जनाब सलीम ख़ान साहब ने दुनिया में होने वाले ज़ुल्म की वजह बताते हुए ‘स्वच्छ संदेश‘ ब्लाग पर अपने एक लेख में यह दिखाया है ज़ुल्म की इंतेहा मज़लूमों को अपने ख़िलाफ़ ख़ुद ही खड़ा कर लेता है। जहां जहां अमेरिका की फौजे गईं, उन्होंने वहां ज़ुल्म किया और उन्हें वहां के नागरिकों ने मार कर भगाया। जहां से अमेरिका भाग आया वहां ख़ुद ब ख़ुद शांति हो गई। ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लड़ना इन्सान की नेचर में शामिल है। किसी मुल्क का इतिहास ऐसी लड़ाईयों से ख़ाली नहीं है। लेकिन आज दुनिया में इस लड़ाई का मक़सद सिर्फ़ दुनियावी संसाधनों पर क़ब्ज़ा जमाना भर रह गया है, इन्सानी गुणों के लिए, इन्सानों के लिए लड़ने वाला आज ज़माने भर में कोई नहीं है। अगर है तो उसके पीछे सीधे या परोक्ष तौर पर इस्लाम ही मिलेगा।
ज़ुल्म और ज़ालिम के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना ही जिहाद है। बुराई को मिटाना ही जिहाद है। इसके लिए लड़ना भी पड़े तो लड़ना भी जिहाद है। ध्यान रहे ‘लड़ना ही‘ नहीं कह रहा हूं क्योंकि जिहाद का अर्थ युद्ध नहीं होता। युद्ध को अरबी में ‘क़िताल‘ कहते हैं। ‘जिहाद‘ का अर्थ है ‘जिद्दोजहद करना, जानतोड़ संघर्ष करना‘ और जब इस्लामी पारिभाषिक शब्द के तौर पर इसे बोला जाता है तो इसका मतलब होता है ‘बुराई के ख़िलाफ़ जानतोड़ संघर्ष करना‘। यह अनिवार्य है हरेक इन्सान पर चाहे वह किसी भी धर्म-मत को क्यों न मानता हो, चाहे वह किसी भी देश में क्यों न रहता हो ?
जिस सोसायटी से यह अमल ख़त्म हो जाता है, उस सोसायटी की स्टीयरिंग सीट पर बुरे लोगों का क़ब्ज़ा हो जाता है जैसा कि आज तक़रीबन दुनिया के हर देश में हो भी चुका है। दुनिया के कमज़ोरों के शोषण और युद्धों और महायुद्धों के पीछे यही चन्द मुठ्ठी भर ख़ुदग़र्ज़ हैवान हैं, जो शक्ल से इन्सान हैं।
बहरहाल मैं यह कह रहा था कि बहन दिव्या जी ने सलीम साहब का लेख पढ़ा और बेहिचक उसे सराहा और साथ ही यह भी पूछा कि क्या इसका उपयोग सही दिशा में हो रहा है ?
जिस लेख को दिव्या जी ने अच्छा कहा है, कुछ लोग उसमें भी पीलिया के रोगी की तरह पीलापन देखते हुए आपको मिलेंगे। लेख अच्छा है, मैंने भी इस पर टिप्पणी दी है।
वरिष्ठ चिंतक और पत्रकार जनाब भाई सय्यद मासूम साहब ने भाई ओबामा के इंडिया आने के बारे में
एक सुदंर मज़मून ब्लागिस्तान के पाठकों की नज़्र किया है। बात अमेरिका की हो और उसकी नीति-कुटनीति की न हो, यह कैसे हो सकता है ?
मासूम साहब ने दुनिया को एक बार फिर वही बताया जिसे वह रूस के पतन से पहले प्रायः जाना करती थी-
‘ताक़तवर देश का हमला युद्ध कहलाता है शांति की रक्षा उसका मक़सद बताया जाता है, जबकि कमज़ोर पीड़ित का हमला आतंवाद प्रचारित किया जाता है और सज़ा के तौर पर उसके पूरे देश को बर्बाद कर दिया जाता है ताकि शांति बहाल हो सके। शांति, क़ब्रिस्तान जैसी शांति। यही न्याय है, यही सभ्यता है।‘
मज़्मून अच्छा लगा। मैंने टिप्पणी नहीं दी है क्योंकि जब टिप्पणी करने बैठा तो ज़हन में एक पूरी पोस्ट का मज़मून तैरने लगा, जोकि हाजि़रे ख़िदमत है।
सलीम साहब सुन्नी हैं जबकि सय्यद साहब शिया और दोनों का नज़रिया एक है। ऐसा क्यों है ?
कहीं दोनों आपस में मिले हुए तो नहीं हैं ?
हो सकता है कि अमेरिका निर्दोष हो और ये लोग सलाह करके उसे बदनाम करना चाहते हों ?
हो सकता है इनसे ओबामा के आने के बाद होने वाली भारत की तरक्क़ी न देखी जा रही हो ?
मेरे मन में शक सा हुआ।
ऐसा कौन है, जिससे इसे हल किया जा सके ?
कोई तीसरा पक्ष होना चाहिए।
मुसलमान की बात का ऐतबार इस मुल्क में ज़रा कम ही किया जाता है, तो क्यों न कोई ग़ैर मुस्लिम ढूंढा जाए। ग़ैर मुस्लिमों में भी अगर कोई भूदेव मिल जाए यानि जिसे हिन्दू भाई भूमि पर साक्षात ईश्वर मानते हैं यानि कि ब्राह्मण तो क्या ही कहने ?
ख़ुशनसीबी मेरी कि मुझे यह दौलत भी सय्यद साहब के दरे दौलत पर ही नसीब हो गई।
श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी एक ऐसे ही इन्सान हैं जो अच्छी ख़ासी पढ़ाई लिखाई के बावजूद सच बोलने लगे और बुढ़ापे में बदनाम हो गए। लोग तो यह सोचते हैं कि अगर ब्राह्मण हैं तो कथा सुनाएं, उसे ही सच मान लिया जाएगा लेकिन ऐसी बातें क्यों करते हैं जिनसे देश में सच बोलने की परंपरा चल पड़े और उसका फ़ायदा मुसलमान ले भागें।
ख़बरदार ! इस देश में सच केवल तब बोला जाए जबकि उसका फ़ायदा सवर्ण हिन्दुओं को मिलता हो या कम से कम मुसलमानों को फ़ायदा हरगिज़ न मिंलता हो।
लोगों में आम चै मै गोइयां हैं कि देखो ये चतुर्वेदी होकर ऐसा कर रहे हैं, आस्तिक होकर ऐसा कर रहे हैं। अरे ऐसा तो द्विवेदी भी नहीं करते।उन्होंने 3 नामों वालों एक देश के 3 जजों के एक आस्थागत जजमेंट में अपनी अनास्था व्यक्त करते हुए उसे अक़ानूनी क़रार दे दिया तो जिनके नाम तक में मिश्री घुली हुई है वे भी उन्हें कड़वी-कसैली सुनाने जा पहुंचे। उन्हें क़ानून की धमकी भी दी गई जो भंडाफोड़ू तक को अब तक किसी ने न दी।
ख़ैर, यह तो उनके चरित्र का चित्रण था। मैं उन्हें बेहद पसंद करता हूं क्योंकि क़ानून की धमकी मुझे भी कई बार मिल चुकी है, एक ऐसे आदमी से जो गोपाल गोड्से का प्रशंसक भी है और उससे मिल भी चुका है। गोडसे आज़ाद भारत का पहला आतंकवादी था, नाथूराम गोडसे ।मुझे धमकी देने वाले साहब एक इंजीनियर है नोएडा के। नोएडा में तो भूमिगत बिल्डिंग बनाने का रिवाज बहुत है। बाहर से देखने में लगेगा कि कुछ भी नहीं है लेकिन अंदर जाकर देखेंगे तो हैरान रह जाएंगे कि इंजीनियर ने कितनी कुशलता से जाल बिछाया है रास्तों का, पाइप फिटिंग का और हर चीज़ का। लेकिन साथ ही आप यह भी देखेंगे कि इतने सुदंर जाल बिछाने के बावजूद वहां इंजीनियर का नाम कोई भी न जानता होगा कि इसे बिछाया किस इंजीनियर ने है ?
एक इंजीनियर का सबसे बड़ा ड्रा बैक भी यही है और सबसे बड़ी ख़ुशनसीबी भी यही है।
ख़ैर गोडसे और उसके प्रशंसकों का इस देश में कोई भविष्य नहीं है। आतंकवादियों को प्रशिक्षण और हथियार देने वाले देश तक से कोई आता है तो कोई नहीं पूछता कि गोडसे हमारे विचार का था, कहां है उसकी समाधि ?
अब ओबामा ही आये तो वे भी गांधी-गांधी ही करते रहे या फिर हुमायूं को याद करते रहे।
बाबरी मस्जिद तो रही नहीं अब ओबामा जी ने हुमायूं का मक़बरा और याद दिला दिया। उनके जाने के बाद मुझे डर है कि इसमें भी कोई मूर्ति न निकल आए और कह दिया जाए कि यह इन्द्रप्रस्थ है। यहां अभिमन्यु की जन्मस्थली है। अभिमन्यु की समाधि थी यहां। अभिमन्यु का नाम ही बिगड़ हुमायूं हो गया है वर्ना हुमायूं तो यहां कभी हुआ ही नहीं और कभी हुआ भी हो तो ईरान भाग गया होगा, फिर नहीं लौटा और अगर लौटा भी हो तो मरा नहीं होगा और अगर मरा भी हो तो दफ़्न बाबर के पास ही हुआ है और कोई इतिहासकार न माने तो कह देंगे कि भाई यह हमारी आस्था है। अब तो कोर्ट आस्था को भी प्रमाण मानने लगी है। आस्था के दावेदाद अब 66 प्रतिशत के हिस्सेदार हो जाते हैं बशर्ते कि वह आस्था हिन्दू आस्था हो।
बहरहाल हमें ख़ुशी है कि हिन्दू भाई आस्थावान हैं। नादान बच्चे बेजान गुड्डे-गुड़ियों से खेलते हैं लेकिन जब वे जवान हो जाते हैं तो वे असलियत जान जाते हैं। हिन्दुओं में सभी नादान नहीं हैं। उनके समझदार समझाएंगे उन्हें कि यह रास्ता कल्याण का नहीं है। हम समझाएंगे तो धर्म परिवर्तन का ठप्पा लगाएंगे और जब उनके स्वामी जी बताएंगे तो उन्हें समाधि में ज्ञान पाया हुआ समझेंगे।
कुछ देर के लिए लोगों के सामने आंखे बंद करके बैठना भी बहुत ज़रूरी है। इससे लोगों में एक इमेज बनती है। किसी को क्या पता कि समाधि घटित हुई या नहीं ?
किसी के पास इसकी चैकिंग का कोई पैमाना ही नहीं है।
हरेक साधक ईश्वर, सत्य और कर्तव्य के बारे में अलग अलग बताता है और यहां सबको मान्यता दी जाती है। शंकराचार्य जी भी समाधि एक्सपर्ट और दयानंद जी भी और महावीर भी और ओशो जी भी। ओशो एक स्पष्टवादी लेकिन बहुत रहस्यमय आदमी थे। एक बेहतरीन क़ाबिलियत रखने वाले आदमी। उनसे वह अमेरिका भी थर्रा गया जिससे दुनिया भी थर्राती है। अमेरिका ने चाहे सद्दाम को बाद में मारा हो, चाहे वह ओसामा को अब तक ढूंढ न पाया हो और ईरान पर अब तक हमला भी न किया हो लेकिन ओशो को निपटाने में तनिक देर न की। ओशो के मुंह से निकलने वाला सच ज़हर बनाकर उनके ही हलक़ में उतार दिया गया। ओशो ज़िन्दा रहते तो वे सच सामने लाते रहते, अमेरिका का सबकुछ ख़त्म हो जाता।
ओबामा भारत आए। इराक़ पर हमला किए जाने का अफ़सोस जताया लेकिन अफ़सोस का एक शब्द भी ओशो के प्रति व्यक्त न किया और न ही किसी भारतीय नेता ने और न ही भारतीय नेता ने उन्हें याद दिलाया कि आपके मुल्क में हमारी एक अद्भुत प्रतिभा के साथ कैसा दुर्व्यवहार किया गया ?
ओबामा इस देश की धरती पर खड़े होकर फ़ख़्र से कह रहे हैं कि पाकिस्तान उनका दोस्त है। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान की ज़मीन से जारी आतंकी हरकतें ख़ुद अमेरिका की ही कूटनीति है ?
चलिए पाकिस्तान तो अमेरिका को दोस्त है लेकिन सोमालिया तो उसका दोस्त नहीं है। 8 मई 2010 से हमारे 22 नौजवान वहां फंसे पड़े हैं और विश्व भर से आतंकवाद का सफ़ाया करने का दम भरने वाला लीडर हमारे यहां पधारा हुआ है। क्यों नहीं उससे कहा कि हमारे नौजवान रिहा कराओ ?
सब कुछ भुलाकर व्यापार की बातें की जा रही हैं, उनके हित की बातें की जा रही हैं, देश को गुलाम बनाने की बातें की जा रही हैं। कहीं यह सब अपने कमीशन की फ़िक्र तो नहीं है ?हैदर अली और टीपू सुल्तान का मिशन फ़ेल होता सा दिख रहा है।
गुलामों को बता दिया गया है कि हम जो लड़ाई लड़ते हैं अगर उसे क्रूसेड भी कह दें तब भी उसे शांति का युद्ध ही कहना। ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं‘ मानने वाले बेचारे कर ही क्या सकते हैं ?
और जो कर सकते हैं उन्हें तो चैन से न जीने देने के लिए वे ख़ुद कटिबद्ध हैं।
विदेशी हमलावर पहले जब कभी यहां आए और वे कामयाब हुए तो तब यहां के हालात ऐसे ही थे। यहां के लोग अपनों के ख़िलाफ़ विदेशियों का साथ हमेशा से देते आए हैं।
जो अमेरिका अपने दोस्त इराक़ का दोस्त न हो सका वह भारत का दोस्त कैसे हो सकता है ?
नए ज़माने में उसने गुलामों का नाम ‘दोस्त‘ रख दिया है, इससे दूसरों को ज़िल्लत फ़ील नहीं होती। ज़िल्लत तो हमारे लोग तब भी फ़ील नहीं करते जबकि हमारे एक नेता की तलाशी नंगा करके ली गई।
हमें अगर ठस्से से जीना है तो आपस में एका करना होगा। दोस्त को दोस्त और दुश्मन को दुश्मन के रूप में पहचानना सीखना होगा। पाकिस्तान से आने वाले आतंकियों को हथियार किस देश से मिलते हैं ?
इस प्रश्न के उत्तर से भारतवासी अपने असली दुश्मन को आसानी से पहचान सकते हैं। केवल अपने ही नहीं बल्कि पूरे एशिया के दुश्मन को।
बहरहाल हमने तो लिख दिया लेकिन अगर दिव्या जी को लेख अच्छा लगे तो इसे अच्छा समझा जाए।
अनवर जमाल साहब सत्य पे विचारों पे सहमती एक इंसानी फितरत है. चाहे वो दिव्या जी की सलीम से सहमती हो या सलीम साहब की मुझसे . यही एक स्वस्थ ब्लोगिंग की पहचान है. ओबामा के मसले मैं मैं फिर भी आशावादी रुख अपनाना पसंद करता हूँ , लेकिन अक्ल के इस्तेमाल के साथ. जब कोई देश, बादशाह, ज़ुल्म करता है तो उसको युद्ध कहा जाता है, और जब यही लोग किसी गिरोह का इस्तेमाल पीछे से अपने राजनितिक फाएदे के लिए करते हैं तो आतंकवाद कहलाता है. ज़ुल्म खुद अपने आप मैं आतंकवाद ख़त्म करने का नाम नहीं बल्कि उसको बढ़ावा देने का नाम है.
ReplyDeleteभारतवाषी अपने असली दुशमन को पहचान सकते हैं इसमें उनकी यह किताब मदद करेगी
ReplyDeleteWho Killed Karkare? Now Available in Hindi!
करकरे के हत्यारे कौन ?
भारत में आतंकवाद का असली चेहरा
368 पन्नों की यह पुस्तक भारत में “इस्लामी आतंकवाद” की फ़र्ज़ी धारणा को तोड़ती है।
http://whokilledkarkare.com/content/who-killed-karkare-now-available-hindi
Link is not working.. kindly share again
DeleteNICE
ReplyDeleteright boss
ReplyDeleteअब ओबामा जी ने हुमायूं का मक़बरा और याद दिला दिया। उनके जाने के बाद मुझे डर है कि इसमें भी कोई मूर्ति न निकल आए और कह दिया जाए कि यह इन्द्रप्रस्थ है। यहां अभिमन्यु की जन्मस्थली है। अभिमन्यु की समाधि थी यहां। अभिमन्यु का नाम ही बिगड़ हुमायूं हो गया है वर्ना हुमायूं तो यहां कभी हुआ ही नहीं और कभी हुआ भी हो तो ईरान भाग गया होगा, फिर नहीं लौटा और अगर लौटा भी हो तो मरा नहीं होगा और अगर मरा भी हो तो दफ़्न बाबर के पास ही हुआ है और कोई इतिहासकार न माने तो कह देंगे कि भाई यह हमारी आस्था है। अब तो कोर्ट आस्था को भी प्रमाण मानने लगी है। आस्था के दावेदाद अब 66 प्रतिशत के हिस्सेदार हो जाते हैं बशर्ते कि वह आस्था हिन्दू आस्था हो।
ReplyDelete@ जनाब सय्यद साहब ! आपका कलाम आपकी सोच का अक्कास है .
ReplyDelete@ भाई सलीम ! खुदा के वास्ते संघी भाइयों के नामों का खुलासा करना छोड़ दो वरना ये लिस्ट बनाकर रख लेते हैं और मौक़ा पड़ने पर आदमी का एहसान जाफरी बना देते हैं .
Nice post .
ReplyDeleteजानते सब हैं लेकिन डर के मारे चुप हैं बस ईमान वाला ही बोलेगा या वह जो ईमान वालों का साथी होगा .
हमें अगर ठस्से से जीना है तो आपस में एका करना होगा। दोस्त को दोस्त और दुश्मन को दुश्मन के रूप में पहचानना सीखना होगा।
ReplyDelete.
ReplyDeleteडॉ अनवर,
समय के साथ सभी को सही-गलत और अच्छे बुरे की पहचान हो जाती है। जो ना समझे वो अनाड़ी है।
कुछ लोगों के साथ ये कहावत भी चरितार्थ होती है--
" हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और "
इसकी मिसाल हैं " ओबामा "। बना गए पूरे हिंदुस्तान को मुर्ख।
.
ZEAL @ बना गए पूरे हिंदुस्तान को मुर्ख यह सत्य नहीं है. हम हिन्दुस्तानी इतने भी मुख नहीं के हम ना जाने "की हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और" हुआ करते हैं. इस यात्रा मैं देश हित कम और जनहित अधिक देखने को मिला. लोगों ने अपनी अपनी रोटी पे दाल खींच ली.
ReplyDelete----हां तो इसमें गलत क्या है, यह तो है ही इन्द्रप्रस्थ, और अवश्य ही यह मकबरा भी किसी न किसी हिन्दू की ही जमीन पर होगा, मुगल आक्रान्ता थे बाहरी लोग , उनका किसी भी जमीन पर कैसे हक हो सकता है--यह छोटी सी बात झूठे व छद्म-दर्मनिरपेक्षओम की समझ में कब आयेगी , चाहे वह हिन्दू हो या मुस्लिम।
ReplyDeleteआप लोगो का काम ही आतंक फ़ैलाना, दुसरो के धर्मस्थान तोडकर मकबरे और मस्जिद बनाना है । इजराइल मे भी तो आपने ऐसा किया है ।
डाक्टर मुo असलम क़ासमी
ReplyDeleteकहते है धर्म मूर्खो के लिए नही होता
शायद इसी लिए धरती जनम के इतने साल बाद भी संतो के कुछ चंद नाम ही गिने जा सकते है
जरा इनकी बातो पर गौर फरमाइए
ये भारत को हिन्दू राष्ट बनाने का विरोध करते है और तर्क क्या देते है
क्या है अश्वमेघ यज्ञ?
इस यज्ञ में एक ‘ाक्तिशाली घोड़े को दौड़ा दिया जाता था, जो भी
राजा उसको पकड़ लेता उससे युद्ध किया जाता और उसके राज्य को अपने राज्य
में मिला लिया जाता था।
प्रश्न
यह है कि क्या ‘ाान्तिपूर्ण रह रहे पड़ोसी के क्षेत्र में घोड़ा छोड़कर
उसे युद्ध पर आमादा करना जायज़ होगा? और ‘आ बैल मुझे मार’ वाली कहावत पर
अमल करते हुए ‘ाान्ति से रह रहे पड़ोसी से युद्ध कर के उसके क्षेत्र पर
कब्ज़ा कर लेना, यह कौन सी नैतिकता होगी? और क्या अन्तर्राष्ट्रीय कानून
इस की अनुमति देगा?
ये आर्यावर्त में फैले एक राजपरम्परा थी न की हिन्दू परम्परा
इसी तरह अग्रेजो ने नीति चलायी थी की जिस राजा के संतान नही होगी उसको वो अपने राज्य में मिला लेगे
दुनिया के हर कोने में इस तरह की परम्परा थी
अब इनको क्या लगा की यदि हिन्दू राष्ट हो गया तो भारत का प्रधानमंती एक घोडा छोड़ेगा .जो अगर पकिस्तान या चीन में घुस गया
तो वह से हमें लड़ाई करनी पड़ेगे
सही मायने में भारत ने आज तक कभी लड़ाई की पहल ही नही की ,सदेव बचाव किया है
लड़ाई सदेव इस्लाम धर्म के ठेकेदार पकिस्तान ने किया है और जो भी इस्लाम राष्ट है उनकी हालत कुत्तो से भी बेबतर है
हा हा हा हा हा हा हा
@idrsi yar 1 srif ek comment
ReplyDeletesaleem khan me tum 10copy paste kerte ho
@ महेन्द्र जी ! राजा महरगुल भी शिव का उपासक था उसने असंख्य मठों को नष्ट किया और लूटा ।
ReplyDeleteलाला लाजपतराय , तारीख़े हिन्द , प . 310
2 , क्या आर्य विदेशी हमलावर नहीं हैं ?
3, क्या आर्योँ का डीएनए यूरोपियन्स से मैच नहीं हो चुका है ?
डॉ. जमाल साहब आपकी पोस्ट पढी तो हमायु के मकबरे वाली बात पे खटका हुआ ,पता नहीं उस कीटाबाज अफीमची में क्या आदर्श लगा आप को? पर कोई केसा भी हो वो उत्तम हे ,चाहे उसने इतिहास में माँ बहने की हो lक्योकि उसका धर्म ईस्लाम हे ?पता नहीं आप हर चीज का इस्लामीकरण क्यों कर देना चाहते हो ?सोमलिया वाले सच्चे मुद्दे पर आप को साधुवाद |मेने सोचा डॉ. की मन की बात उंगलियों पे आ गयी .....................तो डॉ साहब आप उस अफीमची भगोड़े नालायक को इज्जत बख्शेंगे जो हिन्दू राजा वीरसाल के इज्जातदार मेहमान बनके रहा और उसी के साथ गद्दारी की ? मेने तो केवल एक लेख उस नीती के खिलाफ लिखा जो सफ़ेद खून के पिस्स्सूवो की हे ? जो सामन्य जनमानस में न्युटेल हिन्जड़ो की मानिंद घूल मिल गए हो बाकि आप किसी मुद्दे पे खुल के तो बोलते हो |
ReplyDeletehttp://jaishariram-man.blogspot.com/2010/11/blog-post_07.html
ReplyDeleteजय श्री अनंत राम
ReplyDelete@ मान जी , मान गए आपको भी , न मैंने हुमायूँ की तारीफ़ में एक लाईन लिखी और न ही कहीं उसे आदर्श लिखा । फिर भी आपने ये बातें मेरे लेख में देख लीं ?
2, ग़द्दारी से किसी का इतिहास पाक नहीं है , इसलिए ऐतराज़ फ़िज़ूल है ।
Bahut Accha vichar lekh hai aapka, Sachchai bina kisi darr k sabke samne le aate hain aap. Allah aapko iski jaza ata farmaye. Ameen
ReplyDeletehttp://jaishariram-man.blogspot.com/2010/11/blog-post_11.html.....READ JAMAL SAHB
ReplyDeleteआपकी सच्चाई भरी पोस्टों से घबराकर शर्मा टाईप के लोगों ने पूरी की पूरी पोस्टें ही झूठी लिखने शुरू कर दी है.
ReplyDeletePlease read a new article about Haj and Qurbani इस्लाम पर आपत्तियां वास्तव में ज्ञान-विज्ञान से अन्जान होने के कारण ही की जाती हैं या फिर उनके पीछे हठ और दुराग्रह पाया जाता है। ‘कुरबानी और हज‘ पर किए जाने वाले ऐतराज़ भी अज्ञान और अहंकार की उपज मात्र हैं, जिनसे यह पता चलता है कि ऐतराज़ करने वाले का मन आज के वैज्ञानिक युग में भी अंधविश्वास और अज्ञान से मुक्त नहीं हो सका है।
ReplyDeleteमौलाना वहीदुद्दीन ख़ान साहब ने इस बात को स्पष्ट करने के लिए सभी ज़रूरी वैज्ञानिक तथ्य और तर्क अपने इस लेख में पाठकों के सामने रख दिए हैं। यह लेख अलरिसाला उर्दू, दिल्ली के अंक दिसम्बर 2009 में प्रकाशित हो चुका है। हिन्दी पाठकों के लिए इसकी उपयोगिता को देखते इसका हिन्दी अनुवाद पेश किया जा रहा है। जिन्हें सत्य की खोज है, जो पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं, वे इस अमूल्य ज्ञान संपदा की क़द्र करेंगे और तब वे जीवन की समस्याओं को व्यवहारिक हल पा सकेंगे। ऐसी हमें आशा है -डा. अनवर जमाल (अनुवादक)