नाक खुदा के सामने ज़मीन पर रख देता है, अपने आप को ज़मीन पर डाल देता है, तब वह मान लेता है कि ‘खुदा बड़ा है‘ जो कि एक हक़ीक़त है।
इस हक़ीक़त के मानने से खुदा को कोई फ़ायदा नहीं होता, फ़ायदा होता है बन्दे को। वह झूठ, अज्ञान और अहंकार से मुक्ति पा जाता है, उसके अन्दर विनय और आजिज़ी की सिफ़त पैदा होती है। इसी सिफ़त के बाद इनसान ‘ज्ञान‘ पाने के लायक़ बनता है। ज्ञान पाने के बाद जब नमाज़ी उसके आलोक में चलता है तो उसे ‘मार्ग‘ स्पष्ट नज़र आता है। अब उसके पास मालिक का हुक्म होता है कि क्या करना है ? और क्या नहीं करना है ?

रोज़े के ज़रिये मिलती है भक्ति की शक्ति
नमाज़ी के सामने ‘मार्ग‘ होता है और उसपर चलने का हुक्म भी लेकिन किसी भी रास्ते पर चलने के लिए ज़यरत होती है ताक़त की। हरेक सफ़र में कुछ न कुछ दुश्वारियां ज़रूर पेश आती हैं। ज़िन्दगी का यह सफ़र भी बिना दुश्वारियों के पूरा नहीं होता, ख़ासकर तब जबकि चलने वाला सच्चाई के रास्ते पर चल रहा हो और ज़माने के लोग झूठे रिवाजों पर। कभी ज़माने के लोग उसे सताएंगे और कभी खुद उसके अंदर की ख्वाहिशें ही उसे ‘मार्ग‘ से विचलित कर देंगी।
रोज़े के ज़रिये इनसान में सब्र की सिफ़त पैदा होती है। रोज़े की हालत में इनसान खुदा के हुक्म से खुद को खाने-पीने और सम्भोग से रोकता है जोकि उसके लिए आम हालत में जायज़ है। रोज़े से इनसान के अंदर खुदा के रोके से रूक जाने की सिफ़त पैदा होती है, जिसे तक़वा कहते हैं।

रोज़ा इनसान को नफ़ाबख्श बनाता है
रोज़े में इनसान भूख-प्यास की तकलीफ़ झेलता है। इससे उसके अंदर सच्चाई के लिए तकलीफ़ उठाने का माद्दा पैदा होता है और वह दूसरे भूखे-प्यासों की तकलीफ़ का सच्चा अहसास होता है। इसी अहसास से उसमें उनके लिए हमदर्दी पैदा होती है जो उसे लोगों की भलाई के लिए अपना जान-माल और वक्त कुरबान करने पर उभारती है। खुदा की इबादत इनसान को समाज के लिए नफ़ाबख्श बनाती है। जिन लोगों को रोज़ेदार से नफ़ा पहुंचता है उनके दिलों में उसके लिए इज़्ज़त और मुहब्बत पैदा होती है। वे भी चाहते हैं कि वह खूब फले-फूले। इस तरह समाज में अमीर-ग़रीब के बीच की खाई पटती चली जाती है।
जिस समाज में रोज़े का चलन आम हो, वहां के ग़रीब लोग कभी अपने समाज के मालदारों के ख़ात्मे का आंदोलन नहीं चलाते जैसा कि रूस आदि देशों में चलाया गया और करोड़ों पूंजीपतियों का खून बहाया गया या जैसा कि नक्सलवादी आज भी देश में बहा रहे हैं।

समरस समाज को बनाता है रोज़ा
रोज़े की हालत में आदमी खुद को झूठ, चुग़ली, लड़ाई-झगड़े और बकवास कामों से बचाता है, गुस्से पर क़ाबू पाना सीखता है। इनमें से हरेक बात समाज में फ़साद फैलने का ज़रिया बनती है। रोज़ेदार दूसरों को सताकर या मिलावट करके या सूद लेकर माल कमाना नाजायज़ मानता है और आमदनी के तमाम नाजायज़ तरीक़े छोड़ देता है। ये तमाम तरीक़े भी मुख्तलिफ़ तरीक़ों से समाज में बिगाड़ फैलाते हैं और वर्ग संघर्ष का कारण बनते हैं। इसके विपरीत रोज़ेदार बन्दा खुदा के हुक्म से ज़कात-फ़ितरा और सद्क़ा की शक्ल में दान देता है। वह लोगों को भूखों को खिलाता है और ज़रूरतमंदों की ज़रूरत पूरी करता है। ऐसा करके वह न तो लोगों से शुक्रिया की चाहत रखता है और न ही वह दिखावा ही करता है क्योंकि यह सब वह मालिक की मुहब्बत में करता है। वह किसी जाति-भाषा या राष्ट्र और इलाक़े की बुनियाद पर यह सब नहीं करता। मानव जाति में भेद पैदा करने वाली हरेक दीवार उसके लिए ढह जाती है। समाज में एकता और समरसता पैदा होती है यह सारी बरकतें होती हैं रोज़े की, खुदा की इबादत की।
रोज़े की ज़रूरत इनसान को है, उस सर्वशक्तिमान ईश्वर को नहीं।

इबादत का अर्थ क्या है ?
‘इबादत‘ कहते हैं हुक्म मानने को। नमाज़ भी इबादत है और रोज़ा भी। बन्दा हुक्म मानता है तभी तो नमाज़-रोज़ा अदा करता है और फिर नमाज़-रोज़े ज़रिये के ज़रिये उसमें जो सिफ़तें पैदा होती हैं उनके ज़रिये वह ‘मार्ग‘ पर चलने के लायक़ बनता है, और ज़्यादा इबादत करने के क़ाबिल बनता है। इबादतों के ज़रिये उसके अंदर विनय, समर्पण, सब्र, तक़वा, हमदर्दी, मुहब्बत और कुरबानी की सिफ़तें पैदा होती हैं, जिनमें से हरेक सिफ़त उसके अंदर दूसरी बहुत सी सिफ़तें और खूबियां पैदा करती हैं। जो बन्दा खुद को खुदा के हवाले कर देता है और उसके हुक्म पर चलता है जोकि तमाम खूबियों का असली मालिक है, उस बन्दे के अंदर भी वे तमाम खूबियां ‘डेवलप‘ हो जाती हैं जोकि उसे ‘मार्ग‘ पर चलने में सफल बनाती हैं, उसे उसकी सच्ची मंज़िल तक पहुंचाती हैं। इबादत के ज़रिये बन्दा अपने रब से जुड़ता है और इबादत के ज़रिये ही उसके अंदर ये तमाम खूबियां डेवलप होती हैं, इसलिए इबादत बन्दों की ज़रूरत है न कि खुदा की।

रूहानी भोजन क्या है ?
जहां खुदा ने हवा-पानी, मौसम-फ़सल और धरती-आकाश बनाया ताकि लोगों के शरीरों की ज़रूरतें पूरी हों, वहीं उसने उनके लिए अपनी इबादत निश्चित की ताकि वे न भटकें और उनके मन-बुद्धि-आत्मा की ज़रूरतें पूरी हों।
आज इनसानी आबादी का एक बड़ा हिस्सा भूखा सोता है और जो लोग खा-पी रहे हैं उनके भोजन में भी प्रोटीन, विटामिन्स और मिनरल्स आदि ज़रूरी तत्व सही मात्रा में नहीं होते, यह एक हक़ीक़त है। ठीक ऐसे ही आज बहुत से लोग नास्तिक बनकर रूहानी तौर पर भूखे-प्यासे भटक रहे हैं लेकिन न तो वे अपनी भूख-प्यास का शऊर रखते हैं और न ही यह जानते हैं कि उन्हें तृप्ति कहां और कैसे मिलेगी ?

धर्म के नाम पर अधर्म क्यों ?

जो लोग समझते हैं कि वे मालिक का नाम ले रहे हैं, ईश्वर का नाम ले रहे हैं, उसका गुण-कीर्तन कर रहे हैं, उनका भी बौद्धिक और चारित्रिक विकास नहीं हो पा रहा है क्योंकि न तो उनकी श्रद्धा और समर्पण की रीति सही है और न ही उन्हें सही तौर पर रूहानी भोजन के सभी तत्व समुचित मात्रा में मिल पा रहे हैं और वे इसे जानते भी नहीं हैं।

जो लोग मालिक की बताई रीति से पूजा-इबादत नहीं करते और अपनी तरफ़ से भक्ति के नये-नये तरीक़े निकालते हैं और समझते हैं कि वे उसके भजन गा रहे हैं, उसकी तारीफ़ कर रहे हैं और उनकी स्तुति-वंदना से प्रसन्न होकर वह उनकी कामनाएं-प्रार्थनाएं पूरी करेगा, वास्तव में वे लोग उस सच्चे मालिक पर झूठे इल्ज़ाम लगा रहे होते हैं, उसे गालियां दे रहे होते हैं। जिससे मालिक नाराज़ हो रहा होता है और वे अपने घोर पाप के कारण उसके दण्ड के भागी बन रहे होते हैं।

ईश्वर के विषय में पाप की कल्पना क्यों ?
ये लोग एक मालिक के बजाय तीन मालिक बताते हैं। कोई कहता है कि पैदा करने वाले ने अपनी बेटी के साथ करोड़ों साल तक बलात्कार किया तब जाकर यह सारी सृष्टि पैदा हुई।
कोई कहता है कि जिसके ज़िम्मे पालने का काम है वह चार महीने के लिए पाताल लोक में जाकर सो जाता है। वह आदमी बनकर मां के पेट से जन्म लेता है। जन्म लेकर वह समाज में ऊंचनीच क़ायम करता है, चोरी करता है, युद्ध करता है और जीतने के लिए युद्ध के नियम भंग करता है।
कोई मारने वाले को नशा करने वाला बताता है और कहता कि वह मौत के डर से अपने ही भक्त से डरकर भाग खड़ा हुआ। ये लोग ईश्वर को मनुष्यों की तरह लिंग-योनि और औलाद वाला नर-नारी बताते हैं। नाचना-कूदना, उन्हें छेड़ना, उनका अपहरण कर लेना, रूप बदलकर कुवांरी कन्याओं से और पतिव्रताओं से राज़ी-बिना राज़ी सम्भोग करना, हरेक ऐब उसके साथ जोड़ दिया। कह दिया कि वह लोगों को भटकाकर पाप कराने के लिए भी धरती पर जन्म ले चुका है। यहां तक लिख डाला कि वह कछुआ-मछली, बल्कि सुअर तक बनकर दुनिया में आ चुका है।

माइथोलॉजी का आधार ही मिथ्या है
इन्हीं सब ‘मिथ्या‘ बातों पर उन्होंने अपनी माइथोलॉजी खड़ी की और अपने दर्शन रचे। इन्हीं बातों की वे कथा सुनाते हैं और इन्हीं बातों को वे अपने भजनों में गाते हैं।
जो लोग इन बातों को नहीं मानते वे नास्तिक बन जाते हैं और दूध का जला बनकर छाछ को भी फूंक मारते रहते हैं और जो लोग इन बातों को मान लेते हैं वे जीवन भर लुटते रहते हैं और समाज में ग़लत परम्पराओं को बढ़ावा देते हैं। दोनों ही तरह इनसान अज्ञान में फंसकर जीता है और अपने जन्म का मक़सद जाने बिना और उसे पूरा किये बिना ही मर जाता है।

ईश्वर के दूत का अपमान क्यों ?
कुछ दूसरे लोगों ने कहा कि ईश्वर ने दुनिया में अपने इकलौते पुत्र को भेजा और वह लोगों के पापों के बदले में क्रूस पर लानती होकर मर गया। जिससे प्रार्थना कर रहे हैं, उसी को लानती कह रहे हैं और चाहते हैं कि उनकी प्रार्थनाएं सुनी जाएं, उनके संकट उनसे दूर किये जाएं।

ज्ञान के बिना व्यर्थ है कर्म और भक्ति
यह सब इसलिए हो रहा है कि ये लोग अपने कॉमन सेंस से काम नहीं ले रहे हैं और ईश्वर की सिखाई रीति के बजाय मनमाने तरीक़े से भक्ति कर रहे हैं। अगर सेंस से काम न लिया जाए तो फिर नमाज़-रोज़ा भी महज़ रस्म और दिखावा बनकर रह जाते हैं जिनपर मालिक की तरफ़ से ईनाम मिलने के बजाय सज़ा मिलती है।
खुदा की इबादत, ईश्वर की भक्ति हरेक इनसान पर उसी रीति से करना अनिवार्य है जो रीति ईश्वर ने अपने दूतों-पैग़म्बरों के माध्यम से सिखाई है। जो इस बात को मानता है वह आस्तिक-मोमिन है और जो नकारता है वह नास्तिक अर्थात काफ़िर है।

अक्लमन्द इनसान कभी मालिक की नाशुक्री नहीं करता
‘काफ़िर‘ का अर्थ नाशुक्रा भी होता है। ईश्वर की ओर से मानव जाति पर हर पल बेशुमार नेमतें बरसती हैं। ईश्वर के उपहार पाकर इनसान को उसका उपकार मानना चाहिए और खुद भी दूसरों पर उपकार करना चाहिए, यही है ईश्वर का सच्चा आभार मानना, उसे सच्चे अर्थों में धन्यवाद कहना।
एक अच्छा इनसान, बुद्धि-विवेक से काम लेने वाला इनसान कभी नाशुक्रा और नास्तिक नहीं हो सकता सिवाय उसके जो ‘इबादत‘ के सही अर्थ को न समझ पाया हो और अपने सच्चे मालिक की सही अर्थों में पूजा-इबादत न कर पाया हो।
ऐ मालिक ! हमें माफ़ कर दे और हमसे राज़ी हो जा
ईश्वर पवित्र है हरेक ऐब और कमी से और वह तमाम खूबियों का असली मालिक है। हम रब की पनाह चाहते हैं इस बात से कि उसके बारे में कभी कोई ऐसी बात सुनें जो उसकी शान के मुनासिब न हो। जो लोग नादानी में उसके विषय में मिथ्या कल्पना करते हैं हम उनके बारे में भी हम उस मालिक से माफ़ी मांगते हैं।