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Tuesday, December 17, 2013

होमोसेक्सुअलिटी, एक मनोवैज्ञानिक विकृति Homosexuality and Indian Culture

एक लेख के अनुसार भारत में लगभग 1 करोड़ समलैंगिक हैं। इनमें से कुछ लोग अपने अधिकार के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। ऊँची तालीम पाए हुए कुछ लोग इनकी वकालत कर रहे हैं। इनमें स्वामी अग्निवेश से लेकर आमिर ख़ान जैसी हस्तियों के नाम हैं। जबकि समलैंगिक संबंध आर्य समाज की नज़र में भी अपराध हैं और इसलाम में भी। सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मणिशंकर अय्यर और जेडीयू सांसद शिवानंद तिवारी जैसी सियासी हस्तियां समलैंगिकों को उनका हक़ दिलाने के लिए यानि उन्हें अपनी पसंद के मुताबिक़ होमोसेक्सुअल रिलेशन बनाने का हक़ दिलाने के लिए भारत के क़ानून में बदलाव करने की मंशा जता चुकी हैं। जबकि होमोसेक्सुअलिटी ईसाई धर्म में भी पाप और जुर्म है। उनकी राय से सहमति जताने वाले बहुत से नेताओं में हिन्दू और सिख आदि धर्म के मानने वाले भी है। इन धर्मों में इस कर्म को कुकर्म ही माना गया है।
इन सभी लोगों के धर्म जिस काम को पाप और जुर्म घोषित कर रहे हैं। उस काम को ये लोग क़ानूनी मान्यता दिलाने के लिए कोशिश क्यों कर रहे हैं?
वजह मानवाधिकार बताई जाती है। वजह चाहे मानवाधिकार हों या फिर कोई और लेकिन इतना तो तय है कि ये सब लोग अपने धर्म की अवमानना कर रहे हैं। इंसान के लिए जायज़ और नाजायज़ निर्धारित करने का हक़ केवल उसके क्रिएटर को है क्योंकि वही उसकी सच्ची ज़रूरतों को जानने वाला है और यह भी कि कौन का काम उसके लिए फ़ायदेमन्द है और कौन काम उसके लिए नुक्सानदेह है!
हर ज़माने में उस मालिक ने हर भाषा में इंसान को यह बात खोल खोल कर बताई है और समाज के दबंग लोगों ने बार बार उस मालिक के बताए गए अवैध कामों को वैध किया है। इसी की एक मिसाल आज समलैंगिक संबंधों को क़ानूनी मान्यता दिलाने की कोशिश में देखी जा सकती है। जो लोग इंसान के लिए या ख़ुद अपने लिए जायज़ और नाजायज़ कामों की सूची बदलते हैं वे एक ऐसा काम करते जिसे करने का अधिकार ईश्वर-अल्लाह-गॉड ने अपनी वाणी में, किसी भी भाषा में कभी किसी इंसान को नहीं दिया। इसलाम की जायज़-नाजायज़ की सूची बदलने वाला अपनी मुजरिमाना हरकत की वजह से इसलाम से बाहर निकल जाता है। आज यह बात सब जानते हैं। इसलाम में ऐसा करने वाले की हैसियत और उसकी शोहरत नहीं देखी जाती। किसी व्यक्ति की ख़ुशी के लिए एक विकृत विचार को मान्यता देने का मतलब धर्म के वास्तविक स्वरूप को विकृत करना है। यह नहीं होना चाहिए।
जिस बात पर सभी धर्म एकमत हैं, उसे तो हम सभी को एकमत होकर मानना चाहिए।
एक दूसरी बात यह भी अहम है कि संसद आदि में जो नेता आते हैं वे अपनी मर्ज़ी से अपनी पसंद के काम करने के लिए नहीं आते बल्कि उन्हें जनता चुनती है और उनका काम जनता का प्रतिनिधित्व करना होता है।
समलैंगिकता के हिमायती चंद लोगों के सिवा 1 अरब 26 करोड़ भारतीय जनता इस घिनौने संबंध को बदस्तूर अपराध की सूची में ही देखना चाहती है। ऐसे में जनता के चुने हुए नेता भारतीय जनता के बहुमत का प्रतिनिधित्व करने के बजाय उसके खि़लाफ़ क्यों जा रहे हैं?
अमेरिका की पसंद के कारण देश की जनता के मत और संस्कृति को ठुकराया जा रहा है। हक़ीक़त यह है कि जिस (कु)कर्म को अमेरिका आदि देश मान्यता दे चुके हैं। उसे अपराध की श्रेणी में रखने का साहस कौन करे ?
देश की संस्कृति की रक्षा के लिए हुंकारने वाले दल और नेता भी अमेरिका की पसंद जानते हैं और वे उसकी कृपा पाने के लिए एक लंबे से उसकी चिरौरी कर रहे हैं। उन्हें मालूम है कि जो दल और नेता ही नहीं बल्कि देश तक उसकी पसंद के (कु)कर्म को मान्यता नहीं देता। वह उस देश का इतिहास और भूगोल ही नहीं अर्थशास्त्र तक बदल देता है और सबके सामने वह लगातार बदल ही रहा है।
यहां एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि भारतीय संस्कृति की पवित्रता और महानता के गुण गाए जाते हैं और उसे वेस्टर्न कल्चर से ऊँचा माना जाता है। यहाँ तक दावे किए जाते हैं कि आज सारा विश्व भारत की ओर देख रहा है अर्थात विश्व भारत की महान संस्कृति का अनुकरण करने के लिए तत्पर है। अगर वाक़ई ऐसा है तो फिर हमें भारतीय संस्कृति की रक्षा करनी चाहिए न कि उसे बदल देना चाहिए। भारतीय संस्कृति को वेस्टर्न कल्चर में बदल देने के बाद विश्व भारत की ओर भला क्यों देखेगा ?
अपनी विशिष्टता को अपने ही हाथों खो देने का उचित कारण कौन बता सकता है ?
कोई भी नहीं!
हाँ, कोई कह सकता है कि ज़ुल्म किसी के साथ भी नहीं होना चाहिए। समलैंगिकता प्रकृति की देन है। कुछ लोग जन्मजात समलैंगिक प्रकृति वाले होते हैं यानि वे पैदाईशी तौर पर समलैंगिक संबंधों का रूझान लेकर पैदा होते हैं। इसलिए उन्हें उनकी पसंद का काम करने से रोकना उनके साथ नाइंसाफ़ी है।
पहली बात तो यह है कि वैज्ञानिक अभी इंसान के दिमाग़, मन और डीएनए को पूरी तरह नहीं जान पाए हैं। मनोविज्ञान के क्षेत्र में उसकी जानकारी अभी बहुत कम है। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि कुछ लोग पैदाईशी तौर पर समलैंगिक होते हैं और समलैंगिकता प्रकृति की देन है। ...लेकिन अगर इस दावे को सही मान लिया जाए तो कुछ लोग, सब नहीं बल्कि केवल कुछ लोग जन्मजात समलैंगिक रूझान वाले होते हैं तो फिर यह सच भी वैज्ञानिक ही बताते हैं कि कुछ लोग अपराध का रूझान लेकर भी पैदा होते हैं, तो क्या उन्हें अपराध करने से रोकना उनके साथ नाइंसाफ़ी मानी जाएगी।
कुछ लोग पैदाईशी तौर पर अंधे पैदा होते हैं और इसी तरह दूसरी बहुत सी जिस्मानी विकृतियां लेकर भी लोग पैदा होते हैं। जिन्हें दूर करने की कोशिश में ही विज्ञान ने वह उन्नति की है जिसे हम आज देख रहे हैं। शारीरिक रूप् से अपंग व्यक्ति को आज फ़िज़िकली चैलेन्ज का सामना करने वाले व्यक्ति के रूप में देखा जाता है। ये चैलेन्ज सिर्फ़ शारीरिक ही नहीं होते बल्कि मनोवैज्ञानिक भी होते हैं। पैदाईशी तौर पर समलैंगिकता का रूझान रखने वाले व्यक्तियों को सायकोलॉजिकल चैलेन्ज का सामना करने वाले व्यक्तियों के रूप में देखा जाना चाहिए। इससे हमें उनकी मनोवैज्ञानिक विकृतियों का समाधान तलाश करने का मौक़ा मिलेगा। मनोवैज्ञानिक विकृतियों को क़ानूनी मान्यता देना विज्ञान की चेतना के भी खि़लाफ़ है।आज अंधे को आंख दी जा सकती है और लंगड़े को टांग दी जा सकती है तो बीमार मन को सेहतमंद विचारधारा क्यों नहीं दी जा सकती ?
इन बिन्दुओं पर विचार किया जाए तो समलैंगिक व्यक्ति भी हम  सब की तरह नॉर्मल ज़िन्दगी जी सकते हैं और प्राकृतिक परिवार का लुत्फ़ उठा सकते हैं। इस तरह वे भी एक सेहतमंद समाज के निर्माण में अपनी भूमिका अदा कर पाएंगे।
इसी मक़ाम पर आकर हमें ईश्वर-अल्लाह-गॉड की ज़रूरत महसूस होती है। वही मालिक हमें प्रकृति और विकृति में अंतर बता सकता है क्योंकि मनुष्य की संरचना को सही रूप में जानने वाला बस वही एक है। जो आदमी उसे नहीं मानता वह ख़ुद को कभी नहीं जान सकता।
क्रिएटर के स्वाभाविक अधिकार को न मानकर आधुनिक पश्चिमी सभ्यता ने लोगों को आत्म-विस्मृति का शाप भोगने पर मजबूर कर दिया है। हमें उन्हें शाप से मुक्ति का उपाय बताना है न कि उनकी ही तरह शापित हो जाना है।
उठो, जागो और वरदान के पात्र बनो!

Thursday, October 24, 2013

कैसे और कहाँ खो गया सत्य? Bodhkatha

ज्ञानतंत्र की रहस्य-बोध कथाएं: कैसे और कहाँ खो गया सत्य?
प्राचीन काल की बात है। गाय घोड़े चरते चरते पूरब की तरफ़ निकल आए।
ये गाय घोड़े कहां से चले थे?, 
इसके विषय में मतभेद है लेकिन इतना तय है कि वे जिस देश से चले थे। उस देश में हाथी न होता था। अपने गाय घोड़ों के पीछे उनके मालिक भी चले आए। वे मूर्तिपूजक न थे। वे महान थे। वे कवि थे। जहां रवि नहीं पहुंचता था वे वहां भी पहुंच जाते थे। वे आत्मा से ईश्वर तक जा पहुंचे थे। वे लंबे और गोरे थे, संगठित और अनुशासित थे। चलते चलते वे हरे देश तक चले आए। यहां नदी के पास आबाद काले और नाटे लोगों ने उन्हें देखा तो वे मारे भय के पीले पड़ गए और जंगलों में चढ़ गए। जो जंगलों में न जा सके। उन्हें नगर के किनारे रखा गया और जंगल का पूरा सुख दिया गया। इस तरह यह देश विदेशियों का हो गया और विदेशी देश के हो गए।

विदेशी सभ्य होते ही हैं। सो ये भी सभ्य थे। शासक न्यायप्रिय होता है। सो ये भी न्यायप्रिय ही थे। ये जो करते थे वही सभ्यता थी, वही न्याय था। ये प्रकृति से बातें करते थे। इन्होंने आग और पानी से ही नहीं बल्कि भूमि और आकाश तक से बातें कीं। इनका बौद्धिक स्तर ऊँचा था। उनकी नस्लों ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाया। उनके बाद और भी विदेशी अपनी सभ्यताएं लेकर आते रहे। उन्हें भी उनकी संस्कृति समेत एडजस्ट कर लिया गया। उन्होंने भी कविता रचना सीख लिया। उनमें से कोई प्रकृतिपूजक था और कोई मूर्तिपूजक। उनकी कविता का विषय प्रकृतिपूजा होता था या फिर मूर्तिपूजा।
विदेशी धड़ाधड़ आ रहे थे। वे अपने साथ अपनी संस्कृतियां भी ला रहे थे। वे भी कविता कर रहे थे। कोई नर पर और कोई नारी पर। कोई हवा पर और कोई दवा पर। जितनी बुद्धियां थीं, उतने ही विचार थे। नए विचारों की भरमार हो गई और पुराना सत्य विचार उसमें कहीं दबता चला गया। 
जितनी नस्लें थीं, उतनी ही संस्कृतियां थीं। सबकी संस्कृतियों को समाहित किए बिना चारा न था। किसी का दमन और किसी का भजन किया जा रहा था। राजनैतिक चौधराहट बनाए रखने के लिए जो कुछ नहीं करना था, वह भी किया गया। लोग धर्मप्राण होने के बजाय धनप्राण बनते चले गए। पवित्र लोगों के वंशज अंततः पतित होकर रह गए।
आदिकाल के कवियों की वाणी महान थी। उसमें सत्य था। उसे लिखने की परंपरा तब न थी। वह श्रुति (सुनने) और स्मृति (मेमोरी) के ज़रिये नई नस्लों तक पहुंच रहा था। युग बदलते चले गए। नस्लों में नस्लें मिक्स हो गईं। सबका ख़ून मिक्स हो गया। सबकी संस्कृतियां मिक्स हो गई। सबका साहित्य मिक्स हो गया। वह सत्य बाद के साहित्य में खो गया। तब उस साहित्य को संकलित करके उसकी संहिता बना दी गई।
वह सत्य क्या था?
वह सत्य विद्या थी, एक विशेष विद्या, अनुपम विद्या। उसी विशेष विद्या के विषय में ‘सा विद्या या विमुक्तये’ कहा गया है। वह सत्य अमृत था। 
उस खोए सत्य की खोज आज तक जारी है। 
‘जो ढूंढता है, वह पाता है।’ यह जगत का विधान है। ढूंढने वाले ढूंढते चले आ रहे आ रहे हैं और उन्हें सत्य मिलता आ रहा है।
वास्तव में सत्य मिटा नहीं था बल्कि खो गया था या यूं कहें कि सत्य तो हमारे सामने ही था लेकिन हम उसके लक्षण भूल गए थे। हम उसे पहचानने की क्षमता खो बैठे थे।
हमारी ‘श्रुति’ और ‘स्मृति’ आज हमारे पास है। सत्य को पहचानने में ये दोनों ही हमारी मदद कर रही हैं। पतित से पवित्र होने का हमारा सफ़र लगातार जारी है। चाहे हमें इसका पता हो या न हो।
हमारे गाय और हमारे घोड़े अब भी आगे बढ़ रहे हैं और उनके पीछे हम भी आगे बढ़ रहे हैं। अब हमारे गाय घोड़े भौतिक नहीं हैं और हमें भी देह के साथ सफ़र करने की ज़रूरत नहीं रही है। इसीलिए अब हमारा सफ़र ख़ुद हमें भी नज़र नहीं आ रहा है।
चरैवेति, ...चरैवेति. किसी ने कभी कहा था और हम आज भी चले ही जा रहे हैं।
मंज़िल ऐसे लोगों का ख़ुद बढ़कर स्वागत करती है। चलकर जाने वालों की तरफ़ ईश्वर दौड़कर आता है। अपनी शाखाओं को विस्तार देकर तीर्थराज स्वयं उनसे मिलने के लिए आता है। ईश्वर आ चुका है। हमारे गली मुहल्लों में मौजूद तीर्थराज की शाखाएं इसका प्रमाण हैं।
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इस कथा पर टिप्पणियां देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें-
http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/BUNIYAD/entry/truth

Tuesday, October 22, 2013

हज और क़ुरबानी के विषय में एक ज्ञानवर्धक लेख

आज पत्र-पत्रिकाओं के बारे में कहा जाता है कि उनमें अश्लीलता की भरमार होती है और अधिकतर पत्र-पत्रिकाओं के बारे में यह बात सही भी है। उनमें ग्लैमर के नाम पर अश्लीलता परोसी जाती है या फिर वे किसी न किसी राजनैतिक पार्टी का गुणगान करती रहती हैं। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में भी यही सब देखने में आ रहा है। इनके मालिक समाज में अपना क़द ऊंचा करने के लिए और अपने राजनैतिक आक़ाओं को ख़ुश रखने के लिए नैतिक मूल्यों को ध्वस्त करते चले जा रहे हैं।
इनके दरम्यान कुछ हिन्दी पत्र-पत्रिकाएं ऐसी भी देखने में आई हैं। जिन्होंने नीति और मर्यादा की अपने अपने हिसाब से रक्षा करने की कोशि की है।
हम अपने किशोरपने में पंडित श्रीराम आचार्य जी की पत्रिका अखण्ड ज्योति को इसीलिए पढ़ा करते थे कि उससे अच्छे गुणों की प्रेरणा भी मिलती थी और पुराने इतिहास की जानकारी भी।
विश्व एकता संदेश को भी हम इसीलिए पसंद करते थे कि जो बातें आम तौर पर किसी पत्रिका में पढ़ने के लिए नहीं मिलतीं। वे बातें उसमें मिल जाती थीं।
यह लेख उसी पाक्षिक पत्र से लेकर इस ब्लॉग पर पेश किया गया था। जिसे हमारे हिन्दी पाठकों ने बहुत सराहा है। इस लेख पर कुछ भाईयों ने सवाल भी किए हैं। जिनका उत्तर हमें मासिक कान्ति के ताज़ा अंक में हज के संबंध में छपे एक लेख में नज़र आया। यह लेख वास्तव में ही अच्छा और ज्ञानवर्धक आलेख है। आप भी देख सकते हैं।
हमें अपने ब्लॉग पर हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के बारे में भी जानकारी देते रहना चाहिए ताकि हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के बारे में हिन्दी पाठकों को जानकारी मिल सके और हिन्दी का प्रचार प्रसार हो सके। इस तरह अलग अलग समुदाय के लोग एक दूसरे की मान्यताओं और संस्कृतियों के बारे में भी जान सकेंगे और वे परस्पर एक दूसरे का सहयोग करते हुए एक मज़बूत भारत का निर्माण कर सकेंगे। आजकल हमारे ब्लॉग ‘बुनियाद’ पर क़ुरबानी और हज के विषय में चर्चा चल रही है। 
कान्ति मासिक हिन्दी साहित्य की एक ज्ञानवर्धक पत्रिका है। जो लोग इसे ऑनलाइन पढ़ना चाहें वे इसे ऑनलाइन पढ़ सकते हैं और पाठक इसकी नमूना प्रति मंगाना चाहें वे पत्रिका के ऑफ़िस में फ़ोन करके या पत्र लिखकर इसकी नमूना प्रति मुफ़्त मंगा सकते हैं। 
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Tuesday, October 15, 2013

क़ुरबानी, एक सनातन परम्परा kurbani aur haj

बक़रीद के अवसर पर हमारे सब पाठकों और ग़ैर पाठकों को बहुत बहुत शुभकामनाएं!
हमारे ब्लॉग के पाठक जानते ही हैं कि हमारे आदरणीय आर्यसमाजी भाई विजय कुमार सिंघल जी ने हमें वैदिक धर्म में वापस आने का न्यौता दिया था। इस पर हमने उनसे पूछा था कि
‘वैदिक धर्म में वापसी के लिए क्या किया जाता है?’
यह बातचीत अभी तक चल ही रही है।
इससे पहले वह हमसे
‘देश की शांति में बौद्धों और जैनियों के योगदान’ नामक पोस्ट पर भी चर्चा कर चुके हैं। हमारी दूसरी पोस्ट्स की तरह यह पोस्ट भी नवभारत टाइम्स के सुपर हिट पोस्ट और सबसे चर्चित पोस्ट का मक़ाम पा चुकी है। इस पोस्ट पर दिनांक 14 अक्तूबर 2013 को आदरणीय विजय कुमार सिंघल जी ने एक कमेंट करते हुए कहा है-
डा. जमाल साहब, यह देखलर खुशी होती है कि आपको जैन और बौद्ध धर्मों के प्रति इतना सम्मान है. अब कृपया इनके मुख्य सिद्धांत अहिंसा का पालन करे और कराएं. बकरीद पर लाखों बकरो की जान बख्शें. जो कुर्बानी करना चाहे कद्दू या लौकी की कुर्बानी करें. अगर हज़रत इब्राहीम की परम्परा का पूरी तरह पालन करना है तो अपने-अपने बेटे की कुर्बानी करें. इससे बाप-बेटे दोनों सीधे जन्नत में जायेंगे.
धन्यवाद.
इसके जवाब में हमने उनसे विनम्रतापूर्वक यह निवेदन किया है-
आदरणीय विजय जी! आप तो हमारे द्वारा दिया गया सत्यार्थप्रकाश का हवाला देखकर अपने ब्लॉग पर जैन मूर्तियों के तोड़े जाने और शंकराचार्य द्वारा जैन मंदिरों में वेदों की पाठशाला खोले जाने को सही भी ठहरा चुके हैं और उसे समाज सेवा भी बता चुके हैं।
आप जानते ही हैं कि शंकराचार्य वेदों में पशु की बलि का विधान मानते हैं। वे जैनियों के मंदिरों में पशुबलि का पाठ आज तक पढ़ाते आ रहे हैं और आप इसे समाज सेवा ठहरा ही चुके हैं। अब आप हमसे कह रहे हैं कि हम समाज सेवा न करें ?
यह क्या बात हुई कि शंकराचार्य तो जैन मंदिर को समाज सेवा के काम में लाएं और हम अपने घर को भी समाज सेवा के काम में न लाएं।
ग़रीब ज़रूरतमंद लोगों को आज रोटी की ही नहीं बल्कि उत्तम क्वालिटी के प्रोटीन की भी सख्त ज़रूरत है। यज्ञ में पशुबलि के माध्यम से हमारे ऋषियों ने लोगों की इसी आवश्यकता को पूरा करके बड़ी समाज सेवा की है। इस विषय में यजुर्वेद का 23वां व 24वां अध्याय पढ़ें।
आप भी समाज सेवा की यह रीत अपना लें तो अच्छा है।
शुभकामनाएं।
आदरणीय विजय सिंघल जी का कमेंट पढ़कर हम यह सोचते रहे कि अज्ञानता का कैसा घोर अन्धकार लोगों की बुद्धियों पर छा गया है कि ख़ुद तो धर्म की सनातन वैदिक परम्परा का पालन करते ही नहीं हैं और जो दूसरे लोग करते हैं तो उन पर वैसे ही व्यंग्य करते हैं जैसे कि पहले कभी बौद्ध, जैन और नास्तिक वैदिक यज्ञों पर करते थे। वेदों में आस्था रखने वालों कर्म नास्तिकों के समान होने का कारण केवल इतिहास और परम्परा से ही नहीं बल्कि वेदों से भी अन्जान होना है। विजय सिंघल जी का तख़ल्लुस ‘अन्जान’ ही है। सिर्फ़ आदरणीय विजय सिंघल साहब ही नहीं बल्कि उन जैसे करोड़ों लोग वेदों के सत्य से अन्जान हैं।
वे जान ही नहीं पाए कि ऋषि वास्तव में कितने महान हैं और उन्होंने कितनी महान ऋचाओं की रचना की है?
वेद की ऋचाओं में अद्भुत ज्ञान है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने आज यह पता लगाया है कि इनसान की हेल्थ के लिए बेलेंस्ड डाइट की ज़रूरत है और बेलेंस्ड डाइट में मुर्ग़ा-मछली आदि होना बहुत ज़रूरी है। प्रोटीन के महत्व को हमारे ऋषियों ने प्राचीन काल में ही जान लिया था। इस महान ज्ञान को वह वेदों में हमारे लिए छोड़कर गए हैं।
हमारे महान ऋषियों ने केवल मौखिक ज्ञान ही नहीं दिया बल्कि यज के रूप में एक ऐसी परम्परा भी दी। जिससे आर्यों का कल्याण हो। यज में होने वाली पशुबलि ने आर्यों को महान शक्ति से पूर्ण किया।
कालान्तर में यज के रूप बदलते चले गए और वे लगातार जटिल होते चले गए। इसी के साथ ब्राह्मण वर्ग का एकछत्र राज्य हो गया और वे निरंकुश हो गए। उनमें अच्छे ब्राह्मण भी थे लेकिन वे कम रह गए थे। बौद्ध, जैन और चारवाक आदि ने यज्ञों मे पशुबलि का विरोध किया और जनसमर्थन उनके पक्ष में हो गया। ब्राह्मणों को यज्ञ और पशुबलि बंद करनी पड़ी। धार्मिक रीति रिवाजों में हेर फेर का अंजाम यही होता है। जब तक धर्म की रीति को बिना हेर फेर के संपन्न किया जाता रहा, तब तक जनता यज और बलि के समर्थन में ही रही।
यजुर्वेद के 25वें अध्याय के मंत्रों में भी घोड़े की बलि का वर्णन है। इस अध्याय के पहले मंत्र में घोड़े के दांतों से शाद देवता को, दंतमूल से अवका देवता को, दांतों की पछाड़ियों से मृद देवता को, दाढ़ों से तेग देवता को, तालु से आवक्रन्द देवता को, जिव्हा के अग्र भाग द्वारा सरस्वती को व इसी प्रकार घोड़े के अलग अलग अंगों के द्वारा अलग अलग देवी-देवताओं को प्रसन्न करने की बात कही गई है।
यह पूरा अध्याय तो यहां लिखना संभव नहीं है। जिनके पास वेद हों, वे वेद में देख सकते हैं। एक मंत्र का अनुवाद यहां दिया जा रहा है-
‘वनिष्ठु से पूषा देवता को, स्थूल गुद से आंध्र सर्पों को, आंत से विह्रुत को, वस्ति से जल को, अण्ड से वृषण को, मेढ से वाजी को, वीर्य से अपत्य को पित्त से चाष देवता को, तृतीय भाग से प्रदरों को और शाकपिण्ड से कूष्मों को प्रसन्न करता हूं।’
-यजुर्वेद 25/7
यज की परम्परा को हज में आज भी देखा जा सकता है। मक्का में पशुओं की बलि बिना किसी बड़े तामझाम के ठीक वैसे ही दी जाती है जैसे कि आदिकाल में आर्य ऋषि वहां जाकर दिया करते थे। मक्का और काबा से आर्य जाति का बहुत पुराना संबंध है। हज में पशुबलि होती है और उसका मांस ग़रीब देशों को पैक करके भेज दिया जाता है।
बक़रीद के मौक़े पर भी जानवरों की क़ुरबानी होती है। क़ुरबानी का एक तिहाई गोश्त ग़रीब ज़रूरतमंदों को बांट दिया जाता है और एक तिहाई दोस्तों और रिश्तेदारों में और एक तिहाई अपने लिए रख लिया जाता है।
अब समय आ गया है कि वैदिक धर्म के लोग ऋषियों की प्राचीन परम्परा को प्राचीन रीति से ही मनाएं।
धर्म की प्राचीन परम्पराओं को प्राचीन रीति से ही मनाया जाए तो हिन्दू और मुसलमानों को एक होते देर नहीं लगेगी। इस एकता से उस महान शक्ति का उदय होगा, जिसकी कल्पना भी मुश्किल है। यह एकता केवल पशुओं की बलि से ही संभव नहीं है बल्कि इसके लिए हमें अपने अहंकार और अपनी पाश्विक प्रवृत्तियों का बलिदान करना होगा। पशुबलि का एक मक़सद यह भी है बल्कि यही मक़सद पशुबलि का सबसे बड़ा मक़सद है। अपने अहंकार और पशु प्रवृत्ति का दान करने वाला वास्तव में ही आत्म बलिदान करता है। ऐसा ही मनुष्य दुष्टों से धर्म और सत्य की रक्षा कर सकता है।
जिन लोगों ने इस बलिदान को हीन समझा और इसकी निन्दा की। वे अपने दुश्मनों से अपने राज्य की तो क्या अपनी भी रक्षा न कर पाए और सदा के लिए अपने दुश्मनों के ग़ुलाम बनकर रह गए। अपना सब कुछ लुटवा कर भी वे यह न समझ पाए कि अति हर चीज़ की बुरी होती है। अहिंसा की अति भी बुरी होती है। हिंसा के भी रचनात्मक प्रयोग समाज में देखे जा सकते हैं। हमें ध्यान रखना होगा कि अहिंसा कायरता न बन जाए और हिंसा ज़ुल्म न बन जाए।
यज मे पशुबलि के माध्यम से ऋषियों ने इस अति को संतुलित करके दिखाया है।
हर साल बक़रीद आती है। इस साल भी आई है। आईये इस बक़रीद के अवसर पर यह संकल्प लें कि हम धर्म और सत्य की रक्षा के लिए अपने हिंसा और अहिंसा भाव को पशुबलि अर्थात क़ुरबानी के ज़रिये वैसे ही संतुलित करेंगे जैसे कि हमारे पूर्वज ऋषि और पैग़म्बर किया करते थे।
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Rajk.hyd (hyderabad)
October 15,2013 at 11:25 AM IST
Silver: 4986
[1]बकरीद की किस बात की शुभकामनाये क्यापशु हत्या नाम पर खून खराबा की शुभकामनाये
[2] अगर पशु हत्या अच्छी होती तो मस्जिदो मे पशु हत्या क्यो नही करते मस्जिद भी पवित्र कहलाती है पशु हत्या भी इस्लाम मे पवित्र है फिर दो पवित्र काम मे इतना भेद भाव क्यो है
[3] मुस्लिम महिलाये व कन्याये भी तो [ ईमान वाली] मुस्लिमकहलाई जाती है,वह क्यो नही गाय भैंस बकरा ऊँट की कुर्बानी देने मे अगुवाई करती है सिर्फ मुस्लिम पुरुष ही हत्या जैसा कार्य करते है?
[4] मुस्लीमबंधु भी इस देश मे अल्पसंख्यक कहलाये जाते है और छोटी सांख्या वाले जैन समुदाय की भावनाओं का ख्याल रखते हुये,इस देश का मुस्लिम समुदाय क्यो नहीपशु हत्या बंद कर देते है ! एक ओर तो इस्लाम की यह "नारे बाजी" होतीहै की इस्लाम पड़ोसी का दिल मत दुखाओ कहताहै और दूसरी ओर शाकाहरियो के सामने पशुहत्या की जाती है ? जब आप यह कहते है की गरीब देशो मे एक तिहाई मांस भेजा जाता है तब क्यो नही बकरीद के नाम पर वही मांस आप सबमुस्लिम मंगवा लेते ? जब देवबन्द का फ़तवा गाय हत्या हिन्दू भावनाओ के विषय मे आ सकता है तब जैन समुदाय की भावनाओ का खयाल रखकर मुस्लिम समुदाय स्वता पशु हत्या बंद करके कर सकता है.
[5] कुरान की वह आयत बतलाये जिसमे मुस्लिमो को इब्राहीम जी की तरह पशु हत्या की बात कही गयी हो ![
[6] शंकराचार्य जी ने कब जैन मंदिरो मे पशु हत्या की बात की
[7] शंकराचार्य जी ने जैन मत का विरोध कियालेकिन यज्ञो मे पशुहत्या का कब समर्थन किया यह आप साबित करे!
[8] मनुस्मृति के धर्म के 10 लक्षणो मे पशु हत्या का विधान क्यो नही है.,जबकि आप सनातन धर्मका विधान पशु बलि बातला रहे है
[9] महर्षी पतंजलि जी ने भी अपने योगशास्त्र 2/30,32 मे यम नियम की बात की है उसमे अहिंसा का भी नियम है फिर सनातन धर्म मेहिंसा पशु बाकी किबात कैसे है ? आपका पक्ष मजबूत कैसे हुआ
[10] यजुर्वेद 25/7मे भी यज्ञो मे पशु बलि की बात कहाँ है?
[11] दुनिया की आर्थिक समस्या "रोटी" है , न की मांस? आज संसार मांस "भी" खाता है ,लेकिन रोटी को अनदेखा नही करसक्ता
[12] मांस अनाज से बहुत ज्यादा महंगा क्यो है ! कल्पित अल्लाह ने उसको सस्ता,सर्वसुलभ अनाज जैसा "अभी तक" क्यो नही किया?
[13] गरीब को रोटी की जरूरत है मांस की नही, प्रोटीन की नही, चाहे तो गरीबो मे सर्वे करवा लीजिये ! [जारी]
(Rajk.hyd को जवाब )- डा. अनवर जमाल
प्यारे भाई राज हैदराबादी जी!
1. धर्म की परम्परा आज भी अक्षुण्ण बनी हुई है। यह हर्ष का विषय है। इस बात की बधाई।
2. यह ज़रूरी नहीं है कि जिस काम को मस्जिद में न किया जा सके। वह धर्म का काम नहीं होता। मिसाल के तौर पर पति पत्नी आपस में रिश्ता क़ायम करते हैं। वे यह रिश्ता मस्जिद में क़ायम नहीं कर सकते लेकिन फिर भी उनका कर्म धर्म और पुण्य है।
3. मुस्लिम औरतें भी जानवर हलाल कर सकती हैं लेकिन उनकी ज़िम्मेदारी पकाने पर है। वे अपने काम में ज़्यादा बिज़ी रहती हैं।
4. मुसलमानों को बक़रीद अपने जैन भाईयों और शाकाहारी भाईयों की भावना का ध्यान रखत हुए ही मनाना चाहिए लेकिन दूसरे की भावना का ध्यान रखने का मतलब यह नहीं होता कि अपने रीति रिवाज को त्याग दिया जाए। दूसरों की भावना का ध्यान रखने का ऐसा मतलब तो जैन आचार्य भी नहीं मानते। जैन आचार्यों को पता है कि मुसलमानों में नंगे बदन घूमना अधर्म और पाप माना जाता है लेकिन इसके बावुजूद वे मुसलमानों मुहल्लों से नंगे बदन ही गुज़रते हैं। उन्होंने कभी यह नहीं किया कि वे मुसलमानों की भावना का ध्यान रखते हुए कपड़े पहनकर निकल जाया करते। देवबन्द के आलिमों ने गाय के बजाय दूसरे जानवर की क़ुरबानी करने के लिए कहा है न कि क़ुरबानी को पूरी तरह बन्द करने के लिए।
5. आप सूरा ए कौसर पढ़ लीजिए।
6. शंकराचार्य जी का वेदभाष्य पढ़ लीजिए। आपको पता चल जाएगा कि वह जैन मंदिरों को क़ब्ज़ाने के बाद क्या शिक्षा दिया करते थे।
7. शंकराचार्य जी वैदिक यज्ञों में पशुबलि का समर्थन करते थे। यह बात उनके वेद भाष्य से सिद्ध है। आप उसे पढ़ लीजिए।
8. आप मनुस्मृति के एक श्लोक पर ही क्यों अटक कर रह गए। मनुस्मृति के पांचवे अध्याय में पशुबलिक का विधान देखिए। आपको पूरा ब्यौरा मिल जाएगा।
9. योगशास्त्र की वही बात मानी जाएगी जो कि वेदानुकूल होगी। वैसे भी वेदानुसार की गई हिंसा वास्तव में अहिंसा ही होती है। ऐसा वेद विद्वानों ने कहा है कि वैदिकी हिंसा हिंसा न भवतिः
10. यजुर्वेद 25/7 का अनुवाद आपके सामने है। अगर आप इससे सहमत नहीं हैं तो आप बताईये कि इस मंत्र का सही अनुवाद आपकी नज़र में क्या है? बिना प्रमाण दिए दावा मत कीजिए कि इस मंत्र में पशुबलि नहीं है।
11. दुनिया की समस्या कुपोषण भी है और खाद्यान्न की कमी भी। रोटी के साथ मांस के कॉम्बिनेशन से ये दोनों समस्याएं हल करके हमारे ऋषि पहले ही दिखा चुके हैं।
12. अच्छी नीति के अभाव में मांस महंगा हो गया है और लोगों के पास धन का अभाव।
13. ग़रीबों को संतुलित आहार की और प्रोटीन की ज़रूरत नहीं है। इसे जानने के लिए किसी सर्वे की ज़रूरत नहीं है। संतुलित आहार की ज़रूरत सबको है।
आपका शुक्रिया!
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Friday, October 4, 2013

क्या वेद 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हज़ार साल से ज़्यादा पुराने हैं? Vedas

धरती पर मानव का आगमन कब हुआ?
स्वामी दयानंद जी ने सृष्टि का आदि 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 52 हज़ार 9 सौ 76 वर्ष पुराना बताया है और मनुस्मृति को सृष्टि के आदि में होना माना है।
ये दोनों ही बातें ग़लत हैं।
हमारी आकाशगंगा की आयु वैज्ञानिकों के अनुसार 13.2 अरब वर्ष से ज़्यादा है और इससे भी ज़्यादा आयु वाली आकाशगंगाएं सृष्टि में मौजूद हैं। धरती की उम्र भी लगभग 4.54 अरब वर्ष है। वैज्ञानिकों धरती पर 1 अरब वर्ष पहले तक भी किसी मानव सभ्यता का चिन्ह नहीं मिला।
देखिए वैज्ञानिक तथ्यों को प्रदर्षित करता एक चित्र, जिसमें वैज्ञानिकों ने दर्शाया गया है कि एक अरब छियानवे करोड़ वर्ष पहले धरती पर मनुष्य नहीं पाया जाता था।

 

स्वामी जी सृष्टि की उत्पत्ति का काल जानने में भी असफल रहे
‘चारों वेद सृष्टि के आदि में मिले।’ स्वामी जी ने बिना किसी प्रमाण के केवल यह कल्पना ही नहीं की बल्कि उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, अथ वेदोत्पत्तिविषयः, पृष्ठ 16 पर यह भी निश्चित कर दिया कि वेदों और जगत की उत्पत्ति को एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ष हो चुके हैं।
स्वामी जी इस काल गणना को बिल्कुल ठीक बताते हुए कहते हैं-
‘...आर्यों ने एक क्षण और निमेष से लेके एक वर्ष पर्यन्त भी काल की सूक्ष्म और स्थूल संज्ञा बांधी है।’ (ऋग्वेदादिभाष्य., पृष्ठ 17)
‘जो वार्षिक पंचांग बनते जाते हैं इनमें भी मिती से मिती बराबर लिखी चली आती है, इसको अन्यथा कोई नहीं कर सकता।’ (ऋग्वेदादिभाष्य., पृष्ठ 19)
यह बात सृष्टि विज्ञान के बिल्कुल विरूद्ध है।

स्वामी जी ज्योतिष के फलित को ग़लत और उसके गणित को सही माना है। वह ज्योतिष की काल गणना पर विश्वास करके धोखा गए। बाद के वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला कि जगत और मनुष्य की उत्पत्ति के विषय में आर्य ज्योतिषियों की काल गणना बिल्कुल ग़लत है। स्वामी जी कह रहे हैं कि आर्यों ने एक एक क्षण का हिसाब ठीक से सुरक्षित रखा है लेकिन हक़ीक़त यह है कि आर्यों ने सृष्टि की जो काल गणना की है, उसमें 11 अरब वर्ष से ज़्यादा की गड़बड़ है।
वेदों का काल जानने में भी असफल रहे स्वामी जी
सही जानकारी के अभाव में उन्होंने यह कल्पना कर ली कि चारों वेद परमेश्वर की वाणी हैं। परमेश्वर ने सृष्टि के आरंभ में एक एक ऋषि के अंतःकरण में एक एक वेद का प्रकाश किया। अपनी इस कल्पना की पुष्टि में उन्हें कोई प्रमाण न मिला। तब उन्होंने शतपथ ब्राह्मण से एक उद्धरण दिया और उसका अर्थ अपनी कल्पना से यह बनाया-
‘अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः।।शत.।।
प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक एक वेद का प्रकाश किया।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तमसमुल्लास, पृष्ठ 135)
इस श्लोक में ‘प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा द्वारा’ वेद देने की बात नहीं आई है। स्वामी जी ने अपनी कल्पना को इस श्लोक में आरोपित करके यह अर्थ निकाला है। इस श्लोक में चौथे ऋषि अंगिरा को एक वेद मिलने की बात नहीं आई है। यह भी स्वामी जी की कल्पना है।
जो बात इस श्लोक में कही गई है। वह स्वामी जी ने बताई नहीं। इस श्लोक में अग्नि का संबंध ऋग्वेद से, यजुर्वेद का संबंध वायु से और सामवेद का संबंध सूर्य से दर्शाया गया है। यह संबंध स्वामी जी ने अपने अनुवाद या भावार्थ में दर्शाया ही नहीं।
वेदों का सही अर्थ न जानने के कारण स्वामी दयानंद जी यह भी नहीं जान पाए कि वेदों की रचना कब और कैसे हुई ?
हमारा मक़सद स्वामी जी के कामों में कमियां निकालना नहीं है लेकिन हमें वास्तव में पता होना चाहिए कि वेदों की रचना किसने की, कब की और उनकी रचना करने वाले ऋषियों का इतिहास क्या था?

हमारी कोशिश का मक़सद
वेद किसी की बपौती नहीं हैं। वेद सबके हैं। हम वेदों का आदर करते हैं। हम महान सत्कर्मी ऋषियों का भी आदर करते हैं। हम स्वामी दयानन्द जी का भी अनादर नहीं करते। उनके प्रयास से वेद भारत में सबको सुलभ हुए। उनके इस काम की तारीफ़ होनी चाहिए लेकिन उन्होंने वेदों के बारे में जो कुछ समझ लिया है। वह सब सही नहीं है।
उन्हें वेदों के बारे में शोध करने का बहुत ज़्यादा समय भी नहीं मिल पाया। जो जानकारियां आज हमें उपलब्ध हैं। वह उन्हें अपने ज़माने में सुलभ नहीं थीं। उनकी मेहनत को सामने रखते हुए हमें भी अपने हिस्से की कोशिश ज़रूर करनी चाहिए। हमारी कोशिश का मक़सद यही है।
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क्या वेद 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हज़ार साल से ज़्यादा पुराने हैं?

Tuesday, October 1, 2013

क्या मनुस्मृति 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 52 हज़ार 9 सौ 76 वर्ष पुरानी है?

स्वयंभू मनु पहले मनुष्य हैं। सारी धरती पर बसने वाले मनुष्य उसी एक पिता की सन्तान हैं। उस पिता को मनु कहा जाता है। मनुष्य शब्द में मनु जी का नाम समाहित है। उनका नाम न आए तो मनुष्य अपनी पहचान भी न जान पाए। अंग्रज़ी में मनुष्य को मैन कहा जाता है। इसमें भी मनु के नाम के 3 अक्षर मौजूद हैं। हिब्रू और अरबी में उन्हें आदम कहा जाता है और उनकी औलाद को बनी आदम कहा जाता है। आदम नाम की धातु ‘आद्य’ संस्कृत में आज भी पाई जाती है। वास्तव में स्वयंभू मनु और आदम एक ही शख्सियत के दो नाम हैं।
संस्कृत में मनुस्मृति के नाम से उनकी शिक्षाओं का एक संकलन भी मिलता है लेकिन वास्तव में यह उनकी शिक्षाओं का संकलन नहीं है। यह जानने के लिए हमें इसके रचनाकाल पर विचार करना होगा।
स्वामी दयानन्द जी ने वेद की भांति मनुस्मृति को भी सृष्टि के आदि में हुआ माना है। सृष्टि के आदि विषय में स्वामी जी ने बताया है। जो कि ग़लत है।

¤ मनुस्मृति को एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ड्ढ पुराना मानना ग़लत है
‘यह मनुस्मृति जो सृष्टि के आदि में हुई है’ (सत्यार्थप्रकाश,एकादशसमुल्लास,पृ.187)

‘यह जो वर्त्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें (7) वैवस्त मनु का वर्त्तमान है, इससे पूर्व छः मन्वन्तर हो चुके हैं। स्वायम्भव 1, स्वारोचिष 2, औत्तमि 3, तामस 4, रैवत 5, चाक्षुष 6, ये छः तो बीत गए हैं और सातवां वैवस्वत वर्त्त रहा है.’ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, अथ वेदोत्पत्ति., पृ.17)

स्वामी जी ने बताया है कि एक मन्वन्तर में 71 चतुर्युगियां होती हैं। एक चतुर्युग में सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होते हैं। सतयुग में 1728000 वर्ष, त्रेता में 1296000 वर्ष, द्वापर में 864000 वर्ष और कलियुग में 432000 वर्ष होते हैं। इन चारों युगों में कुल 4320000 वर्ष होते हैं। 71 चतुर्युगियों में कुल 306720000 वर्ष होते हैं। छः मन्वन्तर अर्थात 1840320000 वर्ष पूरे बीत चुके हैं और अब सातवें मन्वन्तर की 28वीं चतुर्युगी चल रही है। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका लिखे जाते समय तक सातवें मन्वन्तर के भी 120532976 वर्ष बीत चुके थे। इस तरह स्वामी जी के अनुसार उस समय तक स्वयंभू मनु को हुए कुल 1960852976 वर्ष, एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख बावन हज़ार नौ सौ छहत्तर वर्ष बीत चुके थे।
स्वामी जी ने जो काल स्वयंभू मनु का बताया है, उस समय धरती पर मानव सभ्यता नहीं पाई जाती थी। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। इसलिए मनु स्मृति को स्वयंभू मनु से जोड़ना ग़लत है। उसमें जो श्लोक मनु के नाम से कहे गए हैं, वास्तव में उन्हें किसी और ने उनके नाम से लिखा है। मनु स्मृति का स्वयंभू मनु से कोई संबंध ही नहीं है। यही कारण है कि मनु स्मृति से स्वयंभू मनु के धर्म का पता लगाना संभव नहीं है। पाठक उससे जिस वर्ण व्यवस्था का पता लगाएंगे, उसका पालन करना संभव नहीं है।
हालाँकि स्वामी दयानंद जी ने मनु स्मृति को प्रक्षिप्त मानकर उसके कुछ श्लोकों को नहीं माना है लेकिन उन्होंने उसके जिन श्लोकों को मनु का समझ लिया। वे भी प्रक्षिप्त हैं और बाक़ी का भी कुछ पता नहीं है कि उन्हें कब और किसने लिखा है?
इस सत्य को न जानने के कारण ही स्वामी जी ने मनु स्मृति की वर्ण व्यवस्था को धर्म समझ लिया और वह उसमें बताई गई ऊँचनीच और छूतछात के नियमों का कड़ाई से पालन करते रहे। इसी प्रक्षिप्त मनु स्मृति के आधार पर वह मानते हैं कि धर्म के अनुसार दासीपुत्र को मंत्री नहीं बनाया जा सकता। इन बातों को वह ऋषियों का धर्म बताते हैं। अन्याय की बात को धर्म बताकर वह लोगों को ऋषियों की और उनके धर्म की निंदा करने का अवसर देते हैं। यह बात वह क्यों न समझ पाए कि ये बातें मनु स्मृति में क्षेपक हैं?
इन बातों को हटा दिया जाए तो वैदिक धर्म और इसलाम में कोई मूलभूत अन्तर शेष नहीं रह जाता।

हमारा मक़सद स्वामी दयानन्द जी की ग़लती पकड़ना नहीं है बल्कि यह बताना है कि हम सबके आदि पिता के नाम से जो ग्रन्थ मशहूर है। उसमें उनके द्वारा कहे गए श्लोक नहीं हैं। उसमें कही गई बातों की ज़िम्मेदारी स्वयंभू मनु पर आयद नहीं होती।
दलित-वंचित बन्धु इस तथ्य पर दूसरों से ज़्यादा ध्यान देने की कृपा करें। अज्ञान के कारण अपने आदि पिता को अपमानजनक शब्द कहने से बचें और तलाश करें कि उनके नाम से मनुस्मृति किन लोगों ने किस काल में लिखी है?
सवर्ण भाईयों से विनती है कि वे हमारे इस प्रयास में हमारी मदद करें ताकि मनु का शुद्ध धर्म मानव जाति के सामने आ सके। उसी के पालन में हम सबका कल्याण और उद्धार है।
धर्म और अध्यात्म के नाम पर दुकानदारी और पाखण्ड अब ख़त्म होना ही चाहिए।
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इस पोस्ट पर विचार विमर्श देखने के लिए आप हमारा ब्लॉग ‘बुनियाद’ पर तशरीफ़ लाने की मेहरबानी करें।

Monday, August 19, 2013

मुसलमान की पहचान क्या है ?

मुस्लिम का अर्थ है ईश्वर के प्रति समर्पित और उसकी आज्ञा का पालन करने वाला.
इस बात को हम अपने लेख में बता चुके हैं.
जो लोग ईश्वर की आज्ञा के बजाय अपने मन की करते हैं. वे चाहे ख़ुद को मुसलमान कह लें लेकिन हकीक़त में वे अवज्ञाकारी होते हैं.
ईश्वर के आदेश पर चलने के लिए अपने निजी एजेंडे छोड़ने पड़ते हैं. मुसलमान बादशाहों की लड़ाईयां उनके अपने निजी एजेंडों के लिए होती थीं. इसके बावुजूद उन्हॊने भारत पर राज किया तो केवल इसलिए कि अपने निजी एजेंडे के लिए यहाँ के हिन्दू राजाओं ने उन्हें न्यौता भी दिया और उनकी मदद से अपने दुश्मन हिन्दू राजाओं को मारा भी.
धर्म के आदेश की अनदेखी हिन्दू राजाओं ने भी की और मुस्लिम बादशाहों ने भी.
अब समय आ गया है कि हर आदमी अपने निजी एजेंडे को त्याग कर ख़ुद को एक ईश्वर के प्रति समर्पित कर दे. समर्पण से ही शांति आएगी.
लोगों की भलाई शांति में है। आज ऐसे लोगों की सख्त ज़रूरत है जो कि सबकी भलाई के लिए काम कर सकें। सबकी भलाई के लिए काम करने वाले आज कम हैं। अक्सर लोग सिर्फ़ अपनी भलाई के लिए काम कर रहे हैं।
वंदे मातरम कहने वाला एक मूर्तिपूजक अपने ही जैसे दूसरे वंदे मातरम गायक से चक्रवृद्धि ब्याज ले रहा है। तौहीद का नारा अल्लाहु अकबर बुलंद करने वाला एक मुसलमान अपनी ही बेटियों को शरीयत के मुताबिक़ अपनी जायदाद में हिस्सा नहीं दे रहा है। हक़ मारना आम बात है। एक ही राजनैतिक दल में मूर्तिपूजक, तौहीद के अलम्बरदार और नास्तिक सब मिल जाएंगे। सब के उसूल अलग अलग हैं लेकिन सब एक झूठे और खुदग़र्ज़ नेता की जय-जयकार करते मिल जाएंगे। इनका निजी मतलब जिससे सिद्ध हो रहा होगा, ये उसके पीछे चल रहे होंगे। अपने दीन-धर्म और अपनी विचारधारा से इन्हें कोई रिश्ता कम ही है।
मूर्तिपूजक और नास्तिक अपने मन की इच्छा के अनुसार करने के लिए आज़ाद हैं लेकिन एक मुसलमान नहीं। उसके लिए उसूलों की पाबंदी लाज़िम है। उसके लिए मन की वासना के पीछे भटकते रहने की कोई गुंजाइश नहीं है। उसे उसी रास्ते पर चलना है, जो कि उसके दयालु पालनहार ने मुक़र्रर कर दिया है। पैग़म्बर मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का जीवन उसका अमली नमूना अर्थात व्यवहारिक आदर्श है।
आज इंसान इस व्यवहारिक आदर्श की जितनी अनदेखी कर रहा है, उतना ही ज़्यादा परेशान है। मुसलमानों की परेशानी का सबब भी यही है।
ये परेशान मुसलमान ही दूसरों को परेशान कर रहे हैं। इसलाम के दुश्मन इन्हें सामने दिखाकर कहते हैं कि देखो, मुसलमान लूटमार और ख़ून-ख़राबा कर रहे हैं।
इस तरह वे लोगों को यह दिखाना चाहते हैं कि अगर हम ब्याज लेकर लोगों का ख़ून चूस रहे हैं तो चुपचाप अपना ख़ून चुसवाते रहो। हमारी सरकार बनवाते रहो। अगर तुम इधर उधर मुक्ति पाने के लिए मुसलमान बनोगे तो किसी मुसलमान के हाथों ही मारे जाओगे। जैसे हम हैं वैसे ही मुसलमान भी हैं। तुम्हें दो बुरों में से एक चुनना ही है तो अपने राष्ट्रवादी भाई को चुनो। अपना शोषण हमसे करवाओ और गर्व करते रहो।
...लेकिन लोग बेवक़ूफ़ नहीं हैं। वे जानते हैं कि इसलाम में नाजायज़ माल कमाना और गाली देना तक हराम है तो फिर मुसलमान लूटमार और ख़ून-ख़राबा कैसे कर सकता है ?
ये बुरे काम वही लोग करते हैं जो इसलाम के सीधे रास्ते से हटकर चल रहे हैं जैसे कि दूसरे चल रहे हैं। ऐसे लोग इसलाम का इस्तेमाल अपने संकीर्ण राजनैतिक हित के लिए करने के लिए मुसलमानों में फूट डाल कर उन्हें आपस में लड़ाने से भी बाज़ नहीं आते।
आम जनता के जज़्बाती नौजवान इन्हें पहचान नहीं पाते। ख़ुद मुसलमान तक इनसे धोखा खा जाते हैं। कई बार ये मौलवी और पीर तक बनकर लोगों को गुमराह कर देते हैं। इनकी पहचान बस यही है कि ये कभी सामूहिक भलाई के लिए अपना माल ख़र्च नहीं करते। ये मुसलमानों से माल बटोरकर अपना घर भरते रहते हैं। ग़ैर-मुस्लिमों से माल मिल जाए तो ये उसके समर्थन में भी खड़े हो जाते हैं। मुसलमानों का ख़ून बहाने वाले इसलाम दुश्मनों के हक़ में भी ये वोट देने की अपील कर देते हैं। उनकी पार्टी के प्रवक्ता भी ये बन जाते हैं। उन्हें ऐसा करते देखकर इसलाम दुश्मन उन्हें अपना दामाद तक बना लेते हैं।
आज मुसलमानों में इस तरह के लोग अपनी लीडरी ख़ूब चमका रहे हैं। ऐसे लोगों से एक सच्चा मुस्लिम बिल्कुल अलग चरित्र रखता है। वह सबकी भलाई के लिए दुआ करता है और सबकी भलाई के लिए अपना माल ख़र्च करता है और बहुत बार वह इसी मक़सद के लिए अपनी जान भी क़ुरबान कर देता है। जिन्हें सीधे-सच्चे रास्ते की तलाश है, वह ऐसे ही लोगों के जीवन से प्रेरणा लेता है और जो इनसे प्रेरणा नहीं लेता, वह ख़ुद को ख़ुद ही बहकाता रहता है और अपने रब के हुक्म के खि़लाफ़ करता हुआ इंसानियत का मुजरिम बनकर मर जाता है।
इस जीवन का बहरहाल अंत है और जीवन अनन्त है। आज इन्हें मरने के बाद मिलने वाला स्वर्ग-नर्क कल्पना लग रहा है लेकिन मरने के बाद वह इनके लिए हक़ीक़त बन जाएगा। जिस रब की दुनिया में इंसान रह रहा है, उसके खि़लाफ़ बग़ावत करना अक्लमंदी नहीं है।
मुस्लिम से तात्पर्य एक अक्लमंद पर्सनॅलिटी से है जो कि उस रब का हुक्म मानता है और जो नहीं मानते, उनसे उसका हुक्म मानने के लिए कहता रहता है।
अपने इसी अमल से वह सबके बीच पहचान लिया जाता है।

Tuesday, June 11, 2013

सच्चे ईमान या सच्ची आस्था का मूल लक्षण क्या है ? astha

इंसान को जीने के लिए कुछ नियमों की ज़रूरत हमेशा से रही है. मनुष्य के रचयिता ने उसे ये नियम दिए भी हैं. इश्वर के दिए नियमों का पालन करना ही धर्म है और उन्हें छोड़ना या उनमें अपने स्वार्थ के लिए हेर फेर करना अधर्म है.
ऐसा हरेक धर्म के महापुरुषों ने कहा है. सबने यही कहा है कि तुम धर्म का पालन करने वाले सत्पुरुषों का अनुसरण करो. यही आस्तिकता की पहचान है. 
आज दुनिया में बहुत से धर्म नज़र आते हैं. हरेक धर्म वाले को अपना धर्म प्यार है. ऐसा होना स्वाभाविक है. जिसे जो धर्म प्यारा है, उसे उस धर्म पर चलना भी चाहिए. 


आज हो यह रहा है कि आदमी अपने धर्म की महानता के नारे लगा है और चल रहा है दूसरे धर्म की शिक्षा पर क्योंकि आज वह अपने धर्म पर चलकर रोज़ी रोटी नहीं कमा सकता या कुछ अन्य कारण भी हो सकते हैं.
अपने धर्म को महान और सत्य मानना और उस धर्म को और उसके संस्कारों को लगातार त्यागते चले जाना ईमान या आस्था नहीं कहलाता. यह बे-ईमानी या अनास्था है.
जो जिस धर्म में आस्था रखे वह उस धर्म के मूलभूत नियमों का पालन भी करे. 
इस देश में हरेक को अपने धर्म का पालन की आज़ादी भी है. धर्म का पालन करने वाले कम लोग हैं . वे किसी से नाहक़ कभी नहीं लड़ते. जो लड़ते हैं उनके अपने दर्शन हैं या राजनैतिक स्वार्थ हैं. दुनिया में इन्हीं लोगों ने आतंकवाद को जन्म दिया है. इन्होने ही आधुनिक हथियार बनाए, इन्होंने ही राजनैतिक हत्याएं की हैं और भारत के आतंकवादियों को भी इन्होंने ही राजनैतिक शरण दी है. ये ताक़तवर  देशों का एक समूह है. आतंकवादियों को इन्होंने ही हथियार, धन और प्रशिक्षण दिया है और उनका इस्तेमाल करके अपने एक मज़बूत विरोधी का नाश कर दिया है.
...लेकिन अभी उसका मिशन ओवर नहीं हुआ है. देशों  की सरकारें उनकी पसंद की ही बनती हैं. वे उनके आर्थिक व सामरिक हितों का पोषण करती हैं. जो सरकारें ऐसा नहीं करतीं , वे स्थिर नहीं रह पातीं या उन पर किसी बहाने से पाबंदियां लगा दी जाती हैं. यही इंसानियत के दुश्मन हैं. इन्हें नास्तिक भी पहचानते हैं क्योंकि अक्ल उसके पास भी होती है.
दुनिया में आज आतंकवादियों का या आतंकवाद फैलाने वाले देशों का आक़ा कौन है , इस बात को सिर्फ़ वही नहीं जानता , जो कि अक़्ल से बिलकुल कोरा है.
आदमी अक़्ल से कोरा नहीं होता लेकिन अक्सर किसी आदमी या समुदाय की नफरत उसे अक़्ल का अँधा बना देती है, तब उसे वह सच नज़र नहीं आता जिसे सारी दुनिया जानती है.
दुनिया में झगड़ों और युधों का कारण अक्सर आर्थिक या राजनैतिक प्रभुत्व पाना होता है लेकिन उसे धर्म या राष्ट्रवाद या कोई और शीर्षक दे दिया जाता है.
धर्म किसी पर हमला करने के लिए नहीं कहता. जिसे जिस धर्म में आस्था है, वह उस धर्म का पालन करे और दूसरों को भी उन्हें अपने धर्म का पालन करने दे. 
इस्लाम यही कहता है. 
धर्म पर सच्चा ही चलेगा. 
झूठ चल ही नहीं सकता क्योंकि झूठ के पाँव नहीं होते.
नास्तिक भी धर्म के ही नियमों पर आधा अधुरा चलकर अपनी ज़िन्दगी गुज़ार पाते हैं. अपनी बात पर वे खुद चले होते तो उनके घर से मान और बेटी के रिश्तों की पवित्रता कब की ख़तम हो चुकी होती. आस्था की तरह नास्तिकता के अक्सर दावे भी झूठे हैं. जब विकारों को धर्म समझ लिया जाए तो धर्म पर ऐतराज़ होने लगते हैं. ऐसे ऐतराज़ करने वाले खुद संशय में पड़े हुए होते हैं. जिसे शक है वह किसी राह पर एक क़दम आगे नहीं बढ़ा सकता.
सबसे पहले आदमी अपने शक को दूर करे. जब शक दूर हो जाएगा तो वह सच्चे धर्म को ही अपना धर्म बनाएगा . तब वह जिस धर्म की जय जयकार करेगा , उस धर्म का पालन भी करेगा. सच्चे ईमान या सच्ची आस्था का यह मूल लक्षण है. ऐसे ईमान वाले बन्दे या आस्तिक सबके भले के लिए काम करते हैं. वास्तव में परोपकार ही धर्म है. ऐसे परोपकारी बन्दे कम हैं , इसीलिए समाज में लालच और खुदगर्ज़ी बहुत है और इनसे पैदा होने वाली खराबियों ने पूरे समाज को तबाह कर दिया है.
धर्म की सही समझ और उस पर सही सही अमल करना ही हमारी समस्याओं का सच्चा समाधान है. 

Sunday, March 10, 2013

कबीर दास परमेश्वर के दास थे, परमेश्वर नहीं थे Kabeer ke Dohe

भारत में अपने अपने गुरूओं को ईश्वर घोषित करने वालों की एक बहुत बड़ी तादाद है। उनमें एक नाम श्री रामपाल जी का भी है। वे कबीरपंथी हैं और उन्हें जगतगुरू कहा जा रहा है। जगतगुरू के अज्ञान की हालत यह है कि उन्हें अपने गुरू का पूरा नाम और उसका अर्थ भी पता नहीं है।
शॉर्ट में जिस हस्ती को कबीर कह दिया जाता है। उसका पूरा नाम कबीर दास है। कबीर अरबी में परमेश्वर का एक गुणवाचक नाम है जिसका अर्थ ‘बड़ा‘ है। दास शब्द हिन्दी का है, जिसका अर्थ ग़ुलाम है। कबीर दास नाम का अर्थ हुआ, ‘बड़े का दास‘ अर्थात ईश्वर का दास। कबीर दास ख़ुद को ज़िंदगी भर परमेश्वर का दास बताते रहे और लोगों ने उन्हें परमेश्वर घोषित कर दिया। श्री रामपाल जी भी यही कर रहे हैं। जिसे अपने गुरू के ही पूरे नाम का पता न हो, उसे परमेश्वर का और उसकी भक्ति का क्या पता होगा ?
...लेकिन यह भारत है। यहां ऐसे लोगों की भारी भीड़ है। अज्ञानी लोग जगतगुरू बनकर दुनिया को भरमा रहे हैं। अगर कबीरपंथी भाई कबीर दास जी के पूरे नाम पर भी ठीक तरह ध्यान दे लें तो वे समझ लेंगे कि कबीर दास परमेश्वर नहीं हैं, जैसा कि अज्ञानी गुरू उन्हें बता रहे हैं। 
परमेश्वर से जुदा होने और उसका दास होने की हक़ीक़त स्वयं कबीर दास जी ने कितने ही दोहों में खोलकर भी बताई है। कबीर दोहावली में यह सब देखा जा सकता है। उनका पूरा नाम उनके मुख से ही सुन लीजिए-
माया मरी न मन मरा, मर मर गए शरीर।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर।।

वह स्वयं परमेश्वर से प्रार्थना भी करते थे। वह कहते हैं कि 
साई इतना दीजिये जा मे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूं साधु भी भूखा न जाय।।

एक दूसरी प्रार्थना में उनके भाव देख लीजिए-
मैं अपराधी जन्म का, नख सिख भरा विकार।
तुम दाता दुख भंजना, मेरी करो सम्हार।।

कबीर दास जी रात में उठकर भी भगवान का भजन करते थे-
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान।
जम जब घर ले जाएंगे, पड़ी रहेगी म्यान।।

भजन में भी वे अपना नाम न लेकर राम का नाम लेते थे-
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट।
पाछे फिर पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट।।

राम के सामने कबीर दास जी अपनी हैसियत बताते हुए कहते हैं कि मेरे गले में राम की रस्सी बंधी है। वह जिधर खींचता है, मुझे उधर ही जाना पड़ता है अर्थात अपने ऊपर मेरा स्वयं का अधिकार नहीं है बल्कि राम का है।
कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउँ।
गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ।।

राम नाम का ज्ञान भी उन्हें स्वयं से न था बल्कि यह ज्ञान उन्हें अपने गुरू से मिला था-
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरू आपनो, गोविंद दियो बताय।।
इसमें कबीर दास जी स्वयं कह रहे हैं कि जब तक उनके गुरू ने उन्हें परमेश्वर के बारे में नहीं बताया था, तब तक उन्हें परमेश्वर का ज्ञान नहीं हुआ था।
क्या यह संभव है कि परमेश्वर को कोई दूसरा बताए कि परमेश्वर कौन है ?

कबीर दास जी कहते हैं कि अगर सतगुरू की कृपा न होती तो वे भी पत्थर की पूजा कर रहे होते-
हम भी पाहन पूजते होते, बन के रोझ।
सतगुरू की किरपा भई, सिर तैं उतरय्या बोझ।।
क्या यह संभव है कि अगर परमेश्वर को सतगुरू न मिले तो वह भी अज्ञानियों की तरह पत्थर की पूजा करता रहे ?

कबीर दास जी अपने गुरू के बारे में अपना अनुभव बताते हैं कि
बलिहारी गुरू आपनो, घड़ी सौ सौ बार।
मानुष से देवत किया, करत न लागी बार।।

कबीर दास जी की नज़र में परमेश्वर से भी बड़ा स्थान गुरू का है-
कबीर ते नर अन्ध हैं, गुरू को कहते और।
हरि रूठै गुरू ठौर है, गुरू रूठै नहीं ठौर।।

परमेश्वर और कबीर एक दूसरे से अलग वुजूद रखते हैं। उनके आराध्य राम उन्हें बैकुंठ अर्थात स्वर्ग में आने का बुलावा भेजते हैं तो वह रोने लगते हैं। उन्हें बैकुंठ से ज़्यादा सुख साधुओं की संगत में मिलता है। देखिए-
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख साधु संग में, सो बैकुंठ न होय।।

कबीर दास जी के इतने साफ़ बताने के बाद भी लोग उनकी बात उनके जीवन में भी नहीं समझते थे । उनके मरने के बाद भी लोगों ने उनसे उल्टा चलना नहीं छोड़ा। देखिए वह कहते हैं कि 
समझाय समझे नहीं, पर के साथ बिकाय।
मैं खींचत हूं आपके, तू चला जमपुर जाय।।

Wednesday, February 27, 2013

Adhyatm सच्चा गुरू कौन है और उसे कैसे पहचानें ? भाग 2

से आगे पढ़ें और आगे बढें .
ज्ञान से त्याग उत्पन्न होता है लेकिन किस चीज़ का और कितना त्याग ?

हरेक गुरू ने अलग अलग चीज़ों का त्याग करना बताया और उनका स्तर भी अलग अलग ही बताया।
इनमें से किसने ठीक बताया है ?,
यह भी एक प्रश्न है।
जितने लोगों को आज गुरू माना जाता है। वे ख़ुद जीवन भर दुखी रहे और जिसने भी उनके रास्ते पर चलने की कोशिश की उस पर भी दुख का पहाड़ टूट पड़ा। बुरे लोगों ने गुरू और उनके शिष्यों को ख़ूब सताया। बुरे लोगों ने गुरूओं और उनके शिष्यों के प्राण तक लिए हैं। अच्छे लोगों ने संसार का त्याग किया तो बुरे लोगों ने संसार पर राज्य किया। इस तरह संसार का त्याग करने वाले बुरे लोगों के रास्ते से ख़ुद ही हट गए और बुरे लोगों ने समाज का डटकर शोषण किया। संसार का त्याग करने से न तो अपना दुख नष्ट हुआ और न ही समाज का।  
यह और बात है कि किसी ने अपने अहसास को ही ख़त्म कर लिया हो। उसकी बेटी विधवा हुई हो तो वह रोया न हो। उसने अपनी बेटी के दुख को अपने अंदर महसूस ही न किया हो कि उसकी बेटी पर क्या दुख गुज़रा है ? 
उसके घर में कोई जन्मा हो तो वह ख़ुश न हुआ हो। उसके घर में कोई मर भी जाए तो वह दुखी न होगा। उसका मन संवेदना जो खो चुका है। वह अपने मन में ख़ुशी और दुख के हरेक अहसास को महसूस करना बंद कर चुका है। उसमें और एक पत्थर में कोई फ़र्क़ नहीं बचा है। अब वह एक चलते फिरते पत्थर में बदल चुका है। ऐसे लोग परिवार छोड़ कर चले जाते हैं या परिवार में रहते भी हैं तो उनकी मनोदशा असामान्य बनी रहती है।
जब तक हमारी खाल तंदरूस्त है, वह ठंडक और गर्मी को महसूस करती है। उसके ऐसा करने से हमें दुख अनुभव होता है। वह ऐसा करना बंद कर दे। हममें से यह कोई भी न चाहेगा क्योंकि इसका मतलब है रोगी हो जाना लेकिन दिल को सुख दुख का अहसास बंद हो जाए, इसके लिए लोगों ने ज़बर्दस्त साधनाएं कीं। जो विफल रहे वे तो नाकाम ही रहे और जिनकी साधना सफल हुई, वे उनसे भी ज़्यादा नाकाम रहे। उनके दिल से सुख दुख का अहसास जाता रहा।
सुख दुख का अहसास है तो आप चंगे हैं। दुख मिटाने की कोशिश में आपका दिल संवेदना खो देगा। तब आप न ख़ुशी में ख़ुश होंगे और न दुख में दुखी होंगे। आप समझेंगे कि मुझे ‘सम‘ अवस्था प्राप्त हो गई है लेकिन हक़ीक़त में मानवीय संवेदना की स्थिति जो आपको प्राप्त थी, आपने उसे खो दिया है।
इच्छा, कामना, तृष्णा और संबंध दुख देते हैं तो दें। इन्हें छोड़कर दुख से मुक्ति मिलती है तो उस मुक्ति का अचार डालना है क्या ?
हम किसी के उपयोग के न बचें, जगत की किसी वस्तु का हम उपयोग न करें और अगर करें तो उसमें लिप्त न हों। 
इस सबका लाभ क्या है ?
दुख से मुक्ति ?
वह संभव नहीं है।
कोई बुरा आदमी हमें न भी सताए, तब भी औरत बच्चे को जन्म देगी तो उसे दुख अवश्य होगा। दुख हमेशा हमारे कर्म में लिप्त होने से ही उत्पन्न नहीं होता। दुख हमारे जीवन का अंग है। परमेश्वर ने हमारे जीवन को ऐसा ही डिज़ायन किया है।
परमेश्वर ने हमारे जीवन को ऐसा क्यों बनाया है ?
परमेश्वर हमें न बताए तो हम इस सत्य को जान नहीं सकते। जीवन के सत्य को जानने के लिए हमें परमेश्वर की ज़रूरत है क्योंकि सत्य का ज्ञान केवल उसी सर्वज्ञ को है। मनुष्य का गुरू वास्तव में सदा से वही है।

सच्चा गुरू वह है जो जीने की राह दिखाता है। सच्चा गुरू आपको इसी समाज में जीना सिखाएगा। वह आपको पत्नी और परिवार के प्रति संबंधों का निर्वाह सिखाएगा। परिवार को छोड़कर भागना वह न सिखाएगा। सन्यास को वह वर्जित बताएगा। वह आपको जज़्बात में जीना सिखाएगा। वह आपके दिल की सेहत को और बढ़ाएगा। वह सुख और दुख को महसूस करना और उस पर सही प्रतिक्रिया देना सिखाएगा। वह आपको काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ने के लिए नहीं कहेगा। वह इनका सकारात्मक उपयोग सिखाएगा। ज़हर का इस्तेमाल दवा के रूप में भी होता है। वह हमें अपने दुखों की चिंता छोड़कर दूसरों के दुख में काम आना सिखाएगा। वह अपनी वाणी में यह सब विस्तार से बताएगा। अपनी वाणी के साथ वह उसके अनुसार व्यवहार करने वाले एक मनुष्य को भी लोगों का आदर्श बनाएगा ताकि लोग जान लें कि क्या करना है और कैसे करना है ?
परमेश्वर अपने ज्ञान के कारण स्वयं गुरू है और आदर्श मनुष्य उसके ज्ञान के कारण और उसके द्वारा चुने जाने के कारण गुरू है। लोग ईश्वर की वाणी को भी परख सकते हैं और उसके द्वारा घोषित आदर्श व्यक्ति को भी। परमेश्वर के कर्म भी हमारे सामने हैं और आदर्श मनष्य के कर्म भी। प्रकृति ओर इतिहास दोनों हमारे सामने हैं। 
सच्चे गुरू को पाना बहुत आसान है लेकिन उसके लिए पक्षपात और पूर्वाग्रह छोड़ना पड़ेगा। दुनिया में जितने लोगों ने मनुष्य को जीवन का मक़सद और उसे पाने का तरीक़ा बताया है। आप उन सबके कामों पर नज़र डालिए और देखिए कि 
1. वे ख़ुद समाज के कमज़ोर और दुखी लोगों के दुख में काम कैसे आए और कितना आए ?
2. और उन्होंने एक इंसान को दूसरे इंसान के काम आने के लिए क्या सिखाया ?
3. और उन्होंने अपने बीवी-बच्चों की देखभाल का हक़ कैसे अदा किया ?

उनमें से जिसने यह काम सबसे बेहतर तरीक़े से किया होगा, उसने अपने अनुयायियों का साथ एक दोस्त की तरह ही दिया होगा और उनके भीतर छिपी समझ को भी उन्होंने जगाया होगा और तब उनके दिल की गहराईयों में जो घटित हुआ होगा, उसे बेशक आत्मबोध कहा जा सकता है। आत्मबोध से आपको अपने कर्तव्यों का बोध होगा और उन्हें करने की भरपूर ऊर्जा मिलेगी। उन कर्तव्यों के पूरा होने से आपके परिवार और समाज का भला होगा। किसी के कर्म देखकर ही उसके मन की गहराईयों के विचारों को जाना जा सकता है कि उसके मन में सचमुच ही ‘आत्मबोध‘ घट चुका है।
इसी के बाद आदमी को ज्ञान होता है कि किस चीज़ को कितना और कैसे त्यागना है और क्यों त्यागना है ?
और किस चीज़ को कितना और कैसे भोगना है और क्यों भोगना है ?
जगत का उपभोग यही कर पाते हैं और यह जगत बना भी इसीलिए है। दुनियावी जीवन को सार्थक करने वाले यही लोग हैं। यही लोग सीधे रास्ते पर हैं और यही लोग सफलता पाने वाले हैं।

Tuesday, February 26, 2013

सच्चा गुरू कौन है और उसे कैसे पहचानें ? Spirituallity

यह एक प्रश्न है जिस पर हमेशा ही विचार किया गया है। आदरणीय चैतन्य नागर जी ने अपने एक लेख ‘धार्मिक सर्कस में गुरूओं का तांडव‘ में भी यही प्रश्न उठाया है। उनके लेख को पढ़कर यह जाना जा सकता है कि आज ख़ास व आम हरेक आदमी धर्म, मत और संप्रदायों के गुरूओं के कारण कितना ज़्यादा चकराया हुआ है।  आदरणीय चैतन्य नागर जी कहते हैं कि
अलग-अलग धर्मों, सिद्धान्तों, मतों, विचारों, सम्प्रदायों के कई रंगरूप और मुद्राओं वाले गुरु चैबिसों घंटे अपनी बातें दोहराते आपको दिख जाएंगे। धर्म में रुचि रखने वाला कोई व्यक्ति यदि इन सभी गुरुओं की बातों पर गौर करे तो उसके मन में शंका, भ्रम और प्रश्नों का जो बवंडर उठ खड़ा होगा उसे सम्भाल पाना उसके लिए मुश्किल हो जाएगा। यहां किसी विशेष संप्रदाय, धर्म या मत से जुड़े किसी गुरु, व्यक्ति या अनुयायी के बारे कोई टिप्पणी नहीं की जा रही है। सिर्फ आध्यात्मिकता के वर्तमान स्वरूप, उसके अर्थ और उससे जुड़े लोगों की मानसिकता के बारे में  कुछ सवाल किए जा रहे हैं। ऐसे सवाल जो हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक और धार्मिक जीवन से जुड़े हैं। 

कई प्रश्न हैं: गुरु और शिष्य के बीच विभाजन और दूरी का आधार क्या है? शास्त्रों का ज्ञान? कोई अतीन्द्रिय ताकत? कोई चमत्कार? क्या शास्त्रों को पढ़कर और उनकी व्याख्या करके कोई व्यक्ति गुरु बन सकता है? आप कैसे पता करेंगे कि कोई व्यक्ति वास्तव में गुरु बनने के योग्य है? उसके अनुयायियों की संख्या के आधार पर या फिर इस उम्मीद से कि शायद उसके पास सत्य की कुंजी होगी? यदि आप यह जानते हैं कि किसी व्यक्ति के पास सत्य है तो फिर इसका अर्थ यह हुआ कि आपको भी पता है कि सत्य क्या है। और जब आप यह जानते ही हैं कि सत्य क्या है तो फिर किसी गुरु शरण में जाने की आपको जरूरत ही क्या है ? 
आदरणीय नागर जी केवल प्रश्न ही खड़ा नहीं करते बल्कि उसका जवाब भी सुझाते हैं। वह कहते हैं कि 


हमारी इस प्रवृत्ति का शोषण करने वाले कई लोग है जो हमारे और सत्य के बीच एजेंट होने का दावा करते हैं। हम सीधे खुद को समझने की कोशिश करने के बजाए किसी आसान शॉर्टकट में ज्यादा रुचि रखते हैं। 
मेरे विचार से सही गुरु वह है जो दोस्त की तरह आपका हाथ थामे आपसे बतचीत करे और आपके भीतर छिपी हुई समझ को जगाने की कोशिश करे। आत्मबोध की यात्रा पूरी तरह से एक ऐसी यात्रा है जो हमारे मन की गहराइयों में घटित होती है। जहां आप अकेले होते हैं अपनी खामोशी के साथ, जिन्दगी से जुड़े अपने सवालों के साथ। 

बेशक चैतन्य नागर जी ने एक अच्छा लेख लिखा है लेकिन उनके लेख से मूल प्रश्न हल नहीं होता बल्कि कुछ नए प्रश्न ज़रूर खड़े हो जाते हैं।
1. चैतन्य नागर जी ने दोस्त की तरह हाथ थामने वाले को ‘सही गुरू‘ माना है। किसी गुरू के ‘सही‘ होने का यह कोई आधार नहीं है। ग़लत क़िस्म के गुरू भी दोस्त की तरह हाथ थाम लेते हैं। अगर श्रद्धालु कोई लड़की है तो उसका हाथ तो ग़लत गुरू सदैव ‘फ़्रेंड‘ की तरह ही थामता है।
2. दूसरा प्रश्न यह है कि मन की गहराईयों में बहुत कुछ घटित होता है। वहां ‘आत्मबोध‘ ही घटित हो रहा है, यह कैसे पता चलेगा ?
3. नागर जी ने सही गुरू मिलने और मन की गहराईयों में आत्मबोध घटित होने का प्रभाव ‘दुख से मुक्ति‘ माना है।  ?

क्या मानव जाति के पूरे इतिहास में कोई दौर ऐसा गुज़रा है कि मनुष्य समाज दुख से मुक्ति पा सका हो ?
नहीं ! मनुष्य समाज कभी 100 या 10 या 1 वर्ष के लिए भी मुक्ति न पा सका, चाहे उन्होंने बिल्कुल सही गुरू से ही शिक्षा क्यों न पाई हो, तब भी !

अपनी इच्छा को ख़त्म करने की इच्छा भी एक इच्छा है। इच्छा ख़त्म नहीं हो सकती।
निष्काम भाव से कर्म करने की कामना भी एक कामना ही है। कामना का नाश संभव नहीं है. 
जितने लोग यह सब सिखा रहे हैं। वे एक ऐसी बात सिखा रहे हैं, जो इस दुनिया में न कभी घटित हुई और न ही कभी घटित होगी। असफलता पहले से निश्चित है। असफलता के मार्ग पर चलने वाले कभी सफलता का मार्ग नहीं दिखा सकते। 
सच्चा गुरू इनके दायरे से अलग ही मिलेगा। जीवन का मक़सद वही बताएगा और वह जीवन का मक़सद दुख से मुक्ति या आवागमन के दुखदायक चक्र से मुक्ति के अलावा कुछ और ही बताएगा। यह उसका मूल लक्षण है।
अधिकतर लोग किसी का त्याग देखकर उसे गुरू बना लेते हैं। लोग सोचते हैं कि इसके दिल में लालच नहीं है। यह ज़रूर सही आदमी होगा। देखो, इसने बीवी-बच्चे, घर-बार और संसार का हरेक ऐशो आराम छोड़ दिया है। इसे गुरू बना लो। यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं है कि जिसने संसार त्याग दिया हो, उसे ज्ञान भी हो और यह भी ज़रूरी नहीं है कि जिसे ज्ञान हो, उसने संसार त्याग दिया हो।
                                            (जारी ...)

Thursday, February 21, 2013

मनु और आद्या: जोड़ा जो स्वर्ग में बना Manu : The very first man

प्रथम भाग ‘देखिए मनु की उत्पत्ति और उनके विवाह का वर्णन, वेद में‘, से आगे पढ़ें और आगे बढ़ें-

मनु का अथर्ववेद 11वाँ काँड, 8वें सूक्त में बड़ा सुंदर वर्णन है। इसमें कुछ मुख्य बिन्दु ध्यान देने योग्य हैं कि
1. उन्हें मन्यु कहा गया है और उनकी पत्नी को जाया और आद्या कहा गया है।
2. उनका विवाह संकल्प के घर में होना बताया गया है।
3. वह पहले मनुष्य थे। इसीलिए उनके विवाह में कोई मनुष्य शामिल न हुआ, न वर पक्ष की ओर से और न ही कन्या पक्ष की ओर से।
4. तब केवल तप और कर्म ही दोनों ओर से मौजूद थे अर्थात मनु और आद्या दोनों ही तप और कर्म के गुणों से युक्त थे।
5. इस विवाह को ब्रह्म ने संपन्न किया था।
6. यह उस जगह की बात है जहाँ ऋतुएं नहीं थाीं।
7. यह वर्तमान पृथ्वी से पूर्व विगत पृथ्वी की बात है।
8. तब धाता, इन्द्र, बृहस्पति और अश्विनी कुमार आदि भी पैदा नहीं हुए थे।
9. जो विद्वान विगत पृथ्वी में वर्तमान वस्तुओं के नाम जानने वाला है, वही इस पृथ्वी को जानने में समर्थ है।
10. विगत पृथ्वी को केवल महर्षि ही जानते हैं।
11. बिना माता पिता के विधाता ने मनु का शरीर कैसे बनाया ?, उसका यह कर्म उसकी महान शक्ति का परिचायक है कि उसने मनु के बाल, हड्डियाँ, नसें और माँस मज्जा कैसे बनाईं ?
उसने यह सब अपनी ‘निजी शक्ति‘ से किया।
सिर, मुंह, कंधे, पसलियाँ, पीठ, जंघांएं, घुटने और पाँवों को इतने सुंदर तरीक़े से किसने जोड़ा ?, इन्हें जोड़ने वाला भी वही ब्रह्म है।
सिर, हाथ, मुंह, गला, जीभ और हड्डियों को सुंदर खाल से ढककर कर्म करने योग्य किसने बनाया ?, यह भी उसी ब्रह्म ने किया।
इस शरीर के अलग अलग अंगों को अलग अलग रंग देकर सुंदर किसने बनाया ?, यह काम भी उसी ब्रह्म ने बनाया।
12. मनु का यह शरीर इतना सुंदर था कि सभी देवता उनके समीप रहना चाहते थे।
13. इस संसार के बनाने वाले ने इस संसार को देखने के लिए मनु को नेत्र और कान आदि भी दिए। उसने उन्हें भोगने के लिए प्राण, अपान और इन्द्रियाँ भी दीं। इन सबका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि सपने, नींद, आलस्य, निर्ऋति और पाप भी उसके अंदर उत्पन्न हो गए। आयु को कम करने वाली जरा, चक्षु, मन, खालित्य, पालित्य भी उपस्थित हो गए।
14. मनु की देह में चोरी, दुष्कर्म, पाप, सत्य, यज्ञ, महान, बल, क्षात्रधर्म और ओज आदि सकारात्मक और नकारात्मक, सब तरह की प्रवृत्तियाँ भी रख दी गईं।
इन बिन्दुओं पर ध्यान देने से पता चलता है कि यह पहले मनुष्य की रचना का वर्णन हो रहा है। जिसे इस पृथ्वी पर नहीं रचा गया बल्कि इसके अलावा किसी और पृथ्वी पर रचा गया। तब न तो कोई मनुष्य था और न ही इन्द्र आदि देवता थे। पहले मनुष्य के शरीर को ब्रह्म ने स्वयं अपनी शक्ति से बनाया। इससे इस शरीर की महत्ता पता चलता है। देवताओं ने भी उसके समीप रहने की इच्छा की क्योंकि वे इस शरीर का महत्व जानते थे। उसी ब्रह्म ने प्राण और इन्द्रियाँ बनाईं। उसी ने मनु को विगत पृथ्वी की चीज़ों के नामों का ज्ञान दिया ताकि वह इस पृथ्वी की चीज़ों को इस्तेमाल कर सकें। नकारात्मक प्रवृत्तियों से रक्षा के लिए उसने मनु को सत्य, यज्ञ, बल और ओज भी दिया। भौतिक संसार के शत्रुओं से लड़ने लिए उसने मनु को क्षात्रधर्म से भी युक्त किया।
पहले मनुष्य की रचना के बाद ब्रह्म ने उनके लिए पहली औरत ‘आद्या‘ को उत्पन्न किया। मनु का आद्या से विवाह ब्रह्म ने स्वयं किया। इससे विवाह के महत्व का पता चलता है। इसीलिए कहा जाता है कि जोड़ा स्वर्ग में बनता है। लोग कहते तो हैं लेकिन जानते नहीं है कि स्वर्ग में सबसे पहला जोड़ा किसका बना था और यह कहावत कैसे चली ?
जो ईश्वरीय ज्ञान रखता है वह अथर्ववेद के इस सूक्त को देखकर यही कहेगा कि निस्संदेह इस सूक्त में ईश्वरीय ज्ञान है। कोई भी मनुष्य अपने अनुमान से यह नहीं बता सकता कि
1. पहले मनुष्य की रचना कहाँ हुई और किसने की ?,
2. उसका विवाह किससे हुआ और किसने किया ?
और यह कि
3. उसे ‘चीज़ों के नामों का ज्ञान‘ भी दिया गया था।
...और यह कहना तो और भी ज़्यादा अचंभित करता है कि
4. ये सब काम ‘संकल्प के घर‘ में हुए थे।
ये बातें केवल एक ईश्वर ही जानता है और वही बता सकता है। इसीलिए हम कहते हैं कि वेद में ईश्वरीय ज्ञान आज भी मौजूद है। यह ज्ञान आज भी अज्ञान को मिटाने में सक्षम है।
अथर्ववेद के इस सूक्त से मनुष्य जान सकता है कि उसके माता- पिता की उत्पत्ति कहाँ और किस उद्देश्य के लिए हुई थी और किसने की थी ?
उस विगत पृथ्वी पर उस रचनाकार ने क्या संकल्प लिया था ?
जो उस संकल्प को नहीं जानता, वह दुनिया में केवल भटकता ही रहता है।
वह ज़्यादा खा, पी और टहल सकता है लेकिन अपने जीवन के उद्देश्य को कभी पूरा नहीं कर सकता। जब वह जीवन का उद्देश्य जानता ही नहीं है तो पूरा क्या करेगा ?
...और अति विनम्रता के साथ हम यह भी कहना चाहेंगे कि अगर हम न बताएं तो वह अथर्ववेद का यह सूक्त तो क्या चारों वेद पढ़कर भी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं जान सकता।
अगर ईश्वर ने ही स्वयं हमें न बताया होता तो हम भी न बता सकते। हक़ीक़त जानने वाला केवल वही एक परमेश्वर है। इसीलिए उसके लिए दिल की गहराईयों से यह भाव उठता है-
सुब्हान-अल्लाह अर्थात परमेश्वर पवित्र है।

Thursday, February 7, 2013

ऋग्वेद के सूक्त एक सुदीर्घ काव्य-परंपरा के परिणाम हैं -Dr. Raju Ranjan Prasad


ऋग्वेद के वर्तमान रूप में जो सूक्त मिलते हैं, वे चाहे जब रचे गये हों, एक सुदीर्घ काव्य-परंपरा के परिणाम हैं।13 ऋग्वेद की रचना का जो भी समय निर्धारित किया जाये, मानना होगा कि ऋग्वैदिक काव्य-परंपरा की शुरुआत उससे बहुत पहले हो चुकी है।14 इसका प्रमाण स्वयं ऋग्वेद के कवि हैं। वे बार-बार अपने पूर्वज कवियों को याद करते हैं, पुरातन सूक्तों की तुलना में उनके स्तोत्र नये हैं, इस बात पर जोर देते हैं। ऋग्वेद के कवियों से पूर्व अथर्वा एवं पिता मनु हैं और इन्होंने पूर्वथा, पहले की तरह इन्द्र को लक्ष्य करके स्तोत्र रचे। उस इन्द्र को प्राचीन लोग (पूर्वथा) हमारे पूर्वज (इमथा विश्वथा) तथा आज के सभी जन स्तुति कर रहे हैं। स्तुति की परंपरा पूर्वजों से चली आ रही है। 
ऋग्वेद के कवि अपनी काव्य-परंपरा के प्रति अत्यंत सचेत हैं। ‘हे घोड़ों के स्वामिन् इन्द्र! (ते पूर्व्यं स्तुतिं) तेरी पहले की गई स्तुति को कोई भी दूसरा बल से, न योग्यता से ही आज तक प्राप्त कर सका।’ यम को मधुर हवि अर्पित करते हुए कवि प्रथम मार्गदर्शक पूर्वजों को याद करता हैः ‘(पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पथिकृद्म्यः ऋषिभ्यः इदं नमः) पूर्वज और पूर्व मार्गदर्शक ऋषियों के लिए यह नमस्कार है।’ इसके बाद ही त्रिष्टुप, गायत्री तथा अन्य सब छंद यम देव से संबद्ध होते बताये गये हैं।
ऋग्वेद के कवियों ने त्रिष्टुप आदि छंदों का निर्माण नहीं किया, वे उन्हें भारतीय काव्य-परंपरा से प्राप्त हुए थे।15 पुराने कवियों के बहुत से छंद अवश्य उन्हें याद रहे होंगे। ‘वरुण की मनःपूर्वक की गई स्तुति से, (पितृणां च मन्मभिः) पितरों के स्तोत्रों से तथा नाभाक ऋषि की प्रशंसाओं से स्तुति करता हूँ ।’ यहां पूर्वज कवियों के स्तोत्रों की आवृति का स्पष्ट उल्लेख है। अवश्य ही उन्होंने पुराने स्तोत्रों से सामग्री लेकर उसे नया रूप दिया होगा। ‘(नवीयः कृयमाणं इदं ब्रह्म) नवीन किया जानेवाला यह स्तोत्र है, इसको आदित्य, वसु और रुद्र स्वीकार करें।’ पुराने को नया किया अथवा एक दम नया बनाया, दोनों अर्थ संभव हैं। (अंगिरस्वत्) अंगिरा के समान इन्द्र को नमन करते हुए ‘(नव्यं कृणोमि) नये-नये स्तोत्र बनाता हूं।’ इन्द्र के लिए कवि ‘(नवीयसीं मन्द्रागिरं अजीजनत्) नवीन और आनंददायक स्तुति को उत्पन्न करता है।’ यह ऋग्वेद की परंपरा है, यह भारतीय काव्य-परंपरा है।16
अनेक सूक्तों में सुदूर अतीत की झलक मिलती है।17 काण्वमेध्य ऋषि एक मंत्र में कहते हैं-बहुस्तुत सोम प्राचीनकाल से देवों का पेय है। अग्नि पूर्वकालीन और अधुनातन ऋषियों का पूज्य है।18 देवों का पूर्वकालिक ‘निविद’ के द्वारा आवाहित किया गया है। शुनःशेप प्राचीन पितरों से स्तुत इन्द्र की स्तुति करता है। कक्षीवान् ऋषि भयंकर इन्द्र से उसी नेतृत्व की कामना करता है जो प्राचीनकाल में था। कक्षीवान् के पिता दीर्घतमा प्राचीन ऋषि दधीचि, अंगिरा, प्रियमेध, काण्व, अत्रि तथा मनु का उल्लेख करता है। इन सूक्तों से सिद्ध होता है कि ऋषियों को सतत् अपने अतीत का स्मरण है। मैक्स मूलर ने भी यह स्वीकारा है कि ऋग्वेद में प्राचीन तथा अर्वाचीन सूक्त हैं।19 ऋषियों एवं उनके पुत्रों के सूक्त वेद में एकत्र मिलते हैं। इस प्रकार के निदर्शन विश्वामित्र तथा दीर्घतमा के पुत्रों मधुछन्दा एवं कक्षीवान् या कक्षीवत् में देखा जा सकता है। कई पीढ़ियों ने सूक्तों का निर्माण किया जिन्हें वेद में स्थान मिला है।20
इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि सूक्तों की रचना और उनके संकलन के मध्य एक दीर्घकाल का प्रक्षेप है। अन्तःसाक्ष्यों से यह भी स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन सूक्तों में संस्कृति के अनेक स्तर मिलते हैं। एक सूक्त से ज्ञात होता है कि वैदिक जन पशुपालक थे। अन्यत्र राजा को हम हाथी पर आरूढ़ मंत्रियों से घिरा पाते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि कृषक समाज व्यवस्थित हो चुका था और राज्यसंस्था विकसित हो चुकी थी। विभिन्न सूक्तों में ‘सप्तसिंधु’ के उल्लेख के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की सरयू नदी का भी वर्णन मिलता है। मिट्टी के घरों एवं हजार खंभोंवाले प्रासाद का विवरण भी है।21
Source : http://dastavez.blogspot.in/2010/09/blog-post_23.html

Thursday, January 10, 2013

मानो या न मानो लेकिन इसलाम आ चुका है आपके जीवन में धीरे से ?

शालिनी कौशिक जी ने मोहन भागवत (आरएसएस प्रमुख) के एक बयान पर टिप्पणी करते हुए अपना ऐतराज़ जताया है। 
उनके लेख का शीर्षक और लिंक यह है-


हम उनकी भावनाओं का सम्मान करते हैं लेकिन उनका लेख पढ़कर लगा कि वह कन्फ़्यूज़ हैं। एक तरफ़ तो वह औरत के अधिकारों की वकालत करती हैं और दूसरी तरफ़ वह विवाह को संस्कार मानने पर बल देती हैं, जो कि उनसे तलाक़ और पुनर्विवाह का हक़ छीन लेता है।
हिंदू धर्म में विवाह एक संस्कार है जबकि इसलाम में निकाह एक क़रार है। 
क़रार होने के कारण निकाह का संबंध तलाक़ या मौत से टूट जाता है। औरत को अपने पति से अपने हक़ पूरे न होने की शिकायत हो तो वह इसलामी रीति से उससे संबंध तोड़ सकती है और पुनः अपनी पसंद के मर्द से निकाह कर सकती है।
हिंदू विवाह के संस्कार होने के कारण औरत तलाक़ का हक़ नहीं रखती लेकिन उसका पति उसका परित्याग कर सकता है। हिंदू विवाह के संस्कार होने के कारण विधवा नारी पति की मौत के बाद भी उसी की पत्नी रहती है। उसे पुनर्विवाह का अधिकार नहीं है। वैदिक विद्वान इस पर एकमत हैं। जबकि पति अपनी पत्नी के जीते जी भी किसी से विवाह कर सकता है और उसकी मौत के बाद भी। 
हिंदू विवाह के संस्कार होने से विधवा नारी के दोबारा विवाह करने पर पाबंदी लाज़िम आयी और शास्त्रों ने बताया कि उसका पति के साथ सती होना उत्तम है या फिर वह सफ़ेद कपड़े पहनकर भूमि पर शयन करे और एक समय बिना नमक-मसाले का भोजन करे और मासिक धर्म के दिनों में एक समय का भोजन भी मना है। विवाह आदि शुभ अवसरों पर वह सामने न पड़े। इस तरह जो औरतें सती होने से बच भी जाती थी तो वे कुपोषण और डिप्रेशन का शिकार होकर तड़प तड़प कर मर जाती थीं। मरने के बाद भी दुदर्शा उनका पीछा नहीं छोड़ती।
पति के मरने के बाद हिंदू संस्कारों का पालन करने वाली विधवा की दुर्दशा को जानने देखिए ये पोस्ट्स-




भारत में इसलाम आया तो औरत के लिए जीने के रास्ते खुले। उसे अपना हक़ अदा न करने वाले पति से छुटकारे के लिए तलाक़ का हक़ मिला। तलाक़शुदा औरतों और विधवाओं को पुनर्विवाह का हक़ मिला।
यह सब इसलाम के प्रभाव से हुआ। जिन हिंदू समाज सुधारकों ने औरतों के लिए इसलाम जैसे अधिकारों की वकालत की। उनका एकमात्र विरोध संस्कृति और संस्कार की रक्षा करने वालों ने ही किया।
आज किसी में हिम्मत नहीं है कि वह औरत के तलाक़ पाने के हक़ का या उसके दोबारा विवाह करने के हक़ का विरोध कर सके।
विवाह बहुत पहले कभी संस्कार हुआ करता था, अब नहीं है। वे दिन गए। अब यह एक क़रार है। कोर्ट में तलाक़ और पुनर्विवाह के लिए आने वाली औरतें इसका सुबूत हैं।
जब औरतें ही विवाह को संस्कार मानने से इन्कार कर दें तो फिर कोई क्या कर सकता है ?
जिन शास्त्रों से आपने हिंदू विवाह को संस्कार बताने संबंधी श्लोक दिए हैं, उन्हीं शास्त्रों में यह बताया गया है कि विधवाओं को कैसे रहना चाहिए ?
क्या विधवाएं आज उस ज़ुल्म को बर्दाश्त करना गवारा करेंगी ?
अगर नहीं तो फिर ज़ुल्म की हिमायत क्यों और किसके लिए जब कोई उसे गवारा करना ही नहीं चाहता।

रही मोहन भागवत जी की बात तो वह अपने कथन में केवल मर्द के अधिकार की बात कर रहे हैं। इसी अधिकार को वह औरत के लिए नहीं मानेंगे कि अगर पति उसका भरण-पोषण न कर पाए या उसकी रक्षा न करे तो वह भी अपने पति को छोड़ सकती है। इसी से पता चलता है कि वह संस्कार ही की बात कर रहे हैं न कि वह हिंदू विवाह को क़रार ठहरा रहे हैं।

आप एक लड़की भी हैं और एक वकील भी। आप औरतों के हित में क्या चीज़ पाती हैं ?
1. क्या औरत विवाह को एक संस्कार मानकर उसकी पाबंदियों को पूरा करे जैसा कि शास्त्रों में बताया गया है ?
या कि 
2. औरत उसे संस्कार न माने और पति से निर्वाह न होने पर तलाक़ ले और चाहे तो फिर से विवाह करके अपने जीवन को सुखी बनाए ? 
पहली बात हिंदू धर्म की है और दूसरी बात इसलाम की है।
आप क्या मानना चाहेंगी ?,
यह देखने के साथ यह भी देखें कि सारी दुनिया आज क्या मान रही है ?

क्या यह हक़ीक़त नहीं है कि इसलाम आ चुका है आपके जीवन में धीरे से ?