सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Saturday, November 12, 2011
मानव जाति की समस्याओं का सच्चा समाधान है इस्लामी हज और क़ुरबानी Qurbani
हरेक जुर्म का कारण है विचारों की अपवित्रता।
इसी अपवित्रता के कारण आज मानव जाति विखंडन, हिंसा, आतंकवाद, शोषण, महंगाई और बेरोज़गारी से त्रस्त है।
नेता के विचार पवित्र हों तो वह सही मार्गदर्शन देगा और सही नीतियां लागू करेगा। जनता के विचार पवित्र होंगे तो वे क़ायदे-क़ानून के खि़लाफ़ काम नहीं करेंगे। इस तरह नेता जनता को उनका अधिकार देगा और जनता भी अपने अधिकार से अधिक लेना जायज़ नहीं समझेगी। ऐसा तब होगा जबकि नेता और जनता, दोनों के विचार पवित्र होंगे।
शुभ विचारों से शुभ कर्म होंगे और शुभ कर्मों से कल्याण होता है। यह सब पवित्रता के बिना नहीं हो सकता।
पवित्रता केवल धर्म का विषय है विज्ञान, कला या दर्शन का नहीं।
जब लोगों ने धर्म को सामूहिक जीवन से ख़ारिज कर दिया तो दरअस्ल उन्होंने सामाजिक जीवन से पवित्रता को भी उसी क्षण ख़ारिज कर दिया। पवित्रता के ख़ारिज होते ही शुभता और कल्याण भी ख़ारिज हो गए।
वास्तव में पवित्र केवल ईश्वर है और जो भक्त उससे प्रेम करते हैं वे उससे जुड़ जाते हैं। उससे जुड़कर ही वे पवित्र होते हैं।
जहां समर्पण होगा वहां विश्वास भी अवश्य होगा। जहां विश्वास होगा वहां स्वीकार भाव और पालन होगा।
जहां किसी बात को मानने में किंतु परंतु होगा वहां संदेह होगा और जहां संदेह होगा वहां विश्वास नहीं हो सकता, वहां स्वीकार और पालन नहीं बल्कि इंकार और अवहेलना होगी।
लोग संदेह के पौधे को इंकार का पानी देकर पेड़ बना देते हैं लेकिन वे फल विश्वास का खाना चाहते हैं।
क्या यह संभव है ?
नहीं, हरगिज़ नहीं।
जो लोग प्रभु परमेश्वर के अस्तित्व पर संदेह करते हैं, वे धर्म पर भी संदेह करें तो ठीक है। वे प्रभु परमेश्वर से जुड़ी हुई चीज़ों पर भी संदेह करें, उनके बारे में प्रश्न करें तो ठीक है। उन्होंने प्रभु पर विश्वास किया ही कब है ?
उन्होंने प्रभु के प्रति समर्पण किया ही कब है ?
उन्हें प्रभु से प्रेम ही कब है ?
ऐसे लोग प्रभु के आदेश का इंकार करें तो ठीक है , उनकी बात समझ में आती है लेकिन जो लोग प्रभु परमेश्वर के अस्तित्व को मानते हैं और उसके नाम को भी जानते हैं और यह भी जानते हैं कि भाषा अलग अलग होने के बावजूद मालिक सबका एक ही है। ऐसे लोग जब प्रभु परमेश्वर के आदेश पर संदेह करते हैं तो समझ में नहीं आता।
जब परमेश्वर पर विश्वास है तो उसके आदेश पर भी विश्वास होना चाहिए और जब विश्वास है तो उसका पालन होना चाहिए न कि इंकार ?
जो लोग एक भाषा में प्रभु का आदेश पढ़ते हैं तो उसका पालन करते हैं और उसी प्रभु की वाणी दूसरी भाषा में देखते तो उस पर संदेह करते हैं, उस पर सवाल करते हैं।
ऐसे लोग दरअस्ल ईश्वर से नहीं बल्कि अपनी भाषा संस्कृति से जुड़े होते हैं, ऐसे लोग धर्म से नहीं बल्कि अपने दर्शन से जुड़े होते हैं।
क्योंकि हम जिससे प्रेम करते हैं, उसकी बात मानते हैं, चाहे वह किसी भी भाषा में बात कहे।
आधुनिक सभ्यता के साथ यही हो रहा है और पहले से यही होता आ रहा है।
प्रमुख और केंद्रीय जगह किसी और चीज़ को दे दी जाती है और नाम ईश्वर का ही जपा जाता है। अपने मन से ही आदमी कुछ बात सोच लेता है और कहता है कि जो उसके मन में आता है, वह ईश्वर की प्रेरणा से ही आता है।
ईश्वर की प्रेरणा से तो तब आएगा जबकि वह ईश्वर से जुड़ा होगा।
ऐसा हरेक भाषा में लिखा मिलता है और यही एक बात है जिस पर सबसे कम ध्यान दिया गया और मरने जीने वालों को ईश्वर मान बैठे।
ऐसा बहुधा उनके साथ किया गया जो ईश्वर से जुड़े हुए लोग थे, जो महापुरूष थे , जो कि ईश्वर के प्रतिनिधि थे। ये लोग ईश्वर के सेवक, दास और प्रतिनिधि थे। अपने जीवन की घटनाओं पर ख़ुद उनका कभी नियंत्रण नहीं रहा। उनके प्रभु परमेश्वर ने उन्हें जिस हालत में रखा , उन्हें रहना पड़ा। जब उनकी जैसी परीक्षा लेनी चाही, उन्हें देनी पड़ी। जब उन्हें जिस कार्य का आदेश दिया, उन्हें करना पड़ा।
उनका जीवन हमें यही सिखाता है कि हमारे जीवन की डोर हमारे प्रभु के हाथ में है।
सबका भाग्य विधाता वही है।
उसे अधिकार है कि वह जिसे चाहे जीवन दे और जिसे चाहे मौत दे और जब चाहे दे और जिस तरीक़े से चाहे दे।
किसी को अधिकार नहीं है कि वह उस पर कोई प्रतिबंध लगाए और न ही किसी को ऐसी शक्ति प्राप्त है कि कोई चाहे तो उस पर प्रतिबंध लगा सके या उसके फ़ैसलों को अंजाम तक पहुंचने से रोक सके।
प्रकृति उसी परमेश्वर के अधीन है।
मनुष्य की प्रकृति में भी अधीनता का भाव पाया जाता है और अगर वह सच्चे परमेश्वर की अधीनता स्वीकार नहीं करता है तो फिर वह किसी ग़लत और अनधिकृत व्यक्ति की अधीनता में अवश्य ही चला जाता है।
संदेह इसी जगह काम देता है।
संदेह इंसान को सतर्क रखता है कि कहीं वह ग़लत जगह न फंस जाए।
संदेह बुद्धि का काम है। जो निर्बुद्धि लोग हैं, वे संदेह नहीं कर सकते और ऐसे लोग विश्वास भी नहीं कर सकते।
निर्बुद्धि मनुष्य तो अंधा होता है और जब वह विश्वास करता है तो उसका विश्वास भी अंधा ही होगा। अंधविश्वास यही लोग करते हैं। जिनके पास बुद्धि है और वे उसका उपयोग नहीं करते , उनके विश्वास का भी मूल्य कुछ नहीं है।
प्रभु परमेश्वर को पाना है तो हमें अपने रोम रोम से उसे पाना होगा और इंसान के इस पूरे वुजूद में सबसे बड़ी चीज़ यह बुद्धि ही तो है। ईश्वर की प्राप्ति इस बुद्धि से भी होनी आवश्यक है।
पशु और मनुष्य में केवल बुद्धि का अंतर ही तो है।
बुद्धि का विषय ही ज्ञान है।
बुद्धि है तो संदेह अवश्य करेगी। संदेह जिज्ञासा को और जिज्ञासा खोज को जन्म देगी। जो ढूंढता है वह पाता है।
जो ढूंढ रहे थे, वही मिला है या कुछ और मिल गया है।
इसका फ़ैसला केवल बुद्धि ही कर सकती है, इंसान यह निर्णय केवल बुद्धि के बल पर ही ले सकता है।
संदेह से नास्तिकता का जन्म होता है और जो चीज़ जन्म लेती है, उसकी मौत भी ज़रूर होती है। विश्वास की प्राप्ति होते ही संदेह का अंत हो जाता है।
संदेह का अंत मनुष्य के स्वभाव से नहीं हो जाता बल्कि जिस विषय में संदेह था, उस विषय में निर्णायक फ़ैसला हो जाने पर, अपने फ़ैसले के सही होने का विश्वास होते ही केवल उस विषय में संदेह का अंत हो जाता है।
संदेह जितना मज़बूत होगा, विश्वास भी उतना ही मज़बूत होगा।
दृढ़ नास्तिक जब आस्तिक बनते हैं तो भी दृढ़ ही बनते हैं।
आस्था, विश्वास, प्रेम और समर्पण की मंज़िल आसान नहीं है।
यह एक बहुत कठिन डगर है।
लोग कह तो देते हैं कि हम ईश्वर के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार हैं लेकिन हालत यह होती है कि अपने पड़ोसी को एक वक्त की रोटी देने के लिए तैयार नहीं हैं।
ईश्वर को अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए लेकिन अपने बंदों के लिए उसे सब कुछ चाहिए।
सारी सृष्टि की रचना उसने मनुष्यों का पालन करने के लिए ही तो की है।
सूरज की रौशनी, हवा, पानी और धरती, हर चीज़ का लाभ इंसान को मिल रहा है।
लेकिन इंसान को फिर भी नुक्सान ही पहुंच रहा है।
इंसान को यह नुक्सान कौन पहुंचा रहा है ?
इंसान को यह नुक्सान ख़ुद इंसान ही पहुंचा रहा है।
इंसान अपने अहंकर और लालच के वशीभूत होकर दूसरे इंसानों को नुक्सान पहुंचा रहा है।
अक्सर इंसान बस अपने आपे का और अपने परिवार का भला चाहता है।
जो लोग बहुत ज़्यादा अच्छे माने जाते हैं वे अपनी जाति और अपने देश-अपने राष्ट्र का भला चाहते हैं लेकिन ये भी संकीर्णताएं ही हैं।
हज एक ऐसा ही मौक़ा है जब देश , जाति और भाषा-संस्कृति आदि की संकीर्णताएं तोड़ी जाती हैं। इन संकीर्णताओं का त्याग ही वह अस्ल क़ुरबानी है जो कि हज को जाने वाला एक हाजी देता है। जो लोग सफ़र के ख़र्च लायक़ धन रखते हैं और आवश्यक शर्तें पूरी करते हैं, वे हज का सफ़र करते हैं और जो उनके साथ नहीं जा पाते लेकिन उनके मन में भी ललक होती है कि वे जा सकते तो वे भी जाते, ऐसे लोग मन से काबे में ही खड़े होते हैं और शरीर से भी कुछ काम ऐसे कर रहे होते हैं जिन्हें एक हाजी अदा करता है।
इस तरह देश, जाति, भाषा-संस्कृति आदि की संकीर्णताएं टूटने की जो घटना मक्का में घटित हो रही होती है, उसे विस्तार मिलता है।
यह एक ख़ुशी का मक़ाम होता है। हज और क़ुरबानी के दिन लोग देखते भी हैं कि लोगों के चेहरों से ख़ुशी झलक रही होती है।
जब ये संकीर्णताएं टूट जाती हैं तो हम जान लेते हैं कि ये सब गौण चीज़ें थीं।
तब ज़बान से कहा हुआ ‘अल्लाहु अकबर‘ अर्थात परमेश्वर सबसे महान है एक ऐसी हक़ीक़त बन जाता है जिसे आदमी अपनी आंखों से देख भी रहा होता है। इंसान ज़िंदगी भर जिन चीज़ों को बड़ा, प्यारा और प्रमुख समझता रहा है, जब वह इन सबकी बलि चढ़ा देता है तब उसके दिल के केंद्र से ये सब चीज़ों हट जाती हैं और तब उसके दिल में ईश्वर-अल्लाह आ बसता है, ख़ुद ब ख़ुद।
तमसो मा ज्योतिर्गमय यहीं साकार होता है।
हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम ने यही तालीम दी है, उनकी जीवन गाथा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
ये वे लोग हैं जिनका सारा ध्यान बकरे पर ही अटक गया है और वे हज को उसके समग्र रूप में देख ही नहीं रहे हैं।
हज को उसकी हक़ीक़त के साथ अदा करने वालों में से एक बहुत महान पैग़ंबर थे हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम। वे एक मूर्तिपूजक ख़ानदान में पैदा हुए। वे पूरी ज़िंदगी पुरोहितवाद, आडंबर और अन्याय के खि़लाफ़ लड़ते रहे और इस मिशन के लिए उन्हें अपना घर, अपने दोस्त और रिश्तेदार और अपना वतन तक छोड़ देना पड़ा। पुराने ज़माने में पहचान क़बीले की हुआ करती थी और कोई भी आदमी अपने क़बीले और अपने लोगों से अलग होने का साहस नहीं करता था क्योंकि इसका मतलब था ख़ुद को तबाह कर लेना।
ऐसे समय में उन्होंने लोगों को शोषण और अन्याय से बचाने के लिए जो संघर्ष किया वह बेमिसाल है और उन्होंने लोगों को ऐसा ज्ञान दिया जिसकी ज़रूरत सारी दुनिया को पहले भी थी और आज भी है।
इसी सिलसिले में परमेश्वर अल्लाह ने उन्हें एक आज़माइश में डाला ताकि उनका अमल संसार वालों के लिए एक मिसाल बने। पशु बलि उसी वाक़ये का एक हिस्सा है।
आज भी जो लोग क़ुरबानी करते हैं, वह उसी वाक़ये की एक यादगार है।
क्या यह कष्ट उठाना नहीं है ?
क्या इसे त्याग की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा ?
हज को जाने वाला अपने ऐशो आराम से भी वंचित होता है और अपने माल को भी ख़र्च करता है। इस तरह वह अपने लोभ-मोह पर नियंत्रण करना भी सीखता है और हज के दौरान वह अपने सबसे बड़े सुख, यौन सुख का भी त्याग करता है। इस तरह वह काम पर भी नियंत्रण सीखता है। जगह जगह एक हाजी को ऐसे नागवार हालात का सामना करना पड़ता है जो कि उसके क्रोध और अहंकार को भड़काते हैं लेकिन उसका हज ख़ुदा की नज़र में क़ुबूल हो जाए, सिर्फ़ इस मक़सद के लिए वह अपनी नकारात्मक प्रवृत्तियों का दमन करता है और हरेक तकलीफ़ पर सब्र करता है। इस तरह वह ख़ुद को तैयार करता है कि मानवता के हितार्थ अल्लाह के हुक्म को पूरा करने के लिए उसे जब कभी किसी भी तरह की क़ुरबानी देनी पड़ेगी तो वह सहर्ष देगा।
पशुबलि करने वाले के हालात पर नज़र डाली जाए तो उसके त्याग और बलिदान को भी देखा जा सकता है।
जो लोग आवश्यक शर्तें पूरी न कर पाने के कारण या वीज़ा न मिल पाने के कारण हज को नहीं जा सके हैं, उनके आत्मिक कष्ट को तो कोई और समझ ही नहीं सकता। वे भी इस कष्ट को धैर्यपूर्वक बर्दाश्त करते हैं और आने वाले साल का इंतेज़ार करते हैं। किसी चीज़ का इंतेज़ार कैसा कष्ट देता है, इसे केवल वही जान सकता है , जिसने कभी किसी का इंतेज़ार किया हो।
मुहब्बत जितनी ज़्यादा होगी, बेक़रारी भी उतनी ही ज़्यादा होगी और जितनी ज़्यादा बेक़रारी होगी , तकलीफ़ भी उतनी ही ज़्यादा होगी।
यह मुहब्बत और बेक़रारी और यह तकलीफ़ दिखाई नहीं देती लेकिन बहरहाल होती है और किसी को इससे इंकार भी नहीं हो सकता।
जो लोग क़ुरबानी देते हैं उन्हें बहरहाल तकलीफ़ होती है और वे अपने माल और अपने वक्त को अल्लाह के नाम पर ख़र्च करते हैं और यह ख़र्च करना भी त्याग और बलिदान की श्रेणी में ही आता है।
लोग क़ुरबानी देने वाले के एंगल से नहीं सोचते लेकिन बकरे के एंगल से सोचते हैं इसीलिए उन्हें बकरे का कष्ट तो दिखाई देता है लेकिन उन्हें क़ुरबानी देने वाले का कष्ट और त्याग नज़र नहीं आता।
बकरा हो या कोई और मवेशी , जिसकी क़ुरबानी दी जा रही है। उसे तकलीफ़ होगी यह सोचकर उसकी क़ुरबानी छोड़ी नहीं जा सकती।
ख़ुदा के हुक्म को पूरा करने के लिए जब इंसान कष्ट उठा रहा है तो फिर बकरा ही क्यों वंचित रहे ?
यह अलग बात है कि क़ुरबानी के लिए हलाल का जो इस्लामी तरीक़ा है, वह हलाल होने वाले जानवर को कोई कष्ट होने नहीं देता।
जिन जानवरों को हलाल के अलावा किसी और तरीक़े से काटा जाता है, उन्हें ज़रूर कष्ट होता है या जिन जानवरों को काटा ही नहीं जाता, वे कितना कष्ट भोगते हैं, इसे उन बूढ़े आवारा मवेशियों को देखकर जाना जा सकता है जो कि सड़कों पर घूमते ही रहते हैं। जब तक वे दूध दे सकते थे, उनके अहिंसावादी और शाकाहारी स्वामी उनके मालिक बने रहे। वे बेचारे जगह जगह से मांग कर खाते रहे और दूध के टाइम पर आकर दूध मालिक को देते रहे और जब वे दूध देने के लायक़ न बचे तो उन पर से उनके रखवाले ने अपना मालिकाना हक़ ही उठा लिया। अब वे बेचारे बुढ़ापे में जहां तहां डंडे और पॉलिथीन खाते हुए घूमते रहते हैं। यह भी तो घोर कष्ट ही है और इन जानवरों को यह कष्ट उन लोगों के कारण होता है जो कि क़ुरबानी नहीं करते बल्कि क़ुरबानी का विरोध करते हैं।
क़ुरबानी का विरोध करने वाले अपने मवेशियों को कितना दारूण कष्ट पहुंचाते हैं,इसके विरूद्ध किसी की आवाज़ क्यों नहीं उठती ?
मवेशियों का मांस भी इंसान का ठीक उसी प्रकार भोजन है जिस प्रकार उनका दूध, शहद या फल-सब्ज़ियां। धर्म तो इस बात को पहले से ही कहता आ रहा है और अब विज्ञान भी यही कह रहा है। जहां धर्म और विज्ञान सहमत हैं, वहां भी ऐतराज़ क्यों ?
ईश्वर सृष्टि का रचयिता भी है और विधाता भी। उसी ने सब जीवों की रचना की है और उनके स्वभाव की रचना भी उसी परमेश्वर ने की है।
‘जीव जीवस्य भोजनम्‘ अर्थात जीव का आहार जीव ही है, इस विधान की रचना भी उसी परमेश्वर ने की है और अपनी वाणी में भी उसने यह साफ़ साफ़ बताया है। उसकी जिन वाणियों में क्षेपक हो गया है, उनमें भी यह व्यवस्था आज तक मौजूद मिलती है।
ईश्वर ने जिन मवेशियों को खाने की इजाज़त दी है, उनकी क़ुरबानी देने के लिए हलाल करना या अपने भोजन के लिए उन्हें ज़िब्ह करना जीव हत्या नहीं कहलाता क्योंकि ऐसा ईश्वर की अनुमति से किया जाता है और इसी बात की याददिहानी के लिए उन्हें हलाल करते समय ईश्वर अल्लाह की महानता का ज़िक्र किया जाता है। ईश्वर का आदेश और उसका नाम आने के बाद यह काम हत्या नहीं बल्कि इबादत बन जाता है।
हक़ीक़त से नावाक़िफ़ लोगों को यह जानकर ताज्जुब हो सकता है कि महज़ ईश्वर का आदेश और उसका नाम लेना किसी जानवर की जान लेने को हत्या के बजाय इबादत कैसे बना सकता है ?
इसे समझने के लिए आप औरत और मर्द के यौन संबंधों को देख सकते हैं।
जो लोग ईश्वरीय व्यवस्था होने का दावा करते हैं। उनके पास विवाह और निकाह की व्यवस्था भी ज़रूर मिलेगी। विवाह और निकाह वह तरीक़ा है जो कि ईश्वर का आदेश है और जब औरत और मर्द लोगों के सामने एक दूसरे को ग्रहण करते हैं तो वे ईश्वर को साक्षी मानकर, उसके नाम पर और उसके आदेश को पूरा करने के लिए ही ऐसा करते हैं।
जहां औरत और मर्द के यौन संबंध तो पति पत्नी की तरह ही हों लेकिन ये संबंध ईश्वर के नाम पर न बने हों तो यही संबंध व्याभिचार और पाप कहलाते हैं। ईश्वर का नाम हटते ही संबंधों की पवित्रता भी ख़त्म हो जाती है और उनका नाम भी बदल जाता है।
समस्त जीवों का स्वामी वही एक परमेश्वर है, उसके अलावा किसी और के नाम पर उन्हें क़ुरबान करना अनाधिकार चेष्टा है। परमेश्वर ने किसी भी काल में किसी भी भाषा में अवतरित अपनी किसी वाणी में ऐसा करने के लिए नहीं कहा है।
इसीलिए क़ुरबानी की तुलना किसी देवी के सामने चढ़ाई गई पशु बलि से नहीं की जानी चाहिए।
ईश्वरीय विधान में एक वैध है और दूसरी अवैध।
एक पवित्र उपासना है तो दूसरी धर्मतः पाप और वर्जित।
हज की ज़रूरत ईश्वर को नहीं है बल्कि इंसान को है।
इस एक अमल के अलावा आज दुनिया में कोई अमल भी ऐसा नहीं है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इंसान की संकीर्णताओं, लालच और अहंकार आदि को एक साथ और समूल नष्ट कर रहा हो।
क़ुरबानी और मांस की ज़रूरत भी ईश्वर को नहीं है बल्कि इंसान को ही है।
क़ुरबानी के पशु का मांस इंसानों में बांट दिया जाए, ईश्वर ने यही तो सिखाया है।
ईश्वर चाहता है हम सामूहिकता में जिएं, हम एक दूसरे की देखभाल करते हुए जिएं। हम अपने मां-बाप, रिश्तेदारों और दोस्तों का भी ध्यान रखें और उन ज़रूरतमंदों का भी ध्यान रखें जो कि हम जैसे ही हैं भले ही वे सर्वथा अजनबी क्यों न हों।
ईश्वर का आदेश और संदेश बिल्कुल साफ़ है लेकिन लोग कहते हैं कि हमारी समझ में नहीं आ रहा है।
आज बड़े शहरों में एक आदमी अपने पड़ोसी की हालत से , उसकी चिंताओं से अंजान है। कोई 6 महीने से अपने घर से ही नहीं निकलता तो किसी पड़ोसी को कोई चिंता ही नहीं होती। कोई क़त्ल कर दिया गया है। लाश पड़ोस के फ़्लैट में पड़ी है लेकिन आस पास के लोग हैप्पी बर्थ डे गा रहे हैं, केक खा रहे हैं। भूख और कुपोषण के शिकार तो करोड़ो लोग तो रोज़ाना तड़प ही रहे हैं।
क़ुरबानी और उसके मांस का वितरण इसी ट्रेंड को तोड़ता है और इसे टूटना भी चाहिए।
हज और क़ुरबानी के दिन इंसान को उसके ख़ोल से , उसके आवरण से बाहर निकालते हैं, उसे अलग अलग स्तरों पर जी रहे इंसानों से जोड़ते हैं। जो इनसे जुड़ता है वही ईश्वर से जुड़ पाता है।
इस्लाम में सन्यास इसीलिए हराम और वर्जित है कि सन्यास इंसान को समाज से काट देता है।
किसी अध्ययन और किसी ज़रूरत के लिए आदमी कुछ समय एकांत में रहे, इस्लाम में यह मना नहीं है लेकिन इंसान ईश्वर की प्राप्ति के लिए समाज से कट जाए तो यह इस्लाम में वैध नहीं है।
अगर एक इंसान दूसरे इंसान के काम नहीं आ सकता तो फिर उसकी आध्यात्मिक अनुभूतियों का महत्व दूसरों के लिए कुछ भी नहीं है।
अगर एक आदमी ईश्वर से जुड़ जाता है और वह अपने मन और अपने विचारों को पवित्र बना लेता है तो यह सबसे बड़ी उपलब्धि है। इस उपलब्धि का भाव और प्रभाव आगे की नस्लों में भी बना रहे, इसके लिए उसे अवश्य ही विवाह करना चाहिए। इससे उसके जीवन साथी में भी उसका प्रभाव जाएगा और फिर उसकी संतान में भी।
बुरे लोग तो विवाह भी करें और व्याभिचार भी और हर तरह से उनकी संतान हो। बुरे लोग तो ख़ुद भी भटकें और दूसरों को भी भटका दें और जो आदमी पवित्र विचार का हो, जो आदमी मार्गदर्शन दे सकता हो, जो आदमी दूसरों को भटकने से बचा सकता हो, वह सन्यास ले ले। यह उचित भी नहीं है।
उपदेश का प्रभाव अपनी जगह लेकिन योग्य और उच्च क्षमता के व्यक्तियों के लक्षण वंशानुगत रूप से जिस तरह बनेंगे, उस तरह उपदेश सुनने वालों के माध्यम से नहीं। किसी भी तरीक़े को छोड़ा न जाए।
ईश्वर यही चाहता है कि उसे पाने के लिए हम कोई असामान्य, अप्राकृतिक और अव्यवहारिक तरीक़ा अख्तियार न करें कि उस पर दो चार लोग तो चल सकें और दूसरों पर चला न जा सके और अगर वे चलना चाहें तो फिर और ज़्यादा भटक जाएं।
जहां जहां यौन तृप्ति के लिए जायज़ तरीक़ों पर प्रतिबंध लगाया गया वहां कुछ ही समय बाद अवैध तरीक़ों से यौन तृप्ति की गई और की जा रही है और फिर इसे भी नाम धर्म का ही दे दिया गया।
ईश्वर यही चाहता है कि हम अपने स्वाभाविक स्वरूप में स्थित रहें।
हज में जो ख़ुत्बा दिया जाता है, उसमें ख़ुत्बा देने वाला इन सब बातों को सिखाता है और वहां से सीखकर लोग दुनिया भर में फैल जाते हैं। जब वे अपने अपने घरों को पहुंचते हैं तो बहुत से लोग उनसे मिलने के लिए आते हैं और उनसे हज की बातें और उनके अनुभव पूछते हैं। तब वे बताते हैं कि वहां उन्होंने क्या देखा और क्या सुना ?
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ख़ुत्बा जो कि उन्होंने हज्जतुल विदा के मौक़े पर दिया, एक सर्वश्रेष्ठ ख़ुत्बा है। यही एक ख़ुत्बा इंसान की तमाम समस्याओं का समाधान दे रहा है।
देखिए -
इसी अपवित्रता के कारण आज मानव जाति विखंडन, हिंसा, आतंकवाद, शोषण, महंगाई और बेरोज़गारी से त्रस्त है।
नेता के विचार पवित्र हों तो वह सही मार्गदर्शन देगा और सही नीतियां लागू करेगा। जनता के विचार पवित्र होंगे तो वे क़ायदे-क़ानून के खि़लाफ़ काम नहीं करेंगे। इस तरह नेता जनता को उनका अधिकार देगा और जनता भी अपने अधिकार से अधिक लेना जायज़ नहीं समझेगी। ऐसा तब होगा जबकि नेता और जनता, दोनों के विचार पवित्र होंगे।
शुभ विचारों से शुभ कर्म होंगे और शुभ कर्मों से कल्याण होता है। यह सब पवित्रता के बिना नहीं हो सकता।
विचारों में पवित्रता आएगी कैसे ?
क्योंकि धर्म को तो सामूहिक आचरण से ख़ारिज ही कर दिया गया है।पवित्रता केवल धर्म का विषय है विज्ञान, कला या दर्शन का नहीं।
जब लोगों ने धर्म को सामूहिक जीवन से ख़ारिज कर दिया तो दरअस्ल उन्होंने सामाजिक जीवन से पवित्रता को भी उसी क्षण ख़ारिज कर दिया। पवित्रता के ख़ारिज होते ही शुभता और कल्याण भी ख़ारिज हो गए।
वास्तव में पवित्र केवल ईश्वर है और जो भक्त उससे प्रेम करते हैं वे उससे जुड़ जाते हैं। उससे जुड़कर ही वे पवित्र होते हैं।
प्रेम जोड़ने वाली चीज़ है।
समर्पण प्रेम का अनिवार्य लक्षण है बल्कि यह प्रेम की बुनियाद है। समर्पण है तो प्रेम है और अगर समर्पण नहीं तो समझ लीजिए प्रेम नहीं है।जहां समर्पण होगा वहां विश्वास भी अवश्य होगा। जहां विश्वास होगा वहां स्वीकार भाव और पालन होगा।
जहां किसी बात को मानने में किंतु परंतु होगा वहां संदेह होगा और जहां संदेह होगा वहां विश्वास नहीं हो सकता, वहां स्वीकार और पालन नहीं बल्कि इंकार और अवहेलना होगी।
लोग संदेह के पौधे को इंकार का पानी देकर पेड़ बना देते हैं लेकिन वे फल विश्वास का खाना चाहते हैं।
क्या यह संभव है ?
नहीं, हरगिज़ नहीं।
जो लोग प्रभु परमेश्वर के अस्तित्व पर संदेह करते हैं, वे धर्म पर भी संदेह करें तो ठीक है। वे प्रभु परमेश्वर से जुड़ी हुई चीज़ों पर भी संदेह करें, उनके बारे में प्रश्न करें तो ठीक है। उन्होंने प्रभु पर विश्वास किया ही कब है ?
उन्होंने प्रभु के प्रति समर्पण किया ही कब है ?
उन्हें प्रभु से प्रेम ही कब है ?
ऐसे लोग प्रभु के आदेश का इंकार करें तो ठीक है , उनकी बात समझ में आती है लेकिन जो लोग प्रभु परमेश्वर के अस्तित्व को मानते हैं और उसके नाम को भी जानते हैं और यह भी जानते हैं कि भाषा अलग अलग होने के बावजूद मालिक सबका एक ही है। ऐसे लोग जब प्रभु परमेश्वर के आदेश पर संदेह करते हैं तो समझ में नहीं आता।
जब परमेश्वर पर विश्वास है तो उसके आदेश पर भी विश्वास होना चाहिए और जब विश्वास है तो उसका पालन होना चाहिए न कि इंकार ?
जो लोग एक भाषा में प्रभु का आदेश पढ़ते हैं तो उसका पालन करते हैं और उसी प्रभु की वाणी दूसरी भाषा में देखते तो उस पर संदेह करते हैं, उस पर सवाल करते हैं।
ऐसे लोग दरअस्ल ईश्वर से नहीं बल्कि अपनी भाषा संस्कृति से जुड़े होते हैं, ऐसे लोग धर्म से नहीं बल्कि अपने दर्शन से जुड़े होते हैं।
क्योंकि हम जिससे प्रेम करते हैं, उसकी बात मानते हैं, चाहे वह किसी भी भाषा में बात कहे।
जिससे हम प्रेम करते हैं, प्रमुख वह है न कि भाषा।
जब भाषा संस्कृति मुख्य हो जाए तो समझ लीजिए कि ईश्वर की जगह किसी और को दे दी गई है।आधुनिक सभ्यता के साथ यही हो रहा है और पहले से यही होता आ रहा है।
प्रमुख और केंद्रीय जगह किसी और चीज़ को दे दी जाती है और नाम ईश्वर का ही जपा जाता है। अपने मन से ही आदमी कुछ बात सोच लेता है और कहता है कि जो उसके मन में आता है, वह ईश्वर की प्रेरणा से ही आता है।
ईश्वर की प्रेरणा से तो तब आएगा जबकि वह ईश्वर से जुड़ा होगा।
वह ईश्वर, जो अजन्मा और अविनाशी है, जो पत्नी, बच्चों और काया से रहित है।
जो पैदा हुआ और मर गया , वह कुछ भी हो लेकिन ईश्वर नहीं हो सकता।ऐसा हरेक भाषा में लिखा मिलता है और यही एक बात है जिस पर सबसे कम ध्यान दिया गया और मरने जीने वालों को ईश्वर मान बैठे।
ऐसा बहुधा उनके साथ किया गया जो ईश्वर से जुड़े हुए लोग थे, जो महापुरूष थे , जो कि ईश्वर के प्रतिनिधि थे। ये लोग ईश्वर के सेवक, दास और प्रतिनिधि थे। अपने जीवन की घटनाओं पर ख़ुद उनका कभी नियंत्रण नहीं रहा। उनके प्रभु परमेश्वर ने उन्हें जिस हालत में रखा , उन्हें रहना पड़ा। जब उनकी जैसी परीक्षा लेनी चाही, उन्हें देनी पड़ी। जब उन्हें जिस कार्य का आदेश दिया, उन्हें करना पड़ा।
उनका जीवन हमें यही सिखाता है कि हमारे जीवन की डोर हमारे प्रभु के हाथ में है।
वह प्रभु जो इस सारी सृष्टि का स्वामी है।
हरेक जीव-निर्जीव वस्तु को उसी ने उत्पन्न किया और वही इन सबका स्वामी है।सबका भाग्य विधाता वही है।
उसे अधिकार है कि वह जिसे चाहे जीवन दे और जिसे चाहे मौत दे और जब चाहे दे और जिस तरीक़े से चाहे दे।
किसी को अधिकार नहीं है कि वह उस पर कोई प्रतिबंध लगाए और न ही किसी को ऐसी शक्ति प्राप्त है कि कोई चाहे तो उस पर प्रतिबंध लगा सके या उसके फ़ैसलों को अंजाम तक पहुंचने से रोक सके।
प्रकृति उसी परमेश्वर के अधीन है।
मनुष्य की प्रकृति में भी अधीनता का भाव पाया जाता है और अगर वह सच्चे परमेश्वर की अधीनता स्वीकार नहीं करता है तो फिर वह किसी ग़लत और अनधिकृत व्यक्ति की अधीनता में अवश्य ही चला जाता है।
संदेह इसी जगह काम देता है।
संदेह इंसान को सतर्क रखता है कि कहीं वह ग़लत जगह न फंस जाए।
विश्वास की रक्षा के बहुत काम आता है संदेह।
विश्वास को बचाने के लिए भी संदेह काम आता है और स्वयं विश्वास को पाने में भी संदेह बहुत काम देता है।संदेह बुद्धि का काम है। जो निर्बुद्धि लोग हैं, वे संदेह नहीं कर सकते और ऐसे लोग विश्वास भी नहीं कर सकते।
निर्बुद्धि मनुष्य तो अंधा होता है और जब वह विश्वास करता है तो उसका विश्वास भी अंधा ही होगा। अंधविश्वास यही लोग करते हैं। जिनके पास बुद्धि है और वे उसका उपयोग नहीं करते , उनके विश्वास का भी मूल्य कुछ नहीं है।
प्रभु परमेश्वर को पाना है तो हमें अपने रोम रोम से उसे पाना होगा और इंसान के इस पूरे वुजूद में सबसे बड़ी चीज़ यह बुद्धि ही तो है। ईश्वर की प्राप्ति इस बुद्धि से भी होनी आवश्यक है।
पशु और मनुष्य में केवल बुद्धि का अंतर ही तो है।
बुद्धि का विषय ही ज्ञान है।
बुद्धि है तो संदेह अवश्य करेगी। संदेह जिज्ञासा को और जिज्ञासा खोज को जन्म देगी। जो ढूंढता है वह पाता है।
जो ढूंढ रहे थे, वही मिला है या कुछ और मिल गया है।
इसका फ़ैसला केवल बुद्धि ही कर सकती है, इंसान यह निर्णय केवल बुद्धि के बल पर ही ले सकता है।
संदेह से नास्तिकता का जन्म होता है और जो चीज़ जन्म लेती है, उसकी मौत भी ज़रूर होती है। विश्वास की प्राप्ति होते ही संदेह का अंत हो जाता है।
संदेह का अंत मनुष्य के स्वभाव से नहीं हो जाता बल्कि जिस विषय में संदेह था, उस विषय में निर्णायक फ़ैसला हो जाने पर, अपने फ़ैसले के सही होने का विश्वास होते ही केवल उस विषय में संदेह का अंत हो जाता है।
संदेह जितना मज़बूत होगा, विश्वास भी उतना ही मज़बूत होगा।
दृढ़ नास्तिक जब आस्तिक बनते हैं तो भी दृढ़ ही बनते हैं।
आस्था, विश्वास, प्रेम और समर्पण की मंज़िल आसान नहीं है।
यह एक बहुत कठिन डगर है।
लोग कह तो देते हैं कि हम ईश्वर के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार हैं लेकिन हालत यह होती है कि अपने पड़ोसी को एक वक्त की रोटी देने के लिए तैयार नहीं हैं।
ईश्वर को अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए लेकिन अपने बंदों के लिए उसे सब कुछ चाहिए।
सारी सृष्टि की रचना उसने मनुष्यों का पालन करने के लिए ही तो की है।
सूरज की रौशनी, हवा, पानी और धरती, हर चीज़ का लाभ इंसान को मिल रहा है।
लेकिन इंसान को फिर भी नुक्सान ही पहुंच रहा है।
इंसान को यह नुक्सान कौन पहुंचा रहा है ?
इंसान को यह नुक्सान ख़ुद इंसान ही पहुंचा रहा है।
इंसान अपने अहंकर और लालच के वशीभूत होकर दूसरे इंसानों को नुक्सान पहुंचा रहा है।
अक्सर इंसान बस अपने आपे का और अपने परिवार का भला चाहता है।
जो लोग बहुत ज़्यादा अच्छे माने जाते हैं वे अपनी जाति और अपने देश-अपने राष्ट्र का भला चाहते हैं लेकिन ये भी संकीर्णताएं ही हैं।
सारी मानव जाति एक राष्ट्र है और भला सबका हो, सबको भोजन, आवास और विकास मिले, मनुष्य की भावना ऐसी हो, मनुष्य का कर्म ऐसा हो, ईश्वर हमसे यह चाहता है।
हज एक ऐसा ही मौक़ा है जब देश , जाति और भाषा-संस्कृति आदि की संकीर्णताएं तोड़ी जाती हैं। इन संकीर्णताओं का त्याग ही वह अस्ल क़ुरबानी है जो कि हज को जाने वाला एक हाजी देता है। जो लोग सफ़र के ख़र्च लायक़ धन रखते हैं और आवश्यक शर्तें पूरी करते हैं, वे हज का सफ़र करते हैं और जो उनके साथ नहीं जा पाते लेकिन उनके मन में भी ललक होती है कि वे जा सकते तो वे भी जाते, ऐसे लोग मन से काबे में ही खड़े होते हैं और शरीर से भी कुछ काम ऐसे कर रहे होते हैं जिन्हें एक हाजी अदा करता है।
इस तरह देश, जाति, भाषा-संस्कृति आदि की संकीर्णताएं टूटने की जो घटना मक्का में घटित हो रही होती है, उसे विस्तार मिलता है।
यह एक ख़ुशी का मक़ाम होता है। हज और क़ुरबानी के दिन लोग देखते भी हैं कि लोगों के चेहरों से ख़ुशी झलक रही होती है।
जब ये संकीर्णताएं टूट जाती हैं तो हम जान लेते हैं कि ये सब गौण चीज़ें थीं।
तब ज़बान से कहा हुआ ‘अल्लाहु अकबर‘ अर्थात परमेश्वर सबसे महान है एक ऐसी हक़ीक़त बन जाता है जिसे आदमी अपनी आंखों से देख भी रहा होता है। इंसान ज़िंदगी भर जिन चीज़ों को बड़ा, प्यारा और प्रमुख समझता रहा है, जब वह इन सबकी बलि चढ़ा देता है तब उसके दिल के केंद्र से ये सब चीज़ों हट जाती हैं और तब उसके दिल में ईश्वर-अल्लाह आ बसता है, ख़ुद ब ख़ुद।
तमसो मा ज्योतिर्गमय यहीं साकार होता है।
हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम ने यही तालीम दी है, उनकी जीवन गाथा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
लोग कहते हैं काटा तो बकरा को और काटने वाला कहता है कि क़ुरबानी हमने दी।
अरे भाई, आपने क्या त्याग किया, आपने क्या दुख उठाया ?
आपने तो बकरा काटा और उसे ज़ायक़ेदार बनाकर खा लिया। यह कैसी क़ुरबानी है , जिसमें क़ुरबानी देने वाला कोई दुख ही नहीं उठा रहा है ?ये वे लोग हैं जिनका सारा ध्यान बकरे पर ही अटक गया है और वे हज को उसके समग्र रूप में देख ही नहीं रहे हैं।
हज को उसकी हक़ीक़त के साथ अदा करने वालों में से एक बहुत महान पैग़ंबर थे हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम। वे एक मूर्तिपूजक ख़ानदान में पैदा हुए। वे पूरी ज़िंदगी पुरोहितवाद, आडंबर और अन्याय के खि़लाफ़ लड़ते रहे और इस मिशन के लिए उन्हें अपना घर, अपने दोस्त और रिश्तेदार और अपना वतन तक छोड़ देना पड़ा। पुराने ज़माने में पहचान क़बीले की हुआ करती थी और कोई भी आदमी अपने क़बीले और अपने लोगों से अलग होने का साहस नहीं करता था क्योंकि इसका मतलब था ख़ुद को तबाह कर लेना।
ऐसे समय में उन्होंने लोगों को शोषण और अन्याय से बचाने के लिए जो संघर्ष किया वह बेमिसाल है और उन्होंने लोगों को ऐसा ज्ञान दिया जिसकी ज़रूरत सारी दुनिया को पहले भी थी और आज भी है।
इसी सिलसिले में परमेश्वर अल्लाह ने उन्हें एक आज़माइश में डाला ताकि उनका अमल संसार वालों के लिए एक मिसाल बने। पशु बलि उसी वाक़ये का एक हिस्सा है।
आज भी जो लोग क़ुरबानी करते हैं, वह उसी वाक़ये की एक यादगार है।
एक जायज़ अमल को दोहराना कहीं से भी नाजायज़ नहीं हो सकता।
हज को जाने वाला अपना घर, अपना वतन और अपना आराम छोड़ता है और महज़ अल्लाह के लिए ही करता है। क्या यह कष्ट उठाना नहीं है ?
क्या इसे त्याग की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा ?
हज को जाने वाला अपने ऐशो आराम से भी वंचित होता है और अपने माल को भी ख़र्च करता है। इस तरह वह अपने लोभ-मोह पर नियंत्रण करना भी सीखता है और हज के दौरान वह अपने सबसे बड़े सुख, यौन सुख का भी त्याग करता है। इस तरह वह काम पर भी नियंत्रण सीखता है। जगह जगह एक हाजी को ऐसे नागवार हालात का सामना करना पड़ता है जो कि उसके क्रोध और अहंकार को भड़काते हैं लेकिन उसका हज ख़ुदा की नज़र में क़ुबूल हो जाए, सिर्फ़ इस मक़सद के लिए वह अपनी नकारात्मक प्रवृत्तियों का दमन करता है और हरेक तकलीफ़ पर सब्र करता है। इस तरह वह ख़ुद को तैयार करता है कि मानवता के हितार्थ अल्लाह के हुक्म को पूरा करने के लिए उसे जब कभी किसी भी तरह की क़ुरबानी देनी पड़ेगी तो वह सहर्ष देगा।
पशुबलि करने वाले के हालात पर नज़र डाली जाए तो उसके त्याग और बलिदान को भी देखा जा सकता है।
जो लोग आवश्यक शर्तें पूरी न कर पाने के कारण या वीज़ा न मिल पाने के कारण हज को नहीं जा सके हैं, उनके आत्मिक कष्ट को तो कोई और समझ ही नहीं सकता। वे भी इस कष्ट को धैर्यपूर्वक बर्दाश्त करते हैं और आने वाले साल का इंतेज़ार करते हैं। किसी चीज़ का इंतेज़ार कैसा कष्ट देता है, इसे केवल वही जान सकता है , जिसने कभी किसी का इंतेज़ार किया हो।
मुहब्बत जितनी ज़्यादा होगी, बेक़रारी भी उतनी ही ज़्यादा होगी और जितनी ज़्यादा बेक़रारी होगी , तकलीफ़ भी उतनी ही ज़्यादा होगी।
यह मुहब्बत और बेक़रारी और यह तकलीफ़ दिखाई नहीं देती लेकिन बहरहाल होती है और किसी को इससे इंकार भी नहीं हो सकता।
जो लोग क़ुरबानी देते हैं उन्हें बहरहाल तकलीफ़ होती है और वे अपने माल और अपने वक्त को अल्लाह के नाम पर ख़र्च करते हैं और यह ख़र्च करना भी त्याग और बलिदान की श्रेणी में ही आता है।
लोग क़ुरबानी देने वाले के एंगल से नहीं सोचते लेकिन बकरे के एंगल से सोचते हैं इसीलिए उन्हें बकरे का कष्ट तो दिखाई देता है लेकिन उन्हें क़ुरबानी देने वाले का कष्ट और त्याग नज़र नहीं आता।
बकरा हो या कोई और मवेशी , जिसकी क़ुरबानी दी जा रही है। उसे तकलीफ़ होगी यह सोचकर उसकी क़ुरबानी छोड़ी नहीं जा सकती।
ख़ुदा के हुक्म को पूरा करने के लिए जब इंसान कष्ट उठा रहा है तो फिर बकरा ही क्यों वंचित रहे ?
यह अलग बात है कि क़ुरबानी के लिए हलाल का जो इस्लामी तरीक़ा है, वह हलाल होने वाले जानवर को कोई कष्ट होने नहीं देता।
जिन जानवरों को हलाल के अलावा किसी और तरीक़े से काटा जाता है, उन्हें ज़रूर कष्ट होता है या जिन जानवरों को काटा ही नहीं जाता, वे कितना कष्ट भोगते हैं, इसे उन बूढ़े आवारा मवेशियों को देखकर जाना जा सकता है जो कि सड़कों पर घूमते ही रहते हैं। जब तक वे दूध दे सकते थे, उनके अहिंसावादी और शाकाहारी स्वामी उनके मालिक बने रहे। वे बेचारे जगह जगह से मांग कर खाते रहे और दूध के टाइम पर आकर दूध मालिक को देते रहे और जब वे दूध देने के लायक़ न बचे तो उन पर से उनके रखवाले ने अपना मालिकाना हक़ ही उठा लिया। अब वे बेचारे बुढ़ापे में जहां तहां डंडे और पॉलिथीन खाते हुए घूमते रहते हैं। यह भी तो घोर कष्ट ही है और इन जानवरों को यह कष्ट उन लोगों के कारण होता है जो कि क़ुरबानी नहीं करते बल्कि क़ुरबानी का विरोध करते हैं।
क़ुरबानी का विरोध करने वाले अपने मवेशियों को कितना दारूण कष्ट पहुंचाते हैं,इसके विरूद्ध किसी की आवाज़ क्यों नहीं उठती ?
मवेशियों का मांस भी इंसान का ठीक उसी प्रकार भोजन है जिस प्रकार उनका दूध, शहद या फल-सब्ज़ियां। धर्म तो इस बात को पहले से ही कहता आ रहा है और अब विज्ञान भी यही कह रहा है। जहां धर्म और विज्ञान सहमत हैं, वहां भी ऐतराज़ क्यों ?
ईश्वर सृष्टि का रचयिता भी है और विधाता भी। उसी ने सब जीवों की रचना की है और उनके स्वभाव की रचना भी उसी परमेश्वर ने की है।
‘जीव जीवस्य भोजनम्‘ अर्थात जीव का आहार जीव ही है, इस विधान की रचना भी उसी परमेश्वर ने की है और अपनी वाणी में भी उसने यह साफ़ साफ़ बताया है। उसकी जिन वाणियों में क्षेपक हो गया है, उनमें भी यह व्यवस्था आज तक मौजूद मिलती है।
ईश्वर ने जिन मवेशियों को खाने की इजाज़त दी है, उनकी क़ुरबानी देने के लिए हलाल करना या अपने भोजन के लिए उन्हें ज़िब्ह करना जीव हत्या नहीं कहलाता क्योंकि ऐसा ईश्वर की अनुमति से किया जाता है और इसी बात की याददिहानी के लिए उन्हें हलाल करते समय ईश्वर अल्लाह की महानता का ज़िक्र किया जाता है। ईश्वर का आदेश और उसका नाम आने के बाद यह काम हत्या नहीं बल्कि इबादत बन जाता है।
हक़ीक़त से नावाक़िफ़ लोगों को यह जानकर ताज्जुब हो सकता है कि महज़ ईश्वर का आदेश और उसका नाम लेना किसी जानवर की जान लेने को हत्या के बजाय इबादत कैसे बना सकता है ?
इसे समझने के लिए आप औरत और मर्द के यौन संबंधों को देख सकते हैं।
जो लोग ईश्वरीय व्यवस्था होने का दावा करते हैं। उनके पास विवाह और निकाह की व्यवस्था भी ज़रूर मिलेगी। विवाह और निकाह वह तरीक़ा है जो कि ईश्वर का आदेश है और जब औरत और मर्द लोगों के सामने एक दूसरे को ग्रहण करते हैं तो वे ईश्वर को साक्षी मानकर, उसके नाम पर और उसके आदेश को पूरा करने के लिए ही ऐसा करते हैं।
ईश्वर का नाम औरत मर्द के यौन संबंधों को पवित्रता प्रदान करता है।
पवित्रता और महानता ही नहीं बल्कि इसे ईश्वर प्राप्ति का साधन भी बना देता है। हिंदू दर्शन में भी चारों आश्रमों में गृहस्थ आश्रम को सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है।जहां औरत और मर्द के यौन संबंध तो पति पत्नी की तरह ही हों लेकिन ये संबंध ईश्वर के नाम पर न बने हों तो यही संबंध व्याभिचार और पाप कहलाते हैं। ईश्वर का नाम हटते ही संबंधों की पवित्रता भी ख़त्म हो जाती है और उनका नाम भी बदल जाता है।
यह बात ऐतराज़ करने वालों के सामने रहती तो वे ईश्वर के नाम पर क़ुरबान किए जाने वाले जानवरों के ज़िब्ह को जीव हत्या का नाम न देते।
जीव हत्या तो वहां होती है जहां ईश्वर द्वारा निर्धारित रीति ‘हलाल‘ के अलावा किसी और तरीक़े से पशु को काटा जाए या उसके अलावा किसी और के नाम पर उस पशु को काटा जाए।समस्त जीवों का स्वामी वही एक परमेश्वर है, उसके अलावा किसी और के नाम पर उन्हें क़ुरबान करना अनाधिकार चेष्टा है। परमेश्वर ने किसी भी काल में किसी भी भाषा में अवतरित अपनी किसी वाणी में ऐसा करने के लिए नहीं कहा है।
इसीलिए क़ुरबानी की तुलना किसी देवी के सामने चढ़ाई गई पशु बलि से नहीं की जानी चाहिए।
ईश्वरीय विधान में एक वैध है और दूसरी अवैध।
एक पवित्र उपासना है तो दूसरी धर्मतः पाप और वर्जित।
लोग कहते हैं कि ईश्वर को किसी के हज की क्या ज़रूरत है ?
ईश्वर को किसी पशु की बलि की क्या ज़रूरत है ?
ईश्वर तो खाता पीता ही नहीं है , वह क़ुरबानी के पशु का क्या करेगा ?
हज की ज़रूरत ईश्वर को नहीं है बल्कि इंसान को है।
इस एक अमल के अलावा आज दुनिया में कोई अमल भी ऐसा नहीं है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इंसान की संकीर्णताओं, लालच और अहंकार आदि को एक साथ और समूल नष्ट कर रहा हो।
क़ुरबानी और मांस की ज़रूरत भी ईश्वर को नहीं है बल्कि इंसान को ही है।
क़ुरबानी के पशु का मांस इंसानों में बांट दिया जाए, ईश्वर ने यही तो सिखाया है।
ईश्वर चाहता है हम सामूहिकता में जिएं, हम एक दूसरे की देखभाल करते हुए जिएं। हम अपने मां-बाप, रिश्तेदारों और दोस्तों का भी ध्यान रखें और उन ज़रूरतमंदों का भी ध्यान रखें जो कि हम जैसे ही हैं भले ही वे सर्वथा अजनबी क्यों न हों।
ईश्वर का आदेश और संदेश बिल्कुल साफ़ है लेकिन लोग कहते हैं कि हमारी समझ में नहीं आ रहा है।
आज बड़े शहरों में एक आदमी अपने पड़ोसी की हालत से , उसकी चिंताओं से अंजान है। कोई 6 महीने से अपने घर से ही नहीं निकलता तो किसी पड़ोसी को कोई चिंता ही नहीं होती। कोई क़त्ल कर दिया गया है। लाश पड़ोस के फ़्लैट में पड़ी है लेकिन आस पास के लोग हैप्पी बर्थ डे गा रहे हैं, केक खा रहे हैं। भूख और कुपोषण के शिकार तो करोड़ो लोग तो रोज़ाना तड़प ही रहे हैं।
क़ुरबानी और उसके मांस का वितरण इसी ट्रेंड को तोड़ता है और इसे टूटना भी चाहिए।
हज और क़ुरबानी के दिन इंसान को उसके ख़ोल से , उसके आवरण से बाहर निकालते हैं, उसे अलग अलग स्तरों पर जी रहे इंसानों से जोड़ते हैं। जो इनसे जुड़ता है वही ईश्वर से जुड़ पाता है।
इस्लाम में सन्यास इसीलिए हराम और वर्जित है कि सन्यास इंसान को समाज से काट देता है।
किसी अध्ययन और किसी ज़रूरत के लिए आदमी कुछ समय एकांत में रहे, इस्लाम में यह मना नहीं है लेकिन इंसान ईश्वर की प्राप्ति के लिए समाज से कट जाए तो यह इस्लाम में वैध नहीं है।
अगर एक इंसान दूसरे इंसान के काम नहीं आ सकता तो फिर उसकी आध्यात्मिक अनुभूतियों का महत्व दूसरों के लिए कुछ भी नहीं है।
अगर एक आदमी ईश्वर से जुड़ जाता है और वह अपने मन और अपने विचारों को पवित्र बना लेता है तो यह सबसे बड़ी उपलब्धि है। इस उपलब्धि का भाव और प्रभाव आगे की नस्लों में भी बना रहे, इसके लिए उसे अवश्य ही विवाह करना चाहिए। इससे उसके जीवन साथी में भी उसका प्रभाव जाएगा और फिर उसकी संतान में भी।
बुरे लोग तो विवाह भी करें और व्याभिचार भी और हर तरह से उनकी संतान हो। बुरे लोग तो ख़ुद भी भटकें और दूसरों को भी भटका दें और जो आदमी पवित्र विचार का हो, जो आदमी मार्गदर्शन दे सकता हो, जो आदमी दूसरों को भटकने से बचा सकता हो, वह सन्यास ले ले। यह उचित भी नहीं है।
उपदेश का प्रभाव अपनी जगह लेकिन योग्य और उच्च क्षमता के व्यक्तियों के लक्षण वंशानुगत रूप से जिस तरह बनेंगे, उस तरह उपदेश सुनने वालों के माध्यम से नहीं। किसी भी तरीक़े को छोड़ा न जाए।
ईश्वर यही चाहता है कि उसे पाने के लिए हम कोई असामान्य, अप्राकृतिक और अव्यवहारिक तरीक़ा अख्तियार न करें कि उस पर दो चार लोग तो चल सकें और दूसरों पर चला न जा सके और अगर वे चलना चाहें तो फिर और ज़्यादा भटक जाएं।
जहां जहां यौन तृप्ति के लिए जायज़ तरीक़ों पर प्रतिबंध लगाया गया वहां कुछ ही समय बाद अवैध तरीक़ों से यौन तृप्ति की गई और की जा रही है और फिर इसे भी नाम धर्म का ही दे दिया गया।
ईश्वर यही चाहता है कि हम अपने स्वाभाविक स्वरूप में स्थित रहें।
हज में जो ख़ुत्बा दिया जाता है, उसमें ख़ुत्बा देने वाला इन सब बातों को सिखाता है और वहां से सीखकर लोग दुनिया भर में फैल जाते हैं। जब वे अपने अपने घरों को पहुंचते हैं तो बहुत से लोग उनसे मिलने के लिए आते हैं और उनसे हज की बातें और उनके अनुभव पूछते हैं। तब वे बताते हैं कि वहां उन्होंने क्या देखा और क्या सुना ?
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ख़ुत्बा जो कि उन्होंने हज्जतुल विदा के मौक़े पर दिया, एक सर्वश्रेष्ठ ख़ुत्बा है। यही एक ख़ुत्बा इंसान की तमाम समस्याओं का समाधान दे रहा है।
देखिए -
THE LAST SERMON OF THE HOLY PROPHET OF ISLAM
All mankind is the progeny of Adam and Adam was fashioned out of clay.
Behold; every claim of privilage whether that of blood or property, is
under my heels except that of the custody of the Ka’bah and supplying of
water to the pilgrims, O’ people of Quraish, don’t appear (on the Day of
Judgement) with the burden of this world around your necks, whereas other
people may appear (before the Lord) with the rewards of the hereafter. In
that case I shall avail you naught against Allah.
Behold! All practice of the days of ignorance are now under my feet. The
blood revenges of the days of ignorance are remitted. The first claim on
blood I abolish is that of Ibn Rabiah bin Harith who was nursed in the
tribe of Sa’ad and whom the Hudhayls killed. All interest and usurious
dues accruing from the times of ignorance stand wiped out. And the first
amount of interest that I remit is that which Abbas ibn Abd-al Muttalib
had to receive. Verily it is remitted entirely.
O’ people! Verily yor blood, your property and your honour are sacred and
inviolable until you appear before your Lord, as the sacred inviolability
of this day of yours, this month of yours and this very town (of yours).
Verily you will soon meet your Lord and you will be held answerable for
your actions.
O’ people! Verily you have got certain rights over your women and your
women have certain rights over you. It is your right upon them to honour
their conjugal rights, and not to commit acts of impropriety, which if
they do, you are authorised by Allah to separate them from your beds amd
chastise them, but not severely, and if they refrain, then clothe and feed
them properly.
Behold! It is not permissible for a woman to give anything from the wealth
of her husband to anyone but with his consent.
Treat the women kindly, since they are your helpers and not in a position
to manage their affairs themselves. Fear Allah concerning women, for
verily you have taken them on the security of Allah and have made their
persons lawful unto you by words of Allah.
हम अपने दैनिक क्रिया कलाप करते हुए ईश्वर का अनुग्रह और ईश्वर का सामीप्य पा सकते हैं बल्कि यही तरीक़ा है जो ईश्वर ने हमारे लिए अनिवार्य किया है।
हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम से पहले के और उनके बाद के नबियों ने यही बताया है।
जो लोग हज और क़ुरबानी के भाव को जानने समझने और उसे अपनाने की कोशिश नहीं करते, उनकी क़ुरबानी वास्तव में क़ुरबानी ही नहीं होती। वह तो बस एक दिखावा है। दिखावटी रस्में ईश्वर-अल्लाह को ख़ुश नहीं करतीं।
अल्लाह कहता है-
लयं लनालल्लाहा लुहूमुहा वला दिमाऊहा वलाकियं यनालुत्तक्वा मिनकुम।
-अलक़ुरआन, 22, 37
अल्लाह तक तो केवल आपका ‘तक्वा का भाव‘ पहुंचता है और दिखावटी रस्मों में वही नदारद होता है। दिखावा इंसान के लिए तबाही का सामान ही बनता है।
जो लोग दिखावे के आदी होते हैं। वे क़ुरबानी ही नहीं नमाज़ भी दिखावे के लिए ही अदा करते हैं।
अल्लाह कहता है कि
अरा-एयतल्-लज़ी युकजि़्ज़बु बिद्-दीन।
फ़जालिकल्लज़ी यदुउ-उल-यतीम।
वला यहुज़्ज़ु अ़ला तअ़ामिल मिस्कीन।
फ़वैलुल्-लिल्-मुसल्लीन।
अल्लज़ीना हुम अन सलातिहिम साहून।
अल्लज़ीना हुम युराऊना।
वयमनाऊनल माऊन
-अलक़ुरआन, सूरा 107
अर्थ - क्या तूने उसे देखा जो दीन को झुठलाता है ?
वही तो है जो अनाथ को धक्के देता है,
और मोहताज के खिलाने की प्रेरणा नहीं देता।
अतः तबाही है उन नमाज़ियों के लिए,
जो अपनी नमाज़ से ग़ाफ़िल (असावधान) हैं,
जो दिखावे के काम करते हैं,
और बरतने की आम चीज़ें भी किसी को नहीं देते।
परमेश्वर अल्लाह ने अपनी वाणी में साफ़ कह दिया है कि जो लोग अनाथ को धक्के देते हैं, मोहताज को खिलाने की तरफ़ ध्यान नहीं देते और लोगों बरतने की आम चीज़ें तक देना पसंद नहीं करते, ये लोग दीन को झुठलाने वाले लोग हैं और ऐसे लोगों का अंजाम सिर्फ़ तबाही है।
जो लोग केवल स्वार्थ में जीते हैं और क़ुरबानी और हज को भी दिखावे के लिए इस्तेमाल करते हैं, उनका अमल तक्वा से ख़ाली है। इनमें से आप कुछ लोगों को देखेंगे कि बड़े दौलतमंद हैं, आने वाले इलेक्शन में उन्हें खड़ा होना है। कभी लोगों की भलाई के लिए कुछ किया नहीं है लेकिन अब उन्हें लोगों के वोट चाहिएं तो पहुंच जाएंगे हज के लिए ताकि लौटकर वे टोपी में फ़ोटों खिंचाएं और नाम के साथ हाजी लगाएं और फिर बड़े बड़े पोस्टर आपको शहर के हरेक चौराहे पर नज़र आएंगे।
यही लोग हैं जो हाजियों का नाम बदनाम करते हैं।
यही लोग हैं जो शान दिखाने के अंदाज़ में क़ुरबानियां करते हैं और यही लोग हैं जो अपनी इबादतों के ज़रिये ख़ुदा का प्यार पाने के बजाय उसका ग़ज़ब मोल लेते हैं।
जो लोग प्रेम और समर्पण को भुलाकर केवल इबादत की ज़ाहिरी रस्म का दिखावा किसी दुनियावी नफ़े के लिए करते, ऐसे लोग भी ख़ुदा का ग़ज़ब समेटते हैं और वे लोग भी ख़ुदा का ग़ज़ब ही समेटते हैं जो कि ख़ुदा के हुक्म को सिरे से ही भुला देते हैं या फिर उसके हुक्म का विरोध मात्र इसलिए करते हैं कि उसका हुक्म उनकी रूचि के खि़लाफ़ है।
क़ुरबानी का हुक्म केवल मुसलमानों को ही नहीं दिया गया है बल्कि हरेक समुदाय को दिया गया है।
परमेश्वर अल्लाह कहता है कि
और प्रत्येक समुदाय के लिए हमने क़ुरबानी का विधान किया, ताकि वे उन जानवरों अर्थात मवेशियों पर अल्लाह का नाम लें, जो उसने उन्हें प्रदान किए हैं। अतः तुम्हारा पूज्य प्रभु अकेला पूज्य प्रभु है। तो उसी के आज्ञाकारी बनकर रहो और विनम्रता अपनाने वालों को शुभ सूचना दे दो।
-अलक़ुरआन, 22, 34
इस धरती पर जो भी समुदाय अपने पास ईश्वरीय ज्ञान और व्यवस्था होने का दावा करता है, वह देख सकता है कि उस दिव्य व्यवस्था में पशु बलि और क़ुरबानी का विधान ज़रूर होगा।
यह और बात है कि बाद में चाहे उसका रूप बदल गया हो या उसे बिल्कुल ही बंद कर दिया गया हो। बाद में कुछ भी होता रहा हो लेकिन शुरूआती दौर में उसमें पशु बलि का आदेश ज़रूर मिलेगा।
इस्लाम सनातन धर्म का ही नवीनीकरण और पुनरूत्थान है। इस्लाम में पशु बलि देखकर इसे आसानी से जाना जा सकता है। धर्म ही पवित्रता का भाव जगा सकता है और तभी हरेक पाप और जुर्म का और हरेक समस्या का वास्तविक समाधान हो सकता है।
हर साल हज का मौक़ा आता है और पूरे विश्व में मुसलमान क़ुरबानी करते हैं। इस तरह सारे संसार के लिए ईश्वर एक अवसर प्रदान करता है जबकि लोग धर्म को पहचान सकते हैं। अगर इस अवसर का हमारे हिंदू भाई बहन सदुपयोग करें तो अपने सनातन धर्म को उसके मूल और व्यवहारिक स्वरूप में आज भी पा सकते हैं।
Behold; every claim of privilage whether that of blood or property, is
under my heels except that of the custody of the Ka’bah and supplying of
water to the pilgrims, O’ people of Quraish, don’t appear (on the Day of
Judgement) with the burden of this world around your necks, whereas other
people may appear (before the Lord) with the rewards of the hereafter. In
that case I shall avail you naught against Allah.
Behold! All practice of the days of ignorance are now under my feet. The
blood revenges of the days of ignorance are remitted. The first claim on
blood I abolish is that of Ibn Rabiah bin Harith who was nursed in the
tribe of Sa’ad and whom the Hudhayls killed. All interest and usurious
dues accruing from the times of ignorance stand wiped out. And the first
amount of interest that I remit is that which Abbas ibn Abd-al Muttalib
had to receive. Verily it is remitted entirely.
O’ people! Verily yor blood, your property and your honour are sacred and
inviolable until you appear before your Lord, as the sacred inviolability
of this day of yours, this month of yours and this very town (of yours).
Verily you will soon meet your Lord and you will be held answerable for
your actions.
O’ people! Verily you have got certain rights over your women and your
women have certain rights over you. It is your right upon them to honour
their conjugal rights, and not to commit acts of impropriety, which if
they do, you are authorised by Allah to separate them from your beds amd
chastise them, but not severely, and if they refrain, then clothe and feed
them properly.
Behold! It is not permissible for a woman to give anything from the wealth
of her husband to anyone but with his consent.
Treat the women kindly, since they are your helpers and not in a position
to manage their affairs themselves. Fear Allah concerning women, for
verily you have taken them on the security of Allah and have made their
persons lawful unto you by words of Allah.
हम अपने दैनिक क्रिया कलाप करते हुए ईश्वर का अनुग्रह और ईश्वर का सामीप्य पा सकते हैं बल्कि यही तरीक़ा है जो ईश्वर ने हमारे लिए अनिवार्य किया है।
हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम से पहले के और उनके बाद के नबियों ने यही बताया है।
जो लोग हज और क़ुरबानी के भाव को जानने समझने और उसे अपनाने की कोशिश नहीं करते, उनकी क़ुरबानी वास्तव में क़ुरबानी ही नहीं होती। वह तो बस एक दिखावा है। दिखावटी रस्में ईश्वर-अल्लाह को ख़ुश नहीं करतीं।
अल्लाह कहता है-
लयं लनालल्लाहा लुहूमुहा वला दिमाऊहा वलाकियं यनालुत्तक्वा मिनकुम।
-अलक़ुरआन, 22, 37
अर्थ- न उनके मांस अल्लाह को पहुंचते हैं और न उनके रक्त। किंतु उसे तुम्हारा तक्वा (धर्मपरायणता) पहुंचता है।
अल्लाह तक तो केवल आपका ‘तक्वा का भाव‘ पहुंचता है और दिखावटी रस्मों में वही नदारद होता है। दिखावा इंसान के लिए तबाही का सामान ही बनता है।
जो लोग दिखावे के आदी होते हैं। वे क़ुरबानी ही नहीं नमाज़ भी दिखावे के लिए ही अदा करते हैं।
अल्लाह कहता है कि
अरा-एयतल्-लज़ी युकजि़्ज़बु बिद्-दीन।
फ़जालिकल्लज़ी यदुउ-उल-यतीम।
वला यहुज़्ज़ु अ़ला तअ़ामिल मिस्कीन।
फ़वैलुल्-लिल्-मुसल्लीन।
अल्लज़ीना हुम अन सलातिहिम साहून।
अल्लज़ीना हुम युराऊना।
वयमनाऊनल माऊन
-अलक़ुरआन, सूरा 107
अर्थ - क्या तूने उसे देखा जो दीन को झुठलाता है ?
वही तो है जो अनाथ को धक्के देता है,
और मोहताज के खिलाने की प्रेरणा नहीं देता।
अतः तबाही है उन नमाज़ियों के लिए,
जो अपनी नमाज़ से ग़ाफ़िल (असावधान) हैं,
जो दिखावे के काम करते हैं,
और बरतने की आम चीज़ें भी किसी को नहीं देते।
परमेश्वर अल्लाह ने अपनी वाणी में साफ़ कह दिया है कि जो लोग अनाथ को धक्के देते हैं, मोहताज को खिलाने की तरफ़ ध्यान नहीं देते और लोगों बरतने की आम चीज़ें तक देना पसंद नहीं करते, ये लोग दीन को झुठलाने वाले लोग हैं और ऐसे लोगों का अंजाम सिर्फ़ तबाही है।
जो लोग केवल स्वार्थ में जीते हैं और क़ुरबानी और हज को भी दिखावे के लिए इस्तेमाल करते हैं, उनका अमल तक्वा से ख़ाली है। इनमें से आप कुछ लोगों को देखेंगे कि बड़े दौलतमंद हैं, आने वाले इलेक्शन में उन्हें खड़ा होना है। कभी लोगों की भलाई के लिए कुछ किया नहीं है लेकिन अब उन्हें लोगों के वोट चाहिएं तो पहुंच जाएंगे हज के लिए ताकि लौटकर वे टोपी में फ़ोटों खिंचाएं और नाम के साथ हाजी लगाएं और फिर बड़े बड़े पोस्टर आपको शहर के हरेक चौराहे पर नज़र आएंगे।
यही लोग हैं जो हाजियों का नाम बदनाम करते हैं।
यही लोग हैं जो शान दिखाने के अंदाज़ में क़ुरबानियां करते हैं और यही लोग हैं जो अपनी इबादतों के ज़रिये ख़ुदा का प्यार पाने के बजाय उसका ग़ज़ब मोल लेते हैं।
जो लोग प्रेम और समर्पण को भुलाकर केवल इबादत की ज़ाहिरी रस्म का दिखावा किसी दुनियावी नफ़े के लिए करते, ऐसे लोग भी ख़ुदा का ग़ज़ब समेटते हैं और वे लोग भी ख़ुदा का ग़ज़ब ही समेटते हैं जो कि ख़ुदा के हुक्म को सिरे से ही भुला देते हैं या फिर उसके हुक्म का विरोध मात्र इसलिए करते हैं कि उसका हुक्म उनकी रूचि के खि़लाफ़ है।
क़ुरबानी का हुक्म केवल मुसलमानों को ही नहीं दिया गया है बल्कि हरेक समुदाय को दिया गया है।
परमेश्वर अल्लाह कहता है कि
और प्रत्येक समुदाय के लिए हमने क़ुरबानी का विधान किया, ताकि वे उन जानवरों अर्थात मवेशियों पर अल्लाह का नाम लें, जो उसने उन्हें प्रदान किए हैं। अतः तुम्हारा पूज्य प्रभु अकेला पूज्य प्रभु है। तो उसी के आज्ञाकारी बनकर रहो और विनम्रता अपनाने वालों को शुभ सूचना दे दो।
-अलक़ुरआन, 22, 34
इस धरती पर जो भी समुदाय अपने पास ईश्वरीय ज्ञान और व्यवस्था होने का दावा करता है, वह देख सकता है कि उस दिव्य व्यवस्था में पशु बलि और क़ुरबानी का विधान ज़रूर होगा।
यह और बात है कि बाद में चाहे उसका रूप बदल गया हो या उसे बिल्कुल ही बंद कर दिया गया हो। बाद में कुछ भी होता रहा हो लेकिन शुरूआती दौर में उसमें पशु बलि का आदेश ज़रूर मिलेगा।
इस्लाम सनातन धर्म का ही नवीनीकरण और पुनरूत्थान है। इस्लाम में पशु बलि देखकर इसे आसानी से जाना जा सकता है। धर्म ही पवित्रता का भाव जगा सकता है और तभी हरेक पाप और जुर्म का और हरेक समस्या का वास्तविक समाधान हो सकता है।
हर साल हज का मौक़ा आता है और पूरे विश्व में मुसलमान क़ुरबानी करते हैं। इस तरह सारे संसार के लिए ईश्वर एक अवसर प्रदान करता है जबकि लोग धर्म को पहचान सकते हैं। अगर इस अवसर का हमारे हिंदू भाई बहन सदुपयोग करें तो अपने सनातन धर्म को उसके मूल और व्यवहारिक स्वरूप में आज भी पा सकते हैं।
यह लेख शिल्पा मेहता जी के लेख में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में लिखा गया है जो कि नीचे दिया जा रहा है और उस लेख पर आए अन्य कमेंट भी साथ में ही दिए जा रहे हैं ताकि पाठकों के सामने पूरी पृष्ठभूमि आ जाए।
कुर्बानी क्या होती है ?
कुर्बानी शब्द के सही मायने क्या हैं ? हमने तो बचपन से जो शब्दार्थ पढ़ा - उसके अनुसार तो "कुर्बानी" का अर्थ "त्याग" है | किसी के लिए / धर्म के लिए अपने निजी दुःख / नुकसान / जान की भी कीमत पर कुछ त्याग करना क़ुरबानी होती है | यही पढ़ा है, यही सुना है |
कल जो ईद मनाई गयी (७/११/११) उस अवसर पर बकरे की कुर्बानी के बारे में कई बातें सुनी हैं - पक्ष में भी और विपक्ष में भी | कुछ सवाल हैं जो पूछना चाहूंगी - कृपया समाधान करें, दोनों ही पक्षों के लोगों से प्रार्थना कर रही हूँ |
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कृपया टिपण्णी करते हुए इन तीन बातों का ध्यान रखें :
१. यह पोस्ट शाकाहार / मांसाहार पर नहीं - सिर्फ , सिर्फ और सिर्फ कुर्बानी पर है | कृपया विषय पर बने रहें | कृपया यहाँ मांसाहार के फायदे नुक्सान पर नहीं - सिर्फ कुर्बानी पर चर्चा करें |
२. आरोप प्रत्यारोपों / निजी आक्षेपों / धर्मं विशेष पर आक्षेपों से बचें - ऐसी टिप्पणियां प्रकाशित नहीं की जायेंगी |
३. कमेन्ट मोडरेशन लगा है - क्योंकि विषय controversial है - इसलिए कृपया विषय पर ही उत्तर दें |
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यदि कोई कार्य करना मेरा कर्त्तव्य/ धर्म है - तो भले ही उससे मुझे कितनी ही निजी क्षति हो, भले ही मुझे उस काम को करने से कितनी ही निजी तकलीफ हो, भले ही मेरे अपनों का कितना ही नुक्सान हो - फिर भी - असह्य निजी दुःख/ क्षति की कीमत पर भी मैं वह करूँ - क्योंकि यह कर्त्तव्य कर्म करना किसी उच्च उद्देश्य के लिए आवश्यक है - तो यह कुर्बानी कहलाएगी |
कुर्बानी के कुछ उदाहरण
१) भगतसिंह / आज़ाद/ लक्ष्मीबाई देश के प्रति अपने कर्त्तव्य के लिए प्राण दे देते हैं | यह कुर्बानी है |
२) सैनिक देश के लिए कट जाते हैं - यह क़ुरबानी है |
३) एक दोस्त (/ माँ / पत्नी) अपने दोस्त (बच्चे / पति ) की छाती पर लगने वाली गोली अपने ह्रदय पर ले और अपनी जान दे कर उस की जान बचाए |
४) अपनी kidney किसी की जान बचाने को दे देना - यह कुर्बानी है |
५) एक पत्नी अपने पति के लिए करवाचौथ आदि पर भूखी है - प्यासी है - पर कुछ नहीं खा - पी रही - की पति की उम्र लम्बी हो |
६) एक सच्चा मुसलमान भूखा है / प्यासा है - परन्तु रोज़े रख रहा है |
७) अर्जुन युद्ध में धर्म की रक्षा के लिए अपने परम प्रिय पितामह पर बाण चला रहा है | वह भी शिखंडी के पीछे से - यह जानते हुए भी की इससे मेरी योद्धा के रूप में ख्याति अनंत समय के लिए खराब होगी, लोग मुझे अधर्मी कहेंगे | परन्तु अपने निजी नाम से और अपने पितामह के प्रेम से भी अधिक उसे "धर्मरक्षा" के प्रति अपना कर्त्तव्य बड़ा लग रहा है | वह धर्म की रक्षा के लिए अपने पितामह की भी क़ुरबानी दे रहा है - और अपनी ख्याति की भी |
८) कर्ण जानता है की जिनसे मैं युद्ध कर रहा हूँ - वे धर्म मार्ग पर हैं, मेरे भाई हैं, मैं अधर्म का साथ देकर पाप का भागी बन रहा हूँ - फिर भी अपने मित्र के प्रति अपना कर्त्तव्य निभा रहा है - खुद को नरक का भागी बनाने के कीमत पर भी - यह क़ुरबानी है |
९) हज़रत इब्राहीम अपने बेटे से प्यार करते हैं, [बेटे को मारना पिता के लिए मौत जैसा ही होगा, बल्कि उससे भी बुरा ] - परन्तु उसकी कुर्बानी देने को तैयार हैं | न सिर्फ तैयार हैं - दे भी देते हैं - किन्तु अल्लाह का रहम देखिये - की वह बकरे में तब्दील हो जाता है |
१०) मीरा अपने कृष्ण का नाम लेना नहीं छोडती - भले ही उसे कितने ज़ुल्मों का सामना करना पड़ता है |
११)एक भक्त सम्राट - भूखे हैं - किन्तु जब वे उपवास खोलने वाले हैं - एक भिखारी आता है - और वे अपने प्रसाद को उसे दे देते हैं |
१२) बड़े राजकुमार होकर भी राम - अपने पिता के वचन के लिए वन चले जाते हैं |
इन सभी उदाहरणों में एक चीज़ common है - की निजी तकलीफ / नुक्सान उस कार्य के कर्ता के लिए कर्त्तव्य पथ का रोड़ा नहीं बन पाता कभी भी | यदि उसके निश्चित धर्म के पथ में कुछ भी त्याग / कुर्बान करना पड़े - वह नहीं हिचकता |
अब मैं यह पूछना चाहूंगी - कि यह एक निरीह बकरे को बाज़ार से खरीद लाना - और उसे कसाई से कटवा कर खा लेना, और स्वाद के मज़े लेना - कुर्बानी कैसे है ? इसमें यह "कुर्बानी" देने वाले ने क्या दुःख उठाया ? इससे किस उच्चा उद्देश्य की पूर्ती हुई ? क्या कुरानेशरीफ में यह कहा गया है कि ऐसा किया जाए ?
कुर्बानी के पीछे क्या मंशा है / थी ? इसका आदेशित तरीका क्या है ?
१) मांसाहारी भोजन के अनुमति - सर्वविदित है कि रेगिस्तानी इलाकों में शाकाहारी भोजन सुलभता से उपलब्ध नहीं होता - तो ज़रुरत पड़ने पर मांसाहारी भोजन की अनुमति दी गयी है - आज्ञा नहीं - अनुमति दी गयी है | फिर से कहूँगी कि यह पोस्ट शाकाहार और मांसाहार पर नहीं - बल्कि सिर्फ कुर्बानी पर है |
२) आदेश है कि यदि बकरे की कुर्बानी देनी है - तो जिस बकरे को कुर्बान किया जाना है - उसे घर में पाला पोसा जाये - प्यार से - घर के एक सदस्य के रूप में | यह सोच कर नहीं कि इसकी मृत्यु के समय दुःख न हो इसलिए इससे प्रेम सम्बन्ध नहीं बनाना है - बल्कि - हिदायत है कि उस बकरे से वैसा ही प्यार पनपाया जाये जैसे व्यक्ति अपने पुत्र से करता है | फिर उसे अपने हाथो से जिबह किया जाए - जिससे उस की मौत उस मनुष्य को खून के सौ सौ आंसू रुलाये, उसे अपने पुत्र को मारने जैसे ही निजी दुःख का तडपाने वाला एहसास हो | और इस समय घर के सभी सदस्यों को उस जगह हाज़िर रह कर वह दुःख झेलना है, वह हृदयविदारक पीड़ा सहनी है | परन्तु निजी हृदयविदारक दुःख को भी झेल कर मनुष्य यह करे - जिससे वह वक्त आने पर खुदा की राह में बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने में भी न झिझके | --------------------------------------यह है वह असल उच्च उद्देश्य जिसके लिए कुर्बानी हो रही है - कि मानव का मन इतना मज़बूत बनाया जाये कि कभी धर्मरक्षा के लिए आवश्यक हो, तो ऐसा दुःख भी झेल कर धर्म पथ पर जाने को तैयार हो | --------------------------------------- फिर उस कुर्बान किये गए बकरे के अधिकाधिक हिस्से को बांटा जाये - सिर्फ कुछ ही हिस्सा निजी उपयोग में लिया जाये |
३) लेकिन आज क्या किया जा रहा है ? इस को आज अपनी जीभ के चटोरेपन को संतुष्ट करने का साधन बना लिया गया है | बाज़ार से दो दिन पहले मोटा सा बकरा खरीद लाया जाता है | ध्यान दिया जाए - कि यह बकरा खरीदा ही जा रहा है काटने और खाने के लिए - न कोई प्रेम है, न इसके मारने पर कोई दुःख होने वाला है | पता नहीं किसे धोखा देने के लिए झूठे प्रेम का दिखावा किया जाता है | फिर उसे (अधिकतर) खुद नहीं काटा जाता, कसाई से कटवाया जाता है | और इसमें कोई दुःख या तकलीफ नहीं उठाना है, बल्कि इसके उलट उसके मांस को स्वाद ले ले कर खाने का प्रयोजन होता है | इसमें उस व्यक्ति को तकलीफ क्या हुई ? उसने क्या कुर्बानी दी ? उसने तो सिर्फ सिर्फ आनंद उठाया न? स्वाद लिया न ? दुःख क्या उठाया ? त्याग क्या किया ? कौनसे उच्च उद्देश्य की प्राप्ति हुई ?
४) बांटने की बात तो - अधिकतर बकरे के अच्छे भाग फ्रीज़र में रख लिए जाते हैं - और ख़राब / बेकार भाग (थोडा सा ही ) बाँट दिए जाते हैं | कई दिनों तक इसे खा कर मौज मनाई जाती है |
५) यह तो सुख दे रहा है न - फिर कुर्बानी कैसी ? खरीदने में पैसे ज़रूर खर्च हुए - पर वह तो वैसे भी होते ही हैं न ?
मैं फिर से अपना सवाल दोहरा रही हूँ - कुर्बानी क्या होती है ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि क़ुरबानी के नाम पर मनुष्य स्वयं को धोखा दे रहे हैं , या उस मूक जानवर को धोखा दे रहे हैं, या खुदा को धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं ??
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57 comments:
- Pallavi ने कहा…
- बहुत ही सही प्रशन उठाए है आपने, मुझे तो यह कुर्बानी कि प्रथा ही पसंद नहीं। हिन्दू धर्म में भी देवी को प्रसन्न करने के लिए कुर्बानियाँ दे जाती है। क्यूँ ? बात यहाँ धर्म कि नहीं कुर्बानी कि है, क्या वो देवता जिसने मनुष्य को ही नहीं बल्कि जानवर को भी अपने हाथों से बनाया वह उस जीव की कुर्बानी इतने दर्दनाक तरीके से पाकर खुश हो सकते है? देवी तो सबकी माँ कहलाती हैं, तो क्या कोई भी माँ किसी भी मासूम बेज़ुबान जानवर कि कुर्बानी से खुश हो सकती है? ऐसे ना जाने कितने प्रश्न है मन के अंदर जिनका आज तक कोई जवाब नहीं मिला ...मिला तो केवल उपदेश और व्यर्थ के संवाद और तर्क....मेरे हिसाब से तो यह प्रथा वक्त के साथ ख़त्म हो जानी चाहिए जैसा कि आपने खुद ही लिखा है पहले रेगिस्तान में सभी के लिए शाकाहार प्र्याप्त मात्र में मिल पाना मुश्किल था इसलिए मांसाहार कि अनुमति दी गई थी। मगर अब तो ऐसा कुछ नहीं है तो इस नियम में भी बदलाव आना चाहिए ....
- ८ नवम्बर २०११ ११:०३ पूर्वाह्न
- डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण) ने कहा…
- बहुत सटीक!
- ८ नवम्बर २०११ ११:२९ पूर्वाह्न
- Sunil Kumar ने कहा…
- विवाद स्पद जैसा की आपने कहा अत; कोई टिप्पणी नहीं ...
- ८ नवम्बर २०११ ११:५३ पूर्वाह्न
- DR. ANWER JAMAL ने कहा…
- महापुरूषों ने धर्म की शिक्षा दी और उसके नियमों का पालन करके भी दिखा दिया। उनके मानने वालों को चाहिए कि उन्होंने जिस काम को जैसे और जिस भावना के साथ करना बताया है, उसे उसी तरीक़े से किया जाए। पशु बलि या क़ुरबानी कोई नया काम नहीं है बल्कि जो सबसे प्राचीन ग्रंथ इस धरती पर पाया जाता है , उसमें भी इसका वर्णन मिलता है। बाद में नर बलि की प्रथा भी शुरू हो गई थी। हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम के ज़रिये में साफ़ बता दिया गया कि नर बलि ईश्वरीय विधान में वैध नहीं है। बलि और क़ुरबानी का सही रूप हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम के ज़रिये सब को बता दिया गया और पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने भी उसी प्राचीन सनातन परंपरा का पालन किया क्योंकि वे किसी नये धर्म की शिक्षा देने नहीं आए थे बल्कि प्राचीन धर्म की संस्थापनार्थाय ही आए थे। इस्लाम में क़ुरबानी का क्या रूप है ? इसकी जानकारी निम्न पोस्ट में दी गई है और लोगों को चाहिए कि क़ुरबानी को उसके सही रूप में ही अदा करें ताकि उन्हें उन गुणों की प्राप्ति हो सके जो कि क़ुरबानी से वांछित हैं। The message of Eid-ul- adha विज्ञान के युग में कुर्बानी पर ऐतराज़ क्यों ?, अन्धविश्वासी सवालों के वैज्ञानिक जवाब ! - Maulana Wahiduddin Khan
- ८ नवम्बर २०११ १२:१३ अपराह्न
- सुज्ञ ने कहा…
- @ कुर्बानी क्या होती है? शिल्पा दीदी, कुर्बानी अर्थात् बलिदान जिसे हम ‘त्याग’ नाम से भी जानते है। खुदा की राह में या ईश्वर के मार्ग पर, क्या बलिदान करना श्रेयष्कर है? कोई भी धर्मग्रंथ उठा लो उस में अच्छे कर्म करने की प्रेरणा ही मिलेगी। अर्थात् खुदा, अल्लाह या ईश्वर सद्कर्मो का उपदेशक है। और दुष्कर्मो को दूर करने का प्रेरक। ऐसे शुभांकाशी ईश्वर का मनोरथ क्या होगा? सो स्पष्ट समझ सकते है कि ईश्वर का मनोरथ यही है कि इन्सान सत्कर्म करे, सुकृत्य करे। इसी परिपेक्ष्य, और ईश्वर के इसी मार्ग को अव्याबाध गति प्रदान करने के लिए, वे हमसे किस बात की अपेक्षा रख सकते है। जबकि दूसरा सब कुछ उसके पास मौजुद है। ईश्वर हमसे क्या त्याग चाहेंगे?, उसके वांछित से अधिक उपयोगी, उसके मार्ग या राह के लिए उचित और क्या हो सकता है ईश्वर को यही इष्ट है कि मनुष्य अपने दुष्कर्म त्याग दे, बस!! दुर्गुण का बलिदान दे दे। हिंस्र भाव, झूठ, बे-ईमानी, मक्कारी, विषय वासना और स्वार्थ की कुर्बानी दे दे। अगर इसे त्यागने में मोह लोभ क्रोध और अहंकार आड़े आते है तो इनका भी बलिदान दे दे। इन अवगुणों का त्याग करने में पत्नी, ’पुत्र’, परिवार आड़े आते है तो उनका भी त्याग करे, अर्थात् उनके प्रति मोह का त्याग करे। सबसे प्यारी वस्तु के त्याग का आशय ही यह है कि निश्चय से प्यारी वस्तु या प्यारे रिश्ते के मोहवश हम उपरोक्त कईं दुर्गुण अपनाते चले जाते है। त्याग न पाने में विवश हो जाते है। यदि यह मोह हट जाय तो दुष्कृत्यों का त्याग सम्भव है। इसीलिए निर्देश सबसे प्यारी वस्तु के बलिदान की ओर किया गया है।
- ८ नवम्बर २०११ १२:१६ अपराह्न
- Rakesh Kumar ने कहा…
- सुधिजनों की टिप्पणियों का मुझे भी इंतजार है. वैसे कुर्बानी के नाम पर पुत्र का या पुत्र के बजाय बकरे या अन्य पशु का प्राण हरण करना मेरी समझ के बाहर है. सुनी हुई कहानी के अनुसार स्वप्न में अल्लाह ने प्रियतम वस्तु की कुर्बानी मांगी थी.सबसे प्रियतम स्वयं की जान व स्वयं का आपा (अहंकार) होना चाहिये.परन्तु,पहले तो अपने प्रिय पुत्र की जान लेने का फैंसला, फिर जब खुदा ने पुत्र के बजाय दुम्बे की कुर्बानी कबूल की तो इसी आधार पर हर कोई दुम्बे/बकरे/या अन्य जानवर की कुर्बानी के नाम पर उनका प्राण हरण करे तो यह बिना किसी अंतश्चेतना के केवल निजी श्रद्धा ही है.श्रद्धा का मूल आधार ईश्वर/अल्लाह है.तो वह ईश्वर/अल्लाह ही अंत:करण में चेतना प्रदान कर सकता है.यदि कोई अन्तश्चेतना नही है,तो जिबह करना कितना उचित है, यह तो वही ज्यादा समझ सकता है जो जिबह करता है. कबीरदास जी तो इस सम्बन्ध में पूछते भी हैं 'मुलना तुझे करीम का,कब आया फरमान दया भाव हिरदै नही ,जबह करै हैवान' कुरीतियों,अंध श्रद्धा या धर्म के नाम पर जघन्य कर्म जैसे तांत्रिक आदि द्वारा पशु/नर बलि आदि पर चिंतन किया जाना चाहिये. एक अच्छी सार्थक प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार,शिल्पा बहिन.
- ८ नवम्बर २०११ १२:५४ अपराह्न
- shilpa mehta ने कहा…
- जमाल जी - आपके लिंक पर गयी - लेख बहुत लम्बा है | देखा भी, पढ़ा भी | किन्तु मैं जो पूछ रही हूँ - उसका उत्तर वहां भी नहीं है | याद दिला देना चाहूंगी - यह पोस्ट शाकाहार / मांसाहार पर नहीं, कुर्बानी के प्रश्न पर है | चाहे बेटा हो या बकरा - एक दूसरे जीव को मारना क़ुरबानी क्यों है ? आपने कहा कि लाखों करोड़ों जीव मरते ही रहते हैं हमेशा - परन्तु उन्हें कोई "मार" नहीं रहा होता - यह साधारण जैविक प्रक्रिया है | किन्तु बकरे को जिबह करना तो मारना ही है ना ? यदि उसे चाकू से न काटा जाता उस वक़्त - तो क्या साधारण जैविक प्रक्रिया से वह मरता उस वक़्त ? कई जगह पर मैंने देखा कि "जब हम दूसरो को उनकी तरह ख़ुशी मनाने से नहीं रोक रहे तो उन्हें हमें अपनी तरह से त्यौहार मनाने / ख़ुशी मनाने से रोकने का क्या अधिकार है " ***ख़ुशी मनाना ???*** ख़ुशी मनाने को कुर्बानी कैसे कहा जा सकता है ? कुर्बानी का अर्थ तो स्वयं के दुःख के cost पर भी अपने धर्म पथ पर चलने है | मैं फिर से सब को याद दिला देना चाहूंगी - यह पोस्ट शाकाहार / मांसाहार पर नहीं, कुर्बानी (?) पर है |
- ८ नवम्बर २०११ १:०६ अपराह्न
- सुज्ञ ने कहा…
- अनवर जमाल साहब की दो बातों पर गौर फरमाएं @महापुरूषों ने धर्म की शिक्षा दी और उसके नियमों का पालन करके भी दिखा दिया। उनके मानने वालों को चाहिए कि उन्होंने जिस काम को जैसे और जिस भावना के साथ करना बताया है, उसे उसी तरीक़े से किया जाए। >>क्या हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम के क्रिया-क्लाप को ऐसे ही उसी तरीके से किया जाना चाहिए? @हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम के ज़रिये में साफ़ बता दिया गया कि नर बलि ईश्वरीय विधान में वैध नहीं है। >>क्या हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम का सपना भी अवैध था जो ईश्वर ने दिखाया? क्या उनका निर्णय भी अवैध था जो उन्होने लिया। या फिर उनके पास इस अवैध कृत्य के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था शिक्षा प्रदान करने के लिए,पैगम्बर विवश तो नहीं हो सकते। वे तो विवेकशील और बुद्धिमान थे, उपदेश और किताब से सन्देश देने में समर्थ थे उन्हें नरबलि रूप ईश्वरीय विधान के विरुद्ध जाने की क्या जरूरत?
- ८ नवम्बर २०११ १:२५ अपराह्न
- सुज्ञ ने कहा…
- @कुरबानी के पिछे मंशा क्या थी? इसका आदेशित तरीका क्या था? इस के अन्तर्गत आपने तीन मुद्दे लिए है। 1- आहार के रूप में ग्रहण करने की अनुमति जो क्षेत्र काल और भाव के अनुसार उस समय ठीक हो सकती है पर आज के समय में नहीं, इसबात से सहमत हूँ। 2- बकरे को प्रेमपूर्वक पालने पोषने की प्रथा थी, और खुल्लेआम मारना ताकि किसी आपने के दुख का अहसास हो। और मन के भावों को निष्ठुर बनाना ताकि धर्म मार्ग पर चलने के लिए कुर्बान होने के लिए मन मझबूत बने।………इस बात से सहमत नहीं। जब जान लेने की मंशा से ही पाला पोषा जाय फिर भले क्यों न सालभर पाला जाय, प्रेम कहां से उत्पन्न होगा। आचानक बिछड जाय तो शायद दुख हो, पर बिछडना तय है तो प्रेम काहां से आएगा? और घर के सभी सदस्यों के सम्मुख हिंसा करने से दुख नहीं जगुप्सा पैदा होती है। 3- लेकिन आज धोखा देने के लिए झूठे प्रेम का और कुर्बानी का दिखावा किया जाता है।……………जिस प्रथा की जड़ में ही कुर्बानी का झूठा दिखावा हो, किसी अपनी प्रिय वस्तु की जगह निरिह प्राणी की जान ‘लेकर’ धूर्तता से कुर्बानी का जाल रचाया गया हो तो ठगों पर ठगी पड़ने के समान है। किसी अपने पर आफत तो आनी नहीं है। फिर क्या फर्क पड़ता है साल भर पाला या पूर्व संध्या को ही खरीद लाया। धूर्तता में एक और धूर्तता बस!!
- ८ नवम्बर २०११ २:१५ अपराह्न
- shilpa mehta ने कहा…
- सुज्ञ भैया - राकेश भैया, सहमत तो मैं भी नहीं हूँ | मैं भी नहीं मानती कि जिस प्राणी को पालाही मारने के लिए जाये उससे वैसा प्रेम कभी हो सकता है जैसा अपने पुत्र से | किन्तु बात मेरे आपके मानने की नहीं है -बात है जो कारण बताया गया है - उसकी बात है | मेरे कई मुसलमान मित्र हैं [ - यहाँ करीब आधी आबादी हिन्दू और आधी मुस्लिम है ] तो उनमे से २-३ व्यक्ति पाँचों वक्त के नमाज़ी, रोज़े रखने वाले आदि हैं - जिन्हें सच्चा मुस्लमान कहा जाता है | उनसे पूछने से यही कारण बताया गया | इसके अलावा मैं QTV और Peace टीवी जैसे channels भी आस्था और संस्कार जैसे channels की ही तरह देखती थी | उसमे भी यही कारण बताया गया | फिर भी - आप ही की तरह मैं भी नहीं मानती कि प्रेम जाग सकता है ऐसे में |
- ८ नवम्बर २०११ ९:०३ अपराह्न
- केवल राम : ने कहा…
- समाज की आँखें खोलने वाली आपकी यह पोस्ट विचारणीय है .....सच में कुर्बानी को बेहतर तरीके से समझने की जरुरत है ....!लेकिन कुछ बातों से असहमत ...लेकिन उन पर चर्चा जारी है देखते हैं क्या होता है ....!
- ८ नवम्बर २०११ ९:०९ अपराह्न
- रचना ने कहा…
- कुर्बान करना कुर्बान होना दोनों अलग बाते हैं क़ोई अपने बेटे को गलत काम करने पर समाज हित में जेल भेज देता हैं ये हुआ अपने फायदे की क़ुरबानी क़ोई अपने बेटे के गलत काम करने पर भी उसको सजा से बचाता हैं समाज के हित की ना सोच कर ये हुई समाज के हित की क़ुरबानी . क़ोई किसी से प्रेम करता हैं और अपना सर्वस्व न्योछावर कर सकता हैं अब वो प्रेमी , देश , समाज , धर्म कुछ भी हो सकता हैं ये हैं fanatic क़ुरबानी इसमे आप नफ़ा नुक्सान नहीं सोचते हैं बस कुर्बान होना चाहते हैं लोग बकरों की क़ुरबानी की बात करते हैं जबकि बकरा कटने के अगले दिन बहुत परिवारों में गाय की क़ुरबानी के बिना ईद संपन्न ही नहीं मानी जाती हैं . सवाल अगर मासाहार और शाकाहार का होता तो हिन्दू सब शाकाहार ही होते , लखनऊ में तो बीफ टेलो खुले आम बिकता हैं और हिन्दू घरो में आता हैं . और ये मत भूलिये की मक डोनाल्ड में इसी बीफ टेलो में फ्रेंच फ्राई बनाये जाते हैं { भारत में विवाद होने पर बंद कर दिया गया पर विदेशो में अभी भी हैं और सब हिन्दू खाते हैं } अगर किसी धर्म में बकरा और गाये जिबह करके सबाब मिलता हैं और वो इस सबाब को लेना चाहते हैं तो ये उनकी समस्या हैं और आप या मै इस मै क़ोई बदलाव नहीं ला सकते हैं . समस्या ये नहीं हैं समस्या हैं की जो लोग होली पर होलिका दहन को गलत बताते हैं वही जब बकरे और गाय की क़ुरबानी को सही ठहराने के लिये सारी पोथी पत्रा लेकर बैठ जाते हैं तो स्थिति पर क़ोई नियंत्रण नहीं रहता हैं .http://www.blogger.com/comment.g?blogID=5700580294851321184&postID=2363285856825879846 होली दिवाली ईद बकरीद बड़ा दिन और गुरु नानक जनम दिन पर अगर इतनी बहस इन सब बातो पर ना की जाए तो क्या जिन्दगी रुक /बदल जायेगी . ये सब बहस हैं और कुछ नहीं , जिस की जो धार्मिक रीत हैं उन में बदलाव संभव हो ही नहीं सकता हैं तीज त्यौहार किसी भी धर्म के हो उस दिन खुशिया मानना चाहिये क्युकी खुशियाँ जिन्दगी में कम ही आती हैं उस दिन समझाइश की पोस्ट ना ही आये तो क्या ही बेहतर होगा .
- ८ नवम्बर २०११ १०:५६ अपराह्न
- ajit gupta ने कहा…
- कुर्बानी शब्द ही बार-बार दिल पर चोट कर रहा था, आज आपने इस विषय पर पोस्ट लिखकर बात को स्पष् ट कर दिया। बहुत अच्छा विश्लेषण है।
- ८ नवम्बर २०११ ११:४८ अपराह्न
- DR. ANWER JAMAL ने कहा…
- @ शिल्पा जी ! आपने पूछा था कि क़ुरबानी के पीछे क्या मंशा थी ? और इसका आदेशित तरीक़ा क्या था ? हमने सीधे सादे तरीक़े आपको एक टिप्पणी दी और एक लंबे लेख का लिंक भी दिया ताकि आप पूरा विवरण वहां जाकर जान लें। हमें लगा कि इसके पीछे केवल आपके मन में जिज्ञासा है। हमारे दिए लेख से आपकी जिज्ञासा शांत हो जाए तो अच्छा है और न भी हो तो कोई बात नहीं है। क़ुरबानी या पशुबलि सनातन धर्म की एक प्राचीन परंपरा है। इस्लाम को मानने वाले आज भी इसका पालन करते हैं। ज़रूरी नहीं है कि धर्म की हरेक बात आपकी समझ में आ जाए या आप उससे सहमत हो ही जाएं। आप वह करें जिसे आप सत्य और सही मानें। आपकी पोस्ट में कहा गया है कि यहां धर्म विशेष पर आक्षेपों से बचें। हालांकि आपकी पोस्ट में भी धर्म विशेष पर ही आक्षेप किए गए हैं लेकिन भाई सुज्ञ जी की टिप्पणियों में तो हज़रत इबराहीम के तरीक़े पर, ‘पशुबलि‘ पर ही घोर आपत्ति जताते हुए इसे धूर्तता तक बताया है और इसके बावजूद आपने उनकी टिप्पणी को यहां पब्लिश भी किया है ? इस पोस्ट में अन्य महापुरूषों का नाम भी आया है। अगर यहां कोई अन्य ब्लॉगर उन महापुरूषों , विशेषकर हिंदू महापुरूषों के बारे में धूर्तताएं बताएं तो क्या आप उन टिप्पणियों को भी इतनी ही सहजता से पब्लिश करेंगी ? आप क्या मानती हैं और क्या खाती हैं ? इसका आपको पूरा हक़ है ? आपको जिज्ञासा शांत करने के लिए प्रश्न करने का भी हक़ है और दिए गए उत्तर से संतुष्ट या असंतुष्ट होने का भी हक़ है। ...लेकिन आपको यह हक़ नहीं है कि लोग जमघटा लगा कर इस्लाम में कमियां बताएं। ...लेकिन अगर वे बताते हैं तो फिर जो कुछ हम बताएंगे , उसे भी सुनना ही पड़ेगा। ऐसा नहीं होगा कि आप सवाल करें तो जिज्ञासा और बौद्धिकता और हम जवाब दें तो उसे झगड़े और विवाद का नाम दिया जाए। बौद्धिक बौनेपन का ख़तरा
- ९ नवम्बर २०११ १२:१९ पूर्वाह्न
- रचना ने कहा…
- यह पोस्टलेखक के द्वारा निकाल दी गई है.
- ९ नवम्बर २०११ १२:३१ पूर्वाह्न
- shilpa mehta ने कहा…
- आदरणीय अनवर जमाल जी आपने अभी भी "कुर्बानी " के सम्बन्ध में जो मैंने पूछा उसका उत्तर नहीं दिया | इस पोस्ट पर टिप्पणी करने को मैंने सिर्फ आप ही को नहीं, कई सुधिजनो को आमंत्रित किया है - परन्तु अभी तक या तो उत्तर नहीं आये - या जिसने उत्तर दिए उन्होंने "हिन्दू पाखंडी हैं" आदि कहा - जिसकी वजह से मैं उनकी टिप्पणी प्रकाशित न कर सकी | मैंने पहले ही कहा है कि किसी धर्म विशेष पर आक्षेप मुझे स्वीकार्य नहीं होंगे यहाँ | यदि कोई बात को गोल गोल करता है , तो मैं यह मान लूंगी कि यह " क़ुरबानी" नहीं हो रही, ख़ुशी ही मनाई जा रही है | उत्तर हैं ही नहीं मेरे सवालों के - इसलिए उत्तर नहीं मिल रहे | यह पोस्ट एक जिज्ञासा है | मैं किसी इलेक्शन में नहीं खड़ी हूँ, ना ही मैं एक राजनेता हूँ | आपसे प्रार्थना है कि मेरे प्रश्न का उत्तर दें - क्या अपने मन को आनंद देना कुर्बानी होती है ? या उस परम के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करना कुर्बानी होगी ? @ मेरी समझ में न आने की बात - - बिल्कुल सच है - मुझे समझ नहीं आता - इसीलिए मैंने पूछा है | यदि आप एक सच्चे मुसलमान हैं - तो आपको आपके ही धर्म का आदेश है कि मुझ जैसे ना जानने वालों की जिज्ञासा / confusion का समाधान करें | यह आपका कर्त्तव्य भी है - यदि आप एक सच्चे मुस्लमान हैं तो | यह नहीं कि आप मुझ पर व्यंग्य करें, और मुझे जानकारी से वंचित करें / मेरी जिज्ञासा को इतना बुरा नाम दे दें कि कोई जिज्ञासा करने के हिम्मत ही न कर पाए | (पूछने में डरे) @ सुज्ञ जी की टिप्पणी - सुज्ञ भैया ने हजरत इब्राहिम जी की शान में गुस्ताखी की हो - ऐसा मुझे नहीं लगता | उन्होंने आपकी बात पर सवाल किया है , हजरत साहब पर नहीं | आपने कहा कि हमें उनके दिखाए रास्ते को सही रूप से follow करना चाहिए - तो उन्होंने पूछा आपसे कि क्या आप ऐसा करते हैं | क्या हजरत साहब ने बकरे की क़ुरबानी दी थी? नहीं - उन्होंने अपने परम प्रिय पुत्र को कुर्बान करने का संकल्प किया था | @ हिन्दू सन्यासियों के बारे में - जी हाँ - बहुत कुछ - सिर्फ सन्यासियों ही नहीं , साधुओं पर ही नहीं, बल्कि हिन्दू जिन्हें ईश्वर मानते हैं (जैसे श्री राम और श्री कृष्ण ) उनके बारे में भी कहा जाता है | आपने भी कहा था मेरी ही एक पोस्ट पर - और मैंने प्रकाशित भी किया था | मैं किसी से झगडा नहीं करने जाती | जाकिर जी ने होली पर होलिका दहन के लिए पोस्ट लगाईं कि "होली जलाने में दो वृक्षों की हत्या होती है " मैंने उनसे सवाल नहीं किया http://sb.samwaad.com/2011/03/blog-post_19.html | असलियत में होली जलाने के लिए मरे हुए (सूखे) लकड़ी का प्रावधान है - हरे पेड़ काटने की मनाही ही है - तो उनकी बात लाजिमी थी | मेरी ही पोस्ट पर मैंने ही अपने ही कुछ ऋषिजनों पर और उनके किये आचरण पर असहमति प्रकट की है | असहमत होने और आक्षेप लगाने में बहुत फर्क होता है | @ पशुबलि - यह परंपरा हिन्दुओं में भी रही | अब कानूनन बंद है | फिर भी होती है - सब जानते हैं | यदि काली मा की उपासना में पशुबलि वर्जित है - तो मैं उससे सहमत हूँ - मुझे लगता है कि वर्जित होना ठीक है | मैं बलि पर बात नहीं कर रही | "कुर्बान" क्या / कैसे / क्यों किया जाता है यह पूछ रही हूँ | उस बकरे के मरने से जिस व्यक्ति को कोई तकलीफ ही नहीं हुई, तो उसने क्या कुर्बानी दी? उसने तो बढ़िया सुखदायी भोज किया ना ? यह कुर्बानी कैसे हुई ? यह मेरा प्रश्न है | असल क़ुरबानी तो उस बकरे ने दी - जिसने (अनचाहे ही सही ) अपनी जान दी ईश्वर के वास्ते |
- ९ नवम्बर २०११ १२:५० पूर्वाह्न
- सुज्ञ ने कहा…
- रचना जी, शिल्पा जी नें शाकाहार मांसाहार पर चर्चा को विराम लगाया है, अतः उसपर कुछ कहना न चाहकर आपको यह दर्शाना आवश्यक हो गया है कि आपका यह कथन "और सब हिन्दू खाते हैं" बहुत ही क्रूर आक्षेप है। दूसरा…… @होली दिवाली ईद बकरीद बड़ा दिन और गुरु नानक जनम दिन पर अगर इतनी बहस इन सब बातो पर ना की जाए तो क्या जिन्दगी रुक /बदल जायेगी . ये सब बहस हैं और कुछ नहीं , जिस की जो धार्मिक रीत हैं उन में बदलाव संभव हो ही नहीं सकता हैं रचना जी, इसी प्रकार की चर्चा, बहस चिंतन-मनन से हिन्दुओं में भी प्रचलित पशुबलि को बंद किया जा सका। और साकारात्मक चिंतन के बाद स्वीकार भी किया गया।
- ९ नवम्बर २०११ १:३० पूर्वाह्न
- Global Agrawal ने कहा…
- युसूफ किरमानी जी सही कहते हैं यहाँ पढ़ें : http://hindivani.blogspot.com/2010/11/blog-post.html [ये कमेन्ट अगर अब तक हो चुकी चर्चा को भटकाता / मूल भाव से अलग लगे तो प्रकाशित ना करें ]
- ९ नवम्बर २०११ २:३२ पूर्वाह्न
- DR. ANWER JAMAL ने कहा…
- @ बहन शिल्पा जी ! 153 करोड़ मुसलमान क़ुरबानी में विश्वास करते हैं। यहूदी आदि अन्य धर्मावलंबी भी बलि देते हैं। उनकी धार्मिक परंपरा को धूर्तता भरा बताने वालों की टिप्पणी को आप पब्लिश कर रही हैं लेकिन अगर किसी ने हिंदुओं को पाखंडी कह दिया तो आपने उसकी टिप्पणी प्रकाशित नहीं की , क्यों ? 1- कानून के अनुसार भारत में चाहे कुछ इलाक़ों में हिंदुओं के लिए बलि प्रथा पर पाबंदी लगा दी गई हो लेकिन धार्मिक रूप से शंकराचार्य आज भी उसे धर्मानुसार जायज़ मानते हैं और नैनीताल आदि बहुत सी जगहों पर आज भी मंदिरों में बलि दी जाती है। दक्षिण भारत और राजस्थान में तो पशुबलि का आम रिवाज आज भी है। नेपाल जो कि अभी तक घोषित रूप से हिंदू देश था, वहां के मंदिरों में भी पशुबलि दी जाती है और जब नेपाल नरेश भारत आए तो उन्होंने यहां के मंदिर में भी 5 पशुओं की बलि दी थी। शंकराचार्य हिंदू धर्म का अधिकृत प्रवक्ता होता है, आप उसकी बात को नहीं मानते और पशुबलि का विरोध करते हैं तो यह आपकी प्रॉब्लम है कि आप खुद को हिंदू कहलाना भी चाहते हैं और हिंदू धर्म के अधिकृत विद्वान की बात मानना भी नहीं चाहते। इस्लाम में क़ुरबानी का विधान है। इस्लाम के अधिकृत विद्वान हमें यह बताते हैं। हम इसे वैध ही मानते हैं और करते हैं और जो इसे वैध नहीं मानता वह मुसलमान नहीं है। ज़ाकिर जी खुद कहते हैं वे नास्तिक हैं। उनके किसी भी लिखे हुए का ताल्लुक़ इस्लाम से या मुस्लिम समुदाय से नहीं है। 2- क़ुरबानी करनी है तो बकरा या कोई अन्य वैध चौपाया लेना ही होगा और यह उनसे ही लेना होगा जिन्होंने उसे पाला होगा। कोई बहुत पहले ले लेता है और कोई कुछ समय पहले। कोई अकेले की लेता है और ऐसा भी होता है कि कुछ लोग मिलकर ले लेते हैं और उसकी देख रेख की ज़िम्मेदारी बांट लेते हैं। जो लोग खुद जानवर ज़िब्ह आदि करना जानते हैं वे खुद ही ज़िब्ह करते हैं और खुद ही उसका पूरा निस्तारण करते हैं लेकिन कुछ लोग ज़िब्ह खुद करते हैं और उसके पार्ट्स करने के लिए प्रोफ़ेशनल क़साईयों की मदद लेते हैं। हरेक जानवर का एक तिहाई हिस्सा ग़रीबों में बांट दिया जाता है और एक तिहाई हिस्सा दोस्तों और रिश्तेदारों में लेकिन हरेक का दिल और उसकी नीयत एक जैसा नहीं होता तो कुछ लोग बांटते कम होंगे और रखते ज़्यादा होंगे। ऐसे लोगों को अपना अमल ठीक करने की ज़रूरत है। जो काम भी सामूहिक रूप से किया जाएगा, उसमें हर तरह के लोग शामिल होंगे। कुछ लोग उस काम को बेहतरीन तरीक़े से करेंगे और कुछ लोग अपने काम में कमियां छोड़ेंगे। कमियां छोड़ने वालों की वजह से काम ही नहीं छोड़ दिया जाता बल्कि ऐसे लोगों से कहा जाता है कि वे काम को ढंग से अंजाम दें। हज़रत इबराहीम ने क़ुरबानी का संकल्प लिया और पूरे वाक़ये के अंत में पशु बलि हुई। जब तक इबराहीम अलैहिस्सलाम जीवित रहे, पशुबलि करते रहे। उनके बाद उनके बेटे हज़रत इस्माईल और हज़रत इस्हाक़ अलैहिस्सलाम पशु बलि करते रहे। उनके बाद उनके बेटे और उनके अनुयायी पशुबलि करते रहे। पैग़ंबर मुहम्मद साहब सल्ल. की पैदाइश से पहले भी हज के समय पर अरब लोग जो कि हज़रत इस्माईल की संतान थे, पशुबलि किया करते थे। पैग़ंबर साहब ने भी इसे अनवरत रूप से जारी रखा और खुद भी की। हम भी करते हैं। आप की समझ में आ जाए तो आप भी करें और अगर आपकी समझ में न आए तो आप वह करें जो आपके जी में आए। व्यंग्य हम आप पर नहीं करते क्योंकि आप एक साफ़ दिल बहन हैं। कृप्या आप हमें उस तरह ग़लत न समझें जैसा कि आपको दिव्या जी ने समझा। आशा है कि आप हमारी बात पर विचार करेंगी। हमारा कहना यही है कि धर्म के अधिकृत विद्वान की बात मानी जानी चाहिए और जो ऐसा नहीं करता वह वासना में जीता है।
- ९ नवम्बर २०११ ३:०२ पूर्वाह्न
- मनोज कुमार ने कहा…
- अरबी शब्द ‘क़ुरबान’ का अर्थ बलिदान है।
- ९ नवम्बर २०११ ३:०४ पूर्वाह्न
- DR. ANWER JAMAL ने कहा…
- 3- आपका सवाल यह था कि कुरबानी के पीछे मंशा क्या है/थी ? और इसका आदेशित तरीक़ा क्या है ? इसके लिए हमने आपको एक लेख का लिंक दिया है जिसमें मुकम्मल जानकारी दी गई है- कुरबानी की हक़ीक़त हज या ईदुल-अज़्हा के मौक़े पर जानवर की कुरबानी दी जाती है। इस कुरबानी के दो पहलू हैं। एक इसकी स्पिरिट और दूसरे उसकी ज़ाहिरी सूरत। स्पिरिट के ऐतबार से कुरबानी एक क़िस्म का संकल्प (pledge) है। कुरबानी की सूरत में संकल्प का मतलब है व्यवहारिक संकल्प ( pledge in action), संकल्प के इस तरीक़े की अहमियत को आम तौर पर माना जाता है, इसमें किसी को भी कोई असहमति नहीं है। यहां इसी तरह की एक मिसाल दी जाती है, जिससे अन्दाज़ा होगा कि कुरबानी का मतलब क्या है ? नवम्बर 1962 ई. का वाक़या है। हिन्दुस्तान की पूर्वी सरहद पर एक पड़ौसी ताक़त के आक्रमण की वजह से ज़बर्दस्त ख़तरा पैदा हो गया था। सारे मुल्क में सनसनीख़ेज़ी की कैफ़ियत छाई हुई थी। उस वक़्त क़ौम की तरफ़ से जो प्रदर्शन हुए, उसमें से एक वाक़या यह था कि अहमदाबाद के 25 हज़ार नौजवानों ने संयुक्त रूप से यह संकल्प किया कि वे मुल्क के बचाव के लिये लड़ेंगे और मुल्क के खि़लाफ़ बाहर के हमले का मुक़ाबला करेंगे, चाहे इसी राह में उन्हें अपनी जान दे देनी पड़े। यह फ़ैसला करने के बाद उन्होंने यह किया कि उनमें से हर आदमी ने अपने पास से एक-एक पैसा दिया और इस तरह 25 हज़ार पैसे जमा हो गए। इसके बाद उन्होंने उन पैसों को उस वक़्त के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को सौंप दिया। पैसे देते हुए उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री से कहा कि ये 25 हज़ार पैसे हम 25 हज़ार नौजवानों की तरफ़ से अपने आप को आपके हवाले करने का निशान है- To give ourselves to you उपरोक्त नौजवानों ने अपनी कुरबानी का प्रतीकात्मक प्रदर्शन 25 हज़ार पैसों से किया। 25 हज़ार पैसे खुद अस्ल कुरबानी नहीं थे। वे अस्ल कुरबानी का सिर्फ़ एक प्रतीक (token) थे। यही मामला जानवर की कुरबानी का है। कुरबानी के अमल में जानवर की हैसियत सिर्फ़ प्रतीकात्मक है। जानवर की कुरबानी के ज़रिये एक मोमिन प्रतीकात्मक रूप से इस बात का संकल्प करता है कि वह इसी तरह अपनी ज़िन्दगी को खुदा की राह में पूरी तरह लगा देगा। इसीलिये कुरबानी के वक़्त यह कहा जाता है कि ‘अल्लाहुम्मा मिन्का व लका‘ यानि ऐ खुदा ! यह तूने ही दिया था, अब इसे तेरे ही सुपुर्द करता हूं। जहां तक कुरबानी की स्पिरिट का सवाल है, उसमें किसी को कोई असहमति नहीं हो सकती। यह हक़ीक़त अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत है कि इस क़िस्म की स्पिरिट के बिना कभी कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। अलबत्ता जहां तक कुरबानी की शक्ल का संबंध है यानि जानवर को ज़िब्ह करना, उसपर कुछ लोग शक व शुब्हा ज़ाहिर कर सकते हैं। उनका कहना है कि जानवर को ज़िब्ह करना तो एक बेरहमी की बात है, फिर ऐसे सक बेरहमी के अमल को एक पवित्र इबादत में क्यों शामिल किया जाता है ? इस मामले पर ग़ौर कीजिये तो मालूम होगा कि यह कोई हक़ीक़ी ऐतराज़ नहीं है, यह सिर्फ़ एक बेअस्ल बात है जो अंधविश्वासपूर्ण कंडिशनिंग (superstitious conditioning) के नतीजे में पैदा हुई है। इसके पीछे कोई इल्मी बुनियाद नहीं है। हलाल और हराम का सिद्धांत खाने-पीने के मामले में कुछ चीज़ें इनसान के लिए हलाल हैं और कुछ चीज़ें हराम हैं। हलाल और हराम का यह फ़र्क़ किस बुनियाद पर क़ायम होता है ? एक वर्ग का यह कहना है कि अस्ल हराम काम यह है कि किसी ज़िन्दगी को हलाक किया जाए। इस मामले में उनका फ़ार्मूला यह है-किसी जीव को मारना वर्जित है और किसी जीव को न मारना सबसे बड़ी नेकी है- Killing a sensation is sin and vice versa . यह नज़रिया यक़ीनी तौर पर एक बेबुनियाद नज़रिया है। इसका सबब यह है कि मौजूदा दुनिया में यह सिरे से क़ाबिले अमल ही नहीं है, जैसा कि इस लेख में दूसरे मक़ाम पर बयान किया जाएगा। जीव को मारना हमारा अख्तियार (Option) नहीं है। इनसान जब तक ज़िन्दा है, वह जाने-अन्जाने तौर पर असंख्य जीवों को मारता रहता है। जो आदमी इस ‘पाप‘ से बचना चाहे, उसके लिए दो चीज़ों में से एक का अख्तियार (Option) है। या तो वह खुदकुशी करके अपने आप को ख़त्म कर ले या वह एक और दुनिया बना ले जिसके नियम इस मौजूदा दुनिया के नियमों से अलग हों। इस्लाम में भोजन में हलाल और हराम का सिद्धांत बुनियादी तौर पर यह है कि चन्द ख़ास चीज़ों को इस्लाम में हराम क़रार दिया गया है। इनके अलावा बाक़ी तमाम चीज़ें इस्लाम में जायज़ आहार की हैसियत रखती हैं। हलाल और हराम का यह उसूल जो इस्लाम ने बताया है, वह प्रकृति के नियमों पर आधारित है। आज भी एक छोटे से वर्ग को छोड़कर सारी दुनिया हलाल और हराम के इसी उसूल का पालन कर रही है।
- ९ नवम्बर २०११ ३:०९ पूर्वाह्न
- shilpa mehta ने कहा…
- जमाल भाई साहब @सुज्ञ जी - मैं सुज्ञ जी के इस शब्द "धूर्तता" से असहमत हूँ - परन्तु उन्होंने मुस्लिम समाज को धूर्त नहीं कहा | उन्होंने कहा कि यह जानते हुए कि हम इस पशु को मारेंगे - उससे प्यार का सिर्फ दिखावा करना - यह धोखा जो हम अपने आप को भी दे रहे हैं - इस चीज़ को उन्होंने "धूर्तता" कहा | जब हम एन्जॉय ही कर रहे हैं - तो उसे उसी नाम से करें ना ? उसे "कुर्बानी" या "बलिदान" जैसे शब्द से क्यों बुलाना ? हज़रत इब्राहीम ने जो किया - निस्संदेह बहुत ही महान कुर्बानी / बलिदान है - और यह करना किसी साधारण मानव के बस का नहीं है | परन्तु अब जो हो रहा है - वह तो सिर्फ एंजोयमेंट हो रहा है | मेरे बहुत से मुस्लिम दोस्त हैं - मैंने किसी के मन में किसी तरह की पीड़ा का एहसास नहीं देखा इसमें - और वह पीड़ा ही इसे कुर्बानी नाम दे सकती है | ** एक बकरा कुर्बान हुआ - मनुष्य ने क्या कुर्बान किया ? ** माता काली के आगे एक निरीह पशु को कट दिया गया - यह बलिदान है ? manushya ne kya balidan diya isme ? यह इबादत का हिस्सा है / पूजा का तरीका है - तो वही कहा जाए - इसे कुर्बानी का पवित्र नाम क्यों देना ? उन्होंने जो कहा - यह ऐसा बिल्कुल ही नहीं है जैसा कि उस टिप्पणी में हिन्दुओं पर (मुझ पर भी) पता नहीं क्या क्या आक्षेप थे , सिर्फ इसलिए कि मैंने कुछ सवाल पूछे - जबकि इस्लाम में आपको हुक्म है कि किसी को सच्ची जिज्ञासा हो - तो उसे ठीक से समझाया जाए - न कि उसे डरा कर . शाब्दिक हमले कर के चुप कर दिया जाये || :) @ कानून - हिन्दुओं में बलि - मैं उसके भी उतने ही विरुद्ध हूँ | शंकराचार्य "अधिकृत विद्वान् हैं " यह निर्णय आप न लीजिये कि कौन हिन्दुओं के अधिकृत विद्वान हैं , कौन नहीं | मैं हिन्दू धर्म की भी कई बातों से सहमत नहीं हूँ | किसे हिन्दू पर कोई धर्मादेश नहीं है कि वह शंकराचार्य जी को अपना गुरु मने / उनकी बात माने | यह हर एक का अपना अधिकार है | मैं तो जीजस को भी मानती हूँ और पैगम्बर मुअह्मद जी को भी | इसकी आज्ञा मैं किसी से नहीं मांगती | आपसे भी नहीं , शंकराचार्य जी से भी नहीं | @ १ पैसे x २५००० युवक = २५००० रुपये की प्रतीकात्मक कुर्बानी हाँ - जिसके लिए एक पैसे का महत्व हो - उसके मन से यह कुर्बानी है | परन्तु जो करोड़ों में खेल रहा हो - उसके लिए दिखावा / ढोंग / धोखा है | और यह एक ध्येय के साथ किया गया | आक्रमण से बचने की तैयारी के लिए | मैं - एक उदाहरण देती हूँ | एक ज़माना था जब पति के मरने से उसकी पत्नी को जबरन उसके साथ चिता पर जलाया जाता था - यह कुर्बानी नहीं - बल्कि हत्या थी | परन्तु रानी पद्मिनी यदि अपनी इज्ज़त बचाने को / रानी माद्री अपने पति पांडु के प्रेम में यदि अपनी मर्जी से चिता चढ़ गयी - तो यह कुर्बानी / बलिदान है | बलिदान अपने सुख का दिया जाए - तो बलिदान | दूसरे के प्राण लेना - कर्त्तव्य हो सकता है, धर्म हो सकता है (धनुर्धर अर्जुन या हज़रत इब्राहीम के लिए ) परन्तु बलिदान या कुर्बानी तब तक कैसे होगा जब तक वह उसके करने वाले को आहत ना करे ? @ दिव्या जी - इस पोस्ट पर उनकी बात क्यों ? दिव्या मेरी छोटी बहन हैं | यदि वे मुझसे नाराज़ हैं - उन्हें बहन होने के नाते यह अधिकार है | यदि वे कल मुझसे दोस्ती करना चाहें - या हमेशा ही नाराज़ रहना चाहें - यह भी उनका अधिकार है | अपनी बड़ी बहन कहने के बाद इतना अधिकार तो उनका बन ही गया है अब | :) मैंने आपको यदि गलत कहा - तो मैं माफ़ी मांगती हूँ | परन्तु आप ही ने कहा था कि (१) हमें लगा कि आपके मन में जिज्ञासा है [अर्थात अब आपको लग रहा है कि मेरे मन में जिज्ञासा नहीं थी - बल्कि मैं आपके विश्वास पर प्रहार कर रही थी ] (२) आपकी पोस्ट में कहा गया है कि यहां धर्म विशेष पर आक्षेपों से बचें। हालांकि आपकी पोस्ट में भी धर्म विशेष पर ही आक्षेप किए गए हैं -- इसीलिए मैंने कहा कि आप मुझ पर व्यंग्य न करें | यदि आप नहीं कर रहे थे और मुझे ऐसा लगा - तो मैं आपसे सच्चे मन से माफ़ी मांगती हूँ | @ killing a sensation is a sin - i am not talking of sin or "halaal" or "haraam" or vegetarian versus non vegetarian food here. let us not change the topic.
- ९ नवम्बर २०११ ४:५२ पूर्वाह्न
- सञ्जय झा ने कहा…
- dharmik vicharon/byabvharon pe poorvagrah se pare likhhi post pe samichin pratikriya....... bakiya 'bhai sugyaji' ke antim comment hi nirnayak hain........ pranam.
- ९ नवम्बर २०११ ५:१२ पूर्वाह्न
- Geeta ने कहा…
- shilpa ji aapki post boht sarthak thi, aapki post padhne ke baad or sab tippaniya padh lene ke baad mai bhi ye hi soch rahi hu ki isse kurbani na keh kar sirf ak karya ya kaam kaha jana hi shreshth hai samajh nahi aa raha is vishy ko aap log apne dharam varg se kyu jod rahe hai
- ९ नवम्बर २०११ ५:३५ पूर्वाह्न
- Human ने कहा…
- मेरे अनुसार कुर्बानी का मतलब अपने अवगुणों को समाप्त करना | व्यक्ति को सबसे पहले इसपर जोर देना चाहिए व किसी भी धर्म या शास्त्र में मूलतः येही सन्देश दिया गया है लेकिन कई बार हम उसे समझ नहीं पाते क्यूंकि सबसे बड़ी कुर्बानी अपने अवगुणों व अहम् के इलावा नहीं हो सकती लेकिन उसके लिए सत्संग आवश्यक है | बाकी रस्मो रिवाज भी अपनी जगह मायने रखते हैं लेकिन मानव हित व मानवता से बड़ा कुछ नहीं | यदि हम दिन रात पूजा पाठ करेंगे लेकिन ह्रदय से विकारहित नहीं हो पायें तो हमारी उपासना ईश्वर क़ुबूल नहीं करेगा | आपसी सौहार्द व मानवता बढे यही कामना है |
- ९ नवम्बर २०११ ६:०५ पूर्वाह्न
- डा. श्याम गुप्त ने कहा…
- अनवर जी ---बलि का अर्थ कहीं भी किसी भी जीव हत्या के सन्दर्भ में नहीं है.....बलि का अर्थ त्याग के अर्थ में ही है.....वही कुर्बानी का भी अर्थ है...परन्तु जैसा कि शिल्पा जी की पोस्ट में वर्णन है...खरीदे हुए या पाले हुए किसी भी प्रकार के जीव की हत्या में कोई तथ्य ही नहीं...यह कुर्बानी है ही नहीं -- ---जहां तक बलि का सबाल है..... "मरत प्यास पिन्जरा परौ सुआ समय के फ़ेर । आदर दे दे बोलियत वायस वलि की बेरि॥। " ---अर्थात वलि के दिनों में कौए को आदर दे दे कर बुलाया जाता है.खाना खिलाने के लिये न कि हत्या के लिये...वलि का अर्थ है आदर सहित सभी को, अपना अहं छोडकर एवं अपने भोजन के कुछ भाग का त्याग करके, भोजन कराना...जो हिन्दू धर्म के मुख्य नियमों में एक है ... " जीवमात्र की सेवा ही परमात्मा की सेवा है" ---मेध का अर्थ भी यग्य-हत्या नहीं अपितु ग्यान होता है ..बुद्धि ----अश्वमेध = अश्व जैसी मेधा प्राप्ति हेतु यग्य.....नर-मेध ....सर्वोच्च मेधा प्राप्ति हेतु यग्य ---बाद में अग्यानान्धकार की आन्धी में वैदिक व्यवहार के लोप होने पर इन के अनुचित अर्थ बताये जाने लगे ..अपना मतलब साधने वालों ने...चाहे वे स्वधर्मी रहे हों या विधर्मी....
- ९ नवम्बर २०११ ६:३६ पूर्वाह्न
- DR. ANWER JAMAL ने कहा…
- अगर आप हमें यह सलाह दे रही हैं कि हम यह न बताएं कि शंकराचार्य हिंदू धर्म के अधिकृत विद्वान हैं तो हम भी आपसे यही चाहेंगे कि आप भी यह तय न करें कि कोई क़ुरबानी तभी क़ुरबानी मानी जाए जबकि क़ुरबानी देने वाला ख़ुद को आहत महसूस करे। बहुत क़ुरबानी देने वाले ऐसे भी हुए हैं जो ख़ुद अपनी जान क़ुरबान करने से पहले भी आहत नहीं थे और न ही उनकी क़ुरबानी के बाद उनके परिवार वाले आहत हुए। क़ुरबानी देने वाले को भी ख़ुशी और गर्व था और यही भावनाएं उनके बाद उनके परिवार की भी हुई। हरेक क़ुरबानी देने वाले के जज़्बात और अहसास एक से नहीं होते, फिर आप कैसे कह सकती हैं कि जो आदमी क़ुरबानी देकर ख़ुशी महसूस कर रहा है और उसका परिवार भी ख़ुशी और गर्व महसूस कर रहा है उसकी क़ुरबानी को क़ुरबानी न माना जाए क्योंकि वे आहत नहीं हैं ?
- ९ नवम्बर २०११ ८:०६ पूर्वाह्न
- प्रवीण शाह ने कहा…
- . . . हज़रत इबराहीम ने क़ुरबानी का संकल्प लिया और पूरे वाक़ये के अंत में पशु बलि हुई। जब तक इबराहीम अलैहिस्सलाम जीवित रहे, पशुबलि करते रहे। उनके बाद उनके बेटे हज़रत इस्माईल और हज़रत इस्हाक़ अलैहिस्सलाम पशु बलि करते रहे। उनके बाद उनके बेटे और उनके अनुयायी पशुबलि करते रहे। पैग़ंबर मुहम्मद साहब सल्ल. की पैदाइश से पहले भी हज के समय पर अरब लोग जो कि हज़रत इस्माईल की संतान थे, पशुबलि किया करते थे। पैग़ंबर साहब ने भी इसे अनवरत रूप से जारी रखा और खुद भी की। हम भी करते हैं। आदरणीय शिल्पा जी, मैं समझता हूँ कि इन पंक्तियों में आदरणीय अनवर जमाल साहब ने आपके सवालों का मुकम्मल जवाब दे दिया है... धर्म और धार्मिक क्रियाकलाप किसी खास लॉजिक से या आज के हमारे ज्ञान पर आधारित तर्कों से नहीं समझाये जा सकते, यह केवल और केवल आस्था से निर्धारित होते हैं... मैंने एक सनातनी हिन्दू परिवार में जन्म लिया है हमारे कुमाँऊ में ब्राह्मण भी खुले रूप से माँसाहार करते हैं, कई मंदिरों में पशुबलि आज भी होती है, इससे किसी को भी कोई फर्क नहीं पड़ता... मैं यद्मपि संशयवादी हूँ... कभी कभी मन में सवाल भी उठते हैं मेरे, कि पिताजी जो यह यज्ञ-हवन के नाम पर दूध-घी-चंदन-फल-दही-अन्य सामग्री आग में फूंक देते हैं, या माता जी खुद भूखा रह देवों को प्रसन्न करना चाहती हैं या एक ही मंत्र, आरती या जाप को अनेकों बार दोहराते हैं इसका क्या आधार है... जवाब जो मुझे मिलता है वह एक ही है कि यह 'आस्था' है... आप तो स्वयं भी आस्थावान हैं, {मुझ जैसी संशयवादी-पापी व नर्क की अधिकारी नहीं... :) }... फिर हमारे भारत के ही एक मजहब की आस्था पर सवालिया निशान उठाती यह पोस्ट क्यों ? कुछ विद्वान टिप्पणीकार यहाँ यह साबित करने पर तुले हैं कि सनातन हिन्दू धर्म में पशुबलि का कोई विधान नहीं था वह इस लिंक के पेज संख्या ५५ व उससे आगे पढ़ें... ...
- ९ नवम्बर २०११ १०:३४ पूर्वाह्न
- shilpa mehta ने कहा…
- अनवर जमाल जी - यह आप कह रहे हैं - तो फिर तो ठीक है | आपके लिए यह क़ुरबानी है - मेरे लिए नहीं | बकरा तो दर्द महसूस कर ही रहा है | चाहे काटने वाला आहत हो रहा हो , या न हो रहा हो | और बकरा उस व्यक्ति का अपना तो है नहीं कि आहत होने का कोई कारण हो | आहत होने का कारण होते भी आहत हुए बिना व्यक्ति करे कुछ - जैसे आदरणीय इब्राहिम जी ने किया था - तब उसे कुर्बानी कहा जाता है - यही अर्थ पता है मुझे तो | हाँ - ऐसी एक नहीं - अनेक कुर्बानियां हैं - जिसमे करने वाले ने हम बाहर वालों की साधारण परिभाषा से तो बहुत बड़ी क़ुरबानी दी - किन्तु वह स्वयं दुखी न हुए | १. जैसे भगत सिंह फांसी पर चढ़ने के लिए अपने क्रांतिकारी मित्रों के साथ गाते हुए गए - प्रसन्नता से | २. जैसे आज़ाद जी ने अपनी जान भारत माता के लिए ख़ुशी से दी | ३. जैसे श्री रामचंद्र हँसते हुए वनवास को गए - लेशमात्र भी दुखी न थे | ४. देवव्रत ने जब पिता के सुख को भीष्म प्रतिज्ञा की तो उन्हें रंचमात्र भी दुःख नहीं हुआ | ५. राजा हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी और पुत्र को धर्म की मांग पर खूब तकलीफ उठाने दी | ६. श्री राम ने अनेक साल अपनी प्रिय पत्नी से दूर और श्री सीता जी ने श्री राम से दूर गुज़ारे - निज धर्म के लिए | ७. जैसे आदरणीय इब्राहिम जी ने किया था - अल्लाहताला के राह में अपने बेटे को ख़ुशी से कुर्बान करने का संकल्प - तब उसे मैं परम कुर्बानी मानती हूँ | ये सभी उदाहरण हैं कि स्वयं के लिए (औरों की नज़र में ) दुःख ले कर भी हम भीतर से दुखी न भी हो सकते हैं - यदि हम महामानव हैं श्री भगतसिंह जी की तरह | मैं महामानवों की नहीं, बल्कि साधारण जनों की बात कर रही हूँ - जिन्हें हिदायत है कि वे उस दर्द को महसूस करें - और अपने मन को मज़बूत करें कि कल दीन की राह में बड़ी से बड़ी कुर्बानी दे पाएं | परन्तु आप असहमत हैं - तो ठीक है | कोई बात नहीं | फिर आगे कोई सवाल नहीं पूछ सकती हूँ मैं इस पर :) | किन्तु आप जानते हैं शायद कि आपने मुझे सही जवाब दिया है , या नहीं :) आपका अपने धर्म के प्रति जो फ़र्ज़ था - क्या वह इस उत्तर से पूरा हुआ - यह सवाल आप अपने आप से पूछिए | इसका उत्तर आप ही दे पाएंगे | मुझे नहीं - स्वयं को | मेरी नज़र में इन सब उदाहरणों में उनमे से किसी ने भी अपनी या अपने प्रिय जनों के सुख की बलि दी - कभी किसी और जान की न दी | फिर भी आपकी बात भी अपनी जगह है | भीम ने भी वन में मिले दंपत्ति को यही कहा था कि बलि तब ही स्वीकार्य है जब वह रो कर नहीं, ख़ुशी से दी जाए | अपनी पत्नी हिडिम्बा को भी उन्होंने यही समझाया था कि बलि अपने पुत्र की या अपने पति की दो - तब ही वह बलिदान है - अन्यथा हत्या ही है | परन्तु बात फिर वहीँ आ जाती है कि हमारे मानसिक स्थितयां उन विश्वासों पर निर्भर हैं - जिन्हें ले कर हम बच्चे से बड़े हुए हैं | @ प्रवीण शाह जी - :) आप को लगता है कि आदरणीय जमाल जी ने मुकम्मल जवाब दे दिया - मुझे नहीं लगता :) मुकम्मल जवाब तब होता है - जब पूछने वाला या तो उस जवाब से सहमत हो जाये, या असहमत होते भी उसकी सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह न लगा सके | मेरी नज़र में ऐसा नहीं हुआ | disappointed हूँ - आशा थी - कि कुछ उत्तर मिल पायेगा - पर नहीं मिला | रही बात आपके नरक जाने के - मुझे तो नहीं लगता कि संशयवादी नरक जाते हैं ? this is news to me as per my limited knowledge | :) हिन्दुओं में बलि नहीं थी ? ऐसा यहाँ किसने कहा ? मुझे तो नहीं लगता कि ऐसा था / या है / या यहाँ किसी ने कहा है | प्रथा है - और मैं उसके विरुद्ध हूँ | उतनी ही - जितनी इस प्रथा के विरुद्ध हूँ |
- ९ नवम्बर २०११ ११:२४ पूर्वाह्न
- Global Agrawal ने कहा…
- मैं प्रवीण शाह जी की बातों का उत्तर देना चाहूँगा
- ९ नवम्बर २०११ १२:२४ अपराह्न
- Global Agrawal ने कहा…
- शिल्पा जी, मेरे प्रिय मित्र प्रवीण शाह जी और मेरी धार्मिक क्रियाकलाप और विज्ञान को लेकर काफी चर्चाएँ हुयी हैं अतः मुझे पता है की प्रवीण शाह जी इस तरह के जवाबों की ही अपेक्षा करते हैं , उन्हें ऐसे ही उत्तर प्रिय लगते हैं ,ये उनकी पोस्ट में भी काम आ जाते हैं ...... ताकि वो कह सकें की ........"धार्मिक क्रियाकलाप किसी खास लॉजिक से या आज के हमारे ज्ञान पर आधारित तर्कों से नहीं समझाये जा सकते, यह केवल और केवल आस्था से निर्धारित होते हैं" जब की वो भी जानते हैं प्रार्थना [सभी धर्म ] , सर पर टोपी [सभी धर्मों में ], शशकासन [हिन्दू धर्म ] नमाज [मुस्लिम धर्म ] में वैज्ञानिक हैं , चातुर्मास, होली आदि को शामिल करूँगा तो बहुत लम्बी लिस्ट बन जायेगी :) ---यहाँ जाएँ http://meri-parwaz.blogspot.com/2011/11/blog-post_07.html @यज्ञ-हवन के नाम पर दूध-घी-चंदन-फल-दही-अन्य सामग्री आग में फूंक देते हैं ----उत्तर के लिए यहाँ जाएँ http://www.amitsharma.org/2010/11/blog-post_17.html?showComment=1289982600104#c2347241747675168908 @माता जी खुद भूखा रह देवों को प्रसन्न करना चाहती हैं -----उत्तर के लिए यहाँ जाएँ http://praveenshah.blogspot.com/2010/09/blog-post_25.html?showComment=1285392605827#c6110009593315870385 @ कई मंदिरों में पशुबलि आज भी होती है, इससे किसी को भी कोई फर्क नहीं पड़ता @ फिर हमारे भारत के ही एक मजहब की आस्था पर सवालिया निशान उठाती यह पोस्ट क्यों ? -----अब ये तर्क भी सुनिए , [मेरे विचार नहीं है] "गढ़ीमाई, कामख्या या शाक्त मंदिरों में होने वाली पशुबलि पर छाती पीटने वाले ये पशुप्रेमी बकरीद पर अपने होंठ क्यों सिल लेते हैं। तब उनकी जीभ पर ताला क्यों लग जाता है? इस प्रश्न का उत्तर वे नहीं देते। क्योंकि वे जानते हैं कि इसके विरोध पर उनकी जान ही खतरे में पड़ जाएगी। उन्हें सेक्यूलर बिरादरी से बाहर कर दिया जाएगा। तब उनके चित्र इन सेक्यूलर पत्र-पत्रिकाओं में कैसे छपेंगे और अखबारी प्रचार के बिना वे जीवित कैसे रहेंगे?" ----पूरा लेख यहाँ पढ़ें http://www.bhartiyapaksha.com/?p=8995 @कुछ विद्वान टिप्पणीकार यहाँ यह साबित करने पर तुले हैं कि सनातन हिन्दू धर्म में पशुबलि का कोई विधान नहीं था ---इस बारे में भी कुछ बताएं , ऐसी पोस्ट क्यों लिखनी पड़ती है ? http://www.amitsharma.org/2010/11/blog-post_15.html ---जब प्रतुल जी जब काफी सारी बातों का जवाब देने को तैयार हुए थे तब क्या हुआ था ? http://www.amitsharma.org/2010/11/blog-post_17.html?showComment=1290051946192#c280991320579061488 रही बात विषय की तो मैंने एक कमेन्ट ऊपर कर दिया है जिसमें सही मनोविज्ञान समझ आ रहा है , लेकिन ये भी तय रहा की इस बात पर कोई भी ध्यान नहीं देने वाला , सबकी अपनी अपनी वजहें है :) एडमिनिस्ट्रेटर के लिए नोट : 1. ध्यान दें की प्रवीण शाह जी के कमेन्ट में जिन बातों उल्लेख है मैंने उन्ही के बारे में बोला है अतः इसे विषयांतर नहीं माना जाना चाहिए 2. सारे लिंक जानबूझ कर ब्लोग्स से लिए हैं ताकि ये पता चल सके की इन बातों के बारे में बहस हो चुकी है, लेकिन हमारे संशय वादी मित्र आज भी शायद आस्था पर कंसंट्रेट करना चाहते हैं ..और फिर कहते हैं ..... @जवाब जो मुझे मिलता है वह एक ही है कि यह 'आस्था' है... 3. मुझे कोई ख़ास परवाह नहीं की कमेन्ट पब्लिश ना हो, कम से कम एडमिनिस्ट्रेटर ने तो पढ़ लिया होगा :) 4. वैसे मुझे बिलकुल नहीं लगता की इस कमेन्ट से आपकी किसी भी पालिसी का उल्लंघन हो रहा है
- ९ नवम्बर २०११ ७:५१ अपराह्न
- shilpa mehta ने कहा…
- gaurav ji - aapne jo likha hai - usse to mujhe lag rahaa hai ki main administrator nahi - koi bahut badi judge banee baithee hoon yahan par :) jisne badee sare impossible shartein rakhi hain logon par comment karne ke liye :)
- ९ नवम्बर २०११ १०:२५ अपराह्न
- abhi ने कहा…
- पोस्ट और टिप्पणियों में भी जबरदस्त चर्चा हो रही है इस विषय पर..स्ट्रोंग और ब्रेव सब्जेक्ट उठाया है आपने!!
- ९ नवम्बर २०११ ११:०९ अपराह्न
- दिलबाग विर्क ने कहा…
- आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है कृपया पधारें चर्चा मंच-694:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
- ९ नवम्बर २०११ ११:४४ अपराह्न
- निरामिष ने कहा…
- एक सार्थक आलेख,
- १० नवम्बर २०११ ९:३० पूर्वाह्न
- bhola.krishna@gmail .com ने कहा…
- अनगिनत पशुओं की "कुर्बानी" से मिले पदार्थों ( by-products उनके मांस ,चमड़े आदि ) का उपयोग कर पौराणिक काल से आज तक इस संसार में असंख्य लोग जिए हैं और जी रहे हैं ! करोड़ों उनसे अपना जीवन यापन कर रहे हैं !( मैं - शाकाहारी - जिसे लोग "राम" का परम भक्त समझते हैं ) मैंने स्वयम आजीवन इसी की कमाई खाई और परिवार को खिलाई है ! मनुष्य जाति के लिए चाहे पशुबध कुर्बानी हो या न हो ,उन निरीह पशुओं का अपना जीवन दान देकर मानवता की सेवा करना ती अवश्य ही महान "कुर्बानी" है ! कदाचित पशुओं की इस 'कुर्बानी' में उनके सहायक बने मानव भी पुन्य के भागी हो जाते होंगे !मैं नहीं कह सकता , प्रबुद्ध ज्ञानी ब्लोगर बन्धु प्रकाश डालें ! V.N.SHRIVASTAV भोला former Leather Expert
- १० नवम्बर २०११ ११:५१ पूर्वाह्न
- चन्दन..... ने कहा…
- कोई ना मुसलमान कुर्बानी देना चाहते हैं और ना हि हिंदू बलिदान करना चाहते हैं, दोनों अपने खुदा और भगवान की आँखों में धुल झोंकते हैं| भला सबसे प्रिय की कुर्बानी देने वाले मुसलमान को दो दिन में हि बकरे से कैसा अगाध प्रेम हो जाता है, मेरे कुत्ते के आँखों में जब मुझे प्रेम झलकता है तो मैं उसे पास बिठा लेता हूँ हां कुछ देर बाद वो बदबू भी करता है... क्यूंकि मैं गांव में रहता हूँ और वो धुल में लोटता रहता है| जैसा की अब तक हिंदू और मुसलमान दोनों यह मानते आये हैं की भगवान और खुदा पशुओं और मनुष्यों दोनों को जीवन दान देते हैं, फिर मनुष्य को कौन हक दे देता है पशुओं की बली देने की या क़ुरबानी देने की| जबकि दोनों खुदा अथवा भगवन के नजर में समान हैं| पौराणिक कथाओं के अनुसार पिचास मतलब शैतान खून से खुश रहते हैं. तो क्या ये मान लिया जाय की ये बली और क़ुरबानी देने वाले भगवान या खुदा को पिचास समझते हैं| कुछ नही ये सब अपने चीभ के स्वाद लेने के अपने अपने तर्क और तरीके हैं| अभी तो कई वैज्ञानिक इसे वैद्य ठहराने आ खड़े हुए हैं| जैसे बिना मांसाहार के अस्तित्व पे हि खतरा हो! दरअसल बात ये है की बड़े जानवरों का मांस सस्ता मिलता है जिससे ये सभी को मिल जाता है और सब ओनी लिप्सा शांत करते हैं इन लिप्साओं और गायों के चामरे भी तभी ज्यादा मिलेंगे इस लिए वैज्ञानिक भी सामने खड़े किये जा रहे हैं, हो सकता है फिर से कोई भगवान के दूत भी आ सकते हैं इसे सही ठहराने के लिए| एक बात ये की कोई भी धर्म हिंसा नही सिखाता है तो ये कैसी अहिंसा है?
- १० नवम्बर २०११ ३:३७ अपराह्न
- प्रवीण शाह ने कहा…
- . . . @ प्रिय मित्र गौरव, ... :) ज्यादा क्या कहूँ मित्र, बस यही कह सकता हूँ कि हमारे निष्कर्ष भी हमारी 'आस्था' से ही प्रभावित होते हैं... अभी हाल का ही एक हादसा लो... सर्वजन के कल्याण व सद्मति के लिये किया जा रहा एक महायज्ञ अपने ही अनुगामियों में से २० की असमय मौत का कारण बन गया... कहाँ चली गई हवन से उत्पन्न वह विश्वकल्याणी चेतनायें ? ...
- १० नवम्बर २०११ १०:५८ अपराह्न
- Global Agrawal ने कहा…
- V.N.SHRIVASTAV भोला जी के इस दृष्टिकोण पर बहुत आश्चर्य चकित हूँ , फिलहाल मैं भी प्रबुद्ध ज्ञानी ब्लोगर बन्धु के सारगर्भित उत्तर की प्रतीक्षा में हूँ , कोई उत्तर ना आया तो मैं अपनी ओर से प्रतिक्रिया अवश्य दूंगा , उनकी बातों से पूरी तरह असहमति है
- १० नवम्बर २०११ ११:१८ अपराह्न
- Global Agrawal ने कहा…
- @jisne badee sare impossible shartein rakhi hain logon par comment karne ke liye :) शिल्पा जी , हर कार्य / फैसले के पीछे कोई भावना/मानसिकता होती है .... कमेन्ट मोडरेशन लगाने के पीछे भी .....मैं आपकी भावनाएं समझ सकता हूँ
- १० नवम्बर २०११ ११:३० अपराह्न
- Shah Nawaz ने कहा…
- शिल्पा जी, परिवार में किसी इमरजेंसी के कारण गाँव जाना पड़ा था, इसलिए आपके प्रश्न का जवाब नहीं दे पाया... हालाँकि वहां से ही कई बार मोबाइल से टिपण्णी देने की कोशिश की लेकिन कई बार पूरा कमेन्ट टाइप करने के बाद भी आपके ब्लॉग पर पोस्ट कर पाने में असमर्थ रहा, ऐसा शायद आपके कमेन्ट बॉक्स के कारण हुआ.
- १० नवम्बर २०११ ११:५२ अपराह्न
- Shah Nawaz ने कहा…
- इस विषय पर अनेकों बातें हैं, कुछ पर अनवर जमाल जी ने रौशनी डालने की अच्छी कोशिश भी की है. जैसा कि मैं पहले भी अपनी पोस्ट में कह चूका हूँ कि इस्लाम के अनुसार मांसाहार और शाकाहार दोनों में ही जीव हत्या होती है, चाहे जानवर हो या पेड़-पौधे, दोनों को ही बराबर दुःख होता है. और जीवित रहने के लिए यही प्रकृति का नियम है. इसलिए अपने जीवन को बचने के लिए दूसरे जीव की हत्या करना चाहे मज़बूरी से ही सही लेकिन आवश्यक है. रही बात कुर्बानी की तो इसमें से एक बात तो यह है कि कुर्बानी केवल ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) पर ही नहीं बल्कि हम आम जीवन में अक्सर करते रहते हैं. जो कि कई तरह की होती है जैसे इमदाद के लिए जानवर की कुर्बानी, सदके के लिए कुर्बानी और ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) पर कुर्बानी. इसमें से इमदाद अर्थात मदद करने की नियत से की गई कुर्बानी के द्वारा अपने घर वालों, रिश्तेदारों, पडौसियों और अन्य गरीबों के लिए भोजन की व्यवस्था की जाती है, इसमें यह बात है कि इस तरह के भोजन को केवल घर वालो को ही नहीं खिलाया जाता बल्कि गरीब रिश्तेदारों, पडौसियों और अन्य गरीबों को भी भोजन कराया जाता है. दूसरी तरह की कुर्बानी अर्थात सदके के लिए की गई कुर्बानी से बनने वाले भोजन को केवल और केवल गरीब लोगों को खिलाया जाता है, इसमें घर वालों का हिस्सा नहीं होता. तथा तीसरी तरह की कुर्बानी अर्थात ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) वाली कुर्बानी के लिए अच्छा तरीका यही है कि मांस अथवा पके हुए भोजन के तीन हिस्से किये जाए और उसमें से एक हिस्सा अपने घर वालों के लिए, दूसरा हिस्सा गरीब रिश्तेदारों के लिए तथा तीसरा हिस्सा अन्य गरीब लोगों के लिए निकला जाए, हालाँकि इसमें कोई ज़बरदस्ती नहीं है, बल्कि जिसको जितना पुन्य कमाना है वह उस हिसाब से बंटवारा कर सकता है. अब बारी आती है आपके प्रश्न कि इसमें कुर्बानी की क्या बात हुई? दरअसल इन तीनो ही तरीकों को में कोई भी मर्द / औरत चाहता / चाहती तो उसके द्वारा अपने जानवर अथवा पैसे को खुद अपने काम में इस्तेमाल किया जा सकता था. लेकिन उसने अपने अन्दर के लालच को कुर्बान करके अपने घर वालो, गरीब रिश्तेदारों तथा अन्य गरीबों को लिए भोजन की व्यवस्था की. रही बात कुर्बानी के तरीके की तो मुसलमान का हर एक काम पैगम्बर मुहम्मद (स.) के तरीके पर होता है और ऊपर के दोनों तरीकों में भोजन के लिए मांसाहार अथवा शाकाहार दोनों में से किसी भी तरीके को अपनाया जा सकता है, लेकिन ईद-उल-ज़ुहा (बकराईद) के मौके पर केवल कुछ जानवरों की ही इजाज़त है और वह भी कुछ शर्तों के साथ. साथ ही यह भी बात है कि इस्लाम में जानवरों और पेड़-पौधों पर खासतौर पर रहम और मुहब्बत का हुक्म है और भोजन जैसी आवश्यकता को छोड़कर उनका वध करना वर्जित है, यहाँ तक कि इसको बहुत बड़ा गुनाह बताया गया है. बल्कि पेड़ों को पानी डालना तथा प्यासे जानवर को पानी पिलाने जैसे कामों के बदले में बड़े-बड़े गुनाहों को माफ़ करने जैसे ईनाम है.
- ११ नवम्बर २०११ १२:०२ पूर्वाह्न
- shilpa mehta ने कहा…
- आदरणीय ग्लोबल जी - मैं चकित नहीं हूँ | आदरणीय भोला जी जो कह रहे हैं - वह भी एक पहलू है जीवन का ही | जो लोग पशु हत्या के खिलाफ हैं - उन्हें चमड़े की चीज़ों से परहेज़ भी होता देखा है मैंने - मैं सिल्क की साड़ियाँ भी अब खरीदना पसंद नहीं करती, जबसे मुझे पता चला कि उसे बनाने में कई silkworms को जला दिया जाता है | पर - ये सभी इन्दस्ट्रीज़ हैं तो सही, और इनमे लोग काम भी करते हैं | भोला जी ने कहा कि यह एक जॉब है - यह नहीं कहा कि यह महानता / कुर्बानी है | चाची 420 नामक फिल्म में भी यही उदाहरण प्रयुक्त हुआ था | मैंने ऊपर भी लिखा है - मैं पशु हत्या की बात नहीं कर रही, मांसाहार की भी बात नहीं कर रही , हिन्दुइज्म, क्रिस्चियानिती या इस्लाम की बात नहीं कर रही | मैं वह बात ही नहीं कर रही | मैं यह कह रही हूँ कि अपने sense enjoyment (एन्जोयिंग नोंवेज फ़ूड ) को एक बेचारे जानवर को मारें - तो उस पशु की कुरबानी तो हुई - पर हमने कोई क़ुरबानी नहीं की - कोई बलिदान नहीं दिया - यह बात मानें हम | अपने आप को महान साबित न करें यह कह कर कि हमने कुर्बानी दे | यदि हम अपनी जान दे दें (भगतसिंह) - तब हम कह सकते हैं कि हमने कुर्बानी दी | अन्यथा नहीं | चाहे उस ऊपर वाले को परमेश्वर बुलाएं, या अल्लाह, या God - उसको धोखा देने की कोशिश न करें | वह परम रहमत-गार नहीं मांग रहे हैं कि इस बकरे को काटो , यह उनकी मांग नहीं है | मुझे खाना है - मैं काट रहा हूँ - यह मानें हम - चाहे जीभ के स्वाद के लिए, या परंपरा के लिए, या लिसी भी वजह से | और उसके लिए अपने ऊपर " मैं महान बलिदानी हूँ , मैं कुर्बानी दे रहा हूँ " लेबल ना ओढें | इसे ईश्वर पर अपना एहसान न बनाएं | कि मैंने देवी पर एक पशु की बलि दी - तो अब मैंने देवी के ऊपर एहसान किया - अब देवी मेरे लिए यह काम (मनोकामना) पूरी करें | इस मानसिकता से निकलना होगा हमें | हम सभी को - हिन्दू भी (बलि) , मुस्लिम भी (बकरा) , इसाई भी (turkey ) - हम सभी को !!! जब तक हम हत्या को ऊंचे नामों से गौरवान्वित करेंगे ( विधवा को जिंदा जला देना = सती ) - तब तक उन प्रथाओं को मानने वालों को convince किया ही नहीं जा सकता कि ये गलत है | बाल विवाह ही को ले लीजिये - सरकार की सरासर मूर्खता है | लोगों को यह समझाती है कि इसके नुक्सान क्या हैं | परन्तु यह पत्ते काटने जैसा है | जड़ में धर्म और कुप्रथा से जो जुड़ाव है - उसे काटना होगा | उन गरीब गाँव वालों को यह नहीं समझाना है कि बाल विवाह के क्या कुपरिणाम हैं - उन्हें यह समझाना है कि यह धर्म का आदेश नहीं है - यह हमारी बनाई हुई आदत है | जब तक चीज़ धर्म से जुडी हो - उसे छोड़ना almost impossible है | मैं यह कह रही हूँ कि अपनी कामनाओं को ईश्वरीय सेवा का जामा न ओढायें हम | शाह नवाज़ जी - आप आये - बहुत धन्यवाद | आशा है आपने पढ़ा और समझा होगा कि मैं क्या कह रही हूँ | यदि आप उचित समझें, तो मुझे उत्तर दें | अभी तक मेरे सवाल का उत्तर नहीं मिला है मुझे | प्रवीण जी - आप काफी इन्तेल्लेक्चुअल हैं, समझदार हैं | मेरे ख्याल में आप समझ रहे हैं कि बात क्या हो रही है | :) | मैं समझ रही हूँ कि आप समझ रहे हैं | यदि उत्तर देना चाहें , तो welcome | न देना चाहें - तो भी welcome | बस बात को घुमाइए नहीं - यह request ज़रूर करूंगी | जिन लोगों ने उत्तर दिए - सबका धन्यवाद |
- ११ नवम्बर २०११ १२:२८ पूर्वाह्न
- Human ने कहा…
- शिल्पा जी आप हमेशा ही महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठती हैं और साथ ही साथ उसे एक अच्छे निष्कर्ष पर ले जाती है । इतने गहन व संवेदनशील मुद्दे को आपने बहुत ही अच्छे ढंग से हम सबके समक्ष रखा है । अपने विचारों से अवगत कराएँ ! अच्छा ठीक है -2
- ११ नवम्बर २०११ ५:४७ पूर्वाह्न
- shilpa mehta ने कहा…
- आदरणीय शाह नवाज़ जी , धन्यवाद | आपने मेरा प्रश्न समझ कर कुछ शान्ति से कुछ समझाने का प्रयास तो किया कम से कम | :) थैंक्स :) | इसके लिए भी शुक्रिया कि आपने मुझ पर यह इलज़ाम नहीं लगाया कि मैंने यह पोस्ट आपके धर्म पर आक्षेप लगाने को लिखी है - क्योंकि मैंने इसके लिए नहीं लिखी - यह मैं और मेरे ईश्वर जानते हैं ( जिन्हें आप अल्लाह के नाम से बुलाते हैं - उन्हें मैं ईश्वर के नाम से बुलाती हूँ ) उन्ही ईश्वर की प्रेरणा पर ही मैंने यह पोस्ट लिखी है - उन्ही की प्रेरणा पर मैं हर कार्य करती हूँ | तो जब लोग मुझ पर "आक्षेप करने" का आक्षेप लगाते हैं - तो वे ( अनजाने में ही सही ) मुझ पर नहीं बल्कि उसी परवरदिगार पर आक्षेप लगाते हैं | अल्लाह सिर्फ आपके ही नहीं - मेरे भी अल्लाह हैं, रहीम हैं - मुझे बुरा भला कहना भी उनके ही एक बन्दे को बुरा भला कहना है | अब मैं कुछ प्रश्न पूछना चाहूंगी - १) @ इस्लाम के अनुसार मांसाहार और शाकाहार दोनों में जीव हत्या - यह बात सब कहते हैं, मैं यह मानती भी हूँ | ** पहली बात तो मैंने इस पोस्ट और टिप्पणियों में लगातार कहा कि हम मांसाहार और शाकाहार की बात नहीं करें यहाँ - यह इस पोस्ट का विषय नहीं | मैं मांसाहार के विरोध में हूँ - पर यहाँ मैं इस विषय पर बनी रहना चाहूंगी कि इस कार्य को कुर्बानी जैसा पवित्र नाम क्यों दिया जाता है | ** इस्लाम के अनुसार ? क्या यह बात पवित्र कुरान कहती है कि दोनों में जीव ह्त्या होती है ? या यह आप modern science के कारण कह रहे हैं ???? आजकल कई चीज़ें ऐसी हैं जो science से आई हैं - और बड़े बडे विद्वानों ने उसे जबरन धर्म से जोड़ दिया है कुछ दूसरी ही बातों को कोई और ही रंग देने के लिए | मेरे पास पवित्र कुरान की ४ authentic versions हैं - जो मेरे मुस्लिम मित्रों ने मुझे authentic बताये - मैंने खरीदे भी - और एक मित्र हैं - उन्होंने मुझे पूना से मंगवा कर दी एक पुस्तक - क्योंकि वह यहाँ उपलब्ध नहीं थी ( उन्होंने इसके लिए मुझसे पैसे भी नहीं लिए यह कह कर कि यह धर्म के विरुद्ध होगा ) | यदि यह बात सच ही कुरान शरीफ में है कि दोनों में जीव ह्त्या हो रही है - यह बात आप science को जोड़ कर नहीं कह रहे हैं (जैसा कि जाकिर नायक जी के lectures में किया जाता है ) - तो कृपया मिझे रेफेरेंस दीजिये - मैं पढ़ कर देखना चाहूंगी कि actually क्या लिखा है | जैसा कि आप जानते हैं कि अल्लाहताला ने खुद हम बन्दों से कहा है कि वे स्वयं देखेंगे कि इस पवित्र पुस्तक में क़यामत तक कुछ भी न बदल पाए, और मुझे उनकी बात पर भरोसा है | तो let us see what exactly is the version written there about "जीवहत्या" and "क़ुरबानी" | उसके बाद इस पर बात होगी | @ इमदाद और सदके के बारे में - यह तो नयी बात आपने बताई - मैं इन दोनों ही के बारे में नहीं जानती थी | यदि हम अपने पैसे खर्च कर के गरीबों के खाने की व्यवस्था कर रहे हैं - तो यह पैसे और लालच की कुर्बानी तो हुई ही - जानवर के बारे में मेरे विचार आप पढ़ ही चुके हैं | दुःख की बात है कि यह देखने को नहीं मिलता | शायद वक़्त के साथ हम इतने खुदगर्ज़ होते जा रहे हैं कि जो हमें अपने लिए करना है वह तो हम करते हैं - जो गरीबों के लिए करना है - वह नहीं करते हैं | @अब बारी आती है आपके प्रश्न कि इसमें कुर्बानी ...भोजन की व्यवस्था की ..... ............... बिल्कुल | मैं मानती हूँ | यही अन्दर का लालच और मोह ही त्यागना है -- यही कुर्बान करना है | यदि हम यह करें - तो मैं मानूंगी कि कुर्बानी हो रही है | पर यह देखने में आ नहीं रहा दुर्भाग्य से | हम कर तो रहे हैं enjoy , और नाम उसे "कुर्बानी" का दे रहे हैं | परिवार के लिए करना कोई कुर्बानी नहीं है - उनकी प्रसन्नता से हमें प्रसन्नता ही मिलती है - और प्रसन्नता ढूँढना normal insaani फितरत है - कुर्बानी नहीं है |गरीबों को लिए भोजन की व्यवस्था ही लालच को कुर्बान करना है | @ साथ ही यह भी बात है कि इस्लाम में जानवरों और पेड़-पौधों पर खासतौर पर रहम और मुहब्बत का हुक्म है और भोजन जैसी आवश्यकता को छोड़कर उनका वध करना वर्जित है, यहाँ तक कि इसको बहुत बड़ा गुनाह बताया गया है -........ कितनी अच्छी सीख है ना ? फिर भी (hindu) राजा महाराजा लोग , साथ ही (musalman )नवाब आदि भी , शिकार करते रहे - दुखद है - अचरजमय भी | ................. | यह जो आपने अभी कहा - कि इस्लाम में जानवरों और पेड़-पौधों पर खासतौर पर रहम और मुहब्बत का हुक्म है और भोजन जैसी आवश्यकता को छोड़कर उनका वध करना वर्जित है, यहाँ तक कि इसको बहुत बड़ा गुनाह बताया गया है - कृपया क्या इसका भी रेफेरेंस (किस आयत में आया है ) बता सकेंगे please ? आपके उत्तर का इंतज़ार करूंगी |
- ११ नवम्बर २०११ ७:५६ पूर्वाह्न
- प्रवीण शाह ने कहा…
- . . . " मैंने यह पोस्ट आपके धर्म पर आक्षेप लगाने को लिखी है - क्योंकि मैंने इसके लिए नहीं लिखी - यह मैं और मेरे ईश्वर जानते हैं ( जिन्हें आप अल्लाह के नाम से बुलाते हैं - उन्हें मैं ईश्वर के नाम से बुलाती हूँ ) उन्ही ईश्वर की प्रेरणा पर ही मैंने यह पोस्ट लिखी है - उन्ही की प्रेरणा पर मैं हर कार्य करती हूँ | तो जब लोग मुझ पर "आक्षेप करने" का आक्षेप लगाते हैं - तो वे ( अनजाने में ही सही ) मुझ पर नहीं बल्कि उसी परवरदिगार पर आक्षेप लगाते हैं | अल्लाह सिर्फ आपके ही नहीं - मेरे भी अल्लाह हैं, रहीम हैं - मुझे बुरा भला कहना भी उनके ही एक बन्दे को बुरा भला कहना है |" आदरणीय शिल्पा जी, विनम्रता पूर्वक यह कहना चाहता हूँ कि मैं कहीं पर भी बात को घुमाने का प्रयास नहीं कर रहा... आपके इस आलेख में मुझे दो अलग अलग किस्म की आस्थाओं का टकराव दिख रहा है साफ-साफ और उसी को रेखांकित किया है मैंने... अब ऊपर उद्धरित अपनी ही पंक्तियों को देखिये... ईमान पर कायम, पाँच वक्त का नमाजी कोई मुसलमान अगर यह कहे कि- " यह सोचना गलत है कि मैंने यह कुरबानी आपके धर्म या संवेदनाओं पर चोट लगाने को दी है - क्योंकि मैंने इसके लिए नहीं दी - यह मैं और मेरे खुदा जानते हैं ( जिन्हें आप ईश्वर के नाम से बुलाते हैं - उन्हें मैं अल्लाह के नाम से बुलाता हूँ ) उन्ही अल्लाह की प्रेरणा पर ही मैंने यह कुरबानी की है - उन्ही की प्रेरणा पर मैं हर कार्य करता हूँ | तो जब लोग मुझ पर कुरबानी कर कुछ गलत करने का आक्षेप लगाते हैं - तो वे ( अनजाने में ही सही ) मुझ पर नहीं बल्कि उसी परवरदिगार पर आक्षेप लगाते हैं | ईश्वर सिर्फ आपके ही नहीं - मेरे भी अल्लाह हैं, रहीम हैं - मुझे बुरा भला कहना या मेरे कृत्य पर सवाल उठाना भी उनके ही एक बन्दे को बुरा भला कहना व उस पर सवाल उठाना है।" तो किसी भी किनारे पर खड़े प्रेक्षक के लिये आप दोनों की बातों का वजन बराबर होगा... आप दोनों ही सही कह रहे हैं... बस दोनों की आस्थायें अलग-अलग हैं... इसीलिये मैंने मित्र गौरव को कहा कि हमारे निष्कर्ष भी हमारी 'आस्था' से ही प्रभावित होते हैं... सादर... ...
- ११ नवम्बर २०११ ९:०५ पूर्वाह्न
- DR. ANWER JAMAL ने कहा…
- @ प्रिय प्रवीण शाह जी ! बेशक आपका यह एक बेहतरीन कमेंट है। हिंदू धर्म में यह माना जाता है कि हरेक अपने प्रारब्ध के अनुसार ही किसी योनि में जन्म लेता है और हरेक जीव अपने कर्मों का फल भोगता है। शुभ अशुभ कर्मों का फल जीव को भोगना ही होगा। उसने अगर कुछ अशुभ किया है तो उस जीव को अपने कर्मानुसार कष्ट भोगना ही पड़ेगा। लेकिन बात जब क़ुरबानी के बकरों की आती है तो अचानक यह सारा दर्शन उठाकर ताक़ पर रख दिया जाता है और कहने लगते हैं कि इन बकरों को क्यों काटा जा रहा है ? यहां कोई यह क्यों नहीं मान लेता कि ये बकरे अपने प्रारब्ध को भोग रहे हैं ? आपकी बात पर ध्यान दिया जाए या फिर अपनी दार्शनिक मान्यताओं पर, दोनों ही तरह यह बात समझ में आ जाती है कि बकरों की क़ुरबानी ईश्वर की प्रेरणा से हो रही है। शुक्रिया !
- ११ नवम्बर २०११ ९:२९ पूर्वाह्न
- shilpa mehta ने कहा…
- जी , आदरणीय प्रवीण जी | यदि ईश्वर /अल्लाह की प्रेरणा पर कोई कर रहा है - तो उसकी उस कुर्बानी पर मैं बिल्कुल कोई ओब्जेक्शन नहीं करूंगी - परन्तु यह तो वही जानते होगा कि वह अल्लाहताला की प्रेरणा पर कर रहा है या अपने लिए , or for the sake of a habit / prathaa / rivaaz - whatever you choose to call it | :) | क्योंकि जिसे मैं ईश्वर समझती हूँ - उसे तो किसी कुर्बानी की आवश्यकता ही नहीं है | पर्वर्दिगार है - सर्व शक्तिमान है, सिर्फ मन के भाव से सैकड़ों संसार बना और मिटा सकता है | उसे ज़रुरत होगी कि हम एक बकरे को काटे ? हज़रत इब्राहीम से क़ुरबानी जो ली गयी - वह उनकी परीक्षा थी - जिसमे वे पूरे उतरे | आज जो हो रहा है - वह अपनी मर्जी है | उसे - जो पूरी दुनिया को आँख के इशारे भर से बना बिगाड़ सकता है - उसे हमारी इस कुर्बानी की ज़रुरत होगी ? आप तो ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते - इसलिए मैं आपको समझा नहीं पा रही (इस पोस्ट के लिमिटेशंस में ) कि मैं क्या कह रही हूँ | यह बात आप चाहें - तो आपके ब्लॉग पर किसी प्रश्न के उत्तर में discuss कर सकेंगे | यहाँ मैं अपने ही नियमों से बंधी हूँ - ज्यादा बात की - तो विषय बदल जाएगा | so - sorry - but let 's discuss this point elsewhere | :) मैंने क्या क्यों किया - यह मैं जानती हूँ | ना आपको समझाने जाऊंगी, ना किसी और को | यदि मैं झूठ कह रही हूँ - तो यह मेरे और मेरे ईश्वर के बीच है | अब किसी और को समझाने की क्या ज़रुरत है ? वैसे - इतना तो शायद अब तक आप मुझे जान ही गए हैं कि यह जानते हैं कि मैं मेरे कान्हा का नाम लेकर झूठ नहीं बोलूंगी :) | परन्तु यदि कोई मुझ पर आक्षेप अगाए भी - तो मैं उससे झगड़ा नहीं करती - आप जानते हैं | आपने भी देखा है कि किसीने किस तरह के आक्षेप मुझ पर लगाए थे २ महीने गुज़रे - और मैंने उन्हें विश्वास दिलाने की कोई अधिक कोशिश नहीं की थी | सिर्फ इतना कहा था कि मैं जानती हूँ कि मैं क्या और क्यों कर रही हूँ - and i am not going to give excuses . जो बात आपने quote करी है - वह मैंने शाहनवाज़ जी के सभ्य सुलझे उत्तर के धन्यवाद करते हुए कही | जिसने मुझ पर आक्षेप किया - उन्हें मैंने पूरी इज्ज़त से अपनी असहमति बता दि - कुछ prove करने का प्रयास न किया - न करूंगी | :) | आभार आपका - कि आप यहाँ २-३ बार टिप्पणी कर चुके हैं - सच ही बहुत आभारी हूँ | :) |
- ११ नवम्बर २०११ ९:३४ पूर्वाह्न
- प्रवीण शाह ने कहा…
- . . . आदरणीय शिल्पा जी, मैं भी आपका बहुत आभारी हूँ मुझ अल्पज्ञ की टिप्पणियों को स्थान व उनका उत्तर देने के लिये... सादर... ...
- ११ नवम्बर २०११ ९:४७ पूर्वाह्न
- DR. ANWER JAMAL ने कहा…
- प्रिय प्रवीण शाह जी का कमेंट देखिए ‘ब्लॉग की ख़बरें‘ पर ब्लॉगिंग की दुनिया में ऐसा कम ही होता है कि कोई कमेंट एक यादगार कमेंट बन जाए। इल्म ए जफर का उसूल है कि हरेक सवाल में ही उसका जवाब छिपा होता है। हमारे प्रिय प्रवीण शाह जी के कमेंट को देखकर हमें यही नज़र आया है कि हां, सच में ही अगर सवाल करने वाला अपने सवाल पर ही ढंग से ग़ौर कर ले तो उसका सवाल ही उसे जवाब दे सकता है। प्रिय प्रवीण शाह जी का कमेंट देखिए ‘ब्लॉग की ख़बरें‘ पर
- ११ नवम्बर २०११ ९:५७ पूर्वाह्न
- shilpa mehta ने कहा…
- @ आदरणीय प्रवीण जी, यह आप कह रहे हैं ? जिनको पढने और पसंद करने वाले न जाने कितने लोग हैं ? मज़ाक कर रहे हैं ? मेरा यह ब्लॉग है कितना पुराना ? 6 months ? :) कितने लोग इसे पढ़ते हैं ? ७०-८० ? और आप मुझे शुक्रिया कह रहे हैं स्थान के लिए ? :) @ आदरणीय अनवर जी - बिल्कुल ठीक कहा आपने | प्रवीण जी न मानते हों - किन्तु मैं ज़रूर कर्मफल के रूप में पुनर्जन्म को मानती हूँ | यह भी कि यदि वह बेचारा बकरा कट रहा है - तो यह उसके किसी पूर्व कर्म का फल है | पर यह फल आपके या मेरे करने से नहीं - यदि ईश्वर चाहें तो किसी भी रूप में उसे उसके कर्म का फल दे ही देंगे | उसके लिए आवश्यक नहीं कि आज मैं अपने कर्म खराब करूँ | :) | जब कृष्ण को अर्जुन के निमित्त वध करवाने थे दुष्टों के - तो उन्होंने गीता में उन्हें प्रेरणा दी | वे one to one बात करने में सक्षम हैं , हर एक मनुष्य को वे individual attension और प्रेरणा दे सकते हैं | उन्हें ऐसी general instructions की आवश्यकता नहीं है | :) वैसे आपका शुक्रिया - आपने विरोधात्मक रूप ही से सही - पुनर्जन्म और कर्म फल को स्वीकार तो kiya | :)
- ११ नवम्बर २०११ १०:२५ पूर्वाह्न
- Rakesh Kumar ने कहा…
- शिल्पा बहिन, गुणीजनों की टिप्पणियों से आपकी पोस्ट पर बार बार आना बहुत सार्थक हो गया है.आदरणीय अनवर जमाल जी का यह तर्क विचारणीय है कि शुभ अशुभ कर्मों का फल जीव को भोगना ही होगा....ये बकरे अपने प्रारब्ध को भोग रहे है..... मुझे इस बात पर एक महात्मा की बात याद आती है.उनका कहना था कि जब बकरे का प्राण हरण किया जाता है तो वह अंत;करण में विचारता है और अल्लाह से प्रार्थना करता है कि मुझ निरीह का जो व्यक्ति प्राण हरण कर रहा है,काश! मुझे भी उसके प्राण हरण करने का मौका मिले.अल्लाह उसकी प्रार्थना स्वीकार कर अगले जन्म में उसको यह मौका देते हैं जबकि प्राण हरण करनेवाला व्यक्ति उसके समक्ष बकरा बना खड़ा होता है और वह बकरा प्राण हरण करनेवाला व्यक्ति बना होता है.और यह क्रम व दुष्चक्र इसी प्रकार से चलता है. क्या हम मरनेवाले बकरे की संवेदनाओं को समझ पायेंगें.क्या वह कुर्बानी के वक्त खुशी खुशी कुर्बान होने की मंशा रख सकता है ? यदि नही तो किसी जीव को दुःख पहुँचा कर कुर्बानी कितनी सार्थक है.क्या सच में अल्लाह इसके लिए अंतश्चेतना में इजाजत देता है या केवल प्रथा, और त्यौहार आदि के नाम पर ऐसा किया जाता है. हिन्दू धर्म में भी अनेक कुरीतियाँ हैं.जैसे देवी के नाम पर पशु बलि,सती प्रथा , दीपावली के अवसर पर आतिशबाजी आदि आदि .हजारों लाखों रूपया फूँक कर वातावरण को दूषित कर हम सोचते हैं कि हम राम जी के आने की खुशी में ऐसा कर रहे हैं. या हर वर्ष रावण के पुतले जलाकर सोचते हैं कि रावण मारा गया.क्या वास्तव में राम का आना या रावण के मारे जाने का तात्पर्य हम समझ पाते हैं.समय और सोच के साथ सार्थक बदलाव भी आते ही हैं.जैसे कई स्थानों पर पशु बलि का बंद होना, 'सती प्रथा' का बंद होना.स्त्रियों की पढाई लिखी के बारे में जागरूक होना.मैं तो भगवान से यही प्रार्थना करता हूँ कि हम सब में ऐसे सार्थक बदलाव अवश्य आयें ताकि सन्मार्ग पर हम अग्रसर हो सकें.
- ११ नवम्बर २०११ १०:४३ अपराह्न
- Global Agrawal ने कहा…
- यह पोस्टलेखक के द्वारा निकाल दी गई है.
- १२ नवम्बर २०११ १:५१ पूर्वाह्न
- सुज्ञ ने कहा…
- शिल्पा दीदी, यह आलेख आपका सर्वाधिक सफल आलेख है। और कई सकारात्मक परिणामों को स्पर्श कर गया। 1- पहली बार अनवर जमाल साहब नें यह कहकर कि "हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम के ज़रिये में साफ़ बता दिया गया कि नर बलि ईश्वरीय विधान में वैध नहीं है।" पहली बार जाना कि इस तरह का प्रयोजन करना ईश्वरीय विधान (इस्लाम) में वैध नहीं है। और यह पूछना कि इसे (कुर्बानी न कहकर भी) "यहां कोई यह क्यों नहीं मान लेता कि ये बकरे अपने प्रारब्ध को भोग रहे हैं ?" इंशा अल्लाह!! कर्मसिद्धांत पर आस्था गहरी हो रही है, धीरे धीरे यह भी समझ जाएंगे कि बकरों को प्रारब्ध भुगतवाने का काम मालिक का है जिसने हम सब को पैदा किया। जारी… दूसरे प्रभाव्……
- १२ नवम्बर २०११ ५:३९ पूर्वाह्न
- सुज्ञ ने कहा…
- 2- प्रवीन शाह साहब, जो अब तक ईश्वर को दुष्ट (evil) ताकत, परम्परा विश्वास आदि को ईश्वर की ईगो-मसाज करना मानते थे। सारे धर्म ग्रंथों को उनके ऐसे ही आस्था उपदेशों के कारण कूड़े में फैक देने को कहते थे। आज एक मान्यता के लिए ही सही, आस्था के समर्थक तो बने, उसका बचाव तो कर रहे है। ईंशा अल्लाह संशयवादी से आस्थागामी विकास तो है।
- १२ नवम्बर २०११ ७:४३ पूर्वाह्न
- सुज्ञ ने कहा…
- 3- भोला जी नें सार्थक व्यंग्य किया है। पहले समय मुर्दार पशु के चमडे का व्यवसाय होता था। लेकिन यहां अपने प्राणों की कुर्बानी दिए बकरे का चमड़ा पैरों में डालना? तब मुर्दार के चमडे का भी व्यवसाय भी सम्मानजनक नहीं था,आज बलिदानी के चमडे का? कहने का तात्पर्य यह है कि चमडे की मांग भी हिंसा को प्रोत्साहन देती है। उनका व्यंग्य कि @"मनुष्य जाति के लिए चाहे पशुबध कुर्बानी हो या न हो ,उन निरीह पशुओं का अपना जीवन दान देकर मानवता की सेवा करना ती अवश्य ही महान "कुर्बानी" है ! कदाचित पशुओं की इस 'कुर्बानी' में उनके सहायक बने मानव भी पुन्य के भागी हो जाते होंगे !मैं नहीं कह सकता , प्रबुद्ध ज्ञानी ब्लोगर बन्धु प्रकाश डालें !" उन्होंने ईशारा किया है कि स्वार्थी मानव अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए वचनों का कैसा कैसा माया-जाल रच सकता है। यह सब ऐसा ही माया-जाल है। अन्यथा चिर-शान्ति,स्वर्ग या मोक्ष प्रदान करने के लिए आराधनागृह नहीं कत्लखाने खुलते।
- १२ नवम्बर २०११ ८:०१ पूर्वाह्न
- सुज्ञ ने कहा…
- 4-शाहनवाज़ साहब नें स्वीकार तो किया कि आहार-विवशता के अपवाद स्वरूप ही जायज़ है। फलितार्थ है जहां निर्दोष आहार उपलब्ध हो अवश्य विवेक से काम लेना चाहिए। विद्वानों को कहने की आवश्यकता नहीं कि विवेक क्या कहेगा। क्योंकि "कि इस्लाम में जानवरों और पेड़-पौधों पर खासतौर पर रहम और मुहब्बत का हुक्म है और भोजन जैसी आवश्यकता को छोड़कर उनका वध करना वर्जित है, यहाँ तक कि इसको बहुत बड़ा गुनाह बताया गया है. बल्कि पेड़ों को पानी डालना तथा प्यासे जानवर को पानी पिलाने जैसे कामों के बदले में बड़े-बड़े गुनाहों को माफ़ करने जैसे ईनाम है." (मुझे भी इस्लाम का यह सन्दर्भ या आयत जाननें की तीव्र इच्छा है) लेकिन आपके इस कथन कि-- "इस्लाम के अनुसार मांसाहार और शाकाहार दोनों में ही जीव हिंसा बराबर होती है" से सहमत नहीं। बराबर नहीं मांसाहार में डबल होती है। पहले शाकाहारी पशु शाकाहार करके शाकाहार की हिंसा कर लेता है और फिर उस पशु को मारने से दूसरी भी हिंसा हो जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि मांसाहार के साथ शाकाहार की हिंसा भी सलग्न है। कुर्बानी अगर दूसरों को भोजन मुहेया कराने की दृष्टि से है तो ऐसा होना चाहिए कि उस गरीब, उस जरूरतमंद को सामने खडा किया जाय और पूछा जाय 'बोल तूं मुझसे क्या कुर्बानी चाहता है' उसकी इच्छा की पूर्ती ही श्रेष्ठ कुर्बानी होगी।
- http://ret-ke-mahal-hindi.blogspot.com/2011/11/blog-post_08.html
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आदरणीय डॉ० अनवर जमाल साहब,
बहुत ही बेहतरीन लिखा है... ईश्वर पर आपकी दॄढ़ आस्था को देख कभी-कभी आपसे ईषर्या होती है... मैं तो संशयवादी हूँ फिर भी अपने काम की बात मुझे मिल ही गई है इस आलेख में...
सारी मानव जाति एक राष्ट्र है और भला सबका हो, सबको भोजन, आवास और विकास मिले, मनुष्य की भावना ऐसी हो, मनुष्य का कर्म ऐसा हो, ईश्वर(???)='मनुष्य जाति की सामूहिक चेतना' हमसे यह चाहती है।
...
सटीक व बेस्ट है
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