पंकज सिंह राजपूत ने कहा…
D@@@@@ R. ANWER JAMAL
साहब बिल्कुल, उम्मीद लायक जबाब दिया आपने - मैं बच्चों की तरह रंगों की कोई पहेलियाँ नहीं बुछा रहा और न तो आपके सामान्य ज्ञान की परीक्षा ले रहा हूँ - मै तो इन निम्न वाक्यों की तरफ आप का ध्यान दिलाना चाहता हूँ -
परमेश्वर के वचन के अर्थ निर्धारण के लिए केवल मनुष्य की बुद्धि काफ़ी नहीं है। इसे आप परमेश्वर की वाणी कुरआन के आलोक में देखिए।
आप का कहना है की दर्शन और धर्म में अंतर है, (आपकी मूल समस्या)
परन्तु वैदिक धर्म का तो आधार ही दर्शन है, इसीलिए ये छोटा सा प्रश्न पूछा -
ईश्वर (परमेश्वर) तत्त्व है या व्यक्तित्व ?
फोन पर तो आप केवल मेरी जिज्ञासा ही शांत कर पायेंगे, परन्तु जिज्ञासु तो यहाँ और भी है, उनका भी ख्याल कीजिये !!!!
बाकी पत्तियों वाली बात और रंगों वाली बात, इस जिज्ञासा की शांति के बाद !!!!
प्रतीक्षा उत्तर की OOOOOOOOOOOOO..............
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प्यारे भाई पंकज सिंह राजपूत जी ! आपका और आपके सवालों का स्वागत है।
आपने लिखा है कि मेरी मूल समस्या यह है कि मैं धर्म और दर्शन में अंतर करता हूं। जबकि वैदिक धर्म का आधार ही दर्शन हैं।
मेरे भाई , आप ज़रा सा ग़ौर करते तो समझ लेते कि सनातनी और आर्य समाजी दोनों तरफ़ के विद्वान धर्म का आधार ‘वेद‘ को मानते हैं। वेद जितने समय पुराने हैं दर्शन उतने पुराने नहीं हैं। दर्शनों की रचना उनके बहुत बाद हुई । कुछ के अनुसार अरबों साल बाद और कुछ के अनुसार कुछ हज़ार साल बाद। सभी दर्शनों की रचना एक साथ नहीं हुई है बल्कि एक एक करके अलग अलग टाइम में हुई है।
अब आप सोचिए कि दर्शन धर्म का आधार होते तो दर्शन की रचना होने से पहले के लोग क्या धर्म से हीन थे ?
यदि वे धर्म से युक्त थे तो मानना पड़ेगा कि उन्हें धर्म की व्याख्या के लिए दर्शनों की कोई ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। उनके लिए तो धर्म का आधार ईश्वर की वाणी ‘वेद‘ था। बाद में लोगों ने धर्म का आधार केवल वेद न मानकर उनके साथ दर्शनों को भी सम्मिलित कर लिया और फिर पुराणों को भी। उसके बाद भी जो कुछ काव्य और साहित्य रचा जाता रहा उसे धर्म के आधार में सम्मिलित करने की प्रक्रिया अनवरत चलती रही। वास्तविक वेदार्थ के लुप्त होने का यह मूल कारण है।
कृपया ध्यान रखिएगा कि मैं दर्शनों के महत्व का इन्कार नहीं कर रहा हूं और न ही मैं पुराण , इतिहास या काव्य को ही पूरी तरह ख़ारिज कर रहा हूं कि इनमें कुछ भी सत्य नहीं है। नहीं , बल्कि मैं केवल इन्हें धर्म का मूल नहीं मानता क्योंकि इनकी रचना से पहले भी धर्म था और धर्म का पालन करने वाला समाज भी था जो आज के समाज की तरह ‘कन्फ़्यूज़्ड‘ नहीं था।
धर्म का आधार तो वेद हैं लेकिन वेद का वास्तविक अर्थ जानना आज केवल मनुष्य की बुद्धि के बस का काम नहीं है। दयानंद जी का उदाहरण सामने है। उन्होंने ‘वसु‘ की व्याख्या करते हुए लिख डाला कि सूर्य, चन्द्र और समस्त तारों और नक्षत्रों पर मनुष्य आबाद हैं और वे इन्हीं चारों वेदों का पठन पाठन और पालन करते हैं। (देखिए सत्यार्थ प्रकाश, 8 वां समुल्लास)
ज़ाहिर है बुद्धि तो उनमें कुछ कम न थी। इसी तरह परंपरा से प्राप्त महीधर जी का वेदार्थ भी कुछ जगहों पर स्वीकार्य नहीं हो पाता।
ईश्वर और वस्तुओं के लिए प्रयुक्त नामों में एकरूपता भी वास्तविक वेदार्थ तक पहुंच पाने में एक बड़ी बाधा है जैसे कि यह समस्या ऋग्वेद के पहले सूक्त के पहले ही मंत्र से आरंभ हो जाती है कि ‘अग्नि‘ का अर्थ जलाने वाली आग लिया जाए या कि ‘ईश्वर‘। दोनों ही अर्थ वेदविदों ने किए हैं। मेरा इसमें किंचित भी हस्तक्षेप नहीं है।
धर्म का आधार तो वेद को माना जाए और दर्शन व अन्य साहित्य को भी इसी के आधार पर परखा जाए लेकिन वेद के वास्तविक मंतव्य को कैसे समझा जाएगा ?
यह एक समस्या है जिससे आम पब्लिक अन्जान है लेकिन वेदविद इससे परेशान हैं। मुझे कुरआन से मदद मिली और मुझे निश्चय हो गया कि अगर ‘अग्निमीले‘ के दो अर्थ में से एक लेना है तो कौन सा लेना है। मैंने वह ले लिया जो कुरआन की बिल्कुल पहली सूरा की पहली आयत में वर्णित है। वहां ‘विशेष स्तवन-वंदन परमेश्वर के लिए है जो सब लोकों का स्वामी है‘ लिखा मिलता है।
‘अग्निमीले‘ में भी अग्नि के ईलन-स्तवन की बात आई है सो यह तो केवल ईश्वर के लिए ही विशेष है। यही है कुरआन के आलोक में वेद को देखना। परमेश्वर की वाणी को परमेश्वर की ही वाणी में देखा जाए तो वास्तविक वेदार्थ प्रकट हो जाता है।
आपने यह भी पूछा है कि ईश्वर व्यक्तित्व है या तत्व ?
मैं आपसे कहना चाहूंगा कि क्या मेरे लिए लाज़िमी है कि मैं इन दो शब्दों में से ही किसी शब्द को ज़रूर चुनूं। आप यह पूछिए कि ईश्वर कौन है ?
ईश्वर एक चेतन अस्तित्व है जो सभी उत्कृष्ट गुणों से युक्त है। उसका अस्तित्व और उसके गुण हमारे ज्ञान और कल्पना से परे हैं। उसने हमें अपनी मनन शक्ति से उत्पन्न किया और हमें जीवन दिया , जीने का मक़सद दिया, जीने का विधान दिया, सफलता का मार्ग दिखाया। उसके नियमों का नाम धर्म है। धार्मिक कर्मकांड के ज़रिए उसकी वाणी की सुरक्षा की जाती है , उसके नियमों को स्मृति में सुरक्षित रखा जाता है। जीवन में उनका पालन किया जाता है।
जिस ऋषि के अंतःकरण पर वाणी का अवतरण होता है , वह सारे समाज के लिए आदर्श होता है। वैदिक ऋषियों के आचरण को सुरक्षित न रखे जाने से भी बहुत भारी समस्या का सामना करना पड़ता है।
ये सभी समस्याएं आज वास्तव में सामने हैं। मैंने जो उचित समझा उसका हल आपको बता दिया। आपको इससे ज़्यादा बेहतर हल कोई दूसरा लगे तो आप मुझे वह बताएं।
अच्छी सोच अच्छा हल ।
ReplyDeleteराजपूत जी की प्रतिक्रिया का इंतेज़ार है ।
ReplyDeleteक्या बात है हम तो सबको तीन तीन कमेँट देते हैं परंतु हमारे ब्लाग पर कोई इक कमेँट देने भी नहीं आता ?
ReplyDeleteदीपावली के इस शुभ बेला में माता महालक्ष्मी आप पर कृपा करें और आपके सुख-समृद्धि-धन-धान्य-मान-सम्मान में वृद्धि प्रदान करें!
ReplyDeleteजी. के. अवधिया जी ! आपका सादर स्वागत है । मैं आपके मंगल हेतु शुभ प्रार्थना करता हूँ ।
ReplyDeleteधर्म का आधार ईश्वर का ज्ञान होता है , मनुष्य का रचा हुआ दर्शन नहीं ।
ReplyDeleteआपने सही लिखा ।
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट ।
कोई नही मिला तो राजपूत जी के साथ शुरू हो गए
ReplyDeleteएक दिन वो भी तेरा डोग जान जायेगा
ढोंग ? फ़िर सच आप बता डालिए ।
ReplyDeleteअब आप सोचिए कि दर्शन धर्म का आधार होते तो दर्शन की रचना होने से पहले के लोग क्या धर्म से हीन थे ?
ReplyDeleteNice Post
ReplyDeleteWell Done
ReplyDeleteABOUT ME
ReplyDeleteDR. ANWER JAMAL
दुनिया बहुत से दार्शनिकों के दर्शन, कवियों की रचनाओं और लोक परंपराओं के समूह को हिन्दू धर्म के नाम से जानती है।
मनुष्य की बातें ग़लत हो सकती हैं बल्कि होती हैं। इसलिए उन्हें मेरे कथन पर ऐतराज़ हुआ लेकिन मैं ईश्वर के उन नियमों को धर्म मानता हूं जो ईश्वर की ओर से मनु आदि सच्चे ऋषियों के अन्तःकरण पर अवतरित हुए। ईश्वर के ज्ञान में कभी ग़लती नहीं होती इसलिए धर्म में भी ग़लत बात नहीं हो सकती। ऋषियों का ताल्लुक़ हिन्दुस्तान से होने के कारण मैं उनके धर्म को हिन्दू धर्म कहता हूं। मैं धर्म के उसी सनातन स्वरूप को मानता हूं जो ईश्वरीय है और एक ही मालिक की ओर से हर देश-क़ौम में अलग-अलग काल में प्रकट हुआ। उसमें न कोई कमी कल थी जब उसे सनातन और वैदिक धर्म के नाम से जाना जाता था और न ही कोई कमी आज है जबकि उसे ‘इस्लाम‘ के नाम से जाना जाता है।
@ भाई राजपूत जी , आपके कमेँट से यह पता नहीं चल पा रहा है कि आप मुझसे सहमत हैं या असहमत ?
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट
ReplyDeleteइस्लाम को सच मानते हो तो उसका पालन करो
ReplyDelete१- ये लोग गुमराह हैं . यह लोग अल्लाह के नाम की मजाक उड़ाते हैं , इस्लाम की मज़ाक़ उड़ाते हैं और फिर यह भी कहते हैं कि हम तो इस्लाम को भी सच मानते हैं .
अरे भाई जब इस्लाम को सच मानते हो तो उसका पालन करो या
कम से कम उसका मज़ाक़ तो मत उड़ाओ , लेकिन अगर इन्होने इस्लाम कि मज़ाक़ उड़ानी छोड़ दी तो फिर इनके आर्यसमाजीपने का क्या होगा ?
आर्यसमाजीपने का मतलब है दयानंद जी की तरह इल्म न होने के बावजूद मजाक उड़ना सत्य का और फिर 'मुक्ति' से निराश होकर मर जाना .
२- आज कल फेसबुक से कुछ नए पंछी उतरे हैं . उनमें एक है mindwassup , इसका भी यही तरीका है . यही sunil guri बनकर दिव्या जी को गालियाँ बकता रहा मेरे और अनवार साहब के ब्लाग पर . यह बेचारे झल्लाए हुए हैं.
http://aslamqasmi.blogspot.com/2010/11/blog-post_05.html?showComment=1288967253111#c3578392358713441393
Sahi vichar hain aapke Anwer Bhai.
ReplyDeleteमानवता की भलाई के लिये प्रत्येक हिन्दू को ये विचार जानना और इसका प्रसार करना अतिआवश्यक है ताकि सभी जागृत रहें और जेहादियों के छलावे में कभी न आयें.
ReplyDeleteमहर्षि दयानन्द सरस्वती
इस मजहब में अल्लाह और रसूल के वास्ते संसार को लुटवाना और लूट के माल में खुदा को हिस्सेदार बनाना शबाब का काम हैं । जो मुसलमान नहीं बनते उन लोगों को मारना और बदले में बहिश्त को पाना आदि पक्षपात की बातें ईश्वर की नहीं हो सकती । श्रेष्ठ गैर मुसलमानों से शत्रुता और दुष्ट मुसलमानों से मित्रता , जन्नत में अनेक औरतों और लौंडे होना आदि निन्दित उपदेश कुएं में डालने योग्य हैं । अनेक स्त्रियों को रखने वाले मुहम्मद साहब निर्दयी , राक्षस व विषयासक्त मनुष्य थें , एवं इस्लाम से अधिक अशांति फैलाने वाला दुष्ट मत दसरा और कोई नहीं । इस्लाम मत की मुख्य पुस्तक कुरान पर हमारा यह लेख हठ , दुराग्रह , ईर्ष्या विवाद और विरोध घटाने के लिए लिखा गया , न कि इसको बढ़ाने के लिए । सब सज्जनों के सामन रखने का उद्देश्य अच्छाई को ग्रहण करना और बुराई को त्यागना है ।।
-सत्यार्थ प्रकाश १४ वां समुल्लास विक्रमी २०६१
http://satyagi.blogspot.com/
ReplyDelete@ नितिन जी ! जिस प्रकार के शब्द स्वामी दयानंद जी ने पैग़म्बर साहब स. के लिए इस्तेमाल किए हैं , उस तरह के शब्द हम स्वामी जी के लिए भी इस्तेमाल नहीं करते । दयानंद जी घर से भाग गए थे अच्छी शिक्षा उन्हें मिल नहीं पाई बोलने की तमीज़ तक उन्हें न थी वे बरसों भाँग पीते और नंगे बदन घूमते रहे जैसे माँ बाप की औलाद थे जैसे गुरुओं का संग किया वैसे ही वे बन गए उन बेचारों की क्या गलती ?
ReplyDeleteजो उनके रास्ते पर चलेगा वह भी उन्हीं की तरह बदतमीज़ बनेगा , जैसे कि आप बन चुके हैं ।
उनका रास्ता छोड़िए इंसान बनिए और थोड़ी सी तमीज़ भी सीख लीजिए प्लीज़ ?
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ReplyDeleteकार्यवाही होगी और कार्यवाही करेगा वह ईश्वर जो हरेक आदमी के कर्मोँ का साक्षी है ।
ReplyDeleteरही बात बहन की तो आपको शायद पता ही नहीं है कि अभिमन्यु की पत्नी का नाम उत्तरा था जो कि उनकी माँ ...
चलो छोड़ो , जानने वाले सब जानते हैं ।
धन्यवाद
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