ज्ञानतंत्र की रहस्य-बोध कथाएं: कैसे और कहाँ खो गया सत्य?
प्राचीन काल की बात है। गाय घोड़े चरते चरते पूरब की तरफ़ निकल आए।
ये गाय घोड़े कहां से चले थे?,
इसके विषय में मतभेद है लेकिन इतना तय है कि वे जिस देश से चले थे। उस देश में हाथी न होता था। अपने गाय घोड़ों के पीछे उनके मालिक भी चले आए। वे मूर्तिपूजक न थे। वे महान थे। वे कवि थे। जहां रवि नहीं पहुंचता था वे वहां भी पहुंच जाते थे। वे आत्मा से ईश्वर तक जा पहुंचे थे। वे लंबे और गोरे थे, संगठित और अनुशासित थे। चलते चलते वे हरे देश तक चले आए। यहां नदी के पास आबाद काले और नाटे लोगों ने उन्हें देखा तो वे मारे भय के पीले पड़ गए और जंगलों में चढ़ गए। जो जंगलों में न जा सके। उन्हें नगर के किनारे रखा गया और जंगल का पूरा सुख दिया गया। इस तरह यह देश विदेशियों का हो गया और विदेशी देश के हो गए।
विदेशी सभ्य होते ही हैं। सो ये भी सभ्य थे। शासक न्यायप्रिय होता है। सो ये भी न्यायप्रिय ही थे। ये जो करते थे वही सभ्यता थी, वही न्याय था। ये प्रकृति से बातें करते थे। इन्होंने आग और पानी से ही नहीं बल्कि भूमि और आकाश तक से बातें कीं। इनका बौद्धिक स्तर ऊँचा था। उनकी नस्लों ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाया। उनके बाद और भी विदेशी अपनी सभ्यताएं लेकर आते रहे। उन्हें भी उनकी संस्कृति समेत एडजस्ट कर लिया गया। उन्होंने भी कविता रचना सीख लिया। उनमें से कोई प्रकृतिपूजक था और कोई मूर्तिपूजक। उनकी कविता का विषय प्रकृतिपूजा होता था या फिर मूर्तिपूजा।
विदेशी धड़ाधड़ आ रहे थे। वे अपने साथ अपनी संस्कृतियां भी ला रहे थे। वे भी कविता कर रहे थे। कोई नर पर और कोई नारी पर। कोई हवा पर और कोई दवा पर। जितनी बुद्धियां थीं, उतने ही विचार थे। नए विचारों की भरमार हो गई और पुराना सत्य विचार उसमें कहीं दबता चला गया।
जितनी नस्लें थीं, उतनी ही संस्कृतियां थीं। सबकी संस्कृतियों को समाहित किए बिना चारा न था। किसी का दमन और किसी का भजन किया जा रहा था। राजनैतिक चौधराहट बनाए रखने के लिए जो कुछ नहीं करना था, वह भी किया गया। लोग धर्मप्राण होने के बजाय धनप्राण बनते चले गए। पवित्र लोगों के वंशज अंततः पतित होकर रह गए।
आदिकाल के कवियों की वाणी महान थी। उसमें सत्य था। उसे लिखने की परंपरा तब न थी। वह श्रुति (सुनने) और स्मृति (मेमोरी) के ज़रिये नई नस्लों तक पहुंच रहा था। युग बदलते चले गए। नस्लों में नस्लें मिक्स हो गईं। सबका ख़ून मिक्स हो गया। सबकी संस्कृतियां मिक्स हो गई। सबका साहित्य मिक्स हो गया। वह सत्य बाद के साहित्य में खो गया। तब उस साहित्य को संकलित करके उसकी संहिता बना दी गई।
वह सत्य क्या था?
वह सत्य विद्या थी, एक विशेष विद्या, अनुपम विद्या। उसी विशेष विद्या के विषय में ‘सा विद्या या विमुक्तये’ कहा गया है। वह सत्य अमृत था।
उस खोए सत्य की खोज आज तक जारी है।
‘जो ढूंढता है, वह पाता है।’ यह जगत का विधान है। ढूंढने वाले ढूंढते चले आ रहे आ रहे हैं और उन्हें सत्य मिलता आ रहा है।
वास्तव में सत्य मिटा नहीं था बल्कि खो गया था या यूं कहें कि सत्य तो हमारे सामने ही था लेकिन हम उसके लक्षण भूल गए थे। हम उसे पहचानने की क्षमता खो बैठे थे।
हमारी ‘श्रुति’ और ‘स्मृति’ आज हमारे पास है। सत्य को पहचानने में ये दोनों ही हमारी मदद कर रही हैं। पतित से पवित्र होने का हमारा सफ़र लगातार जारी है। चाहे हमें इसका पता हो या न हो।
हमारे गाय और हमारे घोड़े अब भी आगे बढ़ रहे हैं और उनके पीछे हम भी आगे बढ़ रहे हैं। अब हमारे गाय घोड़े भौतिक नहीं हैं और हमें भी देह के साथ सफ़र करने की ज़रूरत नहीं रही है। इसीलिए अब हमारा सफ़र ख़ुद हमें भी नज़र नहीं आ रहा है।
चरैवेति, ...चरैवेति. किसी ने कभी कहा था और हम आज भी चले ही जा रहे हैं।
मंज़िल ऐसे लोगों का ख़ुद बढ़कर स्वागत करती है। चलकर जाने वालों की तरफ़ ईश्वर दौड़कर आता है। अपनी शाखाओं को विस्तार देकर तीर्थराज स्वयं उनसे मिलने के लिए आता है। ईश्वर आ चुका है। हमारे गली मुहल्लों में मौजूद तीर्थराज की शाखाएं इसका प्रमाण हैं।
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http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/BUNIYAD/entry/truth
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न सत्य मिटता है,न परम्परा खत्म होती है - बीज कहीं न कहीं रहता है,अंकुरित हो फैलता है
ReplyDeleteTruth remains. All foreigners were aggressors they pushed the residents and occupied their land. The learning was mutual not one way.
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