सनातन धर्म के अध्ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to
जिस पुस्तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसका यह हिन्दी रूपान्तर है, महान सन्त एवं आचार्य मौलाना शम्स नवेद उस्मानी के धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन पर आधारति पुस्तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्मक अध्ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्त के प्रिय शिष्य एस. अब्दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक शिष्य जावेद अन्जुम (प्रवक्ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्तक के असल भाव का प्रतिबिम्ब उतर आए इस्लाम की ज्योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकने का सार्थक प्रयास हिन्दी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है, More More More
Friday, October 29, 2010
A reply to sister Divya मूर्तियों को बनाने,बहाने और जलाने में हर साल लगने वाला अरबों रूपया इनसानों की भलाई में, ग़रीबों की बेहतरी में लगे तो समाज का उत्थान भी होगा और ईश्वर भी प्रसन्न होगा - Anwer Jamal
बहन दिव्या, आपका स्वागत है। आप एक विचारशील और विदुषी लेडी हैं। आप शिक्षित हैं। आज हरेक शिक्षित व्यक्ति यह जानता है कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री साहिबा ने करोड़ों रूपया पार्क और सड़कों पर उन लोगों की मूर्तियां लगाने में ख़र्च कर दिए, जो दलितों की मुक्ति के लिए अपने समय के रावण से लड़े। राष्ट्रवादी विचारकों ने इसे जन-धन की बर्बादी बताया। इसी बात को वे उन लोगों की मूर्ति स्थापन के बारे में नहीं कहते, जो पुराने समय में सवर्णों लाभ पहुंचाने के लिए लड़े। यहां आकर उनकी ज़ुबान ख़ामोश हो जाती है। वे खुद बड़े-बड़े पुतले हर साल बनाते हैं और उनमें आग लगा देते हैं। अरबों रूपये पहले इन पुतलों को तैयार करने में लगाते हैं और फिर इन्हें जलाने में। अरबों रूपये आतिशबाज़ी में खर्च कर दिए जाते हैं। बहुत सारी मूर्तियां नदियों में बहा दी जाती हैं जो जल प्रवाह को भी अवरूद्ध करती हैं और पानी को प्रदूषित भी करती हैं। मूर्तियों को बनाने,बहाने और जलाने में हर साल लगने वाला अरबों रूपया इनसानों की भलाई में, ग़रीबों की बेहतरी में लगे तो समाज का उत्थान भी होगा और ईश्वर भी प्रसन्न होगा। तब नक्सलवाद जैसी समस्याएं भी पैदा नहीं होंगी जो देश की अखण्डता के लिए एक भारी ख़तरा बनी हुई है।
मूर्तियां व्यर्थ हैं। यह इतनी आसान बात है कि इसे एक अनपढ़ व्यक्ति भी समझ सकता है। कबीर साहिब अनपढ़ थे लेकिन उन्होंने भी ‘पाहन पूजा से हरि न मिलने‘ की बात कही। दयानन्द जी तो अपने बचपन में ही समझ गए थे कि ‘शिवलिंग‘ कुछ भी नहीं है। इसी लिए उन्होंने घर छोड़ दिया लेकिन मूर्तिपूजा न की। निरंकारी और राधास्वामी जैसे बहुत हिंदू मत मूर्तिपूजा को व्यर्थ बताते हैं। इनकी बात बड़े पते की बात मानी जाती है, इन्हें संत-महंत बल्कि ईश्वर से भी बड़ा माना जाता है और मुझे कुछ भी नहीं। मेरी बात को ‘मज़ाक़ करना‘ माना जाता है, आखि़र क्यों ?
मैंने कोई नई बात तो कही नहीं, फिर मेरी बात बेवज़्न क्यों और उनकी बात जानदार क्यों ?
चलिए, मेरी बात नहीं मानते, मत मानिए, उनकी बात तो मान लीजिए, जिनके बारे में आप कहते हैं कि ये भारतीय जाति के लिए पुनरोद्धार के लिए ही खड़े हुए थे।
मूर्ति की मज़ाक़ मैं नहीं बनाता बल्कि मूर्तिपूजक खुद अपनी मूर्तियों की मज़ाक़ बनाते हैं, जब वे नई मर्तियां घर में ले आते हैं और पुरानी बाहर कूड़े पर फेंक देते हैं या फिर पानी डुबा देते हैं और कहीं-कहीं मूर्तियां इतनी विशाल बना लेते हैं कि वे डूबने में ही नहीं आतीं। फिर इस पर वे खुद ही लेख लिखते हैं, उनके फ़ोटो खींचते हैं और दुनिया को दिखाकर उनकी मज़ाक़ उड़ाते हैं लेकिन जो लोग यहां ऐतराज़ करते हैं वे उनकी बात को मज़ाक़ नहीं बताते। इस लिंक
यह केसी आस्था कि हम अपने इष्ट को, अपने ईश्बर को पेरो मै रोंदे?
पर आप खुद देख सकते हैं कि मूर्तिपूजक अपनी मूर्ति को साष्टांग दण्डवत की हालत में छोड़कर चले गए। मूर्ति यहां पड़ी है और मूर्तिपूजक अपने घर पड़ा है। जब इसे फेंकना ही था तो इसे बनाया ही क्यों ?
क्या यह खुद एक मज़ाक़ नहीं है ?
@ भाई गिरी जी ! हरेक सवाल का जवाब दिया जाता है लेकिन आप उन पर विचार नहीं करते। अब आपको यह जवाब दिया गया है। आप विचार करके अपनी राय से ज़रूर आगाह करें, आपका अहसान होगा। धन्यवाद .
मूर्तियां व्यर्थ हैं। यह इतनी आसान बात है कि इसे एक अनपढ़ व्यक्ति भी समझ सकता है। कबीर साहिब अनपढ़ थे लेकिन उन्होंने भी ‘पाहन पूजा से हरि न मिलने‘ की बात कही। दयानन्द जी तो अपने बचपन में ही समझ गए थे कि ‘शिवलिंग‘ कुछ भी नहीं है। इसी लिए उन्होंने घर छोड़ दिया लेकिन मूर्तिपूजा न की। निरंकारी और राधास्वामी जैसे बहुत हिंदू मत मूर्तिपूजा को व्यर्थ बताते हैं। इनकी बात बड़े पते की बात मानी जाती है, इन्हें संत-महंत बल्कि ईश्वर से भी बड़ा माना जाता है और मुझे कुछ भी नहीं। मेरी बात को ‘मज़ाक़ करना‘ माना जाता है, आखि़र क्यों ?
मैंने कोई नई बात तो कही नहीं, फिर मेरी बात बेवज़्न क्यों और उनकी बात जानदार क्यों ?
चलिए, मेरी बात नहीं मानते, मत मानिए, उनकी बात तो मान लीजिए, जिनके बारे में आप कहते हैं कि ये भारतीय जाति के लिए पुनरोद्धार के लिए ही खड़े हुए थे।
मूर्ति की मज़ाक़ मैं नहीं बनाता बल्कि मूर्तिपूजक खुद अपनी मूर्तियों की मज़ाक़ बनाते हैं, जब वे नई मर्तियां घर में ले आते हैं और पुरानी बाहर कूड़े पर फेंक देते हैं या फिर पानी डुबा देते हैं और कहीं-कहीं मूर्तियां इतनी विशाल बना लेते हैं कि वे डूबने में ही नहीं आतीं। फिर इस पर वे खुद ही लेख लिखते हैं, उनके फ़ोटो खींचते हैं और दुनिया को दिखाकर उनकी मज़ाक़ उड़ाते हैं लेकिन जो लोग यहां ऐतराज़ करते हैं वे उनकी बात को मज़ाक़ नहीं बताते। इस लिंक
यह केसी आस्था कि हम अपने इष्ट को, अपने ईश्बर को पेरो मै रोंदे?
पर आप खुद देख सकते हैं कि मूर्तिपूजक अपनी मूर्ति को साष्टांग दण्डवत की हालत में छोड़कर चले गए। मूर्ति यहां पड़ी है और मूर्तिपूजक अपने घर पड़ा है। जब इसे फेंकना ही था तो इसे बनाया ही क्यों ?
क्या यह खुद एक मज़ाक़ नहीं है ?
@ भाई गिरी जी ! हरेक सवाल का जवाब दिया जाता है लेकिन आप उन पर विचार नहीं करते। अब आपको यह जवाब दिया गया है। आप विचार करके अपनी राय से ज़रूर आगाह करें, आपका अहसान होगा। धन्यवाद .
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