सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं आचार्य मौलाना शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है, More More More



Tuesday, August 10, 2010

Ramazan जिस्म और रूह की बेहतरी है रोज़े में - Anwer Jamal

सेहत के लिए फायदेमंद है रोजा

अल्लाह तबारक व तआला क़ुरआन शरीफ़ के पारा नम्बर दो सूरह बकर की आयत नम्बर 182-183 में इर्शाद फ़रमाता है कि ” ऐ ईमान वालो! तुम पर रोज़े फ़र्ज़ किए गए जैसे कि अगली उम्मत पर फ़र्ज़ किए गए थे ताकि तुम मुत्तक़ी और परहेज़गार बन सको ।“
आसमानी किताब क़ुरआन पाक की इस आयत के तर्जुमे से अगर सबक़ हासिल करें और देखें तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भी इस बात से क़तई इन्कार नहीं किया कि सेहत और तन्दुरुस्ती के लिए भी तक़वा व परहेज़गारी बहुत ही ज़रुरी है। हमें सेहतमन्द और तन्दुरुस्त रहने के लिए समय पर खाना-पीना, सोना और मेहनत करना ज़रुरी है जिसे एक रोज़ादार बख़ूबी अन्जाम देकर बीमारियों से बचता है। समय पर खाने-पीने से रोज़ादार का हाज़मा दुरुस्त रहता है। इसलिए रोज़ादार को क़ब्ज़, बदहज़मी और गैस जैसी हाजमे संबंधी बीमारियां नहीं होती हैं। आधुनिक रोज़ा चिकित्सा विज्ञान के जन्मदाता अमेरिकन विद्वान ड़ाक्टर ड़यूई ने टाइफा़इड़ के एक रोगी को ज़बरदस्ती दूध पिलाना शुरु किया लेकिन मरीज़ दूध पीते ही उल्टी कर देता था। तरह-तरह की दवाओं से रोगी का हाजमे का निजाम ठीक करने की कोशिश की गई लेकिन सारी कोशिशें नाकाम रहीं। थक-हार कर ड़ाक्टर ने मरीज़ को खिलाना-पिलाना बन्द करवा दिया जैसा कि रोज़ा के दौरान होता है। इस तरीक़े को अपनाने से मरीज़ धीरे-धीरे सेहतमन्द और तन्दुरुस्त हो गया। ‘‘फिजिकल कल्चर’’ में ड़ाक्टर एनीरिले हैल ने लिखा है कि फ़ेफ़ड़ों की टीबी के लिए मरीज़ को बीस-पच्चीस दीन रोज़े रखवाकर जांच की जाए तो टीबी के बैक्टीरिया ( जीवाणु ) पूरी तरह खत्म हो जाते हैं। रोज़ाना ज़्यादा खाने से पाचन क्रिया के अंगों को अधिक मेहनत करनी पड़ती है, जबकि रोज़े के दौरान इन्हें आराम मिलता है जिससे पेप्टिक अल्सर जैसे रोग ठीक हो जाते हैं।
रोज़े की हालत में नज़ला, ज़ुकाम, टांन्सिलाइटीज़, दमा, बवासीर, एग्ज़ीमा और ड़ाइबीटीज़ जैसे ख़तरनाक रोगों में करिश्माई फ़ायदा पहुंचता है। तम्बाकू युक्त पान, बीड़ी, सिगरेट वग़ैरह सेहत के लिए नुक़सान देह है क्योंकि तम्बाकू में निकोटिन नामक नशीला पदार्थ होता है जो दिमाग और शरीर पर बुरा असर ड़ालता है जिससे दिल की बीमारियां, अल्सर और कैंसर जैसे खतरनाक रोग पैदा होने की आशंका बनी रहती है। रोजा रखकर इन्हें आसानी से छोड़ा जा सकता है ।इन बातों से ज़ाहिर होता है कि रोज़े ना सिर्फ़ आखि़रत की कमाई है बल्कि मौजूदा ज़िन्दगी में भी ये बेशुमार मर्ज़ों का इलाज है।रमज़ान के रोज़े के बेशुमार फ़ायदों में से एक बहुत बड़ा फ़ायदा यह भी है कि इससे दिल साफ़ होता है और अल्लाह से करीबी हासिल होती है। ग़रीबों पर रहम आता है। भूखे को देखकर दिल में हमदर्दी पैदा होती है। भूख में उनकी हिमायत नसीब होती है । दुनिया में कई लोग हैं जिन्हें खाना मयस्सर नहीं होता। वे भूखे रहते हैं। रोज़ेदार भी रमज़ान में भ्ूखा रह कर उनका साथ देता है। वर्षों पुरानी बात है। उस ज़माने के एक बहुत बड़े बुजु़र्ग, महान सूफ़ी सन्त हज़रत बशर हाफ़ी रहमतुल्लाह अ़लैह को एक आदमी ने देखा कि सर्दी से हज़रत कंपकपा रहें हैं जबकि उनके गर्म कपड़े सामने ही रखे हुए थे। उस आदमी ने पूछा क्यों ऐ बशर! यह क्या बात है कि गर्म कपड़े होते हुए भी आप सर्दी की तकलीफ़ उठा रहें हैं। इस पर हज़रत बशर हाफ़ी ने फ़रमाया कि फ़क़ीर बहुत हैं और मेरे लिए सबकी देख-भाल नामुम्किन है इसलिए मैं भी सर्दी की तकलीफ़ उठाने में उनका साथ दे रहा हूं ।रोज़ा में आदमी भूखा रहता है।
हज़रत इमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अ़लैह ने भूख के दस फ़ायदे बताए हैं।
पहला फ़ायदाः दिल की सफ़ाई होती है। पेट भर कर खाने से तबियत में सुस्ती आती है और दिल का नूर जाता रहता है। ज़्यादा खाने से बुख़ारात यानी गैस दिमाग़ को घेरते हैं। जिसका असर दिल पर भी पड़ता है। वली-ए-कामिल हज़रत शिबली रहमतुल्लाह अ़लैह फ़रमाते हैं कि मैं अल्लाह के लिए जिस दिन भूखा रहा मैंने अपने अन्दर इबरत व नसीहत का एक दरवाज़ा खुला पाया।
 दूसरा फ़ायदाः दिल का नरम होना है जिससे ज़िक्र वग़ैरह का असर दिल पर होता है। कई बार बहुत मेहनत व तवज्जोह से ज़िक्र करने पर भी दिल उससे लज़्ज़त हासिल नहीं करता है और ना ही उससे प्रभावित होता है मगर जिस समय दिल नरम होता है तो ज़िक्र में भी लज़्ज़त आती है । हज़रत अबू सुलेमान दारानी रहमतुल्लाह अ़लैह कहते हैं कि मुझे इबादत में तब मज़ा आता है जब मेरा पेट भूख की वजह से कमर को लग जाए।
तीसरा फ़यदाः यह है कि इससे आजिज़ी व इन्केसारी पैदा होती है और अकड और घमण्ड जाता रहता है ।
चोथा फ़ायदाः यह है कि मुसिबतज़दों व फ़ाक़ाज़दों से इबादत में ग़फ़लत पैदा नहीं होती है। पेट भरे आदमी को बिल्कुल अन्दाज़ा नहीं होता है कि भूखों और मोहताजों पर क्या गुज़र रही हैं। पांचवा फा़यदाः जो असल व अहम है गुनाहों से बचना । पेट भरना कई बुराइयों की जड़ है और भूखा रहना हर क़िस्म की बुराइयों से बचाव है जैसा कि सरकश घोड़े को भूखा रखकर का़बू में रखा जा सकता है और जब वह खूब खाता-पीता रहता है तो सरकश हो जाता है। इन्द्रीय वासनाओं का भी यही हाल है।
छठा फ़ायदाः यह है कि कम खाने से नींद कम आती है। ज़्यादा जागने की दौलत नसीब होती है। सातवां फ़ायदाः इबादत पर सहूलत पैदा होती है कि पेट भर खाने से अक्सर काहिली व सुस्ती पैदा होती है जो इबादत को रोकने वाली होती है और ख़ुद खाने ही में बहुत सा समय बर्बाद हो जाता है।
आठवां फ़ायदाः कम खाने से सेहत बनी रहती है क्योंकि बहुत से रोग ज़्यादा खाने से ही पैदा होते हैं। इसकी वजह से रगों में अनावश्यक चर्बी पैदा हो जाती है जिससे कई तरह की बीमारियां पैदा हो जाती हैं।
नवां फ़ायदाः खर्चों की कमी है जो आदमी कम खाने का अ़ादी होगा उसका ख़र्च भी कम होगा और ज़्यादा खाने में ख़र्च भी बढ़ेंगे।
 दसवां फ़ायदाः क़ुर्बानी, हमदर्दी और सदक़ात की ज़्यादती का सबब है। कम खाने से जितना खाना बचेगा वह यतीम, मिस्कीन, ग़रीब व फ़क़ीर वग़ैरह पर सदक़ा होकर क़यामत में उसके लिए साया करेगा।
मौलाना सैफुल्लाह खां अस्दकी
http://www.islamicwebduniaa.blogspot.com/
से शुक्रिया के साथ पेश है।

42 comments:

DR. ANWER JAMAL said...

*अल्लाह से बहुत ज्यादा दूर वे लोग हैं जो सख्त दिल वाले हैं। हदीस-तिर्मिजी
**यतीम के सिर पर हाथ फेरा करो और दरिद्र को खाना खिलाया करो इससे तुम्हारा दिल नरम होगा।
हदीस अहमद

***जिस आदमी के दिल में जर्रा बराबर भी गुरूर और घमण्ड होगा,जन्नत में नहीं जाएगा। हदीस बुखारी

Anonymous said...

aap sahi keh rehe ho ..subah udte hi 1kg. meet khao bas sab fayde hi fayde

Mahak said...

Nice Post

Anonymous said...

आलोक मोहन जी,यहाँ रोज़े की ज़िक्र हो रहा है, व्रत का नहीं. पूरा दिन खाया पिया फिर भी व्रत,

Anwar Ahmad said...

जमाल साहब इस पोस्ट के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया,
आसमानी किताब क़ुरआन पाक की इस आयत के तर्जुमे से अगर सबक़ हासिल करें और देखें तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भी इस बात से क़तई इन्कार नहीं किया कि सेहत और तन्दुरुस्ती के लिए भी तक़वा व परहेज़गारी बहुत ही ज़रुरी है।

Anonymous said...

nice post

सुज्ञ said...

सुंदर लेख,
रोज़ा परहेज़गारी के लिये फ़र्ज़ है।
त्याग और समता भाव के लिये है।
रोज़ा हो, व्रत हो या उपवास,
रसना पर विजय पाना,
त्याग रखना,
और समता भाव में आना
ही मक़्सद है।

Ayaz ahmad said...

अच्छी पोस्ट

सहसपुरिया said...

क़ुर्बानी, हमदर्दी और सदक़ात की ज़्यादती का सबब है। कम खाने से जितना खाना बचेगा वह यतीम, मिस्कीन, ग़रीब व फ़क़ीर वग़ैरह पर सदक़ा होकर क़यामत में उसके लिए साया करेगा।

सहसपुरिया said...

अच्छी पोस्ट.

Ayaz ahmad said...

@आलोक मोहन साहब आपने मांसाहार पर एतराज करके अपनी नासमझी का परिचय दिया है। जो कुछ आप खाते है क्या वह जीव नही होते । नई खोज से पता चला है कि सब्जियों मे भी तंत्रिका तंत्र होता है । किसी ऐसी निर्जीव वस्तु का नाम बताओ जो खाकर पूरी मानव जाति जीवित रह सके।

The Straight path said...

सही वक़्त पर सही बात...
फरमाई आप ने...
शुक्रिया...

सुज्ञ said...

अयाज़ साहब,
एक अच्छी पोस्ट पर अनाव्श्यक बहस न बनाएं।
आलोक मोहन जी की टिप्पणी तो एक व्यंग्य के रूप में ले कि परहेजगारी सम्पूर्णता में पालित हो।
और शाकाहार-मांसाहार पर आपना तर्क कुछ ऐसा है कि 'वो कौनसा देश है जहां हत्याएं नहिं होती अतः हत्याओं को जायज मान लिया जाय।'
हम बस सही बात का स्वागत करें।

जीव साहब said...

सुज्ञ बिरादर ! समान धार्मिक परंपरा है मांसाहार, इस पर व्यंग्य क्यों किया जा रहा है ?

सुज्ञ said...

हे जीव,
बडी दुखद स्थिति है, वयंग्य त्याग व परहेज़गारी पर है। और यह लेख हमें परहेज़गारी की प्रेरणा देता है।
और जब हम परहेज़गारी से बचने के लिये शास्त्रों से ढूंढ ढूंढ कर बहाने निकालते है।
व्रत हो रोज़ा हो या उपवास, उससे पहले या बाद ठूंस कर खा लेना कहां का परहेज है।

Saleem Khan said...

durust

impact said...

medicaly रोज़ा उपवास का सबसे अच्छा तरीका है. और मोटे लोगों के पतले होने का.

Taarkeshwar Giri said...

एक अच्छी पोस्ट के लिए बधाई.

अलोक जी आपकी हिम्मत कि दाद देनी पड़ेगी, कि आप ने इधर टिप्पड़ी कि, मगर एक बात ये भी जान लीजिये कि अगर जानवर खाए नहीं जायेंगे तो वो इंसानों को खा जायेंगे.रही बात रोजे कि तो सचमुच रोजा एक अच्छी सेहत प्रदान करता हैं . और जंहा तक में जनता हूँ कि मुस्लमान लोग रोजे में मांस का प्रयोग काम करते हैं.

सब कुछ मौसम के ऊपर निर्भर हैं. अरबियन देश का मौसम और हिंदुस्तान के मौसम में बहुत फर्क हैं. अरबियन देश में हरियाली काम और रेगिस्तान ज्यादा हैं इस वजह से वंहा के लोग शुरुवाती दौर से ही रोजा रखते हैं और मांस का प्रयोग करते हैं. दिन भर कि चिल-चिलाती गर्मी से नमाज उनको नई उर्जा देती हैं. ठीक उसी तरह से रोजा पुरे शारीर को तारो ताजा और कई बिमारियों से दूर रखता हैं.

ठीक उसी तरह से हिन्दू लोग नवरात्रों का वर्त रखते हैं और फलाहार ही ग्रहण करते हैं क्योंकि हिंदुस्तान में फलो का भंडार हैं.

Taarkeshwar Giri said...

ROJA MUBARAK HO

zeashan haider zaidi said...

तारकेश्वर जी ने बहुत अच्छी बात कही!

इस्लामिक वेबदुनिया said...

तारकेश्वर जी ने बहुत अच्छी बात कही!

राष्ट्र धर्म सेवा संघ said...

@ Dr. Anwar Jamal- कम खाने से जितना खाना बचेगा वह यतीम, मिस्कीन, ग़रीब व फ़क़ीर वग़ैरह पर सदक़ा होकर क़यामत में उसके लिए साया करेगा।

Please see below :-

आज के समय में तो हर समझदार यह मानता है कि "Non voilence is the need of peaceful world" (अहिंसा विश्व शांति के लिए आवश्यक है), लेकिन यदि हम किसी जीव को क्रूरता से मार सकते हैं, तो संभव है की उससे अधिक क्रूर होने पर हम किसी मनुष्य को ही मार दें, शायद यहीं आज हो रहा है| इसलिए पूर्ण अहिंसा आवश्यक है|

अहिंसा का अर्थ कायरता नहीं है क्योंकि अपने से कमजोर कि रक्षा करना बहादुरी है न कि कायरता| कायर तो वे हैं जो अपने से कमजोर, शस्त्रहीन, प्राकृतिक रूप से असहायों पर अत्याचार करते हैं| वीर तो सदैव कमजोर जीवों की रक्षा ही करते है और अत्यचार वालों को दंड देते हैं|

राष्ट्र धर्म सेवा संघ said...

विश्व में यदि सभी माँसाहारी हो जाएँ तो विश्व के पेट्रोलियम भंडार केवल 13 वर्षों में समाप्त हो जायेंगे, लेकिन सभी शाकाहारी हो जाएँ तो यह 260 वर्षों के लिए पर्याप्त है (ख) एक किलो गेहूं के उत्पादन में 24 लीटर पानी, जबकि 1 किलो मांस के उत्पादन में 2,400-10,000 लीटर पानी लगता है (ग) गेहूं से एक किलो प्रोटीन के लिए 115 रुपये जबकि मांस से 1 किलो प्रोटीन के लिए 1159 रुपये खर्च करने पड़ते हैं|

राष्ट्र धर्म सेवा संघ said...

हमारे देश में आज भी 84 करोड़ लोग 20-30 रुपये प्रतिदिन पर निर्वाह करते हैं ऐसे में मांस की कीमत है 200 रुपये प्रति किलो जिससे केवल दो लोगों का ही पेट भर सकता है जबकि 10 रुपये किलो गेहूं से लगभग 20 लोगों का 200 रुपये में पेट भर सकता है| आप ही सोचिये क्योंकि किलो मांस = 20 किलो गेहूं अथवा 15 किलो चावल ||

क्या उचित है?


हमारे बहुत से भाई-बहन केवल अपनी आत्मा को धोखा देते हुए मांसाहार को भगवान से जोड़ देते हैं कहतें हैं - "जीवो जीवस्य भोजनं" (अर्थात जीव ही जीव का भोजन है) यह भगवान द्वारा बनाया नियम है, जबकि वे एक बार भी नहीं सोचते की यदि ऐसा हो तो भी हम मनुष्य इस नियम के अंतर्गत नहीं आते क्योंकि हमारा कोई भी प्रकृति भक्षक नहीं है| कोई हमारे बच्चों को पैदा होते ही नहीं खा जाता है| कुछ भगवान राम के मृग शिकार तथा दशरथ के शिकार का अपवाद देते हैं तो याद रखिये की जिस सीता के कहने पर राम ने हिरण का शिकार किया वह उनसे जीवन दूर हो गयी, दशरथ के बारे में सब जानते हैं, यहाँ पर भगवान ने जीव हिंसा करने वालों के लिए प्रत्यक्ष परिणाम उदाहरण स्वरुप दिखाया है|

राष्ट्र धर्म सेवा संघ said...

दया धर्म का आधार है, जिस धर्म में दया का नियम नहीं है, वह धर्म व्यर्थ है, दया के विषय में कबीरदासजी कहते हैं -

जहाँ दया वहाँ धर्म है, जहाँ लोभ वहाँ पाप।
जहाँ क्रोध वहाँ काल है,जहाँ क्षमा वहाँ आप।।

दया किस पर करें इस पर कहते हैं -

दया कौन पर किजिए का पर निर्दय होए।
सांई के सब जीव हैं, किरि कुन्जर दोए॥

सभी उसी परमात्मा के जीव हैं, चाहे वह कीडा हो या हाथी, परमात्मा के लिए इनमें कोई अन्तर नहीं है, इसलिए सभी जीवों पर दया किजिए।

राष्ट्र धर्म सेवा संघ said...

@@@ Anwar Jamal -

I hope u can understand it better than me - सभी उसी परमात्मा के जीव हैं, चाहे वह कीडा हो या हाथी, परमात्मा के लिए इनमें कोई अन्तर नहीं है, इसलिए सभी जीवों पर दया किजिए।

Waise aapakaa hamaare Leh waalon ke liye kya program hai, agar koi charity aarambh ki ho to bataiye, ham aapake saath hain, kyonki chahe koi Hindu ho Ya Musalmaan ho hain to sab us allaah ke hee bande,

matbhed to bas maanytaon kaa hee hai .

Om Shanti

HAKEEM YUNUS KHAN said...

@ राष्ट्रधर्म सेवा संघ ! क्या यह सही है कि पेड़-पौधे जीवित चीज़ माने जाते हैं ?
# क्या यह सही है कि पेड़-पौधों में तंत्रिका तंत्र भी पाया जाता है ?
# क्या यह सही है कि पेड़-पौधों में नर और मादा भी होते हैं ? और उनमें अनुभूतियां भी होती हैं ? # क्या पेड़-पौधों पर अन्य करोड़ों जीव भी होते हैं ?
# अगर यह सब सही है तो फिर मनुष्य को क्या अधिकार है कि वह हरे पेड़ काटकर अपने लिये फ़र्नीचर बनाये ?
# साग-सब्ज़ी काटकर जीवों की हत्या करे और उन्हें खाये ?
आप कहते हैं -
सभी उसी परमात्मा के जीव हैं, चाहे वह कीडा हो या हाथी, परमात्मा के लिए इनमें कोई अन्तर नहीं है, इसलिए सभी जीवों पर दया किजिए।

आपकी दया से ये सब जीव क्यों महरूम रह जाते हैं ?

Anonymous said...

meat khana ya jaanavaro ko maarna to musalmaano kaa param dharm hain, ye to aadmi ko bhii jaanvaron kii tarah maarte hain. jo dharm maar - kaat kii sikhaata detaho vo dharm nahii adharm. musalmaan ek alok-tamtrik yaa nastik dharm hain

Anonymous said...

@ ayaj ahmad ji mai to nasmajh hu
per aap adhpad(kam pada lika) ho....vanspati me tantira tantra hota hai ye sahi hai per wo fal ya sabhi ke pakne per khatam ho jata hai ...fal ped ki taygne ki cheej hoti hai.jaise ager ghas ko na kata jaye to wah mar jaati hai

@anwar jamal aap ko anonymous banker tippdi dene ki kya jaroorat hai
@ tarkeshwar ji such keh ke liye koi himmat ki jaroorat nhi ho ti

DR. ANWER JAMAL said...

भाई आलोक ! अपने भी आधा ही पढ़ा है . जनाब यूनुस पूछ रहे हैं कि आप हरे पेड़ काटकर फर्नीचर क्यों बनाते हो ?

सुज्ञ said...

जनाब यूनुस एवं जमाल साहब,
वनस्पति में जीवन है यह बात आज के विज्ञान की नहीं करोडों वर्ष प्राचीन है।
लेकिन अकसर आप लोगों का तर्क बेमतलब होता है।

आपका तर्क होता है कि जब सब में जीवन हैं तो क्यों न उच्च्तम क्रुर, और सबसे उपर का हिंसाजनक तरीका अपनाया जाय?

बस यही समज़ने का फ़ेर है।

सुज्ञ said...

मांस न केवल क्रूरता की उपज है, बल्कि मांस में सडन गलन की प्रक्रिया तेज गति से होती है। परिणाम स्वरूप जीवोत्पत्ति तीव्र व अधिक होती है। इतना ही नहिं, पकने के बाद भी उसमे जीवों की उत्पत्ति की प्रक्रिया निरन्तर जारी रह्ती है। और भी कई कारण है,

DR. ANWER JAMAL said...

जो लोग मानते हैं कि आवागमन होता है उनके अनुसार एक ही आत्मा अपने कर्मों के फल भोगने के लिये जन्तु और वनस्पति योनि में चली जाती है । आप जो मूली या टमाटर खा रहे हैं , हो सकता है कि वह आपका ही रिश्तेदार हो ?
गाजर का जूस तो बिल्कुल खून जैसा ही होता है जिसे शाकाहारी बड़े शौक़ से पीते हैं ?

सुज्ञ said...

रिश्ते तो एक जीवन तक के ही होते है, इसी लिये तो सभी जीवों को अपने जैसा ही मानने का विधान है, मेरी सभी जीवों से मैत्री है, मेरा किसी से बैर नहिं।
पदार्थों के अपने गुण दोष होते है, जीवंतता और निर्जिवपना भी होता है, मात्र रंग से खून जैसा होनें से क्रूरता नहीं झलकती।

Ayaz ahmad said...
This comment has been removed by the author.
Ayaz ahmad said...

@SUGH जी ऐसा सुना है कि रिश्ते तो सात जन्मों के या उससे भी ज्यादा के लिए होते है! गाजर का जूस का रंग लाल उसके शरीर के कारण ही होता है जीव जंतु तो फिर भी अपनी जान बचाने के लिए कुछ संघर्ष कर ही लेते है मगर निरीह पौधों को काट कर खाना निर्दयता की पराकाष्ठा नही है

सुज्ञ said...

अयाज़ साहब,
वस्तुतःआपका सारा ध्यान विषय पर विश्लेषण करने की जगह अपनी बात सही साबित करने में ही लगा रहता है।
इस तरह के पूर्वाग्रह से ही हम सत्य-तथ्य पर पहूंचने से वंचित रह जाते है।
क्या आप स्वीकार करेंगे कि आप लोग मुर्दाखोर हैं?
तर्क से तो बिना जान निकले शरीर मांस में परिणित हो ही नहिं सकता। लाजिक से तो कोई भी मांस मुर्दे का ही होगा। और वह तुक्का ही है कि काटो तो वह मुर्दा नहिं। खेर यह हमारी चर्चा का विषय नहिं।
मेरी पूर्व टिप्पणी में सजीव और निर्जीव का उल्लेख किया था। यहां एक बात जान लो कि हम वनस्पति जीवों के मुर्दाखोर है। यह बहुत ही गम्भीर विषय है,और पुरे पश्च्याताप से यह मानते भी है कि निरीह वनस्पति को जीव रहित कर खाना निर्दयता है। पर "अपनी जान बचाने के लिए कुछ संघर्ष कर ही लेते है" उन संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद के लिये मार खाना कैसी पराकाष्ठा है,जिन गंदी चीज़ों को दूर करने के लिये आप वज़ू करते हो,और यह मांस उन्ही गंदे पदार्थों से निर्मित होता है।
और आप लोग कहते भी हो कि "शाकाहारी होकर भी एक अच्छा मुसलमान हो सकता है" फ़िर इतनी ज़िद्द क्यों?,जिन देशों में शाकाहार उपलब्ध न था कारण हो सकता है। पर यहां जब सात्विक आहार की प्रचूरता है तो क्यों नहिं दे देते जीवों को करूणा दान। पैगम्बर मोहम्म्द साहब के जीवनवृत में कई किस्से आते है जब उन्होने जीवों पर दया दिखाई। उनका मक़सद साफ़ था गैरजरूरी हिंसा न करो। अच्छा भोजन मिलते हुए भी जीभ के स्वाद (वासनाओं इच्छाओं)की पूर्ती के लिये अलग से हिंसा करना कहां तक जायज़ है?
चलो जीव जंतु और पोधों दोनों में निर्दयता की पराकाष्ठा है, पर आप तो अनावश्यक दोनो उपयोग करते हो, शाकाहारीओं ने एक निर्दयता तो छोड रखी है। शाकाहारी होनें में मज़हब भी आडे नहीं आता। न शिर्क होगा न कुफ़्र,और न शाकाहारी बनने से हिंदु बन जाओगे। फ़िर क्यों न स्वाद की कुर्बानी देकर परहेज़गार बनो।

DR. ANWER JAMAL said...

आज विज्ञानं के युग में जबकि हमें प्रत्येक जीव और वनस्पति की हिस्ट्री और कैमिस्ट्री मालूम है फिर भी आज हमारे तथाकथित गुरु अपने अपने धर्मशास्त्रों, वैज्ञानिक सत्यों और प्राकृतिक व्यवस्था का विरोध न जाने क्यों कर रहे हैं? आज हम सम्पूर्ण वनस्पति जगत, प्राणी जगत, और विशाल समुंदरी जगत की वास्तविकता घर बैठे देख रहे हैं इसलिए यह बात आसानी से समझ सकते हैं कि अगर विश्व में मांसाहार पर 100 प्रतिशत प्रतिबन्ध लगा दिया जाए तो क्या हम 700 करोड़ लोगों कि आहार पूर्ती केवल अनाज से कर पाएंगे? हमारी सम्पूर्ण पृथ्वी का 30 प्रतिशत थल और लगभग 70 प्रतिशत समुन्द्र है । 30 प्रतिशत थल में भी पहाड़ हैं , रेगिस्तान है, वन खंड है, बंजर है, नदी-नाले है आवास है , जो कृषि योग्य भूमि है वह अत्यंत कम है । इस कृषि योग्य भूमि से मानव जाती कि आहार पूर्ति संभव नहीं है।फिर आखिर यह बात हमारी समझ में क्यों नही आती कि मांस भक्षण मानव जाति कि आहार पूर्ति कि लिए अपरिहार्य है । इसका हमारे पास अन्य कोई विकल्प नहीं । अगर मांस भक्षण पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाए तो अंदाज़ा लगाइए कि एक रोटी कि कीमत क्या होगी? मांस एक प्राकृतिक आहार है । मांस भक्षण का विरोध करना प्राकृतिक व्यवस्था के खिलाफ है । शाकाहारवाद एक अप्राकृतिक धारणा है, इसे कभी पूर्णतया लागू ही नहीं किया जा सकता । आने वाले समय में तो कुछ ऐसे लगता है कि मनुष्य कि आहार पूर्ति केवल समुन्द्र ( Sea Food ) से होगी और सच भी यही है कि अति विशाल समुन्द्र ही हमारी आहार पूर्ति का मूल स्रोत है । जो शाकाहारवादी ( Extremist Vegetarianism ) मंशार का पुरजोर विरोध कर रही हैं, उन्हें अपनी रूढ़वादी और मिथ्या धारणा पर पुनर्विचार करना चाहिए । प्राकृतिक सत्यों को झुठलाना स्वयं को अज्ञानी और अन्धविश्वासी साबित करना है ।
यहाँ मेरा उद्देश्य मांसाहार को प्रोत्साहित करना हरगिज़ नहीं है , जो खाना है खाये । यह समाज , राष्ट्र और विश्व कि कोई ज्वलंत समस्या नहीं है । यहाँ मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि हम सब कोई ऐसे भ्रामक प्रचार न करें जिसका हमारे समाज पर निकट भविष्य में बुरा और प्रतिकूल प्रभाव पड़े ।

Anonymous said...

shayad isliye allah aap ke baccho ko mar ker kha gaye
aap unke bacho ko maar ker khayo.wo aap ke

maine jitna pada hai duniya ke liye bahut jayda hai

zeashan haider zaidi said...

कोढ़ मगजों को कोई नहीं समझा सकता. वो अपनी ही बके जायेंगे.

सुज्ञ said...

डाक्टर साहब,
आपकी टिप्पणी के पहले पेरे को भ्रांत प्रचार न मानकर, मंतव्य तो मेरा भी यही आपका अंतिम वाक्य है,
"यहाँ मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि हम सब कोई ऐसे भ्रामक प्रचार न करें जिसका हमारे समाज पर निकट भविष्य में बुरा और प्रतिकूल प्रभाव पड़े ।"
दूरगामी भी…॥
ज़ीशान ज़ैदी से सहमत होते हुए कि"कोढ़ मगजों को कोई नहीं समझा सकता. वो अपनी ही बके जायेंगे."
इस दुष्कर कार्य वाली चर्चा को यहीं समाप्त समझता हूं।

Unknown said...

वाह रे मुसलमान लोगों.... क्या बढ़िया सम्बन्ध बिठाया है बकरे के मांस और पेड़-पौधों में... वैसे सही है इंसान कि ये स्वाभाविक प्रक्रिया होती है कि वो अपने पक्ष में ही बोलता है, उसे लगता है के जो उसे लग रहा है वही सही है... आपका कोई दोष नहीं है ये तो स्वाभाविक प्रक्रिया है... मुसलमानों में मांसाहार कि शुरुआत कुर्बानी से हुई है.... वैसे मैं इस्लाम के बारे में ज्यादा नहीं जानता हूँ (जितना के आप सनातन संस्कृति के बारे में जानते हैं) और ना ही जानना चाहता हूँ परन्तु मैंने कहीं पढ़ा था के मुहम्मद साहब ने कुर्बानी में अपने बेटे कि कुर्बानी दी थी पर बाद में उनके अनुयायियों ने बेटों कि जगह बकरे को हलाल करना शुरू कर दिया... ये सही भी है कौन गैरतमंद माँ-बाप अपने बेटे को हलाल करेंगे.... हाँ तो मैं कह रहा था के कुर्बानी के बाद जो बकरा बचता था उसे लोग खाने लग गए और इन लोगों में मांसाहार कि प्रथा चल पड़ी और आज जब ये इस धर्म का अभिन्न हिस्सा बन गया है तो जाहिर सी बात है इनका धर्म होने के नाते इनका भी धर्म बनता है के इसका पुरजोर समर्थन करें इसके लिए चाहे कुछ भी, किसी भी तरह के तर्क देने पड़ें.... तो बकरे के मांस और पेड़-पौधों के बीच जो तंत्रिका-तंत्र का वैज्ञानिक तर्क दिया गया है उसे अन्यथा ना लेवें.... और इनकी भावनाओं का समर्थन करें....