- कविता
किसका बता कुसूर ?
हीरे पन्ने माणिक मोती आसमान के तारे,
इस दुनिया में लोग जो दिखते ये सारे के सारे।
इनके बीच बिता कर जीवन रहा जो मुझ से दूर।। किसका बता कुसूर ?
मैंने तो यह कायनात ही जब तुझको दे डाली,
तेरे ही हित खड़ा रहा मैं, बन बग़िया का माली।
तूने फ़र्क़ किया अपनों में, जुल्म किये भरपूर ।। किसका बता कुसूर ?
इस दुनिया में आकर जब से होश संभाला,
भिन्न-भिन्न ही समझा तूने, मुझको गोरा काला।
थोड़ी सी बुद्धि पाकर ही, कितना किया गुरूर ।। किसका बता कुसूर ?
धरती के बाक़ी जीवों में, अक्षय नियम पाले,
साफ़ रहे कुदरत में जीकर, नहीं लगाये ताले।
मरे जिये अपनी दुनिया में, ले आनन्द भरपूर।। किसका बता कुसूर ?
बिना काम की बातों में ही, बुद्धि बहुत लगायी,
दूजे का श्रम हरने को, लंबी लड़ी लड़ाई।
सुख के लम्हे कुछ ही देखे, थककर चकनाचूर।। किसका बता कुसूर ?
तूने चांद-सितारे जाकर, निज आंखों से देखे,
बहुत जुटाए तथ्य समय के, तूने रक्खे लेखे ।
भूल गया औरों के दुख को, होकर तू मग़रूर।। किसका बता कुसूर ?
कितना ज़ोर लगाया तूने, शस्त्रास्त्र को पाने में,
उतना ज़ोर लगाता जो तू, सबको सखा बनाने में।
मनभावन बन जाता जीवन, खुशियों से भरपूर।। किसका बता कुसूर ?
श्रद्धा और विश्वास के साये, जीवन नाव चलाता,
इस जीवन को सुख से जीकर, फिर सद्गति को पाता।
मैं जब तुझको दिल में रखता, क्यूं तू रखता दूर।। किसका बता कुसूर ?
समय तेरी दहलीज़ पर आकर, बूढ़ा हो गया ‘श्याम‘,
चिंताओं की भीड़ में तुझको, कब आया आराम ।
जीवन खेल समझ कर खेला, परचिंता से दूर ।। किसका बता कुसूर ?
श्याम लाल वर्मा
से.नि., संयुक्त निदेशक, शिक्षा विभाग, राजस्थान
मासिक कांति, जून 2009 से साभार
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---और इसी अंक से एक ग़ज़ल पेश-ए-खि़दमत है-
नहीं होतीं कभी साहिल के अरमानों से वाबस्ता
हमारी किश्तियां रहती हैं तूफ़ानों से वाबस्ता
कहीं मसली हुई कलियां, कहीं रौंदे हुए गुंचे
बहुत-सी दास्तानें हैं शबिस्तानों से वाबस्ता
हमारा ही जिगर है यह, हमारा ही कलेजा है
हम अपने ज़ख्म रखते हैं नमकदानों से वाबस्ता
न ले चल ख़ानक़ाहों की तरफ़ शैख़े-हरम मुझको
मुजाहिद का तो मुस्तक़बिल है मैदानों से वाबस्ता
अभी चलते-चलते देख लेते हैं ख़राशों को
अभी कुछ और ज़ंजीरें हैं दीवानों से वाबस्ता
मैं यूं रहज़न के बदले पासबां पर वार करता हूं
मेरे घर की तबाही है निगहबानों से वाबस्ता
मुवर्रिख़! तेरी रंग-आमेज़ियां तो खूब हैं लेकिन
कहीं तारीख़ हो जाए न अफ़सानों से वाबस्ता
मुहब्बत ख़ामुशी भी, चीख़ भी, नग़मा भी, नारा भी
ये एक मज़मून है कितने ही उन्वानों से वाबस्ता
‘हफ़ीज़े‘ मेरठी को कौन पहचाने कि बेचारा
न ऐवानों से वाबस्ता न दरबानों से वाबस्ता
बेहतरीन कविताओं से रु-बरु करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद अनवर भाई! बहुत खूब!
ReplyDeletebahut badhiya
ReplyDeleteVery Nice Post
ReplyDeleteएक अच्छी शुरूआत. बेहतरीन कविताएँ ग़ज़ल.
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteमहक जी इतने दिन कहाँ रहे? अब तो आप ब्लाग जगत में नियमित रहेंगे या फिर लंबे समय के लिए गायब हो जाएँगे?
ReplyDelete@ MAHAK JI ! Welcome back.
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteक्या बात है, जोरदार कविता के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteमैंने तो यह कायनात ही जब तुझको दे डाली,
ReplyDeleteतेरे ही हित खड़ा रहा मैं, बन बग़िया का माली।
तूने फ़र्क़ किया अपनों में, जुल्म किये भरपूर ।। किसका बता कुसूर ?
बिना काम की बातों में ही, बुद्धि बहुत लगायी,
ReplyDeleteदूजे का श्रम हरने को, लंबी लड़ी लड़ाई।
सुख के लम्हे कुछ ही देखे, थककर चकनाचूर।। किसका बता कुसूर ?
न ले चल ख़ानक़ाहों की तरफ़ शैख़े-हरम मुझको
ReplyDeleteमुजाहिद का तो मुस्तक़बिल है मैदानों से वाबस्ता
अभी चलते-चलते देख लेते हैं ख़राशों को
अभी कुछ और ज़ंजीरें हैं दीवानों से वाबस्ता
खालिक के बनाए नियम न्यूक्लियर पावर की तरह हैं, चाहे तो इंसान उनका उपयोग बिजली बनाकर रचनात्मक रूप में करे या फिर एटम बम बनाकर विनाश के रूप में. हर व्यक्ति को पता है की एटम बम विनाशी है, इसके बावजूद यदि कोई उसका इस्तेमाल करता है तो ऐसे ही लोगों के लिए जहन्नुम है.
ReplyDeleteइस दुनिया में आकर जब से होश संभाला,
ReplyDeleteभिन्न-भिन्न ही समझा तूने, मुझको गोरा काला।
थोड़ी सी बुद्धि पाकर ही, कितना किया गुरूर ।। किसका बता कुसूर ?
बिना काम की बातों में ही, बुद्धि बहुत लगायी,
ReplyDeleteदूजे का श्रम हरने को, लंबी लड़ी लड़ाई।
सुख के लम्हे कुछ ही देखे, थककर चकनाचूर।। किसका बता कुसूर ?
a nice post
SHAHROZ
@अयाज़ भाई
ReplyDeleteकोशिश तो यही रहती है की नियमित रहें लेकिन इस ज़ालिम समय का क्या करें .खैर आपके दिल में अभी भी मौजूद हैं इतना ही काफी है हमारे लिए -
वक़्त नूर को बेनूर कर देता है,
थोड़े से जख्म को नासूर कर देता है,
कौन चाहता है अपनों से दूर होना
पर वक़्त सबको मजबूर कर देता है
याद रखने के लिए बहुत-२ शुक्रिया
@जमाल भाई
ReplyDeleteWelcome के लिए आपका भी बहुत-२ शुक्रिया, अब मुझे यकीन हुआ है की परसों मेरी बात असली डॉ.अन्वेर ज़माल जी से ही हुई थी
nice selection
ReplyDeleteसब तेरा कसूर
ReplyDeleteNice post क्या होता है ? very nice है यह पोस्ट।
ReplyDeleteनहीं होतीं कभी साहिल के अरमानों से वाबस्ता
हमारी किश्तियां रहती हैं तूफ़ानों से वाबस्ता
nice selection of words .
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