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गायत्री मंत्र के आलोचकों का नज़रिया
गायत्री मंत्र के आलोचकों ने जब इसके अनुवादों पर नज़र डाली तो उन्होंने कहा कि -
‘गायत्री मंत्र के स्तवन में जितना समय और श्रम लगाया जाता है, उस का सहस्रांश भी यदि मंत्र की ग़लतियों की ओर ध्यान देने में लगाया जाता तो इस पर बड़ा उपकार होता।
यह मंत्र न केवल छंदगत अशुद्धियों से युक्त है, अपितु संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से भी पूरी तरह अशुद्ध है। गायत्री मंत्र का प्रचलित रूप व्याकरण की दृष्टि से इसलिए अशुद्ध है। मंत्र के शुरू का ‘तत्‘ शब्द नपुंसक लिंग में है और तीसरे पाद का समवर्ती ‘यो‘ पुल्लिंग में है। ‘तत्‘ और ‘यो‘ परस्पर संबद्ध हैं, लेकिन लिंगगत असंगति के कारण इन का परस्पर अन्वय नहीं हो सकता। वाक्यारंभ में नपुंसक लिंग है। अतः या तो उसी के अनुसार ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद् हो या प्रारंभ में नपुंसक ‘तत्‘ को ‘सवितः‘ का विशेषण बनाया जाए अन्यथा गायत्री मंत्र व्याकरणिक अशुद्धियों की गुत्थी मात्र बना रहेगा।‘
इन विद्वानों ने इस समस्या का हल सुझाते हुए कहा है कि -
‘‘व्याकरण के नियमानुसार आदि के ‘तत्‘ को ‘सवितुः‘ का विशेषण बना कर इसे ‘तस्य‘ के रूप में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में ‘यो‘ को ‘भर्ग‘ के साथ अन्वित करना होगा। तब सही मंत्र ऐसे बनेगा- ‘तस्य सवितुः वरेण्यम्, भर्ग देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‘
मंत्रार्थदीपिका ग्रंथ के लेखक शत्रुघ्न ने ऐसा ही पाठ सही माना है (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 13), यह पाठ व्याकरण और छंदशास्त्र की दृष्टि से पूर्णतः शुद्ध है। इस में ‘वरेण्यं‘ को तोड़ मरोड़ कर शुद्ध गायत्री छंद बनाने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि ‘तत्‘ का ‘तस्य‘ हो जाने से प्रथम पाद में सात के स्थान पर आठ वर्ण हो जाते हैं। इस तरह स्वतः ही शुद्ध गायत्री छंद के अनुरूप 24 वर्ण बन जाते हैं।
एक अन्य प्राचीन ग्रंथकार हलायुध ने अपनी कृति ‘ब्राह्मण सर्वस्व‘ में याज्ञवल्क्य को उद्धृत करते हुए लिखा है कि गायत्री मंत्र के शुरू में स्थित शब्द ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ होना चाहिए, क्योंकि ‘तत्‘ का मंत्र के किसी भी शब्द के साथ अन्वय नहीं होता। यदि ‘तत्‘ का ‘तम्‘ कर दिया जाए तो उस का अन्वय भर्ग के साथ हो जाएगा। हलायुद्ध के अनुसार यह पाठ ठीक है- ‘तं सवितुर्वरेण्यम भर्गं देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्.‘ (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 12)‘‘
लेकिन इस समाधान पर भी यह आपत्ति आती है कि-
‘‘इस शुद्ध रूप में भी पूर्वोद्धृत शत्रुघ्नसम्मत पाठ के समान ही दो शब्दों को शुद्ध करना पड़ता है। ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ और ‘भर्गो‘ के स्थान पर ‘भर्ग‘, लेकिन इसके बावजूद छंद निचृद् गायत्री (अपूर्ण) ही रह जाता है।
डा. विश्वबंधु ने उपरलिखित दोनों वैकल्पिक शुद्ध रूपों के अतिरिक्त एक अन्य रूप उपस्थित किया है। उन्होंने ‘तत्‘ को यथावत् रहने दे कर ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद्‘ रखा है। इस संशोधन से शुद्धमंत्र यह रूप धारण करता है ‘तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो यन्नः (यद् नः) प्रचोदयात्. (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 14-15). डा. विश्वबंधु सम्मत पाठ स्वीकारने पर मूल मंत्र में एक ही शब्द शुद्ध करना पड़ता है लेकिन छंद फिर भी निचृद गायत्री ही रह जाता है।‘‘
गायत्री मंत्र की यह समीक्षा करने के बाद आलोचक महोदय कहते हैं कि -
‘इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रचलित गायत्री मंत्र न केवल छंद शास्त्र की दृष्टि से लंगड़ा और दोग़ला है, अपितु व्याकरण की दृष्टि से भी अशुद्ध है। यदि वेद ईश्वर की रचना है, यदि गायत्री मंत्र को ईश्वर ने बनाया है तो यह निरक्षर भट्टाचार्य और वज्रमूर्ख साबित होता है। साधारण संस्कृत जानने वाला भी ऐसी ग़लतियां नहीं कर सकता जैसी ईश्वर कही जाने वाली काल्पनिक सत्ता ने की हैं।
इतना सब होने पर भी इस गायत्री मंत्र में किसी अतिमानवीय शक्ति के होने में विश्वास करना, इस से रोग, शोक, पाप दूर होने और मनोकामनाएं पूरी होने का विश्वास रखना, मूर्खों की दुनिया में रहना है।
(डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात, पुस्तकः क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?, पृष्ठ 539-540, प्रकाशकः विश्व विजय प्रा. लि., 12 कनॉट सरकस, नई दिल्ली, फ़ोन 011-23416313 व 011-41517890, ईमेलः mybook.vishvbook.com)
गायत्री मंत्र की आलोचना की समीक्षा
इसमें शक नहीं है कि ‘मंत्रार्थदीपिका‘ ग्रंथ के लेखक शत्रुघ्न उच्चकोटि के विद्वान माने जाते हैं और ‘द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम‘ के लेखक डा. विश्वबंधु जी भी वैदिक अध्ययन में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त विद्वान हैं। पंजाब विश्वविद्यालय के एम. ए. संस्कृत पाठ्यक्रम में उनकी पुस्तक ‘वेदसार‘ अनिवार्य पत्र के रूप में पढ़ायी जाती रही है। ख़ुद डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात‘ जी भी एक प्रकांड पंडित हैं। सनातन धर्म की सेवा करने के लिए उनके परिवार का एक लंबा इतिहास है।
इनके पांडित्य और इनकी ख्याति के बावजूद हम इनसे यह विनम्र निवेदन करेंगे कि गायत्री मंत्र में अगर कोई दोष नज़र आ रहा है और हम उसके निर्दोष रूप तक नहीं पहुंच पा रहे हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें दोष है बल्कि हक़ीक़त यह है कि जितना ज्ञानाभ्यास और पवित्रता इसकी हक़ीक़त जानने के लिए चाहिए, वह इसके साधकों और आलोचकों दोनों में ही मौजूद नहीं है वर्ना तो इसकी साधना करने वाले इसका जवाब दे देते और तब आलोचना करने वालों के मुंह से इस तरह के अल्फ़ाज़ ही न निकलते।
गायत्री जैसे महान मंत्र के बारे में कुछ कह सकें, हम ख़ुद को इस योग्य बिल्कुल भी नहीं पाते। अगर गायत्री मंत्र का अर्थ हम पर ख़ुद ब ख़ुद प्रकट न होता तो हम शायद यह सब न लिखते और आज तक हमने इसके अर्थ पर कभी कुछ लिखा भी नहीं है। हालांकि हम इसे 30 साल से ज़्यादा अर्से से पढ़ते भी आ रहे हैं और पढ़ने से भी आगे बढ़कर हम इसे जीते भी आ रहे हैं। गायत्री मंत्र हमारे लिए सदैव आकर्षण और अध्ययन का एक महत्वपूर्ण बिंदु रहा है। हमने पाया है कि इसके द्वारा रोग, शोक और पाप दूर होना और मनोकामनाएं पूरी होना एक सच्ची हक़ीक़त है। इससे भी आगे बढ़कर हम यह कहेंगे कि पूरे विश्व की विजय भी इसके द्वारा संभव है और संभव क्या है बल्कि यह तो इसका स्वाभाविक परिणाम है ही। यह कोई अंधश्रृद्धा मात्र नहीं है बल्कि इसे तर्क से समझा जा सकता है और इसे विज्ञान से सिद्ध किया जा सकता है और इतिहास में इसके साधकों को जो कुछ प्राप्त हुआ, उसे देखा जा सकता है। विज्ञान के अनुसार ‘एक निश्चित परिस्थिति में एक काम करने पर जो परिणाम एक बार सामने आता है तो उसी परिस्थिति में वही काम अगर दोबारा किया जाए तो परिणाम भी वही आएगा।‘
गायत्री मंत्र का वैज्ञानिक स्तर पर सत्यापन
आज तर्क और विज्ञान का दौर है। आप गायत्री मंत्र के सत्य को ख़ुद अपने अनुभव द्वारा जान सकते हैं कि वास्तव में ही इसके ज़रिये से ईश्वर वह सब कुछ देता है जिसकी ज़रूरत मनुष्य को होती है और यह अनुभव एक मनुष्य के बारे में जितना सत्य है, उतना ही यह मनुष्यों के एक बड़े समूह के लिए भी सही है और सारी मानव जाति भी इसके ज़रिये से वह सब कुछ पा सकती है जिसकी तलाश में वह सदियों से भटक रही है। ऐसा हो सकता है और ऐसा होगा लेकिन ऐसा केवल तब होगा जबकि यह जान लिया जाए कि गायत्री मंत्र की रचना किस परिस्थिति में हुई और कहां हुई ?
गायत्री मंत्र की साधना का सही स्वरूप वास्तव में क्या है ?
तभी यह बात समझ में आएगी कि अब तक क्या कमी चली आ रही है गायत्री मंत्र को समझने में और इसकी साधना में ?
फ़िलहाल तो आप यह देखें कि गायत्री मंत्र के जिस अर्थ का हमें दर्शन हुआ है, उसके द्वारा व्याकरण के विद्वानों की आपत्तियां न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाती हैं।
गायत्री मंत्र के व्याकरण पर आपत्ति उचित नहीं है
व्याकरण की दृष्टि से जो न्यूनतम आपत्तियां इस पर आ सकती हैं वे भी निर्मूल हो जाती हैं अगर यह बात सामने रखी जाए कि भाषा की उत्पत्ति और विकास पहले होता है और जब उसका विकास हो चुका होता है तब उसके व्याकरण के नियम निश्चित किए जाते हैं जो कि बाद वालों के एक सुविधा होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि जिन लोगों ने भाषा का विकास किया है वे अशुद्ध भाषा बोला करते थे। हम जिस भाषा को बचपन से बोलते हैं, उसे हम बहुत प्रकार से बोलते हैं। अगर कोई व्यक्ति दूसरी भाषा बोलने वाला आदमी व्याकरण पढ़कर हमारी भाषा में कमियां निकालने लगे तो यही माना जाएगा कि जितना ज्ञान उसे है, वह उसका काम चलाने के लिए पर्याप्त है लेकिन उतने ज्ञान के बल पर वह इसका अधिकारी हरगिज़ नहीं है कि भाषा के विविध रूपों को जानने वालों और उसे अपने दैनिक व्यवहार में लाने वालों की भाषा को वह अशुद्ध घोषित कर दे।
उदाहरण के तौर पर अल्लामा इक़बाल ने हिंदुस्तान की तारीफ़ करते हुए कहा है कि-
अल्लामा इक़बाल को उर्दू पर कितनी ज़्यादा पकड़ थी, यह हम सभी जानते हैं लेकिन कोई कह सकता है कि इस शेर में ‘गुलसितां‘ शब्द ग़लत है जबकि सही शब्द ‘गुलिस्तां‘ है। अगर यह बात मानकर यहां ‘गुलिस्तां‘ शब्द लिख दिया जाए तो यह शेर तुरंत बहर से ख़ारिज हो जाएगा और यह अपना वज़्न खो देगा। उर्दू के शब्दकोष में ‘गुलसितां‘ शब्द लिखा हुआ न मिलेगा लेकिन यह अपना वुजूद रखता है और जहां इसका इस्तेमाल हुआ है, वहां इसका बिल्कुल सही इस्तेमाल हुआ है और शब्दों का ऐसा इस्तेमाल सिर्फ़ वही लोग कर सकते हैं जिन्हें भाषा पर पूरी पकड़ होती है। यही लोग भाषा में नये प्रयोग करते हैं और इस तरह ये उसका विकास करते हैं। गायत्री मंत्र में भी जो शब्द जिस तरह प्रयुक्त हुआ है, वह उसी तरह सही है और अगर उसके साथ छेड़छाड़ की गई तो वह अपनी सुंदरता ही नहीं बल्कि अपना वास्तविक अर्थ ही खो देगा।
यह अन्वय और अर्थ की दृष्टि से बात हुई।
अब हम देखेंगे कि क्या गायत्री छंद में कोई छंदगत अशुद्धि वास्तव में ही मौजूद है या वहां भी कोई ऐसी ही बात है जिसे हम अपने पैमाने पर समझने की कोशिश रहे हैं जबकि हमें कोशिश यह करनी चाहिए कि उसे वेद मंत्रों की रचना करने वालों की दृष्टि से समझा जाए।
...जारी
गायत्री मंत्र रहस्य भाग 1 The mystery of Gayatri Mantra 1
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गायत्री मंत्र के आलोचकों ने जब इसके अनुवादों पर नज़र डाली तो उन्होंने कहा कि -
‘गायत्री मंत्र के स्तवन में जितना समय और श्रम लगाया जाता है, उस का सहस्रांश भी यदि मंत्र की ग़लतियों की ओर ध्यान देने में लगाया जाता तो इस पर बड़ा उपकार होता।
यह मंत्र न केवल छंदगत अशुद्धियों से युक्त है, अपितु संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से भी पूरी तरह अशुद्ध है। गायत्री मंत्र का प्रचलित रूप व्याकरण की दृष्टि से इसलिए अशुद्ध है। मंत्र के शुरू का ‘तत्‘ शब्द नपुंसक लिंग में है और तीसरे पाद का समवर्ती ‘यो‘ पुल्लिंग में है। ‘तत्‘ और ‘यो‘ परस्पर संबद्ध हैं, लेकिन लिंगगत असंगति के कारण इन का परस्पर अन्वय नहीं हो सकता। वाक्यारंभ में नपुंसक लिंग है। अतः या तो उसी के अनुसार ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद् हो या प्रारंभ में नपुंसक ‘तत्‘ को ‘सवितः‘ का विशेषण बनाया जाए अन्यथा गायत्री मंत्र व्याकरणिक अशुद्धियों की गुत्थी मात्र बना रहेगा।‘
इन विद्वानों ने इस समस्या का हल सुझाते हुए कहा है कि -
‘‘व्याकरण के नियमानुसार आदि के ‘तत्‘ को ‘सवितुः‘ का विशेषण बना कर इसे ‘तस्य‘ के रूप में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में ‘यो‘ को ‘भर्ग‘ के साथ अन्वित करना होगा। तब सही मंत्र ऐसे बनेगा- ‘तस्य सवितुः वरेण्यम्, भर्ग देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‘
मंत्रार्थदीपिका ग्रंथ के लेखक शत्रुघ्न ने ऐसा ही पाठ सही माना है (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 13), यह पाठ व्याकरण और छंदशास्त्र की दृष्टि से पूर्णतः शुद्ध है। इस में ‘वरेण्यं‘ को तोड़ मरोड़ कर शुद्ध गायत्री छंद बनाने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि ‘तत्‘ का ‘तस्य‘ हो जाने से प्रथम पाद में सात के स्थान पर आठ वर्ण हो जाते हैं। इस तरह स्वतः ही शुद्ध गायत्री छंद के अनुरूप 24 वर्ण बन जाते हैं।
एक अन्य प्राचीन ग्रंथकार हलायुध ने अपनी कृति ‘ब्राह्मण सर्वस्व‘ में याज्ञवल्क्य को उद्धृत करते हुए लिखा है कि गायत्री मंत्र के शुरू में स्थित शब्द ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ होना चाहिए, क्योंकि ‘तत्‘ का मंत्र के किसी भी शब्द के साथ अन्वय नहीं होता। यदि ‘तत्‘ का ‘तम्‘ कर दिया जाए तो उस का अन्वय भर्ग के साथ हो जाएगा। हलायुद्ध के अनुसार यह पाठ ठीक है- ‘तं सवितुर्वरेण्यम भर्गं देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्.‘ (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 12)‘‘
लेकिन इस समाधान पर भी यह आपत्ति आती है कि-
‘‘इस शुद्ध रूप में भी पूर्वोद्धृत शत्रुघ्नसम्मत पाठ के समान ही दो शब्दों को शुद्ध करना पड़ता है। ‘तत्‘ के स्थान पर ‘तम्‘ और ‘भर्गो‘ के स्थान पर ‘भर्ग‘, लेकिन इसके बावजूद छंद निचृद् गायत्री (अपूर्ण) ही रह जाता है।
डा. विश्वबंधु ने उपरलिखित दोनों वैकल्पिक शुद्ध रूपों के अतिरिक्त एक अन्य रूप उपस्थित किया है। उन्होंने ‘तत्‘ को यथावत् रहने दे कर ‘यो‘ के स्थान पर ‘यद्‘ रखा है। इस संशोधन से शुद्धमंत्र यह रूप धारण करता है ‘तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो यन्नः (यद् नः) प्रचोदयात्. (देखिए- द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम पृष्ठ 14-15). डा. विश्वबंधु सम्मत पाठ स्वीकारने पर मूल मंत्र में एक ही शब्द शुद्ध करना पड़ता है लेकिन छंद फिर भी निचृद गायत्री ही रह जाता है।‘‘
गायत्री मंत्र की यह समीक्षा करने के बाद आलोचक महोदय कहते हैं कि -
‘इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रचलित गायत्री मंत्र न केवल छंद शास्त्र की दृष्टि से लंगड़ा और दोग़ला है, अपितु व्याकरण की दृष्टि से भी अशुद्ध है। यदि वेद ईश्वर की रचना है, यदि गायत्री मंत्र को ईश्वर ने बनाया है तो यह निरक्षर भट्टाचार्य और वज्रमूर्ख साबित होता है। साधारण संस्कृत जानने वाला भी ऐसी ग़लतियां नहीं कर सकता जैसी ईश्वर कही जाने वाली काल्पनिक सत्ता ने की हैं।
इतना सब होने पर भी इस गायत्री मंत्र में किसी अतिमानवीय शक्ति के होने में विश्वास करना, इस से रोग, शोक, पाप दूर होने और मनोकामनाएं पूरी होने का विश्वास रखना, मूर्खों की दुनिया में रहना है।
(डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा अज्ञात, पुस्तकः क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?, पृष्ठ 539-540, प्रकाशकः विश्व विजय प्रा. लि., 12 कनॉट सरकस, नई दिल्ली, फ़ोन 011-23416313 व 011-41517890, ईमेलः mybook.vishvbook.com)
गायत्री मंत्र की आलोचना की समीक्षा
इसमें शक नहीं है कि ‘मंत्रार्थदीपिका‘ ग्रंथ के लेखक शत्रुघ्न उच्चकोटि के विद्वान माने जाते हैं और ‘द गायत्रीः इट्स ग्रैमेटिकल प्रॉब्लम‘ के लेखक डा. विश्वबंधु जी भी वैदिक अध्ययन में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त विद्वान हैं। पंजाब विश्वविद्यालय के एम. ए. संस्कृत पाठ्यक्रम में उनकी पुस्तक ‘वेदसार‘ अनिवार्य पत्र के रूप में पढ़ायी जाती रही है। ख़ुद डा. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात‘ जी भी एक प्रकांड पंडित हैं। सनातन धर्म की सेवा करने के लिए उनके परिवार का एक लंबा इतिहास है।
इनके पांडित्य और इनकी ख्याति के बावजूद हम इनसे यह विनम्र निवेदन करेंगे कि गायत्री मंत्र में अगर कोई दोष नज़र आ रहा है और हम उसके निर्दोष रूप तक नहीं पहुंच पा रहे हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें दोष है बल्कि हक़ीक़त यह है कि जितना ज्ञानाभ्यास और पवित्रता इसकी हक़ीक़त जानने के लिए चाहिए, वह इसके साधकों और आलोचकों दोनों में ही मौजूद नहीं है वर्ना तो इसकी साधना करने वाले इसका जवाब दे देते और तब आलोचना करने वालों के मुंह से इस तरह के अल्फ़ाज़ ही न निकलते।
गायत्री जैसे महान मंत्र के बारे में कुछ कह सकें, हम ख़ुद को इस योग्य बिल्कुल भी नहीं पाते। अगर गायत्री मंत्र का अर्थ हम पर ख़ुद ब ख़ुद प्रकट न होता तो हम शायद यह सब न लिखते और आज तक हमने इसके अर्थ पर कभी कुछ लिखा भी नहीं है। हालांकि हम इसे 30 साल से ज़्यादा अर्से से पढ़ते भी आ रहे हैं और पढ़ने से भी आगे बढ़कर हम इसे जीते भी आ रहे हैं। गायत्री मंत्र हमारे लिए सदैव आकर्षण और अध्ययन का एक महत्वपूर्ण बिंदु रहा है। हमने पाया है कि इसके द्वारा रोग, शोक और पाप दूर होना और मनोकामनाएं पूरी होना एक सच्ची हक़ीक़त है। इससे भी आगे बढ़कर हम यह कहेंगे कि पूरे विश्व की विजय भी इसके द्वारा संभव है और संभव क्या है बल्कि यह तो इसका स्वाभाविक परिणाम है ही। यह कोई अंधश्रृद्धा मात्र नहीं है बल्कि इसे तर्क से समझा जा सकता है और इसे विज्ञान से सिद्ध किया जा सकता है और इतिहास में इसके साधकों को जो कुछ प्राप्त हुआ, उसे देखा जा सकता है। विज्ञान के अनुसार ‘एक निश्चित परिस्थिति में एक काम करने पर जो परिणाम एक बार सामने आता है तो उसी परिस्थिति में वही काम अगर दोबारा किया जाए तो परिणाम भी वही आएगा।‘
गायत्री मंत्र का वैज्ञानिक स्तर पर सत्यापन
आज तर्क और विज्ञान का दौर है। आप गायत्री मंत्र के सत्य को ख़ुद अपने अनुभव द्वारा जान सकते हैं कि वास्तव में ही इसके ज़रिये से ईश्वर वह सब कुछ देता है जिसकी ज़रूरत मनुष्य को होती है और यह अनुभव एक मनुष्य के बारे में जितना सत्य है, उतना ही यह मनुष्यों के एक बड़े समूह के लिए भी सही है और सारी मानव जाति भी इसके ज़रिये से वह सब कुछ पा सकती है जिसकी तलाश में वह सदियों से भटक रही है। ऐसा हो सकता है और ऐसा होगा लेकिन ऐसा केवल तब होगा जबकि यह जान लिया जाए कि गायत्री मंत्र की रचना किस परिस्थिति में हुई और कहां हुई ?
गायत्री मंत्र की साधना का सही स्वरूप वास्तव में क्या है ?
तभी यह बात समझ में आएगी कि अब तक क्या कमी चली आ रही है गायत्री मंत्र को समझने में और इसकी साधना में ?
फ़िलहाल तो आप यह देखें कि गायत्री मंत्र के जिस अर्थ का हमें दर्शन हुआ है, उसके द्वारा व्याकरण के विद्वानों की आपत्तियां न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाती हैं।
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्.
अर्थात हम परमेश्वर के सूर्य के उस वरणीय तेज का ध्यान करें जो हमारी बुद्धियों को प्रेरित करे।गायत्री मंत्र के व्याकरण पर आपत्ति उचित नहीं है
व्याकरण की दृष्टि से जो न्यूनतम आपत्तियां इस पर आ सकती हैं वे भी निर्मूल हो जाती हैं अगर यह बात सामने रखी जाए कि भाषा की उत्पत्ति और विकास पहले होता है और जब उसका विकास हो चुका होता है तब उसके व्याकरण के नियम निश्चित किए जाते हैं जो कि बाद वालों के एक सुविधा होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि जिन लोगों ने भाषा का विकास किया है वे अशुद्ध भाषा बोला करते थे। हम जिस भाषा को बचपन से बोलते हैं, उसे हम बहुत प्रकार से बोलते हैं। अगर कोई व्यक्ति दूसरी भाषा बोलने वाला आदमी व्याकरण पढ़कर हमारी भाषा में कमियां निकालने लगे तो यही माना जाएगा कि जितना ज्ञान उसे है, वह उसका काम चलाने के लिए पर्याप्त है लेकिन उतने ज्ञान के बल पर वह इसका अधिकारी हरगिज़ नहीं है कि भाषा के विविध रूपों को जानने वालों और उसे अपने दैनिक व्यवहार में लाने वालों की भाषा को वह अशुद्ध घोषित कर दे।
उदाहरण के तौर पर अल्लामा इक़बाल ने हिंदुस्तान की तारीफ़ करते हुए कहा है कि-
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसितां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसितां हमारा
अल्लामा इक़बाल को उर्दू पर कितनी ज़्यादा पकड़ थी, यह हम सभी जानते हैं लेकिन कोई कह सकता है कि इस शेर में ‘गुलसितां‘ शब्द ग़लत है जबकि सही शब्द ‘गुलिस्तां‘ है। अगर यह बात मानकर यहां ‘गुलिस्तां‘ शब्द लिख दिया जाए तो यह शेर तुरंत बहर से ख़ारिज हो जाएगा और यह अपना वज़्न खो देगा। उर्दू के शब्दकोष में ‘गुलसितां‘ शब्द लिखा हुआ न मिलेगा लेकिन यह अपना वुजूद रखता है और जहां इसका इस्तेमाल हुआ है, वहां इसका बिल्कुल सही इस्तेमाल हुआ है और शब्दों का ऐसा इस्तेमाल सिर्फ़ वही लोग कर सकते हैं जिन्हें भाषा पर पूरी पकड़ होती है। यही लोग भाषा में नये प्रयोग करते हैं और इस तरह ये उसका विकास करते हैं। गायत्री मंत्र में भी जो शब्द जिस तरह प्रयुक्त हुआ है, वह उसी तरह सही है और अगर उसके साथ छेड़छाड़ की गई तो वह अपनी सुंदरता ही नहीं बल्कि अपना वास्तविक अर्थ ही खो देगा।
यह अन्वय और अर्थ की दृष्टि से बात हुई।
अब हम देखेंगे कि क्या गायत्री छंद में कोई छंदगत अशुद्धि वास्तव में ही मौजूद है या वहां भी कोई ऐसी ही बात है जिसे हम अपने पैमाने पर समझने की कोशिश रहे हैं जबकि हमें कोशिश यह करनी चाहिए कि उसे वेद मंत्रों की रचना करने वालों की दृष्टि से समझा जाए।
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