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Monday, August 13, 2012

पवित्रता : जीवन का मूल उददेश्य


मनुष्य के आचरण पर उसके विचारों का सीधा प्रभाव पड़ता है। इसलिए मनुष्य को लगातार अपने विचारों का विश्लेषण करते रहना चाहिए कि उसके मन में किस तरह के विचार मौजूद हैं ?
मन में ज़्यादा समय से जमे हुए विचार गहरी जड़े जमा लेते हैं, उनसे मुक्ति पाना आसान नहीं होता।
ईश्वर और महापुरूषों के बारे में हमारे जो विचार होते हैं, वे भी हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव डालते हैं। किसी बात को ईश्वर का आदेश या किसी बात को महापुरूष का कर्म मानते हुए यह ज़रूर चेक कर लें कि कहीं वह ‘पवित्रता‘ के विपरीत तो नहीं है ?


ईश्वर पवित्र है और महापुरूषों का आचरण भी पवित्र होता है। जो बात पवित्रता के विरूद्ध होगी, वह ईश्वर के स्वरूप और महापुरूष के आचरण विपरीत भी होगी, यह स्वाभाविक है। इस बात को जानना निहायत ज़रूरी है।
ऐसा करने के बाद चोरी, जारी और अन्याय की वे सभी बातें ग़लत सिद्ध हो जाती हैं, जिन्हें अपने स्वार्थ पूरा करने के लिए ग़लत तत्वों ने धर्मग्रन्थों में लिख दिया है।
जो ग़लत काम महापुरूषों ने कभी किए ही नहीं हैं, उन्हें उनके लिए दोष देना ठीक नहीं है। उन कामों का अनुसरण करना भी ठीक नहीं है।
सही बात को सही कहना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है ग़लत बात को ग़लत कहना। ऐसा करने के बाद ही हम ग़लत बात के प्रभाव से बच सकते हैं।
हम ईश्वर और महापुरूषों के बारे में पवित्र विचार रखेंगे तो हमारा आचरण भी पवित्र हो जाएगा।
यदि हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में चोरी, झूठ, अन्याय और भ्रष्टाचार मौजूद है तो हम सब को अपने अपने विचारों पर नज़र डाल कर देखनी चाहिए कि ईश्वर और महापुरूषों के बारे में हमारी मान्यताएं क्या हैं ?
यह जीवन तो फिर भी किसी न किसी तरह कट जाएगा लेकिन अगर इसी अपवित्रता की दशा में हमारी मौत हो जाती है तो हम पवित्र लोक के दिव्य जीवन में प्रवेश न कर सकेंगे, जिसके बारे में हरेक महापुरूष ने बताया है और जिसे पाना इस जीवन के कर्म का मूल उददेश्य है।

6 comments:

  1. उत्तम विचार।
    आभार।

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  2. आचरण पर विचारों का जितना प्रभाव पड़ता है,उससे कहीं ज्यादा प्रभाव विचारों पर आचरण का पड़ता है क्योंकि आचरण की शुरूआत बहुत छोटी उम्र से होती है जबकि विचार बहुत बाद में बनने शुरू होते हैं।
    जब तक ईश्वर के बारे में मान्यताएं बनाने का काम जारी रहेगा,न ईश्वर की प्राप्ति होगी,न जीवन से चोरी,झूठ और भ्रष्टाचार जाएगा। पवित्र लोक का दिव्य जीवन उन्हीं को मिलना संभव है,जो स्वयं को सही ठहराने की ज़िद से भी दूर रहें। सही और ग़लत बाह्य जगत की बातें हैं। ईश्वर भीतर है।

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  3. सही रास्ते के चुनाव में ही इंसान की भलाई है
    @ कुमार राधारमण जी ! जब आदमी के अंदर भले बुरे में अंतर करने की समझ पैदा हो जाए तब उसे यह ज़रूर देख लेना चाहिए कि उसका कौन सा विचार ग़लत है ?

    हरेक किसान अपनी फसल की रक्षा के लिए खरपतवार को खेत से छांटकर निकालना ज़रूरी समझता है। मन की भूमि में भी ऐसे बहुत से विचार होते हैं जिन्हें निकालना ज़रूरी होता है।
    सही-ग़लत की समझ पैदा होने से पहले आदमी जो भी आचरण करता है, उसका विश्लेषण भी इंसान को समझ पैदा होने के बाद अवश्य करना चाहिए।

    ईश्वर तो अपनी जगह पर ही है लेकिन उसका अहसास हमें अपने अंदर ही हो सकता है और होता भी है। इसीलिए कह देते हैं कि ईश्वर हमारे अंदर है।

    अपने आप को हर हाल में सही ठहराने की ज़िद ठीक नहीं होती लेकिन सही बात को भी सही न कहना भी ग़लत है।

    मन क्या है और ‘अ-मन‘ की दशा कैसे प्राप्त करें ?
    इस पर हमेशा से दार्शनिक बहसें होती आई हैं। इस तरह की बहसें हमेशा आम जनता की बुद्धि से ऊपर रही हैं।
    जब तक मन है तब तक मान्यता बनाना इंसान की मजबूरी है। इसलिए लोगों को यह ज़रूर देख लेना चाहिए कि उनकी मान्यता सही है या ग़लत ?

    इंसान इस बाह्य जगत में ही रहता है इसीलिए उसे सही-ग़लत का फ़ैसला करना पड़ता है और करना भी चाहिए कि सही रास्ते के चुनाव में ही इंसान की भलाई है।

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  4. आदमी अब रास्ता
    खुद बनाता है
    खुद दिखाता है
    खुद जाता है
    सही गलत क्या है
    कौन देखने
    कहाँ जाता है?

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  5. यहाँ बहुत कुछ है जो अधुरा है यह दुन्याँ माँग करती है एक दुन्याँ और हो जहाँ अच्छाई और बुराई का पूरा बदला मिले !
    मेरे ब्लॉग पर भी पधारें, जिसमे मौत के बाद की ज़िन्दगी के बारे में एक रोचक अंदाज़ से बताया गया है, ब्लॉग क्या है बस समझये एक नक़ल है जो कर दी है वरना मैं कहाँ और ब्लॉग कहाँ.
    http://jabzindagishuroohogi.blogspot.in/2012/07/blog-post_9295.html

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